Saturday, April 30, 2022

परम् ब्रह्म श्रीराम की भक्ति साधना और उनके आदर्श को अपने चरित्र में ढालना डा.राधे श्याम द्विवेदी



राम’ भारतीय परंपरा में एक प्यारा नाम है. वह ब्रह्मवादियों का ब्रह्म है. निर्गुणवादी संतों का आत्मराम है. ईश्वरवादियों का ईश्वर है. कबीर के राम निराकार है।ये अवतारवादियों का अवतार है. वे वैदिक साहित्य में एक रूप में आया है, तो बौद्ध जातक कथाओं में किसी दूसरे रूप में. एक ही ऋषि वाल्मीकि के ‘रामायण’ नाम के ग्रंथ में एक रूप में आया है, तो उन्हीं के लिखे ‘योगवसिष्ठ’ में दूसरे रूप में. ‘कम्ब रामायणम’ में वह दक्षिण भारतीय जनमानस को भावविभोर कर देता है, तो तुलसीदास के रामचरितमानस तक आते-आते वह उत्तर भारत में घर-घर का बड़ा और आज्ञाकारी बेटा, आदर्श राजा और सौम्य पति बन साकार रूप में जन जन तक पहुंच जाते है।
राम' तो 'सत' अर्थात् 'ब्रह्म' है ही,इसमें कोई संदेह नहीं। 'राम' के संबंध में दोनों पंथ के संत कवियों के जो अनुभूति परक विचार है कबीर और तुलसी दोनों ही भक्तिकालीन किंतु एक ही काल की अलग - अलग शाखा के प्रतिनिधि कवि हैं । अंतर यहीं से ज्ञात होने लग जाती है। कबीर दास भक्तिकाल की निर्गुण धारा के अंतर्गत आने वाली संत काव्यधारा या ज्ञानाश्रयी शाखा के कवि है तो तुलसीदास सगुण धारा के अंतर्गत आने वाली राम काव्यधारा के कवि है ।
कबीर के राम: निर्गुणोपासक होने के कारण कबीर ने ईश्वर को निराकार माना है और निर्गुणोपासना को स्वीकारने से अवतारवाद ,बहुदेववाद एवं मूर्तिपूजा का अपने -आप ही विरोध हो जाता है । अतः जिस समय कबीर का समाज में प्रादुर्भाव हुआ ,उस समय समाज के विभिन्न संप्रदायों में विभिन्न प्रकार की कुरीतियाँ जैसे मूर्तिपूजा ,बहुदेववाद आदि व्याप्त थी ,जिसे दूर करने के लिए उन्होंने अदृश्य ईश्वर को 'राम' का नाम दिया ताकि लोगों को उन्हीं की भाषा में सही मार्ग पर लाया जा सके । इसके अलावा भी ब्रह्म को उन्होंने रहीम, हरि, गोविंद आदि नामों से संबोधित किया , जो एक ही ईश्वर के अलग-अलग नाम हैं और इस निराकार ब्रह्म की प्राप्ति को ज्ञान से संभव बताया । कबीर ने कई बार 'राम' शब्द का अपने पदों में प्रयोग किया है , उनका 'राम' 'दशरथी राम' न होकर परम् ब्रह्म का प्रतीक है क्योंकि वे नाम को ,रूप की अपेक्षा अधिक महत्व देते थे । इसलिए कबीर के 'राम' ,नाम साधना के प्रतीक है । कबीर ने राम यानी ईश्वर के नाम का सहारा लेकर समाज-सुधार का प्रयास किया ।कबीर एक संत साधक थे।अपने आध्यात्मिक अनुभव के बल पर ही उन्होंने 'सत' के स्वरूप का उद्घाटन किया है।उनके 'राम' निर्गुण राम (ब्रह्म) है,आत्माराम है जिनके बारें में निम्न बातें कही जा सकती हैं:
(1) कबीर के राम सर्व- निरपेक्ष परम तत्त्व है।
(2) वे एक होते हुए भी अखिल विश्वव्यापी है।
(3) वे इच्छा मात्र से सृष्टि रचना में समर्थ है।
(4) वे अव्यक्त,अगोचर होते हुए भी करुणा,दया,कृपा,उदारता आदि गुणों से युक्त है।
(5) वे इन्द्रियों के अभाव में भी संसार की सारी संवेदनाओं को ग्रहण करने में समर्थ है।
(6) वे जैसे है उन्हें ठीक उसी रूप में न कोई जान सकता है,न व्यक्त कर सकता है।
तुलसी के राम : तुलसी के राम सगुण हैं यानी जिनके रूप - आकार को देखा जा सकता है, अनुभव किया जा सकता है और जिन्होंने धरती पर अवतार लिया था, राजा दशरथ के पुत्र के रूप में । जिसका वर्णन रामचरितमानस में तुलसीदास ने किया है । तुलसी के राम ने समाज की विकृतियों को समाप्त करने के लिए धरती पर अवतार लिया था । राम आराध्य थे और वे स्वयं को सेवक मानते थे तथा राम की चरणों में रहना अपना सौभाग्य समझते थे । उनके अनुसार 'राम' शक्ति ,सौन्दर्य के भंडार हैं जो जन-जन को मोहित कर सकते हैं और अद्वितीय वीरता से अधर्म का विनाश कर सकते हैं यानी राम एक प्रकार से गोस्वामी तुलसी के मार्गदर्शक हुए और समाज के नायक या समाज सुधारक ।
तुलसीदासजी ने भले ही यह कहते हुए कि ‘राम न सकहिं नाम गुन गाहीं.’ (यानी स्वयं राम भी इतने समर्थ नहीं हैं कि वह अपने ही नाम के प्रभाव का गान कर सकें) अपने श्रद्धेय के प्रति भक्तिभाव दर्शाया हो, लेकिन राम के नाम को कबीर ने एक अलग ही अर्थ प्रदान करते हुए एक नई ऊंचाई दे दी। जब उन्होंने कहा कि ‘दसरथ सुत तिहुं लोक बखाना, राम नाम का मरम है आना’ (यानि दशरथ के बेटे राम को तो सभी भजते हैं, लेकिन राम नाम का मरम तो कुछ और ही है), तो उन्होंने रामकथाओं में आए राम की तमाम स्थापनाओं को ही एक किनारे रख दिया।
तुलसीदास सगुणोपासक रामभक्त थे।उस 'राम' के बारें में निम्न बातें कही जा सकती है:
(1) तुलसी के राम अवतारी राम है जिसमें लोक रक्षक रूप की सर्वाधिक अभिव्यक्ति हुई है।
(2) तुलसी के राम में शील, शक्ति और सौंदर्य का पूर्ण रूप देखने को मिलता है। इसीलिए वे राम भजन को राजमार्ग मानते है।
(3) तुलसी के राम मर्यादा पुरुषोत्तम है और हर तरह के आदर्श के प्रतिरूप है। आदर्श पुत्र,आदर्श शिष्य,आदर्श मित्र, आदर्श भ्राता और सबसे अधिक आदर्श पति और फिर आदर्श शासक।
(4) तुलसी के राम परात्पर ब्रह्म है।उसमें सगुण और निर्गुण दोनों का पर्यवसान है।
(5) तुलसी के अनुसार सगुण और निर्गुण में कोई वास्तविक भेद नहीं है।उनके अनुसार राम नाम को निर्गुण- सगुण का नियामक समझना चाहिए। राम नाम राम से भी बड़ा है:
निरगुन तै एहि भाँति बड़, नाम प्रभाउ अपार।
कहेउँ नामु बड़ राम तै, निज विचार अनुसार।।



Thursday, April 28, 2022

बस्ती ओपेक कैली हॉस्पिटल में अवांछित तत्वों का जमावड़ा :डा राधे श्याम द्विवेदी

ओपेक कैली हॉस्पिटल की स्थापना वर्ष 1991 के 8 मार्च को
हुआ था। तभी पूर्व मुख्य मंत्री बहन मायावती जी के शासन काल में मिनी पीजीआई का जोर शोर से प्रचार करके खूब वाहवाही लूटी गई थी। इस क्रम में बस्ती में 500 बेड का ओपेक कैली हॉस्पिटल का निर्माण शुरू हुआ था। ओपेक का फुल फॉर्म पेट्रोलियम निर्यातक देशों का संगठन होता है।यह 13 प्रमुख तेल उत्पादक देशों का एक अंतर-सरकारी संगठन है, जो मिलकर दुनिया के कच्चे तेल का लगभग 40% उत्पादन करते हैं। भारत सरकार और ओपेक के संयुक्त निधि से इस हॉस्पिटल का निर्माण शुरू हुआ था।
         सपा सरकार के दौरान कुछ उपकरण और फंड यहां के बजाय रिम्स सैफई के विकास में भी लग गया था। हां सपा शासन के दौरान बस्ती में मेडिकल कालेज की स्थापना के प्रयास शुरू हो गए थे। 2017 में भाजपा के शासन काल में इस दिशा में उत्तरोत्तर विकास और सुधार हुआ। उत्तर प्रदेश के राज्य सरकार ने इसे औटोमस स्टेट मेडिकल कॉलेज का दर्जा दे दिया है। 25 जून 2018 को कैली के सीएमएस डॉ. सोमेश चंद्र श्रीवास्तव के प्रस्ताव पर राज्य सरकार ने सैद्धांतिक मंजूरी दी थी। जनवरी 2019 में मेडिकल कॉलेज बस्ती में एमबीबीएस प्रथम वर्ष की पढ़ाई शुरू हुई थी। बीच में कोरोना के चलते लगातार दो साल तक मेडिकल कॉलेज कोरोना मरीजों के इलाज का प्रमुख सेंटर बना रहा। 2020 में एमबीबीएस दूसरे बैच के छात्रों का प्रवेश हुआ। अब जो छात्र एमबीबीएस सेकेंड ईयर में पहुंच चुके हैं उनकी थर्ड ईयर की पढ़ाई के लिए नेशनल मेडिकल कमीशन ने अनुमति और पढ़ाई के लिए मान्यता दे दी है। जिससे कॉलेज में स्वास्थ्य संबंधी कई अन्य सुविधाएं भी बढ़ गई है। छात्र और स्वास्थ्य कर्मियों के साथ ही मरीजों को भी बेहतर सुविधा मिलने लगी है।
            मेडिकल काउंसिल ऑफ इण्डिया (एमसीआई) के निरीक्षण के दौरान यहां पर्याप्त छात्र-छात्राओं की मौजूदगी पाई गई थी। मेडिकल कॉलेज की फैकल्टी (स्टाफ) पूरी मिली। यहां 300 बेड होना अनिवार्य होता था जिसमें मेडिकल कॉलेज में निरीक्षण के दौरान 470 बेड मौजूद मिला था। लेक्चर हॉल, इमरजेंसी हाल, मेडिसिन डिपार्टमेंट, गायनी, आर्थो, साइकेट्रिक सहित सभी 22 डिपार्टमेंट पूर्ण रूप से संचालित मिले थे। मरीजों के देखने व बैठने और मरीजों को भर्ती करने सम्बंधित सभी सुविधाएं निरीक्षण के दौरान उपलब्ध पाई गईं। कोविड से जूझने और उबरने के दौरान हॉस्पिटल में कई आधुनिक मशीनों वा सुविधाओं का विस्तार किया गया है।
अवांछित तत्वों का जमावड़ा
इस हॉस्पिटल की स्थिति जिला चिकित्सालय के पास तथा उच्चीकृत केन्द्र के कारण यह हमेशा लोगों के रुचि और मस्तिष्क में अपना स्थान बना रखा है। जिला चिकित्सालय से लेकर सोनीपार तक विशेष मेडिकल हब बन गया है। पास के दर्जनों गांव की जमीनों का दाम निरंतर बढ़ता जा रहा है। हैस्पिटल, केमिस्ट और जांच केंद्र बढ़ते जा रहे हैं।कुछ असामाजिक तत्व और रसूखदार छुटभैये इसमें अपनी ऊपरी आमदनी का स्रोत खोजने लगे हैं और इस व्यवसाय में अपने स्थानीय होने तथा अपने रसूक का प्रयोग कर विना श्रम और पूजी के जीविका और धनोपार्जन में लगे हुए हैं।इनमे अनेक दवा व्यवसायीऔर पत्रकारिता का चोला भी पहन रखे हैं। ये आए दिनों चिकित्सकों की सेवा के साथ ही उनके गतिविधियों में हस्तक्षेप भी करते है। स्थापित चिकित्सक और अधिकारियों से अपनी पैठ बनाकर बाहरी वा नए चिकित्सकों पर असम्यक प्रभाव डालने में कभी कभार सफल भी हो जाते हैं। कभी कभार भीड़ इकट्ठा कर हंगामा भी कर देते हैं। यदि कोई केस खराब हो जाए तो चिकित्सक से वसूली भी कर लेते हैं। उच्चीकृत मेडिकल कालेज को इनके गतिविधियों से बचाना चाहिए और निरंतर निगरानी होनी चाहिए।





  

Tuesday, April 26, 2022

गो संरक्षण : न्यायालय की सक्रियता पर सरकारी कर्मियों की उदासीनता डा.राधे श्याम द्विवेदी

