Sunday, March 31, 2024

प्रयाग के अक्षय वट माधव मंदिर की महत्ता आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी


अक्षयवट के प्रसिद्ध की कहानी 
अक्षयवट तीर्थराज प्रयाग का सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है। पुराण कथाओं के अनुसार यह सृष्टि और प्रलय का साक्ष्य है। नाम से ही जाहिर है कि इसका कभी नाश नहीं होता। प्रलयकाल में जब सारी धरती जल में डूब जाती है तब भी अक्षयवट हरा-भरा रहता है। बाल मुकुंद का रूप धारण करके भगवान विष्णु इस बरगद के पत्ते पर शयन करते हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यह पवित्र वृक्ष सृष्टि का परिचायक है।

करारविन्देन पदारविन्दं मुखारविन्दं विनिवशयन्तम्‌। 
वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि॥

शूलपाणि महेश्वर इस वृक्ष की रक्षा करते हैं, तव वटं रक्षति सदा शूलपाणि महेश्वरः। पद्‌म पुराण में अक्षयवट को तीर्थराज प्रयाग का छत्र कहा गया है-

छत्तेऽमितश्चामर चारुपाणी सितासिते यत्र सरिद्वरेण्ये। 
अद्योवटश्छत्रमिवाति भाति स तीर्थ राजो जयति प्रयागः॥

          प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना से पहले इस पवित्र क्षेत्र में दस अश्वमेध यज्ञ किए थे। तीर्थराज प्रयाग में महाविष्णु के स्वरूप माधव का पूजन किया जाता है। पुराणों में कहा गया है कि प्रलयकाल में जब सारी सृष्टि जल में डूब जाती है, तब महाविष्णु माधव बाल मुकुन्द का रूप धारण कर अक्षयवट के पत्ते पर शयन करते हैं। अक्षयवट मंदिर भारत के प्रयागराज में स्थित एक प्राचीन और प्रमुख हिंदू मंदिर है। इसका नाम इसके परिसर में स्थित अमर अक्षय वट वृक्ष से लिया गया है, जिसे भक्त भगवान विष्णु के स्वरूप के रूप में पूजते हैं। हिंदू धर्मग्रंथों में कहा गया है कि भगवान राम ने अपने वनवास के दौरान इस स्थल का दौरा किया था। यह मंदिर आध्यात्मिक रूप से महत्वपूर्ण संगम क्षेत्र में यमुना नदी के तट पर स्थित है। इसकी वास्तुकला में नवग्रहों सहित विभिन्न देवताओं के मंदिर हैं। अक्षयवट मंदिर हिंदू धर्म में बहुत धार्मिक महत्व रखता है क्योंकि इसका उल्लेख प्राचीन धर्मग्रंथों में मिलता है।
 किंवदंतियों से जुड़ा है, पवित्र अनुष्ठानों की सुविधा देता है और इसमें प्रमुख देवताओं के प्रतीक हैं। इसका स्थायी अस्तित्व और पवित्र स्थान इसे एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल बनाता है। संक्षेप में, अक्षयवट मंदिर हिंदू धर्म की आत्मा को समाहित करता है और पूजा में अपने प्राचीन महत्व और भूमिका के कारण आस्था का एक अभिन्न अंग बना रहेगा।
          यहां देवी पार्वती, भगवान गणेश, भगवान हनुमान और नव दुर्गा के लिए भी अलग-अलग मंदिर हैं। मंदिर की दीवारें भित्तिचित्रों और नक्काशी के माध्यम से रामायण और महाभारत के दृश्यों को दर्शाती हैं। विशाल प्रांगण में भक्तों और पुजारियों के लिए अनुष्ठान और प्रार्थना करने के लिए पर्याप्त जगह है। कुल मिलाकर, अक्षयवट मंदिर की वास्तुकला सरल लेकिन भव्य है, पवित्र संगम से इसकी निकटता इसके दिव्य महत्व को बढ़ाती है।
हिंदू धर्म में अक्षयवट मंदिर का महत्व:-
अमर अक्षय वट वृक्ष को स्वयं भगवान विष्णु के स्वरूप के रूप में पूजा जाता है और यह भक्तों की इच्छाओं को पूरा करता है। ऐसा माना जाता है कि भगवान राम ने इस स्थल का दौरा किया था, जिससे इसे ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व मिला। संगम के तट पर मंदिर का स्थान इसे हिंदुओं के लिए आध्यात्मिक रूप से महत्वपूर्ण बनाता है, जो मानते हैं कि यहां स्नान करने से मोक्ष मिलता है।वास्तुकला और प्रमुख हिंदू देवताओं की मूर्तियाँ इसे एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल बनाती हैं। अक्षय वट से संबंधित मिथकों का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है, जो इसकी पौराणिक स्थिति को बढ़ाता है। अक्षय वट के तहत अनुष्ठानों का पालन अत्यधिक शुभ माना जाता है। प्राचीन काल से इसका अस्तित्व इसे हिंदू धर्म का जीवंत प्रतीक बनाता है।
            इस प्रकार, शास्त्रों में अपने केंद्रीय स्थान, अनुष्ठानिक भूमिका, पवित्र स्थान और पूजा की शाखाओं के साथ, अक्षयवट मंदिर हिंदू लोकाचार और पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह सनातन धर्म के लिए एक महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र बना रहेगा।
         संक्षेप में, प्रयागराज का अक्षयवट मंदिर हिंदुओं के लिए अत्यधिक धार्मिक महत्व का एक प्राचीन और पवित्र स्थल है। इसका प्रसिद्ध अक्षय वट वृक्ष, प्रमुख देवताओं की उपस्थिति, संगम पर स्थान और शास्त्रों में भूमिका इसे एक लोकप्रिय तीर्थस्थल बनाती है। यह मंदिर आध्यात्मिक सांत्वना प्रदान करता है और भक्तों को प्राचीन भारतीय विरासत से जोड़ता है। यह आने वाले वर्षों में हिंदू धार्मिक लोकाचार का एक अभिन्न अंग बना रहेगा।
         अक्षयवट का धार्मिक महत्व सभी शास्त्र-पुराणों में कहा गया है। चीनी यात्री ह्वेनसांग प्रयागराज के संगम तट पर आया था। उसने अक्षयवट के बारे में लिखा है- नगर में एक देव मंदिर (पातालपुरी मंदिर) है। यह अपनी सजावट और विलक्षण चमत्कारों के लिए प्रसिद्ध है।

