Monday, December 23, 2019

(किसान दिवस के अवसर पर) किसानों की दशा दुदर्शा डा. राधेश्याम द्विवेदी


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भारत एक कृषि प्रधान देश हैं जहां कि जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा खेती-किसानी के काम में मशगूल रहता है। किसान जब खेत में मेहनत करके अनाज पैदा करते हैं तभी वह हमारी थालियों तक पहुंच पाता है। ऐसे में किसानों का सम्मान करना बेहद जरूरी है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए 23 दिसंबर को किसान दिवस के तौर पर मनाया जाता है। आज ही भारत के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का जन्मदिन भी है। जो किसानों के हितैषी थे और उनके सम्मान में ही आज के दिन को किसान दिवस के रूप में मनाया जाता है। उन्हें किसानों के मसीहा के तौर पर भी जाना जाता है।चौधरी चरण सिंह भारत के पांचवे प्रधानमंत्री थे। वह 28 जुलाई 1979 से 14 जनवरी 1980 तक भारत के प्रधानमंत्री पद पर रहे थे। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के हापुड़ जिले में 23 दिसंबर 1902 को हुआ था। अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल के दौरान उन्होंने किसानों की दशा सुधारने के लिए कई नीतियां बनाईं।किसानों के प्रति उनका प्रेम इसलिए भी था क्योंकि चौधरी चरण सिंह खुद एक किसान परिवार से ताल्लुक रखते थे और वह उनकी समस्याओं को अच्छी तरह से समझते थे। राजनेता होने के साथ ही पूर्व प्रधानमंत्री एक अच्छे लेखक भी थे। उनकी अंग्रेजी पर अच्छी पकड़ थी। लेखक के तौर पर उन्होंने एबॉलिशन ऑफ जमींदारी, इंडियाज पॉवर्टी एंड इट्ज सॉल्यूशंस और लीजेंड प्रोपराइटरशिप जैसी किताबें लिखी हैं।
भारत एक कृषि प्रधान देश है। साठ से ज्यादा प्रतिशत आबादी इसी पर निर्भर है। सभी सरकारें खेती और किसानी के उन्नयन और विकास की डींगे हाकते हैं। पर वास्तविक धरातल पर यदि उसको कार्यान्वित किया जा सके तो आज हिन्दुस्तान की तस्बीर ही कुछ अलग दिखाई देती। हमारे यहां खेती को वाकई पुनर्जीवन मिल जाता। जो खेती इस समय मजबूरी का कार्य बन चुकी है, जिसे करने वाले अन्य पेशों से अपने को हीनतर मानने की स्वाभाविक मानसिकता में जीते हैं, और अन्य पेशों के लोग भी किसानी को हेय दृष्टि से देखते हैं वह स्थिति आसानी से बदली जा सकती है।राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त ने किसानों की दुदर्शा को देखकर अपनी पीड़ा इस प्रकार व्यक्त की है-
हो जाए अच्छी फसल पर लाभ कृषकों को कहां,
खाते खवाई बीज ऋण से है रंगे रक्खे जहां।।
सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) ने दिसंबर 2013 से जनवरी 2014 के बीच देश के 18 राज्यों में किसानों के बीच एक सर्वेक्षण कराया था. इस सर्वेक्षण में देश के 61 फीसदी किसानों ने माना कि अगर उन्हें शहरों में अच्छी नौकरी मिले तो वे खेतीबाड़ी छोड़ देंगे. सर्वेक्षण में शामिल एक तिहाई किसानों ने कहा किअपनी जरूरतें पूरी करने के लिए उन्हें खेती से इतर भी कमाई करनी पड़ती है. अब सवाल उठता है कि आखिर किसानों की ऐसी क्या समस्याएं हैं जिन्हें सरकार निपटाना तो दूर समझने में ही असफल साबित हो रही है.
1.सबसे बड़ी समस्या जमीन की :-
किसानों की एक बड़ी समस्या है जमीन. साल 2015 में आई विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत की तकरीबन 60.3 फीसदी भूमि कृषि योग्य है. भारत के वाणिज्य व उद्योग मंत्रालय द्वारा बनाए गए ट्रस्ट इंडिया ब्रांड इक्विटी फाउंडेशन की रिपोर्ट भी यही कहती है कि भारत के पास अमेरिका के बाद दुनिया की दूसरी सबसे अधिक कृषि योग्य भूमि है. हालांकि सच्चाई यह है कि जमीनी स्तर पर आज भी देश उत्पादन के मामले में पिछड़ा हुआ है. संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन ने साल 2013 में एक रिपोर्ट में कहा था कि भारत की 44 हेक्टेयर जमीन पर 10.619 करोड़ टन चावल की पैदावार की गई. मतलब प्रति हेक्टेयर 2.4 टन. जो उत्पादन श्रेणी में भारत को दुनिया के 47 देशों की सूची में 27वें स्थान पर रखता है.
