Saturday, September 24, 2022

डा.लोहिया संस्थान ने मनाया अपना दूसरां स्थापना दिवस


डा लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान ने मनाया अपना दूसरा स्थापना दिवस

डा. तनु मिश्रा को रेडियोलोजी का गोल्ड मैडल
समाचार संकलन: डा राधे श्याम द्विवेदी
लखनऊ : 23 सितंबर ,डॉ राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान (Dr Ram Manohar Lohia Institute of Medical Sciences) शुक्रवार को अपना दूूसरा स्थापना दिवस मनाया गया है।

 गांधी प्रतिष्ठान में डा. राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान का  दूसरा स्थापना दिवस समारोह बड़े धूमधाम से मनाया  गया।  जिसमे राज्यपाल आनंदीबेन पटेल, उप मुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक व चिकित्सा शिक्षा राज्यमंत्री मयंकेश्वर शरण सिंह मुख्य सचिव श्री दुर्गा शंकर  मिश्र ,चिकित्सा शिक्षा के प्रमुख सचिव श्री आलोक कुमारमौजूद रहें। इसके अलावा मशहूर ह्दय रोग विशेषज्ञ पद्मभूषण डॉ. देवी प्रसाद शेट्टी व्याख्यान दिए।

उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल:-

संस्थान के स्थापना दिवस पर उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल (Governor Anandiben Patel) ने कहा कि यह संस्थान बहुत कम समय में पूरे प्रदेश के अलावा भारतवर्ष में एक नई ऊंचाई और उपलब्धि हासिल की है. लोहिया अस्पताल के प्रबंधन से लेकर बेहतर चिकित्सकिय सुविधाओं की चर्चाएं है. प्रदेश सरकार चिकित्सा व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त बनाने के लिए लगातार कार्य कर रही है. इसमें हमारे डॉक्टरों ने बखूबी अपना योगदान दिया है. राज्यपाल ने कहा कि डॉक्टर प्यार से बात करें तो मरीज का आधा दर्द तकलीफ डॉक्टर की बात से ही दूर हो जाती है. एक मरीज जब परेशान होकर इलाज के लिए आता है तो वह अस्पताल से बेहतर सुविधा की चाह रखता है. इन सारी बातों पर लोहिया संस्थान के चिकित्सक सदैव खरे उतरते हैं. आज लोहिया संस्थान की स्थापना दिवस के मौके पर उन तमाम चिकित्सकों नर्स स्टाफ कर्मचारियों को हम नमन करते हैं जो अपना सर्वोच्च न्यौछावर कर मरीजों का इलाज करते हैं।

उप मुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक :-
इस मौके पर उप मुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक (Deputy Chief Minister Brajesh Pathak) ने कहा कि यह एक ऐसा संस्थान है जहां के डॉक्टरों को भगवान का दर्जा दिया जाता है. लोहिया संस्थान ने न सिर्फ पूरे प्रदेश में बल्कि पूरे भारत नई ऊंचाई को छूने का काम किया है. एक काफी बड़ी उपलब्धि हासिल की है. जिसे नेशनल मेडिकल काउंसिल ने एक साल में 66 नई पोस्ट ग्रेजुएट सीटें दी हैं, जो राज्य में किसी एक संस्थान को आवंटित सीटों की सबसे अधिक संख्या में से एक है. उप मुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक ने कहा कि जब हम किसी मेडिकल संस्थान में कदम रखते हैं तो देखते हैं कि वहां पर क्या सुविधाएं है. जब किसी मरीज की तबीयत खराब होती है तो सबसे पहले वह राम का नाम लेता है. फिर उसके बाद डॉक्टर को याद करता है. उप मुख्यमंत्री ने कहा कि लोहिया संस्थान से पढ़े हुए डॉक्टर अन्य देशों में भी है. जो उस मेडिकल कॉलेज की पूरी जिम्मेदारी को निभा रहे हैं. लोहिया संस्थान के डाॅक्टरों ने कोविड काल से लेकर अभी तक अपनी जिम्मेदारी को निभाया है. प्रदेश के चिकित्सा व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए सरकार लगातार कार्य कर रही है. उन्होंने कहा कि मुझे अपने चिकित्सकों पर पूरा भरोसा है कि वह मरीजों का इलाज बखूबी करते हैं. मुझे उम्मीद है कि जिस तरह से लोहिया संस्थान के डॉक्टरों ने हमेशा हमारा साथ दिया है उसी तरह से भविष्य में भी वह हमारा साथ देते रहेंगे।संस्थान की निदेशक डॉ सोनिया नित्यानंद :-
लोहिया संस्थान की निदेशक (Director of Lohia Institute) डॉ सोनिया नित्यानंद ( Dr Sonia Nityananda) ने बताया कि 66 नई पोस्ट ग्रेजुएट सीटों के अलावा 6 नई डीएनबी सीटों को भी मंजूरी दी गई है. 13 पोस्ट डॉक्टरल सर्टिफिकेट कोर्स की सीटें भी संस्‍थान में हैं. इसके साथ ही नर्सिंग कॉलेज की स्थापना कर बीएससी नर्सिंग की 40 सीटों पर कोर्स शुरू किया जा चुका है.उन्‍होंने बताया कि संस्थान ने पीडियाट्रिक हेपेटोलॉजी एंड गैस्ट्रोएंटरोलॉजी, पीडियाट्रिक्स ऑर्थोपेडिक, पीडियाट्रिक्स ऑप्थल्मोलॉजी, हेड एंड नेक कैंसर, क्लिनिकल हेमेटोलॉजी, रुमेटोलॉजी, ब्रेस्ट क्लिनिक समेत कई नई विशेष सेवाएं शुरू की हैं. इसके साथ ही आनुवंशिक विकारों के लिए एमनियोसेंटेसिस और कोरियोनिक विलस सैंपलिंग शुरू की गई है।
संस्‍थान में 26 किडनी ट्रांसप्‍लांट:-
डॉ. सोनिया ने बताया कि संस्‍थान में पिछले साल 26 किडनी ट्रांसप्‍लांट (kidney transplant) किये, इस प्रकार अब तक यहां 136 किडनी ट्रांसप्‍लांट किये जा चुके हैं. सरकार से प्राप्‍त वित्‍तीय पोषण से एक एडवांस न्यूरोसाइंस सेंटर की स्‍थापना की जा रही है, इसमें गामा चाकू जैसे अत्‍याधुनिक उपकरण भी होंगे. उन्‍होंने बताया कि मरीजों के पंजीकरण के लिए 33 काउंटर्स वाला पंजीकरण हॉल बनाया गया है. रियायती दर पर 24 घंटे दवाएं दिलायी जा रही हैं. मरीजों व रिश्‍तेदारों के लिए 24 घंटे सेवा वाली कैंटीन, ऑनलाइन अप्‍वाइंटमेंट व जांच रिपोर्ट की सुविधा दी जा रही है. इसके साथ ही 20,000 लीटर की क्षमता का तरल चिकित्सा ऑक्सीजन संयंत्र स्थापित किया गया है.
संस्थान ने देश की पहली स्वैच्छिक प्लेटलेट डोनर रजिस्ट्री शुरू की है, जिसे बीते 14 मार्च को राजभवन से शुरू किया गया था, जिसमें 163 पंजीकरण किए गए थे. इसमें अब तक 419 लोगों ने स्वैच्छिक प्लेटलेट दाताओं के रूप में पंजीकरण किया है. उन्‍होंने बताया कि संस्थान द्वारा वर्ष 2021 में 55 रक्तदान शिविरों का आयोजन किया गया. जिसमें कुल 1623 यूनिट रक्तदान किया गया और वर्ष 2022 में अब तक 29 रक्तदान शिविर आयोजित किये जा चुके हैं, जिनमें कुल 1221 यूनिट रक्तदान किया जा चुका है.
प्रो. सोनिया ने बताया कि बच्चों के लिए पीडियाट्रिक आर्थोपेडिक्स, पीडियाट्रिक नेत्र रोग विभाग, गैस्ट्रोलाजी और हीपैटोलाजी के विभाग शुरू किए जा रहे हैं. इन विभागों के शुरू होने से बच्चों के गंभीर विकारों को समय पर इलाज मिल सकेगा। संस्थान में अम्नियोसेंटेसिस जांच हो रही है। इससे गर्भस्थ शिशु के आनुवंशिक विकारों का पता चल सकता है। इसके अलावा सिर और गले के कैंसर की क्लीनिक और गठिया विभाग जैसे कई अन्य विभागों को शुरू करने का प्रस्ताव शासन को भेजा गया है.
आईआईटी कानपुर और लोहिया संस्थान का संयुक्त प्रयास:-
इस अवसर पर आईआईटी कानपुर और लोहिया संस्थान के बीच डिजिटल हेल्थ और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के बीच के ऊपर एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर हुए। इसके जरिए डिजिटल माध्यम से बड़ी संख्या के मरीजों की बीमारी का पता एक बार में ही लगाया जा सकेगा ताकि इलाज भी समय से शुरू हो सके।उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए मेडल:-
गत वर्ष संस्थान के एकेडमिक सत्र में सर्वाधिक अंक और स्थान पाने वाले चिकित्क छात्र/ छात्राओं को संस्थान की तरफ से मैडल भी बांटे गए।लोहिया संस्थान प्रदेश का पहला ऐसा संस्थान है जहां पर राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग एनएमसी से स्नातकोत्तर की 66 सीटों की स्वीकृति मिली है। स्थापना दिवस के मौके पर एम डी/एम एस /एम बी बी एस के लगभग 45 छात्र छात्राओं को अलग-अलग विषयों में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए सम्मानित भी किया गया.
महर्षि वशिष्ठ चिकित्सा महाविद्यालय बस्ती की          सहा. प्रोफेसर डा. तनु मिश्रा को गोल्ड मेडल  :-
रेडियोलोजी विभाग का मैडल  कुलाधिपति/राज्यपाल आनंदीबेन पटेल द्वारा संस्थान के सबसे मेधावी चिकित्सक छात्रा डा. तनु मिश्रा को गोल्ड मेडल प्रदान किया गया। ज्ञातव्य है कि डा.तनु मिश्रा इससे पहले 2017 में छत्रपति शाहूजी महाराज विश्व विद्यालय से कुलाधिपति श्री राम नायक द्वारा सर्वोच्च अंक गोल्ड और कुलाधिपति मैडल प्राप्त कर चुकी है। डा तनु मिश्रा वर्तमान में महर्षि वशिष्ठ चिकित्सा महा विद्यालय बस्ती में सहायक प्रोफेसर पद पर कार्यरत है।

Friday, September 23, 2022

श्री सम्प्रदाय के आचार्य श्री रंगनाथमुनि (15वीं कड़ी)

