Sunday, July 30, 2023

अगस्त्या नाइट सेशन वन


आगरा।18 जुलाई 2023 को आगरा के बम्बू वूड रिजॉर्ट
125 फूटा रोड ,ताज नगरी फेस 2 ,फतेहाबाद रोड , (जेपी होटल सोफिटेल के सामने,लकावली, ताजगंज,) आगरा, उत्तर प्रदेश में 08.00 बजे से रात 11 बजे तक हमारे प्रिय द्वितीय पौत्र ( डा.दीपिका चौबे और मेजर डा. अभिषेक द्विवेदी के द्वितीय सुपुत्र ) का प्रथम जन्म वर्ष गांठ स्वजनों और परिजनों द्वारा बड़े धूमधाम से मनाया गया। मधुर संगीत के चिल्ड्रन सांग, सजे धजे दीवाल से युक्त ऊंचे मंच (स्टेज) पर परिवारी जन बच्चों से सजे धजे और कैमरों के फ्लैस लाइटो के चकाचौध के मध्य फोटो सेशन का सत्र चल रहा था । खान पान के प्लेटें और सामग्री रिजॉर्ट कर्मियों द्वारा सर्व किया जाने लगा। रंग बिरंगी गुब्बारे और विद्युत से सजे विशाल हाल में बाल गीतों का मधुर संगीत लहरियां बिखर रही थी।खान पान के स्टाल विविध प्रकार के व्यंजनों से सजे हुए थे। लोग मधुर लजीज स्वाद का लुत्फ उठा रहे थे। इंद्र देव जल की मंद फुहारों से वातावरण को शीतल बना रहे थे। फोटो सेशन, खानपान के साथ परिवार कर परिजन परिवार के बच्चे भी केक काटने खिलाने और तालियों की गहाड़ाहट के साथ कैमरों के फ्लैश लाइटों के बीच समा में चार चांद लगा रहे थे।
इस कार्यक्रम की विस्तृत छाया चित्र इस लिंक को लोड करके देखा जा सकता है --https://drive.google.com/drive/folders/1RDOqFSouM-lKOQkHnCsVsVX-ElrToGjF
चिरंजीवी पौत्र अगस्त्य (मनु ) जैसा मैंने समझा :-
        श्रावण माह कृष्ण पक्ष की पंचमी को दिनाक 18 जुलाई 2022 को 06.49 प्रातः जातक अगस्त्य (मनु) का जन्म
 प्रथम सोमवार श्रावण कृष्ण पंचमी विक्रम संवत 2079,
श्रावण के प्रथम सोमवार को हुआ है।इस समय (देव गुरु बृहस्पति का नक्षत्र रहा है। चन्द्रमा मीन राशि में प्रातः 06:35 मिनट पर संचार किया है जो कि अत्यंत कल्याणकारी योग बन रहा है। इस समय पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र है। चंद्रमा मीन राशि पर है। इस समय अमृत काल है। भगवान सूर्य कर्क राश‍ि में रहें।
पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र के जातक :-
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में जन्मे जातक विपरीत परिस्थितियों में घबराते नहीं है। अपनी कड़ी मेहनत से सभी कार्यों में सफलता हासिल करते हैं। माना जाता है कि इस नक्षत्र में जन्मे लोग भाग्यशाली होते हैं और अपने कार्य क्षेत्र में सफल मुकाम पाते हैं और कुल या परिवार का नाम रोशन करते हैं।
चंद्रमा मीन राशि पर :-
मीन चन्द्रमा राशि के जातक बहुत ही जिज्ञासु होते हैं, और जब वे किसी को संकट में देखते हैं, तो कभी अपने आप को उनकी मदद करने से रोक नहीं पाते। मीन चन्द्रमा बहुत अच्छे दिल के लोग होते हैं, इतने अच्छे कि बदले में कुछ न चाहते हुए भी सब कुछ दे देते हैं।
अमृत काल के जातक :-
सूर्योदय के समय दिन का पहला प्रहर प्रारंभ होता है जिसे पूर्वान्ह कहा जाता है। इसे दिन का प्रथम प्रहर भी कहते हैं। इसका समय सुबह के 6 बजे से 9 बजे के बीच का होता है।यह प्रहर आंशिक रूप से सात्विक और राजसिक होता है, लेकिन नकारात्मक नहीं। इस प्रहर में जन्म लेने वाले बच्चे जीवन में बहुत उन्नति करते हैं। हालांकि जीवन काल के प्रारंभ में थोड़ा बहुत इनका स्वास्थ गड़बड़ रहता है। इस प्रहर में जन्म लेने वाले बच्चे तेज बुद्धि के और सत्यवादी होते हैं।
 सूर्य कर्क राश‍ि पर के जातक:-
16 जुलाई 2022 को सूर्य का राशि परिवर्तन होने हुआ है. सूर्य का ये गोचर सुबह 10 बजकर 32 मिनट पर कर्क राशि में हुआ और सूर्य 16 अगस्त शाम 6 बजकर 56 मिनट तक इसी राशि में रहा. सूर्य नेतृत्व और प्रशासनिक क्षमता का कारक है. अगर कुंडली में सूर्य मजबूत अवस्था में है तो ऐसा व्यक्ति राजा की तरह जिंदगी जीता है।
अगस्त्या नाम की राशिफल
मंगल ग्रह मेष राशि का स्वामी माना जाता है। मेष राशि का आराध्य देव भगवान श्री गणेश को माना जाता है। अगस्त्या नाम के लड़कों के जन्म लेने का मौसम काफी सुहावना होता है। अगस्त्या नामधारी उनका ग्रह स्वामी मंगल और लकी नंबर 9 होता है। 9 अंक वाले लोग मुश्किलों का सामना हिम्मत और जज्बे से करते हैं। इनको किसी काम की शुरूआत में मेहनत करनी पड़ती है, पर अंत में ये सफलता हासिल कर लेते हैं। अगस्त्या नाम के लोग साहसी होते हैं।वे भविष्य में अच्छे नेता बन सकते हैं, क्योंकि उनमें नेतृत्व के गुण होते हैं। वे दोस्ती और दुश्मनी निभाने में पीछे नहीं हटते। ये साहसी, आत्मविश्वासी, महत्वाकांक्षी व जिज्ञासु होते हैं। वे विपत्ति से डरते नहीं हैं। नए काम की शुरुआत करने के लिए सबसे पहले तैयार रहते हैं। चुनौतियों को खुशी से स्वीकार करते हैं और ये खूब ऊर्जावान होते हैं।  






 



Sunday, July 23, 2023

क्या कांग्रेस नेता की मनमानी भाषण, अभिव्यक्ति, की स्वतंत्रता है ?✍️ डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

                     सर्वोच्च न्यायालय
जी हां , हमारे भारतीय गणतंत्र के सर्वोच्च न्यायालय में यह दलील है देश के जाने माने कांग्रेसी नेता और अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने रखा है, जिहोने सुप्रीम कोर्ट में कांग्रेस के हरफन मौला और मनमानी भाषण देने वाले नेता श्री राहुल गांधी जी के मानहानि की सजा को स्थगित करने की याचिका लगाई है।राहुल गांधी की सजा पर कोई अंतरिम निलंबन नहीं मिला है। सुप्रीम कोर्ट ने मामले को 4 अगस्त के लिए सूचीबद्ध किया है। इस स्तर पर, दूसरे पक्ष को सुने बिना, हम कैसे कर सकते हैं," सुप्रीम कोर्ट ने श्री गांधी की सजा के 'अंतरिम निलंबन' की याचिका के जवाब में जस्टिस गवई ने पूछा।
मोदी सरनेम केस में राहुल गांधी की सजा पर रोक लगाने पर अब 4 अगस्त 2023 को सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय में होनी है। न्यायमूर्ति बीआर गवई की अगुवाई वाली पीठ ने मामले को 4 अगस्त को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया।जस्टिस गवई ने कहा कि पहले प्रतिद्वंद्वी पक्ष को सुने बिना ऐसा नहीं किया जा सकता.
                            राहुल गांधी 
सुनवाई शुरू होते ही जस्टिस गवई ने वकीलों को कांग्रेस पार्टी के साथ अपने परिवार के राजनीतिक जुड़ाव के इतिहास के बारे में बताया। जस्टिस गवई के पिता, आरएस गवई, एक कार्यकर्ता, सांसद, राज्यपाल और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (गवई) के संस्थापक थे। उनके भाई, राजेंद्र गवई, एक राजनीतिज्ञ हैं। दोनों पक्षों ने जस्टिस गवई से कहा कि वह मामले से पीछे न हटें.श्री सिंघवी ने कहा कि यह समय का संकेत है कि "इस प्रकार की चीजें सामने आनी चाहिए"।
“मैं केवल अपना कर्तव्य निभा रहा हूं। मुझे इसका खुलासा करना होगा ताकि बाद में कोई समस्या न हो। मैं 20 साल से बेंच पर हूं। इन चीजों ने कभी भी मेरे फैसले को प्रभावित नहीं किया,'' न्यायमूर्ति गवई ने कहा।
वास्तव में, हल्के-फुल्के अंदाज में, न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि उनके पिता साथी सांसद थे और श्री सिंघवी और श्री जेठमलानी दोनों के पिता के अच्छे दोस्त थे।
इसके लिए गुजरात सरकार और याचिकाकर्ता पूर्णेश मोदी को नोटिस भेजा है। सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली कांग्रेस नेता राहुल गांधी की याचिका पर गुजरात सरकार को नोटिस जारी किया है। कोर्ट ने 10 दिनों में जवाब देने के लिए भी कहा है। चार अगस्त को अगली सुनवाई होनी है । सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता पूर्णेश मोदी को भी नोटिस जारी किया है।
      हाईकोर्ट ने आपराधिक मानहानि मामले में उनकी सजा पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था। जैसा कि सारा देश जानता है कि राहुल गांधी को सूरत की अदालत ने 'मोदी सरनेम' पर विवादित टिप्पणी के लिए उन्हें दो साल जेल की सजा सुनाई थी। इसे लेकर राहुल जी ने ना केवल कांग्रेसी अपितु सारे विपक्षियों को अपनी तथा कथित देश जोड़ो यात्रा से जोड़ा था। बार बार दलील दी गई थी की गांधी कभी झुकता नही है। यह भी विचारणीय है कि वह असली गांधी हैं या नकली।( उनके दादा जी फिरोज घानधी ghandhy था इसलिए वे असली गांधी नही हैं।) महात्मा गांधी के पर पोते ने भी गांधी उपाधि छोड़ने की अपील जारी कर चुके हैं।
     गुजरात हाईकोर्ट के सात जुलाई के उस फैसले को चुनौती दी है जिसमें कि कोर्ट ने दोषसिद्धि (दो साल की सजा) पर रोक लगाए जाने का अनुरोध करने वाली उनकी याचिका खारिज कर दी थी। अपनी याचिका में, श्री गांधी ने तर्क दिया कि निचली अदालतों ने लोकतांत्रिक राजनीतिक गतिविधि के दौरान आर्थिक अपराधियों और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करने वाले उनके राजनीतिक भाषण को "नैतिक अधमता" का कार्य करार दिया था। राहुल गांधी की ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकील अभिषेक सिंघवी ने सुप्रीम कोर्ट से याचिका को 21 जुलाई या 24 जुलाई को सूचीबद्ध किए जाने का अनुरोध किया था। 
राहुल गांधी ने अपनी याचिका में कहा कि यदि हाईकोर्ट के फैसले पर रोक नहीं लगाई गई तो यह लोकतांत्रिक संस्थानों को व्यवस्थित तरीके से, बार-बार कमजोर करेगा और इसके परिणामस्वरूप लोकतंत्र का दम घुट जाएगा, जो भारत के राजनीतिक माहौल और भविष्य के लिए गंभीर रूप से हानिकारक होगा।उन्होंने तर्क दिया कि दोषसिद्धि और दो साल की सजा, जो मानहानि कानून में अधिकतम सजा है, के परिणामस्वरूप "याचिकाकर्ता को आठ साल की लंबी अवधि के लिए सभी राजनीतिक निर्वाचित कार्यालयों से कठोर बहिष्कार" होगा।
 यह दलील तो हो सकती है पर विश्वसनीय कभी भी नहीं हो सकती है। हो सकता है कांग्रेस के जमाने के कोलोजिनियम वाले जज साहबान इस दलील को सही मानकर इस भारत के मनमानी नेता को और ज्यादा उपहास पात्र बनने में अप्रत्यक्ष तौर पर मदद भी कर सकते हैं। हमारा न्यायालय आपात स्थिति में चौबीस घंटे कभी भी सुनवाई कर सकता है तथा सेलेक्टेड विषयों पर स्वतः संज्ञान भी ले लेता है।
उनकी याचिका में अत्यंत सम्मानपूर्वक यह दलील दी जाती है कि यदि विवादित फैसले पर रोक नहीं लगाई गई, तो इससे स्वतंत्र भाषण, स्वतंत्र अभिव्यक्ति, स्वतंत्र विचार और स्वतंत्र बयान का दम घुट जाएगा। 7 जुलाई के गुजरात उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देते हुए, जिसने उनकी सजा को बरकरार रखा, श्री गांधी ने पूछा कि एक "अपरिभाषित अनाकार समूह" को पहली बार में कैसे बदनाम किया जा सकता है।
                             न्यायमूर्ति गवई 
भारत में यदि राहुल जी जैसे नेता को संरक्षण ना मिला तो भारतीय जनतंत्र और न्यायालय की जग हंसाई हो सकती है। इस प्रकार की दलील तो कोई भी दे सकता है और इस पर यकीन निश्चय ही भारत के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह छोड़ सकता है। हो सकता है याचिका कर्ता और उच्च न्यायालय राहुल जी के तत्कालीन भाषणों की सूची ऑडियो और वीडियो भी अपने पक्ष में रखे।पर सर्वोच्च न्यायालय उसे कितना तवज्जो देगा? यह आने वाला समय ही बताएगा।
          लेखक :  डा. राधे श्याम द्विवेदी , एडवोकेट
(लेखक पूर्व में जिला न्यायालय बस्ती में अधिवक्ता के रूप में कार्य करने के बाद में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्य कर चुका है । वर्तमान में साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और अध्यात्म विषयों पर अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं।)