2.बीज, खाद, उर्वरक की समस्या:-
दूसरा स्थान आता है बीजों का. अच्छी उत्पादकता के लिए उच्च गुणवत्ता वाले बीजों की दरकार होती है. लेकिन अपनी कीमतों के चलते अच्छे बीज सीमांत और छोटे किसानों की पहुंच से बाहर हैं. इसी समस्या से निपटने के लिए कृषि मंत्रालय के अधीन साल 1963 में राष्ट्रीय बीज निगम का गठन किया गया. साथ ही 13 राज्यों में बीज निगम स्थापित किए गए ताकि किसानों की जरूरतों को पूरा किया जा सके. लेकिन अब तक किसानों को अच्छे बीजों के लिए दर-दर भटकना पड़ता है. तीसरी समस्या है, खाद, उर्वरकों और कीटनाशकों की उपलब्धता. देश में कई दशकों से खेती की जा रही है. जिसके चलते अब एक बड़ा क्षेत्र अपनी उर्वरता खो रहा है. इस स्थिति में गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए खाद और उर्वरक का इस्तेमाल ही एकमात्र विकल्प बचता है. फसल को कीटों से बचाने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल भी अब किसानों के लिए जरूरी हो गया है. इन बढ़ती जरूरतों ने किसान का मुनाफा घटाया है. कई बार उपजाऊ जमीन के बड़े इलाकों पर हवा और पानी के चलते मिट्टी का क्षरण होता है. इसके चलते मिट्टी अपनी मूल क्षमता खो देती है और इसका असर पैदावार पर पड़ता है.
3.न्यूनतम सर्मथन मूल्य उचित नहीं मिलता :-
फसलों पर मिलने वाला न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) भी किसानों के लिए गले की हड्डी बन गया हैं. किसानों की शिकायत है कि उन्हें अपनी फसल का सही मूल्य नहीं मिलता. हाल में सरकार ने घोषणा की थी कि अधिसूचित फसलों के लिए सरकार किसानों को उनकी फसल की लागत का कम से कम डेढ़ गुना मूल्य देगी. लेकिन किसान इससे संतुष्ट नहीं है, वे मानते हैं कि ईंधन के बढ़ते दामों के बीच एमएसपी को बढ़ाए जाने से किसानों को कोई खास फायदा नहीं होगा. एमएसपी को लेकर अर्थशास्त्री यह भी तर्क यह भी देते हैं कि अगर एमएसपी को बढ़ाया जाएगा तो देश में मुद्रास्फीति बढ़ेगी.
4. अन्यानेक समस्यायें :-
इन समस्याओं के अलावा किसानों की बाजार तक सीमित पहुंच, बिचैलियों की भूमिका, अपर्याप्त भंडारण सुविधा और कृषि में पूंजी की कमी ने उनकी स्थिति को और भी खराब कर दिया है. आज बेशक किसानों को कर्ज देने के लिए कई सरकारी संस्थाएं सामने आ गईं हैं, लेकिन अब भी यह ऋण प्रक्रिया किसानों को आसान व सरल नहीं लगती. जिसके चलते किसान आज भी बैंकों से कर्ज लेने से कतराते हैं और निजी कर्ज को तरजीह देते हैं. जब तक सरकारें इन मुद्दों पर ठोस तरीके से नहीं सोचेंगी, किसानों की किस्मत नहीं बदलेगी.
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किसान की दशा और दुदर्शा को सुधारने के किये गये उपाय :-
किसान की दशा और दुदर्शा को लेकर कुछ समय तक राष्ट्रीय अभियान की तरह खेती को सर्वोपरि बनाने संबंधी सरकारी भूमिका और उसके अनुरूप कुछ कदमों की जरूरत है।1956 में संसद में एक अधिनियम पास करके खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग की स्थापना की गयी थी। चीनी उद्योग में तकनीकी कुशलता के सुधार हेतु इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ शुगर टेक्नोलॉजी की स्थापना कानपुर में की गयी है । चीन के बाद भारत विश्व में प्राकृतिक रेशम का दूसरा बड़ा उत्पादक राष्ट्र है । भारत में प्रथम रेशम उत्पादक राज्य कर्नाटक है। हीरापुर में पीग आयरन का उत्पादन होता है ,जिसे स्टील के उत्पादन हेतु कुल्टी भेजा जाता है । भारत में किसान क्रेडिट कार्ड योजना का प्रारंभ 1998 -1999 में किया गया था। राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन 2004 में एम.एस .स्वामीनाथन की अध्यक्षता में किया गया था । इसका मुख्यालय नई दिल्ली में स्थापित किया गया है।
कृषक परिसंघ का भी गठन हो :-