         कहा जाता है कि जो श्रद्धालु इस स्थान पर एक पैसा चढ़ाता है, उसे एक हजार स्वर्ण मुद्रा चढ़ाने का फल मिलता है। मंदिर के आंगन में एक विशाल वृक्ष (अक्षयवट) है, जिसकी शाखाएं और पत्तियां दूर-दूर तक फैली हैं। पौराणिक और ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार मुक्ति की इच्छा से श्रद्धालु इस बरगद की ऊंची डालों पर चढ़कर कूद जाते थे।

प्रयागराज स्थित अक्षयवट 400 सालों से बंद था :-
मुगल शासकों ने यह प्रथा खत्म कर दी। उन्होंने अक्षयवट को भी आम तीर्थयात्रियों के लिए प्रतिबंधित कर दिया। इस वृक्ष को कालान्तर में नुकसान पहुंचाने का विवरण भी मिलता है। अंग्रेजों ने सत्तरहवीं शताब्दी में प्रयागराज स्थित अकबर के किले को अपना शस्त्रागार बनाया।अक्षय बट जाने वाले रास्ते को पूरी तरह से बन्द कर दिया।आजादी के बाद भी इंडिया गवर्नमेन्ट ने अपना सेंटल ऑर्डिनेंस डिपो बनाया। कुछ मोडिफिकेशन के साथ मोदी गवर्नमेन्ट ने अक्षय बट के दर्शनार्थ अर्द्ध कुंभ मेला 2019 में खोलने की इजाजत दे दी।