Sunday, July 16, 2023

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लक्ष्य से भटकती पौराणिक कांवर यात्राएं डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

कांवड़ को शिव जी का स्वरूप कहा गया है :-
कांवड़ शिव की आराधना का ही एक रूप है। इस यात्रा के जरिए जो शिव की आराधना कर लेता है, वह धन्य हो जाता है। कांवड़ का अर्थ है परात्पर शिव के साथ विहार। अर्थात ब्रह्म यानी परात्पर शिव, जो उनमें रमन करे वह कांवरिया। "कस्य आवरः कावरः" 'अर्थात परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ वरदान।' एक अन्य मीमांसा के अनुसार 'क' का अर्थ जीव और 'अ' का अर्थ विष्णु है, वर अर्थात जीव और सगुण परमात्मा का उत्तम धाम। इसी तरह 'कां' का अर्थ जल माना गया है और आवर का अर्थ उसकी व्यवस्था। जलपूर्ण घटों को व्यवस्थित करके विश्वात्मा शिव को अर्पित कर परमात्मा की व्यवस्था का स्मरण किया जाता है। 'क' का अर्थ सिर भी है, जो सारे अंगों में प्रधान है, वैसे ही शिव के लिए कांवड़ का महत्व है जिससे ज्ञान की श्रेष्ठता का प्रतिपादन होता है। ' क' का अर्थ समीप और आवर का अर्थ सम्यक रूप से धारण करना भी है। जैसे वायु सबको सुख, आनंद देती हुई परम पावन बना देती है वैसे ही साधक अपने वातावरण को पावन बना सकता है।
          कांवड़ के व्युत्पत्ति परक जो अर्थ किए गए हैं, उनमें एक के अनुसार ' क' अक्षर अग्नि को द्योतक है और आवर का अर्थ ठीक से वरण करना। प्रार्थना यह है कि अग्नि अर्थात स्रष्टा, पालक एवं संहार कर्ता परमात्मा हमारा मार्गदर्शक बने और वही हमारे जीवन का लक्ष्य हो तथा हम अपने राष्ट्र और समाज को अपनी शक्ति से सक्षम बनाएं। 
         इन तमाम अर्थों के साथ कांवड़ यात्रा का उल्लेख एक रूपक के तौर पर भी करते हैं। गंगा शिव की जटाओं से निकली हुई हैं। उसका मूल स्रोत विष्णु के पैर है। भगीरथ के तप से प्रसन्न होकर विष्णु ने गंगा से जब पृथ्वी पर जाने के लिए कहा तो वह अपने इष्ट के पैर छूती हुई स्वर्ग से पृथ्वी की ओर चली। वहां उसके वेग को धारण करने के शिव ने अपनी जटाएं खोल दी और गंगा को अपने सिर पर धारण किया।
         वहां से गंगा सगर पुत्रों का उद्धार करने के लिए बहने लगी। कांवड़ यात्रा के दौरान साधक या यात्री वही गंगाजल लेकर अभीष्ट शिवालय तक जाते हैं और शिवलिंग का अभिषेक करते हैं। शिव महिमा स्तोत्र के रचयिता आचार्य पुष्पदंत के अनुसार यह यात्रा गंगा का शिव के माध्यम से प्रत्यावर्तन है- अभीष्ट मनोरथ पूरा होने के बाद उस अनुग्रह को सादर श्रद्धा पूर्वक वापस करना , कांवर से गंगाजल ले जाने और अभिषेक द्वारा शिव को सौंपने का अनुष्ठान शिव और गंगा की समवेत आराधना भी है।
      कम से कम श्रद्धालु जन तो यही मानते हैं कि शिव परमात्मा के रूप में तो सर्वव्यापी हैं, कण कण में विराजमान हैं पर पार्थिव रूप में वे इसी क्षेत्र में यहीं रहते हैं। उनसे संबंधित पुराण प्रसिद्ध घटनाओं का रंगमंच यही क्षेत्र रहा है। महाकवि कालिदास ने हिमालय को शिव का प्रतिरूप बताते हुए इसके सांस्कृतिक, भौगोलिक और धार्मिक महत्त्व को रेखांकित किया है! उनके अनुसार हिमालय को देखें तो समाधि में बैठे महादेव, बर्फ के समान गौर उनका शरीर, चोटियों से बहते नद, नदी ग्लेशियर, झरने उनकी जटाएं, रात में चन्द्रोदय के समय सिर पर स्थित चन्द्रकला, गंगानदी का धरती पर आता अक्स खुद-ब-खुद दिमाग में उभरता जाता है।
          शिव भूतनाथ, पशुपतिनाथ, अमरनाथ आदि सब रूपों में कहीं न कहीं जल, मिट्टी, रेत, शिला, फल, पेड़ के रूप में पूजनीय हैं। जल साक्षात् शिव है, तो जल के ही जमे रूप में अमरनाथ हैं। बेल शिव वृक्ष है तो मिट्टी में पार्थिव लिंग है। गंगाजल, पारद, पाषाण, धतूरा फल आदि सबमें शिव सत्ता मानी गई है। अतः सब प्राणियों, जड़-जंगम पदार्थों में स्वयं भूतनाथ पशुपतिनाथ की सुगमता और सुलभता ही तो आपको देवाधिदेव महादेव सिद्ध करती है।
देवाधिदेव महादेव को प्रसन्न करने का सरल तरीका:-
पुराणों में बताया गया है कि कांवड़ यात्रा देवाधिदेव महादेव को प्रसन्न करने का सबसे सरल और सहज तरीका है। भगवान शिव के भक्त बांस की लकड़ी पर दोनों ओर टिकी हुई टोकरियों के साथ गंगा के तट पर पहुंचते हैं और टोकरियों में गंगाजल भरकर लौट जाते हैं। कांवड़ को अपने कंधों पर रखकर लगातार यात्रा करते हैं और अपने क्षेत्र के शिवालयों में जाकर जलाभिषेक करते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है और जीवन में कभी कोई कष्ट नहीं होता है। साथ ही घर में धन धान्य की कभी कोई कमी नहीं होती है और अश्वमेघ यज्ञ के समान फल मिलता है। कांवड़ यात्रा में जहां-जहां से जल भरा जाता है, वह गंगाजी की धारा में से ही लिया जाता है। कांवड़ के माध्यम से जल चढ़ाने से मन्नत के साथ-साथ चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है। हरिद्वार से जल लेकर दिल्ली, पंजाब आदि प्रांतों में करोड़ों यात्री जलाभिषेक करते हैं। यह यात्रा लगभग पूरे श्रावण मास से लेकर शिवरात्रि तक चलती है।
       सावन माह में शिव भक्त गंगा या अन्य किसी पवित्र नदी के तट पर कलश में गंगाजल भरते हैं और उसको कांवड़ पर बांध कर कंधों पर लटका कर अपने अपने इलाके के शिवालय में लाते हैं और श्रावण की चतुर्दशी के दिन शिवलिंग पर गंगाजल अर्पित करते हैं। पुराणों में बताया गया है कि कांवड़ यात्रा भगवान शिव को प्रसन्न करने का सबसे सहज रास्ता है। 
      कांवड के माध्यम से जल की यात्रा का यह पर्व सृष्टि रूपी शिव की आराधना के लिए हैं। पानी आम आदमी के साथ साथ पेड पौधों, पशु - पक्षियों, धरती में निवास करने वाले हजारो लाखों तरह के कीडे-मकोडों और समूचे पर्यावरण के लिए बेहद आवश्यक वस्तु है। 
धार्मिक मान्यता :-
प्रतीकात्मक तौर पर कांवड यात्रा का संदेश इतना भर है कि आप जीवनदायिनी नदियों के लोटे भर जल से जिस भगवान शिव का अभिषेक कर रहे हें । वे शिव वास्तव में सृष्टि का ही दूसरा रूप हैं। धार्मिक आस्थाओं के साथ सामाजिक सरोकारों से रची कांवड यात्रा वास्तव में जल संचय की अहमियत को उजागर करती है। हमें अपने खेत खलिहानों की सिंचाई कर अपने निवास स्थान पर पशु पक्षियों और पर्यावरण को पानी उपलब्ध कराएं तो प्रकृति की तरह उदार शिव सहज ही प्रसन्न होंगे।
कांवर यात्रा के प्रकार:-
कांवड़ मुख्यत: चार प्रकार की होती है और हर कांवड़ के अपने नियम और महत्व होते हैं। इनमें हैं - सामान्य कांवड़, डाक कांवड़, खड़ी कांवड़, दांडी कांवड़। जो शिव भक्त जिस प्रकार की कांवड़ लेकर जाता है, उसी हिसाब से वह तैयारी की जाती है। इन चार प्रकार की कांवड़ के लिए शिव मंदिरो में उसी हिसाब से तैयारी भी की जाती है। आइए जानते हैं इन कांवड़ के बारे में।
1.सामान्य कांवड़ :-
सामान्य कांवड़ में शिव भक्त आराम कर सकते हैं। कांवड़ियों के लिए ज्यादातर जगहों पर पंडाल लगे होते हैं, वहां अपनी कांवड़ रखकर आराम कर सकते हैं।
2.डाक कांवड़ :-
डाक कांवड़ यात्रा के दौरान डाक कांवड़िए बिना रुके लगातार चलते रहते हैं। जहां से गंगाजल भरा हो और जहां जलाभिषेक करना हो, वहां तक उनको लगातार चलते रहना होता है। मंदिरों में डाक कांवड़ियों को लेकर अलग से व्यवस्था भी किए जाते हैं, ताकि जब कोई डाक कांवड़िया आए तब वह बिना रुके शिवलिंग तक पहुंच सकें।
3.खड़ी कांवड़ :-
खड़ी कांवड़ के दौरान कांवड़िए की मदद के लिए कोई ना कोई होता है। जब वह आराम करते हैं, तब उनका सहयोगी अपने कंधों पर कांवड़ को लेकर चलते हैं और कांवड़ को चलाने की अंदाज में हिलाते रहते हैं।
4.दांडी कांवड़ :-
दांडी कांवड़ सबसे मुश्किल होती है और इस यात्रा को करने में कम से कम एक महीने का समय लगता है। दांडी कांवड़ के कांवड़िए गंगा तट से लेकर शिवधाम तक दंडौती देते हुए परिक्रमा करते हैं। यह लेट लेटकर यात्रा को पूरा करते हैं। यह सबसे कठिन आराधना है।

कांवड़ यात्रा की परंपरा कैसे शुरू हुई :-
1.पहली मान्यता : शिव जी हलाहल की गर्मी को शान्त करने हेतु :-
मान्यताओं में बताया गया है कि समुद्र मंथन के दौरान जब महादेव ने हलाहल विष का पान कर लिया था, तब विष के प्रभावों को दूर करने के लिए भगवान शिव पर पवित्र नदियों का जल चढ़ाया गया था। ताकि विष के प्रभाव को जल्दी से जल्दी कम किया जा सके। सभी देवता मिलकर गंगाजल से जल लेकर आए और भगवान शिव पर अर्पित कर दिया। उस समय सावन मास चल रहा था। मान्यता है कि तभी से कांवड़ यात्रा की शुरुआत हो गई थी।
2.दूसरी मान्यता :गढ़मुक्तेश्वर से पुरा महादेव तक:-
अलग अलग जगहों की अलग मान्यताएं रही हैं, ऐसा मानना है कि सर्वप्रथम भगवान परशुराम ने कांवड़ लाकर “पुरा महादेव”, में जो उत्तर प्रदेश प्रांत के बागपत के पास मौजूद है, गढ़मुक्तेश्वर से गंगा जी का जल लाकर उस पुरातन शिवलिंग पर जलाभिषेक किया था। आज भी उसी परंपरा का अनुपालन करते हुए श्रावण मास में गढ़मुक्तेश्वर, जिसका वर्तमान नाम ब्रजघाट है, से जल लाकर लाखों लोग श्रावण मास में भगवान शिव पर चढ़ाकर अपनी कामनाओं की पूर्ति करते हैं। 
         एक अन्य प्रसंग में रावण को पहला कांवड़िया बताया है। समुद्र मंथन के दौरान जब भगवान शिव ने हलाहल विष का पान किया था, तब भगवान शिव का कंठ नीला हो गया था और वे तभी से नीलकंठ कहलाए थे। लेकिन हलाहल विष के पान करने के बाद नकारात्मक शक्तियों ने भगवान नीलकंठ को घेर लिया था। तब रावण ने महादेव को नकारात्मक शक्तियों से मुक्त के लिए रावन ने ध्यान किया और गंगाजल भरकर 'पुरा महादेव' का अभिषेक किया, जिससे महादेव नकारात्मक ऊर्जाओं से मुक्त हो गए थे। तभी से कांवड़ यात्रा की परंपरा भी प्रारंभ हो गई।

