Saturday, July 29, 2017

हरियाली पर्वोत्सव का आयोजन डा. राधेश्याम द्विवेदी

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आगरा । गुरु वशिष्ठ मानव सर्वांगीण विकास सेवा समिति आगरा के तत्वावधान में 30 जुलाई 2017 कों शाम 4 बजे से 7 बजे के मध्य कालिन्दी तीरे आगरा के प्रसिद्ध हाथीघाट के खुले मंच पर विशेष हरियाली पर्वोत्सव व 108 थालियों की महाआरती का कार्यक्रम रखा गया है।  इस समिति के संस्थापक अध्यक्ष पं. अश्विनी कुमार मिश्र यमुना सत्याग्रही ने इस कार्यक्रम की रूपरेखा तथा महत्ता पर प्रकाश डाला है। इसमें जनपद तथा ब्रज क्षेत्र की अनेक सामाजिक कार्य से जुड़ी महिलायें तथा श्रद्धालु परिवारों के भाग लेने की संभावना है। नृत्य श्रृगार राग रागनियों से युक्त यह पर्व एक यादगार प्रभाव डालेगा। इसलिए इस अवसर का लाभ अधिक से अधिक लोगों को उठाना चाहिए। यह पर्व सामान्यतः बरसात या श्रावण मास में ही आयोजित किया जाता हैं इस समय प्रकृति हरे-हरे वनस्पतियों से युक्त हो जाती हैं हरियाली तीज इसका एक प्रमुख पड़ाव होता है और यह पूरे बरसात तक चलता रहता है। प्रधान रुप से यह श्रावण मास में  मनाया जाता है। यह महिलाओं का उत्सव है। सावन में जब सम्पूर्ण प्रकृति हरी चादर से आच्छादित होती है उस अवसर पर महिलाओं के मन मयूर नृत्य करने लगते हैं। वृक्ष की शाखाओं में झूले पड़ जाते हैं।पूर्वी उत्तर प्रदेश में इसे कजली तीज के रूप में मनाते हैं। सुहागन स्त्रियों के लिए यह व्रत काफी मायने रखता है। आस्था, उमंग, सौंदर्य और प्रेम का यह उत्सव शिव-पार्वती के पुनर्मिलन के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। चारों तरफ हरियाली होने के कारण इसे हरियाली तीज भी कहते हैं। इस मौके पर महिलाएं झूला झूलती हैं, लोकगीत गाती हैं और खुशियां मनाती हैं।
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मुख़्य रस्में :- इस उत्सव को हम मेंहदी रस्म भी कह सकते हैं क्योंकि इस दिन महिलाये अपने हाथों, कलाइयों और पैरों आदि पर विभिन्न कलात्मक रीति से मेंहदी रचाती हैं। इसलिए हम इसे मेहंदी पर्व भी कह सकते हैं।इस दिन सुहागिन महिलाएं मेहँदी रचाने के पश्चात् अपने कुल की बुजुर्ग महिलाओं से आशीर्वाद लेना भी एक परम्परा है।
उत्सव में सहभागिता  :- इस उत्सव में कुमारी कन्याओं से लेकर विवाहित युवा और वृद्ध महिलाएं सम्मिलित होती हैं। नव विवाहित युवतियां प्रथम सावन में मायके आकर इस हरियाली तीज में सम्मिलित होने की परम्परा है। हरियाली तीज के दिन सुहागन स्त्रियां हरे रंग का ऋृंगार करती हैं। इसके पीछे धार्मिक कारण के साथ ही वैज्ञानिक कारण भी शामिल है। मेंहदी सुहाग का प्रतीक चिन्ह माना जाता है। इसलिए महिलाएं सुहाग पर्व में मेंहदी जरूर लगाती है। इसकी शीतल तासीर प्रेम और उमंग को संतुलन प्रदान करने का भी काम करती है। ऐसा माना जाता है कि सावन में काम की भावना बढ़ जाती है। मेंहदी इस भावना को नियंत्रित करता है। हरियाली तीज का नियम है कि क्रोध को मन में नहीं आने दें। मेंहदी का औषधीय गुण इसमें महिलाओं की मदद करता है।इस व्रत में सास और बड़े नई दुल्हन को वस्त्र, हरी चूड़ियां, श्रृंगार सामग्री और मिठाइयां भेंट करती हैं। इनका उद्देश्य होता है दुल्हन का श्रृंगार और सुहाग हमेशा बना रहे और वंश की वृद्धि हो।