राष्ट्रीय कृषि लागत मूल्य निर्धारण आयोग है, जो कि किसानों की पैदावार का मूल्य तय करता है। खेती को राज्यों का विषय बना दिए जाने के कारण वैसे भी ज्यादा जिम्मेवारी राज्यों की आ जाती है। वास्तव में खेती और किसानों की समस्याओं और आवश्यकताओं पर समग्रता में विचार करने के लिए किसी ढांचागत संस्था के न होने से बड़ी शोचनीय स्थिति पैदा हुई है। किसान आयोग उसमें उम्मीद की किरण बनकर आ सकता है। खेती का योगदान हमारी समूची अर्थव्यवस्था में भले चैदह-पंद्रह प्रतिशत रह गया हो, लेकिन आज भी हमारी आबादी के साठ प्रतिशत से ज्यादा लोगों का जीवन उसी पर निर्भर हैं। चाहे वे सीधे खेती करते हों या खेती से जुड़ी अन्य गतिविधियों में लगे हों। भारतीय अर्थव्यवस्था को इसीलिए तो असंतुलित अर्थव्यवस्था कहते हैं जिसमें उद्योग तथा सेवा क्षेत्र का योगदान पचासी प्रतिशत के आसपास है लेकिन इस पर निर्भर रहने वालों की संख्या चालीस प्रतिशत से कम होगी। अगर भारत की अर्थव्यवस्था को संतुलित करना है तो फिर खेती को प्राथमिकता में लाना होगा और जो काम पहले न हो सका या आरंभ करके फिर रोक दिया गया उन सबको वर्तमान परिप्रेक्ष्य में करने या फिर से आरंभ करने की आवश्यकता है।
किसान आयोग का गठन हो :-
राष्ट्रीय किसान आयोग उनमें सर्वप्रमुख माना जा सकता है। आरंभ में किसान संगठनों ने जो प्रस्ताव देश के सामने रखा था उसमें कहा गया था कि खेती-बाड़ी को फायदेमंद बनाने तथा युवाओं को इस क्षेत्र में आकर्षित करने के लिए राष्ट्रीय किसान विकास आयोग बनाया जाना चाहिए। आयोग अकेली संस्था हो जिसमें सारी अन्य संबंधित संस्थाओं को समाहित कर दिया जाए। मसलन, कृषि लागत और मूल्य आयोग तथा लघु कृषक कृषि व्यापार संघ का इसमें या तो विलय कर दिया जाए या फिर उनके मातहत बना दिया जाए। कारण, ये दोनों संस्थाएं किसानों की पैदावार के लागत मूल्य के मूल्यांकन तथा उचित मूल्य दिलवाने में सफल नहीं रही हैं। यह भी कहना उचित होगा कि देश के सभी किसान संगठनों को मिलाकर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में भारतीय कृषक परिसंघका भी गठन किया जाए जिसमें सभी राज्यों के मुख्यमंत्री और कृषिमंत्री रहें। भाजपा ने अपने घोषणापत्र में वायदा किया हुआ है कि वह एमएस स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप किसान को कृषि उपज की लागत पर पचास प्रतिशत लाभ दिलाना सुनिश्चित करेगी। हम जानते हैं कि अभी तक किसानों को उनकी उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य ही मिलता है। लाभ या मुनाफा शब्द का कहीं प्रयोग नहीं है। लेकिन यह कैसे होगा? यहीं किसान आयोग की भूमिका शुरू होती है। वह अपने अनुसार पैदावार की लागत तय करेगा फिर उसके आधार पर मुनाफा का निर्धारण हो सकेगा। इस समय किसानों की लागत आंकने के जो तरीके हैं उनमें जमीन का किराया, बीज से लेकर उपज तक के खर्च तथा परिवार के श्रम का भी एक मोटामोटी आकलन किया जाता है, जिसमें मुनाफा होता ही नहीं। किसानों की पैदावार के मूल्य जितने बढ़ते हैं, खाद्यान्न महंगाई भी उसी तुलना में बढ़ती है जो कि सरकारों के लिए सिरदर्द भी साबित होती है। मगर इस महंगाई की कीमत किसानों की जेब में नहीं जाती, यह भी सच है। कम से कम आयोग इस बात का तो खयाल रखेगा कि जो मूल्य बाजार में हैं उनका उचित आनुपातिक हिस्सा किसानों को मिले। किसान आयोग का कार्य केवल मूल्य तय करना नहीं होगा। यह उसके कार्य का एक प्रमुख हिस्सा अवश्य होगा। आखिर कृषि उत्पादनों के बाजार का नियमन राज्य सरकारों के पास है और इसके लिए हर राज्य का एक कृषि उत्पाद विपणन समिति कानून (एपीएमसी एक्ट) है। कोई भी राज्य सरकार इसमें बदलाव लाकर संगठित व्यापारियों की नाराजगी मोल लेना नहीं चाहती। कम से कम आयोग तो ऐसे दबावों से मुक्त होकर काम कर सकेगा। भारतीय खेती इस समय एक साथ कई संकटों और चुनौतियों का सामना कर रही है।