 3. तीसरी मान्यता :गोमुख से रामेश्वरम तक पूरे देश को एक सूत्र में पिरोना:-
उत्तर भारत में भी गंगाजी के किनारे के क्षेत्र के प्रदेशों में कांवड़ का बहुत महत्व है। राजस्थान के मारवाड़ी समाज के लोगों के यहां गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बदरीनाथ के तीर्थ पुरोहित जो जल लाते थे और प्रसाद के साथ जल देते थे, उन्हें कांवड़िये कहते थे। ये लोग गोमुख से जल भरकर रामेश्वरम में ले जाकर भगवान शिव का अभिषेक करते थे। यह एक प्रचलित परंपरा थी। लगभग 6 महीने की पैदल यात्रा करके वहां पहुंचा जाता था। इसका पौराणिक तथा सामाजिक दोनों महत्व है।इससे एक तो हिमालय से लेकर दक्षिण तक संपूर्ण देश की संस्कृति में भगवान का संदेश जाता था। इसके अलावा भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की लौकिक और शास्त्रीय परंपराओं के आदान-प्रदान का बोध होता था। परंतु अब इस परंपरा में परिवर्तन आ गया है। अब लोग गंगाजी अथवा मुख्य तीर्थों के पास से बहने वाली जल धाराओं से जल भरकर श्रावण मास में भगवान का जलाभिषेक करते हैं।
4. चौथी मान्यता: बैजनाथधाम में शिव जी का अभिषेक-
आनंद रामायण में इस बात का उल्लेख मिलता है कि भगवान राम पहले कांवड़िया थे। भगवान राम ने बिहार के सुल्तानगंज से गंगाजल भरकर देवघर स्थित बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का अभिषेक किया था। उस समय सावन मास चल रहा था। बैजनाथधाम (झारखंड) रावणेश्वर लिंग के रूप में स्थापित है। श्रावण मास तथा भाद्रपद मास में लाखों श्रद्धालु कांवड़ यात्रा करके इनका जलाभिषेक करते हैं। इस धार्मिक उत्सव की विशेषता यह है कि सभी कांवड़ यात्री केसरिया रंग के वस्त्र धारण करते हैं और बच्चे, बूढ़े, जवान, स्त्री, पुरुष सबको एक ही भाषा में बोल-बम के नारे से संबोधित करते हैं। दरभंगा आदि क्षेत्रों के यात्री कांवड़ के माध्यम से भगवान का अभिषेक बसंत पंचमी पर करते हैं। सर्वप्रथम उत्तर भारत से गए हुए मारवाड़ी परंपरा के लोगों ने इस क्षेत्र में यह परंपरा प्रारंभ की थी।
5. पांचवी मान्यता : कासगंज से बटेश्वर तक:-
आगरा जिले के पास बटेश्वर में, जिन्हें ब्रह्मलालजी महाराज के नाम से भी जाना जाता है, भगवान शिवजी का शिवलिंग रूप के साथ-साथ पार्वती, गणेश का मूर्ति रूप भी है। श्रावण मास में कासगंज से गंगाजी का जल भरकर लाखों की संख्या में श्रद्धालु भगवान शिव का कांवड़ यात्रा के माध्यम से अभिषेक करते हैं। यहां पर 101 मंदिर स्थापित हैं। इसके बारे में एक प्राचीन कथा है कि दो मित्र राजाओं ने संकल्प किया कि हमारे पुत्र अथवा कन्या होने पर दोनों का विवाह करेंगे। परंतु दोनों के यहां पुत्री संतानें हुईं। एक राजा ने ये बात सबसे छिपा ली और विदाई का समय आने पर उस कन्या ने, जिसके पिता ने उसकी बात छुपाई थी, अपने मन में संकल्प किया कि वह यह विवाह नहीं करेगी और अपने प्राण त्याग देगी। उसने यमुना नदी में छलांग लगा दी। जल के बीच में उसे भगवान शिव के दर्शन हुए और उसकी समर्पण की भावना को देखकर भगवान ने उसे वरदान मांगने को कहा। तब उसने कहा कि मुझे कन्या से लड़का बना दीजिए तो मेरे पिता की इज्जत बच जाएगी। इसके लिए भगवान ने उसे निर्देश दिया कि तुम इस नदी के किनारे मंदिर का निर्माण करना। यह मंदिर उसी समय से मौजूद है। यहां पर कांवड़ यात्रा के बाद जल चढ़ाने पर अथवा मान्यता करके जल चढ़ाने पर पुत्र संतान की प्राप्ति होती है। 
6. छठी मान्यता : उज्जयनी में महाकाल को अभिषेक :-
उज्जयनी में महाकाल को जल चढ़ाने से रोग निवृत्ति और दीर्घायु प्राप्त होती है। लाखों यात्री इस समय में भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं। यहां की विशेषता यह है कि हजारों की संख्या में संन्यासियों के माध्यम से टोली बनाकर कावड़ यात्री चलते हैं। ये यात्रा लगभग 15 दिन चलती है। 
7. सातवीं मान्यता :श्रवण कुमार की हरिद्वार यात्रा :-
कुछ विद्वान का मानना है कि सबसे पहले त्रेतायुग में श्रवण कुमार ने पहली बार कांवड़ यात्रा शुरू की थी। श्रवण कुमार ने अंधे माता पिता को तीर्थ यात्रा पर ले जाने के लिए कांवड़ बैठया था। श्रवण कुमार के माता पिता ने हरिद्वार में गंगा स्नान करने की इच्छा प्रकट की थी। माता पिता की इच्छा को पूरा करने के लिए श्रवण कुमार कांवड़ में ही हरिद्वार ले गए और उनको गंगा स्नान करवाया। वापसी में वे गंगाजल भी साथ लेकर आए थे। बताया जाता है कि तभी से कांवड़ यात्रा की शुरुआत हुई थी।
यात्रा में सात्विकता और पवित्रता के कड़े नियम :-
1. एक बार कावड़ को उठाने के बाद फिर से जमीन पर नहीं रखा जाता है और न ही किसी के द्वारा खींचे जाने से अपवित्र ही किया जाता है । यदि किसी प्रकार की लघुशंका या दीर्घ शंका की स्थिति उत्पन्न होती है तो सिद्धांत को वृक्ष या लौकिक रूप से पृथ्वी से ऊपर दिए गए लकड़ी के उपकरणों में ही रुक कर ही विश्राम या लघुशंका, दीर्घ शंका करने का विधान है। हर, लघुशंका, दीर्घशंका के बाद स्नान करने के बाद कैथेड्रल की पूजा करने के बाद फिर से शुरू की जाती है। अब हर साल करीब एक करोड़ लोग हरिद्वार, नीलकंठ और गंगोत्री तक भी गंगाजल लेने के लिए  कैथेड्रल जल संरक्षण के लिए पहुंचते हैं।
2. कांवड़ यात्रा के दौरान किसी भी तरह का नशा, मांस मदिरा या तामसिक भोजन नहीं करना चाहिए। कांवड़ यात्रा पूरी तरह पैदल की जाती है। यात्रा प्रारंभ होने से लेकर पूर्ण होने तक सफर पैदल ही किया जाता है। यात्रा में वाहन का प्रयोग नहीं किया जाता।
3. गंगा या किसी पवित्र नदी का ही जल ही प्रयुक्त:-
 कांवड़ में गंगा या किसी पवित्र नदी का ही जल ही रखा जाता है, किसी कुंवे या तालाब का नहीं। कावड़ को हमेशा स्नान करने के बाद ही स्पर्श करना चाहिए और ध्यान रखना चाहिए कि यात्रा के समय कांवड़ या आपसे चमड़ा स्पर्श ना हो। कावड़ियों को हमेशा जत्थे के साथ ही रहना चाहिए।
4.कावड़ हमेशा उच्च स्थान पर रखें:-
कांवड़ यात्रा के दौरान ध्यान रखना चाहिए कि अगर आप कहीं रुक रहे हैं तो कांवड़ को भूमि या किसी चबूतरे पर ना रखें। कांवड़ को हमेशा स्टैंड या डाली पर ही लटकाकर रखें। अगर गलती से जमीन पर कांवड़ को रख दिया है तो फिर से कांवड़ में पवित्र जल भरना होता है। कांवड़ यात्रा करते समय पूरे रास्ते बम बम भोले या जय जय शिव शंकर का उच्चारण करते रहना चाहिए। साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कांवड़ को किसी के ऊपर से लेकर ना जाएं।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लक्ष्य से भटकती पौराणिक कांवर यात्रा :-
उत्तर प्रदेश में 1990 के राम मंदिर आंदोलन के बाद कांवड़ यात्रा लोकप्रिय हुई वह साल-दर-साल बढ़ती चली गई। प्रारंभ में यह जल अभिषेक गढ़ गंगा के जल से ही किया जाता था।समय के साथ कांवड यात्रा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के साथ ही हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान बिहार झारखंड तथा महाराष्ट्र आदि क्षेत्रों में भी अधिक लोकप्रिय हो गई। पुरा महादेव के साथ ही  देश के अन्यान्य  शिव मंदिरों में भी जलाभिषेक किया जा रहा है।1990 के बाद ही साजी-धजी आर्किस्ट्रा का प्रचलन बढ़ा है।छोटे जरीकेन, एक से रंग की पेंटिंग्स के कपड़े बाजार ने ही विकसित हुए है। धीरे-धीरे-धीरे-धीरे आर्किटेक्चर यात्रा अपने आधुनिक स्वरूप में विकसित हुई। कावंड स्वरूप के वाहनों का प्रयोग बहुतायत से प्रचलित हुई जिसमें एक वाहन गांव में और गांवों के कावड़िये को इकट्ठे करके हरिद्वार तक आते हैं और वापसी में कुछ लोग गंगाजल को कंधे पर लेकर पैदल-पैदल में वापस आते हैं। वाहन से आ रहे आर्किटेक्चर डी. जे. बजा कर खूब नाच गाना करते जाते हैं।  पिछले कुछ वर्षों से डाक कावड़ अधिक प्रचलित हुई है। डाक कावड़िये में शास्त्रियों का समूह छोटे चार पहिए वाले वाहन या दो पहिए वाले वाहन हरिद्वार, नीलकंठ तीर्थ से दर्शन करते हैं और फिर यहां से अपने गंतव्य की दूरी को दिन और घंटे के वादे से तय कर, एक या दो कावड़िये जल लेकर दौड़ते हैं। उनकी गाड़ियां दौड़ती हैं. जब एक कावड़िया थक जाती है तो दूसरी कावड़िया दौड़ती हुई कावड़िया से जल लेकर खुद आगे-आगे दौड़ना शुरू कर देती है। इस प्रकार हरिद्वार अयोध्या सोरों आदि नदी तटों से अपने लक्ष्य तक लगातार दौड़ते-दौड़ते ही गंगाजल भरे जाने लगे है ।
लंगड़ और शिविरो का बहुतायत से आयोजन :- 
कांवर भक्तों की भीड़ बढ़ने का एक कारण यह भी है की सरकारी और निजी संस्थाओं द्वारा भक्तों को सुख सुबिधा बढ़ाने के लिए बड़ी संख्या में लंगड़ चिकित्सा खान पान और अन्य सुविधाओ का बढ़ाना भी है। बेकार और खाली घर पर बैठे युवा इन आकर्षणों को पाने के लिए ज्यादा सक्रिय हो जाते हैं। इस तरह आगरा तफरी और आप धापी में आम जन मानस और रहन सहन बुरी तरह प्रभावित हो उठता है।
काँवड़ यात्रा से व्यापार में बढ़ोतरी :-
हर साल लाखों की संख्या में नए गाने, राग रागनी जो भोले की बंदना पर आधारित होते हैं, बाजार में उतारे जा रहे हैं। साथ ही हर साल भोले के वे के लिए नए-नए टाइप के डिज़ाइनर ड्रेस भी मार्केट में उतारे जा रहे है। इस प्रकार की अलग-अलग प्रकार से अरबों रुपयों का कारोबार का बढ़ावा मिलता गया है।
गन्दगी की बढ़ोत्तरी:-
कलाकार ज्यादातर युवा ही आते हैं वे जोश से भरे रहते हैं और कावड़ की पवित्रता को लेकर आते हैं जो सिद्धांत लेकर कई बार अलौकिक, स्थानीय नागरिकों और प्रशासन से भी कट्टरपंथियों की हिंसक शिकार भी हुए हैं। भीड़ की यह हिंसक गंदगी और लाखों की संख्या में जब कावड़िए खुले में मलमूत्र का त्याग करते हैं तो कावड़ के बाद भीषण गंदगी चारों ओर फैली होती है जिसमें महामारी का खतरा बना रहता है ।
भांग-‌गांजे और मादक पदार्थों का सेवन में इजाफा :-
कांवड़ यात्रा में भक्तों का एक बड़ा हुजूम भांग-‌गांजे का सेवन करता हैं। कुछ तो इसे भोले का प्रसाद और पता नहीं क्या क्या बुलाते हैं। केवल वे लोग जो नशा करते हैं, ऐसी प्रवृत्ति में शामिल होते हैं और इन लोगों के अपने समूह होते हैं, समूह हर का अपना होता है।  कांवरिया शराब का सेवन नहीं करता है। भांग गांजा को  भगवान शिव का प्रसाद कहता है । मद्य निषेध विभाग द्वारा और अधिक जागरुकता अभियान चलाया जाना चाहिए।


