Monday, May 30, 2022

बड़े मंगल के अवसर पर कुछ दुर्लभ जानकारी ब्रह्मचारी हनुमान जी विवाहित और पुत्रवान भी

पौराणिक शास्त्रों में रामभक्त के रूप में हनुमानजी की एक विशेष पहचान रखते हैं। उनके सभी भक्त यही मानते आए हैं कि वे बाल ब्रह्मचारी हैं। वाल्मीकि, कम्बन आदि किसी भी रामायण और रामचरित मानस में बालाजी के इसी रूप का वर्णन मिलता है। वे एक बाल ब्रह्मचारी के रूप में भी पूजे जाते हैं। सभी यही जानते हैं कि हनुमानजी ने कभी विवाह नहीं किया और जीवनभर एक ब्रह्मचारी भक्त के रूप में भगवान राम की सेवा करते रहे हैं । इसका यह अर्थ नहीं कि हनुमान बाल ब्रह्मचारी नहीं हैं ।पवनपुत्र का विवाह भी हुआ था उनके पुत्र भी रहे फिर भी और वो बाल ब्रह्मचारी भी रहे।
 कुछ शास्त्रों के अनुसार हनुमान जी के अविवाहित होने की बात पूरी तरह से सच नहीं है।भले ही लोग एक ब्रह्मचारी के रूप में उनकी पूजा करते हैं । शास्त्रों के अनुसार उन्होंने एक या दो नहीं बल्कि तीन-तीन शादियां की है। 
1. हनुमान जी की पहली पत्नी सुवर्चला है
पराशर संहिता में हनुमान जी की पहली पत्नी सुवर्चला का उल्लेख मिलता है। सुर्वचला सूर्य की पुत्री हैं। हनुमानजी सूर्य के शिष्य थे और सूर्य को उन्हें नौ विद्याओं का ज्ञान देना था। हनुमान जी ने पाँच विद्या आसानी से सीख ली लेकिन बाकी चार विद्या एक विवाहित ही सीख सकता था। बाकी चार विद्याओं को सीखने के लिए सूर्यदेव ने हनुमान को विवाह के लिए आदेश दिया और उनकी पत्नी के रूप में अपनी पुत्री सुवर्चला का चुनाव किया जो हमेशा तपस्या में लीन रहती थी। अपनी शिक्षा पूर्ण करने के लिए हनुमान सूर्य पुत्री सुवर्चला के साथ शादी के बंधन में बांध गए। शादी के बाद सुवर्चला सदा के लिए अपनी तपस्या में रत हो गई।इससे हनुमान जी का व्रत भी अखंडित रहा।
 तेलंगाना के खम्मम जिले में बना एक खास मंदिर याद दिलाता है कि रामदूत के उस चरित्र को विवाह के बंधन में बंधना पड़ा था। तेलंगाना के एक मंदिर में हनुमानजी और उनकी एक धर्मपत्नी की मूर्ति भी स्थापित है । इस मंदिर में अपनी पत्नी के साथ विराजमान हैं हनुमान जी। मान्यता है कि हनुमान जी के उनकी पत्नी के साथ दर्शन करने के बाद घर में चल रहे पति पत्नी के बीच के सारे तनाव खत्म हो जाते हैं। यहां हनुमान जी अपने ब्रह्मचारी रूप में नहीं बल्कि गृहस्थ रूप में अपनी पत्नी सुवर्चला के साथ विराजमान हैं।
2.अनंगकुसुमा का विवाह हनुमान जी से हुआ था
पउम चरित के अनुसार जब रावण और वरूण देव के बीच युद्ध हुआ तो, वरूण देव की तरफ से हनुमान ने रावण से युद्ध किया और रावण के सभी पुत्रों को बंदी बना लिया। युद्ध में हारने के बाद रावण ने अपनी दुहिता अनंगकुसुमा का विवाह हनुमान से कर दिया।
3. हनुमान जी का विवाह सत्यवती से भी
रावण और वरुण देव के बीच हुए इस युद्ध में हनुमान वरुण देव के प्रतिनिधि के रूप में लड़े और उन्होंने वरुण देव को विजय दिलाई। इस विजय से खुश होकर वरूण देव ने हनुमान जी का विवाह अपनी पुत्री सत्यवती से कर दिया।
एक पुत्र के पिता भी रहे हनुमान जी
पौराणिक कथा के अनुसार जब रावण के आदेश से हनुमान जी की पूँछ में आग लगा दी गयी। तो जलती हुई पूँछ से हनुमान ने सम्पूर्ण लंका नगरी को जला डाला। तीव्र गर्मी से व्याकुल तथा पूँछ की आग को शांत करने हेतु हनुमान समुद्र में कूद पड़े, तभी उनके पसीने की एक बूँद जल में टपकी जिसे एक मछली ने पी लिया, जिससे वह गर्भवती हो गई। इसी मछली से मकरध्वज उत्पन्न हुआ, जो हनुमान के समान ही महान् पराक्रमी और तेजस्वी था। मकरध्वज को उनका पुत्र कहा जाता है। '