आज के समय बीज तक के लिए किसान बड़ी कंपनियों पर निर्भर हैं। उर्वरक तो खैर उनके हाथ में था ही नहीं। इनके मूल्य कंपनियां तय करती हैं। अगर किसान आयोग होगा तो इस पर अध्ययन करके उसके अनुसार जो कदम उसके दायरे में होगा वह उठाएगा और जो केंद्र और राज्य सरकारों के बस में होगा उसके लिए सिफारिशें करेगा। आयोग को केवल सिफारिशी संस्था बन कर नहीं रहना है। उसे वास्तविक अधिकार भी मिले। भारतीय किसान संघ ने मांग की कि इसे संवैधानिक दर्जा दिया जाए। प्रदेश में आयोग ने अपने चार वर्ष तीन माह के कार्यकाल में सात प्रतिवेदन राज्य सरकार को सौंपे। इनमें 811 अनुशंसाएं की र्गइं, जिनमें कुछ पर ही काम हुए। वस्तुत किसान आयोग केवल सिफारिशी संस्था होगा तो उससे ज्यादा-कुछ हासिल नहीं हो सकता। उसे शक्तियां भी देनी होंगी, अन्यथा इसकी भूमिका कार्यशाला आयोजित करने, भाषण करने-करवाने, किसानों से संवाद करने तथा सुझाव देने तक सीमित रह जाएगी। राष्ट्रीय किसान आयोग के लक्ष्य बिल्कुल साफ होने चाहिए। सबसे पहले खेती को कैसे लाभ का पेशा बनाया जाए तथा पढ़े-लिखे लोग भी इसमें आएं इस पर उसे ध्यान केंद्रित करना होगा। दूसरे, किसानों का जीवन-स्तर ऊंचा उठे, उनके परिवार को खेती से कैसे व्यवस्थित जीवन जीने का आधार मिले इस पर काम होगा। कुल मिलाकर खेती को विकसित करने की नीतियों, कार्यक्रमों, उपायों की दिशा में वह किसानों के साथ मिलकर और सरकारों के साथ सामंजस्य स्थापित करके काम करे। ऐसा होता है तो निश्चय मानिए राष्ट्रीय किसान आयोग कृषि क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन का वाहक बन जाएगा।                                               
समर्थन मूल्य लागत से कम :-     
राष्ट्रीय किसान आयोग की रिपोर्ट में स्पष्ट है कि समर्थन मूल्य खेती की लागत से कम होता है, इस कारण खेती घाटे का सौदा बन गई है और देश के 40 प्रतिशत किसान अब खेती छोड़ने को बाध्य हो रहे हैं। गौरतलब है कि 1925 में 10 ग्राम सोने का मूल्य 18 रुपए और एक क्विंटल गेहूं 16 रुपए का होता था। 1960 में 10 ग्राम सोना 111 रुपए और एक क्विंटल गेहूं 41 रुपए का था। वर्तमान में 10 ग्राम सोने 39000 रुपए का और एक क्विंटल गेहूं 1800 का है।
किसान आयोग के संस्तुति लागू हो :-
वेतन आयोग की संस्तुतियों की तरह केन्द्र सरकार को किसान आयोग के संस्तुतियों को लागू करना चाहिये। केन्द्र की मोदी सरकार भी अन्य  सरकारों की तरह किसान हितों के साथ धोखा कर रही है। प्रधानमंत्री किसानों की आमदनी दो गुना करने का स्वप्न दिखाते हैं किन्तु जब नीतियों के स्तर पर निर्णय लेने की बात आती है तो  किसान के साथ छल होता है। जब तक किसानों को उत्पादन लागत से अधिक मूल्य नहीं मिलेगा उसका संकट बना रहेगा। केन्द्र सरकार ने धान और गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य में मात्र साढे तीन प्रतिशत बढोत्तरी किया है जबकि मंहगाई और लागत मूल्य लगातार बढ रहा है। भाजपा के घोषणा पत्र में कहा गया था कि किसानों को फसलों के उत्पादन लागत मूल्य में 50 प्रतिशत लाभ जोड़कर दिया जायेगा किन्तु सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। उत्तर प्रदेश की समाजवादी तथा भाजपा सरकार शत प्रतिशत गन्ना मूल्य भुगतान का दावा कर रही है यह बड़ा झूठ है। प्रदेश में चीनी मिलों पर दो हजार करोड़ से अधिक का गन्ना मूल्य भुगतान शेष है और किसान परेशान है। गन्ना मूल्य न बढाये जाने के कारण किसानों का मोह भंग हो रहा है। सरकार ने चीनी मिल मालिकान को 18 हजार करोड़ रूपया राहत के नाम पर दे दिया किन्तु गन्ने का मूल्य पिछले तीन साल से एक पैसा भी नहीं बढाया गया। ऐसी स्थिति में किसानों की हालत सुधर नहीं सकता है।






Thursday, December 19, 2019

ये आजादी नहीं अराजकता है जनाब डा. राधेश्याम द्विवेदी


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इस समय संसद से सड़क तक नागरिकता संशोधन विधेयक, 2019 को लेकर कोहराम मचा हुआ है। गैर-भाजपा शासित राज्यों में इस कानून पर विरोध के सुर और मुखर हो गए हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि विरोध के पीछे का सच क्या है? क्या इस कानून ने देश के संविधान का अतिक्रमण किया है? आखिर राज्यों  के विरोध का औचित्य क्या है? क्या उनका विरोध संवैधानिक है?  हम उन संविधान के अनुच्छेयदों पर प्रकाश डालेंगे जो चर्चा में नहीं रहे, जिनका वास्ता संसद के अधिकार और नागरिकता से जुड़ा है। राज्य सरकारों का विरोध कितना जायज है? क्या  सच में केंद्र सरकार ने संवैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण किया है?