पातालपुरी मंदिर :-
आज का अक्षयवट पातालपुरी मंदिर में स्थित है। यहां एक विशाल तहखाने में अनेक देवताओं के साथ बरगद की शाखा रखी हुई है। इसे तीर्थयात्री अक्षयवट के रूप में पूजते हैं।
अक्षयवट का पहला उल्लेख वाल्मीकि रामायण में मिलता है। भारद्वाज ऋषि ने भगवान राम से कहा था- नर श्रेष्ठ तुम दोनों भाई गंगा और यमुना के संगम पर जाना, वहां से पार उतरने के लिए उपयोगी घाट में अच्छी तरह देखभाल कर यमुना के पार उतर जाना। आगे बढ़ने पर तुम्हें बहुत बड़ा वट वृक्ष मिलेगा। उसके पत्ते हरे रंग के हैं। वह चारों ओर से दूसरे वृक्षों से घिरा हुआ है। उसका नाम श्यामवट है। उसकी छाया में बहुत से सिद्ध पुरुष निवास करते हैं। वहां पहुंचकर सीता को उस वृक्ष से आशीर्वाद की याचना करनी चाहिए। यात्री की इच्छा हो तो यहां कुछ देर तक रुके या वहां से आगे चला जाए।

 ब्रह्मा, विष्णु, शिव का स्वरूप ,:-
अक्षयवट को वृक्षराज और ब्रह्मा, विष्णु, शिव का रूप कहा गया है-

नमस्ते वृक्ष राजाय ब्रह्ममं, विष्णु शिवात्मक। 
सप्त पाताल संस्थाम विचित्र फल दायिने॥ 
नमो भेषज रूपाय मायायाः पतये नमः। 
माधवस्य जलक्रीड़ा लोल पल्लव कारिणे॥ 
प्रपंच बीज भूताय विचित्र फलदाय च। 
नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं नमो नमः॥

                आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी 


लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं । लेखक को अभी हाल ही में इस पावन स्थल को देखने का अवसर मिला था।) 

Saturday, March 30, 2024

भद्रेश्वरनाथ शिव मंदिर -- आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी

