Saturday, March 31, 2018

पण्डित मोहन प्यारे द्विवेदी की 110वीं जयन्ती पर हार्दिक श्रद्धांजलि व उनके कुछ प्रिय भजन प्रस्तोता डा.राधेश्याम द्विवेदी नवीन



01 अप्रैल 1909 ई. में उत्तर प्रदेश के बस्ती जिला के हर्रैया तहसील के कप्तानगंज विकास खण्ड के दुबौली दूबे नामक गांव मे एक कुलीन परिवार में जन्में पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी मोहन जी अपने पैतृक गांव दुबौली दूबे में एक प्राथमिक विद्यालय खोला था जो चल ना सका तो बाद में पड़ोस के गांव करचोलिया में 1940 ई. में एक दूसरा प्राइमरी  विद्यालय खोलना पड़ा था। जो आज भी चल रहा है। वह 1955 में वह प्रधानाध्यापक पद पर वहीं आसीन हुए थे। इस क्षेत्र में शिक्षा की पहली किरण इसी संस्था के माध्यम से फैला था। वर्ष 1971 में पण्डित जी प्राइमरी विद्यालय करचोलिया से अवकाश ग्रहण कर लिये थे। राजकीय जिम्मेदारियों से मुक्त होने के बाद वह देशाटन व धर्म या़त्रा पर प्रायः चले जाया करते थे। उन्हांेने श्री अयोध्याजी में श्री वेदान्ती जी से दीक्षा ली थी। उन्हें सीतापुर जिले का मिश्रिख तथा नौमिष पीठ बहुत पसन्द आया था। वहां श्री नारदानन्द सरस्वती के सानिध्य में श्री अध्यात्म विद्यापीठ में वह रहकर शिक्षा देने लगे थे।
अपने समय में वह अपने क्षेत्र में प्रायः एक विद्वान के रूप में प्रसिद्व थे। ग्रामीण परिवेश में होते हुए घर व विद्यालय में आश्रम जैसा माहौल था। घर पर सुबह और शाम को दैनिक प्रार्थनायें होती थी। इसमें घड़ी-धण्टाल व शंख भी बजाये जाते थे। दोपहर बाद उनके घर पर भागवत की कथा नियमित होती रहती थी । उनकी बातें बच्चों के अलावा बड़े बूढे भी माना करते थे। वह श्रीकृष्ण जन्माष्टमी वे वड़े धूमधाम से अपने गांव में ही मनाया करते थे। वह गांव वालों को खुश रखने के लिए आल्हा का गायन भी नियमित करवाते रहते थे। रामायण के अभिनय में वे परशुराम का रोल बखूबी निभाते थे। दिनांक 15 अपै्रल 1989 को 80 वर्ष की अवस्था में पण्डित जी ने अपने मातृभूमि में अतिम सासें लेकर परम तत्व में समाहित हो गये थे। आज उनके 110 वीं जयन्ती के अवसर पर उनके आत्मीय, परिवारी तथा आम जन उन्हें सादर स्मरण करते हुए अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
 उनका जीवन स्वाध्याय तथा चिन्तन पूर्ण था। चाहे वह प्राइमरी स्कूल के शिक्षण का काल रहा हो या सेवामुक्त के बाद का जीवन वह नियमित रामायण अथवा श्रीमद्भागवत का अध्ययन किया करते थे। संस्कृत का ज्ञान होने के कारण पंडित जी रामायण तथा श्रीमद्भागवत के प्रकाण्ड विद्वान तथा चिन्तक थे। उनहें श्रीमद्भागवत के सौकड़ो श्लोक कण्ठस्थ थे। इन पर आधारित अनेक हिन्दी की रचनायें भी वह बनाये थे। वह ब्रज तथा अवधी दोनों लोकभाषाओं के न केवल ज्ञाता थे अपितु उस पर अधिकार भी रखते थे। वह श्री सूरदास रचित सूरसागर का अध्ययन व पाठ भी किया करते रहते थे। उनके छन्दों में भक्ति भाव तथा राष्ट्रीयता कूट कूटकर भरी रहती थी। प्राकृतिक चित्रणों का वह मनोहारी वर्णन किया करते थे। वह अपने समय के बड़े सम्मानित आशु कवि भी थे। भक्ति रस से भरे इनके छन्द बड़े ही भाव पूर्ण है। उनकी भाषा में मुदुता छलकती है। कवि सम्मेलनों में भी हिस्सा ले लिया करते थे। अपने अधिकारियों व प्रशंसको को खुश करने के लिए तत्काल दिये ये विषय पर भी वह कविता बनाकर सुना दिया करते थे। उनसे लोग फरमाइस करके कविता सुन लिया करते थे। जहां वह पहुचते थे अत्यधिक चर्चित रहते थे। धीरे धीरे उनके आस पास काफी विशाल समूह इकट्ठा हो जाया करता था। वे समस्या पूर्ति में पूर्ण कुशल व दक्ष थे।