Friday, July 14, 2023

भारद्वाज गोत्र की कुलदेवी – बिंदुक्षिणी ( द्विवेदी ब्राह्मण इतिहास श्रृंखला संख्या 10 ) आचार्य डॉ. राधे श्याम द्विवेदी


 हर कुल और गोत्र के भी संरक्षक देवता या कुलदेवी होती हें । इनका ज्ञान कुल के वयोवृद्ध अग्रजों (माता-पिता आदि ) के द्वारा अगली पीड़ी को दिया जाता है । एक कुलीन ब्राह्मण को अपने तीनों प्रकार के देवताओं का बोध तो अवश्य ही होना चाहिए -
(1) इष्ट देवता अथवा इष्ट देवी ।
(2) कुल देवता अथवा कुल देवी ।
(2) ग्राम देवता अथवा ग्राम देवी ।
ब्रह्मा जी के बनाए हुए सप्त ऋषियों में पहले 7 फिर
24 प्रमुख और बाद में 56 गोत्रों में यज्ञ पूजा की जाती रही।ये ऋषि अपने अपने वंशजों की मंगल कामना करते थे। दैत्य आकर इस कार्य में विघ्न उपस्थित करने लगे थे। ब्राह्मणों के प्रार्थना पर इस विघ्नों को दूर करने के लिए त्रिदेवों ने हर गोत्र वा वंश में एक एक योगनियाँ यज्ञ की रक्षा के लिए उत्पन्न किया।आगे चल कर यही योगनियां कुल देवी के रूप में पूजी जाने लगीं।
 कुलदेवी या देवता कुल या वंश के रक्षक देवी-देवता होते हैं। ये घर-परिवार या वंश-परंपरा के प्रथम पूज्य तथा मूल अधिकारी देव होते हैं। इनकी गणना हमारे घर के बुजुर्ग सदस्यों जैसी होती है। अत: प्रत्येक कार्य में इन्हें याद करना जरूरी होता है। इनका प्रभाव इतना महत्वपूर्ण होता है कि यदि ये रुष्ट हो जाएं तो हनुमानजी के अलावा अन्य कोई देवी या देवता इनके दुष्प्रभाव या हानि को कम नहीं कर सकता या रोक नहीं लगा सकता। इसे यूं समझें कि यदि घर का मुखिया पिताजी या माताजी आपसे नाराज हों, तो पड़ोस के या बाहर का कोई भी आपके भले के लिए आपके घर में प्रवेश नहीं कर सकता, क्योंकि वे 'बाहरी' होते हैं। 
           ऐसा भी देखने में आया है कि कुल देवी-देवता की पूजा छोड़ने के बाद कुछ वर्षों तक तो कोई खास परिवर्तन नहीं होता, लेकिन जब देवताओं का सुरक्षा चक्र हटता है तो परिवार में घटनाओं और दुर्घटनाओं का दौर शुरू हो जाता है, उन्नति रुकने लगती है, गृहकलह, उपद्रव व अशांति आदि शुरू हो जाती हैं। आगे वंश नहीं चल पाता है। पिताद्रोही होकर व्यक्ति अपने वंश को नष्ट कर लेता है!

                      मां बिन्दुक्षणी
भारद्वाज गोत्र की कुलदेवी :
स्कन्द पुराण के अनुसार बिन्दुक्षणी/श्रीमाता के नाम से जानी जाती है।वह गुजरात के पाटण शहर में है। यह मां दुर्गा /मां शारदा का स्वरूप होती हैं। कुछ अन्य संबद्ध वंशों में महादेवी ,कालिका देवी ,योगेश्वरी और दुर्गेश्वरी देवी को भी कुल देवी के रूप में मान्यता मिली है। कुछ लोग महामाया /वाराही देवी को कुल देवी के रूप में पूजते हैं। श्री माताजी राज राजेश्वरी त्रिपुर सुन्दरी के रूप में भी जानी जाती हैं।
   

माँ बिन्दुक्षणी सभी की कुलदेवी हैं इससे संबंधित लोग भारद्वाज गोत्र (पंक्ति)श्रीमाली ब्राह्मणों की आयु) मुख्य रूप से राजस्थान और गुजरात में पाए जाते हैं। प्रमुख माँ बिंदुक्षिणी का मंदिर सावीधार गांव में स्थित है, जो 12 किलोमीटर दूर है जालोर जिले (राजस्थान) में भीनमाल से आरएस दूर और अन्य मंदिर मुख्य रूप से हैं जोधपुर (राजस्थान), पाटन (गुजरात), सिरोही (राजस्थान) और भारत के अन्य स्थानमैं एक। माँ बिन्दुक्षिनी को माँ बन्धुक्षनी, माँ बन्धुक्षिनी, माँ बा भी कहा जाता है विभिन्न क्षेत्रों में भाषा और बोली के अंतर के कारण एनधुरक्षिणी जहां उनके बेटे-बेटियां रहते हैं.माँ बिन्दुक्षिणी हैं देवी दुर्गा का एक अवतार । माँ बिन्दुक्षइनि का वाहन सिंह है जो शुभता, विजय, असीम ऊर्जा आदि का प्रतीक है ताकत। उनका पसंदीदा रंग लाल है और उन्हें लाल चुनरी पहनना पसंद है साड़ी के साथ लाल चूड़ियां और लाल बिंदी. उसके हाथ हमेशा रंगे रहते हैं। कुमकुम.माँ बिन्दुक्षिणी के स्मरण का बीज मंत्र है--
" ॐ ह्रीं श्रीं बिंदउष्णाय नमो नमः "
 जिसका जाप नियमित रूप से प्रातः काल (ब्राह्म) में करना चाहिए।मा मुहूर्त) और शाम (सूर्य अस्त के बाद) प्रत्येक में कम से कम 51 बार। 
महादेवी :-
महादेवी को कई महलों से जाना जाता है। उसे आम तौर पर मूलप्रकृति ('वह जो तत्व है') और महामाया ('वह जो महान माया है') के रूप में जाना जाता है।  देवी भागवत पुराण और ललिता सहस्रनाम में महादेवी के अनेक वर्णनों का वर्णन है। इनमें उनके दिव्य और विध्वंसक लक्षण शामिल हैं। देवी भागवत पुराण में उन्हें 'सभी की माता', 'सभी प्राणियों में जीवन शक्ति' और 'वह जो परम ज्ञान हैं' के रूप में वर्णित किया गया है। ललिता सहस्रनाम में भी उनका वर्णन  विश्वधिका ('वह जो ब्रह्मांड से परे है'), सर्वगा ('वह जो सर्व सहभागी है'),('वह जो राक्षसों को मारती है'),  भैरवी  ('भयानक'), और सहरिणी ('वह जो नष्ट कर देती है')।महादेवी के विध्वंसकारी स्मारक का वर्णन आर्यस्तव नामक एक भजन में किया गया है, जिसमें उन्हें कालरात्रि  ('मृत्यु की रात') और निष्ठा ('वह जो मृत्यु है') कहा गया है। 
    मां वाराही:-
माँ वाराही हिन्दू धर्म की सप्तमातृका में से एक है।यह देवी लक्ष्मी का स्वरूप है। जो भगवान विष्णु के वराहावतार की शक्ति रूपा है। इनका शीश जंगली शूकर का है। श्री दुर्गा शप्तशति चण्डी के अनुसार शुम्भ निशुम्भ दो महादैत्यो के साथ जव महाशक्ति भगवती माँ दुर्गा का प्रचण्ड युद्ध हो राहा था तब माँ भगवती परमेश्वरी कि सहायता करने के लिए सभी प्रमुख देवता (भगवान शिव, भगवान विष्णु , भगवान ब्रह्मा , देवराज इंद्र , कुमार कार्तिकेय) अपने कर्मो के आधार शक्ति स्वरूपा देवीऔ को अपने शरीर से प्रकट किया था । उसी समय भगवान विष्णु अपने अंशावतार वाराह के शक्ति माँ वाराही को प्रकट किया था। भगवान विष्णु की शक्ति देवी लक्ष्मी है उनके वराह अवतार की शक्ति देवी लक्ष्मी की अवतार वाराही है।

भारद्वाज गोत्र के कुलदेवता शिव/रुद्र। (द्विवेदी ब्राह्मण श्रृंखला संख्या 9) आचार्य डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

 

कुलदेवता किसी भी परिवार का प्रतिनिधित्व करते हैं। हिंदू धर्म में इन्हें विशेष रूप से पूजा जाता है और किसी भी शुभ अवसर जैसे शादी, नई बहू के आगमन, बच्चे के जन्म के समय और अन्य कई संस्कारों में कुल देवी या कुल देवता की पूजा की जाती है। उन्हें एक विशेष वंश या कुल के अधिष्ठाता देवता माना जाता है। कुलदेवी या कुलदेवता की अवधारणा हिंदू परंपराओं में देखी जाती है और ये अलग-अलग समुदायों के बीच भिन्न होती है। 

कुलदेवी या कुलदेवता की पूजा करने का महत्व :-

ऐसी मान्यता है कि  प्रत्येक परिवार या वंश का एक विशिष्ट दैवीय संबंध होता है जो पीढ़ियों के माध्यम से आगे बढ़ता है। किसी भी कुलदेवी या कुलदेवता को वंश के संरक्षक के रूप में देखा जाता है, जो उस कुल के सभी सदस्यों की रक्षा करते हैं। कुलदेवी या कुलदेवता की पूजा करने से परिवार में आशीर्वाद बना रहता है और समृद्धि आती है। कुल देवी और देवता का सम्मान करने और उनकी कृपा पाने से पूरे परिवार पर कृपा बनी रहती है। उनकी पूजा परिवार और परंपराओं को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह पूजा किसी विशेष वंश के सदस्यों के बीच सांस्कृतिक पहचान की भावना को मजबूत करती है। उनकी पूजा करने से परिवार के सदस्यों के बीच एकता और सामंजस्य बढ़ता है। यही नहीं यदि नव विवाहित जोड़े को कुल देवी और देवता के दर्शन कराए जाते हैं तो उनके रिश्ते में सदैव सामंजस्य बना रहता है।

कैसे की जाती है कुलदेवता की पूजा :-

कुलदेवी या कुलदेवता की पूजा करने की प्रथा अलग समुदायों में अलग होती है और सभी कुलों के देवी-देवता भी अलग होते हैं। किसी भी विवाह संस्कार में उन्हें आमंत्रित करना अनिवार्य माना जाता है और उनका आशीर्वाद लिया जाता है जिससे कुल की समृद्धि बनी रहे। उन्हें हमारे वंश का रक्षक माना जाता है, इसलिए ऐसा कहा जाता है कि बच्चे के जन्म के बाद उसे दर्शन के लिए जरूर ले जाना चाहिए जिससे उसकी सेहत हमेशा अच्छी बनी रहे और जीवन में कोई समस्या न आए। 

पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरण:-

कुलदेवता पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होते हैं और आपकी रिश्तेदारी को परिभाषित करते हैं। आपसे अपेक्षा की जाती है कि आप अपना जीवन अपने कुलदेवता के गुणों के अनुसार जियें। जो लोग एक ही कुलदेवता साझा करते हैं वे एक-दूसरे को रिश्तेदार मानते हैं, भले ही वे आवश्यक रूप से रक्त रिश्तेदार नहीं हैं।

शिव एक अनादि देव :-

शिव हिन्दू धर्म के प्रमुख देवताओं में से हैं। वे त्रिदेवों में एक देव हैं। इन्हें देवों के देव भी कहते हैं। इन्हें महादेव, भोलेनाथ, शंकर, महेश, रुद्र, नीलकंठ के नाम से भी जाना जाता है। तंत्र साधना में इन्हे ‘भैरव’ के नाम से भी जाना जाता है। वेद में इनका नाम ‘रुद्र’ है। यह व्यक्ति की चेतना के अन्तर्यामी हैं। इनकी अर्धाङ्गिनी (शक्ति) का नाम पार्वती है। शि-व का मतलब है -वह जो है ही नहीं । जो है ही नहीं, वह सिर्फ सो सकता है। इसलिए शिव को हमेशा ही डार्क बताया गया है। शिव सो रहे हैं और शक्ति उन्हें देखने आती हैं। वह उन्हें जगाने आई हैं क्योंकि वह उनके साथ नृत्य करना चाहती हैं, उनके साथ खेलना चाहती हैं और उन्हें रिझाना चाहती हैं। शुरू में वह नहीं जागते, लेकिन थोड़ी देर में उठ जाते हैं। मान लीजिए कि कोई गहरी नींद में है और आप उसे उठाते हैं तो उसे थोड़ा गुस्सा तो आएगा ही, बेशक उठाने वाला कितना ही सुंदर क्यों न हो। अत: शिव भी गुस्से में गरजे और तेजी से उठकर खड़े हो गए। उनके ऐसा करने के कारण ही उनका पहला रूप और पहला नाम रुद्र पड़ गया। रुद्र शब्द का अर्थ होता है – दहाडऩे वाला, गरजने वाला।

