Thursday, December 24, 2020

ब्रज रज की महत्ता डा. राधेश्याम द्विवेदी

ब्रज की माँटी को ब्रज रज कहा जाता है। यूं तो माँटी को मिट्टी, बालू, इत्यादि  कहा जाता है परन्तु ब्रज की माँटी को विशेषकर धार्मिक परंपरा के अनुसार ब्रज रज कहते हैं। ब्रज (ब्रज क्षेत्र की माँटी) से लोग तिलक भी लगाते हैं तथा हवन आदि भी ब्रज रज से किए जाते हैं। इसे भगवान कृष्ण की भूमि की माँटी कहते हैं। इसे बहुत ही पवित्र बालू माना गया है। कोशकारों ने ब्रज के तीन अर्थ बतलाये हैं - (गायों का खिरक), मार्ग और वृंद (झुंड) - सामान्यतः व्रज का अर्थ गोष्ठ किया है। गोष्ठ के दो प्रकार हैं - खिरक वह स्थान जहाँ गायें, बैल, बछड़े आदि को बाँधा जाता है। गोचर भूमि- जहाँ गायें चरती हैं। इन सब से भी गायों के स्थान का ही बोध होता है। पौराणिक साहित्य में ब्रज (व्रज) शब्द गोशाला, गो-स्थान, गोचर- भूमि के अर्थों में प्रयुक्त हुआ, अथवा गायों के खिरक (बाड़ा) के अर्थ में आया है।

यं त्वां जनासो भूमि अथसंचरन्ति गाव उष्णमिव व्रजं यविष्ठ। (10 - 4 - 2)

अर्थात- शीत से पीड़ित गायें उष्णता प्राप्ति के लिए इन गोष्ठों में प्रवेश करती हैं।

व्यू व्रजस्य तमसो द्वारोच्छन्तीरव्रञ्छुचय पावका। (4 - 51 - 2)

अर्थात - प्रज्वलित अग्नि व्रज के द्वारों को खोलती है। 

यजुर्वेद में गायों के चरने के स्थान को व्रज और गोशाला को गोष्ठ कहा गया है - व्रजं गच्छ गोष्ठा, शुक्ल यजुर्वेद में सुन्दर सींगो वाली गायों के विचरण-स्थान से व्रज का संकेत मिलता है। अथर्ववे\\\द में एक स्थान पर व्रज स्पष्टतः गोष्ठ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अयं घासों अयं व्रज इह वत्सा निवध्नीय, अर्थात यह घास है और यह व्रज है, जहाँ हम बछड़ी को बाँधते हैं। उसी वेद में एक संपूर्ण सूक्त ही गौशालाओं से संबंधित है।

श्रीमद्भागवत और हरिवंश पुराण में व्रज शब्द का प्रयोग गोप-बस्ती के अर्थ में ही हुआ है, - ृव्रजे वसन् किमकसेन् मधुपर्या च केशवः, तद व्रजस्थानमधिकम् शुभे काननावृतम् । स्कंद पुराण में महर्षि शांडिल्य ने व्रज शब्द का अर्थ व्याप्ति करते हुए उसे व्यापक ब्रह्म का रूप कहा है, किंतु यह, अर्थ व्रज की आध्यात्मिकता से संबंधित है। जो ब्रहम या भगवत नाम सर्वत्र व्याप्त है कण कण में व्याप्त है इस कारण इस भूमण्डल को ब्रज मण्डल कहा गया है। यमुना को विरजा भी कहते हैं। विरजा का क्षेत्र होने से मथुरा मंडल विरजा या व्रज कहा जाने लगा। मथुरा के युद्धोपरांत जब द्वारका नष्ट हो गई, तब श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्र (वज्रनाभ) मथुरा के राजा हुए थे। उनके नाम पर मथुरा मंडल भी वज्र प्रदेश या व्रज प्रदेश कहा जाने लगा।

वेदों से लेकर पुराणों तक ब्रज का संबंध गायों से रहा है। चाहे वह गायों के बाँधने का बाड़ा हो, चाहे गोशाला हो, चाहे गोचर- भूमि हो और चाहे गोप- बस्ती हो। भागवत कार की दृष्टि में गोष्ठ, गोकुल और ब्रज समानार्थक शब्द हैं। भागवत के आधार पर सूरदास आदि कवियों की रचनाओं में भी ब्रज इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। मथुरा और उसका निकटवर्ती भू-भाग प्रागैतिहासिक काल से ही अपने सघन वनों, विस्तृत चरागाहों, सुंदर गोष्ठों ओर दुधारू गायों के लिए प्रसिद्ध रहा है। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म यद्यपि मथुरा में हुआ था, तथापि राजनीतिक कारणों से उन्हें गुप्त रीति से यमुना पार की गोप बस्ती (गोकुल) में भेज दिया गया था। उनका शैशव एवं बाल्यकाल गोपराज नंद और उनकी पत्नी यशोदा के लालन-पालन में बीता था। उनका सान्निध्य गोपों, गोपियों एवं गो-धन के साथ रहा था। वस्तुतः वेदों से लेकर पुराणों तक ब्रज का संबंध अधिकतर गायों से रहा है। चाहे वह गायों के चरने की गोचर भूमि हो चाहे उन्हें बाँधने का खिरक (बाड़ा) हो, चाहे गोशाला हो, और चाहे गोप-बस्ती हो। भागवत्कार की दृष्टि में व्रज, गोष्ठ ओर गोकुल समानार्थक शब्द हैं।

ब्रज के वन-उपवन, कुन्ज-निकुन्ज, श्री यमुना व गिरिराज अत्यन्त मोहक हैं। पक्षियों का मधुर स्वर एकांकी स्थली को मादक एवं मनोहर बनाता है। मोरों की बहुतायत तथा उनकी आवाज से वातावरण गुन्जायमान रहता है। बाल्यकाल से ही भगवान कृष्ण की सुन्दर मोर के प्रति विशेष कृपा तथा उसके पंखों को शीष मुकुट के रूप में धारण करने से स्कन्द वाहन स्वरूप मोर को भक्ति साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। सरकार ने मोर को राष्ट्रीय पक्षी घोषित कर इसे संरक्षण दिया है। ब्रज की महत्ता प्रेरणात्मक, भावनात्मक व रचनात्मक है तथा साहित्य और कलाओं के विकास के लिए यह उपयुक्त स्थली है। संगीत, नृत्य एवं अभिनय ब्रज संस्कृति के प्राण बने हैं। ब्रजभूमि अनेकानेक मठों, मूर्तियों, मन्दिरों, महंतों, महात्माओं और महामनीषियों की महिमा से वन्दनीय है। यहाँ सभी सम्प्रदायों की आराधना स्थली है। ब्रज की रज का माहात्मय भक्तों के लिए सर्वोपरि है।