1. मन की तरंग मार लो बस हो गय भजन

मन की तरंग मार लो बस हो गय भजन ।
आदत बुरी सुधार लो बस हो गया भजन ॥
आऐ हो तुम कहाँ से जाओगे तुम जहाँ ।
इतना सा बस विचार लो बस हो गया भजन ॥
कोई तुमहे बुरा कहे तुम सुन करो क्षमा ।
वाणी का स्वर संभार लो बस हो गया भजन ॥
नेकी सबही के साथ में बन जाये तो करो ।
मत सिर बदी का भार लो बस हो गया भजन ॥
कहना है साफ साफ ये सदगुरु कबीर का ।
निज दोष को निहार लो बस हो गया भजन ॥

2. पितु मातु सहायक स्वामी

पितु मातु सहायक स्वामी सखा तुमही एक नाथ हमारे हो.
जिनके कछु और आधार नहीं तिन्ह के तुमही रखवारे हो.
सब भांति सदा सुखदायक हो दुःख दुर्गुण नाशनहारे हो.
प्रतिपाल करो सिगरे जग को अतिशय करुणा उरधारे हो.
भुलिहै हम ही तुमको तुम तो हमरी सुधि नाहिं बिसारे हो.
उपकारन को कछु अंत नही छिन ही छिन जो विस्तारे हो.
महाराज! महा महिमा तुम्हरी समुझे बिरले बुधवारे हो.
शुभ शांति निकेतन प्रेम निधे मनमंदिर के उजियारे हो.
यह जीवन के तुम्ह जीवन हो इन प्राणन के तुम प्यारे हो.
तुम सों प्रभु पाइ प्रताप हरि केहि के अब और सहारे हो.
 
3. तूने रात गँवायी
 
तूने रात गँवायी सोय के दिवस गँवाया खाय के.
हीरा जनम अमोल था कौड़ी बदले जाय रे.
सुमिरन लगन लगाय के मुख से कछु ना बोल रे.
बाहर का पट बंद कर ले अंतर का पट खोल रे.
माला फेरत जुग हुआ गया ना मन का फेर रे. गया ना मन का फेर रे .
हाथ का मनका छँड़ि दे मन का मनका फेर रे .
दुख में सुमिरन सब करें सुख में करे न कोय रे .
जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे को होय रे .
सुख में सुमिरन ना किया दुख में करता याद रे.दुख में करता याद रे .
कहे कबीर उस दास की कौन सुने फ़रियाद .
4. हे गोविन्द राखो शरन 
हे गोविन्द राखो शरन  अब तो जीवन हारे,नीर पिवन हेत गयो सिन्धु के किनारे
सिन्धु बीच बसत ग्राह चरण धरि पछारे, चार प्रहर युद्ध भयो ले गयो मझधारे
नाक कान डूबन लागे कृष्ण को पुकारे, द्वारका मे सबद दयो शोर भयो द्वारे
शन्ख चक्र गदा पद्म गरूड तजि सिधारे, सूर कहे श्याम सुनो शरण हम तिहारे
अबकी बेर पार करो नन्द के दुलारे

5. मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में
जो सुख पाऊँ राम भजन में सो सुख नाहिं अमीरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में
भला बुरा सब का सुन लीजै, कर गुजरान गरीबी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में
आखिर यह तन छार मिलेगा, कहाँ फिरत मग़रूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में
प्रेम नगर में रहनी हमारी, साहिब मिले सबूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में
कहत कबीर सुनो भयी साधो, साहिब मिले सबूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में

6. जीवन का मैंने सौंप दिया
जीवन का मैंने सौंप दिया,सब भार तुम्हारे हाथों में
उद्धार पतन अब मेरा है , सरकार तुम्हारे हाथों में
हम उनको कभी नहीं भजते, वो हमको कभी नहीं तजते
अपकार हमारे हाथों में, उपकार तुम्हारे हाथों में
जीवन का मैंने सौंप दिया, सब भार तुम्हारे हाथों में
हम पतित हैं तुम हो पतित पावन, हम नर हैं तुम नारायण हो
हम हैं संसार के हाथों में, संसार तुम्हारे हाथों में
जीवन का मैंने सौंप दिया ,सब भार तुम्हारे हाथों में