अवस्थिति:-
उत्तर प्रदेश के बस्ती जिला मुख्यालय से 6 किमी. दक्षिण कुवानो नदी के तट पर यह पौराणिक मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। यह बस्ती सदर तहसील में बस्ती सोनूपार महसों रोड पर स्थित भदेश्वर गांव पंचायत में पड़ता है। यह मदिर 260 45' 23'' उत्तरी खंड तथा 820 44'29'' पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। गोरखपुर से यहां की दूरी लगभग 78 किमी. है. 
रावण ने स्थापित किया था:-
ऐसा माना जाता था कि यह मंदिर रावण द्वारा स्थापित किया गया था। यहां एक मेला शिवरात्रि के अवसर पर एक सावन तेरस को कावड़ पूजन के रूप में आयोजित किया जाता है, जिसमें राज्य के विभिन्न हिस्सों से कई लोगों भाग लेते है। इस शिवलिंग और भद्रेश्वर नाथ का नाम शिव महापुराण में भी लिखा गया है। गांव भद्रेश्वर नाथ में ज्यादातर ब्राह्मण गोस्वामी की आबादी हैं। इस गांव की जनसंख्या लगभग 500 है।
विशाल भूभाग पर विस्तार:-
वर्तमान मंदिर लगभग 200 वर्ष पुराना बताया जाता है। इस स्थान पर पुराने बसावट के प्रमाण भी मिलते हैं। यह लगभग 30 बीघे के विशाल भूभाग पर फैला हुआ है। यहां हर सोमवार को भक्तों की भीड़ उमड़ती है, लेकिन महा शिवरात्रि के दिन तो दूर-दूर के शहर और शहर में बड़ी संख्या में मूर्ति पूजन, अर्चन और दर्शन के लिए आते हैं। पूरे मास में यहां विशेष पूजन और अर्चन होता है।
          अपने आप में कई पौराणिक कथाओं को समेटे बाबा भादेश्वर नाथ मंदिर पूरे बस्ती मण्डल की पहचान है. भादेश्वर नाथ गांव में भगवान भोलेनाथ का शिवलिंग अपने आप में एक युग का इतिहास समेटे हुए है. माना जाता है कि यह शिवलिंग एक दिव्य ज्योति से साथ भादेश्वर नाथ गांव के घने जंगल में स्वतः प्रगट हुआ था. शिव धनुषाकार नदी के बीच में स्थित यह ऐसा पवित्र शिवलिंग है. जिसका वर्णन शिव पुराण के 18वे अध्याय के दूसरे दोहे कूपवाहनी शिवधनुवा अकारे, ता तटे बसे भद्रनाथ में वर्णित है. मतलब यह शिवलिंग पूरे विश्व का एक मात्र ऐसा शिवलिंग है जो शिव के धनुष के आकार के नदी के बीच में स्थित है. इस शिवलिंग की पूजा भगवान राम से लेकर लंका पति रावण ने भी किया है. भगवान राम के गुरु जिसका निवास स्थान ही बस्ती जिला था. गुरु वशिष्ट यहां नियमित रूप से पूजा पाठ करने आते रहते थे. लोग इस शिवलिंग को झारखंडेश्वर बाबा के नाम से भी जानते हैं. मंदिर के पुजारी ने बताया इस शिवलिंग की उत्पत्ति आज से लगभग 7000 वर्ष पूर्व यानी की द्वापर युग में हुआ था. पहले यहां बंदरगाह हुआ करता था. एक दिन रात में यहां लोगों को दिव्य ज्योति प्रकाश दिखाई पड़ी. उत्सुकता बस लोग यहां आकर देखने लगे और फिर उस जगह पर खुदाई करना शुरू किए. खुदाई करते ही यहां से जहरीली मधुमक्खियां, साप, बिच्छू आदि निकलने लगे. जो लोग खुदाई कर रहे थे वो लोग भागने लगे और पास में ही स्थित हत्तीयारवा नाले के पास जाकर वो लोग मर गए.
बढ़ रहा है इस शिवलिंग का आकार :-
 भगवान भद्रनाथ के शिवलिंग को आज तक कोई भी भक्त अपने दोनों बांहों में नहीं ले सका है. भक्त जब शिवलिंग को अपनी बांहों में लेना चाहते हैं तो शिवलिंग का आकार अपने आप बड़ा हो जाता है. पिछले कई सालों से शिवलिंग की बनावट में काफी बदलाव देखने को मिल रहा है. लोगों के अनुसार शिवलिंग का आकार पहले बहुत छोटा था. लेकिन अब वह काफी बड़ा हो गया है. जब पांडवों को अज्ञातवास हुआ था तो वो लोग भी यहां आकर पूजा पाठ करते थे.
राजा को दिखा शिवलिंग :- 
बस्ती के राजा वन में शिकार खेलने गए. उन्होंने शिवलिंग को देखा तो वो उसमे मिट्टी पटवाने लगे. जैसे जैसे वो इसमें मिट्टी डलवाते वैसे वैसे शिवलिंग ऊपर आता चला गया. मन्दिर के पुजारी ने आगे बताया कि तब बस्ती राजा ने सन 1728 में प्रसादपुर गांव से हमारे पूर्वज को यहां पूजा पाठ करने के लिए भादेश्वरनाथ में लाए.
अंग्रेजों को भी पड़ा था भागना :-