पौराणिक महत्व :-  कहा जाता है कि इस दिन माता पार्वती सैकड़ों वर्षों की साधना के पश्चात् भगवान् शिव से मिली थीं। माता पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए 107 बार जन्म लिया फिर भी माता को पति के रूप में शिव प्राप्त न हो सके। 108 वीं बार माता पार्वती ने जब जन्म लिया तब श्रावण मास की शुक्ल पक्ष तृतीय को भगवान शिव पति रूप में प्राप्त हो सके। तभी से इस व्रत का प्रारम्भ हुआ। इस अवसर पर जो सुहागिन महिलाएं सोलह श्रृंगार करके शिव -पार्वती की पूजा करती हैं उनका सुहाग लम्बी अवधि तक बना रहता है। साथ ही देवी पार्वती के कहने पर शिव जी ने आशीर्वाद दिया कि जो भी कुंवारी कन्या इस व्रत को रखेगी और शिव पार्वती की पूजा करेगी उनके विवाह में आने वाली बाधाएं दूर होंगी साथ ही योग्य वर की प्राप्ति होगी। सुहागन स्त्रियों को इस व्रत से सौभाग्य की प्राप्ति होगी और लंबे समय तक पति के साथ वैवाहिक जीवन का सुख प्राप्त करेगी। इसलिए कुंवारी और सुहागन दोनों ही इस व्रत का रखती हैं।
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दुनिया के किसी भी मनुष्य या जानवर को स्वस्थ जीवन जीने के लिए एक शुद्ध और शांतिपूर्ण पर्यावरण आवश्यक होता है । पर्यावरण वह है जो प्रकिृतिक रूप से हमारे चारो तरफ है और पृथ्वी पर हमारे दैनिक जीवन को प्रभावित करता है। जो हवा हम हर पल सांस लेते है, पानी जो हम अपनी दिनचर्या में इस्तेमाल करते है, पौधें, जानवर और अन्य जीवित चीजे यह सब पर्यावरण के तहत आता है। अगर प्रकृति के संतुलन में किसी भी प्रकार की रूकावट आती है तो इसका असर हमारे पर्यावरण पे पड़ता है जिसका हमारे जीवन पर गलत असर पड़ता है । आज के युग में हर इंसान अपने निजी स्वार्थ के लिए पर्यावरण के साथ खेल रहा है इसका दुरूपयोग कर रहा है। जल प्रदूषण, धवनि प्रदूषण,पेड़ो को काटना,वायु प्रदूषण और कई तरह के पर्दूषणो से हम अपने वातावरण को दिन पर दिन खराब करते जा रहे है। जिसका असर हमारी आने वाली पीढ़ी को ज्यादा भुक्तना पढ़ेगा। यह पर्व और त्योहार इन असंतुलनों को दूर करने तथा पर्यावरण संतुलन को कायम करने के लिए ही मनाया जाता है। हम लोग संसार के सबसे सुंदर ग्रह पर निवास करते है। यह धरती, जो हरियाली से युक्त है बेहद सुंदर और आकर्षक है। कुदरत हमारी सबसे अच्छी साथी होती है जो हमें धरती पर जीवन जीने के लिये सभी जरुरी संसाधन उपलब्ध कराती है। प्रकृति हमें पीने को पानी, सांस लेने को शुद्ध हवा, पेट के लिये भोजन, रहने के लिये जमीन, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे आदि हमारी बेहतरी के लिये उपलब्ध कराती है। हमें बिना इसके पारिस्थितिक संतुलन को बिगाड़े इसका आनन्द लेना चाहिये। हमें अपने प्राकृतिक परिवेश का ध्यान रखना चाहिये, स्थिर बनाना चाहिये, साफ रखना चाहिये और विनाश से बचाना चाहिये जिससे हम अपनी प्रकृति का हमेशा आनन्द ले सकें। ये हम इंसानों को ईश्वर के द्वारा दिया गया सबसे खूबसूरत उपहार है जिसे नुकसान पहुँचाने के बजाय उसका आनन्द लेना चाहिये। यदि हम स्वयं में सुतुलित तथा आनंदित होंगे तो उसी प्रकार का वातावरण तथा आनन्द की अनुभूति सभी जीव जन्तु व मानव भी महशूस कर सकेंगे। इसलिए इस पर्व की महत्ता को नजरन्दाज नहीं किया जाना चाहिए।