समुद्र मन्थन के दौरान इस धरती पर दिव्य गाय की प्रकट हुई थी जिस कारण भारतीय गोवंश को माता का दर्जा दिया गया है, इसलिए उन्हें "गौमाता" कहा जाता है | हमारे शास्त्रों में गाय को पूजनीय बताया गया है इसीलिए हमारी माताएं बहनें रोटी बनाती है तो सबसे पहली रोटी गाय की  अलग कर देती हैं । गाय का दूध अमृत तुल्य कहा जाता है । भागवत पुराण के अनुसार, सागर मन्थन के समय पाँच दैवीय कामधेनु ( नन्दा, सुभद्रा, सुरभि, सुशीला, बहुला) निकलीं थीं। 
कामधेनु या सुरभि (संस्कृत: कामधुक) ब्रह्मा द्वारा ली गई। दिव्य वैदिक गाय (गौमाता) ऋषि को दी गई ताकि उसके दिव्य अमृत पंचगव्य का उपयोग यज्ञ, आध्यात्मिक अनुष्ठानों और संपूर्ण मानवता के कल्याण के लिए किया जा सके। 
राजस्थान उच्च न्यायालय की सक्रियता
 राजस्थान उच्च न्यायालय भी गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने के सुझाव दे चुका है। उसने राज्य सरकार को निर्देश दिया था कि वह केंद्र सरकार के साथ समन्वय में गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने के लिए आवश्यक कदम उठाए।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के पवित्र विचार
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि गाय का भारतीय संस्कृति में महत्वपूर्ण स्थान है। गाय को भारत देश में मां के रूप में जाना जाता है और देवताओं की तरह उसकी होती पूजा है। इसलिए गाय को राष्ट्रीय पशु का दर्जा दिया जाना चाहिए।  गाय के संरक्षण को हिंदुओं का मौलिक अधिकार में शामिल किया जाए। भारतीय शास्त्रों, पुराणों व धर्मग्रंथ में गाय के महत्व पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए कोर्ट ने कहा कि भारत में विभिन्न धर्मों के नेताओं और शासकों ने भी हमेशा गो संरक्षण की बात की है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 48 में भी कहा गया है कि गाय नस्ल को संरक्षित करेगा और दुधारू व भूखे जानवरों सहित गौ हत्या पर रोक लगाएगा। 
गाय भारत की संस्कृति है
गौ हत्या के आरोपी जावेद की जमानत अर्जी नामंजूर करते हुए न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव ने कहा कि सरकार को संसद में बिल लाकर गाय को मौलिक अधिकार में शामिल करते हुए राष्ट्रीय पशु घोषित करना होगा और उन लोगों के विरुद्ध् कड़े कानून बनाने होंगे, जो गायों को नुकसान पहुंचाते हैं। कोर्ट ने कहा कि जब गाय का कल्याण तभी इस देश का कल्याण होगा। 
कोर्ट ने कहा कि गाय के संरक्षण, संवर्धन का कार्य मात्र किसी एक मत, धर्म या संप्रदाय का नहीं है बल्कि गाय भारत की संस्कृति है और संस्कृति को बचाने का काम देश में रहने वाले हर एक नागरिक, चाहे वह किसी भी धर्म की उपासना करने वाला हो, की जिम्मेदारी होती है। 
कोर्ट ने कहा कि हमारे सामने ऐसे कई उदाहरण हैं जब हम अपनी संस्कृति को भूले हैं तब विदेशियों ने हम पर आक्रमण कर गुलाम बनाया है। आज भी हम न चेते तो अफगानिस्तान पर निरंकुश तालिबानियों का आक्रमण और कब्जे को हमें भूलना नहीं चाहिए। 
मांस खाना मौलिक अधिकार नहीं
कोर्ट ने कहा गो मांस खाना किसी का मौलिक अधिकार नहीं है। जीभ के स्वाद के लिए जीवन का अधिकार नहीं छीना जा सकता। बूढ़ी बीमार गाय भी कृषि के लिए उपयोगी है। इसकी हत्या की इजाजत देना ठीक नहीं। यह भारतीय कृषि की रीढ़ है। कोर्ट ने कहा 29 में से 24 राज्यों में गोवध प्रतिबंधित है। एक गाय जीवन काल में 410 से 440 लोगों का भोजन जुटाती है और गोमांस से केवल 80 लोगों का पेट भरता है। महाराजा रणजीत सिंह ने गो हत्या पर मृत्यु दण्ड देने का आदेश दिया था। कई मुस्लिम व हिंदू राजाओं ने गोवध पर रोक लगाई। मल मूत्र असाध्य रोगों में लाभकारी है। गाय की महिमा का वेदों पुराणों में बखान किया गया है। रसखान ने कहा जन्म मिले तो नंद के गायों के बीच मिले। गाय की चर्बी को लेकर मंगल पाण्डेय ने क्रांति की। संविधान में भी गो संरक्षण पर बल दिया गया है। कोर्ट ने कहा गाय को मारने वाले को छोड़ा तो फिर अपराध करेगा। कोर्ट ने संभल के जावेद की जमानत अर्जी खारिज कर दी है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने  एक निर्णय में कहा कि वैज्ञानिक मानते हैं कि गाय ही एकमात्र पशु है जो ऑक्सीजन लेती और छोड़ती है । गाय के दूध, उससे तैयार दही, घी, उसके मूत्र और गोबर से तैयार पंचगव्य कई असाध्य रोगों में लाभकारी होता है।अदालत ने अपने निर्णय में कहा, ''हिंदू धर्म के अनुसार, गाय में 33 कोटि देवी देवताओं का वास है. ऋगवेद में गाय को अघन्या, यजुर्वेद में गौर अनुपमेय और अथर्वेद में संपत्तियों का घर कहा गया है। भगवान कृष्ण को सारा ज्ञान गौचरणों से ही प्राप्त हुआ।"  अदालत ने कहा, ''ईसा मसीह ने एक गाय या बैल को मारना मनुष्य को मारने के समान बताया है। बाल गंगाधर तिलक ने कहा था कि चाहे मुझे मार डालो, लेकिन गाय पर हाथ ना उठाओ। पंडित मदन मोहन मालवीय ने संपूर्ण गो हत्या का निषेध करने की वकालत की थी। भगवान बुद्ध गायों को मनुष्य का मित्र बताते हैं। वहीं जैनियों ने गाय को स्वर्ग कहा है। हिंदू सदियों से गाय की पूजा करते आ रहे हैं।
कोर्ट ने कहा, ''भारतीय संविधान के निर्माण के समय संविधान सभा के कई सदस्यों ने गोरक्षा को मौलिक अधिकारों के रूप में शामिल करने की बात कही थी। हिंदू सदियों से गाय की पूजा करते आ रहे हैं। यह बात गैर हिंदू भी समझते हैं और यही कारण है कि गैर हिंदू नेताओं ने मुगलकाल में हिंदू भावनाओं की कद्र करते हुए गोवध का पुरजोर विरोध किया था।''
अदालत ने कहा, ''कहने का अर्थ है कि देश का बहुसंख्यक मुस्लिम नेतृत्व हमेशा से गोहत्या पर देशव्यापी प्रतिबंध लगाने का पक्षधर रहा है. ख्वाजा हसन निजामी ने एक आंदोलन चलाया था और उन्होंने एक किताब- 'तार्क ए गाओ कुशी' लिखी जिसमें उन्होंने गोहत्या नहीं करने की बात लिखी थी। सम्राट अकबर, हुमायूं और बाबर ने अपनी सल्तनत में गो हत्या नहीं करने की अपील की थी।"
अदालत के मुताबिक, ''जमीयत-ए-उलेमा-ए-हिंद के मौलाना महमूद मदनी ने भारत में गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने के लिए केंद्रीय कानून लाए जाने की मांग की है। इन समस्त परिस्थितियों को देखते हुए गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित किए जाने और गोरक्षा को हिंदुओं के मौलिक अधिकार में शामिल किए जाने की जरूरत है।"
हाईटेक गोशाला में ऐप से  निगरानी
अदालत के उपरोक्त निर्णय और सनातन मान्यताओं को ध्यान में रखते हुए उत्तर प्रदेश और बस्ती जिला प्रशासन ने कुछ लक्ष्य निधारित कर रखे हैं। जिले के 118 स्थायी और अस्थाई गोशालाओं में पल रहे पशुओं की बेहतर देखभाल के लिए गोशाला मैनेजमेंट पोर्टल और मोबाइल ऐप का प्रयोग शुरू होने की बात कही जा रही है। इस तकनीक से पशुओं कीउपलब्धता, चारा, कर्मियों की मौजूदगी और डॉक्टर्स के विजिट आदि की मॉनिटरिंग आसानी से की जा सकेगी। 
पशु चिकित्सक से लेकर सफाईकर्मियों की ट्रेनिंग
इसके लिए सभी पशु चिकित्साधिकारियों की ट्रेनिंग पूरी हो गई है। ग्राम प्रधान, सचिव, सफाईकर्मी की ट्रेनिंग ब्लॉक स्तर पर करवाई गई है। सभी गोआश्रय स्थलों की मैपिंग कराते हुए इससे संबंधित सभी आवश्यक सूचना पोर्टल पर दर्ज कर दी गयी है। 
बस्ती जिला प्रशासन का पहल
शासन के निर्देश पर बस्ती जिले में अगले 100 दिनों तक छुट्टा पशुओं को पकड़ने का अभियान संचालित करने के लिए जिलाधिकारी श्रीमती सौम्या अग्रवाल ने विभागीय अधिकारियों को निर्देश दिया है। कलेक्ट्रेट सभागार में आयोजित बैठक में उन्होंने विभागीय अधिकारियों को निर्देश दिया है कि कैटल कैचर के मूवमेंट का प्रतिदिन कार्ययोजना तैयार करें। प्रत्येक दिन कम से कम 10 छुट्टा पशु पकड़े जाएंगे तथा उनको स्थानीय गौशाला में रखा जाएगा। उन्होंने मुख्य पशु चिकित्सा अधिकारी को निर्देशित किया है कि प्रतिदिन पशुओं को पकड़ने की रिपोर्ट शाम को उन्हें उपलब्ध कराएंगे। उन्होंने कहा कि इस कार्य के लिए ब्लाक पर तैनात पशु चिकित्साधिकारियों को ब्लॉक में नोडल नामित किया जाता है। उन्होंने 14 अपूर्ण गौशालाओं को पूर्ण करा कर दुरुस्त कराने का निर्देश दिया है। इसके अलावा तीन निजी गौशालाओं के प्रबंधकों से वार्ता करके दुरुस्त करने का निर्देश दिया है ताकि वहां भी छुट्टा पशुओं को रखा जा सके। उन्होंने सभी खंड विकास अधिकारियों को निर्देशित किया है कि 13 अप्रैल को अपने क्षेत्र के सभी गौशालाओं का सत्यापन करके रिपोर्ट करें। रिपोर्ट में गौशालाओं की स्थिति, वहां रखे गए पशु की संख्या, भूसा एवं चारे की व्यवस्था का विवरण देना होगा। उन्होंने डीपीआरओ को निर्देशित किया है कि जिन ग्राम पंचायतों में धन की उपलब्धता है तथा गौ सेवकों को अभी तक भुगतान नहीं किया गया है, उसकी सूची 3 दिन में प्रस्तुत करें। साथ ही जिन ग्राम पंचायतों में धन उपलब्ध है तो उनके द्वारा गौ सेवकों को तत्काल भुगतान कराना सुनिश्चित करें। उन्होंने सभी पशु चिकित्सा अधिकारियों को निर्देशित किया कि अपने-अपने क्षेत्र में पर्याप्त भूसा की व्यवस्था सुनिश्चित करें। आवश्यकता पड़ने पर पशुओं को इसकी कमी न हो। बैठक में सीडीओ डॉ. राजेश कुमार प्रजापति, सीवीओ डॉक्टर अश्वनी तिवारी, डीपीआरओ एसएस सिंह, सभी खंड विकास अधिकारी, पशु चिकित्सा अधिकारी तथा विभागीय अधिकारी गण उपस्थित रहे।
वास्तविक धरातल पर नहीं दिख रहा प्रयास
उपरोक्त सरकारी योजनाएं और प्रयास केवल कागज और मीटिंग तक सीमित रह गई हैं।आज भी बाजार खेत और गांवों में छुट्टे गोवंश घूमते और फसल नुकसान करते देखे जा सकते हैं।ग्राम प्रधान और सफाई कर्मी को इस तरफ कोई ध्यान नहीं है। गौशालाएं बदहाल की स्थिति में देखी जा सकती हैं।आम आदमी का सरकार के प्रति गलत नजरिया बन रहा है।यदि इस समस्या का समाधान पूरे मनोयोग से ना हुआ तो आगामी होने वाले चुनाव में इसका प्रतिकूल असर पड़ सकता है।



    







Saturday, April 23, 2022

श्री संप्रदाय के प्रारंभिक दस प्रमुख आचार्य सनातन रामानंद सम्प्रदाय परम्परा (10वीं कड़ी) डा.आचार्य राधे श्याम द्विवेदी