एक दिन पाताल के असुरराज अहिरावण के सेवकों ने उस मछली को पकड़ लिया। जब वे उसका पेट चीर रहे थे तो उसमें से वानर की आकृति का एक मनुष्य निकला। वे उसे अहिरावण के पास ले गए। अहिरावण ने उसे पाताल पुरी का रक्षक नियुक्त कर दिया। यही वानर हनुमान पुत्र 'मकरध्वज' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
फिर भी आजीवन ब्रह्मचारी रहे हनुमान जी
भले ही शास्त्रों में इन विवाहों का जिक्र है लेकिन ये तीनों विवाह कुछ विशेष परिस्थितियों में किए गये थे और हनुमान जी ने कभी भी अपनी पत्नियों के साथ वैवाहिक जीवन का निर्वाह नहीं किया और आजीवन ब्रह्मचारी बने रहे।



Saturday, May 28, 2022

सरयू आरती को और लोकप्रिय किया जाय प्रस्तुति डा. राधे श्याम द्विवेदी

आरती’ शब्द संस्कृत के ‘आर्तिका’ शब्द से बना है जिसका अर्थ है अरिष्ट, विपत्ति, आपत्ति, कष्ट, क्लेश । भगवान की आरती को ‘नीराजन’ भी कहते हैं । नीराजन का अर्थ है ‘विशेष रूप से प्रकाशित करना’ । इस प्रकार मात्र तीन अक्षरों की आरती अपने में विशाल अर्थ  का बोध कराती है।
पंच महाभूतों की आरती
यह संसार पंच महाभूतों—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना है । आरती में ये पांच वस्तुएं (पंच महाभूत) रहते है— पृथ्वी की सुगंध—कपूर से , जल की मधुर धारा—घी से , अग्नि—दीपक की लौ से और वायु—लौ का हिलने से और आकाश—घण्टा, घण्टी, शंख, मृदंग आदि की ध्वनि से पूरा होता है। इस प्रकार सम्पूर्ण संसार से ही भगवान की आरती होती है ।
मानव शरीर से भी आरती
मानव शरीर भी पंचमहाभूतों से बना है । मनुष्य अपने शरीर से भी ईश्वर की आरती कर सकता है । वह अपने देह का दीपक, जीवन का घी, प्राण की बाती, और आत्मा की लौ सजाकर भगवान के इशारे पर नाचना—यही आरती है । इस तरह की सच्ची आरती करने पर संसार का बंधन छूट जाता है और जीव को भगवान के दर्शन होने लगते हैं ।
आरती का विधि विधान
भगवान की आरती उतारते समय चार बार चरणों में, दो बार नाभि पर, एक बार मुखमण्डल पर व सात बार सभी अंगों पर घुमाने का विधान है । इसके बाद शंख में जल लेकर भगवान के चारों ओर घुमाकर अपने ऊपर तथा भक्तजनों पर जल छोड़ दें । फिर  मन से ही ठाकुरजी को साष्टांग प्रणाम करें । इस तरह भगवान की आरती उतारने का विधान है । घर के पूजागृह में एक बाती की ही आरती करनी चाहिए । जबकि मन्दिरों में 5, 7, 11, 21 या 31 बातियों से आरती की जाती है ।भगवान की शुद्ध घी में डुबोई बाती से आरती करनी चाहिए । पूजन चाहे छोटा (पंचोपचार) हो या बड़ा (षोडशोपचार), बिना आरती के पूर्ण नहीं माना जाता है ।
आरती करने व देखने का महत्व
जिस प्रकार आरती के दीपक की बाती ऊपर की ओर रहती है उसी प्रकार आरती देखने, करने व लेने से मनुष्य आध्यात्मिक दृष्टि से उच्चता प्राप्त करता है । जो भगवान विष्णु की आरती को नित्य देखता है या करता है, वह सात जन्म तक ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर अंत में मोक्ष पाता है । कपूर से भगवान की आरती करने पर अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है साथ ही मनुष्य के कुल का उद्धार हो जाता है और अंत में साधक भगवान अनंत में ही मिल जाता है । घी की बाती से जो मनुष्य भगवान की आरती उतारता है वह बहुत समय तक स्वर्गलोक में निवास करता है ।