सन्त गोस्वामी नरायणभट्ट कहते हैं - ‘‘जैसे शास्त्रों में श्रेष्ठ श्रीमद्भागवत श्रीकृष्ण का विग्रह है वैसे ही पृथ्वी लोक में बनों सहित व्रजमण्डल भी श्रीकृष्ण का स्वरुप है।‘‘ श्रीराधामाधव एवं उनके सखा एवं गोपियों की नित्य लीलाओं को जहां आधार प्राप्त हुआ है उस धाम को रसिकों भक्तों ने ब्रजधाम कहा है। ब्रज की महिमा के बारे में कुछ पंक्तियां प्रस्तुत है-

ब्रज रज की महिमा अमर, ब्रज रस की है खान,

ब्रज रज माथे पर चढ़े, ब्रज है स्वर्ग समान।

भोली-भाली राधिका, भोले कृष्ण कुमार,

कुंज गलिन खेलत फिरें, ब्रज रज चरण पखार।

ब्रज की रज चंदन बनी, माटी बनी अबीर,

कृष्ण प्रेम रंग घोल के, लिपटे सब ब्रज वीर।

ब्रज की रज भक्ति बनी, ब्रज है कान्हा रूप,

कण-कण में माधव बसे, कृष्ण समान स्वरूप।

राधा ऐसी बावरी, कृष्ण चरण की आस,

छलिया मन ही ले गयो, अब किस पर विश्वास।

ब्रज की रज मखमल बनी, कृष्ण भक्ति का राग,

गिरिराज की परिक्रमा, कृष्ण चरण अनुराग।

वंशीवट यमुना बहे, राधा संग ब्रजधाम,

कृष्ण नाम की लहरियां, निकले आठों याम।

गोकुल की गलियां भलीं, कृष्ण चरणों की थाप,

अपने माथे पर लगा, धन्य भाग भईं आप।

ब्रज की रज माथे लगा, रटे कन्हाई नाम,

जब शरीर प्राणन तजे मिले, कृष्ण का धाम।

 

 

 

 

 

Tuesday, December 22, 2020

ब्रज में सखी बनने की प्रक्रिया डा. राधेश्याम द्विवेदी

      स्नातन धर्म के वेष्णव सम्प्रदाय में सखी उप सम्प्रदाय निम्बार्क-मतकी एक अवान्तर शाखा है। इस सम्प्रदाय के संस्थापक स्वामी हरिदास थे। हरिदास जी पहले निम्बार्क-मत के अनुयायी थे। इसे हरिदासी सम्प्रदाय भी कहते हैं। इसमें भक्त अपने आपको श्रीकृष्ण की सखी मानकर उसकी उपासना तथा सेवा करते हैं और प्रायः स्त्रियों के भेष में रहकर उन्हीं के आचारों, व्यवहारों आदि का पालन करते हैं। सखी संप्रदाय के साधु विषेश रूप से भारत वर्ष में उत्तर प्रदेश के ब्रजक्षेत्र वृन्दावन, मथुरा, गोवर्धन में निवास करते हैं। कालान्तर में भगवद्धक्ति के गोपीभाव को उन्नत और उपयुक्त साधन मानकर उन्होंने इस स्वतन्त्र सम्प्रदाय की स्थापना की। हरिदास का जन्म समय भाद्रपद अष्टमी, सं0 1441 है। ये स्वभावत विरक्त और भावुक थें। सखी-सम्प्रदाय के अन्तर्गत वेदान्त के किसी विशेष वाद या विचार धारा का प्रतिपादन नहीं हुआ, वरन् सगुण कृष्ण की सखी-भावना से उपासना करना ही उनकी साधना का एक मात्र ध्येय और लक्ष्य है। इसे भक्ति-सम्प्रदाय का एक साधन मार्ग कहना अधिक उपयुक्त होगा।

स्वामी हरिदास जी के द्वारा निकुंजोपासना के रूप में श्यामा-कुंजबिहारी की उपासना-सेवा की पद्धति विकसित हुई, यह बड़ी विलक्षण है। निकुंजोपासना में जो सखी-भाव है, वह गोपी-भाव नहीं है। निकुंज-उपासक प्रभु से अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता, बल्कि उसके समस्त कार्य अपने आराध्य को सुख प्रदान करने हेतु होते हैं। श्री निकुंजविहारी की प्रसन्नता और संतुष्टि उसके लिए सर्वोपरि होती है। यह संप्रदाय जिन भेषा मोरे ठाकुर रीझे सो ही भेष धरूंगी  के आधार पर अपना समस्त जीवन राधा-कृष्ण सरकार को निछावर कर देती है। सखी संप्रदाय के साधु अपने को सोलह सिंगार नख से लेकर चोटी तक अलंकृत करते हैं। सखी संप्रदाय के साधुओं में तिलक लगाने का अलग ही रीति है। सखी संप्रदाय के साधु अपने को सखी के रूप में मानते हैं।

नाभादास जी ने अपने भक्तमाल में कहा है कि- सखी सम्प्रदाय में राधा-कृष्ण की उपासना और आराधना की लीलाओं का अवलोकन साधक सखीभाव से कहता है। सखी सम्प्रदाय में प्रेम की गम्भीरता और निर्मलता दर्शनीय है। स्वामी हरिदास के मत से ज्ञान में भवसागर उतारने की क्षमता नहीं है। प्रेमपूर्वक श्रीकृष्ण की भक्ति से ही मुक्ति मिल सकती है। सखी संप्रदाय किसी वेद-वेदांत के विशेष विचार का या परंपरा का प्रचार नहीं करता बल्कि यह सगुण कृष्ण की उपासना उनकी सखी रूप में करने की विचारधारा को प्रतिपादित करता है। केवल कृष्ण या राम की उपासना ही इस संप्रदाय का उद्देश्य है। इस संप्रदाय के कवियों की रचनाएं ज्ञान की व्यर्थता और प्रेम की महत्ता का प्रतिपादन करती है।

सखीभाव में श्रृंगार की बहुलता होती है। लोग एक पुरुष को स्त्री के वेष में सोलह श्रृंगार कर के कृष्णा की आराधना करते हुए देखते हैं ।पहले हरिदास जी निम्बार्क-मत के अनुयायी थे, किन्तु समय के साथ उनके मन में भागवत की भक्ति से गोपीभाव उत्पन्न हुआ। और वही भाव उन्हें प्रभु की भक्ति का सबसे उपयुक्त भाव लगा, इसलिए उन्होंने एक स्वतंत्र संप्रदाय की स्थापना की। उनके अनुसार, “ किसी भी प्रकार के ज्ञान में जीवन रुपी भवसागर को पार करने की क्षमता नहीं होती, केवल प्रेम ही वो शक्ति है जो इस भवसागर से मुक्ति दे सकती है। इसीलिए हमे अपने अहम(अस्तित्व) को भुला कर प्रभु के प्रेम में डूब कर उनकी स्तुति करनी चाहिए।स्वामी हरिदास के पदों में भी प्रेम को ही प्रधानता दी गयी है। ठाकुरजी को रिझाने के लिए श्रृंगार को अपनाया जाता है।