7.यदि नाथ का नाम दयानिधि है
यदि नाथ का नाम दयानिधि है तो दया भी करेंगे कभी न कभी ।
दुखहारी हरीए दुखिया जन केए दुख क्लेश हरेगें कभी न कभी ।
जिस अंग की शोभा सुहावनी है जिस श्यामल रंग में मोहनी है ।
उस रूप सुधा से स्नेहियों केए दृग प्याले भरेगें कभी न कभी ।
जहां गीध निषाद का आदर हैए जहां व्याध अजामिल का घर है ।
वही वेश बनाके उसी घर मेंए हम जा ठहरेगें कभी न कभी ।
करुणानिधि नाम सुनाया जिन्हेंए कर्णामृत पान कराया जिन्हें ।
सरकार अदालत में ये गवाहए सभी गुजरेगें कभी न कभी ।
हम द्वार में आपके आके पड़े मुद्दत से इसी जिद पर हैं अड़े ।
भवसिंधु तरे जो बड़े से बड़ेए तो ये श्बिन्दुश् तरेगें कभी न कभी ।

8.हरि बोल मेरी रसना घड़ी.घड़ी।
व्यर्थ बीताती है क्यों जीवन मुख मन्दिर में पड़ी.पड़ी॥
नित्य निकाल गोविन्द नाम की श्वास.श्वास से लड़ी.लड़ी।
जाग उठे तेरी ध्वनि सुनकर इस काया की कड़ी.कड़ी।
बरसा दे प्रभु नामए सुधा रस ष्बिन्दु से झड़ी.झड़ी॥


रोम रोम में बसनेवाले राम का डा. आम्बेडकर के समर्थकों द्वारा विरोध क्यों - डा. राधेश्याम द्विवेदी



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रामकथा श्रीराम की कहानी है जो आज से हजारों साल पहले त्रेता युग में भगवान विष्णु के अवतार के रूप में  प्रकट हुआ है। संस्कृत भाषा में आदि कवि बाल्मीकि ने इसे मूल रूप से लिखा है। यह कथा ना केवल भारतीय भाषा में अपितु विश्व के हर प्रमुख भाषाओं में लिखा गया है। विश्व साहित्य में रामकथा एक महाकाव्य तथा इतिहास के रूप में अपना विशिष्ट स्थान रखता हैं। तमाम सीमाओं और अंतर्विरोधों के बावजूद तुलसी लोकमानस में रमे हुए कवि हैं। वे गृहस्थ-जीवन और आत्म निवेदन दोनों अनुभव क्षेत्रों के बड़े कवि हैं। तुलसी भक्ति के आवरण में समाज के बारे में सोचते हैं। इनकी साधना केवल धार्मिक उपदेश नहीं है वह लोक से जुड़ी हुई साधना है। रामायण के सातो काण्ड मानव उन्नति के सात सोपान हैं, जिनपर चलकर मानव अपने जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। उसका इहलोक तथा परलोक दोनों ना केवल सुधरता ही है अपितु वह परम पिता में अपना तादात्म्य स्थापित करके अन्त में उन्हीं में विलीन हो जाता है

इस कलिकाल में गोस्वामी तुलसी दास ने इसे आम लोकभाषा में सभी लोगों को अपने लेखनी के माध्यम से वितरित किया था। यद्यपि कलियुग में अनेक दोषारोपणों को रामायण में वर्णित किया गया है और कुछ लोगों के आलोचना का वह भाग भी बन जाता है। परन्तु तुलसीदास जी ने तो समाज के तत्कालीन स्थिति को जैसा देखा और अनुभव किया उसी भाव से वर्णित किया है किसी के मान सम्मान पर आधात पहुचाना उनका कत्तई लक्ष्य नहीं था। जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष और मुक्ति को एक व्यक्ति भक्ति तथा सच्चे समर्पण से प्राप्त कर सकता है। यद्यपि एसा कर पाना कोई आसान सा काम नहीं होता है ,परन्तु रामकथा में रूचि , साधना तथा भक्ति से इस लक्ष्य को आम आदमी आसानी से प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार रामकथा हिन्दू संस्कृति का पर्याय बन गया है। हम बड़े अधिकार के साथ कह सकते हैं कि जहां-जहां हिन्दू हैं वहां रामकथा अवश्यम्भावी रूप से मिलता ही है।