गंगा आरती की तर्ज पर अन्य नदियों में आरती
हरिद्वार की तर्ज पर बाद में गंगा आरती का आयोजन ऋषिकेश, वाराणसी, प्रयाग और चित्रकूट में भी होने लगा। हरिद्वार की गंगा आरती को देखते हुए 1991 में वाराणसी में दशाश्वमेध घाट पर प्रारंभ हुई थी।हरिद्वार में हर की पौड़ी को ब्रह्मकुंड कहा जाता है। इसी विश्वप्रसिद्ध घाट पर कुंभ का मेला लगता है और यहीं पर विश्व प्रसिद्ध गंगा आरती होती है। हरिद्वार की गंगा आरती जग प्रसिद्ध है। इस आरती का गवाह बनने सिर्फ भारतीय पर्यटक ही नहीं बल्कि विदेशी पर्यटक भी भारी मात्रा में आते हैं। गंगा की पवित्र लहरों के घाट जिसे हरि की पौड़ी के नाम से जाना जाता वहां पर हर संध्या को आरती की जाती है जो गंगा मैया को समर्पित है।आरती देखकर ऐसा लगता है जैसे प्रकृति ने स्थल को अपनी रोशनी से जगमगा दिया हो। गंगा आरती के समय मेला सा लग जाता है। ठीक उसी तर्ज पर अब गंगा नदी से मिलने वाली 13 सहायक नदियों के घाटों पर भी ऐसा नजारा दिखाई देगा। इन दिनोंप्रमुख नदियों के घाटों की सूरत बदल जाएंगी । नमामि गंगे परियोजना से गंगा से मिलने वाली रामगंगा, बेतवा, घाघरा, सरयू, राप्ती, वरुणा, काली, यमुना, हिंडन, गर्गो, केन, गोमती और सई के किनारे घाटों की सूरत बदली जाएगी।
सरयू संध्या आरती – अयोध्या
अयोध्या में शताब्दियों से सरयू आरती हो रही है।   देश और वि‍देशों में गंगा आरती को ही पहचान मि‍ली हुई है।  अब आरती के दौरान सरयू घाट की सफाई हो जाती है। साफ-सफाई से पर्यटन को बहुत बढ़ावा मिलता है।
सरयू आरती को कई स्थलों पर कराया जाए
सरयू घाट - नयाघाट - लक्ष्मण घाट पापमोचन गुप्तार और अन्य अनेक घाटों पर प्रतीकात्मक आरती होती है। इस पवित्र नदी में स्नान कर आरती करने का बड़ा महत्व माना जाता हैं प्रत्येक दिन शाम ढलते ही सरयू नदी के घाटो पर घंटियो के आवाज के साथ शंखनाद का मनोरम दृश्य के साथ सरयू की भव्य आरती का अयोजन किया जाता हैं.आरती के दौरान जब सारे पंडित बड़े बड़े पीतल के दीयों के समूह को घुमाते है, हम एक अनोखे आध्यामिक भावना से ओतप्रोत हो जाते हैं। वहां बजते संगीत और भजन इस प्रभामंडल को चार चाँद लगा देते हैं। पानी में पड़ता दीयों का प्रतिबिंब टिमटिमाते सितारों की तरह मालूम पड़ता है। महाआरती की मधुर आवाज़ पूरे घाट में गूंजती हुई सुनाई पड़ती है।
सरयू तट के स्वर्गद्वार घाट पर 2013 से ही सरकारी सहयोग से नित्य 1051 बत्ती की सरयू आरती का क्रम संचालित है। प्रतिदिन शाम 6:30 बजे 1051 बत्ती की आरती की जाती है। प्रत्येक माह की पूर्णिमा को 2100 बत्ती की आरती होती है।आरती के लिए पांच पुजारियों की नियुक्ति भी संस्थान द्वारा की गई है। अगर आप संध्याकालीन आरती का आनंद लेना चाहते हैं तो शाम के 6 बजे यहां पहुंच जाएं. हर घाट पर आपको घंटालों की गूंज और आरती के झूमते बड़े बड़े दीये नजर आ जाएंगे. आरती के इन मनभावन वक्त का आनंद तब और बढ़ जाता है जब आप नाव की सवारी करते हुए सरयू के बीच से उसे देखते हैं.नदियों के घाटों पर संध्या आरती भी २१वीं सदी का नवीन अनुष्ठान प्रतीत होता है। कुछ भी कहिये, हजारों की संख्या में नदी में तैरते, जलते हुए मिट्टी के दिए, यह एक अत्यंत ही मनोहार दृश्य होता है।