Friday, July 28, 2017

मातृ ऋण सबसे बड़ा ऋण, माँ का ऋण चुकाना कठिन है - डा. राधेश्याम द्विवेदी

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ऋण का अर्थ है ‘‘कर्ज’’ और कर्ज हर मनुष्य को चुकाना पड़ता है। इसका उल्लेख वेद-पुराणों में प्राप्त होता है। हिंदु धर्म-शास्त्रों के अनुसार मनुष्यों पर तीन ऋण माने गए हैं- देव ऋण, ऋषि ऋण एवं पितृ ऋण। इन तीनों में पितृ ऋण सबसे बड़ा ऋण माना गया है। इन ऋणों का प्रभाव जन्म-जन्मांतरों तक मनुष्य का साए की तरह पीछा करता है। 
पैतृक ऋण से पीड़ित जातक को चाहिए कि वह ऋण का ज्ञान होने पर अपने रक्त संबंधियों से उनका भाग अवश्य लें अगर कोई नहीं देता है तो उसका दस गुणा जातक स्वयं मिलाकर ऋण संबंधी उपाय अवश्य करें। जो अपना भाग नहीं देता है वह पैतृक ऋणों से कभी मुक्त नहीं होता और जीवन में उनके दुष्प्रभावों को भोगता है। अतः पैतृक ऋणों का उपाय अवश्य करें तथा अपने-अपने परिवार और वंश की उन्नति करें।पैतृक ऋण से पीड़ित जातक को चाहिए कि वह ऋण का ज्ञान होने पर अपने रक्त संबंधियों से उनका भाग अवश्य लें अगर कोई नहीं देता है तो उसका दस गुणा जातक स्वयं मिलाकर ऋण संबंधी उपाय अवश्य करें। जो अपना भाग नहीं देता है वह पैतृक ऋणों से कभी मुक्त नहीं होता और जीवन में उनके दुष्प्रभावों को भोगता है। अतः पैतृक ऋणों का उपाय अवश्य करें तथा अपने-अपने परिवार और वंश की उन्नति करें।
मनुष्य का सबसे बड़ा ऋण मातृ ऋण होता है। मां को एक आंख से सिर्फ पुत्र दिखाई देता है तो दूसरी आंख से पूरा संसार दिखाई देता है। मातृ ऋण कोई भी नहीं उतार सकता, क्योंकि मां से ही सृष्टि है। मां की सेवा करने से भले ही पुत्र को संतोष हो। लेकिन केवल सेवा मात्र से ऋण नहीं उतारा जा सकता है। बेटा किसी भी हाल में रहे मां उसे हमेशा याद करती है। मां के लिए वहीं छोटा सा बच्चा होता है जो मां के आंचल में सुरक्षित रहता है। मां का तिरस्कार करने वाले कभी भी सुख से जीवन नहीं गुजार सकते। मनुष्य को स्वाभिमानी होना चाहिए, अभिमानी नहीं। राम कथा हर व्यक्ति को सुनना चाहिए। यह जीने की कला सिखाती है।
स्वामी विवेकनन्दजी को किसी युवक ने कहा : महराज ! कहते है की ऐसा तो क्या है माँ का ऋण ?”
विवेकनंद जी : “इस प्रश्न का उत्तर प्रयोगिक चाहते हो ?
हाँ महराज !”
थोड़ी हिम्मत करो , यह जो पत्थर पड़ा है,इसको अपने पेट पर बाँध लो औऱ ऑफिस में काम करने जाओ |शाम को मिलना |”
पेट पर ढाई -तीन किलो का पत्थर बाँध हो और कामकाज करे तो क्या हालात होगी ?आजमाना है तो आजम के देख लेना | नहीं तो मन लो,क्या हालात हटी है |
वह थका -मंदा शाम को लौटा | विवेकानंद जी के पास जाकर बोला :”माँ का ऋण कैसा? इसका जवाब पाने में तो बहुत मुसिबत उठानी पड़ी | अब बताने की कृपा करे की माँ का ऋण केसा होता है ?”
यह पत्थर तुने कब से बाँध है ?”
आज सुबह से |”
एक ही दिन हुआ ,ज्यादा तो नहीं हुआ ना ?”
नहीं|”
तू एक दिन में ही तोबा पुकार गया | जो महीनोमहिनो तेरा बोझ लेकर घूमती थी , उसने कितना सहा होगा ! उसने तो कभी ना नही कहा अब इससे ज्यादा प्रायोगिक क्या बताऊँ तुझे ?”
माँ हर मर्ज की दवा
हमारे हर मर्ज की दवा होती है माँ….
कभी डाँटती है हमें, तो कभी गले लगा लेती है माँ…..
हमारी आँखोँ के आंसू, अपनी आँखोँ मेँ समा लेती है माँ…..
अपने होठोँ की हँसी, हम पर लुटा देती है माँ……
हमारी खुशियोँ मेँ शामिल होकर, अपने गम भुला देती है माँ….
जब भी कभी ठोकर लगे, तो हमें तुरंत याद आती है माँ….