बस्ती के आदि कवि पीताम्बर ब्रह्मभट्ट की काव्य परम्परा डा.सरस कृत : बस्ती के छन्दकार (श्रृंखला11)समीक्षकः डा. राधेश्याम द्विवेदी ‘नवीन’


                                                                          डा.सरस
 250 वर्षों का बस्ती का साहित्यिक इतिहास :- डा. मुनिलाल उपाध्याय सरस जी के मूल शोध ग्रंथ का अवलोकन का सौभाग्य तो मुझे नहीं मिला परन्तु उस ग्रंथ के आधार पर दो खण्डों में प्रकाशित कुछ अंशों के आधार पर बस्ती के साहित्याकाश पर उनके कार्यों पर अपनी सामान्य दृष्टि डालने का मैं कोशिस करुंगा। समय-समय पर उसे आम सुधी साहित्यानुरागियों के समक्ष प्रस्तुत कर कुछ टूटी व छूटी कड़ियों को जोड़ने का प्रयास भी करुंगा। सुविज्ञ विद्वत्वर अन्यथा ना लेकर इस पावन कर्तव्य में सहयोग करने की कृपा करे, तो यह काम और सुगम बन सकता है। उपलब्ध प्रमाणों का अवलोकन करने से यह पता चला कि सरसजी लगभग 250 वर्षों का साहित्यिक इतिहास अपने 5 प्रमुख अध्यायों में समेटने का प्रयास किया है। इसमें लगभग एक शतक कवियों का विवरण एकत्रकर प्रस्तुत किया गया है। प्रथम आदिचरण में 14 द्वितीय मध्य चरण में 11 सुकवियों का सपरिचय काव्यात्मक इतिवृत्त प्रस्तुत किया है। इसे पीताम्बर लछिराम चरण कहा गया है। सरस जी ने इन 14 कवियों के बारे में बहुत ही आधार भूत सूचनायें एकत्र कर अपने प्रवंध में तथा उसके अंश स्वरुप दो लघु आकार के पुस्तकों में प्रकाशित कराकर एक प्रकाश की एक अद्भुत मशाल प्रस्तुत किया है। उन्होंने इसे 56 पृष्ठों में समेटा है। औसतन एक कवि को 4 से 5 पृष्ठों में पर्याप्त विवरण दिया है। कापियों और डायिरियों के धूल फांकते इन साहित्यकारों के इतिवृत्त को सरसजी ने अमर बना दिया है। बस्ती के कवि परम्परा में निम्न लिखित प्रमुख घराने हैं-
1. महुली महसों के ब्रह्मभट्ट घराना
 2. मलौली संतकबीर नगर के चतुर्वेदी परिवार
3.आचार्य लछिराम भट्ट का घराना
4. महाकवि गौरी नाथ शर्मा का घराना
सर्वप्रथम बस्ती के आदि कवि पीताम्बर ब्रह्मभट्ट के वंश परम्परा तथा काव्य उपलब्धियों का वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है।
ब्रह्मभट्ट : ब्राह्मण और क्षत्रिय की विशेषताओं से युक्त  :- ब्रह्मभट्ट ब्राह्मण सभी ब्राह्मणों में बेहतर थे। ब्रह्मभट्ट एक भारतीय उपनाम परंपरागत रूप से ब्राह्मण जाति से संबंधित है। ब्रह्मभट्ट संस्कृत शब्दं ब्रह्म से लिया गया है, जिसका अर्थ है विकसित करने के लिए, वृद्धि और भट्ट जिसका अर्थ है पुजारी और संभवतः दोनों ब्राह्मण और क्षत्रिय की स्थिति का संकेतक है। एक भारतीय सरनेम एक वैदिक  इंडो-आर्यन लोगों का प्रतिनिधित्व करने, पश्चिम भारत और पूरे उत्तर भारत में मुख्य रूप से पाया जा करने के लिए भारत में है। मुख्य रूप से योद्धा ब्राह्मण, इस क्लासिक सामाजिक इकाई जाति व्यवस्था भारत में प्रचलित अनुसार ब्राह्मण के साथ ही क्षत्रिय की विशेषताओं से युक्त है।  