राम की पौड़ी के कारण लक्ष्मण और सहस्र धारा घाट की आरती उत्तम कोटि की सुख सुविधाओं और आकर्षण युक्त दिखाई देती है। सरयू के पुराने पुल के पूरब तरफ का विकास अच्छी तरह नही हुआ है। इसलिए सरयू नदी का समग्र लुक अच्छा नहीं दिखता है। थोड़ी सी जागरूकता थोड़ा सहयोग और थोड़ी सी प्रेरणा देकर इसे और अधिक जागरूक किया जा सकता है।





Monday, May 23, 2022

"जय श्रीराम" नाम से परहेज क्यों ? डा.राधे श्याम द्विवेदी

जय श्रीराम ( Jaya Śrī Rāma ) भारत में बहुत विशाल जन समूह द्वारा अपने आराध्य के सम्मान में की गई अभिव्यक्ति है, जिसका अनुवाद "भगवान राम की महत्ता" या "भगवान राम की विजय " के रूप में किया जाता है।  इस उद्घोषणा का उपयोग सनातनियो वा हिंदुओं द्वारा अनौपचारिक अभिवादन के रूप में,  हिंदू आस्था के पालन के प्रतीक के रूप में,  या विभिन्न आस्था-केंद्रित भावनाओं के प्रक्षेपण के लिए किया जाता रहा है।
अयोध्या में राम के प्रतीक को सम्मानित अभिव्यक्ति का इस्तेमाल भारतीय हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी), भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और उनके आनुषंगिक संगठनों द्वारा भी किया जा रहा है। एक नारे में "जय" का पारंपरिक उपयोग " सियावर रामचंद्रजी की जय " ("सीता के पति राम की विजय") के साथ है।  राम का आह्वान करने वाला एक लोकप्रिय अभिवादन "जय राम जी की" और "राम-राम" भी है। "राम" के नाम का अभिवादन पारंपरिक रूप से सभी धर्म के लोगों द्वारा अधिकाधिक उपयोग किया जाता रहा है। यह नमस्ते और प्रणाम से ज्यादा लोकप्रिय रहा है।
रामायण सीरियल से शुरुवात
1980 के दशक के उत्तरार्ध में, "जय श्री राम" का नारा रामानंद सागर की टेलीविजन श्रृंखला रामायण द्वारा लोकप्रिय किया गया था, जहाँ हनुमान और वानर सेना द्वारा सीता को मुक्त करने के लिए रावण की राक्षस सेना से लड़ते हुए युद्ध के रूप में इसका इस्तेमाल किया गया था। . हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन विश्व हिंदू परिषद , भारतीय जनता पार्टी सहित और उसके संघ परिवार के सहयोगियों ने अपने अयोध्या राम जन्मभूमि आंदोलन में इसका इस्तेमाल किया।  उस समय अयोध्या में स्वयंसेवक अपनी भक्ति को दर्शाने के लिए स्याही के रूप में अपने रक्त का उपयोग करते हुए, अपनी त्वचा पर नारा लिखते थे। इन संगठनों ने जय श्रीराम नामक एक कैसेट भी वितरित किया, जिसमें "राम जी की सेना चली" और "आया समय जवानों जागो" । इस कैसेट के सभी गाने लोकप्रिय बॉलीवुड गानों की धुन पर सेट थे। अगस्त 1992 में संघ परिवार के सहयोगियों के नेतृत्व में कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद के पूर्व में मंदिर की शिलान्यास रखी । यहां एक दिलचस्प बात यह है कि अभिवादन 'जय सिया राम' को 'जय श्री राम' के युद्ध घोष में परिवर्तित कर दिया गया है। अपनी अस्मिता और संस्कृति को बचाने के लिए यह अनुपयुक्त नही है।जब देश के बहुसंख्यक समाज को आए दिन "अल्लाह हो अकबर" और " वाहे गुरु" आदि अन्य घोष से कोई असुविधा नहीं होती तो "जय श्रीराम" या "बंदे मातरम" या "भारत माता की जय" से भी किसी को असुविधा नहीं होनी चाहिए।
गोधराआंदोलन में प्रयोग