जिन भेषा मोरे ठाकुर रीझैं, सो ही भेष धरूंगी

ठाकुर जी की पूजा करते हुए यही भाव होता है इन सखियों के मन में। यह सखियाँ भी साधु ही हैं किन्तु अन्य साधुओं के विपरीत यह एक साधारण चोला न ओढ़ कर रंग बिरंगे वस्त्र धारण करतीं हैं। इनके जीवन की सुबह ठाकुर जी के ध्यान से शुरू हो उन्ही के ध्यान पर रात्रि में बदल जाती है। यह अपने पैरों के नख से शीश तक श्रृंगार करतीं हैं और उसका एकमात्र ध्येय है ठाकुर जी को रिझाना। इनके श्रृंगार में विवाहिता की निशानी भी शामिल होती है जैसे सिन्दूर, मंगलसूत्र, पायल, बिछवे और इन सब के अलावा भी लिपस्टिक, साडी- ब्लाउज, काजल, बिंदी आदि भी इनका मुख्य श्रृंगार है। कान्हा को स्वामी और स्वयं को राधा की दासी मानने वाली सखियां उन्हें रिझाने के लिए किसी सुहागिन की तरह ही सोलह श्रृंगार करती हैं। यहाँ तक कि रजस्वला के प्रतीक के रूप में स्वयं को तीन दिवस तक अशुद्ध मानती हैं।

तिलक लगाने का तरीका -

सामान्यतया सभी सम्प्रदायों की पहचान पहले उनके तिलक से होती है, उसके बाद उनके वस्त्रों से। गुरु रामानंदी संप्रदाय के साधु अपने माथे पर लाल तिलक लगाते हैं और कृष्णानन्दी संप्रदाय के साधु सफेद Aतिलक, जो कि राधा नाम की बिंदिया होती है, लगाते हैं और साथ ही तुलसी की माला भी धारण करते हैं।

दीक्षा के बाद ही बनती है सखी -

सखी बनने के लिए एक विशेष प्रक्रिया है जो की आसान नहीं। इस प्रक्रिया के अंतर्गत व्यक्ति पहले साधु ही बनता है, और साधु बनने के लिए गुरु ही माला-झोरी देकर तथा तिलक लगाकर मन्त्र देता है। इस साधु जीवन में जिसके भी मन में सखी भाव उपजा उसे ही गुरु साड़ी और श्रृंगार देकर सखी की दीक्षा देते हैं।

पुरुष साधु द्वारा स़्त्री का रुप-

इस संप्रदाय में कोई स्त्री नहीं, केवल पुरुष साधु ही स्त्री का रूप धारण करके कान्हा को रिझाती हैं। सखी संप्रदाय की भक्ति कोई मनोरंजन नहीं बल्कि इसमें प्रेम की गंभीरता झलकती है, और पुरुषों का यह निर्मल प्रेम इस संप्रदाय को दर्शनीय बनाता है। सखी संप्रदाय की सखियाँ विषेश रूप से भारत वर्ष के उत्तर प्रदेश के ब्रजक्षेत्र वृन्दावन ,मथुरा तथा गोर्बधन में निवास करतीं हैं।

 

 

Monday, December 21, 2020

राम सखा सम्प्रदाय के संस्थापक श्रीमद् रामसखेन्द्र निध्याचार्य जू महराज -- डा. राधेश्याम द्विवेदी

 

जयपुर से प्रारम्भिक प्रयास

हिन्दू संस्कृति विश्व की प्रचीनतम संस्कृति में अपना विशिष्ट स्थान रखती है इसका दर्शन हमारे धार्मिक एवं लौकिक साहित्यों तथा पुरातत्व के विपुल प्रमाणों में प्राप्त होता है। हमारे देश के विद्वान, चिन्तक एवं मनीषी विश्वबंधुत्वएवं बसुधौव कुटुम्बकमकी भावना से ओतप्रोत हो चिन्तन, तपश्चर्या तथा उचित पात्रों में प्रवचन एवं उपदेश देकर इस ज्ञान को अक्षुण्य बनाये रखे हैं। वे आत्मप्रचार तथा व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं रखते थे और प्रायः अपने ज्ञान को दैवी शक्तियों से सम्बद्ध करते हुए जन साधारण में धार्मिक, सामाजिक एवं अध्यात्मिक संतुलन तथा सामंजस्य का प्रयास करते रहते थे। सनातन हिन्दू धर्म मुख्यत पांच संप्रदाय हैं- 1. वैष्णव, 2. शैव, 3. शाक्त, 4 स्मार्त और 5. वैदिक संप्रदाय। वैष्णव संप्रदाय के बहुत से उप संप्रदाय भी हैं- जैसे बैरागी, दास, रामानंद, वल्लभ, निम्बार्क, माध्व, राधावल्लभ, सखी, गौड़ीय आदि।

श्रीमद् सखेंद्र जी महाराज ( निध्याचार्य जी महराज) का जन्म विक्रम संवत के आखिरी चरण चैत्र शुक्ल में राम नवमी को जयपुर में एक सुसंस्कृत गौड़ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्होंने श्री वशिष्ठ मुनि से गुरु दीक्षा प्राप्त की थी। गलिता के आचार्य ने उन्हें रामसखा की उपाधि दी थी। वे दक्षिण के उडीपि (कर्नाटक) गये जहां बड़ी तनमयता से गुरु की सेवा किये थे। उनका निवास नृत्य राघव कुंज के नाम से प्रसिद्व हुआ था । बाद में अयोध्या में इसी नाम से एक मंदिर का निर्माण हुआ था।

उन्होंने जयपुर में रामलीला रिहल्सल में लक्ष्मण जी के रूप में भाग लेते लेते श्री राम से इतना लगाव कर लिए कि वह वास्तव में उनका छोटा भाई होने का विश्वास करने लगे। एक दिन रिहल्सल के दौरान महाराज जी को भगवान राम का किरदार निभाना पड़ा था, परिणाम स्वरूप महाराज जी को भोजन नहीं मिल पाया था। महाराज जी ने पूरे दिन कुछ भी नहीं खाया और रात तक इतना परेशान थे कि वे पास के जंगल में चले गए और एक पेड़ के नीचे बैठ रोते रहे। रामलीला मंडली में युवा बच्चा गायब हो जाने के कारण हर कोई चिंतित था। आधी रात तक जब महाराज जी पेड़ के नीचे रो रहे थे तब राम जी स्वयं स्वादिष्ट भोजन से भरे हाथों में सुनहरे बर्तन लेकर प्रकट हुए। प्रभु की मधुर वाणी सुनकर महाराज जी अभिभूत हो गए। दोनों ने एक-दूसरे को बड़े प्यार से गले लगाया। महाराज जी ने अपनी भूख को शांत किया और दोनों काफी देर तक बातें करते रहे। जिसके बाद भगवान राम अपने साथ लाए सभी सोने के बर्तनों को छोड़कर गायब हो गए।