राज्यों का विरोध नाजायज और असंवैधानिक
हमारे देश की प्रणाली एकल नागरिकता का सिद्धांत लागू होता है। यह राज्यो का विषय क्षेत्र नहीं है। राज्य सरकारों को इस पर कानून बनाने का कोई अधिकार नहीं है। इसलिए इस पर उनका विरोध भी असंवैधानिक है।
नागरिकता पर संसद सर्वोच्च
संविधान का अनुच्छेरद 11 संसद को यह अधिकार देता है कि ससंद नागरिकता पर कानून बना सके। इस प्रावधान के अनुसार, संसद के पास यह अधिकार है कि वह नागरिकता को रेगुलेट कर सकती है। यानी संसद को यह अधिकार है कि वह नागरिकता की पात्रता तय करे। सर्वोच्च  सदन को यह अधिकार है कि वह तय करे कि किसको नागरिकता मिलेगी और कब मिलेगी। कोई विदेशी किन परिस्थितियों में  देश की नागरिकता हासिल कर सकता है। इन सारी बातों पर कानून बनाने का हक सिर्फ संसद को है। यह विषय यूनियन लिस्ट का हिस्सा है नागरिकता  इसके अलावा संविधान में उल्लेरख तीन सूचियों में नागरिकता से जुड़ा मामला यूनियन लिस्ट का हिस्सा  है। नागरिकता से जुड़ा मामला यूनियन लिस्टा के 17वें स्थान पर है। यह राज्य सूची या समवर्ती सूची का हिस्सा नहीं है। इसलिए नागरिकता पर कानून बनाने के अधिकार सिर्फ और सिर्फ संसद को ही है। इसलिए राज्य सरकारों का विरोध उचित नहीं है। यह संवैधानिक नहीं है। राज्यों का यह विरोध केवल राजनीतिक  स्वार्थ के लिए ही है। 
नागरिकता पर मौन नहीं है संविधान 
नागरिकता के मसले पर संवधिान मौन नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 5 में बाकयादा नागरिकता के बारे में विस्तार से उल्लेख किया गया है। इसके तहत यह बताया गया है भारत का नागरिक कौन होगा। इसमें यह प्रावधान है कि अगर कोई व्यक्ति भारत में जन्मां हो या जिसके माता-पिता में से कोई भारत में जन्मा हो। अगर कोई व्यक्ति संविधान लागू होने से पहले कम से कम पांच वर्षों तक भारत में रहा हो या तो भारत का नागरिक हो, वही देश का मूल नागरिक होगा।
विपक्ष ने अनुच्छेद 14 को बनाया अधार
इस कानून के खिलाफ विपक्ष अनुच्छेद 14 को आधार बनाकर अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है। अनुच्छेद 14 के तहत भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता या विधियों के समान सरंक्षण से वंचित नहीं किया जाएगा। यह अधिकार देश के नागरिकों के साथ अन्य लोगों पर भी लागू होता है। सरकार के पास भी अपने कानून के पक्ष में पर्याप्त और शक्तिशाली तर्क है। केंद्र सरकार नागरिकता के तर्कसंगत वर्गीकरण के आधार पर इसे जायज ठहरा सकती है। सरकार यह हवाला दे सकती है कि देश में गैर कानूनी ढंग से रह रहे लोगों के लिए यह कानून जरूरी है। इसकी आड़ में कई अवांछित तत्व भी देश में शरण ले सकते हैं, आदि-आदि।
अनुच्छेद 10 पर उठाए सवाल
 विपक्ष इस कानून के विरोध में संविधान के अनुच्छेद 10 और 14 की दुहाई दे रहा है। आखिर क्यो है अनुच्छेद 10 ? संविधान का अनुच्छेऔद 10 नागरिकता का अधिकार देता है। अब सवाल उठता है कि क्यों इस कानून से लोगों की नागरिकता को खतरा उत्पन्न हो गया है ? लेकिन इस कानून में नागरिकता खत्म किए जाने की बात नहीं है। इस नए कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जो कहता है कि अगर आप आज नागरिक हैं तो कल से नागरिक नहीं माने जाएंगे। नया नागरिकता संशोधन बिल सीधे तौर पर इस अनुच्छेद 10 का उल्लंघन नहीं करता है। 
धरना, प्रदर्शन हिंसक ना हो
धरना, प्रदर्शन और आंदोलन किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग माने जाते हैं. लेकिन लोकतंत्र ने अपनी आवाज उठाने के जो अधिकार हमें मिला हैं. उसमें हिंसा की कोई जगह नहीं है. आज देश भर में नागरिकता कानून के बहाने प्रदर्शनों के नाम पर हिंसा की जा रही है . पुलिस पर पत्थर बरसाए जा रहे हैं, बसों को जलाया जा रहा है,रेल की लाइने उखाड़ी जा रही है। सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया जा रहा है और शहरों को बंधक बनाने की कोशिश हो रही है।फिर भी कई लोग इसे अभिव्यक्ति की आजादी का नाम देकर इसका समर्थन कर रहे हैं। पूरे देश में एन आर सी और नागरिकता संशोधन कानून विरोध के नाम पर गुंडागर्दी हो रही है, अपशब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है। उपद्रवियों के निशाने पर भारत की सरकार लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार है। भारत के 90 करोड़ वोटर्स ने अभी 6 महीने पहले ही इस सरकार को चुना है. ऐसे में एसे विरोध को कैसे जायज ठहराया जा सकता है।