श्री सम्प्रदाय के आचार्य श्री रंगनाथमुनि 
श्री सनातन सम्प्रदाय परम्परा (15वीं कड़ी)       
आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी
शंकराचार्य के सिद्धांत के विरोधी प्रथम आचार्य :-
सातवी से चौदहवी शताब्दि के बीच दक्षिण के द्रविड क्षेत्र में अनेक आलवार भक्त हुए, जो भगवद् भक्ति में लीन रहते थे और भगवान् वासुदेव नारायण के प्रेम, सौन्दर्य तथा आत्मसमर्पण के पदो की रचना करके गाते रहते थे। उनके भक्तिपदों को वेद के समान पवित्र और सम्मानित मानकर उसे 'तमिलवेद' कहा जाता रहा है। श्री सम्प्रदाय के आद्य आचार्य रंगनाथ मुनि और उनके पौत्र यामुनाचार्य ने इसे बढाया और रामानुजाचार्य ने इसे गौरव के शिखर पर पहुँचाया है। इसे आजकल रामानुज सम्प्रदाय के नाम से भी जाना जाता है। इस सम्प्रदाय के अनुयायी 'श्री वैष्णव' कहलाते हैं। इनका दार्शनिक सिद्धान्त 'विशिष्टाद्वैत' है। ये भगवान् लक्ष्मीनारायण की उपासना करते है। श्री सम्प्रदाय के आचार्यों में परिगणित मुनि त्रय में श्री नाथमुनी बहुत लोकप्रियता रूप में जाने जाते है ।मेरी समझ से श्री संप्रदाय के मुनि त्रय के दो अन्य किरदार यामुनाचार्य और रामानुजाचार्य रहे। आचार्य रंगनाथ मुनि या नाथ मुनि वेदशास्त्र वा पुराणादि के प्रकाण्ड विद्वान सिद्ध और जीवन मुक्त महात्मा थे। शंकराचार्य के सिद्धांत का विरोध करने वाले वे प्रथम आचार्य कहे जाते हैं।
वे एक वैष्णव धर्मशास्त्री थे जिन्होंने नलयिर "दिव्य प्रबंधम" को एकत्र और संकलित किया था । श्री वैष्णव आचार्यों में से पहला ग्रंथ माना जाता है । वही नाथमुनि योगरहस्य , और न्यायतत्व के लेखक भी हैं ।
 परिचय :-
उनका जन्म का नाम अरंगनाथन था। उन्हें नाथमुनि या शाब्दिक रूप से संत भगवान ( नाथन- लॉर्ड, मुनि- संत) के रूप में जाना जाता था । आपका जन्म द्रविण देश के चिदंबरम क्षेत्र के तिरुनारायण पुरम ( कार्टू मन्नार,वर्तमान वीरना -रायण पुरम) में 824 ई में हुआ था।आपके पिता का नाम ईश्वर भटटर था । आपका विवाह वंगीपुराचार्य की पुत्री अरविंदजा से हुआ था।जिससे ईश्वरमुनि पुत्र का जन्म हुआ था।ईश्वरमुनि के पुत्र यमुनाचार्य जी हुए थे। ये श्री सम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य हुए थे। श्री नाथ मुनि को ब्रज भूमि और यमुना बहुत प्रिय था।इस कारण वे अपने पोते का नाम यमुनाचार्य रखा था। प्रतीत होता है इनका नाम संभवतः एक तीर्थयात्रा की स्मृति में रखा गया था , जिसे नाथमुनि अपने बेटे (ईश्वर मुनि) और बहू के साथ यमुना के तट पर ले गए थे। श्रीरंगम में अपने दो भतीजों को भजन सिखाने के अलावा , उन्होंने उन्हें श्री रंगनाथस्वामी मंदिर, श्रीरंगम में श्रीरंगम मंदिर सेवा में पेश किया , जहां वे मंदिर प्रशासक रहे थे। 
तीर्थ यात्रा को बढ़ावा:-
उन्होंने उत्तर भारत के अनेक तीर्थों की यात्रा में बहुत समय बिताया था। ब्रज की प्रेम लक्षणा नारदीय भक्ति का उन्होंने दक्षिण में व्यापक प्रचार किया था। आपने आलवारोंं के प्रबंधों के खोज के लिए अनेक यात्राएं की।आप सिद्ध योगी थे।समाधि अवस्था में आपको श्री शठकोपाचार्य का साक्षात्कार हुआ था। उनके कृपा प्रसाद से आपको 4000 दिव्य प्रबंधों की प्राप्ति हुई थी। आपने चार भागों में दिव्य प्रबंधकम का संकलन किया है।
समाधि अवस्था में आपने श्री शठकोपा जी से वैष्णवी दीक्षा प्राप्त की थी। आपने रहस्यार्थ सहित मंत्रों का ज्ञान प्राप्त किया था ।आपके ही प्रयत्नों से श्रीरंगम में भगवान के मंदिर में आलवार भक्तों के पद्यों के संगीत मय गायन का प्रारम्भ हुआ था। (संदर्भ: गीताप्रेस भक्त माल पृष्ठ 336)
 चार प्रमुख श्लोक:-
नाथमुनि स्वामीजी के प्रयास से प्राप्त इन दिव्य प्रबंधों, के कारण ही आज श्री वैष्णव साम्प्रदाय का ऐश्वर्य हमें प्राप्त हुआ हैं । इनके बिना यह प्राप्त होना दुर्लभ था । आल्वन्दार स्वामीजी , नाथमुनि स्वामीजी के पौत्र अपने स्तोत्र रत्न में नाथमुनि की प्रशंसा शुरुआत के तीन श्लोकों मे करते है ।
पहले श्लोक में बताते हैं की ” मैं उन नाथमुनि को प्राणाम करता हुँ जो अतुलनीय हैं, विलक्षण हैं और एम्पेरुमानार् के अनुग्रह से अपरिमित ज्ञान भक्ति और वैराग्य के पात्र हैं ।
दूसरे श्लोक में कहते हैं की ” मैं उन नाथमुनि जी के चरण कमलों का, इस भौतिक जगत और अलौकिक जगत में आश्रय लेता हूँ जिन्हें मधु राक्षस को वध करने वाले (भगवान श्री कृष्ण) के श्री पाद कमलों पर परिपूर्ण आस्था , भक्ति और शरणागति ज्ञान हैं” ।
तीसरे श्लोक में कहते हैं की ” मैं उन नाथमुनिजी की सेवा करता हूँ जिन्हें अच्युत के लिए असीमित प्रेम हो निजज्ञान के प्रतीक हैं , जो अमृत के सागर हैं , जो बद्ध जीवात्माओ के उज्जीवन के लिए प्रकट हुए हैं, जो भक्ति में निमग्न रहते हैं और जो योगियों के महा राजा हैं ।
उनके अन्तिम और चौथे श्लोक में एम्पेरुमान् से विनति करते हैं की, उनकी उपलब्धियों को न देखकर , बल्कि उनके दादा की उपलब्धिया और शरणागति देखकर मुझे अपनी तिरुवेडी का दास स्वीकार किया जाय । इन चारो श्लोक से हमें नाथमुनि जी के महान वैभव की जानकारी होती हैं ।
दीर्घ जीवी:-
उन्हें दीर्घ जीवी 400 साल जीवित होने की बात भी कही जाती है।यह संभावना है कि चोल राजाओं द्वारा नियंत्रित उस क्षेत्र में अपनी महानता के शिखर पर पहुंचने से पहले नाथमुनि सौ वर्षों से थोड़ा अधिक समय तक रहे। माना जाता है कि वह मधुरकवि अलवर की परम्परा के जीवनकाल में ही रहे थे । नाथमुनी के साथ संपर्क में था नम्मलवार द्वारा सत्यापित किया जाता है गुरु-परम्परा , दिव्या सूरी चरित , और प्रप्पन्नामरता भी साक्षी है।
अद्भुत मृत्यु :-
अपना अंतिम समय निकट जान कर नाथमुनि स्वामीजी, आस पास की परिस्थिथो से विस्मरित हो एम्पेरुमान के ध्यान में निमग्न रहते थे । एक दिन उनसे मिलने राजा और रानी आते है । ध्यानमग्न स्वामीजी को देख , राजा और रानी लौट जाते है । प्रभु प्रेम , लगन और भक्ति में मग्न, नाथमुनि स्वामीजी को ऐसा आभास होता है की भगवान श्री कृष्ण गोपियों के साथ आए और उनको ध्यानमग्न अवस्था में देखकर वापस लौट गये है, अपने इस आभास से दुखी हो श्रीनाथमुनि राजा और रानी की ओर दौड़ते है |
अगली बार शिकार से लौटते हुए राजा, रानी, एक शिकारी, एक वानर के साथ उनसे मिलने के लिए आते हैं । इस बार भी नाथमुनि स्वामीजी को ध्यान मग्न देख , राजा फिर से लौट जाते हैं । नाथमुनि जी को इस बार यह लगता हैं की श्री राम चन्द्र, माता सीता, लक्ष्मण जी और हनुमान जी उन्हें दर्शन देने पधारे हैं , पर उन्हें ध्यान मग्न देख लौट गये और इसी आभास में , नाथमुनि उनके दर्शन पाने उनके पीछे दौड़ते हैं । जब वह छवि उनकी आँखों से ओझल हो जाती हैं, भगवान से वियोग सहन न कर पाने के कारण नाथमुनि मूर्छित हो 924 ई में प्राणों को छोड़ देते हैं और परमपद प्राप्त कर लेते है । यह समाचार सुनकर तुरन्त ईश्वर मुनि , शिष्य बृंद के साथ वहाँ पहुँचते हैं और उनके अन्तिम कर्म संपन्न करते है ।
           आईये उनकी वैभवता जान, उनके श्री चरण कमलो में प्रार्थना करे की हमे भी उन्हि की तरह अच्युत और अल्वार आचार्यो के श्रीचरणों में अटूट् विश्वास और प्रेम प्राप्त हो |


Monday, September 19, 2022

मातृ शक्तियों का श्रद्धा सहित श्राद्ध और स्मरण

  
स्मृति शेष मां जी के आत्म तत्व की शांति और मुक्ति के लिए 
श्रावण कृष्ण प्रतिपदा सन 2017 को मां जी ने अपना पंच भौतिक शरीर त्याग कर परम् तत्व में विलीन हुई थी ।पितृ पक्ष में मातृ नवमी का श्राद्ध बेहद खास होता है। इस दिन परिवार के दिवंगत सभी महिलाओं माताओं के निमित्त श्राद्ध किया जाता है। इसलिए इस तिथि को मातृ नवमी के श्राद्ध के नाम से जानते हैं। मातृ नवमी के दिन उन दिवंगत माताओं, बहुओं व बेटियों का पिंडदान किया जाता है जिनकी मृत्यु सुहागिन स्त्री के रूप में हुई। मान्यता है कि इस दिन दिवंगत महिलाओं का श्राद्ध करने से इनकी आत्मा को शांति मिलती है और परिवार में सुख-समृद्धि बढ़ती है। यदि घर की महिला इस दिन पूजा पाठ या व्रत करती है तो उसे सौभाग्य और समृद्धि की प्राप्ति होती है।🙏❤️🙏
आज अपने अयोध्या स्थित प्रवास आवास पर एक लघु भंडारे का आयोजन कर हम अपने कुल की मातृ शक्तियों को याद कर उस सर्व शक्तिमान उस अदृश्य परम आत्म तत्त्वों को शत शत बार नमन ,वंदन और अभिनन्दन करते हैं। 🙏❤️🙏

Sunday, September 18, 2022

श्री सम्प्रदाय के दक्षिण भारत के महान आचार्य श्री बोपदेव जी श्री सनातन सम्प्रदाय परम्परा (14वीं कड़ी) आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी

 
विलक्षण प्रतिभा वाले थे बॉपदेव जी :-
वोपदेव विलक्षण प्रतिभा वाले विद्वान्, कवि, वैद्य और वैयाकरण ग्रंथाकार थे। इनका नाम बहुत श्रद्धा और आदर के साथ लिया जाता है। इन्हें लुप्त भागवत का उद्धारकर्ता  बताया गया है। वे भगवान के परम भक्त थे। भगवान के मंगल मय नाम,उनके गुणों और लीलाओं के चिंतन में ये सदा निमग्न रहते थे। इनका पांडित्य महान था। वे द्रविण ब्राह्मण थे।
इनके पिता का नाम धनेश्वर था। ये धर्म शास्त्र के महान निबंध ग्रंथ चतुर्वर्ग चिंतामणि के प्रणेता 'हेमाद्रि' के समकालीन सभासद थे ।वे हेमाद्रि  देवगिरि के यादव राजा रामचंद्र के दरबार के मान्य विद्वान् रहे। इनका समय तेरहवीं शती का पूर्वार्ध माना जाता है। ये देवगिरि के यादव राजाओं के यहाँ थे। यादवों के प्रसिद्ध विद्वान् मंत्री हेमाद्रि पंत (हेमाड पंत) का उन्हें आश्रय प्राप्त था। 
मंद बुद्धि से बालक से महान विद्वान बनने की कहानी:-
       "करत - करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान , 
         रसरी आवत जात ते सिल पर पड़त निशान।" 
          कहा जाता है कि वे बचपन मंद बुद्धि बालक थे।प्रचलित कथा के अनुसार बालक बोपदेव पढ़ने में बहुत कमजोर था। परन्तु वह प्रतिदिन पाठशाला आना नहीं छोड़ता था। गुरु जी उसे पढ़ाने - दिखाने का बहुत प्रयास करते, परन्तु लाख प्रयास करने पर भी उसे कुछ भी समझ में नहीं आता। सभी बच्चे उसे बरदराज अर्थात बैलों का राजा कहकर चिढ़ाते थे। गुरु जी भी प्रयास करते - करते थक गये। एक दिन उन्होंने बालक बोपदेव को अपने पास बुलाया और कहा, बेटा बोपदेव ! लगता है, विद्या तुम्हारे भाग्य में नहीं है। इसलिए अच्छा है कि तुम अपने घर वापस लौट जाओ और  वही कुछ अन्न  उपजाकर अपने परिवार की सहायता करो। गुरु जी की बातें सुनकर बोपदेव उदास मन से अपने घर वापस जाने लगा। 
 चलते - चलते वह सोचने लगा, घर जाकर वह क्या  करेगा ? वहां भी लोग उसे चिढ़ाएंगे ही‌। उसका जीवन ही बेकार है। तभी उसे प्यास  का अनुभव हुआ  । रास्ते में एक कुआं दिखाई दिया। वहां कुछ स्त्रियां पानी भर रही थी। बोपदेव पानी पीने वहीं जा पहुंचा। उसकी नजर कुंए की दीवारों पर पड़ी। दीवारों पर बार बार रस्सियों की रगड़ से निशान पर गया था। फिर कुएं की जगत पर भी मिट्टी के बर्तन के निशान थे। यह देखकर बोपदेव की आंखें खुल गईं। उसने सोचा, क्या मेरा दिमाग पत्थर से भी कड़ा है ? मेहनत करने से मैं भी विद्वान बन सकता हूं। 
यह जानकर बालक को एक मंत्र मिल गया। उसने सोचा जब रस्सी की बार - बार रगड़ से पत्थर पर निशान पड़ सकता है तो मेरे कोशिश करने पर में बुद्धिमान क्यों नहीं बन सकता। अर्थात मैं भी चतुर बन सकता हूँ। 
यह सोचकर वह अपने घर लौट आया। उसने पढ़ना एवं श्रम करना प्रारम्भ कर दिया। बड़ा होकर वह बालक संस्कृत के व्याकरण आचार्य बोपदेव के नाम से प्रसिद्ध हुआ और बहुत बड़ा महान विद्वान बना। वह पुनः वापस गुरु के पास जा पहुंचा। गुरु जी भी उसे मन लगाकर पढ़ाने लगे। वह भी मेहनत और लगन से पढ़ने लगा। बोपदेव बहुत बड़ा विद्वान बना। उन्होंने व्याकरण की पुस्तक भी लिखी।
अनेक रचनाओं के रचनाकार :- 
वोपदेव 26 ग्रंथों की रचना की थी। भगवत धर्म के प्रचार प्रसार तथा भगवत भक्ति की प्रतिष्ठा में इनका महान योगदान है।ये भगवत प्रेमी सच्चे संत थे। इनके द्वारा रचित व्याकरण का प्रसिद्ध ग्रंथ 'मुग्धबोध' है। इनका लिखा कविकल्पद्रुम तथा अन्य अनेक ग्रंथ प्रसिद्घ हैं। " परमहंस प्रिया", "मुक्ताफल" और "हरिलीलामित्र" नामक ग्रंथों की इन्होंने रचना की। हरिलीला मित्र में संपूर्ण भागवत संक्षेप ( अनुक्रमणिका के रूप में ) आया है। बोपदेव यादवों के समकालीन, सहकारी, पंडित और भक्त थे। कहते हैं, वे विदर्भ के निवासी थे। उन्होंने प्रचुर और बहुविध ग्रंथों की रचना की। उन्होंने व्याकरण, वैद्यशास्त्र, ज्योतिष, साहित्यशास्त्र और अध्यात्म पर उपयुक्त ग्रंथों का प्रणयन करके अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया। उन्होंने भागवत पर हरिलीला, मुक्ताफल, परमहंसप्रिया और मुकुट नामक चार भाष्यग्रंथों की सरस रचना की। उन्होंने मराठी में भाष्यग्रंथ लेखनशैली का श्रीगणेश किया। परमहंसप्रिया इनके द्वारा श्री मद भागवत की संस्कृत टीका है। इसी को आधार बना कर कुछ लोग भागवत को वोपदेव की रचना मानते हैं। वैसे भागवत को अमूनन व्यासदेव की ही रचना मानी जाती है।
आयुर्वेद ग्रंथ हृदयदीपक-निघण्टु के प्रणेता :- आयुर्वेद ऋषियों की प्राचीनतम एवं वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति है । इसमें अधिकांश चिकित्सा जड़ी - बूटियों द्वारा की जाती है । जड़ी - बूटियों के परिचय हेतु भारतवर्ष में आयुर्वेदीय वाङ्मय के अन्तर्गत निघण्टु - ग्रन्थों ( औषधीय परिचय कोषों ) की रचना की जाती रही है । इनमें औषध द्रव्यों के स्वरूप , पर्याय शब्द , गुण एवं रोगों में उपयोगिता आदि का वर्णन होता है । औषधीय द्रव्यों की सर्वांगीण जानकारी के लिए निघण्टु - ग्रन्थों का अध्ययन प्रत्येक वैद्य के लिए अनिवार्य माना जाता है । निघण्टु ग्रन्थों की इस प्राचीन शृंखला में वेदपुर ( महाराष्ट्र ) के निवासी पण्डित बोपदेव ( १३ वीं शती ई ० ) ने हृदयदीपक - निघण्टु की रचना की थी । यह निघण्टु संक्षिप्त होते हुए भी बहुत महत्त्वपूर्ण एवं सुव्यवस्थित है । इसमें चतुष्पाद आदि वर्गों के माध्यम से औषधीय - द्रव्यों का संक्षिप्त एवं सारपूर्ण वर्णन प्रस्तुत किया है।