                             ऊं गुरूं गुरवे नमः
वैष्णव-सम्प्रदाय के उद्गम-भगवान् विष्णु हैं- । इसके चार प्रसिद्ध उपसम्प्रदाय हैं- 1. श्री सम्प्रदाय, 2. ब्रह्म-सम्प्रदाय, 3. रुद्र- सम्प्रदाय और 4. सनक-सम्प्रदाय। इनमें श्री सम्प्रदाय के प्रवर्तक रामानुजाचार्य व रामानंदाचार्य ,ब्रह्मसम्प्रदाय के माधयाचार्य, रुद्र-सम्प्रदाय के विष्णु स्वामी तथा सनक-सम्प्रदाय के निम्बार्काचार्य माने गए हैं- 
          रामानुजं श्रीः स्वीचक्रे मध्वाचार्य चतुर्मुखः। 
          श्री विष्णुस्वामिनं रुद्रो निम्बादित्यं चतुस्सनः।
                             (पद्मपुराण)। 
बैरागियों के चार सम्प्रदायों में अत्यन्त प्राचीन रामानंदी सम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय को बैरागी सम्प्रदाय, रामावत सम्प्रदाय और श्री सम्प्रदाय भी कहते हैं। 'श्री' शब्द का अर्थ लक्ष्मी के स्थान पर 'सीता' किया जाता है। इस सम्प्रदाय का सिद्धान्त विशिष्टाद्वैत कहलाता है। इन सम्प्रदायों में श्री सम्प्रदाय' ही सबसे पुरातन है। इसके अनुयायी ‘श्री वैष्णव' कहलाते हैं। इन अनुयायियों की मान्यता है कि भगवान् नारायण ने अपनी शक्ति श्री (लक्ष्मी) को अध्यात्म ज्ञान प्रदान किया। अयोध्या के राम मंत्रार्थ मण्डपम में राम मंत्र के बारे में लिखा है। राम जी ने स्वम यह महामंत्र सीता जी को दिया, सीताजी ने हनुमान को, हनुमान नें ब्रह्मा जी को, ब्रह्मा नें वाशिष्ट, वाशिष्ट नें पराशर को, व्यास, शुकदेव से होती हुए यह परम्परा आगे इकतालीस आचार्यों की श्रृंखला बनाती है। इस सूची क्रम से इन गुरुओं ने इस परम्परा मिलती है।
इसी आचार्य-परम्परा से कालांतर में रामानुज ने वह अध्यात्म ज्ञान प्राप्त किया। इसके फलस्वरूप श्री रामानुज ने 'श्री वैष्णव' मत को प्रतिष्ठापित कर इसका प्रचार किया।रामानंद प्रारंभ से ही क्रांतिकारी थे इन्होंने रामानुजाचार्य की भक्ति परंपरा को उत्तर भारत में लोकप्रिय बनाया और रामावत संप्रदाय का गठन कर राम तंत्र का प्रचार किया संत रामानंद के गुरु का नाम राघवानंद था जिसका रामानुजाचार्य की भक्ति परंपरा में चौथा स्थान है। 
श्री राम बल्लभा कुंज अयोध्या से प्रकाशित हमारे आचार्य (2) में राम सीता हनुमान सहित एकतालिस आचार्य गुरुओं की सूची इस प्रकार दर्शायी गई है। साथ ही 38वें आचार्य श्री राम बल्लभा शरण दास जी के जीवन की अलौकिक झांकी प्रस्तुत की गई है।
   01.सर्वावातारी सर्वेश्वर साकेत बिहारी भगवान श्री राम                  (नित्य-बिहारी, एवं विभूति)
       ( लोक प्राकट्य: श्री रामनवमी, त्रेतायुग)
हर साल चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी पर भगवान श्री राम का जन्मोत्सव मनाया जाता है। इसी दिन भगवान श्रीराम का प्राकट्य हुआ था। भगवान राम को विष्णु का अवतार माना जाता है। धरती पर असुरों का संहार करने के लिए भगवान विष्णु ने त्रेतायुग में श्रीराम के रूप में मानव अवतार लिया था। भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है। 
नवमी तिथि मधुमास पुनीता,
शुक्ल पक्ष अभिजीत नव प्रीता,
मध्य दिवस अति सीत न घामा,
पवन काल लोक विश्रामा।
राम जी की ज्योति से नूर मिलता है,
सबके दिलों को सूरुर मिलता है।
जो भी जाता है राम के द्वार,
कुछ न कुछ जरुर मिलता है।
           02. सर्वेश्वरी साकेत बिहरिणी श्री सीता                                      (नित्य-बिहारिणी)
       (लोक प्राकट्य: वैशाख शुक्ल नवमी, त्रेतायुग )
पौराणिक ग्रंथों में माता सीता के प्राक्ट्य की कथा कुछ इस प्रकार है। एक बार मिथिला में भयंकर अकाल पड़ा उस समय मिथिला के राजा जनक हुआ करते थे। वह बहुत ही पुण्यात्मा थे, धर्म कर्म के कार्यों में बढ़ चढ़कर रूचि लेते। ज्ञान प्राप्ति के लिए वे आये दिन सभा में कोई न कोई शास्त्रार्थ करवाते और विजेताओं को गौदान भी करते। लेकिन इस अकाल ने उन्हें बहुत विचलित कर दिया, अपनी प्रजा को भूखों मरते देखकर उन्हें बहुत पीड़ा होती। उन्होंने ज्ञानी पंडितों को दरबार में बुलवाया और इस समस्या के कुछ उपाय जानने चाहे। सभी ने अपनी-अपनी राय राजा जनक के सामने रखी। कुल मिलाकर बात यह सामने आयी कि यदि राजा जनक स्वयं हल चलाकर भूमि जोते तो अकाल दूर हो सकता है। अब अपनी प्रजा के लिये राजा जनक हल उठाकर चल पड़े। वह दिन था वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी का। जहां पर उन्होंने हल चलाया वह स्थान वर्तमान में बिहार के सीतामढी के पुनौरा राम गांव को बताया जाता है। तो राजा जनक हल जोतने लगे। हल चलाते-चलाते एक जगह आकर हल अटक गया, उन्होंने पूरी कोशिश की लेकिन हल की नोक ऐसी धंसी हुई थी कि निकले का नाम ही न लें। लेकिन वह तो राजा थे उन्होंने अपने सैनिकों से कहा कि यहां आस पास की जमीन की खुदाई करें और देखें कि हल की फाली की नोक (जिसे सीता भी कहते हैं) कहां फंसी है। सैनिकों ने खुदाई करनी शुरु की तो देखा कि बहुत ही सुंदर और बड़ा सा कलश है जिसमें हल की नोक उलझी हुई है। कलश को बाहर निकाला तो देखा उसमें एक नवजात कन्या है। धरती मां के आशीर्वाद स्वरूप राजा जनक ने इस कन्या को अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार किया। बताते हैं कि उस समय मिथिला में जोर की बारिश हुई और राज्य का अकाल दूर हो हुआ। जब कन्या का नामकरण किया जाने लगा तो चूंकि हल की नोक को सीता कहा जाता है और उसी की बदौलत यह कन्या उनके जीवन में आयी तो उन्होंने इस कन्या का नाम सीता रखा जिसका विवाह आगे चलकर प्रभु श्री राम से हुआ।
                      03.श्री हनुमान जी
       ( लोक प्राकट्य कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी, त्रेतायुग)
भगवान शिव के आठ रूद्रावतारों में एक हैं हनुमान जी। मान्यता है कि नरक चतुर्दशी यानी कार्तिक कृष्ण चतुदर्शी के दिन हनुमान जी का जन्म हुआ था। भगवान राम त्रेतायुग में धर्म की स्थापना करके पृथ्वी से अपने लोक बैकुण्ठ चले गये लेकिन धर्म की रक्षा के लिए हनुमान को अमरता का वरदान दिया। इस वरदान के कारण हनुमान जी आज भी जीवित हैं और भगवान के भक्तों और धर्म की रक्षा में लगे हुए हैं। शास्त्रों का ऐसा मत है कि जहां भी राम कथा होती है वहां हनुमान जी अवश्य होते हैं। इसलिए हनुमान की कृपा पाने के लिए श्री राम की भक्ति जरूरी है। जो राम के भक्त हैं हनुमान उनकी सदैव रक्षा करते हैं।
                           04.श्री ब्रह्मा जी
               ( लोक प्राकट्य: अक्षय नवमी, सतयुग)
ब्रह्मा सनातन धर्म के अनुसार सृजन के देव हैं। हिन्दू दर्शनशास्त्रों में ३ प्रमुख देव बताये गये है जिसमें ब्रह्मा सृष्टि के सर्जक, विष्णु पालक और महेश विलय करने वाले देवता हैं।व्यास लिखित पुराणों में ब्रह्मा का वर्णन किया गया है कि उनके पाँच मुख थे।
 अब उनके चार मुख ही है जो चार दिशाओं में देखते हैं।
ब्रह्मा जी के पिता का नाम ब्रह्म (ज्योति निरंजन) है जिनको परमात्मा ने पांच वेद दिए थे उन पांचों वेदों में पांचवा वेद सूक्ष्म वेद था । समुद्र मंथन के दौरान ब्रह्म ने अपने पुत्र ब्रह्मा को चार वेद दिए तथा पांचवे वेद को नष्ट कर दिया । कबीर सागर के अनुसार पांचवा वेद सूक्ष्म वेद है।ब्रह्मा की उत्पत्ति के विषय पर वर्णन किया गया है। ब्रह्मा की उत्पत्ति विष्णु की नाभि से निकले कमल में स्वयंभू हुई थी। इसने चारों ओर देखा जिनकी वजह से उनके चार मुख हो गये। भारतीय दर्शनशास्त्रों में निर्गुण, निराकार और सर्वव्यापी माने जाने वाली चेतन शक्ति के लिए ब्रह्म शब्द प्रयोग किया गया है। इन्हें परब्रह्म या परम् तत्व भी कहा गया है। पूजा-पाठ करने वालों के लिए ब्राह्मण शब्द प्रयोग किया गया हैं।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, आंवले की उत्पत्ति परमपिता ब्रह्मा जी के आंसू की बूंदों से हुई है. आंवले को विश्व की शुरुआत का पहला फल मानकर पूजा की जाती है.
                     05. श्री वशिष्ठ जी
          ( लोक प्राकट्य: ऋषि पंचमी, सतयुग)
वशिष्ठ वैदिक काल के विख्यात ऋषि थे। वे एक सप्तर्षि हैं - यानि के उन सात ऋषियों में से एक जिन्हें ईश्वर द्वारा सत्य का ज्ञान एक साथ हुआ था , जिन्होंने मिलकर वेदों का दर्शन किया। वेदों की रचना की, ऐसा कहना अनुचित होगा क्योंकि वेद तो अनादि है। उनकी पत्नी अरुन्धती है। वह योग-वासिष्ठ में श्री राम के गुरु हैं। वशिष्ठ राजा दशरथ के राजकुल गुरु भी थे। वशिष्ठ ब्रम्हा के मानस पुत्र थे। त्रिकाल दर्शी तथा बहुत ज्ञानवान ऋषि थे। सूर्य वंशी राजा इनकी आज्ञा के बिना कोई धार्मिक कार्य नही करते थे। त्रेता के अंत मे ये ब्रम्हा लोक चले गए थे । आकाश में चमकते सात तारों के समूह में पंक्ति के एक स्थान पर वशिष्ठ को स्थित माना जाता है। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को आती है ऋषि पंचमी। अंजाने में हुए पाप से मुक्ति तभी मिलती है जब ऋषि पंचमी का व्रत रखा जाये। इस व्रत में सप्तऋषियों समेत अरुन्धती का पूजन होता है।
                        06.श्री पराशर जी
            (लोक प्राकट्यआश्विन शुक्ल १५, सतयुग)
ऋग्वेद के मंत्रदृष्टा और गायत्री मंत्र के महान साधक सप्त ऋषियों में से एक महर्षि वशिष्ठ के पौत्र महान वेदज्ञ, ज्योतिषाचार्य, स्मृतिकार एवं ब्रह्मज्ञानी ऋषि पराशर के पिता का नाम शक्तिमुनि और माता का नाम अद्यश्यंती था। ऋषि पराशर ने निषादाज की कन्या सत्यवती के साथ उसकी कुंआरी अवस्था में समागम किया था जिसके चलते 'महाभारत' के लेखक वेदव्यास का जन्म हुआ। सत्यवती ने बाद में राजा शांतनु से विवाह किया था। पराशर बाष्कल और याज्ञवल्क्य के शिष्य थे। पराशर ऋषि के पिता को राक्षस कल्माषपाद ने खा लिया था। जब यह बात पराशर ऋषि को पता चली तो उन्होंने राक्षसों के समूल नाश हेतु राक्षस-सत्र यज्ञ प्रारंभ किया जिसमें एक के बाद एक राक्षस खिंचे चले आकर उसमें भस्म होते गए। कई राक्षस स्वाहा होते जा रहे थे, ऐसे में महर्षि पुलस्त्य ने पराशर ऋषि के पास पहुंचकर उनसे यह यज्ञ रोकने की प्रार्थना की और उन्होंने अहिंसा का उपदेश भी दिया। पराशर ऋषि के पुत्र वेदव्यास ने भी पराशर से इस यज्ञ को रोकने की प्रार्थना की। उन्होंने समझाया कि बिना किसी दोष के समस्त राक्षसों का संहार करना अनुचित है। पुलस्त्य तथा व्यास की प्रार्थना और उपदेश के बाद उन्होंने यह राक्षस-सत्र यज्ञ की पूर्णाहुति देकर इसे रोक दिया। एक दिन की बात है कि शक्ति एकायन मार्ग द्वारा पूर्व दिशा से आ रहे थे। दूसरी ओर (पश्चिम) से आ रहे थे राजा कल्माषपाद। रास्ता इतना संकरा था कि एक ही व्यक्ति निकल सकता था तथा दूसरे का हटना आवश्यक था। लेकिन राजा को राजदंड का अहंकार था और शक्ति को अपने ऋषि होने का अहंकार। राजा से ऋषि बड़ा ही होता है, ऐसे में तो राजा को ही हट जाना चाहिए था। लेकिन राजा ने हटना तो दूर उन्होंने ऋषि शक्ति को कोड़ों से मारना प्रारंभ कर दिया। राजा का यह कर्म राक्षसों जैसा था अत: शक्ति ने राजा को राक्षस होने का शाप दे दिया। शक्ति के शाप से राजा कल्माषपाद राक्षस हो गए। राक्षस बने राजा ने अपना प्रथम ग्रास शक्ति को ही बनाया और ऋषि शक्ति की जीवनलीला समाप्त हो गई।
ऋषि पराशरजी एक दिव्‍य और अलौकिक शक्ति से संपन्न ऋषि थे। उन्‍होंने धर्मशास्‍त्र, ज्‍योतिष, वास्‍तुकला, आयुर्वेद, नीतिशास्‍त्र, विषयक ज्ञान को प्रकट किया। उनके द्वारा रचित ग्रं‍थ वृहत्‍पराशर होराशास्‍त्र, लघुपराशरी, वृहत्‍पराशरीय धर्म संहिता, पराशर धर्म संहिता, पराशरोदितम, वास्‍तुशास्‍त्रम, पराशर संहिता (आयुर्वेद), पराशर महापुराण, पराशर नीतिशास्‍त्र, आदि मानव मात्र के लिए कल्‍याणार्थ रचित ग्रं‍थ जगप्रसिद्ध हैं जिनकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।
                       07. श्री व्यास जी
            (लोक प्राकट्य:गुरु पूर्णिमा, द्वापर युग)
आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा और व्यास पूर्णिमा का विशेष पर्व मनाया जाता है। गुरु पूर्णिमा के दिन शिष्य अपने गुरु की पूजा करते हैं और उन्हें उपहार भी देते हैं। भारतीय संस्कृति में गुरु देवता को तुल्य माना गया है। महर्षि वेदव्यास का जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को लगभग 3000 ई. पूर्व में हुआ था। उनके सम्मान में ही हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा और व्यास पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। वेद, उपनिषद और पुराणों का प्रणयन करने वाले वेद व्यासजी को समस्त मानव जाति का गुरु माना जाता है। बहुत से लोग इस दिन व्यासजी के चित्र का पूजन और उनके द्वारा रचित ग्रंथों का अध्ययन करते हैं। बहुत से मठों और आश्रमों में लोग ब्रह्मलीन संतों की मूर्ति या समाधी की पूजा करते। समय आने पर सत्यवती को एक पुत्र हुआ, जिनका नाम कृष्ण द्वैपायन रखा। यही कृष्ण आगे चलकर वेद व्यास के नाम से प्रसिद्ध हुए। वेदों के विस्तार के कारण ये वेदव्यास के नाम से जाने जाते हैं। वेद व्यास ने चारो वेदों के विस्तार के साथ-साथ 18 महापुराणों तथा ब्रह्मसूत्र का भी प्रणयन किया। महर्षि वेदव्यास महाभारत के रचयिता हैं, बल्कि वह उन घटनाओ के भी साक्षी रहे हैं जो घटित हुई हैं।
                        08. श्री शुकदेव जी
          (लोक प्राकट्य:श्रावण शुक्ल १५, द्वापर युग)
शुकदेव वेदव्यास के पुत्र थे। वे बचपन में ही ज्ञान प्राप्ति के लिये वन में चले गये थे। इन्होंने ही परीक्षित को 'श्रीमद्भागवत पुराण' सुनाया था। शुकदेव जी ने व्यास से 'महाभारत' भी पढ़ा था और उसे देवताओं को सुनाया था। शुकदेव मुनि कम अवस्था में ही ब्रह्मलीन हो गये थे। कहीं इन्हें व्यास की पत्नी वटिका के तप का परिणाम और कहीं व्यास जी की तपस्या के परिणामस्वरूप भगवान शंकर का अद्भुत वरदान बताया गया है। विरजा क्षेत्र के पितरों के पुत्री पीवरी से शुकदेव का विवाह हुआ था। एक कथा ऐसी भी है कि जब जब इस धराधाम पर भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधिकाजी का अवतरण हुआ, तब श्रीराधिकाजी का क्रीडाशुक भी इस धराधाम पर आया। उसी समय भगवान शिव पार्वती को अमर कथा सुना रहे थे। पार्वती जी कथा सुनते-सुनते निद्रा के वशीभूत हो गयीं और उनकी जगह पर शुक ने हुंकारी भरना प्रारम्भ कर दिया। जब भगवान शिव को यह बात ज्ञात हुई, तब उन्होंने शुक को मारने के लिये उसका पीछा किया। शुक भागकर व्यास के आश्रम में आया और सूक्ष्म रूप बनाकर उनकी पत्नी के मुख में घुस गया। भगवान शंकर वापस लौट गये। यही शुक व्यासजी के अयोनिज पुत्र के रूप में प्रकट हुए। गर्भ में ही इन्हें वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि का सम्यक ज्ञान हो गया था।
ऐसा कहा जाता है कि ये बारह वर्ष तक गर्भ के बाहर ही नहीं निकले। जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर इन्हें आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, तभी ये गर्भ से बाहर निकले। जन्मते ही श्रीकृष्ण और अपने पिता-माता को प्रणाम करके इन्होंने तपस्या के लिये जंगल की राह ली। व्यास जी इनके पीछे-पीछे 'हा पुत्र! पुकारते रहे, किन्तु इन्होंने उन पर कोई ध्यान न दिया।
        09.श्री पुरुषोत्तमाचार्य जी (बोधायन ऋषि)
  ( लोक प्राकट्य:पौष कृष्ण १२, विक्रम संवत पूर्व ५६९-३२०)
  बौधायन भारत के प्राचीन गणितज्ञ और शुल्ब सूत्र तथा श्रौतसूत्र के रचयिता थे। आचार्य बौधायन लगभग 1200 ई.पू. से 800 ई.पू.में वेदी ब्राह्मण और गणितज्ञ थे । ज्यामिति के विषय में प्रमाणिक मानते हुए सारे विश्व में यूक्लिड की ही ज्यामिति पढ़ाई जाती है। मगर यह स्मरण रखना चाहिए कि महान यूनानी ज्यामितिशास्त्री यूक्लिड से पूर्व ही भारत में कई रेखागणितज्ञ ज्यामिति के महत्वपूर्ण नियमों की खोज कर चुके थे, उन रेखागणितज्ञों में बौधायन का नाम सर्वोपरि है। उस समय भारत में रेखागणित या ज्यामिति को शुल्व शास्त्रभी कहा जाता था।                    10. श्री गंगाधराचार्य जी
     (लोक प्राकट्य:माघ कृष्ण ११, वि.पू. ४७९-२८९)
दसवें क्रम में श्री गंगाधराचार्य जी का नाम आता है। गंगाधराचार्य जी श्री सम्प्रदाय के महान् गुरुभक्त संत हुए है श्री गंगाधराचार्य जी , जिनकी गुरु भक्ति के कारण इनका नाम गुरुदेव ने श्री पादपद्माचार्य रख दिया था । श्री गंगा जी के तट पर इनके सम्प्रदाय का आश्रम बना हुआ था और अनेक पर्ण कुटियां बनी हुई थी । वही पर एक मंदिर था और संतो के आसन लगाने की व्यवस्था भी थी । स्थान पर नित्य संत सेवा , ठाकुर सेवा और गौ सेवा चलती थी । इस गुरुनिष्ठ शिष्य की मर्यादा और गुरु भक्ति की रक्षा करने हेतु श्री गंगा जी ने वहां अनेक विशाल कमलपुष्प उत्पन्न कर दिए ।गुरुदेव ने उन कमलपुष्पो पर पैर रखते हुए चलकर शीघ्र अचला ,लंगोटी और कमंडल लेकर आने को कहा । उन्ही पर पैर रखते हुए ये गुरुदेव के समीप दौडकर गये । श्री गंगाधराचार्य जी का जो प्रभाव गुप्त था, वह उस दिन प्रकट हो गया, इस दिव्य चमत्कार को देखकर सभो के मन मे गंगा जी और पादपद्म जी मे अपार श्रद्धा हो गयी । गुरुजी ने कहा – बेटा धन्य है तुम्हारी गुरुभक्ति जिसके प्रताप से गंगा जी ने यह कमल पुष्प उत्पन्न कर दिए । संसार मे आज के पश्चात तुम्हारा नाम पादपद्माचार्य के नाम से प्रसिद्ध होगा । उसी दिन से गंगाधराचार्य जी का का नाम पादपद्माचार्य पड गया ।