गुण्डागर्दी बन्द हो
दिल्ली में जो लोग हिंसा कर रहे थे उन्होंने अपने चेहरे रूमाल से ढक रखे थे।ं .सवाल ये है कि अगर इनका विरोध अभिव्यक्ति की आजादी है तो फिर इन्हें अपने चेहरे ढकने की जरूरत क्या है ? नागरिकता संशोधन कानून का विरोध सिर्फ दिल्ली की जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के छात्र नहीं कर रहे हैं बल्कि इसमें उनका साथ देश भर की कुछ विश्वविद्यालयों के तथाकथित छात्र व विपक्षी दलों के युवा संगठनों के गुण्डे भी दे रहे हैं । उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के नदवा कॉलेज में भी छात्रों ने पुलिस पर पथराव किया और कानून को अपने हाथ में लेने की कोशिश की है। वराणसी एम्मस तथा आजमगढ में भी प्रदर्शन व गुण्डागर्दी हुई है।
शहर मोहल्ला ना बनें
जिस तरह हर शहर में एक मोहल्ला या इलाका ऐसा होता है जहां पुलिस भी जाने से डरती है। ठीक उसी तरह ये छात्र देश भर के विश्वविद्यालयों को भी वैसा ही मोहल्ला बनाने की कोशिश कर रहे हैं। हर शहर के कुछ इलाके ऐसे होते हैं..जहां कानून व्यवस्था का राज नहीं चलता। वहां सिर्फ एक खास समुदाय का कब्जा होता है। कोई भी सरकार उस मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ने से बचती रहती है। इन मोहल्लों में कुछ विशेष लोगों की गुंडागर्दी चलती है और अगर इस इलाके में कोई फंस गया तो फिर पुलिस भी मदद नहीं कर पाती है। कुछ छात्र.. कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को भी ऐसा ही मोहल्ला बनाना चाहते है,जहां मीडिया नहीं घुस सकता,पुलिस नहीं घुस सकती और नियम कायदों के पालन का तो..सवाल ही पैदा नहीं होता। पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में भी एन आर सी और नागरिकता कानून के विरोध में प्रायः रोज रैली व पदयात्रायें निकाली जा रही हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी खुद इस रैली का नेतृत्व करती रहती हैं। भारत सरकार इनका कुछ भी बिगाड़ नहीं पाता है।.इस दौरान आम लोगों की दिनचर्या अस्त-व्यस्त हो जाती है।.कोलकाता की सड़कों पर जाम लग जाता है। बसें रोक दी जाती हैं।. विरोध प्रदर्शन के नाम पर एक शहर को बंधक बना लिया जाता है। पश्चिम बंगाल के उत्तरी दिनाजपुर में भी विरोध प्रदर्शनों के नाम पर वाहनों में तोडफोड़ की गई और यहां तक कि एक ऐम्बुलेंस को भी निशाना बनाया गया। वाराणसी में भी नेशनल स्टूडेंट यूनियन आफ इण्डिया के छात्रों ने विरोध प्रदर्शन किया और सरकार के खिलाफ नारेबाजी की गयी है। दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्रों ने भी जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के छात्रों के साथ एकता दिखाने के लिए विरोध प्रदर्शन किया है। लेकिन इस दौरान कुछ लोगों ने छात्रों द्वारा की जा रही हिंसा का भी विरोध किया और हिंसक छात्रों के खिलाफ नारेबाजी की। पर यह असरदार नहीं हो सका।
राजनीति को दूर रखें
दिल्ली के इंडिया गेट पर कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा ने भी धरना दिया था और इस धरने में कांग्रेस के कई बड़े नेता शामिल हुए थे। हम कह सकते है कि आज हमारे देश में दिल्ली से लेकर कोलकाता और हैदराबाद से लेकर लखनऊ तक राजनीति की नई दुकानें खुल गई हैं और राजनीतिक दल इन दुकानों के जरिए दूषित विचारों की कैम्पस प्लेसमेंट कर रहे हैं। इन हिंसक प्रदर्शनों को हमारे देश का टुकड़े टुकड़े गैंग और इस गैंग को समर्थन करने वाले लोग जिस तरह से कानूनी मान्यता दे रहे हैं...वो बहुत खतरनाक बनता जा रहा है। इस पर तुरन्त लगाम लगायी जानी चाहिए।
प्रदर्शन अभिव्यक्ति की आजादी नही
दिल्ली में हो रहे विरोध प्रदर्शनों की वजह से कई मेट्रो स्टेशन भी बंद कर दिए गए.थे।इसके अलावा दिल्ली की कई मुख्य सड़कों पर कई किलोमीटर लंबा जाम लग गया था। फिर भी प्रदर्शनकारी इसे अभिव्यक्ति की आजादी बताते रहे ।. एनआरसी और नागरिकता संशोधन को लेकर कई दिन देश की राजधानी दिल्ली और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में हिंसक प्रदर्शन हुए थे। दिल्ली के जामिया नगर और फ्रेन्डस कालोनी में सरकारी बसों में आग लगा दी गई।कई वाहन भी जला दिए गए और पुलिस पर पत्थरबाजी भी की गई।जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी का दावा है कि इन प्रदर्शनों में यूनिवर्सिटी के छात्र शामिल नहीं थे. और फर्जी आई कार्डस के सहारे कुछ असामाजिक तत्व जामिया को बदनाम कर रहे हैं। इस यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर का दावा है कि कैंपस में ऐसे 750 फर्जी आई कार्डस पाए गए हैं। दूषित विचारों को किसी पहचान पत्र की जरूरत नहीं होती...ऐसे विचार और संस्कार खुद ब खुद सामने आ जाते हैं। ऐसा ही विगत दिवस भी हुआ जब जी न्यूज की टीम इन प्रदर्शनों की कवरेज के लिए दिल्ली पुलिस के मुख्यायलय पहुंची थी।
