Monday, April 17, 2017

हनुमानजी से मेरी आमने सामने की मुलाकात (संस्मरण) डा. ज्ञानेन्द्र नाथ श्रीवास्तव / प्रस्तुतकर्ताः डा. राधेश्याम द्विवेदी


हनुमान शब्द दो शब्दों से बना है: हनु= मार दिया है, मान = अहंकार ! अर्थात जिसने अहंकार को मार दिया है वह है हनुमान ! मान अभिमान से परे ऐसे ब्रह्मस्वरूप महात्मा जो वज्रांग हैं अर्थात उनपर किसी भी देहिक , वाचिक और मानसिक आघात का असर नहीं होता है एवं हानि लाभ , सुख -दुख से परे, अनासक्त भाव में स्थित आत्म बली -महासत्व हनुमान को सादर नमन !
यह शायद 1975-77 की बात है मैं एलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पड़ता था और यूनिवर्सिटी के रोविइंग एवं स्विीमिंग क्लब का सदस्य था तथा कीडगँज- बैरहना डेलेगेसी की तरफ़ से यूनिवर्सिटी टूर्नामेंट में पार्टिसिपेट करता था। यूनिवर्सिटी की तीन मध्यम बोट और दो सिंगल कटर यमुना नदी के सरस्वती घाट में रहते थे यूनिवर्सिटी के कोच नेता मल्लाह और उसका बेटा चिरौंजी वहीँ घाट पर रहते थे। मैं मधवापुर  में नरेन्द्र भइया के यहाँ रहता था जो सरस्वती घाट से नज़दीक था और रूटीन में मैं प्रेक्टीस करने जाता था दोनों कोच से अच्छी बनने लगी थी।
मेरी इस सुविधा में कभी कभी लल्ला , नीरज और अनिल( नरेन्द्र भइया का बेटा भी शामिल हो जाते थे।
एक बार शिवरात्रि का दिन था हम चारो घाट से मध्यम बोट लेली। इस बोट में छह रोवर और एक साथ चप्पू चला सकते थे और एक रडारमैन पतवार संभालता था। किंतु अगर रोवेर्स में बैलेंस हो तो रडारमैन के बिना भी काम हो जाता था। आज़ हवा बहुत तेज़ थी और लहरें एक मीटर से ऊँची उठ रहीं थीं। चिरौंजी इस शर्त पर बोट इस्यू की कि हम लोग संगम की ओर नहीं जायेंगे।
हम लोग बोट लेकर पहले गऊघाट की ओर गये और जब चिरौंजी आँख से ओझल होगया तब हमने सबकी इच्छा से बोट को संगम की ओर मोड़ दी। धारा के अनुकूल थे बड़ी जल्दी ही हम लोग संगम पहुँच गये। थोड़ी दूर रुक कर हम लोग वापसी करने लगे थे। अब चिरौंजी की बात हमें समझ आरही थी। धारा के प्रतिकूल हवा टस से मस नहीँ होरही थी, लहरों में बोट का हुड ऊपर उछलता और गिर कर छप से पानी को छू लेता। अभी तक नीरज और अनिल ने चप्पू नहीँ पकडे थे मगर अब चारों ने चप्पू चलाने शुरू कर दिये।बोट ने रफ्तार पकड़ ली। किंतु नीरज और अनिल में बैलेंस नहीँ था इसलिए बोट टेढ़ी मेढीचल रही थी और इसी चक्कर में किले की टूटी हुई दीवार के सामने पहुँच कर हम लोग चक्करदार  धारा के तेज़ बहाव में फँस गये। ऊँची लहरों से पिटकर हमारी बोट का हुड तीन बार बिना अंतराल के पानी में डूबा और उछला ढेर सारा पानी नाव में भर गया हम सब भीग गये। लल्ला को छोड़कर हम सब घबरा गये। मेरी घबराहट का कारण नीरज और अनिल थे जो तैराकी में बहुत ही कच्चे थे।मैने तो बलुआ घाट में पीएसी वालों के  साथ पाँच -पाँच घंटे वाटरपोलो और तैराकी का अभ्यास किया था। लल्ला की स्पीड और स्टेमिना जबरदस्त थे और मुझे भी लंबी तैराकी का अनुभव था, अपने गाँव में मैंने बिना दम लिये यमुना आर -पार तैरी थीं यह शायद 1972 की बात है। इसलिए मुझे अपनी और लल्ला की बिल्कुल भी चिंता नहीं थी किंतु नीरज और अनिल के मैं पूरी तरह रुआँसा होगया था कि अब इनकी जान कैसे बचेगी।
जहाँ हमारी बोट फँसी थी वहीँ किले ढही हुई दीवार में एक आले में छोटी सी हनुमान जी की मूर्ति थी जिसे हम अक्सर देखा करते थे पर कभी नमन भी नहीं करते थे। मैंने उस समय हृदय से और आर्तभाव से बड़े कैजुअल शब्दों में हनुमान जी को पुकारा : अरे ! यार हनुमान जी ! थोड़ी मदद करो बचा लो इन दोनों को।
अभी हमारी बोट बहुत कोशिश के बावजूद पीछे हट रही थी और लहरों में बह रही थी।मेरी पुकार काम कर गई थी और बोट स्थिर होगई थी तभी लल्ला ने कहा हमें पहले बीच की ओर चलकर तेज़ धारा से बाहर निकलना होगा फ़िर किनारे की ओर आयेंगे और सब लोग एक साथ चप्पू चलायेंगे। फ़िर लल्ला ने हुँकारि भरी और हमने एक साथ चप्पू चलाये, बोट एक मीटर आगे बढ़ गई फ़िर तीन चार में हम सुरक्षित जल पर आगये और बोट को किनारे लाने में सफल रहे। हमारे बाहु भर कर शक्तिशून्य हो चुके थे किंतु धीरे धीर चलाते हुये किनारे पहुँच गये। हनुमानजी  से यह मेरी आमने सामने की पहली मुलाकात थी! लल्ला के कौशल और घबडाने की प्रकृति हम लोगों के बहुत काम आती थी।

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