  




Saturday, September 17, 2022

श्राद्ध भोजन से पितरों की तृप्ति साथ में ग्रहणकर्ता को कष्ट डा. राधे श्याम द्विवेदी

आजकल पितृ पक्ष चल रहा है और हर कोई अपने पितरों के निमित्त अनेक प्रकार के पकवान बनाते हैं।श्राद्ध का भोजन शास्त्रीय विवेचना और पात्र - सुपात्र का ध्यान रखें बिना लोग करते और कराते हैं। जहां पितरों को तृप्ति और शान्ति तो मिलती है परन्तु श्राद्ध का भोजन ग्रहण करने वालों को कष्ट होने की संभावना भी बनी रहती है। लोग श्राद्ध कर्म करने के बाद ब्राह्मणों, गरीबों या अन्य बाहरी लोगों को भोजन भी खिलाते हैं। लेकिन शास्त्रों के अनुसार, श्राद्ध का भोजन हर किसी के लिए शुभ नहीं माना गया है। श्राद्ध का भोजन पितरों के नाम से बनाया जाता है, जो वासनामय, अर्थात रज-तम से युक्त होता है। इसलिए श्राद्ध का भोजन करना हर किसी के लिए शुभ नहीं होता है। श्राद्ध का भोजन ग्रहण करने वालों को कष्ट होने की संभावना भी बनी रहती है।
कुल गोत्र के परिवार में किया जा सकता है श्राद्ध का भोजन :-
धर्मशास्त्र में श्राद्ध का भोजन करने के विषय में कुछ नियम बताए गए हैं। अगर इन नियमों का पालन किया जाए तो, इससे होने वाले कष्टों से बचा जा सकता है अथवा उसका प्रभाव कुछ कम किया जा सकता है। यद्यपि श्राद्ध का भोजन किसी दूसरे के घर का नहीं ग्रहण करना चाहिए, लेकिन अपने कुल गोत्र के परिवार जन में भोजन करने पर कोई दोष नहीं लगता। इससे प्रकारानतर से ग्रहण कर्ता के पितर और भविष्य में लाभ की आशा जुड़ी रहती है।
साधक को श्राद्ध का भोजन नहीं करना चाहिए:-
स्वाध्याय, अर्थात अपने कर्मों का चिंतन करना होता है। मनन की तुलना में चिंतन अधिक सूक्ष्म होता है। अतः चिंतन से जीव की देह पर विशिष्ट गुण का संस्कार दृढ होता है। सामान्य जीव रज-तमात्मक माया-संबंधी कार्यों का ही अधिक चिंतन करता है। इससे उसके सर्व ओर रज-तमात्मक तरंगों का वायुमंडल निर्मित होता है। यदि ऐसे संस्कारों के साथ हम भोजन करने श्राद्धस्थल पर जाएंगे, तो वहां के रज-तमात्मक वातावरण का अधिक प्रभाव हमारे शरीर पर होगा, जिससे हमें अधिक कष्ट हो सकता है। यदि कोई व्यक्ति साधना करता है, तो श्राद्ध का भोजन करने से उसके शरीर में सत्त्वगुण की मात्रा घट सकती है। इसलिए, आध्यात्मिक दृष्टी से श्राद्ध का भोजन लाभदायक नहीं माना जाता। इससे बचने का प्रयास किया जाना चाहिए।
श्राद्ध भोजन करने के बाद उस दिन पुनः भोजन करना :-
श्राद्ध का रज-तमात्मक युक्त भोजन ग्रहण करने पर, उसकी सूक्ष्म-वायु हमारी देह में घूमती रहती है। ऐसी अवस्था में जब हम पुनः भोजन करते हैं, तब उसमें यह सूक्ष्म-वायु मिल जाती है। इससे, इस भोजन से हानि हो सकती है। इसीलिए, हिन्दू धर्म में बताया गया है कि उपरोक्त कृत्य टालकर ही श्राद्ध का भोजन करना चाहिए। कलह से मनोमयकोष में रज-तम की मात्रा बढ जाती है। नींद तमप्रधान होती है। इससे हमारी थकान अवश्य मिटती है, पर शरीर में तमोगुण भी बढ़ता है। इसलिए प्रयास करें कि श्राद्ध पक्ष या तेरहवी आदि मृतकों के निमित्त बनाएं गए भोजन को करने से बचना चाहिए।




Thursday, September 15, 2022

श्री सम्प्रदाय के आचार्य नम्माळवार( शठकोपन) श्री सनातन सम्प्रदाय परम्परा (13वीं कड़ी) आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी

तमिल के 12 आलवारों में खास हैं ये शठकोपन :-
तमिल भाषा में आलवार शब्द का अर्थ ‘भगवान में डुबा हुआ' होता है। विष्णु या नारायण की उपासना करनेवाले भक्त 'आलवार' कहलाते हैं। अलवर शब्द का अर्थ है वह जो भगवान के अनगिनत गुणों के समुद्र में गहरे गोता लगाता है।अलवारों को विष्णु के बारह सर्वोच्च भक्त माना जाता है, जिन्होंने वैष्णववाद को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। नम्मलवार उन बारह अलवर कवि-संतों में से एक थे, जिन्होंने खुद को विष्णु के प्रेम में डुबो दिया था और जिन्हें प्राचीन तमिल साहित्य और विष्णु और उनके सहयोगियों से संबंधित पारंपरिक कहानियों के साथ-साथ बौद्ध धर्म , हिंदू धर्म के बीच दार्शनिक मतभेदों का काफी ज्ञान था। आलवार सन्त भक्ति आन्दोलन के जन्मदाता माने जाते हैं। इनकी संख्या 12 हैं। इन बारह आलवारों ने घोषणा की कि भगवान की भक्ति करने का सबको समान रूप से अधिकार प्राप्त है। 
पांचवे क्रम पर संत नम्माळवार( शठकोपन ) :-
वैष्णववाद संप्रदाय के बारह अलवर संतों को किसी न किसी रूप में विष्णु की अभिव्यक्ति माना जाता है, और अलवर संत नम्मलवार को विश्वसेना का अवतार माना जाता है । विष्क्सेन ने अध्यात्म ज्ञान नम्माळवार( शठकोपन ) को दिया। पराकुंश मुनि के नाम से भी ये विख्यात हैं।ये राम के पादुका के अवतार कहे जाते हैं। इन्होंने राम भक्ति से संबंधित तिरुवायमौली ग्रंथ की रचना की है। वैष्णव संत आळवारोंके नामसे विख्यात हुए। दक्षिण भारतमें वैष्णवधर्म के प्रचार में इनका बहुत अधिक हाथ रहा। आळवारों अथवा तमिळ वैष्णव संतोंमें महात्मा शठकोप का स्थान बहुत ऊँचा और आदरके योग्य गिना जाता है। इनका तमिळ नाम नम्माळवार है और तमिळ वैष्णव इन्हें जन्मसिद्ध मानते हैं।नम्मलवार को बारह अलवरों की पंक्ति में पाँचवाँ स्थान माना गया है। उनका जन्म एक शूद्र परिवार में हुआ था, लेकिन उनके ज्ञान की खोज ने स्वीकार किया उन्हें वैष्णव परंपरा का एक महान रहस्यवादी माना जाता है। 
भौतिक परिचय :-
शठकोप के पिता का नाम करिमारन् था। ये पाण्ड्यदेश के राजा के यहाँ किसी ऊँचे पदपर थे और आगे चलकर कुरुगनाडु नामक छोटे राज्यके राजा हो गये, जो पाण्ड्य देशके ही अधीन था। शठकोप का जन्म अनुमानतः तिरुक्कुरुकुर नामक नगरमें हुआ था, जो तिरुनेलवेली जिलेमें ताम्रपर्णी नदीके तटपर अवस्थित था। इनके सम्बन्धमें यह कथा प्रचलित है कि जन्मके बाद दस दिनतक इन्हें भूख प्यास कुछ भी नहीं लगी। यह देखकर इनके माता-पिताको बड़ी चिन्ता हुई। वे इसका रहस्य कुछ भी नहीं समझ सके। अन्त में यही उचित समझा गया कि इन्हें भगवान्‌के मन्दिरमें ले जाकर वहीं छोड़ दिया जाय। बस, इस निर्णय के अनुसार इन्हें स्थानीय मन्दिर में एक इमली के वृक्ष के नीचे छोड़ दिया गया। तबसे लेकर सोलह वर्षकी अवस्था तक बालक नम्माळवार उसी इमली के पेड़के कोटर में योग की प्रक्रिया से ध्यान किए और भगवान् श्रीहरि के साक्षात्कार में लगे रहे। नम्माळवार की ख्याति दूर-दूरतक फैल गयी। तिरुक्कोईलूर नामक स्थान के एक ब्राह्मण, जो मधुर कवि के नामसे विख्यात थे और जो स्वयं आगे चलकर आळवारों की कोटि में गिने जाने लगे, नम्माळवार के साधन की बात सुनकर ढूँढते ढूँढ़ते उस स्थानपर जा पहुँचे, जहाँ यह बालक भक्त अपने भगवान् श्रीनारायणका ध्यान कर रहे थे। इनकी प्रार्थना से महात्मा ने इन्हें अपना शिष्य बना लिया। इस प्रकार यह भी कहा जाता है कि नम्माळवार आचार्य भी थे; क्योंकि उन्होंने मधुर कवि-जैसे शिष्यों को दीक्षा देकर उन्हें धर्म और अध्यात्म तत्त्व के गूढ़ रहस्य बताये। जब नम्माळवार जी ध्यानमें मन थे, दयामय भगवान् नारायण उनके सामने प्रकट हुए और उन्हें 'ॐ नमो नारायणाय' इस अष्टाक्षर मन्त्र की दीक्षा दी। बालक शठकोप पहले से ही विशेष शक्तिसम्पन्न थे और अब तो वे महान् आचार्य तथा धर्म के उपदेष्टा हो गये। कहते हैं कि नम्माळवार पैंतीस वर्षकी अवस्था तक इस मर्त्यलोकमें रहे और इसके बाद उन्होंने अपने भौतिक विग्रहको त्याग दिया। कहा जाता है, इनके जीवनका अधिकांश भाग राधाभाव में बीता। वे सर्वत्र सब समय सारी परिस्थितियों और घटनाओं में अपने इष्टदेव में ही रमे रहते। ये भगवान् विरह में रोते चिल्लाते, नाचते, गाते और मूर्छित हो जाते थे। इसी भाव में इन्होंने कई भक्ति भाव पूर्ण धार्मिक ग्रन्थों की रचना को जो बड़े विचारपूर्ण, गम्भीर और भगवत्प्रेरित जान पड़ते हैं। इनमें प्रधान ग्रंथों के नाम तिरुविस्तम्, तिस्वाशिरियम्, पेरिय तिरुवन्त और तिरुवायूमोलि हैं। महात्मा शठकोप के ये चार ग्रन्थ चार वेदों के तुल्य माने जाते हैं। इन चारों में भगवान् श्री हरि के लीलाओं का वर्णन है और ये चारों ई-चारों भगवत्प्रेम से ओतप्रोत हैं। ग्रन्थकार ने अपने को प्रेमिका के रूपमें व्यक्त किया है और श्रीहरि को प्रियतम माना है। तिरुविरुत्तम् आदिसे अन्ततक यही भाव भरा हुआ है। इनके ग्रन्थों में से अकेले तिरुवायूमोळि है, जिसका अर्थ है- पवित्र उपदेश, हजार से ऊपर पद्म हैं। दक्षिण के वैष्णवों के प्रधान ग्रन्थ दिव्यप्रबन्धम के चतुर्थांश में इसी के पद संगृहीत है। तिरुवायूमोळि के पद मन्दिरों में तथा धार्मिक उत्सवों में बड़े प्रेम से गाये जाते हैं। तमिळ के धार्मिक साहित्य में तिरुवायूमोळि का अपना निराला ही स्थान है। वहाँ इसके पाठका उतना महत्त्व माना जाता है, जितना वेदाध्ययन और वेदपाठ का, क्योंकि इसमें वेद का सार भर दिया गया है।
           ये महात्मा ईसवी सन् की सातवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में विद्यमान थे। हम पहले ही बता चुके हैं कि इनका एक नाम मारन भी था। उस समय के राजाका नाम भी यही था। वेळिवकुडी के दानपत्र के अनुसार मारन कोच्छदैयन् के पितामह थे। तमिलनाडु के कई वैष्णव मंदिरों में दैनिक प्रार्थना और उत्सव के अवसरों के दौरान नम्मालवर और अन्य अलवर के छंदों का पाठ किया जाता है। दक्षिण भारत के सभी विष्णु मंदिरों में और त्योहारों के दौरान भी प्रबंधम के गीत नियमित रूप से गाए जाते हैं। 
 