मीडिया पर हमला जायज नहीं
जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी और जे एनयूू के छात्रों ने जी न्यूज की टीम के साथ बदलसलूकी की थी। उनके कैमरे छीनने की कोशिश की गई और जी न्यूज के खिलाफ नारेबाजी भी की गई। सिर्फ दिल्ली में ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश की अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में भी विरोध प्रदर्शन हुए. ये प्रदर्शन भी बिल्कुल उसी सोची समझी तरीके से हुए। जिस तरह से आजकल देश में हो रहा हैं.। यानी शांति से अपनी बात कहने की जगह..पुलिस पर पथराव किया गया और हिंसा का सहारा लिया गया। देश भर में हो रहे इन प्रदर्शनों.और इसके पीछे छिपी हुई राजनीति हैं।


Wednesday, December 18, 2019

विलंब में दिया जाने वाला न्याय नही अन्याय है -- डा.राधेश्याम द्विवेदी, एडवोकेट


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एक जनतांत्रिक विकासशील देश के लिए जरूरी है कि हर आदमी को सुलभ और त्वरित न्याय मिल सके। इसके लिए राज्य को समुचित प्रबंध और दीर्घकारी स्थायी योजनाएं बनानी चाहिए। एक स्वतंत्र, निष्पक्ष व कुशल न्यायपालिका की किसी भी देश की प्रगति में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। नागरिकों का शासन के तीनों अंगों में से सर्वाधिक विश्वास न्यायपालिका में ही होता है। लेकिन हमारी न्यायपालिका की कार्यप्रणाली बेहद धीमी और लगभग अक्षम हो चली है। अतः त्वरित न्याय सुनिश्चित करने, कानून के शासन को बनाए रखने तथा सुशासन की व्यवस्था कायम रखने के लिये न्यायिक सुधारों पर अमल किये जाने की जरूरत है। सामान्य जन को अपने मुकदमे के निपटारे के लिए निर्धारित समय सीमा का कम से कम ढाई से तीन गुना समय लग जाता है।
प्रमुख कारण
1.खुद सरकार का पक्षकार होना
कानूनविद और विधि विशेषज्ञ भारतीय न्यायपालिका की कच्छप गति के लिए कुछ विशेष कारणों को ही जिम्मेदार मानते हैं। इनमें सबसे पहला कारण खुद सरकार है। हमारे देश में आज लंबित लगभग साढ़े तीन करोड़ से ज्यादा मुकदमों लम्बित है । इन लंबित मुकदमों में से एक तिहाई मुकदमों में सरकार खुद एक पक्ष है। अपराधिक वादों में सामान्यतः सरकार ही वादी होता है। सरकार को अविलंब ही इस दिशा में काम करना चाहिए। फालतू व जबरन दर्ज किए कराए मुकदमों को वापस लिए जाने की दिशा में ठोस कदम उठाने चाहिए। एक ऐसी स्क्रूटनाइजेशन जैसी व्यवस्था करनी चाहिए जो अपने स्तर पर जांच करके सरकार को वादी प्रतिवादी बनने से बचाने और अनावश्यक अपील करके उसे लंबा ना हो  पाने में मदद करे।
2.बहुस्तरीय न्याय व्यवस्था का प्रावधान
कानूनविद मानते हैं कि भारतीय न्याय व्यवस्था में किसी भी निरपराध को सजा से बचाने के लिए बहुस्तरीय न्याय व्यवस्था का प्रावधान किया गया। लेकिन इससे मुकदमों के निस्तारण धीमा व बहुत खर्चीला हो जाता है। एक आकलन के अनुसार यदि किसी मुकदमे को अपने सारे स्तरों से गुजरना पडे़ तो भी मौजूदा स्थितियों में कम से कम पांच से आठ वर्षों का समय लगना अवश्यम्भावी है। बढ़ती जनसंख्या , समाज में बढ़ते अपराध , लोगों की अपने विधिक अधिकारों के प्रति सजगता में आई तेजी , देश में अदालतों और न्यायाधीशों की भारी कमी , अधीनस्थ न्यायालयों में ढांचागत सुविधाओं का अभाव , न्यायाधीशों व न्यायकर्मियों को मूलभूत सुविधाओं की अनुपलब्धता के कारण उनकी कार्यकुशलता तथा मनोभावों पर पड़ता नकारात्मक प्रभाव, न्यायपालिका में तेजी से बढ़ता भ्रष्टाचार आदि कुछ ऐसे ही मुख्य कारण हैं जिन्होंने अदालती कार्यवाहियों को दिन महीनों की तारीखों में उलझा कर रख दिया है।
न्यायिक सुधार के उपाय
1.बड़ी संख्या में अदालतों का गठन व वैकल्पिक उपाय अपनाये जांय