Sunday, April 17, 2022

नरहरिदास( नरहर्यानन्द)रामानंद सम्प्रदाय परम्परा (9) डा. राधे श्याम द्विवेदी

चौबीसवें क्रम में श्री  गयानंदाचार्य जी का नाम आता है। इनके बारे में ज्यादा सूचनाएं नहीं मिलती है। किसी दूसरी सूची में 23 वें क्रम में अनंतानन्द का नाम मिलता है पर सूचनाएं सीमित हैं। इसी सूची में 24वें क्रम श्रीरंगाचार्य का नाम आता है।अनंतानन्द जी के ६ शिष्य: श्री गयेश, श्री करमचंद, श्री अल्ह्दास , श्री कृष्णदास पयहारी, श्री सारीरामदास, और श्री श्रीरंगाचार्य हैं।25वें  क्रम पर नरहर्यानन्द (नरहरिदास)का नाम आता है। पूर्व वर्णित रामानन्द के 12 शिष्य थे, जिनमें मुख्य कबीरदास, रैदास (रविदास), नरहर्यानन्द (नरहरिदास), धन्ना (जाट), सेना (नाई), पीपा (राजपूत), सदना (कसाई) थे। रामानन्द से दीक्षा लेने के बाद नरहर्यानन्द से नरहरिदास बन गए। संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास के निर्माण में सद्गुरु संत नरहरिदासजी का वही स्थान है जो श्रीरामचन्द्रजी के निर्माण में महर्षि श्रीविश्वामित्रजी, अर्जुन के निर्माण में श्रीकृष्णचन्द्रजी, छत्रपति शिवाजी के निर्माण में श्रीस्वामी समर्थगुरु रामदासजी, वीर छत्रसाल के निर्माण में श्रीस्वामी प्राणनाथजी, वीरबन्दा बैरागी के निर्माण में श्रीगुरुगोविन्द सिंहजी, स्वामी विवेकानन्दजी के निर्माण में श्रीरामकृष्ण परमहंसजी का स्थान है। संत नरहरि अमूल्य पारसमणि थे जो रामबोला रुपी लोहा को स्पर्श करके स्वर्ण बना दिया। अगर तुलसी भारतीय संस्कृति रुपी मंदिर प्रतिष्ठित देव हैं तो नरहरि उस मंदिर की नींव हैं।

रहरि या नरहरिदास (जन्म : 1505, मत्यु : 1610) हिंदी साहित्य की भक्ति परंपरा में ब्रजभाषा के कवि थे। इन्हें संस्कृत और फारसी का भी अच्छा ज्ञान था। उनका जन्म1505 ई० (सम्वत्- 1562 वि०) है।वह पखरौली, रायबरेली , उत्तर प्रदेश, भारत में पैदा हुए थे। उनकी मृत्यु 1610 ई० (संवत 1667 वि०) में हुई थी। उनका दर्शन  वैष्णव बैरागी था।साहित्यिक कार्यमें रुक्मिणी मंगल, छप्पय नीति, कवित्त संग्रह इत्यादि है। नरहरि का जन्म उत्तर प्रदेश में रायबरेली, जिले के पखरौली नामक गाँव में हुआ था। इनका संपर्क हुमायूँ, शेरशाह सूरी, सलीमशाह तथा रीवाँ नरेश रामचंद्र आदि शासकों से माना जाता है। हालांकि इनको सर्वाधिक महत्व अकबर ने प्रदान किया।

गुरु-शिष्य परंपरा:-नरहरिदास तुलसीदास (1532-1623) के गुरू माने जाते हैं, हालांकि इस बात के स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं। स्वामी अनंतानंद के प्रिय शिष्य श्री नरहर्यानंद जि ने तुलसी दास का यज्ञोपवीत संस्कार सम्वत 1561 मे कराया ओर इनका नाम रखा रामबोला. इसके बाद श्री नरहर्यानंद जि ने इनके पांच संस्कार करके राममंत्र की दीक्षा दी. अयोध्या मे हि रहकर इनको विद्याध्ययन कराया. इन्होने बाद मे काशी मे गुरु शेष सनातन जि से 15 वर्ष तक वेद अध्ययन किया तथा वेदांग ओर रामायण भी पढ़ी.

रचनाएँ:-इनके नाम से तीन ग्रंथ - रुक्मिणी मंगल, छप्पय नीति और कवित्त संग्रह प्रसिद्ध हैं जिनमें से केवल 'रुक्मिणी मंगल' ही प्राप्त हो सका है। इनकी कुछ फुटकल रचनाएँ भी मिलती हैं।

Monday, April 11, 2022

श्री पुरुषोत्तम आचार्य बोधायन गणितज्ञ भी रहे / श्री सनातन रामानंद सम्प्रदाय कुल परम्परा (8) /डा. राधे श्याम द्विवेदी

रामानंद सम्प्रदाय की कुल परम्परा के इकतालीस आचार्यों की श्रृंखला के नवें क्रम में श्री पुरुषोत्तम आचार्य जी का नाम आता है। बौधायन भारत के प्राचीन गणितज्ञ और शुल्ब सूत्र  तथा  श्रौतसूत्र के रचयिता थे। आचार्य बौधायन लगभग 1200 ई.पू. से 800 ई.पू.में वेदी ब्राह्मण और गणितज्ञ थे । ज्यामिति के विषय में प्रमाणिक मानते हुए सारे विश्व में यूक्लिड की ही ज्यामिति पढ़ाई जाती है। मगर यह स्मरण रखना चाहिए कि महान यूनानी ज्यामितिशास्त्री यूक्लिड से पूर्व ही भारत में कई रेखागणितज्ञ ज्यामिति के महत्वपूर्ण नियमों की खोज कर चुके थे, उन रेखागणितज्ञों में बौधायन का नाम सर्वोपरि है। उस समय भारत में रेखागणित या ज्यामिति को शुल्व शास्त्रभी कहा जाता था।
बौधायन के सूत्र ग्रन्थ
बौधायन के सूत्र वैदिक संस्कृत में हैं तथा धर्म, दैनिक कर्मकाण्ड, गणित आदि से सम्बन्धित हैं। वे कृष्ण यजुर्वेद के तैत्तिरीय शाखा से सम्बन्धित हैं। सूत्र ग्रन्थों में सम्भवतः ये प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। इनकी रचना सम्भवतः ८वीं-७वीं शताब्दी ईसापूर्व हुई थी। बौधायन सूत्र के अन्तर्गत निम्नलिखित ६ ग्रन्थ आते हैं-
1. बौधायन श्रौतसूत्र - यह सम्भवतः १९ प्रश्नों के रूप में है।
2. बौधायन कर्मान्तसूत्र - २१ अध्यायों में
3. बौधायन द्वैधसूत्र - ४ प्रश्न
4. बौधायन गृह्यसूत्र - ४ प्रश्न
5. बौधायन धर्मसूत्र - ४ प्रश्नों में
6. बौधायन शुल्बसूत्र - ३ अध्यायों में
सबसे बड़ी बात यह है कि बौधायन के शुल्बसूत्रों में आरम्भिक गणित और ज्यामिति के बहुत से परिणाम और प्रमेय हैं, जिनमें २ का वर्गमूल का सन्निकट मान, तथा पाइथागोरस प्रमेय का एक कथन शामिल है।
बौधायन प्रमेय या पाइथागोरस प्रमेय 
समकोण त्रिभुज से सम्बन्धित पाइथागोरस प्रमेय सबसे पहले महर्षि बोधायन की देन है। पायथागोरस का जन्म तो ईसा के जन्म के 8 वी शताब्दी पहले हुआ था जबकि हमारे यहाँ इसे ईसा के जन्म के 15 वी शताब्दी पहले से ही ये पढ़ायी जाती थी। बौधायन का यह निम्न लिखित सूत्र है :
दीर्घचतुरश्रस्याक्ष्णया रज्जुः पार्श्वमानी तिर्यग् मानी च यत् पृथग् भूते कुरूतस्तदुभयं करोति ॥
विकर्ण पर कोई रस्सी तानी जाय तो उस पर बने वर्ग का क्षेत्रफल ऊर्ध्व भुजा पर बने वर्ग तथा क्षैतिज भुजा पर बने वर्ग के योग के बराबर होता है।यह कथन 'पाइथागोरस प्रमेय' का सबसे प्राचीन लिखित कथन है।
2 का वर्गमूल
बौधायन श्लोक संख्या i.61-2 (जो आपस्तम्ब i.6 में विस्तारित किया गया है) किसी वर्ग की भुजाओं की लम्बाई दिए होने पर विकर्ण की लम्बाई निकालने की विधि बताता है। दूसरे शब्दों में यह 2 का वर्गमूल निकालने की विधि बताता है।
समस्य द्विकर्णि प्रमाणं तृतीयेन वर्धयेत।
तच् चतुर्थेनात्मचतुस्त्रिंशोनेन सविशेषः। ।
किसी वर्ग का विकर्ण का मान प्राप्त करने के लिए भुजा में एक-तिहाई जोड़कर, फिर इसका एक-चौथाई जोड़कर, फिर इसका चौतीसवाँ भाग घटाकर जो मिलता है वही लगभग विकर्ण का मान है।
अर्थात्
{\displaystyle {\sqrt {2}}\approx 1+{\frac {1}{3}}+{\frac {1}{3\cdot 4}}-{\frac {1}{3\cdot 4\cdot 34}}={\frac {577}{408}}\approx 1.414216,}
यह मान दशमलव के पाँच स्थानों तक शुद्ध है।
वर्ग के क्षेत्रफल के बराबर क्षेत्रफल के वृत्त का निर्माणसंपादित करेंचतुरस्रं मण्डलं चिकीर्षन्न् अक्षयार्धं मध्यात्प्राचीमभ्यापातयेत्।यदतिशिष्यते तस्य सह तृतीयेन मण्डलं परिलिखेत्। ।
 (I-58)Draw half its diagonal about the centre towards the East-West line; then describe a circle together with a third part of that which lies outside the square.अर्थात् यदि वर्ग की भुजा 2a हो तो वृत्त की त्रिज्या r = [a+1/3(√2a – a)] = [1+1/3(√2 – 1)] a
वृत्त के क्षेत्रफल के बराबर क्षेत्रफल के वर्ग 
मण्डलं चतुरस्रं चिकीर्षन्विष्कम्भमष्टौ भागान्कृत्वा भागमेकोनत्रिंशधाविभाज्याष्टाविंशतिभागानुद्धरेत् भागस्य च षष्ठमष्टमभागोनम् ॥ (I-59))
If you wish to turn a circle into a square, divide the diameter into eight parts and one of these parts into twenty-nine parts: of these twenty-nine parts remove twenty-eight and moreover the sixth part (of the one part left) less the eighth part (of the sixth part).
बौधायन द्वारा प्रतिपादित कुछ प्रमुख प्रमेय ये हैं-
किसी आयत के विकर्ण एक दूसरे को समद्विभाजित करते हैं।
समचतुर्भुज (रोम्बस) के विकर्ण एक-दूसरे को समकोण पर समद्विभाजित करते हैं
किसी वर्ग की भुजाओं के मध्य बिन्दुओं को मिलाने से बने वर्ग का क्षेत्रफल मूल वर्ग के क्षेत्रफल का आधा होता है।
किसी आयत की भुजाओं के मध्य बिन्दुओं को मिलाने से समचतुर्भुज बनता है जिसका क्षेत्रफल मूल आयत के क्षेत्रफल का आधा होता है।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि बौधायन ने आयत, वर्ग, समकोण त्रिभुज समचतुर्भुज के गुणों तथा क्षेत्रफलों का विधिवत अध्ययन किया था। यज शायद उस समय यज्ञ के लिए बनायी जाने वाली 'यज्ञ भूमिका' के महत्व के कारण था।

Saturday, April 9, 2022

योगानंदाचार्य : श्री सनातन रामानंद सम्प्रदाय कुल परम्परा (7)डा. राधे श्याम द्विवेदी

रामानंद सम्प्रदाय की कुल परम्परा के तेइसवें क्रम में श्री योगानंदाचार्य जी का नाम आता है। स्वामी रामानंदाचार्यजी के कुल 12 प्रमुख शिष्य में श्री योगानंदाचार्य जी ने गुरु परंपरा को आगे बढ़ाया। यद्यपि स्वामी रामानुज द्वारा स्थापित श्री संप्रदाय का प्रभाव दक्षिण भारत में ही अधिक रहा परंतु 15 वीं शताब्दी के आते आते कई वैष्णव संप्रदाय उत्तर भारत में सशक्त संगठन तैयार कर चुके थे। स्वामी रामानुज द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों को उत्तर भारत में स्वामी रामानंद जी ने आगे बढ़ाया और विष्णु भक्ति के साथ साथ राम भक्ति का प्रचार प्रसार आरंभ हुआ।
       देशभर में 36 रामानंदी मठों की स्थापना हुई। इनमें से अधिकतर राजस्थान, पंजाब, बिहार और मध्य प्रदेश में स्थापित किए गए। इन 36 रामानंदी मठों को द्वारे का नाम दिया गया और इन द्वारों के अधीन सैकड़ों उपद्वारे, अस्थल एवं मंदिर स्थापित किए गए। इन धार्मिक स्थानों का निर्माण शहरों की घनी बस्ती एवं ग्रामीण अंचल तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि कई ऐसे दुर्गम स्थानों पर भी मंदिरों का निर्माण किया गया जहां मानव जीवन यापन भी अत्यंत कठिन परिस्थितियों में था।
रामकुंडा योगानंदी द्वारे का उप द्वारा 
जैसलमेर से पाकिस्तान सरहद की तरफ जाने वाले रास्ते पर शहर से 12 किलोमीटर दूर स्थित भगवान राम का यह मंदिर योगानंदी द्वारे का उप द्वारा है और रामकुंडा के नाम से प्रसिद्ध है। इस मठ की स्थापना स्वामी अनंतराम नाम के एक रामानंदी संत ने वर्ष 1662 में राजा अमर सिंह के सहयोग से की थी।
 राजा अमर सिंह के भाई राज सिंह के निवेदन पर अनंत राम जी जैसलमेर आए थे। इस मठ में भगवान विष्णु का मंदिर और राम दरबार स्थापित है। सनातन धर्म की शिक्षा हेतु एक गुरुकुल भी स्थापित किया गया था । 
रामानंदी मठों की स्थापना के इस क्रम में बिहार में भी कई मठों की स्थापना हुई और स्वामी रामानंद जी के शिष्य स्वामी योगानंदाचार्य जी ने बिहार में आरा नामक स्थान पर एक मठ की स्थापना की। बिहार के मध्य में स्थित इस मठ के संतों का कार्य क्षेत्र केवल बिहार तक सीमित नहीं रहा बल्कि उन्होंने देश में अनेक स्थानों पर राम भक्ति का प्रचार करने हेतु मंदिरों की स्थापना की। उन दिनों वैष्णव धर्म की दीक्षा के उपरांत साधु संत 52 वैष्णव मठों और प्रमुख वैष्णव मंदिरों के दर्शन के लिए देश भर का भ्रमण करते थे। थार मरुस्थल में स्थित रामकुंडा नाम का यह मंदिर भी उन स्थानों में से एक था जहां हर वर्ष सैकड़ों साधु संत अपनी धार्मिक आस्था को संतुष्ट करते थे। सनातन धर्म को हर स्थान और हर जाति तक पहुंचाना रामानंदी संप्रदाय का लक्ष्य था। इसलिए रामानंदी संतो ने अत्यंत दुर्गम स्थानों को भी धार्मिक आस्था और राम भक्ति से वंचित नहीं रखा।
         इकतालीस आचार्यों की श्रृंखला के चौबीसवें क्रम में श्री गयानंदाचार्य जी का नाम आता है। इनके बारे में ज्यादा सूचनाएं नहीं मिलती है।




















निर्गुण - सगुण सर्वधर्म समभाव की विचारधारा के प्रवर्तक रामानंद (6) डा. राधे श्याम द्विवेदी