 

 

  
 

Monday, September 12, 2022

श्री-सम्प्रदाय के आचार्य विश्वक्सेन श्री सनातन सम्प्रदाय परम्परा (12वीं कड़ी) आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी


            श्रीहरि के भी मुख्य पार्षद हैं विश्वक्सेन :-
जिस प्रकार संसार में कार्य चलाने के लिये मनुष्यों को सहायकों की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार सृष्टि के पालनकर्ता श्रीहरि को भी अपना कार्य करने के लिए सहायकों की आवश्यकता पड़ती है। इसी प्रयोजन से श्रीहरि के भी मुख्य 16 पार्षद यानी सहायक हैं, जिनको समय-समय पर समाज को सार्थक संदेश देने के लिए श्रीहरि पृथ्वी पर भेजते रहते हैं। मान्यता है कि आज भी उनमें से कुछ पृथ्वी पर भ्रमण करते हैं और श्रीहरि के भक्तों को संकटों से बचाते हैं, धर्म पथ पर चलाते हैं। वे निर्दिष्ट कार्य करने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं. सबकी अपनी-अपनी भूमिकाएं हैं, जिन्हें वे पूरी निष्ठा के साथ निभाते हैं. इनके नाम हैं - विश्वक्सेन, जय, विजय, प्रबल और बल। इनके बारे में माना जाता है कि ये भक्तों का मंगल करते हैं और श्रीहरि के प्रति शत्रु भाव रख कर भी उनकी लीला में सहयोग करते हैं। जैसे कुंभकर्ण व रावण, श्रीहरि के जय व विजय नामक पार्षद ही थे। नन्द, सुनन्द, सुभद्र,भद्र के बारे में कहा जाता है कि ये रोगों को नष्ट करते हैं। चंड, प्रचंड, कुमुद और कुमुदाक्ष श्रीहरि के भक्तों के लिए परम विनीत व अति कृपालु बन कर सेवा करते हैं। शील, सुशील व सुषेण श्रीहरि के भावुक भक्तों का बराबर ध्यान रखते हैं। ये सोलह पार्षद श्रीहरि की सेवा में बड़े ही कुशल हैं और इसी कारण माना जाता है कि नारायण के पास इनकी सेवा से जल्दी पहुंचा जा सकता है। जैसे श्रीहरि हैं, वैसे ही उनके ये 16 पार्षद भी हैं। केवल श्रीहरि के वक्ष स्थल पर श्रीवत्स और गले में कौस्तुभ मणि पार्षदों के पास नहीं होती। जहां-जहां हरि बोल, नारायण-नारायण बोला जाता है, वहां-वहां ये पार्षद पहुंच जाते हैं। श्रीहरि की भक्ति प्राप्त करने में जुटे भक्तों को इन सभी पार्षदों का भी नाम स्मरण करना चाहिए। पापी अजामिल को ‘नारायण-नारायण' करने पर इन पार्षदों ने ही यम पाश से छुड़ाया था। सभी पार्षद श्रीलक्ष्मीनारायण की सेवा करके उन्हें प्रसन्न करने में बहुत चतुर हैं. वे सभी भजन में आनद पाने वाले भक्तों का हित करते हैं. भगवान के सभी पार्षद स्वभाव से ही सिद्ध और नित्यमुक्त हैं. वे सदा भगवान् के ध्यान में मग्न रहते हैं. प्रेमभाव से पूर्ण दृष्टिकोण से भक्तों का पालन करते हैं।
 विष्वक्सेन कलयुग के श्री सम्प्रदाय के प्रथम आचार्य :-
श्री सम्प्रदाय की गुरू परम्परा भगवान् श्रीमन्नारायण से प्रारंभ होती है । भगवान् श्रीमन्नारायण अपनी अकारण निर्हेतुक कृपा से, इस भौतिक जगत से बद्ध जीवात्मा (अर्थात जीवों) का उद्धार करने कृत संकल्प लिये हुये है । जीवात्मा को शुद्ध बुद्धि, और चिरस्थायि सुखदायक आनन्दमय जीवन, भौतिक देह के त्याग के बाद (यानि परमपद में भगवद्-कैंकर्य) प्रदान करने की ज़िम्मेदारी स्वयं ले रखी है । असंख्य कल्याण गुणों से परिपूर्ण एम्पेरुमान (भगवान श्रीमन्नारायण – श्रिय:पति अर्थात श्रीमहा-लक्ष्मीजी के पति) , श्री वैकुण्ठ में अपनी देवियो (माता श्रीदेवी, भूदेवी, नीळादेवी) के साथ बिराजमान हैं , जहाँ सदैव नित्य-सूरी (गरुडाळ्वार, विष्वक्सेनजी, अनन्तशेषजी ) इत्यादि भगवान की नित्य सेवा में लीन है। इन अनुयायियों की मान्यता है कि भगवान् नारायण ने अपनी शक्ति श्री (लक्ष्मी) को अध्यात्म ज्ञान प्रदान किया। तदुपरांत लक्ष्मी ने वही अध्यात्म ज्ञान विष्वक्सेन को दिया। वे विष्णु जी के निर्मालयधारी कहे जाते हैं।
विश्वसेना को संस्कृत में व्वक्सेन कहा जाता है। विश्वसेना , जिसे सेनाई मुदलवार (सेना मुदलियार) और सेनाधिपति ( सेना-प्रमुख ) के नाम से भी जाना जाता है। वे हिंदू देवता विष्णु की सेना के कमांडर-इन-चीफ हैं। वैकुंठ के अपने दिव्य निवास के द्वारपाल और कक्ष के रूप में सेवा करते हैं । तंत्र के अवतार के रूप में , वैखानस और श्री वैष्णववाद में किसी भी अनुष्ठान या समारोह से पहले विश्वकसेन की पूजा की जाती है।संप्रदाय उनका वैखानस और पंचरात्र मंदिर परंपराओं में एक महत्वपूर्ण स्थान है , जहां मंदिर उत्सव अक्सर उनकी पूजा और जुलूस के साथ शुरू होते हैं।
विष्वक्सेन का प्रतिमा विज्ञान:-
विश्व ब्रह्मांड या संपूर्ण सृष्टि है और सेना सेना है। जिस प्रकार ब्रह्मांड के हर कोने और कोने में भगवान की सेना है, वे विश्वकसेन हैं। कूर्म पुराण में विश्वकसेन का वर्णन विष्णु के एक हिस्से से हुआ है, जो एक शंख (शंख ) , सुदर्शन चक्र (डिस्कस) और गदा (गदा) लेकर और अपने गुरु की तरह पीले कपड़े पहने हुए हैं। कालिका पुराण में उन्हें विष्णु के परिचारक के रूप में वर्णित किया गया है, जिनकी चार भुजाएं हैं, और उनका रंग लाल और भूरा है। वह सफेद कमल पर विराजमान है, लंबी दाढ़ी रखता है और उलझे हुए बाल पहनता है। उनके हाथों में कमल, गदा, शंख और चक्र हैं। पंचरात्र पाठ लक्ष्मी तंत्र में विश्वकसेन को चार भुजाओं वाला और एक शंख और कमल धारण करने का उल्लेख है । एक अन्य उदाहरण में, कहा जाता है कि वह एक तलवार और एक क्लब ले जाता है, पीले कपड़े पहनता है और उसकी आंखें, दाढ़ी और भौहें और चार दांत होते हैं।एक भजन में, टिप्पणी यह ​​है कि विश्वकसेन में विष्णु के सभी गुण हैं, जिसमें श्रीवत्स चिह्न और उनके हथियार शामिल हैं। तिरुमाला वेंकटेश्वर मंदिर के विश्वसेना प्रतीक के चार हाथ हैं और उनके ऊपरी हाथों में एक शंख (शंख ) सुदर्शन चक्र (डिस्कस) है और उनके निचले हाथ जांघ ( गडा हस्त ) और अवगण हस्त में हैं । विश्वकसेन वेदों या धर्म शास्त्र ग्रंथों में प्रकट नहीं होते हैं, लेकिन उनकी पूजा का उल्लेख पंचरात्र और अन्य आगम ग्रंथों में मिलता है। विश्वसेना को पवित्र आगम शास्त्रों का प्रतीक माना जाता है। विश्वकसेन के पास काम के बाद के हिस्से में उन्हें समर्पित एक तानिया भी है, जिसमें उन्हें विष्णु की पत्नी लक्ष्मी से शुरू होने वाले पारंपरिक श्री वैष्णव गुरु परम्परा (शिक्षकों और शिष्यों के उत्तराधिकार) की सूची में शामिल किया गया है।(श्री) से नम्मालवर। यह श्री वैष्णववाद पर पंचरात्र ग्रंथों के प्रभाव को इंगित करता है । रामायण में, यह उल्लेख किया गया है कि त्रेता युग में राम (जो विष्णु के अवतार थे) की मदद करने वाली वानर सेना के प्रमुख सुग्रीव विश्वकसेन के अवतार थे।
कूर्म पुराण में एक शापित भिक्षुक या भिखारी ( भिक्षाटन , भैरव का एक रूप) के रूप में भगवान शिव की वैकुंठ की यात्रा का वर्णन है । वैकुंठ द्वार पर विश्वसेना का पहरा था, जिन्होंने शिव को नहीं पहचाना और उन्हें प्रवेश नहीं करने दिया। भैरव ने अपने भयानक परिचारक कलावेग को विश्वकसेन से युद्ध करने का आदेश दिया। हालांकि, कलावेग को विश्वसेना ने हराया था। जैसे ही विश्वकसेन ने भैरव की ओर आरोप लगाया, भैरव ने स्वयं विश्वकसेन को अपने त्रिशूल से मार डाला और अपनी लाश को उस पर लाद दिया। भैरव के इस रूप को कंकल या कंकलमूर्ति ("कंकाल वाला एक") के रूप में जाना जाता है। 
विश्वकसेन की पूजा :-
विश्वकसेन वैष्णववाद के वैखानस संप्रदाय में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है , जो विष्णु को समर्पित एक संप्रदाय है। किसी भी कर्मकांड या समारोह की शुरुआत विश्वासेन की पूजा से होती है। भगवान विष्णु के पार्षदों में इनका वही स्थान है जो शिव के गानों में गणेश जी का स्थान है। भगवती श्री लक्ष्मी ने इन्ही को श्री नारायण मंत्र की दीक्षा दी थी। माना जाता है कि विष्णु की सेना के सेनापति के रूप में, उन्हें अनुष्ठान या कार्य को बाधाओं और बुराई से बचाने के लिए माना जाता है।  
श्री वैष्णववाद में , उन्हें "कठिनाइयों को दूर करने वाला" और चंद्रमा के समान चमकदार रंग के वाहक के रूप में वर्णित किया गया है। रामानुज टिप्पणी करते हैं कि वैष्णव कार्तिकेय और गणेश के स्थान पर विश्वकसेन की पूजा करते हैं। 
तानियान (भजन) में , भट्टर विश्वकसेन को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में आमंत्रित करते हैं जो विष्णु और लक्ष्मी के जीवन की सुविधा देता है और अपने हाथों के इशारे से सभी कृतियों को नियंत्रित करता है, जिससे चित (सचेत) और अचित (चेतन नहीं) अपने कर्तव्य का पालन करते हैं।एक अन्य भजन में, भट्टर विश्वसेना और उनकी पत्नी सूत्रवती से अपील करके खुशी की तलाश करते हैं। 