जयपुर में वापस जब राज्य के राम मंदिर के पुजारियों ने मंदिर का दरवाजा खोला, तो वे सभी सोने के बर्तनों को गायब देखकर हैरान रह गए। बर्तन गायब होने की सूचना जयपुर नरेश तक पहुंची । राजा ने तुरंत लापता संपत्ति और चोर की गहन खोज का आदेश दिया। कुछ लोग जंगल में पहुंचे और देखा कि एक युवा लड़का अपने चारों ओर सोने के बर्तन के साथ पड़ा है। लोगों ने उनसे बर्तनों के बारे में पूछा और महाराज जी ने उन्हें बताया कि राम जी ने उन्हें भोजन कराया, लेकिन बर्तनों को वापस नहीं ले गए। उन्हें लगा कि भगवान राम ने उन्हें अपने छोटे भाई के रूप में स्वीकार कर लिया है।

अयोध्या में आगमन

उक्त घटना के बाद महाराज जी ने घर छोड़ दिया और विराट वैष्णव बन गए। उन्होंने सत्य का मार्ग खोजना शुरू कर दिया। वह अपने गुरु जी के साथ रहे और भगवान और उनके स्नेह को प्राप्त करने का कौशल सीखा। इस समय तक महाराज जी जयपुर में ही थे, लेकिन उनकी जन्मस्थली होने के कारण वे जयपुर छोड़कर अयोध्या पुरी चले गए। अयोध्या में गुरुजी के आवास का नाम नृत्य राघव कुंज के नाम से प्रसिद्व हुआ था। अयोध्या आकर उन्होंने सरयू नदी के तट के अलावा एक पर्णकुटी में भगवान को याद करने के लिए जीवन बिताया। महाराज जी को उन सभी भौतिक चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं थी, जो वे करना चाहते थे, वे अपने भगवान के बारे में अधिक जानते हैं और दुनिया में और कुछ भी उनके लिए मायने नहीं रखता था। जब वह ध्यान और प्रार्थना में व्यस्त थे कुछ और महात्मा उससे प्रभावित हुए उनके वास्तविकता का परीक्षण करना चाहे। वह उनसे बोले यदि भगवान राम अपने धनुष वाण के साथ प्रकट हो तो मानेगे कि महात्मा जी उनके सच्चे सेवक है। महात्माओं के सुनने के बाद महराज जी चुप हो गये और इसका उत्तर नहीं दिये। किन्तु रामजी ने इसे नहीं छोड़ा । इसके कुछ देर के बाद रामजी प्रकट हुए और सिद्व किये महराज जी उनके सच्चे भक्त है। महराज जी के सामने धनुष वाण के साथ लेकर देखने व मुस्कराने को महराज जी के आर्शीबाद को मानने लगे।

चित्रकूट में आगमन

अयोध्या में समय बिताने के बाद, महाराज जी वहां से निकल गए और चित्रकूट चले गए और प्रमोदवन में अपनी प्रार्थना जारी रखी। यहां राम सखा मंदिर और जानकी मंदिर आज भी इस परम्परा का निर्वहन कर रहे हैं। उनके भजनों का प्रभाव जल्द ही पन्ना के तत्कालीन महाराज (राजा) के ध्यान में आया। राजा महाराज जी के दर्शन करने आए और महाराज जी की भक्ति से बहुत प्रभावित हुए। यह भी कहा जाता है कि चित्रकूट में एक बार जब महाराज जी अपनी सुबह की दिनचर्या समाप्त करने के बाद अपने शालिग्राम भगवान की पूजा की तैयारी कर रहे थे, तभी अचानक से मूर्ति नीचे की ओर लुढ़क गई और पास के कुएं में गिर गई। इस कारण महाराज जी बहुत आहत व शोकाकुल हुए। रोते हुए उसने दुःख में निम्नलिखित दोहा का जाप किया

अरे शिकारी निर्दयी, करिया नृपति किशोर ।

क्यों तरसावत दर्शन बिन, राम सचित चित्त ।।

जैसे ही उन्होंने दोहा समाप्त किया, कुएं में पानी का स्तर नाटकीय रूप से बढ़ गया और मूर्ति ने उन्हें पानी पर नृत्य करते हुए देखा, महाराज जी अभिभूत हो गए और उन्होंने भगवान को दोनों हाथों से गले लगाया। इसके बाद महाराज जी खुशी-खुशी अपनी पूजा करने चले गए।

उचेहरा व मैहर का प्रवास

कुछ महात्मा यह भी बताते हैं कि महाराज जी के एक शिष्य उनके साथ रहे, वे लोगों से भिक्षा माँगते थे और ठाकुर जी के लिए भोग भी तैयार करते थे। ठाकुर जी के भोग के बाद, कई महात्माओं के पास प्रसाद था और वे संतुष्ट होकर लौटे। चित्रकूट में रहने के बाद महाराज जी उचेहरा (अब सतना जिला) में गए। लेकिन उन्हें वहाँ बहुत अच्छा नहीं लगा और मैहर चले गए जहाँ नीलमती गंगा के तट पर उन्होंने एक पर्णकुटी में गणेश जी के सामने भजन किया। कम उम्र में रामलीला में शामिल होने के कारण, महाराज जी संगीत के साथ-साथ लेखन कौशल में भी पारंगत थे। उनका लेखन कौशल उनके कई पवित्र लेखन जैसे दोहावली, कवितावली से स्पष्ट होता है। उन्होंने कई पवित्र लेखन जैसे अष्टयाम, स्वाधिष्ठान- प्रतिपादक और नृत्य राघव मिलन भी लिखे जो वास्तव में अभूतपूर्व हैं। उन्होंने द्वैत-भूषण नामक एक संस्कृत लेखन को लिखा था। सुना जाता है कि एक बार एक गायक ने लखनऊ के नवाब को निम्न पंक्तियाँ गाईं-