दुनिया की तपिश में, हमें आँचल की शीतल छाया देती है माँ…..
खुद चाहे कितनी थकी हो, हमें देखकर अपनी थकान भूल जाती है माँ….
प्यार भरे हाथोँ से, हमेशा हमारी थकान मिटाती है माँ…..
बात जब भी हो लजीज खाने की, तो हमें याद आती है माँ……
रिश्तों को खूबसूरती से निभाना सिखाती है माँ…….
लब्जोँ मेँ जिसे बयाँ नहीँ किया जा सके ऐसी होती है माँ…….
भगवान भी जिसकी ममता के आगे झुक जाते हैँ

माँ  गंगाजल होती है

मेरी ही यादों में खोई
अक्सर तुम पागल होती हो
माँ तुम गंगा-जल होती हो!
जीवन भर दुःख के पहाड़ पर
तुम पीती आँसू के सागर
फिर भी महकाती फूलों-सा
मन का सूना संवत्सर
जब-जब हम लय गति से भटकें
तब-तब तुम मादल होती हो।
व्रत, उत्सव, मेले की गणना
कभी तुम भूला करती हो
सम्बन्धों की डोर पकड कर
आजीवन झूला करती हो
तुम कार्तिक की धुली चाँदनी से
ज्यादा निर्मल होती हो।
पल-पल जगती-सी आँखों में
मेरी ख़ातिर स्वप्न सजाती
अपनी उमर हमें देने को
मंदिर में घंटियाँ बजाती
जब-जब ये आँखें धुंधलाती
तब-तब तुम काजल होती हो।
हम तो नहीं भगीरथ जैसे
कैसे सिर से कर्ज उतारें
तुम तो ख़ुद ही गंगाजल हो
तुमको हम किस जल से तारें

तुझ पर फूल चढ़ाएँ कैसे
तुम तो स्वयं कमल होती हो।