साकार और निराकार दोनों रूप में:-
भगवान शिव साकार और निराकार दोनों ही रुपों में हर सांसारिक पीड़ा का शमन करने वाले माने गए हैं। शिव भक्ति में यही भाव और श्रद्धा मन को शांत और संतुलित कर व्यवहार के दोषों से भी दूर रखती है। जिससे सुखद परिणाम जल्द मिलते हैं। इस सृष्टि का निर्माण भगवान शिव की इच्छा मात्र से ही हुआ है। अत: इनकी भक्ति करने वाले व्यक्ति को संसार की सभी वस्तुएं प्राप्त हो सकती हैं। शिवपुराण के अनुसार, नियमित रूप से शिवलिंग का पूजन करने वाले व्यक्ति के जीवन में दुखों का सामना करने की शक्ति प्राप्त होती है।

शत्रु को रुलाने के लिए रुद्र रूप:-

भगवान शिव का एक नाम ‘रुद्र’ है । दःख का नाश करने तथा संहार के समय क्रूर रूप धारण करके शत्रु को रुलाने से शिव को रुद्र कहते हैं। वेदों में शिव के अनेक नामों में रुद्र नाम ही विशेष है। उन्हें रुद्र परमेश्वर, जगत्स्रष्टा रुद्र आदि कहकर परमात्मा माना गया है। कश्यप के पुत्र रूप में उत्पन्न ये एकादश रुद्र महान बल पराक्रम से संपन्न थे, इन्होंने संग्राम में दैत्यों का संहार कर इंद्र को पुनः स्वर्ग का अधिपति बना दिया। ये शिव रूपधारी एकादश रुद्र अब भी देवताओं की रक्षा के लिए स्वर्ग में विराजमान रहते हैं। भगवान रुद्र मूलतः तो एक ही हैं तथापि जगत के कल्याण के हेतु अनेक नाम रूपों में अवतरित होते है।

Thursday, July 13, 2023

हमारी पूजा पद्धति के अभिन्न अंग कुलदेवी और देवता (द्विवेदी ब्राह्मण इतिहास श्रृंखला संख्या 8 ). आचार्य डा. राधेश्याम द्विवेदी


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          भारत एक धर्म प्रधान देश है। इसकी सभ्यता व संनातनी संस्कृति युगो- युगों से देश के कण कण में समाहित है। 33 कोटि देवी देवताओं वाले इस देश में पग- पग पर विविधता भी देखने को मिलती है। कुलदेवी या कुलदेवता किसी भी परिवार का प्रतिनिधित्व करते हैं। हिंदू धर्म में इन्हें विशेष रूप से पूजा जाता है और किसी भी शुभ अवसर जैसे शादी, नई बहू के आगमन, बच्चे के जन्म के समय और अन्य कई संस्कारों में कुल देवी या कुल देवता की पूजा की जाती है।उन्हें एक विशेष वंश या कुल के अधिष्ठाता देवता माना जाता है। कुलदेवी या कुलदेवता की अवधारणा हिंदू परंपराओं में देखी जाती है और ये अलग-अलग समुदायों के बीच भिन्न होती है। एक मुख्य बात ये आती है कि आखिर क्यों होते हैं हम सभी के कुल देवी या देवता होते हैं और इनकी पूजा का क्या महत्व है। 

कुलदेवी या कुलदेवता की पूजा करने का महत्व :-


ऐसी मान्यता है कि  प्रत्येक परिवार या वंश का एक विशिष्ट दैवीय संबंध होता है जो पीढ़ियों के माध्यम से आगे बढ़ता है। किसी भी कुलदेवी या कुलदेवता को वंश के संरक्षक के रूप में देखा जाता है, जो उस कुल के सभी सदस्यों की रक्षा करते हैं। कुलदेवी या कुलदेवता की पूजा करने से परिवार में आशीर्वाद बना रहता है और समृद्धि आती है। कुल देवी और देवता का सम्मान करने और उनकी कृपा पाने से पूरे परिवार पर कृपा बनी रहती है। उनकी पूजा परिवार और परंपराओं को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह पूजा किसी विशेष वंश के सदस्यों के बीच सांस्कृतिक पहचान की भावना को मजबूत करती है। उनकी पूजा करने से परिवार के सदस्यों के बीच एकता और सामंजस्य बढ़ता है। यही नहीं यदि नव विवाहित जोड़े को कुल देवी और देवता के दर्शन कराए जाते हैं तो उनके रिश्ते में सदैव सामंजस्य बना रहता है।


कैसे की जाती है कुलदेवी या कुलदेवता की पूजा :-


कुलदेवी या कुलदेवता की पूजा करने की प्रथा अलग समुदायों में अलग होती है और सभी कुलों के देवी-देवता भी अलग होते हैं। किसी भी विवाह संस्कार में उन्हें आमंत्रित करना अनिवार्य माना जाता है और उनका आशीर्वाद लिया जाता है जिससे कुल की समृद्धि बनी रहे।उन्हें हमारे वंश का रक्षक माना जाता है, इसलिए ऐसा कहा जाता है कि बच्चे के जन्म के बाद उसे दर्शन के लिए जरूर ले जाना चाहिए जिससे उसकी सेहत हमेशा अच्छी बनी रहे और जीवन में कोई समस्या न आए। 


क्यों होते हैं कुलदेवी या कुलदेवता:-


कुलदेवी एक शब्द है जो हिंदी में 'कुला' यानी खानदान और 'देवी' से मिलकर बना है। दरअसल कुलदेवी वो देवी हैं जो किसी विशेष खानदान या कुल की आदि देवी होती हैं। उन कुलदेवी की उपासना करते समय उनकी मूर्ति या पिंडी की पूजा की जाती है। वहीं कुलदेवता को उस कुल के देवता के रूप में पूजा जाता है। जिन्हें उस कुल का आदि देवता माना जाता है। कुलदेवी और कुलदेवता को पारंपरिक रूप से पूजा के लिए आदर्श माना जाता है और इनकी उपासना में विशेष महत्व दिया जाता है। ये परंपरा, पारिवारिक जीवन और सांस्कृतिक पहचान के अहम उसके रूप में प्रतिष्ठित होती है।

पूर्वजों ने किया है कुलदेवी और कुलदेवता का निर्धारण:- 

किसी भी कुल के देवी या देवता का निर्धारण हमारे पूर्वजों के समय से चला आ रहा है। उस समय उनके इस चुनाव का उद्देश्य था की उनके माध्यम से कुल के सभी लोग अपना संदेश ईश्वर रक् पहुंचाएंगे  पूर्वजों ने उपयुक्त कुलदेवता या कुलदेवी या परिवार के देवता को चुना था और उनकी पूजा करने की प्रथा शुरू की थी। 

कुलदेवी या देवता की पूजा के बिना शुभ अवसर को अधूरा माना जाता है 

कुलदेवी या कुलदेवता को परिवार या कुल का रक्षक माना जाता है और उनके आह्वाहन के बिना किसी भी शुभ अवसर को पूर्ण नहीं माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि कुलदेवी या कुलदेवता यदि किसी वजह से नाराज हो जाते हैं तो परिवार पर संकट आने लगते हैं और बनते काम भी बिगड़ सकते हैं। कुलदेवी या देवता का हिन्दू धर्म शास्त्रों में भी महत्व बताया गया है और उनकी पूजा से घर की समृद्धि बनी रहती है। 


पितृदेवों की भी पूजा :-

इसके अलावा पितृदेवों को भी हम आदर के साथ ही देखते व पूजते हैं। भारतीय लोग हजारों वर्षों से अपने कुलदेवी और देवता की पूजा करते आ रहे हैं। जन्म, विवाह आदि मांगलिक कार्यों में कुलदेवी या देवताओं के स्थान पर जाकर उनकी पूजा की जाती है या उनके नाम से स्तुति की जाती है। इसके अलावा एक ऐसा भी दिन होता है जबकि संबंधित कुल के लोग अपने देवी और देवता के स्थान पर इकट्ठा होकर कुछ रस्म रिवाज भी करते हैं।

पारिवारिक संस्कारों के प्रति संवेदनशीलता :-


कुलदेवता या देवी सम्बंधित व्यक्ति के पारिवारिक संस्कारों के प्रति संवेदनशील होते हैं और पूजा पद्धति, उलटफेर, विधर्मीय क्रियाओं अथवा पूजाओं से रुष्ट हो सकते हैं, सामान्यतया इनकी पूजा वर्ष में एक बार अथवा दो बार निश्चित समय पर होती है, यह परिवार के अनुसार भिन्न समय होता है और भिन्न विशिष्ट पद्धति होती है, शादी - विवाह, संतानोत्पत्ति आदि होने पर इन्हें विशिष्ट पूजाएँ भी दी जाती हैं, यदि यह सब बंद हो जाए तो या तो यह नाराज होते हैं या कोई मतलब न रख मूकदर्शक हो जाते हैं और परिवार बिना किसी सुरक्षा आवरण के पारलौकिक शक्तियों के लिए खुल जाता है, परिवार में विभिन्न तरह की परेशानियां शुरू हो जाती हैं। अतः प्रत्येक व्यक्ति और परिवार को अपने कुल देवता या देवी को जानना चाहिए तथा यथायोग्य उन्हें पूजा प्रदान करनी चाहिए, जिससे परिवार की सुरक्षा - उन्नति होती रहे। अक्सर कुलदेवी, देवता और इष्ट देवी देवता एक ही हो सकते है, इनकी उपासना भी सहज और तामझाम से परे होती है। जैसे नियमित दीप व् अगरबत्ती जलाकर देवो का नाम पुकारना या याद करना, विशिष्ट दिनों में विशेष पूजा करना, घर में कोई पकवान आदि बनाए तो पहले उन्हें अर्पित करना फिर घर के लोग खाए, हर मांगलिक कार्य या शुभ कार्य में उन्हें निमन्त्रण देना या आज्ञा मांगकर कार्य करना आदि।

कुल या वंश की रक्षा :-


कुलदेवी या देवता कुल या वंश के रक्षक देवी-देवता होते हैं। ये घर-परिवार या वंश-परंपरा के प्रथम पूज्य तथा मूल अधिकारी देव होते हैं। इनकी गणना हमारे घर के बुजुर्ग सदस्यों जैसी होती है। अतः प्रत्येक कार्य में इन्हें याद करना जरूरी होता है। इनका प्रभाव इतना महत्वपूर्ण होता है कि यदि ये रुष्ट हो जाएं तो हनुमानजी या दुर्गाजी के अलावा अन्य कोई देवी या देवता इनके दुष्प्रभाव या हानि को कम नहीं कर सकता या रोक नहीं लगा सकता। इसे यूं समझें कि यदि घर का मुखिया पिताजी या माताजी आपसे नाराज हों, तो पड़ोस के या बाहर का कोई भी आपके भले के लिए आपके घर में प्रवेश नहीं कर सकता, क्योंकि वे बाहरी होते हैं। एसे अनेक परिवार हैं जिन्हें अपने कुलदेवी या देवता के बारे में कुछ भी नहीं मालूम है। ऐसा इसलिए कि उन्होंने कुलदेवी या देवताओं के स्थान पर जाना ही नहीं छोड़ा बल्कि उनकी पूजा भी बंद कर दी है। लेकिन उनके पूर्वज और उनके देवता उन्हें बराबर देख रहे होते हैं। यदि किसी को अपने कुलदेवी और देवताओं के बारे में नहीं मालूम है, तो उन्हें अपने बड़े-बुजुर्गों, रिश्तेदारों या पंडितों से पूछकर इसकी जानकारी लेनी चाहिए। यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि झडूला, मुंडन संस्कार आपके गोत्र परंपरानुसार कहां होता है या जात कहां दी जाती है। विवाह के बाद एक अंतिम फेरा (5, 6, 7वां) कहां होता है? कहते हैं कि कालांतर में परिवारों के एक स्थान से दूसरे स्थानों पर स्थानांतरित होने, धर्म परिवर्तन करने, आक्रांताओं के भय से विस्थापित होने, जानकार व्यक्ति के असमय मृत होने, संस्कारों का क्षय होने, विजातीयता पनपने, पाश्चात्य मानसिकता के पनपने और नए विचारों के आने से या संतों की संगत के ज्ञानभ्रम में उलझकर लोग अपने कुल खानदान के कुलदेवी और देवताओं को भूलकर अपने वंश का इतिहास भी भूल जाते हैं। एसा भी देखने में आया है कि कुल देवी-देवता की पूजा छोड़ने के बाद कुछ वर्षों तक तो कोई खास परिवर्तन नहीं होता, लेकिन जब देवताओं का सुरक्षा चक्र हटता है तो परिवार में घटनाओं और दुर्घटनाओं का दौर शुरू हो जाता है, उन्नति रुकने लगती है, गृह कलह, उपद्रव व अशांति आदि शुरू हो जाती हैं। आगे वंश नहीं चल पाता है।