प्रारंभिक जीवन
रामानंद का जन्म 1299 में इलाहाबाद में एक कान्यकुब्ज परिवार में हुआ था उनकी प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा काशी में हुई थी। यही पर उन्होने स्वामी राघवानंदन से श्री संप्रदाय की दीक्षा ली थी उन्होंने दक्षिण और उत्तर भारत के अनेक स्थानों की यात्रा की थी और भक्ति को मोक्ष का एकमात्र साधन स्वीकार किया था। राघवानंदन के आराध्य देव राम थे उन्होंने कृष्ण और राधा के स्थान पर राम और सीता की भक्ति का आरंभ किया । स्वामी रामानंद को मध्यकालीन भक्ति आंदोलन का महान संत माना जाता है । स्वामी रामानंद ने राम भक्ति की धारा को समाज के निचले स्तर तक पहुंचाया।  उत्तर भारत में भक्ति का प्रचार करने का श्रेय स्वामी रामानंद को जाता है। ईश्वर को प्राप्त करने के लिए उन्होंने पूरी भक्ति और अनुराग का दर्शन दिया। रामानंद कबीर के गुरू थे । रामानंद जी का कहना था , "सभी मनुष्य ईश्वर की संतान हैं ना कोई ऊंचा है न नीचे मनुष्य मनुष्य में कोई भेद नहीं है सबसे प्रेम करो सब के अधिकार समान है।"
रामानंद प्रारंभ से ही क्रांतिकारी थे। इन्होंने रामानुजाचार्य की भक्ति परंपरा को उत्तर भारत में लोकप्रिय बनाया और रामावत संप्रदाय का गठन कर राम तंत्र का प्रचार किया । संत रामानंद के गुरु का नाम राघवानंद था। जिसका रामानुजाचार्य की भक्ति परंपरा में चौथा स्थान है। इनके माता-पिता धार्मिक विचारों और संस्कारों के थे। इसीलिए रामानंद के विचारों पर भी माता-पिता के संस्कारों का प्रभाव पड़ा बचपन से ही रामानंद पूजा पाठ में रुचि लेने लगे थे। रामानंद प्रखर बुद्धि के बालक थे । अतः धर्म शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए इन्हें काशी भेजा गया वही पर दक्षिण भारत से आए गुरु राघवानंद से इनकी भेंट हुई थी। रामानंद वैष्णव संप्रदाय में विश्वास रखते थे उस समय वैष्णव संप्रदाय में अनेक रूढ़ियां थी जैसे कि लोगों में जातिपात का भेद था ,पूजा उपासना में कर्मकांडों का जोर था ,रामानंद को यह सब अच्छा नहीं लगता था।
देशाटन
रामानंद अपने गुरु से शिक्षा प्राप्त करके देश की यात्रा पर निकल गए और समाज में फैली जाति धर्म संप्रदाय आदि की विषमता को जानने और उन्हें समाज से दूर करने के लिए मन में दृढ संकल्प लिया। देश के भ्रमण के बाद जब रामानंद आश्रम में वापस गए तो उनके गुरु राघवानंद ने उन्हें आश्रम में नहीं आने दिया । उन्हें यह कह कर मना कर दिया कि तुमने दूसरी जाति के लोगों के साथ भोजन किया। तुमने जाति का ध्यान नहीं रखा। इसलिए तुम हमारे आश्रम में नहीं रह सकते । अपने गुरु के यह वचन सुनकर रामानंद को बहुत दुख और काफी गहरा आघात पहुंचा। उसी समय उन्होंने अपने गुरु का आश्रम त्याग दिया। रामानंद संस्कृत के पंडित थे और संस्कृत में उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की लेकिन उन्होंने अपने उपदेश और विचारों को जन भाषा हिंदी में प्रचारित किया क्योंकि उनका मानना था कि हिंदी ही एकमात्र ऐसी भाषा है जिसके माध्यम से संपूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।अपनी उदार विचारधारा के कारण रामानन्द ने स्वतन्त्र सम्प्रदाय स्थापित किया। उनका केन्द्र मठ काशी के पंच गंगाघाट पर था। उन्होंने भारत के प्रमुख तीर्थों की यात्राएँ की थीं और अपने मत का प्रचार किया था। साम्प्रदायिक मत के अनुसार एक मूल ‘श्री सम्प्रदाय’ की आगे चलकर दो शाखाएँ हुई एक में लक्ष्मी नारायण की उपासना की गयी, दूसरी में सीताराम की। कालान्तर में पहली शाखा ने दूसरी को दबा लिया। रामानन्द ने दूसरी शाखा को पुर्न जीवित किया।
रामानन्द के प्रमुख शिष्य-
अनन्तानन्द कबीर सुखानन्द सुर सुरानन्द पद्मावती नरहर्यानन्द पीपा भावानन्द रैदास धना सेन और सुरसुरी आदि थे।
रामानंद संप्रदाय का विस्तार
जब समाज में चारों और आपसी कटुता और वैमनस्य का भाव भरा हुआ था। उस समय में स्वामी रामानंद ने नारा दिया “”जात पात पूछे ना कोई हरि को भजे सो हरि का होई”” उन्होंने भक्ति का मार्ग सबके लिए खोल दिया। काशी के पंचगंगा घाट पर अवस्थित श्रीमठ दुनिया भर में फैले रामानंद जी का मूल गुरु स्थान है। यह वही श्रीमठ है जहां पर रामानंद जी ने शिक्षा ग्रहणकी थी। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो काशी का श्रीमठ सगुण और निर्गुण राम भक्ति परंपरा और रामानंद संप्रदाय का मूल आचार्य पीठ है। इस संप्रदाय का नाम श्री संप्रदाय और वैरागी संप्रदाय भी है इस संप्रदाय में आचार पर अधिक बल नहीं दिया जाता है। कर्मकांड का महत्व यहां बहुत कम है इस संप्रदाय के अनुयाई अवधुत और तपसी भी कहलाते हैं। रामानंद के धार्मिक आंदोलन में जाति पाती का भेद भाव नहीं था उनके शिष्य में हिंदुओं की विभिन्न जातियों के लोगों के साथ साथ मुसलमान भी थे भारत में रामानंदी साधुओं की संख्या सर्वाधिक है।
भक्ति मार्ग का प्रचार
स्वामी रामानंद ने भक्ति मार्ग का प्रचार करने के लिए देशभर की यात्राएं की थी स्वामी रामानंद पूरी और दक्षिण भारत के कई धर्म स्थानों पर और रामभक्ति का प्रचार किया। सबसे पहले उन्हें स्वामी रामानुज का अनुयाई माना जाता था लेकिन श्री संप्रदाय का आचार्य होने के बावजूद उन्होंने अपनी उपासना पद्धति में राम और सीता को वरीयता दी थी। उन्हें ही अपना उपास्य बनाया रामभक्ति की पावन धारा को हिमालय की पावन ऊंचाइयों से उतारकर स्वामी रामानंद ने गरीबों और वंचितो की झोपड़ी तक पहुंचाया। वह भक्ति मार्ग के ऐसे सोपान थे जिन्होंने वैष्णव भक्ति साधना को नया आयाम दिया। रामानंद की पवित्र चरण पादुकाएं आज भी श्रीमठ काशी में रखी गई है जो करोड़ों रामानंद इनकी आस्था का केंद्र है। रामानंद स्वामी जी ने भक्ति के प्रचार में संस्कृत की जगह लोक भाषा को प्राथमिकता दी थी।आचार्यपाद ने स्वतंत्र रूप से श्री संप्रदायका प्रवर्तन किया था। इन्होने बिखरते और नीचे गिरते हुए समाज को मजबूत बनाने की भावना से भक्ति मार्गमें जातिवादी के भेद को व्यर्थबताया और कहा कि भगवान की शरण गति का मार्ग सबके लिए समान रूप से खुला है।रामानंद संप्रदाय का मूल उद्देश्य समाज में फैली हुई कुरीतियां जाति-पाति के भेदभाव ऊंच नीच छुआछूत आदि को जड़ से खत्म करना,जातिवाद ,छुआछूत के संबंध में रामानंद के विचार और भक्ति का मार्ग बनाना आदि। रामानंद के मन में समाज में फैली ऊंच-नीच छुआछूत जाति पाती की भावनाओं को दूर करने का दृढ़ संकल्प था। उनका विचार था कि यदि समाज में इस तरह की भावनाएं रही तो सामाजिक विकास नहीं हो सकता। उन्होंने एक नए मार्ग और नए दर्शन की शुरुआत की जिसे भक्ति मार्ग की संज्ञा दी गई। उन्होंने इस मार्ग को अधिक उदार और समता मूलक* बनाया और भक्ति के द्वार धनी-निर्धन, नारी-पुरुष, ब्राह्मण सबके लिए खोल दिए। धीरे धीरे भक्ति मार्ग का प्रचार-प्रसार इतना बढ़ गया कि ग्रियर्सन ने इस सम्प्रदाय को बौद्ध धर्म के आंदोलन से बढ़कर बताया। ब्राह्मणों की प्रभुता को अस्वीकार करते हुए उन्होंने सभी जातियोंके लिए भक्ति का द्वार खोल दिया और भक्ति आंदोलन को एक नया आध्यात्मिक मार्ग दिखाया। उन्होंने तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों जैसे छुआछूत ऊंच नीच और जात-पात का विरोध किया था।जाति प्रथा का विरोध करते हुए उन्होंने सभी जाति के लोगों को अपना शिष्य बनाया।
रामानंद के बारह शिष्य थे -अनंत ,सुखानंद, सुरसुरा नंद, नरहरयानंद,भावानंद,  धन्ना ,पीपा, सेना ,रैदास ,कबीर पद्मावती, सुरसरि आदि, जिसमें – कुछ निम्न जाति के लोग भी थे  जिसमें धन्ना (जाट), सेना (दास /नाई),  रैदास (चर्मकार), कबीर (जुलाहा ), पीपा (राजपूत)। रामानंद जी के बारह शिष्य द्वादश महाभागवत के नाम से जाने जाते थे। इसमें कबीर, रैदास, सेनदास  तथा पीपा के उपदेश आदि ग्रंथ में संकलित हैं।
रामानंद जी के शिष्य कबीर दास और रैदास आगे चलकर काफी प्रसिद्ध हुए और ख्याति अर्जित की।कबीर और रविदास ने निर्गुण राम की उपासना की थी। इस तरह अगर कहा जाए तो स्वामी रामानंद ऐसे महान संत थे जिनकी छाया में सगुण और निर्गुण दोनों तरह के संत उपासक रहते थे । इसके अतिरिक्त कुछ लोगों को रामानंद ने व्यक्तिगत रुप से दीक्षा नहीं दी थी बल्कि उनकी मृत्यु बाद वें उनके विचारों से आकर्षित होकर उनके शिष्य बन गए थे-जिसमें – भावानंद, सुखानंद  ,सुरानंद, परमानंद ,महानंद और श्री आनंद प्रमुख थे।
रामानंद नें स्त्रियों की दयनीय स्थिति को ऊपर उठाने का प्रयास किया।वे प्रथम भक्ती सुधारक थे जिन्होंने ईश्वर की आराधना का द्वार महिलाओं के लिए भी खोल दिया तथा महिलाओं को अपने शिष्यों के रूप में स्वीकार किया।उनकी दो महिला शिष्या- 1)पद्मावती ,2)सुरसरी  थी।
रचनाएँ
रामानन्द द्वारा लिखी गयी कही जाने वाली इस समय निम्नलिखित रचनाएँ मिलती हैं-
श्रीवैष्णव मताव्ज भास्कर”, श्रीरामार्चन पद्धति”,गीताभाष्य”,
उपनिषद-भाष्य”, आनन्दभाष्य, ”सिद्धान्तपटल”, रामरक्षास्तोत्र”, योग चिन्तामणि”, रामाराधनम्”, वेदान्त-विचार’,’रामानन्दादेश”, ज्ञान-तिलक”,ग्यान-लीला”,आत्मबोध राम मन्त्र जोग ग्रन्थ”,
कुछ फुटकर हिन्दी पद”और अध्यात्म रामायण’। समस्त ग्रंथों में श्री वैष्णवमताब्ज भाष्कर और श्री रामार्चन पद्धति को ही रामानंद कृत कहा जा सकता है। पंडित रामटहल दास ने इनका संपादन कर इन्हें प्रकाशित कराया था इन ग्रंथों की हस्त लिखित प्रतियां उपलब्ध नहीं है। श्री वैष्णवमताब्ज भाष्कर में स्वामी जी ने सुरसुरा नंद द्वारा किए गए नो प्रश्न तत्व क्या है श्री वैष्णव का जाप मंत्र क्या है ,वैष्णव के इष्ट का स्वरूप ,मुक्ति के सरल साधन ,श्रेष्ठ धर्म वैष्णव के भेद, उनके निवास स्थान ,वैष्णव का कार्य आदि के उत्तर दिए हैं। श्री रामार्चन पद्धति राम की सांग ता षोडशो पचार पूजाका विवरण दिया गया है। रामटहल दास द्वारा संपादित दोनों ग्रंथ संवत 1984 सन (1927 ईस्वी)में सरयु वन(अयोध्या )के वासुदेव दास द्वारा प्रकाशित किए गए थे। श्रीभगवादाचार्य ने संवत 2002 (सन 1945 ई.) में श्री रामानंद साहित्य मंदिर,अट्टा(अलवर) में श्री वैष्णवमताब्ज भाष्कर को प्रकाशित किया था। शेष ग्रंथों में गीता भाष्य और उपनिषद भाष्यकी न तो कोई प्रकाशित प्रति मिलती है और ना हस्तलिखित प्रति प्राप्त है ।सामान्य व्यक्ति के लिये महापुरुषों का जीवन आदर्श महापुरुषों का जीवन सामान्य व्यक्ति के लिये आदर्शहोता है। महापुरुष स्थूल शरीर के प्रति इतने उदासीन होते हैं। कि उन्हें उसका परिचय देने की आवश्यकता ही नहीं जान पड़ती। भारतीय संस्कृति में शरीर के परिचय का कोई मूल्य नहीं है।श्री रामानन्दाचार्य जी का परिचय व्यापक जनों को केवल इतना ही प्राप्त है कि उन तेजोमय, वीतराग, निष्पक्ष महापुरुष ने काशी के पंचगंगा घाट स्थित श्रीमठको अपने निवास से पवित्र किया। आचार्य का काशी-जैसी विद्वानों एवं महात्माओं की निवास भूमि में कितना महत्त्वथा, यह इसी से सिद्ध है कि महात्मा कबीरदास जी ने उनके चरण धोखे से हृदय पर लेकर उनके मुख से निकले ‘राम’- नाम को गुरु-मन्त्रमान लिया।
आचार्य ने शिव एवं विष्णु के उपासकोंमें चले आते अज्ञान मूलक द्वेष भाव को दूर किया। अपने तप: प्रभाव से यवन-शासकों के अत्याचार को शान्त किया और श्री अवध चक्रवर्ती दशरथ नन्दन राघवेन्द्र की भक्ति के प्रवाह से प्राणियों के अन्त: कलुष का निराकरण किया। द्वादश महाभागवत आचार्य के मुख्य शिष्य माने गये हैं। इनके अतिरिक्त कबीर, पीपा, रैदास आदि परम ‘विरागी’ महापुरुष आचार्य के शिष्य हो गये हैं। आचार्य ने जिस रामानन्दीय सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया, उसने हिन्दू-समुदाय की आपत्ति के समय रक्षा की। भगवान का द्वार बिना किसी भेदभाव के, बिना जाति-योग्यता आदि का विचार किये सबकेलिये खुला है, उन्होंने उदघोष किया था-“”सर्वे प्रपत्तेधिकारिणो मत्ताः,”” सब उन मर्यादा पुरुषोत्तम को पुकारने के समान अधिकारी हैं- इस परम सत्य को आचार्य ने व्यावहारिक रूप में स्थापित किया है।
दार्शनिक मत
रामानंद ब्रह्मा आडंबरों का विरोध करते हुए ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति तथा मानव प्रेम पर बल दिए  उन्होंने एक गीत में कहा है कि मैं ब्रह्मा की पूजा अर्चना के लिए चंदन तथा गंधद्रव्य लेकर जाने को था। किंतु गुरु ने बताया कि ब्रह्मा तो तुम्हारे हृदय में है जहां भी मैं जाता हूं पाषाण और जल की पूजा देखता हूं ,किंतु परम शक्ति है जिसने सब जगह इसे फैला रखा है लोग व्यर्थ में ही इसे वेदों में देखने का प्रयत्न करते हैं। मेरे सच्चे गुरु ने मेरी असफलताओं और भ्रांतियों को समाप्त कर दिया यह उनकी अनुकंपा हुई कि रामानंद अपने स्वामी ब्रह्मा मे खो गया  यह गुरु की कृपा है कि जिससे कर्म के लाखो बंधन को जाते हैं।
रामानंद प्रथम भक्ति संत थे जिन्होंने हिंदी भाषा को अपने मत के प्रचार का माध्यम बनाकर भक्ति आंदोलन को एक जनाधार दिया उनका मानना था “जाती पाती पूछे न कोई हरि को भजे सो हरि का होई”।
रामानंद दक्षिण भारत और उत्तर भारत के भक्ति आंदोलन के मध्य सेतु का काम किए तथा भक्ति आंदोलन को दक्षिण भारत से उत्तर भारत की ओर ले आए। रामानंद के विचारों उपदेशों ने दो धार्मिक मतों को जन्म दिया एक रूढीवादी और दूसरा प्रगतिवादी वर्ग।
रुढ़ीवादी वर्ग का नेतृत्व तुलसीदास ने किया तथा सुधारवादी/प्रगतिवादी वर्ग का नेतृत्व कबीरदासने किया था। रूढ़िवादी विचारधारा के लोगों ने प्राचीन परंपराओं और विचारों में विश्वास करके अपने सिद्धांतों और संस्कारों में परिवर्तन नहीं किया। दूसरा प्रगति वादी विचारधारा वाले लोगों ने स्वतंत्र रूप से ऐसे सिद्धांत अपनाए जो हिंदू मुसलमान सभी को मान्य थे। इस परिवर्तन से समाज में नीची समझे जाने वाली जातियों और स्त्रियों को सम्मान, अधिकार मिलने लगा। रामानंद सिद्ध संत थे उनकी वाणी में जादू था भक्ति में सरोबार रामानंद ने ईश्वर भक्ति को सभी दुखों का निदान और सुख में जीवन यापन का सबसे अच्छा मार्ग बताया है। रामानंद का महत्व अनेक दृष्टियों से है वह रामभक्ति को सांप्रदायिक रूप देने वाले सर्व प्रथम आचार्य थे। उन्हीं की प्रेरणा से मध्य युग और उसके अनंतर प्रचुर राम भक्ति साहित्य की रचना हुई। कबीर और तुलसीदास दोनों का श्रेय रामानंदको ही है रामानंद ने ही समाज में जात पात ऊंच नीच के भेदभाव को मिटाने का सफल प्रयास किया ।
रामानंद की ही उदार भावना से हिंदू और मुसलमानों को भी समीप लाने की भूमिका तैयार की गई। भारतीय धर्म दर्शन साहित्य और संस्कृति के विकास में भागवत धर्म और वैष्णव भक्ति से संबंधित वैज्ञानिक क्रांतिकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है
रामानंद स्वामी को उत्तर भारत में आधुनिक भक्ति मार्ग का प्रचार करने वाला और वैष्णव साधना के मूल प्रवर्तक के रूप में स्वीकार किया जाता है।
रामानंद का निधन
लगभग 112 वर्ष की आयु में संत 1411 में रामानंद का निधन हो गया संत रामानंद राम के अनन्य भक्त और भक्ति आंदोलन के जनक के रूप में सदैव स्मरण किए जाते रहेंगे। वैष्णव संप्रदाय की चतु:संप्रदाय में रामानंद संप्रदाय भी प्रमुख है। रामानंद संप्रदाय का प्रधान केंद्र काशी को माना गया है। रामानंद संप्रदाय की स्थापना 13वीं शताब्दी में श्री रामानंदाचार्य महाराज ने देशभर में अपने शिष्यों द्वारा भक्ति का प्रचार-प्रसार तथा संप्रदाय को सुंदर रूप देने के लिए किया था। रामानंदाचार्य संप्रदाय में गुरु परंपरा में नाम आनंदपरक रहे हैं। जैसे श्रीरामानंदाचार्य महाराज के गुरु राघवानंद और उनके गुरु हर्यानंद, श्रियानंद, अनंतानंद जैसे महापुरुषों का वर्णन है। पहले आनंदपरक नाम चलता था बाद में दीनता युक्त भक्तों ने अपने नाम को दास पदवी से विभूषित किया। जैसे तुलसीदास, अग्रदास जैसे महापुरुष भी हुए।
उनके द्वारा स्थापित रामानंद संप्रदाय या रामावत संप्रदाय आज वैष्णव का सबसे बड़ा धार्मिक जमात है।वैष्णवों के 52 द्वारे में से 36 द्वारे केवल रामानंदियों के हैं। इस संप्रदाय के संत बैरागी भी कहे जाते हैं इनके अपने अखाड़े होते हैं। रामानंद संप्रदाय की शाखाएं और उपशाखाएं देशभर में फैली हुई है लेकिन अयोध्या ,चित्रकूट, नासिक ,हरिद्वार में इस संप्रदाय सैकडो हो मठ मंदिर स्थापित है।                     रामानंद संप्रदाय के 36 द्वारे।                                     1- अग्रावत-श्री अग्रदेवाचार्य।