प्यारे तेरी छबीं वर ।

विश्रामी वंदन कुमार दशरथ के मार जुल्फें कारियों ।।

तीखी सजल लाल अज्जन युत लागत खोलन प्यारियाँ ।।

राम सखे दृग ओटन हमको दो ना पल भर न्यारियाँ।।

उपरोक्त पंक्तियों को सुनने के बाद नवाब बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने गायक से लेखक के बारे में पूछा। उन्होंने उसे महाराज जी के बारे में बताया और यह भी कि वह मैहर में रहता था। उन्होंने नवाब को यह भी बताया कि महाराज जी द्वारा लिखी गई कई अन्य उत्कृष्ट पंक्तियाँ हैं और कई गायक संगीत के कौशल को जानने के लिए उनकी पंक्तियों को गाते हैं। नवाब सूचना से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने महाराज के लिए अपने संदेश के साथ अपना सन्देशवाहक भेजा, जिसमें उनसे नवाब के स्थान पर आने और एक अलग संपत्ति में अपना भजन करने का अनुरोध किया गया, जो उन्हें प्रति वर्ष लगभग 3 लाख की राशि के साथ भेंट की जाएगी। महाराज जी ने नरमी से यह कहते हुए धीरे से मना कर दिया कि उनके पास भगवान राम के साथ कुछ कमी नहीं है। जिस सन्देशवाहक को सुनिश्चित करने के लिए उसने धन की एक झलक दिखाई, उसके लिए भगवान ने आश्चर्य चकित कर दिया था। वह नवाब के पास लौट आया और उसने वह सब देखा जो उसने देखा था।

महाराज जी ने उन्नीसवीं संवत के प्रथम चरण यानी 1842 में मैहर में अमरता प्राप्त की। उनकी समाधि मैहर में ही है। उसे बड़ा अखाड़ा कहा जाता है। यहां राम जानकी मंदिर में आज भी इस पंथ की पुजा पद्वति प्रचलित है। राम सखेन्दु जी महराज के नाम से उनकी ख्याति आज भी विद्यमान है। (संदर्भ: भारतीय संस्कृति के रक्षक संत 51वें क्रम में उल्लखित ) राजस्थान के पुष्कर में राम सखा आश्रम में आज भी इस सम्प्रदाय के लोग पूजा आराधना करते है। अयोध्या, चित्रकूट, पुष्कर और मैहर सबसे प्रमुख स्थान हैं। रीवा, नागोद आदि क्षेत्रों में महाराज जी के शिष्यों की भारी संख्या है। मैहर के पूर्व राजा की पत्नी ने भी दीक्षा प्राप्त की और साधु, महात्माओं के लिए जगह-जगह पर सहायता प्रदान की।

 

Sunday, December 20, 2020

श्री सीताजी की सखियां डा. राधेश्याम द्विवेदी

 अयोध्या में अनेक मंदिर भी राम सखा/राम सखी सम्प्रदाय से अपने को जोड़ रखे है। सनातन धर्म के मुख्यत पांच संप्रदाय माने जा सकते हैं- 1. वैष्णव, 2. शैव, 3. शाक्त, 4 स्मार्त और 5. वैदिक संप्रदाय। वैष्णव संप्रदाय के उप संप्रदाय - वैष्णव के बहुत से उप संप्रदाय हैं- जैसे बैरागी, दास, रामानंद, वल्लभ, निम्बार्क, माध्व, राधावल्लभ, सखी, गौड़ीय आदि।  सखी सम्प्रदाय तो सनातन काल से ही राम सखा राम सखी सीता सखी कृष्ण सखा कृष्ण सखी राधा सखी आदि विविध रुपों में पुराणों व भक्ति साहित्य में पाया जाता है। यहां अष्ट राम तथा अष्ट जानकी जी सखियों के नाम को आत्मसात करती हुई अनेक मंदिरों की संरचना व अराधना हो रही है।

जनकपुर में अष्ट जानकी सखियां

जनकपुर भ्रमण पर निकले श्रीराम-लक्ष्मण को देख अष्ट सखियां एकत्र हो जाती हैं। जनकपुर में सीताजी की सखियों का वर्णन गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस प्रकार व्यक्त किया है। कहती हैं, हे सखी इनकी मनोहारी शोभा देख आंखे टिक नहीं पा रही हैं और किसी से कुछ कहते नहीं बन रहा। हम तीनों श्रेष्ठ देवताओं (ब्रहृमा, विष्णु, महेश) से इनकी तुलना करें तो विष्णु के चार बांह, ब्रहृमाजी के चार मुख और पंचमुख शिव जी के हैं किंतु इनके जैसी छवि किसी देवता में नहीं। तीसरी सखी ने कहा, जानकी के योग्य इससे सुंदर वर और कोई नहीं हो सकता। हे सखी, यदि राजा जनक ने इनको देख लिया तो निश्चय ही वे अपने प्रण का त्यागकर सीता का विवाह इनसे कर देंगे। चौथी सखी कहती है, हे सखी, राजा जनक ने इन्हें पहले ही पहचान लिया है। तभी तो मुनि समेत इनका आदर सम्मान किया है। पांचवी सखी कहती है कि हे सखी, यदि विधाता ने चाहा तो जनक जी को सीता के वर के रूप में यही मिलेंगे। छठी सखी ने कहा, इस विवाह से सबका भला होगा। सातवीं सखी ने कहा, महादेव जी का धनुष बड़ा कठोर है और ये श्यामल किशोर अवस्था के बहुत कोमल हैं। आठवीं सखी कहती है, ये देखने में छोटे हैं किंतु इनका प्रभाव बहुत बड़ा है। जिनके चरण कमल की धूल लगते ही पाप से भरी अहिल्या तर गई उसके आगे शिवजी का धनुष क्या है। सभी सखियां पुष्प वर्षा करती हैं। यह विश्व प्रसिद्ध रामनगर की रामलीला के चौथे दिन सोमवार को पीएसी परिसर के पास जनकपुर में श्रीजनकपुर दर्शन, अष्ट सखी संवाद, फुलवारी आदि प्रसंग पर आधारित लीला के मंचन का दृश्य था।