कुल देवी मंदिर का विधान:-


हजारों वर्षों से अपने कुल को संगठित करने और उसके इतिहास को संरक्षित करने के लिए ही कुलदेवी और देवताओं को एक निश्चित स्थान पर नियुक्त किया जाता था। वह स्थान उस वंश या कुल के लोगों का मूल स्थान होता था। उदाहरणार्थ किसी के परदादा के परदादा ने किसी दौर में कहीं से किसी भी कारणवश पलायन करके जब किसी दूसरी जगह रैन-बसेरा बसाया तो निश्चित ही उन्होंने वहां पर एक छोटा सा मंदिर बनाते हैं। जहां पर वह अपने कुलदेवी और देवता की मूर्तियां रखते हैं। यही मूर्तियां व परम्परायें उस कबीले को एक सूत्र में बांध रखने में सहायक हुई हैं। यह उस दौर की बात है, जब लोगों को आक्रांताओं से बचने के लिए एक शहर से दूसरे शहर या एक राज्य से दूसरे राज्य में पलायन करते थे। ऐसे में वे अपने साथ अपने कुल और जाति के लोगों को संगठित और बचाए रखने के लिए वे एक जगह ऐसा मंदिर बनाते थे, जहां पर कि उनके कुल के बिखरे हुए लोग इकट्टा हो सकें। पहले मंदिर या तीर्थ स्थान से जुड़े व्यक्ति के पास एक बड़ी-सी पोथी होती थी जिसमें वह उन लोगों के नाम, पते और गोत्र दर्ज करते थे, जो आकर दर्ज करवाते थे। इस तरह एक ही कुल के लोगों का एक डाटा तैयार हो जाता था। यह कार्य वैसा ही था, जैसा कि गंगा किनारे बैठा तीर्थ पुरोहित या पंडे आपके कुल और गोत्र का नाम दर्ज करते हैं। हमको अपने परदादा के परदादा का नाम नहीं मालूम होगा लेकिन उन तीर्थ पुरोहित के पास हमारे पूर्वजों के नाम लिखे होते हैं। इस प्रकार के रिकार्ड इतिहास लेखन में सहायक होता है। इसी तरह कुलदेवी और देवता हमको हमारे पूर्वजों से ही नहीं जोड़ते बल्कि वह वर्तमान में जिंदा हमारे कुल खानदान के हजारों अनजान लोगों से भी मिलने का जरिया भी बनते हैं। इसीलिए कुलदेवी और कुल देवता को पूजने का व्यापक महत्व है। इससे हम अपने वंशवृक्ष से जुड़े रहते हैं। हमारे पूर्वज हमको कहीं न कहीं से देख रहे होते हैं। उन्हें यह देखकर अच्छा लगता है और वे हमें ढेर सारे आशीर्वाद देते रहते हैं।

गोत्र से कुल देवियों की जानकारी संभव :-


प्रत्येक हिन्दू परिवार किसी न किसी देवी, देवता या ऋषि के वंशज से संबंधित है। उसके गोत्र से यह पता चलता है कि वह किस वंश से संबधित है। मान लीजिए किसी व्यक्ति का गोत्र भारद्वाज है तो वह भारद्वाज ऋषि की संतान है। कालांतर में भारद्वाज के कुल में ही आगे चलकर कोई व्यक्ति हुआ और उसने अपने नाम से कुल चलाया, तो उस कुल को उस नाम से लोग जानने लगे। इस तरह हमें भारद्वाज गोत्र के लोग सभी जाति और समाज में मिल जाएंगे। इसी प्रकार अन्य गोत्र की स्थिति भी मिलती है। हर जाति वर्ग, किसी न किसी ऋषि की संतान होती है और उन मूल ऋषि से उत्पन्न संतान के लिए वे ऋषि या ऋषि पत्नी कुलदेव व कुलदेवी के रूप में पूज्य हैं। इसके अलावा किसी कुल के पूर्वजों के खानदान के वरिष्ठों ने अपने लिए उपयुक्त कुल देवता अथवा कुलदेवी का चुनाव कर उन्हें पूजित करना शुरू किया है और उसके लिए एक निश्चित जगह एक मंदिर बनवाया है ताकि एक आध्यात्मिक और पारलौकिक शक्ति से उनका कुल जुड़ा रहता है और वहां से उसकी रक्षा होती है।

सुरक्षा आवरण:-


कुल देवता या देवी हमारे वह सुरक्षा आवरण हैं जो किसी भी बाहरी बाधा, नकारात्मक ऊर्जा के परिवार में अथवा व्यक्ति पर प्रवेश से पहले सर्वप्रथम उससे संघर्ष करते हैं और उसे रोकते हैं, यह पारिवारिक संस्कारों और नैतिक आचरण के प्रति भी समय समय पर सचेत करते रहते हैं, यही किसी भी ईष्ट को दी जाने वाली पूजा को इष्ट तक पहुचाते हैं, यदि इन्हें पूजा नहीं मिल रही होती है तो यह नाराज भी हो सकते हैं और निर्लिप्त भी हो सकते हैं, ऐसे में आप किसी भी इष्ट की आराधना करे वह उस इष्ट तक नहीं पहुँचता, क्योकि सेतु कार्य करना बंद कर देता है, बाहरी बाधाये, अभिचार आदि, नकारात्मक ऊर्जा बिना बाधा व्यक्ति तक पहुचने लगती है, कभी कभी व्यक्ति या परिवारों द्वारा दी जा रही इष्ट की पूजा कोई अन्य बाहरी वायव्य शक्ति लेने लगती है, अर्थात पूजा न इष्ट तक जाती है न उसका लाभ मिलता है। ऐसा कुलदेवता की निर्लिप्तता अथवा उनके कम शशक्त होने से होता है। कुलदेव परम्परा भी लुप्तप्राय हो गयी है, जिन घरो में प्रायरू कलह रहती है, वंशावली आगे नही बढ रही है, निर्वंशी हो रहे हों, आर्थिक उन्नति नही हो रही है, विकृत संताने हो रही हो अथवा अकाल मौते हो रही हो, उन परिवारों में विशेष ध्यान देना चाहिए। धर्म या पंथ बदलने सके साथ साथ यदि कुलदेवी - देवता का भी त्याग कर दिया तो जीवन में अनेक कष्टों का सामना करना पद सकता है जैसे धन नाश, दरिद्रता, बीमारिया, दुर्घटना, गृह कलह, अकाल मौते आदि। वही इन उपास्य देवो की वजह से दुर्घटना बीमारी आदि से सुरक्षा होते हुवे भी देखा। किसी महिला का विवाह होने के बाद ससुराल की कुलदेवी देवता ही उसके उपास्य हो जायेंगे न की मायके के। इसी प्रकार कोई बालक किसी अन्य परिवार में गोद में चला जाए तो गोद गये परिवार के कुल देव उपास्य होंगे। प्रत्येक व्यक्ति और परिवार को अपने कुल देवता या देवी को जानना चाहिए तथा यथायोग्य उन्हें पूजा प्रदान करनी चाहिए, जिससे परिवार की सुरक्षा -उन्नति होती रहे कुलदेवी देवता की उपासना इष्ट देवी देवता की तरह रोजाना करना चाहिये। देव उपासना देव आवाहन। आवाहन की मूल भावना होता है - सामने या पास लाना। इस क्रिया द्वारा भगवान या इष्ट को आमंत्रित कर साक्षात उपस्थित होने की प्रार्थना की जाती है। इस प्रार्थना में देवताओं को संदेश दिया जाता है कि वह अपनी सारी शक्तियों के साथ आकर देव प्रतिमा में वास करें और आत्म व आध्यात्मिक बल प्रदान करें। इस तरह देव आवाहन में सत्कार के भाव मन में वैसी ही खुशी और शांति देते हैं, जैसे घर आए किसी प्रियजन का स्वागत-सत्कार कर हम महसूस करते हैं। आवाहन की क्रिया से भक्त भगवान के प्रति समर्पण और आस्था प्रकट करता है। यही नहीं इससे भक्त के मन में यह भरोसा पैदा होता है कि देवालय में देव शक्ति प्रवेश कर चुकी है। इस तरह भक्त का मन पूरी एकाग्रता और आनंद से देव पूजा में लगा रहता है। देव आवाहन के लिए शास्त्रों में मंत्र बताया गया है। जिसके द्वारा सारे देवी-देवताओं को प्रेम और आस्था के साथ पुकारा जाता है। जानिए, हैं यह देव आवाहन मंत्र-


आगच्छ भगवन्देव स्थाने चात्र स्थिरो भव।
यावत्पूजां करिष्यामि तावत्वं सन्निधौ भव।।

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Newspuran.com 29 april 2020

  



द्विवेदी ब्राह्मण के तीन प्रमुख प्रवर: अंगिरा वृहस्पति और भारद्वाज ( द्विवेदी ब्राह्मण इतिहास श्रृंखला संख्या 5) आचार्य डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

प्रवर सामान्य परिचय :- अपनी कुल परंपराओं के दर्शन एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हैं। अपने कर्मों में ऋषिकुलों द्वारा स्थापित श्रेष्ट मान्यताओं के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए, वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते थे। इसका अर्थ यह है कि कुल परंपरा में गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के अनंतर अन्य ऋषि भी विशेष महान थे। प्रवर का अर्थ हुआ कि उन मन्त्रद्रष्टा ऋषियों में जो श्रेष्ठ हो।
प्रवर का अर्थ हे 'श्रेष्ठ" । अपनी कुल परम्परा के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हें । भारतीय आर्यों में किसी कुल या वंश की वह विशिष्ट संज्ञा जो किसी के पूर्वज या कुल गुरु के नाम पर होती है और जिससे वह जन्म के साथ ही जुड़ जाता है:"कश्यप ऋषि के नाम पर कश्यप गोत्र है"।
            अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्‍त की गई श्रेष्‍ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें। इसका अर्थ है कि आपके कुल में आपके गोत्रप्रवर्त्तक मूल ऋषि के अनन्तर तीन अथवा पाँच आदि अन्य ऋषि भी विशेष महान हुए थे l
यज्ञ के समय अधवर्यु या होता के द्वारा ऋषियों का नाम ले कर अग्नि की प्रार्थना की जाती है। उस प्रार्थना का अभिप्राय यह है कि जैसे अमुक-अमुक ऋषि लोग बड़े ही प्रतापी और योग्य थे। अतएव उनके हवन को देवताओं ने स्वीकार किया। उसी प्रकार, हे अग्निदेव, यह यजमान भी उन्हीं का वंशज होने के नाते हवन करने योग्य है।
        इस प्रकार जिन ऋषियों का नाम लिया जाता है वही प्रवर कहलाते हैं। यह प्रवर किसी गोत्र के एक, किसी के दो, किसी के तीन और किसी के पाँच तक होते हैं न तो चार प्रवर किसी गोत्र के होते हैं और न पाँच से अधिक।

                     भारद्वाज गोत्र के तीन प्रवर: - 
भारद्वाज गोत्र के तीन प्रवर होते हैं। अंगिरस, वार्हस्पत्य, भारद्वाज है । श्रेष्ठ गोत्रकारों के पूर्वज और महान ऋषि को ही प्रवर कहा गया है।

अंगिरा वंश : अंगिरा की पत्नी दक्ष प्रजापति की पुत्री स्मृति (मतांतर से श्रद्धा) थीं। अंगिरा के 3 प्रमुख पुत्र थे। उतथ्य, संवर्त और बृहस्पति। ऋग्वेद में उनका वंशधरों का उल्लेख मिलता है। इनके और भी पुत्रों का उल्लेख मिलता है- हविष्यत्‌, उतथ्य, बृहत्कीर्ति, बृहज्ज्योति, बृहद्ब्रह्मन्‌ बृहत्मंत्र; बृहद्भास और मार्कंडेय। भानुमती, रागा (राका), सिनी वाली, अर्चिष्मती (हविष्मती), महिष्मती, महामती तथा एकानेका (कुहू) इनकी 7 कन्याओं के भी उल्लेख मिलते हैं। जांगीड़ ब्राह्मण नाम के लोग भी इनके कुल के हैं। 
अंगिरा देव को ऋषि मारीच की बेटी सुरूपा व कर्दम ऋषि की बेटी स्वराट् और मनु ऋषि कन्या पथ्या ये तीनों विवाही गईं। सुरूपा के गर्भ से बृहस्पति, स्वराट् से गौतम, प्रबंध, वामदेव, उतथ्य और उशिर ये 5 पुत्र जन्मे। पथ्या के गर्भ से विष्णु, संवर्त, विचित, अयास्य, असिज, दीर्घतमा, सुधन्वा ये 7 पुत्र जन्मे। उतथ्य ऋषि से शरद्वान, वामदेव से बृहदुकथ्य उत्पन्न हुए। महर्षि सुधन्वा के ऋषि विभ्मा और बाज आदि नाम से 3 पुत्र हुए। ये ऋषि पुत्र रथकार में कुशल थे। उल्लेखनीय है कि महाभारत काल में रथकारों को शूद्र माना गया था। कर्ण के पिता रथकार ही थे। इस तरह हर काल में जातियों का उत्थान और पतन कर्म के आधार पर होता रहा है।