फर्जी पत्रकार बन प्राइवेट अस्पताल की रेकी की


वीडियो रिकॉर्ड कर भागते हुए दबोचे गये
बस्ती। आज करीब 12.30 बजे के दोपहर के आसपास नोवा हैस्पिटल जामदीह कैली रोड पर दो बाइक पर आए  तीन लोग अस्पताल की रेकी कर रहे थे। अभी दो माह पूर्व इस डाक्टर के घर पर चोरी हो चुकी है।वह  मामला अभी सल्टा भी नहीं था की आज अस्पताल पर चुपके से रेकी करते और वीडियो बनाते पकड़े गए। इनके नाम रत्नेश्वर मिश्र,समसुद्दीन और सादाब है।इन्हें बस्ती कोतवाली पुलिस की अभिरक्षा में सौप दिया गया है। ये तीनों अपना न तो पहचान पत्र दिखा पाए और न ही पत्रकार होने का कोई सबूत दे सके। ये चोरी करने या ब्लैक मेल भी कर सकते थे। प्रायः आसामाजिक तत्व पत्रकारिता को आड़ में बड़े बड़े कांड करके बच निकलते हैं।
बस्ती न्यूज नेशन का ब्यूरो चीफ कासिफ समर भी अपने ट्विटर हैंडल से उक्त फर्जी पत्रकारों का सपोर्ट करते हुए अस्पताल के खिलाफ मुहिम चला रखा है और चिकित्सा मंत्री माननीय पाठक जी को टैग किया है।
बस्ती की आम जनता को इस युवा चिकित्सक को नैतिक समर्थन और सहयोग देना।चाहिए।ज्ञातव्य है कि यह डाक्टर आम जनता को अपने अस्पताल में निः शुल्क परामर्श देते हैं और जनहित में केवल कम से कम मूल्य पर आपरेशन करते हैं। 

Sunday, September 11, 2022

श्री-सम्प्रदाय के अष्ट दिव्य आचार्य सनातन रामानंद सम्प्रदाय परम्परा (11वीं कड़ी) आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी

श्री-सम्प्रदाय के अष्ट दिव्य आचार्य
सनातन रामानंद सम्प्रदाय परम्परा (11वीं कड़ी)       
आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी
वैष्णव-सम्प्रदाय:-
नाभादास के भक्तमाल के 1से 27वें छप्पय में सतयुग त्रेता और द्वापर युग के भक्त चारितों का वर्णन मिलता है। 28वें छप्पय से कलियुग के भक्त चरित्रों का वर्णन मिलता है। इस प्रसंग में कलियुग से इतर आचार्यों का निरुपन किया जा रहा है। वैष्णव-सम्प्रदाय भगवान विष्णु और उनके स्वरूपों को आराध्य मानने वाला सम्प्रदाय है। पौराणिक काल में विभिन्न देवी- देवताओं द्वारा वैष्णव महामंत्र दीक्षा परंपरा से इन संप्रदायों का प्रवर्तन हुआ है। वर्तमान में ये सभी संप्रदाय अपने प्रमुख आचार्यो के नाम से जाने जाते हैं। यह सभी प्रमुख आचार्य दक्षिण भारत में जन्म ग्रहण किए थे। इसके अन्तर्गत मूल रूप से चार संप्रदाय आते हैं।
 (१) श्री सम्प्रदाय जिसकी आद्य प्रवरर्तिका विष्णुपत्नी महालक्ष्मीदेवी और प्रमुख आचार्य रामानुजाचार्य हुए। जो वर्तमान में रामानुज/रामानन्द सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है।
(२) ब्रह्म सम्प्रदाय जिसके आद्य प्रवर्तक चतुरानन ब्रह्मादेव और प्रमुख आचार्य माधवाचार्य हुए। जो वर्तमान में माध्व सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है।
(३) रुद्र सम्प्रदाय जिसके आद्य प्रवर्तक देवादिदेव महादेव और प्रमुख आचार्य विष्णु स्वामी /वल्लभाचार्य हुए जो वर्तमान में वल्लभ सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है।
(४) कुमार संप्रदाय जिसके आद्य प्रवर्तक सनतकुमार गण और प्रमुख आचार्य निम्बार्काचार्य हुए जो वर्तमान में निम्बार्क सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है।
श्री/ रामानुज/रामानन्द सम्प्रदाय :-
 रामानुजं श्रीः स्वीचक्रे मध्वाचार्य चतुर्मुखः। 
श्री विष्णुस्वामिनं रुद्रो निम्बादित्यं चतुस्सनः।
                                        (पद्मपुराण)। 
इन सम्प्रदायों में श्री सम्प्रदाय' ही सबसे पुरातन है। इसके अनुयायी ‘श्री वैष्णव' कहलाते हैं। बैरागियों के चार सम्प्रदायों में अत्यन्त प्राचीन रामानंदी सम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय को बैरागी सम्प्रदाय, रामावत सम्प्रदाय और श्री सम्प्रदाय भी कहते हैं। 'श्री' शब्द का अर्थ लक्ष्मी के स्थान पर 'सीता' किया जाता है। इस सम्प्रदाय का सिद्धान्त विशिष्टाद्वैत कहलाता है। इन सम्प्रदायों में श्री सम्प्रदाय' ही सबसे पुरातन है। इसके अनुयायी ‘श्री वैष्णव' कहलाते हैं। इन अनुयायियों की मान्यता है कि भगवान् नारायण ने अपनी शक्ति श्री (लक्ष्मी) को अध्यात्म ज्ञान प्रदान किया। 
           सतयुग त्रेता द्वापर युग के दिव्य आचार्य:-
 1.सर्वावातारी सर्वेश्वर साकेत बिहारी भगवान श्री राम     
                   (नित्य-बिहारी, एवं विभूति)
       ( लोक प्राकट्य: श्री रामनवमी, त्रेतायुग)
"जब जब होई धर्म की हानी " को निवारण हेतु परम ब्रह्म श्री राम जी ने अपने चार स्वरूपों में अयोध्या में अवतार लेकर" विप्र धेनु सुर संत हित" वा वैष्णव सनातन परम्परा और धर्म की रक्षा किया था। पूरे विश्व में हर साल चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी पर भगवान श्री राम का जन्मोत्सव मनाया जाता है। इसी दिन भगवान श्रीराम का प्राकट्य हुआ था। 
नवमी तिथि मधुमास पुनीता, शुक्ल पक्ष अभिजीत नव प्रीता।
मध्य दिवस अति सीत न घामा, पवन काल लोक विश्रामा।।
       भगवान राम को विष्णु का अवतार माना जाता है।अयोध्या वासी की भी उन्होंने इस प्रकार सेवा की थी ---
जेहि विधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहीं कृपा निधि सोई संयोगा।
          धरती पर असुरों का संहार करने के लिए भगवान विष्णु ने त्रेतायुग में श्रीराम के रूप में मानव अवतार लिया था। भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है। उन्होंने दीर्घ काल तक पृथ्वी पर अभूत पूर्व सुशासन स्थापित कर प्रजा को ताप त्रय से मुक्ति दिलाकर राम राज्य की स्थापना की थी।
2. सर्वेश्वरी साकेत बिहरिणी श्री सीता         
                         ( नित्य-बिहारिणी)
       (लोक प्राकट्य: वैशाख शुक्ल नवमी, त्रेतायुग )
परम ब्रह्म का अंग स्वरूपा श्री शक्ति लक्ष्मी जी ने भू देवी द्वारा
अवतरण लिया है। भगवती लक्ष्मी विष्णु वल्लभा है, वे भगवान विष्णु से अभिन्न हैं। वे भी भगवान की तरह नित्य और सर्व व्यापक हैं।पौराणिक ग्रंथों में माता सीता के प्राक्ट्य की कथा कुछ इस प्रकार है। एक बार मिथिला में भयंकर अकाल पड़ा उस समय मिथिला के राजा जनक हुआ करते थे। वह बहुत ही पुण्यात्मा थे, धर्म कर्म के कार्यों में बढ़ चढ़कर रूचि लेते। ज्ञान प्राप्ति के लिए वे आये दिन सभा में कोई न कोई शास्त्रार्थ करवाते और विजेताओं को गौदान भी करते। लेकिन इस अकाल ने उन्हें बहुत विचलित कर दिया, अपनी प्रजा को भूखों मरते देखकर उन्हें बहुत पीड़ा होती। उन्होंने ज्ञानी पंडितों को दरबार में बुलवाया और इस समस्या के कुछ उपाय जानने चाहे। सभी ने अपनी-अपनी राय राजा जनक के सामने रखी। कुल मिलाकर बात यह सामने आयी कि यदि राजा जनक स्वयं हल चलाकर भूमि जोते तो अकाल दूर हो सकता है। अब अपनी प्रजा के लिये राजा जनक हल उठाकर चल पड़े। वह दिन था वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी का। जहां पर उन्होंने हल चलाया वह स्थान वर्तमान में बिहार के सीतामढी के पुनौरा राम गांव को बताया जाता है। तो राजा जनक हल जोतने लगे। हल चलाते-चलाते एक जगह आकर हल अटक गया, उन्होंने पूरी कोशिश की लेकिन हल की नोक ऐसी धंसी हुई थी जिसकी खुदाई करने पर सुंदर और बड़ा सा कलश मिला है जो हल की नोक उलझी हुई थी । कलश को बाहर निकाला तो देखा उसमें एक नवजात कन्या है। धरती मां के आशीर्वाद स्वरूप राजा जनक ने इस कन्या को अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार किया। बताते हैं कि उस समय मिथिला में जोर की बारिश हुई और राज्य का अकाल दूर हो हुआ। जब कन्या का नामकरण किया जाने लगा तो चूंकि हल की नोक को सीता कहा जाता है और उसी की बदौलत यह कन्या उनके जीवन में आयी तो उन्होंने इस कन्या का नाम सीता रखा जिसका विवाह आगे चलकर प्रभु श्री राम से हुआ।
                      3.श्री हनुमान जी
       ( लोक प्राकट्य कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी, त्रेतायुग)
भगवान शिव के अंश से वायु के द्वारा कपिराज केशरी की पत्नी अंजना से 11 रूद्रावतार हनुमान जी का प्रादुर्भाव हुआ है । भगवान शंकर मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का स्वंम सेवा नही कर सकते हैं इसलिए 11वें रूद्रावतार के बानर रूप में अवतरित हुए हैं। मान्यता है कि नरक चतुर्दशी यानी कार्तिक कृष्ण चतुदर्शी के दिन हनुमान जी का जन्म हुआ था। भगवान राम त्रेतायुग में धर्म की स्थापना करके पृथ्वी से अपने लोक बैकुण्ठ चले गये लेकिन धर्म की रक्षा के लिए हनुमान को अमरता का वरदान दिया। इस वरदान के कारण हनुमान जी आज भी जीवित हैं और भगवान के भक्तों और धर्म की रक्षा में लगे हुए हैं। शास्त्रों का ऐसा मत है कि जहां भी राम कथा होती है वहां हनुमान जी अवश्य होते हैं। इसलिए हनुमान की कृपा पाने के लिए श्री राम की भक्ति जरूरी है। जो राम के भक्त हैं हनुमान उनकी सदैव रक्षा करते हैं।
 