अयोध्या में सीताजी की सखियां

मंदिर के गर्भगृह के पास ही शयन स्थान है जहां भगवान राम शयन करते हैं। इस कुन्ज के चारों ओर आठ सखियों के कुंज हैं। जिन पर उनके चित्र स्थापित किए गये है । सभी सखियाँ की भिन्न सेवायें हैं जो भगवान के मनोरंजन तथा क्रीड़ा के लिये प्रबन्ध करती थी उनके नाम इस प्रकार है। अयोध्या के कनक भवन में रामजी की सखियों की तरह सीताजी की आठ सखियों का मनोहारी चित्रण मिलता है।इन आठ सखियाँ श्री सीताजी की अष्टसखी कही जाती हैं उनमें श्री चन्द्र कला जी, श्री प्रसाद जी, श्री विमला जी, मदनकला जी, श्री विश्वमोहिनी, श्री उर्मिला जी , श्री चम्पाकला जी, श्री रूपकला जी हैं। इन श्री सीताजी की सखियों को अत्यन्त अन्तरंग कहा जाता है। ये श्री किशोरी जी की अंगजा हैं। ये प्रिया प्रियतम की सख्यता में लवलीन रहती हैं। आनन्द-विभोर की लीलाओं में, मान आदि में तथा उत्सवों में निमग्न रहते हुए दम्पति को विविध प्रकार से सुख प्रदान करती हैं। मान्यता है कि किशोरी जी प्रतिदिन श्रीराम को उनके भक्तों अर्थात भक्तमाल की कथा सुनातीं है। इसी भावना के तहत भक्तमाल की पुस्तक भी रखी रहती है। उर्मिला जी का नाम व चरित्र हिन्दी साहित्य में किसी से छिपा नहीं है। मैथिली शरण गुप्त का साकेत इस का प्रमाण है। अयोध्या में रुपकला कुंज सखी रुपकला को समर्पित है जो गोला घाट में स्थित है।

 

Saturday, December 19, 2020

भारत के प्रमुख सखी सम्प्रदाय डा. राधेश्याम द्विवेदी

 भारतीय हिन्दू संस्कृति विश्व की प्रचीनतम संस्कृति में अपना विशिष्ट स्थान रखती है जिनका दर्शन हमारे धार्मिक एवं लौकिक साहित्यों तथा पुरातत्व के विपुल प्रमाणों में प्राप्त होता है। हमारेे देश के विद्वान, चिन्तक एवं मनीषी विश्वबंधुत्वएवं बसुधौव कुटुम्बकमकी भावना से ओतप्रोत हो चिन्तन, तपश्चर्या तथा उचित पात्रों में प्रवचन एवं उपदेश देकर इस ज्ञान को अक्षुण्य बनाये रखे हैं। वे आत्मप्रचार तथा व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं रखते थे और प्रायः अपने ज्ञान को दैवी शक्तियों से सम्बद्ध करते हुए जन साधारण में धार्मिक, सामाजिक एवं अध्यात्मिक संतुलन तथा सामंजस्य का प्रयास करते रहते थे। वेे सभ्यता संस्कृति तथा इतिहास के पृथक पृथक ग्रंथों की रचना ही नहीं अपितु अपने साहित्यों एवं अभिरुचियों को समय समय पर उद्भासित करते रहे हैं। सनातन हिन्दू धर्म मुख्यत पांच संप्रदाय हैं- 1. वैष्णव, 2. शैव, 3. शाक्त, 4 स्मार्त और 5. वैदिक संप्रदाय। वैष्णव के बहुत से उप संप्रदाय हैं- जैसे बैरागी, दास, रामानंद, वल्लभ, निम्बार्क, माध्व, राधावल्लभ, सखी, गौड़ीय आदि।

मथुरा वृन्दाबन की सखी सम्प्रदाय

सखी-सम्प्रदाय निम्बार्क-मतकी एक अवान्तर शाखा है। इस सम्प्रदाय के संस्थापक स्वामी हरिदास थे। हरिदास जी पहले निम्बार्क-मत के अनुयायी थे, इसे हरिदासी सम्प्रदाय भी कहते हैं। इसमें भक्त अपने आपको श्रीकृष्ण की सखी मानकर उसकी उपासना तथा सेवा करते हैं और प्रायः स्त्रियों के भेष में रहकर उन्हीं के आचारों, व्यवहारों आदि का पालन करते हैं। सखी संप्रदाय के साधु विशेष रूप से भारत वर्ष में उत्तर प्रदेश के ब्रजक्षेत्र वृन्दावन, मथुरा, गोवर्धन में निवास करते हैं। इसी प्रकार अयोध्या प्रयाग काशी तथा चित्रकूट आदि स्थलांे पर भी इनका असर देखा जाता है। कालान्तर में भगवद्धक्ति के गोपीभाव को उन्नत और उपयुक्त साधन मानकर उन्होंने इस स्वतन्त्र सम्प्रदाय की स्थापना की। हरिदास जी, स्वामी आशुधीर देव जी के शिष्य थे। इन्हें देखते ही आशुधीर देवजी जान गये थे कि ये सखी ललिता जी के अवतार हैं तथा राधाष्टमी के दिन भक्ति प्रदायनी श्री राधा जी के मंगलदृमहोत्सव का दर्शन लाभ हेतु ही यहाँ पधारे है। हरिदासजी को रसनिधि सखी का अवतार माना गया है। संत नाभादास जी ने अपने भक्तमाल में कहा है कि- सखी सम्प्रदाय में राधा-कृष्ण की उपासना और आराधना की लीलाओं का अवलोकन साधक सखीभाव से कहता है। सखी सम्प्रदाय में प्रेम की गम्भीरता और निर्मलता दर्शनीय है। स्वामी हरिदास के मत से ज्ञान में भवसागर उतारने की क्षमता नहीं है। प्रेमपूर्वक श्रीकृष्ण की भक्ति से ही मुक्ति मिल सकती है। सखी संप्रदाय किसी वेद-वेदांत के विशेष विचार का या परंपरा का प्रचार नहीं करता बल्कि यह सगुण कृष्ण की उपासना उनकी सखी रूप में करने की विचारधारा को प्रतिपादित करता है। केवल कृष्ण या राम की उपासना ही इस संप्रदाय का उद्देश्य है। इस संप्रदाय के कवियों की रचनाएं ज्ञान की व्यर्थता और प्रेम की महत्ता का प्रतिपादन करती है।

सखीभाव में श्रृंगार की बहुलता होती है। लोग एक पुरुष को स्त्री के वेष में सोलह श्रृंगार कर के कृष्णा की आराधना करते हुए देखते हैं। पहले हरिदास जी निम्बार्क-मत के अनुयायी थे, किन्तु समय के साथ उनके मन में भागवत की भक्ति से गोपीभाव उत्पन्न हुआ। और वही भाव उन्हें प्रभु की भक्ति का सबसे उपयुक्त भाव लगा, इसलिए उन्होंने एक स्वतंत्र संप्रदाय की स्थापना की। उनके अनुसार, “किसी भी प्रकार के ज्ञान में जीवन रुपी भवसागर को पार करने की क्षमता नहीं होती, केवल प्रेम ही वो शक्ति है जो इस भवसागर से मुक्ति दे सकती है। इसीलिए हमे अपने अहम(अस्तित्व) को भुला कर प्रभु के प्रेम में डूब कर उनकी स्तुति करनी चाहिए।स्वामी हरिदास के पदों में भी प्रेम को ही प्रधानता दी गयी है। ठाकुरजी को रिझाने के लिए श्रृंगार को अपनाया जाता है। सामान्यतया सभी सम्प्रदायों की पहचान पहले उनके तिलक से होती है, उसके बाद उनके वस्त्रों से। गुरु रामानंदी संप्रदाय के साधु अपने माथे पर लाल तिलक लगाते हैं और कृष्णानन्दी संप्रदाय के साधु सफेद तिलक, जो कि राधा नाम की बिंदिया होती है, लगाते हैं और साथ ही तुलसी की माला भी धारण करते हैं। सखी सम्प्रदाय भी प्रमुख रुप से दो मागौं का अनुसरण करती हैं। कृष्णानंदी या कृष्णोपासक व रामानन्दी या       रामोपासक । इनका प्रत्यक्ष प्रमाण कृष्ण शाखा में ज्यादा मिलता है परन्तु राम शाखा में भी यह कम नही है।