ऋषि बृहस्पति : अंगिरा के पुत्रों को आंगिरस कहा गया। आंगिरस ये अंगिरावंशी देवताओं के गुरु बृहस्पति हैं। इनके 2 भाई उतथ्य और संवर्त ऋषि तथा अथर्वा जो अथर्ववेद के कर्ता हैं, ये भी आंगिरस हैं। महर्षि अंगिरा के सबसे ज्ञानी पुत्र ऋषि बृहस्पति थे। महाभारत के आदिपर्व के अनुसार बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र तथा देवताओं के पुरोहित हैं। बृहस्पति के पुत्र कच थे जिन्होंने शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या सीखी। देवगुरु बृहस्पति की एक पत्नी का नाम शुभा और दूसरी का तारा है। शुभा से 7 कन्याएं उत्पन्न हुईं- भानुमती, राका, अर्चिष्मती, महामती, महिष्मती, सिनीवाली और हविष्मती। तारा से 7 पुत्र तथा 1 कन्या उत्पन्न हुई। उनकी तीसरी पत्नी ममता से भारद्वाज और कच नामक 2 पुत्र उत्पन्न हुए।बृहस्पति के अधिदेवता इन्द्र और प्रत्यधिदेवता ब्रह्मा हैं।
भारद्वाज ऋषि:-
भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं। ऋषि भारद्वाज के प्रमुख पुत्रों के नाम हैं- ऋजिष्वा, गर्ग, नर, पायु, वसु, शास, शिराम्बिठ, शुनहोत्र, सप्रथ और सुहोत्र। उनकी 2 पुत्रियां थीं रात्रि और कशिपा। इस प्रकार ऋषि भारद्वाज की 12 संतानें थीं। बहुत से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं दलित समाज के लोग भारद्वाज गोत्र लगाते हैं। वे सभी भारद्वाज कुल के हैं।
 

Wednesday, July 12, 2023

द्विवेदी ब्राह्मण के प्रमुख गोत्रज "भारद्वाज" ( द्विवेदी ब्राह्मण इतिहास श्रृंखला संख्या 6 ) आचार्य डॉ. राधे श्याम द्विवेदी



गोत्र का अर्थ : -- 
किसी व्यक्ति की वंश-परम्परा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता है। हम सभी जानते हें की हम किसी न किसी ऋषि की ही संतान है, इस प्रकार से जो वंश जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहा गया । गोत्र का अर्थ है कि वह व्यक्ति किस ऋषि के कुल का है। जैसे किसी ने कहा कि मेरा गोत्र भारद्वाज है तो उसके कुल के ऋषि भारद्वाज हुए। अर्थात भारद्वाज के कुल से संबंध रखता है। भारद्वाज उसके कुल के आदि पुरुष है। इसी तरह कोई इंद्र, सूर्य या चंद्रदेव से तो कोई हिरण्याक्ष या हिरण्यकशिपु से संबंध रखता है तो कोई महान राजा बलि की संतान है। हालांकि सभी ऋषि अंगिरा, भृगु, अत्रि, कश्यप, वशिष्ठ, अगस्त्य, कुशिक आदि ऋषियों की ही संताने हैं।
गण पक्ष और शाखाएं :-
गोत्रों के अनुसार ईकाई को 'गण' नाम दिया गया। एक गण का व्यक्ति दूसरे गण में विवाह कर सकता है। इस प्रकार जब कालांतर में गणों के कुल के लोगों की संख्या बढ़ती गई तो फिर उनमें अलग अलग भेद होते गए। संख्‍या बढ़ने के साथ ही पक्ष और शाखाएं बनाई गई। इस तरह इन उक्त ऋषियों के पश्चात उनकी संतानों के विद्वान ऋषियों के नामों से भी अन्य गोत्रों का नामकरण प्रचलित हुए। जैसे अग्नि नाम का एक गोत्र या वंश है। अग्नि के पुत्र अंगिरा हुए जिनके नाम का भी गोत्र या वंश चला। फिर अंगिरा के पुत्र बृहस्पति हुए और बृहस्पति के पुत्र भारद्वाज हुए जिनके नाम का भी गोत्र या वंश चला। गोत्रों से व्‍यक्ति और वंश की पहचान होती है। वंश से इतिहास की पहचान होती है। 
तीन जन्मों का वरदानधारी :-
राज ऋषि ने अपनी तपस्या से इंद्र देव को प्रसन्न कर उनसे 100 -100 वर्षों के तीन जन्मों का वरदान मांगा था। दरअसल भारद्वाज वेदों का अध्ययन करना चाहते थे पर समय की कमी के कारण अध्ययन पूरा ना हो सका। भारद्वाज ऋषि 3 जन्मों के बाद भी वेदों का पूरी तरह से ज्ञान प्राप्त नहीं कर सके। इसके बाद इन्होंने इंद्रदेव से चौथा जन्म मांगा तो उन्होंने इन्हें एक उपाय बताया और कहा कि तुम “सबित्र अग्नि जयन” यज्ञ करो । इन्होंने ऐसा ही किया और तब जाकर इनकी जिज्ञासा पूर्ण हुई थी।
भारद्वाज ऋषि का जन्म
भारद्वाज बृहस्पति और ममता के पुत्र थे ।अंगिरा वंशी भरद्वाज के पिता – बृहस्पति और माता ममता थीं। बृहस्पति ऋषि – अंगिरा के पुत्र होने के कारण ये वंश अंगिरा वंश भी कहलाया जा सकता है। कालांतर में यह राजा भरत के दत्तक पुत्र हुए थे इसके बाद कश्यप और अदिति के पुत्रों ने इनका पालन-पोषण किया था। जब भरत का वंश खत्म होने लगा तब उन्हें दत्तक रूप में प्रदान किया शास्त्रों में भी इसका वर्णन है। कहते हैं जब सम्राट भरत का वंश खत्म होने लगा तब उन्होंने संतान पाने के लिए मरुथम नामक यज्ञ किया । इससे मरुद गणों ने प्रसन्न होकर भरत को भारद्वाज नाम का पुत्र दिया था। आगी वंश में इनका जन्म हुआ था इनके पिता बृहस्पतिऔर माता का नाम ममता था लेकिन पैदा होते ही माता-पिता में इस बात को लेकर विवाद हो गया कि इनका पालन-पोषण कौन करें। दोनों ने एक दूसरे से कहा था तुम इसे संभालो उसी समय से इनका नाम भारद्वाज पड़ा था । इसके बाद इन्होंने अपनी तपस्या के बलबूते पर इस नाम को अमर कर दिया।
भारद्वाज ऋषि का विवाह : –
भारद्वाज ऋषि का विवाह सुशीला से हुआ था और उनका एक पुत्र था गर्ग और एक पुत्री देववर्षिनी थी | 
भारद्वाज एक अग्रगण्य नाम :-
वैज्ञानिक चिंतन और वैज्ञानिक सोच के आधार पर सर्वोच्च स्थान को प्राप्त करने वाले भारत के महान ऋषियों में ऋषि भारद्वाज का नाम आज अग्रगण्य है। उन्होंने अपनी गहरी साधना और अध्यात्म विद्या के बल पर प्राचीन काल में भारत के ऋषि मंडल में अपना सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त किया। लोक कल्याण के लिए ज्ञान प्राप्त करना है उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य रहा था वेदों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए इन्होंने सौ- सौ वर्ष के तीन जन्म लिए थे ।
विलक्षण प्रतिभा वाले ऋषि:-
भारद्वाज ऐसे ऋषि थे जो मंत्र दृष्टा होने के साथ-साथ आयुर्वेद के भी बड़े आचार्य थे वह बहुत अच्छे शाम गायक भी थे ।इसलिए चार प्रमुख शाम गायकों में इनका नाम है। लोगों के कल्याण के लिए उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की उनका जीवन दर्शन हमारे लिए प्रेरणा स्रोत है उन्होंने ज्ञान अर्जित किया और उसे जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास किया। यही कारण है कि वेदों और पुराणों में भी इनकी महिमा गाई गई है । 
राजा भरत के कुल पुरोहित:-
भारद्वाज ऋषि राजा भरत के कुल पुरोहित थे दुष्यंत पुत्र राजा भरत ने अपना राजपाट इन्हीं भारद्वाज को सौंपा तथा खुद जंगल में जाकर रहने लगे।
आध्यात्मिक योगदान:-
महर्षि भारद्वाज व्याकरण, आयुर्वेद संहिता, धनुर्वेद, राजनीतिशास्त्र, यंत्रसर्वस्व, अर्थशास्त्र आदि अनेक ग्रंथों के रचयिता हैं। 'चरक संहिता' की साक्षी है कि उन्होंने आत्रेय पुनर्वसु को कायचिकित्सा का ज्ञान प्रदान किया था। 
ऋषि भारद्वाज को आयुर्वेद और सावित्र्य अग्नि विद्या का भी ज्ञान था। आयुर्वेद के ज्ञान से उन्होंने अपने स्वास्थ्य को चिरस्थाई रखते हुए आयु को भी दीर्घ कर लिया था।ऋषि भारद्वाज ही ऐसे पहले वैज्ञानिक ऋषि हैं जिन्होंने प्रयाग को बसाया था। प्रयाग में बार-बार यज्ञ - याग कराने की परंपरा ऋषि भारद्वाज द्वारा ही स्थापित की गई थी। इसी से इसका नाम प्रयाग हो गया था।
संसार की भलाई के लिए योगदान :-
ऋषि भारद्वाज के द्वारा ऐसे ही यज्ञ यागादि के कार्यक्रम संसार की भलाई के लिए किए जाते थे। दान आदि लेकर लोग दूर-दूर से चलकर उन यज्ञों में उपस्थित होते थे । उनकी सुगंधी से वायुमंडल शुद्ध होता था। जिससे प्राणी मात्र का कल्याण होता था। ऐसी पवित्र भावना को लेकर हमारे इस महान ऋषि के द्वारा उस समय धार्मिक और पुण्य कार्य करने की सतत प्रेरणा लोगों को दी जाती रही । जिससे लोगों में धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा उत्पन्न हुई। ऋषि भारद्वाज के बाद जब उन जैसे महात्मा ऋषियों का अभाव हुआ तो कुछ तो उनके अभाव के कारण और कुछ लोगों की अंधश्रद्धा के कारण प्रयाग में जाकर लोग मुंडन संस्कार आदि न जाने कैसे-कैसे कार्य करवाने लगे। कालांतर में लोगों की इस श्रद्धा भावना का लाभ कुछ मक्कार लोगों ने उठाना आरंभ किया।
वृहदविमान-भाष्य :- 
यदि इस चतुर्युगी के त्रेता काल में रामचंद्र जी का जन्म हुआ था तो रामायण काल को बीते हुए लाखों वर्ष हो चुके हैं। यह हम भारतीयों के लिए बहुत ही गर्व और गौरव का विषय है कि उस समय भी हमारे यहां पर विमान हुआ करते थे। 'पुष्पक विमान' इसका उदाहरण है। उस समय ऋषि भारद्वाज जैसे वैज्ञानिक ऋषि विद्यमान थे। जिन्होंने 'वृहदविमान-भाष्य' की रचना कर उसमें विमान बनाने की सारी तकनीकी का उल्लेख किया है। ऋषि भारद्वाज जी के इसी ग्रंथ को पढ़कर मुंबई के रहने वाले बापूजी तलपदे ने आधुनिक विश्व में सबसे पहले विमान जैसी चीज का आविष्कार कर जब उसका प्रदर्शन अंग्रेजों के सामने किया तो अंग्रेजों ने उनसे इस तकनीक को छीनकर राइट ब्रदर्स को दे दिया। इतना ही में बापूजी तलपदे के हाथ भी कटवा दिये, जिससे कि वह आगे कभी इस प्रकार की चेष्टा ना कर सके।
         ऋषि भारद्वाज के विमान की विशेषता यह थी कि वह एक ही साथ जल, थल और नभ तीनों में उड़ान भर सकता था। यदि किसी कारण से जल में चलते हुए उसके पलटने या खराब होने या अन्य किसी प्रकार की कोई आपदा आ जाती थी तो वह ऐसी आपदा के आते ही कंप्यूटर जैसी तकनीक के माध्यम से स्वयं उड़ान भरने की स्थिति में आ जाता था और नभ मार्ग से उल्टा धरती पर आ जाता था। ऋषि भारद्वाज के वैज्ञानिक चिंतन की ऊंचाई तक वर्तमान भौतिक विज्ञान नहीं पहुंच सका है। ऋषि भारद्वाज के इस विमान शास्त्र में यात्री विमानों के साथ-साथ लड़ाकू विमान और स्पेस शटल यान का भी उल्लेख मिलता है। वर्तमान विश्व के वैज्ञानिक अभी जिन चीजों की कल्पना ही कर रहे हैं उन्हें ऋषि भारद्वाज ने अब से लाखों वर्ष पूर्व पूर्ण करके दिखाया था। उदाहरण के रूप में आज का वैज्ञानिक सोच रहा है कि एक ग्रह से दूसरे ग्रह पर उड़ान भरने की स्थिति पैदा की जाए, जिससे अनेक ग्रह सीधे पृथ्वी के साथ जुड़ सकें और उनकी खबर पृथ्वीवासियों को मिलती रहे। इस व्यवस्था को हमारे ऋषि भारद्वाज ने उस समय पूर्ण करके दिखाया था। ऋषि भारद्वाज के विमान शास्त्र को पढ़ने से पता चलता है कि उन्हें वायुयान को अदृश्य कर देने की तकनीक काफी ज्ञान था।
बुद्धि बड़ी ही उच्च थी, ह्रदय में पवित्र भाव थे।
कल्याणार्थ मनुष्य मात्र के थे काम करते चाव से।।
थे पूर्वज महान अपने, जिन पर हमको गर्व है।
हर कर्म उनका मनुजता का आज भी तो पर्व है।
विमान शास्त्र की रचना :–
ऋषि भारद्वाज ने विमान शास्त्र की रचना की थी इसका अर्थ होता है- पक्षियों के समान वेग होने के कारण इसे विमान कहते इस ग्रंथ में विमान चालक के लिए कई रहस्यों की जानकारी बताई गई है इन राशियों को जान लेने के बाद ही पायलट विमान चलाने का अधिकारी हो सकता है
श्री राम से मिलन :–
भारद्वाज ऋषि का श्री राम के साथ अनन्य अनुराग था वनवास के समय श्री राम इनके आश्रम में गए थे भारद्वाज ने श्री राम का बड़े प्रेम से सत्कार किया था श्रीराम ने इनसे रहने के लिए स्थान भी मांगा था तब इन्होंने अपना आश्रम ही लेने का अनुरोध किया था श्रीराम ने इनका आश्रम लेने के लिए मना कर दिया था श्रीराम द्वारा इस प्रस्ताव को नहीं मानने पर चित्रकूट में उनके लिए व्यवस्था की थी रावण का वध करने के बाद भी श्रीराम इनके पास आए थे श्रीराम ने प्रसन्न होकर इन को वरदान दिया था कि जिस मार्ग से गुजरोगे उस मार्ग से वृक्षों के फल फूल बसंत के मौसम की तरह खिल उठेंगे ऐसा कहते हैं जो द्वापरयुग में श्रीकृष्ण से भी इन की भेंट हुई थी।
ऋग्वेद के मंत्र दृष्टा:-
भरद्वाज ऋषि ऋग्वेद के छठे मंडल के दृष्टा जिन्होंने 765 मंत्र लिखे हैं। वैदिक ऋषियों में भरद्वाज ऋषि का अति उच्च स्थान है। ऋषि भरद्वाज के वंशज भारद्वाज कहलाते है। ऋषि भरद्वाज ने अनेक ग्रंथों की रचना की उनमें से यंत्र सर्वस्व और विमान शास्त्र की आज भी चर्चा होती है।
चरक ऋषि ने भरद्वाज को ‘अपरिमित’ कहा है। भरद्वाज ऋषि चंद्रवंशी काशी राज दिवोदास के पुरोहित थे। वे दिवोदास के पुत्र प्रतर्दन के भी पुरोहित थे और फिर प्रतर्दन के पुत्र क्षत्र का भी उन्हीं ने यज्ञ संपन्न कराया था। वनवास के समय प्रभु श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का संधिकाल था।
ऋषि भरद्वाज के वंशज :-
ऋषि भरद्वाज के प्रमुख पुत्रों के नाम हैं- ऋजिष्वा, गर्ग, नर, पायु, वसु, शास, शिराम्बिठ, शुनहोत्र, सप्रथ और सुहोत्र। उनकी 2 पुत्रियां थी रात्रि और कशिपा। इस प्रकार ऋषि भारद्वाज की 12 संतानें थीं। सभी के नाम से अलग-अलग वंश चले। भरद्वाज गोत्र की वंशावली में अधिकतर उत्तर भारत के ब्राह्मण पाये जाते है, किन्तु कुछ स्थानों पर क्षत्रिय भी इस गोत्र में सम्मिलित है ।विन्ध्याचल पर्वत शृंखला के उत्तरीय भूभाग में ऋषि भरद्वाज से जो वंश परंपरा प्रारंभ हुआ वे सभी वंशज भारद्वाज गोत्रीय कहलाए।