                           4.श्री ब्रह्मा जी
               ( लोक प्राकट्य: अक्षय नवमी, सतयुग)
ब्रह्मा सनातन धर्म के अनुसार सृजन के देव हैं। द्वादश प्रधान महाभागवतों में ब्रह्मा जी अग्रगण्य हैं। हिन्दू दर्शनशास्त्रों में ३ प्रमुख देव बताये गये है जिसमें ब्रह्मा सृष्टि के सर्जक, विष्णु पालक और महेश विलय करने वाले देवता हैं।व्यास लिखित पुराणों में ब्रह्मा का वर्णन किया गया है कि उनके पाँच मुख थे।अब उनके चार मुख ही है जो चार दिशाओं में देखते हैं।
ब्रह्मा जी के पिता का नाम ब्रह्म (ज्योति निरंजन) है जिनको परमात्मा ने पांच वेद दिए थे उन पांचों वेदों में पांचवा वेद सूक्ष्म वेद था । समुद्र मंथन के दौरान ब्रह्म ने अपने पुत्र ब्रह्मा को चार वेद दिए तथा पांचवे वेद को नष्ट कर दिया । कबीर सागर के अनुसार पांचवा वेद सूक्ष्म वेद है।ब्रह्मा की उत्पत्ति के विषय पर वर्णन किया गया है। ब्रह्मा की उत्पत्ति विष्णु की नाभि से निकले कमल में स्वयंभू हुई थी। इसने चारों ओर देखा जिनकी वजह से उनके चार मुख हो गये। भारतीय दर्शनशास्त्रों में निर्गुण, निराकार और सर्वव्यापी माने जाने वाली चेतन शक्ति के लिए ब्रह्म शब्द प्रयोग किया गया है। इन्हें परब्रह्म या परम् तत्व भी कहा गया है। पूजा-पाठ करने वालों के लिए ब्राह्मण शब्द प्रयोग किया गया हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, आंवले की उत्पत्ति परमपिता ब्रह्मा जी के आंसू की बूंदों से हुई है. आंवले को विश्व की शुरुआत का पहला फल मानकर पूजा की जाती है।
                         5. श्री वशिष्ठ जी
             ( लोक प्राकट्य: ऋषि पंचमी, सतयुग)
वशिष्ठ वैदिक काल के विख्यात ऋषि थे। उनकी उत्पत्ति पुराणों में विभिन्न रूप में कहीं ब्रह्मा, कहीं अग्नि कहीं मित्रवरूण से उत्पत्ति हुई है। वे एक सप्तर्षि हैं - यानि के उन सात ऋषियों में से एक जिन्हें ईश्वर द्वारा सत्य का ज्ञान एक साथ हुआ था , जिन्होंने मिलकर वेदों का दर्शन किया। वेदों की रचना की, ऐसा कहना अनुचित होगा क्योंकि वेद तो अनादि है। उनकी पत्नी अरुन्धती है। वह योग-वासिष्ठ में श्री राम के गुरु हैं। वशिष्ठ राजा दशरथ के राजकुल गुरु भी थे। वशिष्ठ ब्रम्हा के मानस पुत्र थे। त्रिकाल दर्शी तथा बहुत ज्ञानवान ऋषि थे। सूर्य वंशी राजा इनकी आज्ञा के बिना कोई धार्मिक कार्य नही करते थे। त्रेता के अंत मे ये ब्रम्हा लोक चले गए थे । आकाश में चमकते सात तारों के समूह में पंक्ति के एक स्थान पर वशिष्ठ को स्थित माना जाता है। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को आती है ऋषि पंचमी। अंजाने में हुए पाप से मुक्ति तभी मिलती है जब ऋषि पंचमी का व्रत रखा जाये। इस व्रत में सप्तऋषियों समेत अरुन्धती का पूजन होता है।
                        6.श्री पराशर जी
            (लोक प्राकट्यआश्विन शुक्ल १५, सतयुग)
ऋग्वेद के मंत्रदृष्टा और गायत्री मंत्र के महान साधक सप्त ऋषियों में से एक महर्षि वशिष्ठ के पौत्र महान वेदज्ञ, ज्योतिषाचार्य, स्मृतिकार एवं ब्रह्मज्ञानी ऋषि पराशर के पिता का नाम शक्तिमुनि और माता का नाम अद्यश्यंती था। ऋषि पराशर ने निषादाज की कन्या सत्यवती के साथ उसकी कुंआरी अवस्था में समागम किया था जिसके चलते 'महाभारत' के लेखक वेदव्यास का जन्म हुआ। सत्यवती ने बाद में राजा शांतनु से विवाह किया था। पराशर बाष्कल और याज्ञवल्क्य के शिष्य थे। पराशर ऋषि के पिता को राक्षस कल्माषपाद ने खा लिया था। जब यह बात पराशर ऋषि को पता चली तो उन्होंने राक्षसों के समूल नाश हेतु राक्षस-सत्र यज्ञ प्रारंभ किया जिसमें एक के बाद एक राक्षस खिंचे चले आकर उसमें भस्म होते गए। कई राक्षस स्वाहा होते जा रहे थे, ऐसे में महर्षि पुलस्त्य ने पराशर ऋषि के पास पहुंचकर उनसे यह यज्ञ रोकने की प्रार्थना की और उन्होंने अहिंसा का उपदेश भी दिया। पराशर ऋषि के पुत्र वेदव्यास ने भी पराशर से इस यज्ञ को रोकने की प्रार्थना की। उन्होंने समझाया कि बिना किसी दोष के समस्त राक्षसों का संहार करना अनुचित है। पुलस्त्य तथा व्यास की प्रार्थना और उपदेश के बाद उन्होंने यह राक्षस-सत्र यज्ञ की पूर्णाहुति देकर इसे रोक दिया। एक दिन की बात है कि शक्ति एकायन मार्ग द्वारा पूर्व दिशा से आ रहे थे। दूसरी ओर (पश्चिम) से आ रहे थे राजा कल्माषपाद। रास्ता इतना संकरा था कि एक ही व्यक्ति निकल सकता था तथा दूसरे का हटना आवश्यक था। लेकिन राजा को राजदंड का अहंकार था और शक्ति को अपने ऋषि होने का अहंकार। राजा से ऋषि बड़ा ही होता है, ऐसे में तो राजा को ही हट जाना चाहिए था। लेकिन राजा ने हटना तो दूर उन्होंने ऋषि शक्ति को कोड़ों से मारना प्रारंभ कर दिया। राजा का यह कर्म राक्षसों जैसा था अत: शक्ति ने राजा को राक्षस होने का शाप दे दिया। शक्ति के शाप से राजा कल्माषपाद राक्षस हो गए। राक्षस बने राजा ने अपना प्रथम ग्रास शक्ति को ही बनाया और ऋषि शक्ति की जीवनलीला समाप्त हो गई।
ऋषि पराशरजी एक दिव्‍य और अलौकिक शक्ति से संपन्न ऋषि थे। उन्‍होंने धर्मशास्‍त्र, ज्‍योतिष, वास्‍तुकला, आयुर्वेद, नीतिशास्‍त्र, विषयक ज्ञान को प्रकट किया। उनके द्वारा रचित ग्रं‍थ वृहत्‍पराशर होराशास्‍त्र, लघुपराशरी, वृहत्‍पराशरीय धर्म संहिता, पराशर धर्म संहिता, पराशरोदितम, वास्‍तुशास्‍त्रम, पराशर संहिता (आयुर्वेद), पराशर महापुराण, पराशर नीतिशास्‍त्र, आदि मानव मात्र के लिए कल्‍याणार्थ रचित ग्रं‍थ जगप्रसिद्ध हैं जिनकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।
 
                       7. श्री व्यास जी
            (लोक प्राकट्य:गुरु पूर्णिमा, द्वापर युग)
आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा और व्यास पूर्णिमा का विशेष पर्व मनाया जाता है। गुरु पूर्णिमा के दिन शिष्य अपने गुरु की पूजा करते हैं और उन्हें उपहार भी देते हैं। भारतीय संस्कृति में गुरु देवता को तुल्य माना गया है। महर्षि वेदव्यास का जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को लगभग 3000 ई. पूर्व में हुआ था। उनके सम्मान में ही हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा और व्यास पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। वेद, उपनिषद और पुराणों का प्रणयन करने वाले वेद व्यासजी को समस्त मानव जाति का गुरु माना जाता है। बहुत से लोग इस दिन व्यासजी के चित्र का पूजन और उनके द्वारा रचित ग्रंथों का अध्ययन करते हैं। बहुत से मठों और आश्रमों में लोग ब्रह्मलीन संतों की मूर्ति या समाधी की पूजा करते। समय आने पर सत्यवती को एक पुत्र हुआ, जिनका नाम कृष्ण द्वैपायन रखा। यही कृष्ण आगे चलकर वेद व्यास के नाम से प्रसिद्ध हुए। वेदों के विस्तार के कारण ये वेदव्यास के नाम से जाने जाते हैं। वेद व्यास ने चारो वेदों के विस्तार के साथ-साथ 18 महापुराणों तथा ब्रह्मसूत्र का भी प्रणयन किया। महर्षि वेदव्यास महाभारत के रचयिता हैं, बल्कि वह उन घटनाओ के भी साक्षी रहे हैं जो घटित हुई हैं।
 
                        8. श्री शुकदेव जी
          (लोक प्राकट्य:श्रावण शुक्ल १५, द्वापर युग)
शुकदेव वेदव्यास के पुत्र थे। वे बचपन में ही ज्ञान प्राप्ति के लिये वन में चले गये थे। इन्होंने ही परीक्षित को 'श्रीमद्भागवत पुराण' सुनाया था। शुकदेव जी ने व्यास से 'महाभारत' भी पढ़ा था और उसे देवताओं को सुनाया था। शुकदेव मुनि कम अवस्था में ही ब्रह्मलीन हो गये थे। कहीं इन्हें व्यास की पत्नी वटिका के तप का परिणाम और कहीं व्यास जी की तपस्या के परिणामस्वरूप भगवान शंकर का अद्भुत वरदान बताया गया है। विरजा क्षेत्र के पितरों के पुत्री पीवरी से शुकदेव का विवाह हुआ था। एक कथा ऐसी भी है कि जब जब इस धराधाम पर भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधिकाजी का अवतरण हुआ, तब श्रीराधिकाजी का क्रीडाशुक भी इस धराधाम पर आया। उसी समय भगवान शिव पार्वती को अमर कथा सुना रहे थे। पार्वती जी कथा सुनते-सुनते निद्रा के वशीभूत हो गयीं और उनकी जगह पर शुक ने हुंकारी भरना प्रारम्भ कर दिया। जब भगवान शिव को यह बात ज्ञात हुई, तब उन्होंने शुक को मारने के लिये उसका पीछा किया। शुक भागकर व्यास के आश्रम में आया और सूक्ष्म रूप बनाकर उनकी पत्नी के मुख में घुस गया। भगवान शंकर वापस लौट गये। यही शुक व्यासजी के अयोनिज पुत्र के रूप में प्रकट हुए। गर्भ में ही इन्हें वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि का सम्यक ज्ञान हो गया था।
           कहा जाता है कि ये बारह वर्ष तक गर्भ के बाहर ही नहीं निकले। जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर इन्हें आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, तभी ये गर्भ से बाहर निकले। जन्मते ही श्रीकृष्ण और अपने पिता-माता को प्रणाम करके इन्होंने तपस्या के लिये जंगल की राह ली। व्यास जी इनके पीछे-पीछे 'हा पुत्र! पुकारते रहे, किन्तु इन्होंने उन पर कोई ध्यान न दिया।

Friday, September 9, 2022

अयोध्या की रामलीला में पर्यवेक्षण की कमी डा. राधे श्याम द्विवेदी

उत्तर प्रदेश संस्कृति विभाग द्वारा आयोजित अयोध्या की नित्य रामलीला मंचन दिनाँक 5 से 18 सितंबर 2022 तक चल रहा है। इसके आयोजक अयोध्या शोध संस्थान (संस्कृति विभाग) अयोध्या है। राम लीला का मंचन जय रामानुज किनकर आदर्श रामलीला मंडल गोंडा कर रहा है। इसके संचालक लक्ष्मण सिंह जी हैं। जिसे सहयोग जिला प्रशासन एवम अयोध्या विकास प्राधिकरण अयोध्या भी कर रहा है।राम लीला में पर्याप्त दर्शक भी रहते हैं जिन्हे आयोजक मंडल सहेज नहीं पा रहे हैं। राम लीला में लीला कम प्रहसन ज्यादा दिखाया जाता है।रामलीला का स्तर ठीक होते हुए भी अव्यस्थाओं का बोलबाला देखा जा सकता है। श्री लक्ष्मण सिंह के निर्देशन में चल रहे 9 सितंबर को इस आयोजन को देखने का अवसर मिला। विश्वामित्र संग राम लखन मिथिला धनुष यज्ञ में गए हुए हैं। देश के हर क्षेत्र के राजा आए हुए है। रावण और बाणासुर का संवाद विस्तार ज्यादा पर बहुत ही स्तरीय रहा। जनक के किरदार ने लीला को अत्यंत भावुक कर दिया। लक्ष्मण का किरदार भी बहुत अच्छी तैयारी के साथ अपना रोल प्रस्तुत किया है। दर्शक मंडल मैदान की लान की घासें बेतरतीब पाई गई । कुर्सियां पर्याप्त मात्रा में पाई गई। घासें कटी छटी होनी चाहिए। श्रोताओं को अनुशासित करने के लिए स्वंसेवक या गार्ड लगाए जा सकते थे। जेनरेटर की व्यवस्था ना होने से कार्यक्रम बार बार बाधित हो रहा है।अयोध्या के राम लीला का शास्त्रीय पक्ष उत्तम रहा। मंच की प्रकाश और ध्वनि व्यवस्था ठीक पाई गई। यदि आयोजक संस्थाओं के अधिकारी आयोजन में समय दे सके तो व्यवस्था में सुधार हो सकता है।

Thursday, September 8, 2022

अयोध्या की रामलीला स्तरहीन अव्यस्थाओं का बोलबाला डा. राधे श्याम द्विवेदी

उत्तर प्रदेश संस्कृति विभाग द्वारा आयोजित अयोध्या की रामलीला स्तरहीन रहा जिसमे अव्यस्थाओं का बोलबाला पाया गया। अयोध्‍या में श्रीराम का जन्‍म स्‍थान होने के कारण साल भर हजारों श्रद्धालु यहां दर्शन करने आते है। राम कथा पार्क को शहर में भीड़ को कम करने व धर्मशाला में लोगों का जामावड़ा हटाने के लिए बनाया गया था। यह काफी सुंदर है, यहां काफी जगह है और व्‍यवस्थित पार्क भी है जहां कई लोगों के एकत्रित होने की व्‍यवस्‍था है।
यहां शहर की काफी भीड़ इक्‍ट्ठा हो सकती है।  इस पार्क में ओपन एयर थियेटर यानि मैदान में थियेटर की व्‍यवस्‍था है जहां कई प्रकार के सांस्‍कृतिक, धार्मिक और आध्‍यात्मिक कार्यो का आयोजन किया जाता है। इस पार्क में हमेशा जनता प्रवचन, शास्‍त्र और अन्‍य धार्मिक गतिविधियां गाने - बजाने के साथ चलती रहती हैं।
5 सितंबर 2022 से राम कथा संग्रहालय के बैनर तले श्री लक्ष्मण सिंह के निर्देशन में राम लीला चल रही है। 8 सितंबर को इस आयोजन को देखने का अवसर मिला। विश्वामित्र संग राम लखन यज्ञ की रक्षा के साथ मिथिला धनुष यज्ञ में जा रहे थे।गंगा के अवतरण में पंडों द्वारा भांग की घोटाई में फूहड़ दृश्यों को मंचित किया गया। लान की घासें बेतरतीब पाया गया। कुर्सियां पर्याप्त मात्रा में पाई गई। घासें कटी छटी होनी चाहिए। श्रोताओं को अनुशासित करने के लिए स्वंसेवक या गार्ड लगाए जा सकते थे। जेनरेटर की व्यवस्था ना होने से कार्यक्रम अधूरा छोड़ना पड़ा।अयोध्या के राम लीला का शास्त्रीय पक्ष उत्तम रहा। मंच की प्रकाश और ध्वनि व्यवस्था ठीक पाई गई।