अयोध्या में एक पृथक राम सखा सम्प्रदाय

18वी संवत से प्रकाश में आया परन्तु सखी सम्प्रदाय तो सनातन काल से ही राम सखा राम सखी सीता सखी कृष्ण सखा कृष्ण सखी राधा सखी आदि विविध रुपों में पुराणों व भक्ति साहित्य में पाया जाता है। राम सखी मंदिर गोला घाट महंथ सिया राम शरण जी हैं। राम सखी मंदिर निकट लक्ष्मन घाट ए राम सखी मंदिर रास कुज आदि इसी पथ के मंदिर हैं। यहां अष्ट राम तथा अष्ट जानकी जी सखियों के नाम को आत्मसात करती हुई अनेक मंदिरों की संरचना व अराधना हो रही है।राम सखा सम्प्रदाय में श्रावण कुंज अयोध्या, नृत्य राघव कुंज अयोध्या, पीताम्बर गाल किशनगढ़, नौ खण्डीय रामसखा आश्रम पुष्कर आदि प्रमुख आश्रम हैं। श्रावण कुंज अयोध्या के नया घाट पर स्थित है। मान्यता के अनुसार गोस्वामी तुलसी दास जी ने यही रामचरित मानस के बालकंाड की रचना की थी। नृत्य राघव कुंज मणिराम छावनी के निकट बासुदेव घाट स्थित है। राम सखा बगिया रानी बाग में एक विस्तृत भूभाग में स्थित है। नृत्य राघव कुंज बासुदेवघाट अयोध्या एक प्राचीन मंदिर है। यह राम सखा सम्प्रदाय का पुराना मंदिर है। सियावर केलि कुंज नागेश्वरनाथ मंदिर के पीछे स्थित है। यह राम सखा सम्प्रदाय का पुराना मंदिर है। चार शिला कुंज जानकी घाट अयोध्या में स्थित है। यह राम सखा सम्प्रदाय का पुराना मंदिर है। राम सखी मंदिर गोला घाट महंथ सिया राम शरण राम सखी मंदिर निकटलक्ष्मन घाट राम सखी मंदिर रास कुज आदि इसी पथ के मंदिर हैं।

अष्ट रामसखा तथा अष्ट जानकीजी सखी 

अष्ट रामसखा तथा अष्ट जानकी जी सखियों के नाम को आत्मसात करती हुई अनेक मंदिरों की संरचना व अराधना हो रही है। कनक भवन अयोध्या का एक महत्वपूर्ण मंदिर है। यह मंदिर सीता और राम के सोने के मुकुट पहने प्रतिमाओं के लिए लोकप्रिय है. मुख्य मंदिर आतंरिक क्षेत्र में फैला हुआ है, जिसमें रामजी का भव्य मंदिर स्थित है। यहां भगवान राम और उनके तीन भाइयों के साथ देवी सीता की सुंदर मूर्तियां स्थापित हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार राम विवाह के पश्चानत् माता कैकई के द्वारा सीता जी को कनक भवन मुंह दिखाई में दिया गया था। जिसे भगवान राम तथा सीता जी ने अपना निज भवन बना लिया। मंदिर के गर्भगृह के पास ही शयन स्थान है जहां भगवान राम शयन करते हैं। इस कुन्ज के चारों ओर आठ सखियों के कुंज हैं। जिन पर उनके चित्र स्थाापित किए गये है । सभी सखियाँ की भिन्न सेवायें हैं जो भगवान के मनोरंजन तथा क्रीड़ा के लिये प्रबन्ध करती थी उनके नाम इस प्रकार है।श्री चारुशीलाजी श्री क्षेमाजी, श्रीहेमाजी, श्रीवरारोहाजी, श्रीलक्ष्मणजी, श्रीसुलोचनाजी, श्रीपद्मगंधाजी तथा श्रीसुभगाजी की भगवान के लिए सेवाएं भिन्न भिन्न है। ये आठों सखियां भगवान राम की सखियाँ कही जाती हैं।

भक्तों में जो अत्यन्त अन्तरंग प्रेमी-सखी-भावना भावित हृदय होते हैं वे कनकभवन के ऊपर बने गुप्त शयनकुन्ज का भी दर्शन करने की इच्छा करते हैं परन्तु यह शयनालय सबको नहीं दिखाया जाता। किन्हीं कारणों से अब यह आम जनता के दर्शनों के लिए बन्द कर दिया गया है। भावना से-इस शयनकुन्ज में नित्य प्रति रात्रि में पुजारी भगवान को शयन कराते हैं। दिव्य वस्त्रालंकारों से सुसज्जित मध्य में सुन्दर शय्या बिछी है। उसमें बीच के कुन्ज में शृंगार सामग्रियाँ रक्खी हैं। उसी कुुन्ज में शय्या पर भगवान शयन करते हैं। इस कुन्ज के चारों ओर आठ सखियों के कुंज हैं। श्री चारुशीलाजी, श्री क्षेमाजी, श्री हेमाजी, श्री वरारोहाजी, श्री लक्ष्मण जी, श्री सुलोचना जी, श्री पद्मगंधाजी, श्री सुभगाजी-इन आठ सखियों के प्राचीन चित्र बने हुए हैं। उन चित्रों की शोभा देखने ही योग्य है। अपनी अपनी सेवा में सभी सखियाँ तत्पर दिखाई देती हैं। सभी सखियाँ की भिन्न-भिन्न सेवाएँ हैं। उस सेवा के रहस्य सभी चित्रों के नीचे दोहों में लिखे हुए हैं।  वे 8 दोहे इस प्रकार हैं-