Tuesday, July 11, 2023

द्विवेदी ब्राह्मण के उपनाम विस्तार व व्यक्तित्व (भाग 4) आचार्य राधेश्याम द्विवेदी

(टिप्पणीः- इस श्रंखला को उपलब्घ प्रमाणों के आधार पर तैयार किया गया है। इसे और प्रमाणिक बनाने के लिए सुविज्ञ पाठकों व विद्वानों के विचार व सुझाव सादर आमंत्रित है।)
द्विवेदी उपनाम के ब्राह्मण - द्विवेदी एक भारतीय उपनाम है। ब्राह्मण जाति में एक उप जाति जो द्विवेदी, दूबे, दबे के उप-नाम से विभिन्न स्थानों में निवास करती है। कांचनी, अर्थात गुर्दवान , बृहद्ग्राम अर्थात बड़गों , मीठावान, कोढ़ारी, समुदार और सरार ग्रामों के ब्राहमण द्विवेदी कहलाते हैं। ब्राम्हण की इस उप-जाति का उद्गम स्थान अधिकतर लोग उ॰ प्र॰ के कांतिपुर वर्तमान कांतित जिला मिर्जापुर को कहा जाता है। यहां से आव्रजन होकर ये गोरखपुर जिले के  सरार नामक गा्रव में आये थे। इसलिए इन्हें समदरिया एवं सरार भी कहा जाता हैं। यह गांव गोरखपुर- बडहलगंज रोड पर कौड़ीराम से कुछ आगे स्थित है।
द्विवेदी का शाब्दिक अर्थः- सामान्य रुप से द्विवेदी का शाब्दिक अर्थ दो वेदों का जाननेवाला होता है। चतुर्वेदी या चैबे से उच्चता प्रदान करे के लिए एक परस्पर विरोधी मत दिया जाता है। उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में यह कहा जाता है कि द्विवेदी द्वि और वेदी दो शव्दों से बना है। द्वि का मतलब अघ्यात्मिक , ईश्वर से सम्बन्धित तथा वेदी का तात्पर्य जानने वाला होता है। इसी प्रकार त्रिवेदी का मतलब तीन वेदों के ज्ञाता से नहीं होता है। हिन्दू धर्म के अनुसार ब्राहमण को चारो वेद का अध्ययन करना चाहिए। त्रिवेदी में त्रि का ताप्पर्य तीन भूत,वर्तमान व भविष्य समय काल तथा वेदी का तात्पर्य जानने वाला होता है। भूत वर्तमान तथा भविष्य तीनों कालों के जानने वाले को त्रिवेदी कहा जाता है। प्राचीन और मध्य काल में एक ज्येतिषी को त्रिवेदी कहा जाता था। इसी प्रकार चतुर्वेदी का चतुर का तात्पर्य चारो दिशाओं- उत्तर दक्षिण पूर्व पश्चिम से होता है। इस प्रकार चतुर्वेदी का तात्पर्य पूरे ब्रम्हाण्ड का ज्ञाता होता है।
विस्तार- द्विवेदी दुबेदी अथवा दूबे उप-नाम से विशेष कर उ॰प्र॰, म॰ प्र॰, विहार, राजस्थान, काश्मीर, हिमांचल प्रदेश,पंजाब एवं उत्तराखण्ड में निवास करते हैं। द्विबेदी अथवा दूबे, दबे उप-नाम से उ॰प्र॰ में गोरखपुर, फैजाबाद, इलाहाबाद, प्रतापगढ़, आजमगढ़, फतेहपुर, देवरिया,, वाराणसी, मिर्जापुर, लखनऊ,आगरा, मथुरा, कानपुर (कान्यकुब्ज दूबे) में निवास करते हैं। उ. प्र. के बस्ती जिले के दूबे लोगों का आव्रजन सरारी से हुआ है। एक शाखा के मूल पुरुष गोपाल दूबे कहे जाते हैं। इनके वंशज गोहर गोपालपुर हथिया दूबे,लगलहटे, देउवापार, पकरी पिपरौला,कुचूला , लालाजोत, नगर व शोभा में बसे हैं।ये सभी गांव बस्ती व हर्रैया तहसील में हैं। इनका आगमन लगाग 250 वर्ष पूर्व यहां हुआ था। पं. राम नरेश दूबे ग्राम हाथीया के विवरण व विजयपाल सिंह के बस्ती का इतिहास पृ. 204 के आधार पर। दूसरी शाखा भी लगभग इसी समय आव्रजित होकर बांसी तहसील में बसे थे। सर्वप्रथम यह शाखा सक्ठपुर निकट मिठवल में बसे थे।जिसके बाद इनका विस्तार रामपुर दूबे, दानवकुइयां वैदवली, बरगदही व बूढ़ापार में हुआ था। डा. सुधीशधर दूबे गा्रम रामपुर दूबे के मतानुसार तथा बस्ती का इतिहास पृ. 204 के विवरण के आधार पर। इसके अलावा कटया चिलिहया और गौहनिया कटया चिल्हिया नौगढ में भी इस वंश के लोग हैं । तर्किहार दूबे का एक गांव सिरवत नौगढ़ में भी है
म॰ प्र॰ में इन्दौर, भोपाल, जबलपुर, मुकुन्दपुर, सतना ( अमरपाटन - सतना ) और रीवा में निवास करते हैं। गुजरात में नन्दियाड़, भावनगर में निवास करते हैं। गुजरात व महाराष्ट्र में दबे इनका उप नाम मिलता है। विहार में दरभंगा तथा समस्तीपुर में बहुतायत से निवास करते हैं।पंजाब में होशियारपुर,नांगल में निवास करते हैं। नांगल - पंजाब के प्रमुख गांव - जोहल, टाण्डा उरमार, बुद्धि पिण्ड मैदा मजरा, बासगांव, दुबेता कालोनी नागल कस्बे में भी वहुतायत से निवास करते हैं। यहां उनके द्विवेदी या दुबेदी उपनाम मिलते हैं।भारत से बाहर कनाडा, न्यूजीलैण्ड, यूनाइटेड स्टेट, में भी इस उप नाम के लोग मिलते हैं। दुबे या दूगे भारतीय मुल के देश फिजी, गुवाना त्रिनिडाड और टोबागों में भी पाये जाते हैं सम्भव है उनके पूर्वज भारत के उपरोक्त प्रमुख क्षेत्रों से ही वहां विस्थापित हुए हों।
प्रमुख व्यक्तित्व-द्विवेदी उप-नाम में महत्व पूर्ण व्यक्तित्व प्रमुख लेखक, कवि संत एवं विद्वान मिलते हैं।रामायण के रचयिता संत तुलसी दास राजापुर गांव बांदा के निवासी थे। देवरहवा बाबा बस्ती जनपद के सरयू नदी के तट पर स्थित हर्रैया तहसील के उमरिया गांव के मुल निवासी थे। जो बाद में देवरिया जिले के दियारा इलाके में मइल गांव को अपना तपस्थली बनाकर देवरहवा बाबा के नाम से प्रसिद्ध हुए। बृन्दाबन में भी इनका आश्रम बना हुआ है। इनके वंशज सीताराम दूवे के परिवारीजन बस्ती के उमरिया गांव में आज भी निवास करते हैं। साहित्य के क्षेत्र में महाबीर प्रसाद द्विवेदी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, बाल गोबिन्द द्विवेदी, सोहनलाल द्विवेदी, लाल बहादुर दुबे, रेवा प्रसाद द्विवेदी आचार्य मोहन प्यारे द्विवेदी तथा डा. राधेश्याम द्विवेदी आदि प्रसिद्ध हैं। गणितज्ञ सुधाकर द्विवेदी, फिल्मी कलाकार निखिल द्विवेदी, फिल्मी कलाकार माडल रागिनी द्विवेदीभारतीय फिल्म के कथाकार तथा निर्देशक चन्द्र प्रकाश द्विवेदी, भारतीय सेना के मेजर जनरल जी.जी.द्विवेदी, चिकित्सा के क्षेत्र में मेजर अभिषेक द्विवेदी ,डा सौरभ द्विवेदी आर्थोपेडिक सर्जन  यूपी, पत्रकारिता के क्षेत्र में भारतीय जन संचार संस्थान के डा. संजय द्विवेदी, पत्रकार और शिक्षक डा. संजय द्विवेदी,समाज सेवी स्वर्गीय राजेश दुबे, श्री अखिलेश दुबे,मुम्बई के इतिहासकार व विद्वान शरद द्विवेदी, राजनीतिकार कांग्रेस के जनार्दन द्विवेदी, कनाडा के प्रतिष्ठित प्रोफेसर तथा रायल सोसायटी से जुड़े ओ. पी. द्विवेदी, कवि और गीतकार राम चन्द्र द्विवेदी, संस्कृत के विद्वान पद्श्री सम्मान प्राप्त कपिलदेव द्विवेदी आदि हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग प्रधिककरण के परियोजना निदेशक सत्येन्द्र दूबे जो भष्टाचार की बलिवेदी पर शहीद हुए थे।

                    ( आगे भी जारी रहेगा)