Wednesday, September 7, 2022

राम सखा सम्प्रदाय के संस्थापक श्रीमद् राम सखेंद्र 'निध्याचार्य' की भक्ति साधना आचार्य (डा.) राधे श्याम द्विवेदी

राम सखा सम्प्रदाय की पूर्व पीठिका :-
सखी या सखा भाव का सम्प्रदाय' 'निम्बार्क मत' की एक शाखा है। इस संप्रदाय में भगवान श्रीकृष्ण की उपासना सखी- सखा भाव से की जाती है। कवि नाभादास जी ने अपने 'भक्तमाल' में कहा है कि- "सखी सम्प्रदाय में राधा-कृष्ण की उपासना और आराधना की लीलाओं का अवलोकन साधक सखीभाव से कहता है।  सखी सम्प्रदाय में प्रेम की गम्भीरता और निर्मलता दर्शनीय है। इस संप्रदाय के संस्थापक स्वामी हरिदास (जन्म संवत 1535 वि०) ने की थी। इस संप्रदाय के प्रसिद्द मंदिर वृंदावन मथुरा में श्री बांके बिहारी जी, निधिवन, राधा वल्लभ और प्रेम मंदिर आदि हैं। इसमें माधुर्य भक्ति और प्रेम भक्ति की जाती है । राधा कृष्ण की भांति सीताराम की उपासना में सखी भाव में उपासना होती है। स्वामी रामानन्द जी, गोस्वामी तुलसी दास जी, कवि नाभा दास जी और कवि अग्रदास जी इस कड़ी को आगे बढ़ाए हैं। इस माधुर्य उपासना में सखी भाव प्रिया - प्रियतम के प्रेम मिलन के भाव से पूजा और आराधना की जाती है। सखी भाव की तरह  सखा भाव में कन्हैया कभी अपने दोस्त को पीठ पर लाद लेते हैं तो कभी दोस्त के पीठ पर बैठ लेते थे। कभी गेंद के लिए तो कभी फलादि के लिए लड़ते क्रीड़ा करते देखे गए हैं। इसी तरह सीताराम जी की उपासना में भगवान और मित्र का बराबर बराबर का भाव  देखने को मिलता है।
सखा सम्प्रदाय के संस्थापक: श्रीमद् राम सखेंद्र जी महराज :-
श्रीमद् रामसखेंद्र जी महाराज ( निध्याचार्य जी महराज) का जन्म विक्रम संवत के 18वी सम्बत के आखिरी चरण  या 18वीं शताब्दी के प्रथम भाग में चैत्र शुक्ल में राम नवमी को जयपुर में एक सुसंस्कृत गौड़ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। राम सखा सम्प्रदाय 18वी संवत से प्रकाश में आया परन्तु सखी सम्प्रदाय तो सनातन काल से ही राम सखा ,राम सखी ,सीता सखी ,कृष्ण सखा ,कृष्ण सखी और  राधा सखी आदि विविध रुपों में पुराणों व भक्ति साहित्य में पाया जाता रहा है। राम सखा जी के शिष्य गुरु की तरह निध्याचार्य उप नाम प्रयुक्त करने लगे थे।शील निधि सुशील निधि और विचित्र निधि उनके परम शिष्य थे।  श्री 1008 सुखेन्द्र निध्याचार्य जी महाराज की तपोभूमि बड़ा अखाड़े के रूप में बहुत लोकप्रिय है। अयोध्या  में चौथे गुरु अवध शरण ने उप नाम में परिवर्तन कर लिया। उचेहरा सहादौल और पुष्कर के आचार्यों ने न जाने कब से अपने उप नाम शरण प्रयोग करने लगे हैं।
जयपुर में बीता बचपन :- जयपुर में जन्में  राम सखा जी जयपुर के रामलीला रिहल्सल में लक्ष्मण जी के रूप में भाग लेते थे। वे श्रीराम से इतना लगाव कर लिए कि वह वास्तव में उनका छोटा भाई होने का विश्वास करने लगे थे। एक दिन रिहल्सल के दौरान महाराज जी को भगवान राम का किरदार निभाना पड़ा था। जिसके परिणाम स्वरूप महाराज जी को भोजन नहीं मिल पाया था। महाराज जी ने पूरे दिन कुछ भी नहीं खाया और रात तक इतना परेशान थे कि वे पास के जंगल में चले गए और एक पेड़ के नीचे बैठ रोते रहे। रामलीला मंडली में युवा बच्चा गायब हो जाने के कारण हर कोई चिंतित था।
श्रीरामजी ने खुद खाना खिलाया :-
आधी रात तक जब महाराज जी पेड़ के नीचे रो रहे थे तब राम जी स्वयं स्वादिष्ट भोजन से भरे हाथों में सुनहरे बर्तन लेकर प्रकट हुए। प्रभु की मधुर वाणी सुनकर महाराज जी अभिभूत हो गए। दोनों ने एक-दूसरे को बड़े प्यार से गले लगाया। महाराज जी ने अपनी भूख को शांत किया और दोनों काफी देर तक बातें करते रहे। जिसके बाद भगवान राम अपने साथ लाए सभी सोने के बर्तनों को छोड़कर गायब हो गए।
मन्दिर के सोने के बर्तन गायब मिले :-
इधर जयपुर में  जब राम मंदिर के पुजारियों ने मंदिर का दरवाजा खोला, तो वे सभी सोने के बर्तनों को गायब देखकर हैरान रह गए। बर्तन गायब होने की सूचना जयपुर नरेश तक पहुंची । राजा ने तुरंत लापता संपत्ति और चोर की गहन खोज का आदेश दिया। कुछ लोग जंगल में पहुंचे और देखा कि एक युवा लड़का अपने चारों ओर सोने के बर्तन के साथ पड़ा है। लोगों ने उनसे बर्तनों के बारे में पूछा तो महाराज जी ने उन्हें बताया कि राम जी ने उन्हें भोजन कराया, लेकिन बर्तनों को वापस नहीं ले गए। उन्हें लगा कि भगवान राम ने उन्हें अपने छोटे भाई के रूप में स्वीकार कर लिया है। इस समय तक महाराज जी जयपुर में ही थे। गलिता जयपुर के आचार्य ने उन्हें राम सखा उपाधि से विभूषित किया था । उनकी जन्मस्थली होने के कारण वे जयपुर छोड़कर पहले उडुपी और बाद में गुरु जी दीक्षा लेकर अयोध्या आएं थे।
गुरु घराना माध्व सम्प्रदाय का परिचय :-
राम सखे का गुरु घराना वैष्णव माध्व सम्प्रदाय है। यह एक संगठित समूह में नहीं होकर  बिखरे हुए होते थे । इसके संस्थापक मध्वाचार्य ने इस सम्प्रदाय की स्थापना तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में की थी। यह सम्प्रदाय भागवत पुराण पर आधारित होने वाला पहला सम्प्रदाय रहा है। उनके महत्त्वपूर्ण मन्दिर न तो वृन्दावन में हैं और ना कहीं अन्य जगह ही हैं। इस सम्प्रदाय के संस्थापक मध्वाचार्य दक्षिण के थे। उनका जन्म सन् 1199 ई. में हुआ था। जिस मन्दिर में वे रहते थे, वह अब भी 'उडीपी' नामक स्थान में विद्यमान है। वहाँ उन्होंने एक चमत्कारपूर्ण कृष्ण की मूर्ति स्थापित की थी, जो महाभारत के योद्धा अर्जुन ने बनाई बताते हैं। यह मूर्ति द्वारका से किसी जहाज़ में रख दी गई थी और मालाबार तट पर वह टकरा गया और नष्ट हो गया था।
माधव सम्प्रदाय की स्थापना:-
मध्वाचार्य की मृत्यु के 50 वर्ष बाद उनके शिष्य जयतीर्थ इस सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य हुए। इस संप्रदाय के गुरुओं ने तीर्थ उप नाम अपने नाम के आगे लगाना शुरू कर दिया। इस कारण राम सखा के गुरु वशिष्ठ भी वशिष्ठ तीर्थ के नाम से विख्यात रहे हैं। एक परवर्ती माध्व सन्त ईश्वरपुरी ने चैतन्यदेव को इस सम्प्रदाय में दीक्षित किया। इस नये नेता (चैतन्य) ने माध्व मत का अपनी दक्षिण की यात्रा में अच्छा प्रचार किया (1509- से 11 तक)। उन्होंने माध्वों को अपनी शिक्षा एवं भक्तिपूर्ण गीतों से प्रोत्साहित किया। इन्होंने उक्त सम्प्रदाय में सर्वप्रथम संकीर्तन एवं नगर कीर्तन का प्रचार किया। चैतन्यदेव की दक्षिण यात्रा के कुछ ही दिनों बाद कन्नड़ भाषा में गीत रचना आरम्भ हुई। माध्व संन्यासी शंकर के दशनामी सन्न्यासियों मे ही परिगणित हैं। स्वयं मध्व एवं उनके मुख्य शिष्य तीर्थ (दसनामियों में से एक) शाखा के थे। आदि शंकराचार्य ने हर दशनाम परंपरा को विभिन्न पीठों से जोड़ा। (1) तीर्थ (2) आश्रम (3) सरस्वती (4) भारती (5) वन (6) अरण्य (7) पर्वत (8) सागर (9) गिरि (10) पुरी।
सत्य की खोज राम सखे की उडुपी में दीक्षा :-
राम सखा महाराज जी जयपुर से निकलने के बाद विराट वैष्णव बन गए थे। उन्होंने सत्य का मार्ग खोजना शुरू कर दिया। राम सखेंद्र श्री राम जी के पिछ्ले जन्म से ही परम भक्त थे। वे युवास्था में तीर्थ यात्रा पर निकल  पड़े थे। वे कर्नाटक के तीर्थ क्षेत्र उडुपी पहुंचे। श्रीमद् सखेंद्र जी महाराज ने माध्य संप्रदाय के आचार्य श्री वशिष्ठ तीर्थ से गुरु दीक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने लिखा है -
"मध्य माध्य निज द्वैत मन मिलन द्वार हनुमान।
राम सखे विद सम्पदा उडुपी गुरु स्थान।।"
वहां के आचार्य ने उन्हें रामसखा की उपाधि दी थी। वे दक्षिण के उडीपि (कर्नाटक) में बड़ी तनमयता से गुरु की सेवा किये थे।  वह अपने गुरु जी के साथ रहे और भगवान और उनके स्नेह को प्राप्त करने का कौशल सीख लिया था। उनका निवास नृत्य राघव कुंज के नाम से प्रसिद्व हुआ था ।
रामसखा जी का अयोध्या में आगमन:-
अयोध्या आकर राम सखा जी सरयू नदी के तट पर एक पर्णकुटी में भगवान को याद करते- करते अपना जीवन बिताया। वे प्रभु के दर्शन के लिए सरयू तट पर साधना करने लगे। उन्होंने भगवान राम के दर्शन का बहुत दिनों तक इंतजार किया।भगवान का विरह उन्हें असह्य होता जा रहा था। जब उनकी व्यथा बढ़ी तो वे प्रभु को उपालंभ भी देना शुरू कर दिए। संप्रदाय भासकर में उल्लिखित है -
“अरे शिकारी निर्दयी, करिया नृपति किशोर ।
क्यों तरसावत दरश को, राम सखे  चित्त चोर ।।"
उनकी व्यथा देख  एक बार प्रभु ने उन्हें अल्प समय के लिए दर्शन दिया। वे उनसे अंक में लिपट कर खूब रोए और खूब आनंद लिए। बाद में प्रभु जी  अंतर्ध्यान हो गए। कुछ दिनों बाद फिर उन्हें दर्शन करने की तलब लगी। अब वे और बेचैन रहने लगे।जब उनकी बेचैनी असहय हो गई । उन्हें बेचैन  मनोव्यथा जानकर इस बार रामजी माता सीता जी के साथ उन्हें युगल किशोर के  दर्शन हुए। उनका सारा दुख दूर हो गया । प्रभु की झांकी का वर्णन : -
प्रभु श्री राम सीता की झांकी  राम सखे जी के हृदय में एसे बैठ गया और उनके मुख से ये भाव निकले -
"बगिया शिर लाल हरी कलगी उर चंदन केसर खौर दिये।
मन मोहन राम कुमार सखी अनुभारी नहीं  जग जन्म लिए।
पग नुपुर पीत कसी कछनी बन मालती के बन मॉल हिये।
बिहरे सरयू तट कुंजन में तनु राम सखे चित चोर लिए।।"
थोड़ी देर दर्शन के बाद प्रभु अंतर्ध्यान हो गए तो राम सखे
अब फिर  रोना धोना शुरू कर दिया। इस व्यथा को लेकर वे चित्रकूट चले गए।
काछवाह राजा द्वारा अयोध्या में मन्दिर का निर्माण :-
बाद में अयोध्या में इसी नाम से एक मंदिर का निर्माण हुआ था।जो राम सखा की दूसरी गद्दी बनी। इसका निर्माण मैहर के तत्कालीन राजा दुर्जन सिंह कछवाह ने करवाया  था। दुर्जन सिंह कछवाहा भारत में राजपूत जाति की उपजाति है। कुछ परिवारों ने कई राज्यों और रियासतों पर शासन किया है जैसे अलवर, अंबर (जिसे बाद में जयपुर कहा जाने लगा) और मैहर आदि । कुंवर दुर्जन सिंह राजा मान सिंह के चौथे पुत्र थे. इनकी माता का नाम सहोद्रा गौड़ था. यह अत्यंत ही साहसी और पराक्रमी योद्धा थे. कुंवर दुर्जन सिंह के वंशजों को दुर्जन सिंहोत राजावत के नाम से जाना जाता है।
चित्रकूट में आगमन:-
अयोध्या में बेचैनी पूर्ण समय बिताने के बाद, महाराज जी वहां से चित्रकूट चले गए और वहां कामद वन गिरी पर प्रमोदवन में अपनी प्रार्थना जारी रखी।  बहुत दिनों तक दर्शन ना होने पर उनके मस्तिष्क में ये भाव आया । रूप सामर्थ्य चन्द्र में लिखा है -
"ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे,ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे।
ले चल कुटिल बदल जुल्फान छवि राज माधुरी वेशे।
केसर तिलक कंज मुख श्रम जल ललित लसत द्वई रेफे।
दशरथलाल लाल रघुवर बिनु बहुत जियब केही लेखे।
ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे,ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे।
डूब डूब उर श्याम सुरती कर प्राण रहे अवशेषे।
राम सखे विरहिन दोउ अखियां चाहत मिलन विशेषे।।"
सरयू तट की भांति एक बार फिर यहां राम ने अपने जुगुल किशोर स्वरूप का दर्शन दिया। इसके संबंध में कुछ लाइनें राम सखे इस प्रकार लिखी है -
"अवध पुरी से आइके चित्रकूट की ओर।
राम सखे मन हर लियो सुन्दर युगुल किशोर।"
भक्त भगवान का अब लुका छिपी का खेल होने लगा।अब प्रायः दर्शन होने लगे।वे इसका वर्णन सुनाते जाते और भक्त आनंदित होते रहते थे-
"आज की हाल सुनो सजनी मडये प्रकटी एक कौतुक भारी।
जेवत नारी बारात सभौ रघुनाथ लखे मिथिलेश उचारी।
श्री रघुवीर को देख स्वरूप भई मत विभ्रम गावनहारी।
भूली गयो अवधेश को नाम देने लगी मिथिलेश को गारी।।"
अब तक की साधना और भक्ति से राम सखे की कुंडलिनी जागृति हो गई थी।उनकी सुरति खुलने लगी थी।योग में जब चाहा दर्शन होने लगा था ।अब ध्यान लगाना नही पड़ता अपितु मानस पटल पर प्रभु की छवि खुद ब खुद आ जाती थी।
उनके भंडारे में सामान्य सा भोजन बनता तो खत्म नहीं होता।राम सखे जी ध्यान में रसोई की जो कल्पना करते वह प्रभु प्रकट कर देते थे। एक दिन खुद महराज जी ने प्रभु के लिए ध्यान में रसोई बनाई। प्रभु उसे पूरा किए। नाना प्रकार के स्वाद और व्यंजन बन। राम रसिकावली में राजा रघु राज सिंह ने लिखा है -
"करई ध्यान में विपुल भावना,
जैसी छवि की होय कामना।
ध्यान में एक दिन रस रांचे,
राम भोग बनबै चित सांचे।
जो व्यंजन मन राम बनाए ,
सो तेहि प्रगट होई आए।।"
श्री रामजी का धनुष बाण के साथ दर्शन
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महाराज जी को उन सभी भौतिक चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं थी, जो वे करना चाहते थे, वे अपने भगवान के बारे में अधिक जानते हैं और दुनिया में और कुछ भी उनके लिए मायने नहीं रखता था। जब वह ध्यान और प्रार्थना में व्यस्त रहते थे कुछ और महात्मा उससे प्रभावित हुए उनके वास्तविकता का परीक्षण करना चाहे। वह उनसे बोले यदि भगवान राम अपने धनुष वाण के साथ प्रकट हो तो मानेगे कि महात्मा जी उनके सच्चे सेवक है। महात्माओं के सुनने के बाद महराज जी चुप हो गये और इसका उत्तर नहीं दिये। किन्तु रामजी ने इसे नहीं छोड़ा । इसके कुछ देर के बाद रामजी धनुष बाण धारण किए हुए प्रकट हुए और सिद्व किये महराज जी उनके सच्चे भक्त है। महराज जी के सामने धनुष वाण के साथ लेकर देखने व मुस्कराने को महात्मा जन प्रभु जी का महराज जी पर आर्शीबाद मानने लगे।
कुएं में गिरे भगवान के विग्रह को खुद बाहर आना पड़ा :-
यहां राम सखा मंदिर और जानकी मंदिर आज भी इस परम्परा का निर्वहन कर रहे हैं। उनके भजनों का प्रभाव जल्द ही पन्ना के तत्कालीन महाराज (राजा) के ध्यान में आया। राजा महाराज जी के दर्शन करने आए और महाराज जी की भक्ति से बहुत प्रभावित हुए। यह भी कहा जाता है कि चित्रकूट में एक बार जब महाराज जी अपनी सुबह की दिनचर्या समाप्त करने के बाद अपने शालिग्राम भगवान की पूजा की तैयारी कर रहे थे, तभी अचानक से मूर्ति नीचे की ओर लुढ़क गई और पास के कुएं में गिर गई। इस कारण महाराज जी बहुत आहत व शोकाकुल हुए। रोते हुए उसने दुःख में एक दोहा का जाप किया। जैसे ही उन्होंने दोहा समाप्त किया, कुएं में पानी का स्तर नाटकीय रूप से बढ़ गया और मूर्ति ने उन्हें पानी पर नृत्य करते हुए देखा, महाराज जी अभिभूत हो गए और उन्होंने भगवान को दोनों हाथों से गले लगाया। इसके बाद महाराज जी खुशी-खुशी अपनी पूजा करने चले गए।
उचेहरा में अस्थाई  प्रवास :-
कुछ महात्मा यह भी बताते हैं कि महाराज जी के एक शिष्य उनके साथ रहे, वे लोगों से भिक्षा माँगते थे और ठाकुर जी के लिए भोग भी तैयार करते थे। ठाकुर जी के भोग के बाद, कई महात्माओं के पास प्रसाद था और वे संतुष्ट होकर लौटे। चित्रकूट में रहने के बाद महाराज जी उचेहरा (अब सतना जिला) में गए।लेकिन उन्हें वहाँ बहुत अच्छा नहीं लगा और संवत 1831में मैहर चले गए।
मैहर में तपोसाधना :-
मैहर आकार वह नीलमती गंगा के तट पर उन्होंने एक पर्णकुटी में गणेश जी के सामने भजन किया। बड़ा अखाड़ा एक प्राचीन मंदिर है। यह मंदिर शिव भगवान जी को समर्पित है। बड़ा अखाड़ा मंदिर में आपको मंदिर और आश्रम देखने के लिए मिल जाता है। यह मंदिर शिव भगवान जी को समर्पित है। यहां पर शिव भगवान जी की बहुत बड़ा शिवलिंग मंदिर के छत पर बना हुआ है, जो बहुत ही सुंदर लगता है। इसके अलावा मंदिर में 108 शिवलिंग विराजमान है। उनके दर्शन भी आप यहां पर आकर कर सकते हैं। यहां पर आपको एक प्राचीन कुआं भी देखने के लिए मिल जाएगा। यहां पर राम जी का मंदिर, गणेश जी का मंदिर और हनुमान जी का मंदिर भी है। आप इन सभी मंदिरों में घूम सकते हैं। बड़ा अखाड़ा में आपको आश्रम भी देखने के लिए मिलता है। आश्रम का जो प्रवेश द्वार है। वह बहुत ही खूबसूरत है। आश्रम के प्रवेश द्वार में आपको हनुमान जी की प्रतिमा देखने के लिए मिलती है और शंकर जी की प्रतिमा देखने के लिए मिलती है, जो बहुत ही खूबसूरत लगती है।  इस आश्रम के अंदर आपको बगीचा भी देखने के लिए मिल जाता है। यहां पर बहुत सारे ब्राह्मण विद्यार्थी रहते हैं, जिन्हें यहां पर शिक्षा दीक्षा दी जाती है।