2-अनंतानंदी-श्रीअनंताचार्य।

3-अनुभवानंदी-श्री अनुभवानंदाचार्य। 

4-अलखानंदी-श्री अलख रामाचार्य।

5-कर्मचंदी-श्री कर्मचंद्राचार्य।
6-कालूजी-श्री कालू रामाचार्य।
7-कीलावत-श्री कील देवाचार्य।
8-कुबावत-श्री केवल रामाचार्य।
9-खोजीजी-श्री राघवेंद्राचार्य।
10-छठीनारायणी-श्री हठीनारायणाचार्य।
11-जंगीजी-श्री अर्जुन देवाचार्य।
12-टीलावत-श्री साकेत निवासाचार्य।
13-तनतुलसी-श्री तनतुलसीदासाचार्य।
14-दिवाकर-श्री दिवाकाराचार्य।
15-देवमुरारी-श्रीमुरारी देवाचार्य।
16-धूंध्यानंदी-श्री दामोदराचार्य।
17-नरहयनिदी-श्री नरहयर्यानंदाचार्य।
18-लाहारामी-श्री लाहा रामाचार्य।
19-पीपावत-श्री पीपाचार्य।
20-पूर्ण बैराठी-श्री परमानंदाचार्य।
21-नाभाजी-श्री नारायणाचार्य।
22-भगवन्ननारायणी-श्री भगवानाचार्य।
23-भंडगी-श्री भृंगी देवाचार्य।
24-भावानंदी-श्री भावानंदाचार्य।
25-मलूकिया-श्री मलूकदासाचार्य।
26-योगानंदी-श्री योगानंदाचार्य।
27-रामकबीर-श्रीराम कबीराचार्य।
28-राघव चेतनी-श्री राघवचेतनाचार्य।
29-रामथंभणा-श्रीरामस्तंभनाचार्य।
30-रामरमाणी-श्री रामरमायणी देवाचार्य।
31-रामरावली-श्री विजय रामाचार्य।
32-रामरंगी-श्री रामरंगी देवाचार्य।
33-लालतुरंगी-श्री लाल तुरंगी देवाचार्य।
34-सुखानंदी-श्री सुखानंदाचार्य।
35-सुरसुरानंदी-श्री सुरसुरानंदाचार्य।
36-हनुमानी-श्री हनुमदाचार्य।

श्री गंगाधराचार्य पादपद्माचार्य रामानंद सम्प्रदाय परम्परा (4) डा.राधे श्याम द्विवेदी

श्री सम्प्रदाय के एक महान् गुरुभक्त संत हुए है गंगाधराचार्य जी , जिनकी गुरु भक्ति के कारण इनका नाम गुरुदेव ने श्री पादपद्माचार्य रख दिया था । श्री गंगा जी के तट पर इनके सम्प्रदाय का आश्रम बना हुआ था और अनेक पर्ण कुटियां बनी हुई थी । वही पर एक मंदिर था और संतो के आसन लगाने की व्यवस्था भी थी । स्थान पर नित्य संत सेवा , ठाकुर सेवा और गौ सेवा चलती थी । एक दिन श्री गंगाधराचार्य जी के गुरुदेव को कही यात्रा पर जाना था । कुछ शिष्यो को छोड़ कर अन्य सभी शिष्य कहने लगे – गुरुजी ! हमे भी यात्रा पर जाने की इच्छा है । कुछ शिष्य कहने लगे – गुरुजी ! आप हमें कभी अपने साथ यात्रा पर नही ले गए , हमे भी साथ चलना है । श्री गंगाधराचार्य जी गुरुदेव केअधीन थे। वे कुछ बोले नही , शांति से एक जगह पर खड़े थे ।अब गुरुजी ने देखा कि सभी शिष्य यात्रा पर चलना चाहते तो है परंतु आश्रम में भगवान् ,गौ और संत सेवा करेगा कौन और अन्य व्यवस्था देखेगा कौन ? गुरुदेव ने श्री गंगाधराचार्य जी को अपने पास बुलाया और कहा – मै कुछ समय के लिए यात्रा पर जा रहा हूं । आश्रम की संत ,गौ और भगवत् सेवा का भार अब तुमपर है । श्रद्धा पूर्वक आज्ञा का पालन करो , हमे तुमपर पूर्ण विश्वास है । श्री गंगाधराचार्य जी ने प्रणाम किया और कहा – जो आज्ञा गुरुदेव । गुरुदेव जब जाने लगे तब श्री गंगाधराचार्य जी के मुख पर कुछ उदासी उन्हे दिखाई पड़ी । गुरुदेव ने कहा – बेटा ! तुम्हारे मुख मंडल पर प्रसन्नता नही दिखाई पड़ती , क्या तुम हमारी आज्ञा से प्रसन्न नही हो ? श्री गंगाधराचार्य जी ने कहा – गुरुदेव भगवान् आपकी आज्ञा शिरोधार्य है परंतु जब मै आपकी शरण मे आया था तब मैंने यह प्रतिज्ञा की थी कि मै नित्य ही आपका चरणामृत ग्रहण और आपका दर्शन किये बिन कोई अन्न- जल ग्रहण नही करूँगा । गुरुदेव ने कहा – कोई बात नही , श्री गंगा जी को आज से मेरा ही स्वरूप जानकर इनका जल ग्रहण करो और दर्शन करो । गुरु भी पतित को पावन बनाते है और गंगा जी भी पतित को पावन बनाती है । श्री गंगाधराचार्य जी ने कहा – जो आज्ञा गुरुदेव और चरणों मे प्रणाम किया । अपनी अनुपस्थिति मे अपने समान गंगा जी को मानने का उपदेश देकर चले गये । गंगाधराचार्य नित्य गुरूवत् गंगा जी की उपासना करने लगे । नित्य आश्रम में गौ , संत , ठाकुर सेवा उचित प्रकार से करते थे । अतिथियों का सत्कार और प्रसाद बनाना , स्वच्छता आदि सब कार्य अकेले ही करते थे ।
प्रातः काल श्री गंगा जी का दर्शन करते और गंगा जल गुरुदेव का चरणामृत समझकर ग्रहण करते थे । आरती करते और दण्डवत् प्रणाम निवेदन करते । अन्य कोई शिष्य श्रद्धा पूर्वक स्नान करते थे परंतु पादपद्म जी हृदय से ही श्री गंगा जी की वन्दना पूजा करते थे । गंगा जी को गुरुदेव का स्वरूप समझते थे और गुरुदेव के शरीर पर चरण कैसे पधरावें ? इससे तो पाप लगेगा यह सोचकर कभी भी गंगाजी मे स्नान नही करते थे । इनके हृदय के भाव को न जानकर दूसरे लोग आलोचना करते थे । अन्य शिष्य गंगाधराचार्य जी की बहुत प्रकार से निंदा करते हुए कहते थे – गुरुजी बाहर क्या चले गए , इसने तो गंगा स्नान करना बंद कर दिया । जाकर कुँए पर स्नान करता है ।
कुछ दिनो के पश्चात् श्री गुरुदेव जी लौटकर आये और अपना आसान आश्रम में रखा । अभी गुरुजी को आये कुछ ही देर हुई थी कि गंगाधराचार्य जी की निंदा करने के लिए कुछ शिष्य पहुंच गए । कुछ शिष्य जो आश्रम में ही रुके थे ,उन्होंने गुरुजी से कहा – गुरुजी ! गंगाधराचार्य जी ने आपके यात्रा पर जाने के बाद गंगा स्नान करना त्याग दिया , पड़ा प्रमादी है यह तो । श्री गुरुदेव कुछ नही बोले और श्री गंगाधराचार्य जी भी मौन खड़े रहे । गुरुदेव अच्छी तरह से गंगाधराचार्य जी की गुरुनिष्ठा के विषय मे जानते थे परंतु उन्हें उनकी गुरुभक्ति संसार मे प्रकट करनी था । अगले दिन प्रातः काल इनकी गुरूवाक्य और गुरु निष्ठा का परिचय प्रकट करने का निश्चय गुरुदेव ने किया । गुरुदेव ने अपने अन्य शिष्यों सहित गंगाधराचार्य जी को स्नानार्थ श्री गंगा जी की ओर चलने को कहा । गुरुदेव गंगाधराचार्य जी से बोले – बेटा ! हम स्नान करने जा रहे है , तुम मेरे कमंडल अचला और लंगोटी लेकर पीछे पीछे चलो । गुरुदेव गंगा जी में स्नान करने उतरे और थोड़ी देर बाद श्री गंगा धराचार्य जी से कहा – हमारा अचला लंगोटी और कमंडल यहां हमारे पास लेकर आओ । अब गंगा धराचार्य जी धर्म संकट में पड़ गए । वे सोचने लगे – श्री गंगा जी हमारे गुरुदेव का स्वरूप है , गंगा जी मे चरण रखना गुरु का अपमान होगा और यहां प्रत्यक्ष गुरुदेव आज्ञा दे रहे है । अब तो श्री गंगा जी और गुरुदेव ही हमारे धर्म की रक्षा करेगी ।
 इस गुरुनिष्ठ शिष्य की मर्यादा और गुरु भक्ति की रक्षा करने हेतु श्री गंगा जी ने वहां अनेक विशाल कमलपुष्प उत्पन्न कर दिए ।
गुरुदेव ने उन कमलपुष्पो पर पैर रखते हुए चलकर शीघ्र अचला ,लंगोटी और कमंडल लेकर आने को कहा । उन्ही पर पैर रखते हुए ये गुरुदेव के समीप दौडकर गये । श्री गंगाधराचार्य जी का जो प्रभाव गुप्त था, वह उस दिन प्रकट हो गया, इस दिव्य चमत्कार को देखकर सभो के मन मे गंगा जी और पादपद्म जी मे अपार श्रद्धा हो गयी । गुरुजी ने कहा – बेटा धन्य है तुम्हारी गुरुभक्ति जिसके प्रताप से गंगा जी ने यह कमलपुष्प उत्पन्न कर दिए । संसार मे आज के पश्चात तुम्हारा नाम पादपद्माचार्य के नाम से प्रसिद्ध होगा । उसी दिन से गंगाधराचार्य जी का का नाम पादपद्माचार्य पड गया ।

श्रीसनातन रामानंद सम्प्रदाय की परम्परा में रामानन्दजी (5) डा. राधे श्याम द्विवेदी