उन्हंे मूल रूप से योद्धा ब्राह्मण के रूप में माना जाता है। अधिक से अधिक बार वे वैदिक काल से रईसों और राज्यों में अदालत सलाहकारों किया गया था। सामाजिक पदानुक्रम और रैंकों में, ब्रह्मा भट्ट  ब्रह्मभट्ट कबीले आगे में फैल गया है और जबकि ब्रह्मा भट्ट मूल रूप से एक है।  वे उत्तराखण्ड उत्तर प्रदेश हरियाणा  पंजाब कश्मीर  राजस्थान गुजरात, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक में पाए गए। बाद में वे गुजरात और सौराष्ट्र में राजस्थान में केंद्रित है और अधिक है पाए जाते हैं। पौराणिक खातों के प्रति और हिंदू धर्म के अनुसार के रूप में, इस पहचान एक यज्ञ  यज्ञ ब्रह्मा द्वारा किया जाता से बाहर मानव अवतार के रूप में उभरा है उनकी उपस्थिति, नेपाल, कश्मीर, पंजाब, कन्नौज, मगध, काशी, वर्तमान दिन बंगाल और बांग्लादेश, राजपूताना, मालवा, सौराष्ट्र (सौराष्ट्र), द्वारिका राज्यों में शामिल हैं जबकि यूरोप में अब तक पश्चिम के ऊपर फैल रहा है, मुख्य रूप से कब्जे में वर्तमान पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, तुर्की, ग्रीस, इटली, रोम, फ्रांस और जर्मनी के अलग अलग परिभाषा और पहचान के तहत। ब्रह्मा भट्ट रामायण, पुराण, गीता, बौद्ध धर्म, कुछ वैदिक संदर्भ में संदर्भ, कई धार्मिक ग्रंथों पाते हैं।प्राचीन पौराणिक खातों अनदेखी, कुछ ऐतिहासिक शोध कार्यों का सुझाव है कि यह श्श्रीमद् भगवद् गीताश् में उल्लेख किया है कि राजाओं उस समय के (क्षत्रिय  वारियर्स) की सेवा या उन्हें पूजा करने के क्रम में उनकी बेटी के लिए श्ऋषिश् (ब्राह्मण) प्राप्त करने के लिए इस्तेमाल किया। ब्राह्मण और क्षत्रियों के मिश्रित नस्ल ब्रह्मभट्ट = ब्रह्म (क्षत्रिय)  भट्ट (ब्राह्मण) कहा जाता था। आर्यभट और चाणक्य इसी प्रकार के इतिहास पुरुष थे जो इसी जाति का प्रतिनिधित्व करते थे।
आदिकवि पीताम्बर भट्ट की काव्य परम्परा:-
इस वंश परम्परा में निम्नलिखित प्रमुख कवियों का उल्लेख मिलता है।
1. पीताम्बर भट्ट चैत शुक्ल 11, 1768  विक्रमी  / 1825 AD.      
2. भवानी बक्श कार्तिक शुक्ल 4 , 1789 विक्रमी/ 1846 AD.
3. ब्रहमभट्ट बलदेव ‘बदली’ मार्गशीर्ष पूर्णिमा 1795 वि. /1852 AD.
4. हनुमन्त  पौष कृष्ण 11,  1917  विक्रमी  /   1974 AD.     
1.आदिकवि पीताम्बर भट्ट का परिचय :- पीताम्बर के पूर्वज अनीराम कुमायूं से महसों के सूर्यवंशी राजा के साथा आये थे।उस समय महसो राजधानी नहीं थी अपितु महुली थी। बाद में पीताम्बर की सलाह से तत्कालीन राजा को महसों में किला व राजधानी बनाने का सलाह दिया था। उनके आश्रयदाता का नाम जसवन्त पाल था।पीताम्बर के पितामह खेमचन्द और प्रपितामह अनीराम बहुत प्रभावशाली व सुकवि थे।  उनकी 3 रचनाए मिलती हैं।
1. बीर रस का आदि काव्य जंगनामा- 1305 ई. में कुमायूं आस्कट के राजा बस्ती के महुली में आये थे। अलखदेव ने महुली में अपना राज्य स्थापित करके दुर्ग बनवाया था। महुली पर गोड़ वंश के राजा ने चढ़ाई करके उसके किले को छीनकर तत्कालीन राजा तथा युवराज जसवन्तपाल को बाहर कर दिया था। जसवन्तपाल ने गोड़ राजा को मारकर अपना किला वापस छीन लिया था।इसी युद्ध का वर्णन कवि ने किया है। बाद में कवि की सलाह से जसवन्तपाल ने महसो में किला व राजधानी बनाया था।