श्री राम सखा जू महाराज,  हिंदू धर्म के माधव संप्रदाय के प्रतिपादक और अनुयायी थे, लगभग दो सौ साल पहले जयपुर से मैहर आए और मैहर में एक मठ की स्थापना की, जिसे "श्री राम सखेंद्र जू का अखाड़ा" कहा जाता है; कि उन्होंने अखाड़े में 'राम-जानकी' की एक छवि स्थापित की, जिसकी पूजा संप्रदाय के अनुयायी करते थे; कि कई व्यक्तियों ने अखाड़े को संपत्तियां दीं और मैहर के तत्कालीन शासक ने भी अखाड़े के रखरखाव और देवता की पूजा के लिए एक गांव दिया था। "बडा अखाड़ा" ट्रस्ट का गठन किया गया था और एक सोसायटी के रूप में पंजीकृत किया गया था।
        कम उम्र में रामलीला में शामिल होने के कारण, महाराज जी संगीत के साथ-साथ लेखन कौशल में भी पारंगत थे। उनका लेखन कौशल उनके कई पवित्र लेखन जैसे दोहावली,  कवितावली से स्पष्ट होता है। उन्होंने कई पवित्र लेखन जैसे अष्टयाम, स्वाधिष्ठान- प्रतिपादक और नृत्य राघव मिलन भी लिखे जो वास्तव में अभूतपूर्व हैं। उन्होंने द्वैत-भूषण नामक एक संस्कृत लेखन को लिखा था।अब महराज जी नित्य प्रति प्रभु का दर्शन पाने लगे थे।इस स्वरूप का वर्णन अपने पदों के माध्यम से करने लगे थे।उनके भक्त उसे याद करके घूमते फिरते और लोगों को सुनाया करते थे।
लखनऊ का नवाब आसफदौला उनका भक्त हो गया था 
सुना जाता है कि एक बार एक गायक ने लखनऊ के नवाब आसफुद्दौला के समक्ष को निम्न पंक्तियाँ गाईं-

“प्यारे तेरी छबीं वर ।वि

श्रामी वंदन कुमार दशरथ के मार जुल्फें कारियों ।।

तीखी सजल लाल अज्जन युत लागत खोलन प्यारियाँ ।।

राम सखे दृग ओटन हमको दो ना पल भर न्यारियाँ।।"

उपरोक्त पंक्तियों को सुनने के बाद नवाब आसफुद्दौला बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने गायक से लेखक के बारे में पूछा। उन्होंने उसे महाराज जी के बारे में बताया और यह भी बताया कि वह मैहर में रहते हैं। उन्होंने नवाब को यह भी बताया कि महाराज जी द्वारा लिखी गई कई अन्य उत्कृष्ट पंक्तियाँ हैं और कई गायक संगीत के कौशल को जानने के लिए उनकी पंक्तियों को गाते हैं। नवाब उस गायक की सूचना से बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने महाराज के लिए अपने संदेश के साथ अपने नाजिर सन्देशवाहक भेजा, जिसमें उनसे नवाब के स्थान लखनऊ  आने और अपना भजन सुनाने का अनुरोध किया था। बदले में
उन्हें प्रति वर्ष लगभग 3 लाख की राशि के साथ भेंट करने की बात कही थी। महाराज जी ने नरमी से यह कहते हुए धीरे से मना कर दिया कि उनके पास भगवान राम के साथ कुछ कमी नहीं है। जिस नाजिर सन्देशवाहक को सुनिश्चित करने के लिए उसने धन की एक झलक दिखाई, उसके लिए भगवान ने आश्चर्य चकित कर दिया था। वह नवाब के पास लौट आया और उसने वह सब कह सुनाया जो उसने वहां देखा था।

 मेंहर में अंतिम सांस :-

महाराज जी ने उन्नीसवीं संवत के प्रथम चरण यानी 1842 में मैहर में अमरता प्राप्त की। उनकी समाधि मैहर में ही है। उसे बड़ा अखाड़ा कहा जाता है। यहां राम जानकी मंदिर में आज भी इस पंथ की पुजा पद्वति प्रचलित है। राम सखेन्दु जी महराज के नाम से उनकी ख्याति आज भी विद्यमान है। (संदर्भ: भारतीय संस्कृति के रक्षक संत 51वें क्रम में उल्लखित )मैहर के पूर्व राजा की पत्नी ने भी दीक्षा प्राप्त की और साधु, महात्माओं के लिए जगह-जगह पर सहायता प्रदान की। राजस्थान के पुष्कर में राम सखा आश्रम में आज भी इस सम्प्रदाय के लोग पूजा आराधना करते है अयोध्या,  चित्रकूट, पुष्कर और मैहर सबसे प्रमुख स्थान हैं। रीवा, नागोद आदि क्षेत्रों में महाराज जी के शिष्यों की भारी संख्या है। 

Monday, September 5, 2022

ॐ कृं कृष्णाय नमः' मूल मंत्र


                       ॐ कृं कृष्णाय नमः'
यह श्रीकृष्ण का बताया मूलमंत्र है जिसके प्रयोग से व्यक्ति का अटका हुआ धन प्राप्त होता है। इसके अलावा इस मूलमंत्र का जाप करने से घर-परिवार में सुख की वर्षा होती है। धार्मिक उद्देश्यों के अनुसार यदि आप इस मंत्र का लाभ पाना चाहते हैं तो प्रातःकाल नित्यक्रिया व स्नानादि के पश्चात एक सौ आठ बार माला के जरिए इसका जाप करें।
         ऐसा करने वाले जातक अपनी सभी बाधाओं एवं कष्टों से सदैव मुक्त रहते हैं। इस मंत्र के जप से कहीं भी अटका धन तुरंत प्राप्त होता है। इस लिंक से इसे बहुत सामान्य तरीके से जाना जा सकता है।
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