बाइसवें क्रम में श्री रामानन्द जी का नाम आता है। स्वामी रामानंद को मध्यकालीन भक्ति आंदोलन का महान संत माना जाता है। उन्होंने रामभक्ति की धारा को समाज के प्रत्येक वर्ग तक पहुंचाया। वे पहले ऐसे आचार्य हुए जिन्होंने उत्तर भारत में भक्ति का प्रचार किया। उनके बारे में प्रचलित कहावत है कि - द्रविड़ भक्ति उपजौ-लायो रामानंद। यानि उत्तर भारत में भक्ति का प्रचार करने का श्रेय स्वामी रामानंद को जाता है। स्वामी जी ने बैरागी सम्प्रदाय की स्थापना की, जिसेे रामानन्दी सम्प्रदाय के नाम से भी जाना जाता है। रामानंद अर्थात रामानंदाचार्य ने हिंदू धर्म को संगठित और व्यवस्थित करने के अथक प्रयास किए। उन्होंने वैष्णव सम्प्रदाय को पुनर्गठित किया तथा वैष्णव साधुओं को उनका आत्मसम्मान दिलाया। रामानंद वैष्णव भक्तिधारा के महान संत हैं। सोचें जिनके शिष्य संत कबीर और रविदास जैसे संत रहे हों तो वे कितने महान रहे होंगे।
             बादशाह गयासुद्दीन तुगलक ने हिंदू जनता और साधुओं पर हर तरह की पाबंदी लगा रखी थी। इन सबसे छुटकारा दिलाने के लिए रामानंद ने बादशाह को योगबल के माध्यम से मजबूर कर दिया। अंतत: बादशाह ने हिंदुओं पर अत्याचार करना बंद कर उन्हें अपने धार्मिक उत्सवों को मनाने तथा हिंदू तरीके से रहने की छूट दे दी।
            रामानंदजी का जन्म माघ माह की सप्तमी संवत 1356 अर्थात ईस्वी सन 1299 को कान्यकुब्ज ब्राह्मण के कुल में हुआ था। उनके पिता का नाम पुण्य शर्मा तथा माता का नाम सुशीलादेवी था। आठ वर्ष की उम्र में उपनयन संस्कार होने के पश्चात उन्होंने वाराणसी पंच गंगाघाट के स्वामी राघवानंदाचार्यजी से दीक्षा प्राप्त की। तपस्या तथा ज्ञानार्जन के बाद बड़े-बड़े साधु तथा विद्वानों पर उनके ज्ञान का प्रभाव दिखने लगा। इस कारण मुमुक्षु लोग अपनी तृष्णा शांत करने हेतु उनके पास आने लगे।संवत्‌ 1532 अर्थात सन्‌ 1476 (एक अन्य उल्लेख में 1411 ई)में आद्य जगद्‍गुरु रामानंदाचार्यजी ने अपनी देह छोड़ दी। उनके देह त्याग के बाद से वैष्ण्व पंथियों में जगद्‍गुरु रामानंदाचार्य पद पर 'रामानंदाचार्य' की पदवी को आसीन किया जाने लगा। काशी में स्थित पंचगंगा घाट पर रामानंदी सम्प्रदाय का प्राचीन मठ बताया जाता है।
प्रमुख शिष्य : स्वामी रामानंदाचार्यजी के कुल 12 प्रमुख शिष्य थे: 1. संत अनंतानंद, 2. संत सुखानंद, 3. सुरासुरानंद , 4. नरहरीयानंद, 5. योगानंद, 6. पिपानंद, 7. संत कबीरदास, 8. संत सेजा न्हावी, 9. संत धन्ना, 10. संत रविदास, 11. पद्मावती और 12. संत सुरसरी।
रामानंदाचार्य पूर्ण पुरुषोत्तम राम जी के अवतार-
    रामानान्दः स्वयम रामः प्रादुर्भूतो महीतले
अर्थात रामानंदाचार्य स्वयं श्री पूर्ण पुरुषोत्तम राम जी के अवतार थे ! ब्रह्माण्ड के द्वादश आचार्य रामानंद के शिष्य के रूपा में अवतरित हुए तथा इस संप्रदाय का चतुर्दिक विकास किया 
राम तारक मंत्र रां रामाय नमः है! इस महामंत्र को मंत्रराज तथा महामंत्र उपधितन प्राप्त हैं ! इस मंत्र का जाप करने से व्यक्ति साकेत लोक प्राप्त करता है ! यह मंत्र श्री राम से प्रारंभ होने वाली गुरु परंपरा से चलता आ रहा है ! श्री राम इसके अद्धिष्ठाता देव हैं ! यह श्री वैष्णव संप्रदाय का मंत्र है जिसके परम आचार्य श्री जगद्गुरु रामनान्दचार्य रहें है ! 
वैष्णव संप्रदाय की चतु:संप्रदाय में रामानंद संप्रदाय भी प्रमुख है। रामानंद संप्रदाय का प्रधान केंद्र काशी को माना गया है। रामानंद संप्रदाय की स्थापना 13वीं शताब्दी में श्रीरामानंदाचार्य महाराज ने देशभर में अपने शिष्यों द्वारा भक्ति का प्रचार-प्रसार तथा संप्रदाय को सुंदर रूप देने के लिए किया था। रामानंदाचार्य संप्रदाय में गुरु परंपरा में नाम आनंदपरक रहे हैं। जैसे श्रीरामानंदाचार्य महाराज के गुरु राघवानंद और उनके गुरु हर्यानंद, श्रियानंद, अनंतानंद जैसे महापुरुषों का वर्णन है। पहले आनंदपरक नाम चलता था बाद में दीनता युक्त भक्तों ने अपने नाम को दास पदवी से विभूषित किया। जैसे तुलसीदास, अग्रदास जैसे महापुरुष भी हुए। 

श्रीसनातन रामानंद सम्प्रदाय की परम्परा में राघवानंदाचार्य जी (3) डा. राधे श्याम द्विवेदी


इकतालीस आचार्यों की श्रृंखला में नवें क्रम में श्री पुरुषोत्तम आचार्य जी का नाम आता है। जिनके बारे में प्रमाणिक सूचनाओं का अभाव है। दसवें क्रम में श्री गंगाधराचार्य जी का नाम आता है। गंगाधराचार्य जी श्री सम्प्रदाय के महान् गुरुभक्त संत हुए है श्री गंगाधराचार्य जी , जिनकी गुरु भक्ति के कारण इनका नाम गुरुदेव ने श्री पादपद्माचार्य रख दिया था । श्री गंगा जी के तट पर इनके सम्प्रदाय का आश्रम बना हुआ था और अनेक पर्ण कुटियां बनी हुई थी । वही पर एक मंदिर था और संतो के आसन लगाने की व्यवस्था भी थी । स्थान पर नित्य संत सेवा , ठाकुर सेवा और गौ सेवा चलती थी । इस गुरुनिष्ठ शिष्य की मर्यादा और गुरु भक्ति की रक्षा करने हेतु श्री गंगा जी ने वहां अनेक विशाल कमलपुष्प उत्पन्न कर दिए ।गुरुदेव ने उन कमलपुष्पो पर पैर रखते हुए चलकर शीघ्र अचला ,लंगोटी और कमंडल लेकर आने को कहा । उन्ही पर पैर रखते हुए ये गुरुदेव के समीप दौडकर गये । श्री गंगाधराचार्य जी का जो प्रभाव गुप्त था, वह उस दिन प्रकट हो गया, इस दिव्य चमत्कार को देखकर सभो के मन मे गंगा जी और पादपद्म जी मे अपार श्रद्धा हो गयी । गुरुजी ने कहा – बेटा धन्य है तुम्हारी गुरुभक्ति जिसके प्रताप से गंगा जी ने यह कमल पुष्प उत्पन्न कर दिए । संसार मे आज के पश्चात तुम्हारा नाम पादपद्माचार्य के नाम से प्रसिद्ध होगा । उसी दिन से गंगाधराचार्य जी का का नाम पादपद्माचार्य पड गया ।
ग्यारहवें क्रम में श्री सदाचार्य जी का नाम आता है।
बारहवें क्रम में श्री रामेश्वराचार्य जी का नाम आता है।
तेरहवें क्रम में श्री द्वारानंदाचार्य जी का नाम आता है।
चौदहवें क्रम में श्री देवानंदाचार्य जी का नाम आता है।
पंद्रहवें क्रम में श्री श्यामानंदाचार्य जी का नाम आता है।
सोलहवें क्रम में श्री श्रुतानंदाचार्य जी का नाम आता है।
 सतरहवें क्रम में श्री चिदानंदाचार्य जी का नाम आता है।
 अठारहवें क्रम में श्री पूर्णानंदाचार्य जी का नाम आता है।
 उन्नीसवें क्रम में श्री श्रियानंदाचार्य जी का नाम आता है।
बीसवें क्रम में श्री हर्यानंदाचार्य जी का नाम आता है।
ग्यारहवें क्रम लेकर बीसवें क्रम तक दस आचार्यों का विवरण उपलब्ध नहीं मिलता है।
राघवानंदाचार्य जी 
इक्कीसवें क्रम में श्री राघवानंदाचार्य जी का नाम आता है।
राघवानन्द को रामानन्द का गुरु माना गया है। स्वामी राघवानन्द हिन्दी भाषा में भक्तिपरक काव्य रचना किया करते थे। रामानन्द को रामभक्ति गुरु परंपरा से ही मिली थी। ' भक्तमाल' में नाभादासजी ने गुरु राघवानन्द को ही रामानन्द का गुरु माना है।
राघवानन्द की एक हिन्दी रचना सिद्धान्त पंचमात्रा' से ही स्पष्ट हो जाता है कि राघवानन्द जी योग-मार्ग की साधना से परिचित थे और अंत:साधना और अनुभव सिद्ध ज्ञान की महिमा के विश्वासी थे।
राघवानन्द सम्प्रदाय :-
किंवदन्ती है कि रामानन्द के गुरु पहले कोई दण्डी संन्यासी थे, बाद में राघवानन्द स्वामी हुए। 'भविष्यपुराण', 'अगस्त्यसंहिता' तथा 'भक्तमाल' के अनुसार राघवानन्द ही रामानन्द के गुरु थे। एक अन्य किंवदन्ती के अनुसार यह भी माना जाता है कि छुआ-छूत मतभेद के कारण गुरु राघवानन्द ने ही रामानन्द को नया सम्प्रदाय चलाने की अनुमति दी थी। 

श्री सनातन रामानंद सम्प्रदाय दक्षिण की कुल परम्परा (2) डा. राधे श्याम द्विवेदी

सनातन रामानंद सम्प्रदाय के इकतालीस आचार्यों की श्रृंखला में प्रारम्भ के आठ गुरुओं से अखिल ब्रह्मांड सुपरिचित है।
वैष्णव-सम्प्रदाय के उद्गम-स्थान हैं- भगवान् विष्णु। वैष्णव सम्प्रदाय के चार प्रसिद्ध उपसम्प्रदाय हैं- 1. श्री सम्प्रदाय, 2. ब्रह्म-सम्प्रदाय, 3. रुद्र,सम्प्रदाय और 4. सनक-सम्प्रदाय। इनमें श्री सम्प्रदाय के प्रवर्तक रामानुजाचार्य, ब्रह्मसम्प्रदाय के मध्याचार्य, रुद्र-सम्प्रदाय के विष्णु स्वामी तथा सनक-सम्प्रदाय के निम्बार्काचार्य माने गए हैं- रामानुजं श्रीः । स्वीचक्रे मध्वाचार्य चतुर्मुखः। श्री विष्णुस्वामिनं रुद्रो निम्बादित्यं चतुस्सनः। (पद्मपुराण)। इन सम्प्रदायों में श्री सम्प्रदाय' ही सबसे पुरातन है। इसके अनुयायी ‘श्री वैष्णव' कहलाते हैं। इन अनुयायियों की मान्यता है कि भगवान् । नारायण ने अपनी शक्ति श्री (लक्ष्मी) को अध्यात्म ज्ञान प्रदान किया। तदुपरांत लक्ष्मी ने वही अध्यात्मज्ञान विष्वक्सेन को और विष्क्सेन ने नम्माळवार को दिया। इसी आचार्य-परम्परा से कालांतर में रामानुज ने वह अध्यात्मज्ञान प्राप्त किया। इसके फलस्वरूप श्री रामानुज ने 'श्री वैष्णव' मत को प्रतिष्ठापितकर इसका प्रचार किया ।एकतालीस आचार्यों की श्रृंखला के अलावा दक्षिण भारत में कुछ अन्य आचार्यों का विवरण भी मिलता है।
आळवार संत
ईसा की सातवीं शताब्दी में दक्षिण भारत के तमिळ प्रांत में श्री वैष्णव मत के अनुयायी संतों की संख्या में क्रमशः वृद्धि होने लगी। उपदेशरत्नमाला में उल्लेख है कि भगवान् रंगनाथ ने इन भक्तों को ‘आळवार की संज्ञा दी। वस्तुतः ‘आळवार' तमिळ भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है- ‘भक्तिसागर में निमग्न होनेवाला'। ये आळवार, भगवान् नारायण के सच्चे भक्त थे और सभी स्वतंत्र रूप से अपना भक्तिमय जीवन बिताते रहे। इन आळवारों ने 7वीं से 9वीं शताब्दी तक अपने अथक परिश्रम से भक्ति को दृढमूल बनाकर श्री वैष्णव सम्प्रदाय का प्रसार किया। दशम शताब्दी में इस सम्प्रदाय के आचार्यों ने आळवारों की भक्ति के अनुरूप अनेक धार्मिक एवं दार्शनिक ग्रंथों की रचना की। इन आचार्यों की परम्परा में निम्नलिखित आचार्य प्रमुख हैं, जिन्होंने श्री वैष्णव सम्प्रदाय के विकास में महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया
नाथमुनि (824-924 ई.)
नाथमुनि श्री वैष्णव सम्प्रदाय के आद्य आचार्य हुए। इन्होंने लुप्त तमिल-वेद को पुनरुद्धार किया तथा श्रीरंगनाथ मन्दिर में इसके गायन की परम्परा स्थापित की। इनके द्वारा रचित 'न्यायतत्त्व' विशिष्टाद्वैत का प्रथम ग्रंथ कहा जाता है।
यामुनाचार्य (918-1038)
ये नाथमुनि के पौत्र थे। ये अपने समय में ‘आलवंदार' के नाम से विख्यात थे। कहा जाता है कि ये कुछ समय के लिये राज्य पद पर आसीन रहे; किंतु नम्माळवार के भक्तिमय पद्यों का अनुशीलन करने के पश्चात् इनमें भगवान् नारायण के प्रति असीम भक्ति जाग्रत् हुई, जिसके परिणामस्वरूप इन्होंने अपना सर्वस्व त्यागकर श्री वैष्णव-सम्प्रदाय को अंगीकार किया। अपने जीवनकाल में इन्होंने छः पाण्डित्यपूर्ण ग्रंथों का निर्माण किया, जिनमें गीतार्थसंग्रह, श्रीचतुःश्लोकी, सिद्धित्रय, महापुरुषनिर्णय (विष्णु की श्रेष्ठता का प्रतिपादन), आगमप्रामाण्य (पञ्चरात्र का विवेचन) एवं आलवंदारस्तोत्र है। यामुनाचार्य की इन कृतियों में भक्ति-भावना से ओत-प्रोत आळवंदारस्तोत्र' वैष्णव जगत् में अत्यंत मान्य है।
 रामानुजाचार्य (1017) 
यामुनाचार्य के पश्चात् रामानुज ने श्री वैष्णव सम्प्रदाय का आचार्य पद ग्रहण किया। इनमें जीवन-वृत्तांत के विषय में विश्रुत है। कि इनका जन्म मद्रास के निकट श्री पेरुम्बुदूर में हुआ। ये पम्परा से वैष्णव थे और इसी कारण चोल-नरेश के अत्याचारों के कारण श्रीरंग क्षेत्र छोड़कर मैसूर प्रांत में चले गये। सन् 1100 के लगभग इन्होंने ब्रह्मसूत्र पर विशिष्टाद्वैतमतानुसार ‘श्री भाष्य' की रचना कर, विष्णुमहापुराण के प्रणेता पराशरमुनि के नाम के प्रसार की इच्छा से अपने भावी उत्तराधिकारी कुरेश के पुत्र का जातकर्म स्वयं करते समय ‘पराशर नाम देकर एवं नम्माळवार के 'तिरुवायमोळि' पर अपने मातुल-पुत्र कुरेश द्वारा तमिल-भाष्य का निर्माण करवाकर यामुनाचार्य के तीनों मनोरथों की पूर्ति की। इसके अतिरिक्त श्रीरामानुज ने वेदार्थसंग्रह', वेदार्थदीप, वेदांतसार एवं श्रीमद्भगवद्गीताभाष्य की रचना की। रामानुज की इन सभी कृतियों में ‘श्री भाष्य सर्वाधिक पाण्डित्यपूर्ण कृति है, जिसमें विशिष्टाद्वैत के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है। 
वेदांतदेशिकाचार्य (1268-1370)
श्री वैष्णव सम्प्रदाय के आचार्यों में वेदांतदेशिक भी उल्लेखनीय हैं। इनमें काव्यग्रंथों में यादवाभ्युदय, पादुकासहस्र आदि तथा दार्शनिक ग्रंथों में तत्त्वटीका, न्यायपरिशुद्धि एवं न्यायसिद्धाञ्जन अनुपम ग्रंथ हैं। ये 'वडकलै (औदीच्य) मत' के आचार्य थे।
लोकाचार्य (1205-1311) 
श्रीलोकाचार्य श्री वैष्णव सम्प्रदाय के ‘तेन्कलै' (दाक्षिणात्य) मत के प्रवर्तक थे। इन्होंने 13 ग्रंथों का निर्माण किया, जिनमें श्रीवचनभूषण, तत्त्वत्रय तथा तत्त्वशेखर परम महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं।