इतिहासकार प्रो. बृजेश कुमार ने बताया कि ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेज मन्दिर के आस पास के क्षेत्रों पर कब्जा करना चाहते थे. लेकिन जैसे ही अंग्रेज मन्दिर परिसर के पास पहुंचे ऐसा दैवीय प्रकोप हुआ कि कुछ लोग वही मर गए. जो मन्दिर परिसर के क्षेत्र से बाहर थे वो भाग गए. तब से कभी भी अंग्रेजों ने यहां कदम नहीं रखा.
1928 में हुआ था मन्दिर का निमार्ण :-
 वैसे तो मन्दिर का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है. लेकिन इस मन्दिर का जीर्णोद्धार 1928 में बस्ती सदर तहसील के महसो गांव के अयोध्या प्रसाद शुक्ल ने करवाया था. उनसे पहले भी 10-12 लोगों ने मन्दिर बनवाने की कोशिश की. लेकिन वो लोग दिन में मन्दिर बनाते थे. रात में मन्दिर गिर जाता था. फिर एक दिन भगवान शिव अयोध्या प्रसाद शुक्ल के सपनों में आए और उन्होंने उनसे मन्दिर निमार्ण कराने के लिए कहा. मान्यता था कि जो भी कोई मन्दिर बनवाएगा उसका वंश समाप्त हो जाएगा. फिर भी अयोध्या प्रसाद ने मन्दिर निमार्ण शुरू कराया. जैसे ही मन्दिर निमार्ण शुरू हुआ पहले दिन उनकी वाइफ,दूसरे दिन नाती और बेटा तीसरे दिन उनकी बहु काल कवलित हो गई. लेकिन अयोध्या प्रसाद ने मन्दिर निमार्ण बन्द नहीं कराया और अपने संकल्प को पूरा किया. बाद में वो भी मृत्यु को प्राप्त हो गए.
पूरे साल रहता है भक्तों का जमावड़ा :-
वैसे तो आपको यहां पर हर दिन भक्तों का हुजूम देखने को मिल जाएगा. लेकिन सोमवार और सावन माह में लाखों की संख्या में दूर दूर से शिवभक्त यहां आते हैं. कहते हैं कि यहां पर सच्ची श्रद्धा से मांगी गई हर मुराद पूरी होती है. श्रावण मास में 50 लाख से अधिक शिवभक्त अयोध्या के सरयू नदी से और हरिद्वार के गंगा नदी से जल लाकर यहां शिवलिंग पर चढ़ाते हैं. महाशिवरात्रि में जलाभिषेक के लिए यहां भक्तों का ताता लगा रहता है. लोग दो दिन पहले ही यहां आकर जलाभिषेक के लिए लाइन लगा का खड़े हो जाते हैं.
पुरातात्विक प्रमाण :-
इसी गांव से लगा हुआ देवरनवा (देवराम घाट) गांव एक एतिहासिक गांव है। यहां नरहन प्रकार के ताम्रपाषाण कालीन संस्कृति के संस्थापक, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के वर्तमान तथा पूर्व अध्यापक डा. राकेश तिवारी तथा बी. आर मणि ने 1990 और 1995 में खोज की। बी. एच. यू. के विद्वानों ने भी 1991 में यहां एक सर्वे किया था। इसकी सतह पर नस्लों के आधार पर लाल पात्र, काले एवं लाल पात्र, काले लोहित पात्र, डोरी छापित, गेरू छापित, लाल पंक लेपिट और उत्तरी काले रंगीन पात्र परंपराओं के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। पुराने बर्तनों के अलावा यहां हस्त निर्मित और चाक निर्मित कई स्पष्ट आकार के बर्तन पहचाने जाते हैं। औद्योगिक कलश, थाली, कूटकी हांडी विभिन्न डिजाइन और छाप से युक्त पाये गये हैं। अन्य खोजों में मिट्टी के स्टॉल के पैर, गिब्बी, थालीज़, कार्लेनियन के लटकन, शशे के क्राउन, ग्लेज़्ड ग्रीन लेपिट कांच के टुकड़े प्राप्त हुए हैं। पूर्व साक्ष्यों में पत्थरों के टुकड़े और मनके के बेकार के टुकड़े मिलने की भी पुष्टि हुई है। वर्ष 2014 में लखनऊ विश्वविद्यालय डा. डी. के. वैज्ञानिक तथा दा ए. के. चौधरी ने भी लगभग इसी तरह की कहानियां और स्टोर के पुनर्जीवन की सूचना प्रकाशित की है। इन साक्ष्यों के आधार पर देवरामा तथा भदेश्वर स्थान की बसावत द्वितीय मिलेनियम बी.सी.ई.का प्रमाण माना गया है। इस स्थान के पास ही एक प्राचीन बौद्धकालीन स्थल सिसवेनिया भी स्थित है, जिसे प्राचीन सेतवाया के रूप में पुष्टि की गई है। यहां डा. मणि ने परीक्षण के तौर पर कहा कि यह लघु उद्यम भी था। आस-पास के इन स्थानों पर भदेश्वरनाथ की महत्ता और विविधता के विभिन्न वैज्ञानिक प्रमाण मिलते हैं।
                       डा. राधे श्याम द्विवेदी 
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।)