न्यायप्रक्रिया को गति प्रदान करने के लिए सरकार को सबसे पहले देश में ज्यादा से ज्यादा अदालतों के गठन के साथ ही न्यायाधीशों की नियुक्ति और रिक्त स्थानों को भरने की तुरंत व्यवस्था करनी चाहिए। वर्तमान सममय में मुकदमों के निस्तारण के लिए भारतीय न्यायपालिका द्वारा अपनाए जा रहे सभी वैकल्पिक उपायों जैसे मध्यस्थता की प्रक्रिया, लोक अदालतों का गठन, विधिक सेवा का विस्तार, ग्राम अदालतों का गठन, लोगों में कानून एवं व्यवस्था के प्रति डर की भावना जाग्रत करना, प्रशासन द्वारा अपराध की रोकथाम हेतु गंभीर प्रयास, अदालती कार्यवाहियों में स्थगन लेने व देने की प्रवृत्ति में बदलाव, अधिवक्ताओं द्वारा हड़ताल, बहिष्कार जैसी प्रवृत्तियों को न अपनाए जाने के प्रति किए जाने वाले उपाय आदि से अदालत में सिसक और घिसट रहे मुकदमों में जरूर रफ्तार लाई जा सकेगी।
 2.लम्बित मामलों की बढ़ती हुई संख्या कम की जाय
आज न्यायपालिका कई समस्याओं से जूझ रही है। जजों की नियुक्ति में अपारदर्शिता या बड़ी संख्या में लंबित पड़े मामलों में आज न्यायपालिका ऐसे दौर से गुजर रही है, जहाँ उसकी भूमिका पहले से कहीं अधिक व्यापक है। रेप जैसे संवेदन शील मामलों में विलम्ब होने से सामाजिक ताना बाना सर्वाधिक प्रभावित हो रहा है। जो वाद दो माह में निपटने की अपराध प्रक्रिया संहिता में समय बद्ध है उसे दसों साल तक लग जाते हैं । इतने लम्बे समय में वादी तथा साक्षी दोनो हतोत्साहित तथा भयभीत किये जाते रहते हैं और सरकार कुछ भी कर सकने में असमर्थ हो जाती है।
3.त्वरित न्याय दिया जाय
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत त्वरित न्याय की गारंटी दी गई है। आपराधिक मुकदमों के शीघ्र निपटान में होने वाला विलंब संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्राप्त जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है। अतः त्वरित न्याय सुनिश्चित करने हेतु न्यायिक सुधारों को अमल में लाया जाना चाहिये। इसके लिए एक मूल कारण न्यायाधीशों की अत्यन्त कम संख्या होना है। न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच चल रहे टकराव के कारण नए जजों की नियुक्ति नहीं हो पाती है।  न्यायाधीशों की संख्या कम होने का प्रभाव यह देखा जा रहा है कि शीर्ष न्यापालिका से लेकर जिला न्यायालय तक बड़ी संख्या में मामले लंबित पड़े हुए हैं।
4.मुख्य न्यायाधीशों को कम समय का कार्यकाल ना हो
प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की तुलना में भारत के मुख्य न्यायाधीश का कार्यकाल अत्यंत ही छोटा है।  कई अध्ययनों द्वारा यह प्रमाणित किया हुआ है कि कार्यकाल की अधिकतम अवधि, उच्च दक्षता और बेहतर प्रदर्शन को सुनिश्चित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीशों की हमेशा से यह शिकायत रही है कि उन्हें न्यायपालिका के लिये सुधारात्मक गतिविधियों को अंजाम तक पहुँचाने का पर्याप्त समय नहीं मिला। अतः इस संबंध में सुधार किये जाने की महती आवश्यकता है। भारत में एक ऐसी वैधानिक व्यवस्था जिसमें कि  अधिकांश मामलों की सुनवाई एक बड़ी बेंच द्वारा किये जाने की बजाय अलग-अलग जजों द्वारा की जाती है। जहाँ पेंडिंग पड़े मामलों की संख्या लाखों में है। जहाँ जजों का व्याख्यात्मक दर्शन अलग-अलग है।
5.जटिल एवं महँगी न्यायिक प्रक्रिया को सरल किया जाय
देश में न्यायिक प्रक्रिया अत्यंत जटिल एवं महँगी है। यही कारण है कि एक बड़ा वर्ग जो कि आर्थिक तौर पर सशक्त नहीं है न्याय से वंचित रह जाता है। न्यायिक सुधार इसलिये भी आवश्यक है क्योंकि आर्थिक महत्त्व के मामलों में देर की वजह से देश की आर्थिक प्रगति भी बाधित होती है। लोग आधे अधूरे न्याय लेकर संतुष्ट होने को मजबूर होते हैं। बड़े व सम्पन्न लोग छोटी से छोटी बातों के लिए अवकाश या रात में भी न्यायालय खुलवा लेते हैं परन्तु आम जनता को न्यायालय के समय में जज साहबान समय का अभाव का रोना रोते लगते हैं।
6. व्यवहारिक और प्रभावी उपाय अपनाये जांय
संविधान की बुनियादी विशेषताओं के अनुरूप व्यावहारिक और प्रभावी सुधार किया जाना चाहिए। न्यायपालिका की जवाबदेही,शीघ्र न्याय,मुकदमेबाजी के खर्चों में कटौती, अदालतों में व्यवस्थित कार्यवाही ,न्यायिक व्यवस्था में विश्वास, किया जाय। इसमें कोई शक नहीं है कि मुख्य न्यायाधीश पीठ गठित करने के लिये स्वतंत्र है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि कानून के शासन का अर्थ ही यह है कि किसी भी व्यक्ति को कानून के ऊपर वरीयता नहीं दी जा सकती है। न्याय हर निचले से निचले व्यक्ति के पहुंच में होना चाहिए। जब तक ये उपाय अपनाये नहीं जाएगें हमरी न्याय व्यवस्था ना तो निष्पक्ष कही जा सकेगी और ना ही इसे सही मायने में न्याय कहा जा सकेगा। यह मात्र न्याय का ढ़ोंग या नाटक ही कहा जा सकेगा।