श्री सनातन रामानंद सम्प्रदाय की कुल परम्परा। (1) डा. राधे श्याम द्विवेदी


     श्री सीता नाथ समारंभाम श्री रामानंदार्य मध्यमाम।
        अस्मदाचार्य पर्यन्ताम वन्दे श्री गुरु परम्पराम।।
                                ऊं ग्रूं गुरवे नमः
वैष्णव-सम्प्रदाय के उद्गम-स्थान हैं- भगवान् विष्णु। वैष्णव सम्प्रदाय के चार प्रसिद्ध उपसम्प्रदाय हैं- 1. श्री सम्प्रदाय, 2. ब्रह्म-सम्प्रदाय, 3. रुद्र,सम्प्रदाय और 4. सनक-सम्प्रदाय। इनमें श्री सम्प्रदाय के प्रवर्तक रामानुजाचार्य, ब्रह्मसम्प्रदाय के मध्याचार्य, रुद्र-सम्प्रदाय के विष्णु स्वामी तथा सनक-सम्प्रदाय के निम्बार्काचार्य माने गए हैं- 
रामानुजं श्रीः स्वीचक्रे मध्वाचार्य चतुर्मुखः। 
श्री विष्णुस्वामिनं रुद्रो निम्बादित्यं चतुस्सनः।
                        (पद्मपुराण)। 
बैरागियों के चार सम्प्रदायों में अत्यन्त प्राचीन रामानंदी सम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय को बैरागी सम्प्रदाय, रामावत सम्प्रदाय और श्री सम्प्रदाय भी कहते हैं। 'श्री' शब्द का अर्थ लक्ष्मी के स्थान पर 'सीता' किया जाता है। इस सम्प्रदाय का सिद्धान्त विशिष्टाद्वैत कहलाता है। इन सम्प्रदायों में श्री सम्प्रदाय' ही सबसे पुरातन है। इसके अनुयायी ‘श्री वैष्णव' कहलाते हैं। इन अनुयायियों की मान्यता है कि भगवान् नारायण ने अपनी शक्ति श्री (लक्ष्मी) को अध्यात्म ज्ञान प्रदान किया। अयोध्या के राम मंत्रार्थ मण्डपम में राम मंत्र के बारे में लिखा है। राम जी ने स्वम यह महामंत्र सीता जी को दिया, सीताजी ने हनुमान को, हनुमान नें ब्रह्मा जी को, ब्रह्मा नें वाशिष्ट, वाशिष्ट नें पराशर को, व्यास, शुकदेव से होती हुए यह परम्परा आगे इकतालीस आचार्यों की श्रृंखला बनाती है। इस सूची क्रम से इन गुरुओं ने इस परम्परा मिलती है।
इसी आचार्य-परम्परा से कालांतर में रामानुज ने वह अध्यात्म ज्ञान प्राप्त किया। इसके फलस्वरूप श्री रामानुज ने 'श्री वैष्णव' मत को प्रतिष्ठापित कर इसका प्रचार किया।रामानंद प्रारंभ से ही क्रांतिकारी थे इन्होंने रामानुजाचार्य की भक्ति परंपरा को उत्तर भारत में लोकप्रिय बनाया और रामावत संप्रदाय का गठन कर राम तंत्र का प्रचार किया संत रामानंद के गुरु का नाम राघवानंद था जिसका रामानुजाचार्य की भक्ति परंपरा में चौथा स्थान है। 
श्री राम बल्लभा कुंज अयोध्या से प्रकाशित हमारे आचार्य (2) में राम सीता हनुमान सहित एकतालिस आचार्य गुरुओं की सूची इस प्रकार दर्शायी गई है। साथ ही 38वें आचार्य श्री राम बल्लभा शरण दास जी के जीवन की अलौकिक झांकी प्रस्तुत की गई है।
श्री राम जी
श्री सीता जी
श्री हनुमान जी
श्री वशिष्ठ जी
श्री पराशर जी
श्री व्यास जी
श्री शुकदेव जी
श्री पुरुषोत्तमाचार्य जी
श्री गंगाधराचार्य जी
श्री सदाचार्य जी
श्री रामेश्वराचार्य जी 
श्री द्वारानंदाचार्य जी
श्री देवानंदाचार्य जी
श्री श्यामानंदाचार्य जी
श्री श्रुतानंदाचार्य जी
श्री चिदानंदाचार्य जी
श्री पूर्णानंदाचार्य जी
श्री श्रियानंदाचार्य जी
श्री हर्यानंदाचार्य जी
श्री राघवानंदाचार्य जी
श्री रामानंदाचार्य जी
श्री योगानंदाचार्य जी
श्री गयानंदाचार्य जी
श्री तुलसी दास जी। 
 श्री नाथू राम जी
श्री चोगानी जी
श्री ऊधौ मैदानी जी
श्री खेम दास जी
श्री राम दास जी
श्री लक्ष्मण दास जी
श्री देव दास जी
श्री भगवान दास जी
श्री बाल कृष्णा दास जी
श्री वेणी दास जी
श्री श्रवण दास जी
श्री राम बचन दास जी
श्री राम बल्लभा शरण दास जी
श्री राम पदारथ दास जी
श्री हरिनाम दास जी
श्री राम शंकर दास जी

Wednesday, April 6, 2022

खेतों के रक्षक डीवहारे बाबा लोक जन मानस के प्रमुख देवता डा. राधे श्याम द्विवेदी

क्षेत्रपाल एक प्रकार के आम जन मानस के  देवता होते हैं जो खेत अथवा भूमिखंड के रक्षक माने जाते हैं। गृह प्रवेश या शान्ति कर्मों के समय बलि ,पूजा , साधना और अर्घ्य देकर क्षेत्रपाल को प्रसन्न करने का विधान है। इसके लिये सिन्दूर, टिकुली,दीपक, दही, भात आदि सजाकर चौराहे पर रखने की भी प्रथा है। खेत-जोतने बोने से पहले क्षेत्रपाल की पूजा करने का भी विशेष रूप से विधान  है । फसल कटने और घर में आने पर पूरी हलवा (लपसी) द्वारा उनका आभार भी व्यक्त किया जाता है। किसी ना किसी रूप में आज भी यह प्रथा देश के प्रायः हर अंचल में प्रचलित है। बहुत कम लोग जानते हैं कि क्षेत्रपाल कौन होते हैं। जब वास्तु पूजा की जाती है तो उसके अंतर्गत क्षेत्रपाल की पूजा भी होती है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी क्षेत्रपाल के मंदिर मिल जाएंगे।खासकर राजस्थान और उत्तराखंड में क्षेत्रपाल के कई मंदिर मिलेंगे।
            क्षेत्रपाल क्षेत्र विशेष के एक देवता हैं जिनके अधीन उक्त क्षेत्र की सुप्त और जागृत आत्माएं रहती हैं। भारत के अधिकतर गांवों में भैरवनाथ, खेड़ापति (हनुमान), सती माई, काली माई, सीतला माई, समय माई, डीह वाले बाबा,जोगीबीर बाबा, दानोबीर बाबा और बीर दिव्य पुरुष महिला क्षेत्रपाल आदि के मंदिर बने हुए होते हैं। यह सभी ग्राम देवता होते हैं और सभी के अलग-अलग कार्य माने गए हैं।
         क्षेत्रपाल भी भगवान भैरवनाथ की तरह दिखाई देते हैं। संभवत: इसीलिए बहुत से लोग क्षेत्रपाल को काल भैरव का एक रूप मानते हैं। लोक जीवन में भगवान काल भैरव को क्षेत्रपाल बाबा, खेतल, खंडोवा, भैरू महाराज, भैरू बाबा आदि नामों से जाना जाता है। अनेक समाजों के ये कुल के देवताभी माने जाते हैं।क्षे‍त्रपाल को 'खेतपाल' भी कहा जाता है,खेतपाल ही खेत का स्वामी या रक्षक होते है। दक्षिण भारत में एक देवता है जो मूल रूप से लोगों के खेत की रक्षा करता है। यह खेतों का तथा ग्राम सरहदों का छोटा देवता है। मान्यता के अनुसार यह बहुत ही दयालु देवता है। जब अनाज बोया जाता है या नवान्न उत्पन्न होता है, तो उससे इसकी पूजा होती है, ताकि यह बोते समय ओले या जंगली जन्तुओं से उनका बचाव करे और भंडार में जब अन्न रखा जाए तो कीड़े और चूहों से उसकी रक्षा करें।

Tuesday, April 5, 2022

आचार्य पण्डित वशिष्ठ प्रसाद उपाध्याय का सरल व्यक्तित्व प्रस्तुति डा. राधे श्याम द्विवेदी

उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के बस्ती सदर तहसील के बहादुर व्लाक में नगर बाजार क्षेत्र खड़ौवा खुर्द नामक गांव के आस पास इलाके में नगर राज्य में गौतम क्षत्रियों के पुरोहित के रूप में भारद्वाज गोत्रीय उपाध्याय वंश के इनके पूर्वजों का आगमन हुआ था । नगर राज्य के राजा उदय प्रताप सिंह के समकालीन उपाध्याय कुल के पूर्वज लक्ष्मन दत्त उपाध्याय एक फौजी अफसर रहा करते थे। यह परिवार शुद्ध सनातनी और कर्मकांडी नियमों का परिपालन करने वाला था। इसी संस्कार युक्त कुल परम्परा में राष्ट्रपति शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित डा.मुनिलाल उपाध्याय सरस जी के पिता पं. केदार नाथ उपाध्याय का जन्म हुआ था। बाद में डा.मुनिलाल उपाध्याय ‘सरस’ जी का जन्म 10.04.1942 ई. में सीतारामपुर में श्री केदारनाथ उपाध्याय के परिवार में हुआ था। बहादुर पुर ब्लाक का गांव सभा का सीतारामपुर ब्राह्मण बाहुल्य एक छोटा सा गांव है। जो बस्ती जिला मुख्यालय से 13 किमी दक्षिण, बहादुर पुर ब्लाक से 3 किमी पश्चिम तथा उत्तर प्रदेश के लखनऊ मुख्यालय से 202 किमी की दूरी पर बसा हुआ है।
डा. सरस जी के अत्यंत आज्ञाकारी और हर समय पग से पग मिलाकर चलने वाले भ्राता लक्ष्मण जैसे आचरण वाले उनके प्रिय व आज्ञाकारी अनुज के रूप में आचार्य पण्डित वशिष्ठ प्रसाद उपाध्याय का जन्म इसी परिवार में 1950 के आसपास (सरकारी अभिलेख में एक अगस्त 1953) को सीतारामपुर ग्राम में हुआ था। इसी बीच 12.10.1957 को पंडित वशिष्ठ प्रसाद उपाध्याय जी के पिता की असामयिक मृत्यु हो गयी। उस समय उनके परिवार पर मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा था। पिता का असमय निधन हो जाने के कारण विधवा मां पर घर परिवार की सारी जिम्मेदारी आ गयी थी। श्री वशिष्ठ प्रसाद उपाध्याय जी 7 साल के थे। सरल स्वभाव वाली उनकी मां किसी प्रकार परिवार को टूटने व बिखरने से बचा पाई।दोनो बच्चों को बहुत ही कठिनाई से पाला पोसा और शिक्षा दीक्षा दिलाई। मां जी ने बहुत मेहनत और त्याग करके उनकी शिक्षा पूरी कराई थी। जहां सरस जी श्री गोविन्द राम सक्सेरिया इन्टर कालेज में पढते थे। वहीं वशिष्ठ जी की पढ़ाई नगर बाजार के प्राइमरी विद्यालय में शुरू हुआ था। जिसे पास कर वह नगर के मिडिल स्कूल में दाखिला लिये थे। माध्यमिक कक्षाएं उन्होंने श्री झिनकू लाल इन्टर कालेज कलवारी बस्ती से पूरा किया था। पण्डित वशिष्ठ प्रसाद हाई स्कूल परीक्षा 1970 में तथा इन्टर मीडिएट परीक्षा 1972 में पास किए थे। उस समय दो वर्षीय बी ए परीक्षा 1974 में वह किसान स्नातकोत्तर महाविद्यालय बस्ती से पास किए थे। 
उनकी एल टी ग्रेड में सहायक अध्यापक के रूप में प्रथम नियुक्ति एक अगस्त 1975 में जनता इन्टर कालेज नगर बाजार बस्ती में हुई थी।1975 में वह व्यक्तिगत परीक्षार्थी के रूप में एम ए हिंदी का प्रथम बर्ष पास कर लिये थे। इसी बीच 1976 में किसान एल टी प्रशिक्षण महा विद्यालय में उन्हें एलटी शिक्षण पाठयक्रम में प्रवेश लेकर कोर्स पूरा किया। 1977 में वह एम ए हिन्दी द्वितीय बर्ष का पाठ्यक्रम पूरा किया था। वह संपूर्णानंद संस्कृत विश्व विद्यालय से सम्बद्ध श्री सनातन धर्म वर्धनी आदर्श संस्कृत महाविद्यालय नगर बाजार बस्ती से प्रथम श्रेणी में साहित्य से आचार्य की परीक्षा भी उत्तीर्ण किए थे।
सरकारी सेवा
 वह 1जनवरी 1977 से गौतम इन्टर कालेज पिपरा गौतम बस्ती मे अपनी दूसरी नियुक्ति एल टी ग्रेड में सहायक अध्यापक के रूप में प्राप्त कर ली थी। यहां 62 साल से ज्यादा समय 31 मार्च 2016 तक वह अध्यापन करते रहे।
परिवार में राष्ट्रपति शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित उत्कृष्ट कोटि के साहित्यकार होते हुए भी आचार्य वशिष्ठ जी का जीवन सादगी से परिपूर्ण रहा है। एक आदर्श और सरल जीवन यापन करने वाले आचार्य पण्डित वशिष्ठ प्रसाद उपाध्याय का जीवन एक खुली किताब की तरह है। जिसमे सरलता तरलता और सूझ बूझ का असीम भंडार भरा पड़ा है। उनकी छिपी हुई प्रतिभा डा. सरस जी जैसा मुखरित तो नहीं हो सकी परंतु काव्य साहित्य के अनुशीलन और अंकुरण में वे पीछे कदापि नहीं थे। मुझे विलम्ब से पता चला है कि "नीरस" कविराय के नाम से कुछ कुण्डलियां भी लिख रखी है जो धीरे धीरे अब सुधार करके लिपिबद्ध किया जा रहा है। उनकी एक अप्रकाशित रचना इस प्रकार प्रस्तुत की जा रही है -

              हे प्रभु तू वेदना दे ।
 
जैसलमेर सा जीवन मेरा है ,
वेदना ही वेदना जिसमें भरा है।
दर्द की इस अग्नि में तपता गया मैं ,
सह ना पाया मूक हो सहता गया मैं।।

दुख की आंधी चल गई ,
 दृष्टि ओझल हो गई ।
रोक पाया मैं नही अपने दृगो को,
 अश्रु धारा बह गई ।।

वेदने तू रुक क्षणिक विश्राम कर ले।
मन में सुंदर सृष्टि का संज्ञान कर ले।।

तप्त जीवन व्यस्त जीवन,
दर्द से परिपूर्ण जीवन।
सुख ना पाया दुख ही दुख में,
बह गया संपूर्ण जीवन।।

हे प्रभु तू वेदना दे,बांट ले इसको ना कोई।
यह मुझे उपहार दे दे ,हे प्रभु तू वेदना दे।