महुली गढ़ लंका भयो रावण ह्वौगौ गौड़।
रघुवर हूं जसवन्त ने दियो गर्व को तोड़़।
 2. भक्ति रस का सीता स्वंबर पचीसी जिसमें मनहरण छन्द में राम विवाह का वर्णन किया गया है।
3. फुटकर रचनाओं का गंगावतरण और अन्य रचनायें
2.भवानी बक्श भट्ट का परिचय:- इनका उप नाम बक्श भवानी था। यह राजकवि पीताम्बर के लड़के तथा बल्देव बलदी के अग्रज थे। सभी कवियों में राजश्रयी परम्परा का लक्षण दिखाई पड़ता है।इनका महसों के साथ बस्ती के राजा के यहां भी आना जाना लगा रहता था। एक बार बस्ती राज में सूखा पड़ा था तो बस्ती के राजा के अनुरोध पर इन्होने तीन दिन तक ब्रत के साथ साधना करके इन्द्र देव को प्रसन्न करके वारिस कराया था तब इन्हें राजा ने सोनवर्षा गांव दान में दे दिया था। भवानी बक्श भावना परक श्रृंगार रस के रससिद्ध कवि थे। उनकी कोई कृति तो नहीं मिलती पर उनके छन्द पुराने लोगों के मुखों पर यदा कदा सुनने को मिल जाता है। महसों राज के पुस्तकालय में उनके छन्द मिल जाते हैं। मनहरण छन्द में उन्हें महारथ हासिल थी। भाषा में मार्धर्य व प्रसाद गुण तथा अलंकारों में पटुता देखी जा सकती है।                               
3. ब्रहमभट्ट बलदेव बदली का परिचय:- यह राजकवि पीताम्बर के लड़के तथा भवानी बक्श के अनुज थे। सभी कवियों में राजश्रयी परम्परा का लक्षण दिखाई पड़ता है। यह भी राजा जसवन्त के आश्रयी थे। ये अधिकांशतः फुटकर रचना करते तथा अपने आश्रय दाताओं को सुनाकर उनका मनोविनोद कर इनाम पाया करते थे। उनकी रचनायें उनके वंशज हनुमंत के संकलन में संकलित मिलती है। वे श्रृंगार और नीति के कवि थे। उन्होंने मनहरण, कवित्त, दोहा और सवैया छन्द लिखें हैं। भाषा टकसाली ब्रज तथा फारसी मिश्रित पाया गया है। कथनों में समत्कार अधिक दिखलाई पड़ता है। उनके कुछ दोहे इस प्रकार हैं-
मानी नृप जसवन्त को, बलदी महसों गांव।
कवि कोविद बुध जनन को, देता सुख की छांव।।
सूर्य वंश क्षत्रिय सुभट श्री जसवन्त सुजान।
पालक हैं सद्धर्म को घालक हैं अभिमान।।
आवत हंसता है यहां प्रमुदित ऋतु बसन्त।
मिलत सदा सुख प्रजा को तिय को मिलवत कंत।।
4. हनुमन्त  का परिचय:-  ब्रह्मभट्ट कवि हनुमंत ब्रह्मभट्ट बल्देव के प्रपौत्र थे।  यह लाल टिकोरी तालुकेदार सिसवा गोरखपुर राजा सर्वजीत शाही तमकुही के आश्रयी थे। ये अधिकांशतः फुटकर रचना करते तथा अपने आश्रय दाताओं को सुनाकर उनका मनोविनोद कर इनाम पाया करते थे। रीति परम्परा से सम्बद्ध उनके श्रृंगार परक छन्द मजी मजाई भाषा में सुन्दर बन पड़े है। वे लछिराम के साथ अयोध्या के ददुआ के दरबार में भी कविता पाठ कर चुके है। उनके सौकड़ों फुटकर छन्द महसो राज पुस्तकालय में संग्रहीत थे। गंगा अवतरण का एक छन्द दर्शनीय है----
शंकर जटा तैं कढ़ी अधिक प्रसन्न ह्वौ के
भगीरथ स्तुति से मानस पखरनी हैं।
ताते तीन धार नभ उमड़ि बसी है एक
नाम मंदाकिनी विदित वेद बरनी है।
तीखी ह्वै पधारी परभावती पाताल मांहि
भाखैं हनुमंत भागीरथी नाम धरनी है।
मोटे मोटे पातक बसन काटिबे को जनु
गंगा जी की धारा कलिकाल में कतरनी है।।