श्री चारूशीला जी

प्रथम चारुशीला सुभग, गान कला सुप्रबीन।

युगल केलि रचना रसिक, रास रहिस रस लीन।।1।।

अर्थात-श्री चारुशीलजी, युगल सरकार की क्रीड़ा के लिये प्रबन्ध करती हैं। आप गान-कला की आचार्य हैं। अखिल ब्रह्माण्ड के देवी-देवता, जो गानविद्या-प्रिय हैं, गन्धर्व आदि उन सबकी अधिष्ठात्री देवी आप हैं। सृष्टि के वाणी आदि कार्य सब आपके आधीन हैं। आप युगल सरकार के विधान-रचनाविभाग की प्रधानमंत्री हैं।

श्री सुभगा जी

सुभगा  सुभग  शिरोमणि,  सेज  सुहाई  सेव।

सियवल्लभ सुख सुरति, रस, सकल जान सो भेव।।2।।

अर्थात-ये युगल सरकार के वस्त्रादि की सेवा करती हैं तथ अखिल ब्रह्माण्ड में वस्त्रों का प्रबन्ध, स्वच्छता, आरोग्य आदि आपके आधीन हैं। आजकल के हिसाब से आपको युगल सरकार के आरोग्य-विभाग की प्रधानमंत्री कह सकते हैं।

श्री वरारोह जी

सखी  वरारोह  युगल  भोजन  हरषि  जमाय।

प्राण  प्राणनी  प्राणपति,  राखति  प्राण  लगाय।।3।।

अर्थात-ये सरकार की भोजनादि का सब प्रबन्ध करती हैं। अखिल ब्रह्माण्ड में आप विश्व भरणपोषण की अधिष्ठात्री हैं। अन्नपूर्णां अष्टसिद्धि नवोनिधि आदि आपके आधीन है। आपको प्रभु का गृहसचिवकहना चाहिये।

श्री पद्मगंधा जी

सखी  पद्मगंधा  सुभव  भूषण  सेवित  अंग।

सदा  विभूषित  आप  तन,  युगल  माधुरी  रंग।।4।।

अर्थात-श्री पद्मगंधा जी को भूषण आदि की सेवा मिली है। समस्त संसार का धन, कोष, कुबेर आदि आपके आधीन हैं। आप प्रभु की अर्थसचिवहैं।

श्री सुलोचना जी

अलि  सुलोचना  चितवित,  अंजन  तिलक  संसार।

अंगराय  सिय  लाल  कर,  जोवर  लखि  शृंगार।।5।।

अर्थात-श्री सुलोचना जी प्रभु का अंजन, तिलक सब शृंगार सुचारू रूप से सजाती हैं। चंदनादि अंगराग की सेवा करती हैं। इधर वे ही विश्व की शंृगार सामग्रियों की प्रबन्धकत्र्री हैं। यह प्रभु की प्रबन्धमंत्रीकही जाती हैं।

श्री हेमा जी

हेमा  करि  बीरी  सादा,  हंसि  दम्पति  सुख  देत।

सम्पति  राग  सुराग  की,  बड़भागिनी  उर  हेत।।6।।

अर्थात-कनकभवन में ताम्बूल की सेवा तथा अन्तरंग सेवाएँ भी आपके अधीन हैं। इधर जगत में आप शंृगाररस की उपासिकाओं की रक्षा भी करती हैं। महिलाओं के सौभाग्य की चाबी आपके ही आधीन हैं। आप प्रभु की उत्सव-सचिवहैं।

श्री क्षेमा जी

क्षेमा  समस  स्नान  सम,  वसन  विचित्र  बनाय।

सुरुचि सुहावनि सुखद ऋतु, पिय प्यारी पहिराय।।7।।

अर्थात-श्री कनकभवन सरकार को स्नान कराना, ऋतु के अनुसार जल-विहार, उबटन आदि की सेवा करती हैं। इधर ब्रह्माण्ड का समस्त जलतत्व आपके आधीन रहता है। इन्द्र-वरुण आपके आधीन हैं। आप प्रभु की जल-सचिवहैं।

श्री लक्ष्मणा जी

लक्ष्मण  मन  लक्ष  गुण  पुष्प  विभूषण  साज।

विहंसि बिहंसि पहिरावतीं, सियवल्लभ महाराज।।8।।

अर्थात-कनकभवनमें नित्य धाम में यह प्रिया प्रियतम की फूलमाला पुष्पभूषण की सेवा करती हैं और जगत् में समस्त वन-उपवन, पशु, पक्षी आपकी रक्षा में रहते हैं। सूर्य चन्द्र आपके आधीन हैं। आप प्रभु की वनस्पति एवं कला-सचिवकही गयी हैं।

इस प्रकार इन आठों सखियों की जो महिमा जानकर इनकी उपासना करता है वह समस्त वांछित सिद्धियों को प्राप्त करता है।

श्री सीताजी की सखियां

इनके अतिरिक्त आठ सखियाँ और हैं जो श्री सीताजी की अष्टसखी कही जाती हैं उनमें श्री चन्द्र कला जी, श्री प्रसादजी, श्री विमलाजी, मदन कला जी, श्री विश्व मोहिनी, श्री उर्मिला, श्री चम्पाकला, श्री रूपकला जी हैं। इन श्री सीताजी की सखियों को अत्यन्त अन्तरंग कहा जाता है। ये श्री किशोरी जी की अंगजा हैं। ये प्रिया प्रियतम की सख्यता में लवलीन रहती हैं। आनन्द-विभोर की लीलाओं में, मान आदि में तथा उत्सवों में निमग्न रहते हुए दम्पति को विविध प्रकार से सुख प्रदान करती हैं। मान्यता है कि किशोरी जी प्रतिदिन श्रीराम को उनके भक्तों अर्थात भक्तमाल की कथा सुनातीं है। इसी भावना के तहत भक्तमाल की पुस्तक भी रखी रहती है।

रंगमहल

अयोध्या के रामकोट मोहल्ले में राम जन्म भूमि के निकट भव्य रंग महल मन्दिर स्थित है. ऐसा माना जाता है कि जब सीता माँ विवाहोपरांत अयोध्या की धरती पर आयीं. तब कौशल्या माँ को सीता माँ का  स्वरुप इतना अच्छा लगा कि उन्होंने रंग महल सीता जी को मुँह दिखाई में दिया. विवाह के बाद भगवान श्री राम कुछ 4 महीने इसी स्थान पर रहे. और यहाँ सब लोगों ने मिलकर होली खेली थी.तभी से इस स्थान का नाम रंगमहल हुआ. सखी सम्प्रदाय का मंदिर होने से इस स्थान का महत्व अत्यंत वृहद हो जाता है और दर्शनीय हो जाता है यहाँ नित्य भगवान राम को शयन करते समय पुजारी सखी का रूप धारण करती हैं, भगवान को सुलाने के लिए ये सखियाँ लोरी सुनाती हैं, और उनके साथ रास करती हैं।