फरवरी 2002 में गोधरा ट्रेन में आग लगने की घटनाओं से पहले गुजरात विहिप और बजरंग दल जैसे उसके संबद्ध संगठनों के समर्थक, जो की अयोध्या की यात्रा पर जा रहे थे, ने रास्ते में मुसलमानों को "जय श्री राम" का जाप करने के लिए मजबूर किया,   और अपनी वापसी की यात्रा पर, उन्होंने गोधरा सहित "हर दूसरे स्टेशन" पर भी ऐसा ही किया।एसा उस समय सैकड़ों कारसेवकों को धोखे से षड्यंत्र के तहत निर्मल जलाने के कुत्सित क्रिया के प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ था। राम जन्मभूमि पर समारोह में शामिल होने के लिए ये यात्राएं साबरमती एक्सप्रेस में की गईं। 2002 के गुजरात दंगों के दौरान, विहिप द्वारा वितरित एक पत्रक में नारे का इस्तेमाल किया गया था ।
 राजनीति में प्रयोग
जून 2019 में, इस नारे का इस्तेमाल मुस्लिम सांसदों को परेशान करने के लिए किया गया था जब वे 17 वीं लोकसभा में शपथ लेने के लिए आगे बढ़े थे।उस वर्ष जुलाई में, नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने एक भाषण में कहा था कि नारा "बंगाली संस्कृति से जुड़ा नहीं था", जिसके कारण कुछ अज्ञात समूहों ने कोलकाता में होर्डिंग पर उनका बयान प्रकाशित किया। इस नारे का इस्तेमाल पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को कई मौकों पर परेशान करने के लिए भी किया गया है, जिससे उनकी नाराज़ प्रतिक्रियाएँ आयीं । अगस्त 2020 में राम मंदिर, अयोध्या के शिलान्यास समारोह के बाद, नारे को उत्सव में एक मंत्र के रूप में इस्तेमाल किया गया था।अयोध्या विवाद पर 2019 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद वकीलों द्वारा इस नारे का इस्तेमाल किया गया था। सब मिलकर ये नारा किसी को उकसाने या चिढ़ाने के लिए नहीं किया जाना चाहिए।कांग्रेस पार्टी, तृण मूल पार्टी ,आम आदमी पार्टी ,समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी ,कम्यूनिष्ट पार्टी,टुकडे टुकडे गैंग आदि ने हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन विश्व हिंदू परिषद , भारतीय जनता पार्टी सहित और उसके संघ परिवार के सहयोगियों पर निशाना साधते हुए जय श्री राम नाम को संकुचित राजनीतिक बताकर दुष्प्रचार कर रहे हैं।
लोकप्रिय अभिवादन
'सिया राम' अनादि काल से ग्रामीण इलाकों में स्वागत का एक लोकप्रिय अभिवादन रहा है। हिंदू के कुछ प्रेमियों  ने अब इस लोकप्रिय अभिवादन से सिया को बदलकर ' श्री ' (प्रभु) कर दिया है, जिससे पुरुषवादी पौरुष और मुखरता के पक्ष में स्त्री तत्व तात्कालिक किंचित परित्याग दिख रहा है । 1992 में दंगों और बाबरी मस्जिद के विध्वंस के दौरान भी यही नारा लगाया गया था।  यदि इस तरह की एकजुटता और प्रयास निरंतर नही होता तो आज देश बाबरी के कलंक से अवमुक्त ना हो पाता।
निष्कर्ष
परम ब्रह्म तो भावना भक्ति को महत्व देते हैं ।जय सियाराम कहना तो अति उत्तम है ही ,जय श्री राम की नाद या घोष भी उन तक पहुंचेगी। यदि इस नाम के से कोई प्रभु का राष्ट्र का समाज का या अपना कोई स्वार्थ सिद्ध कर ले तो ये राजनीतिक रोटी तो नही होगी।आत्म संतुष्टि तो रोटी से ही होती है।चाहे खेत से या बाजार से या राज धर्म से मिली हो।भगवान राम ने भी धर्म का ध्रुवीकरण कर लंका पर विजय पाई थी। प्रभु राम भी सरल चित्त वाले को पसंद करते है। वे तो बाबा तुलसी के इस विचार को अंगीकार करते हैं --
निर्मल जन मन सो मोहि पावा।मोहि कपट छल छिद्र ना भावा।
चाहे कोई प्राणी अघमोचन कहे या घमोचन। "मरा मरा" कहने वाला उत्तम गति को पा सकता है तो जय श्रीराम क्यों नही?
श्री राम जी को सब कुछ स्वीकार है जय श्री राम जी और जय सियाराम जी भी।इसलिए अनर्गल प्रलाप से बचना चाहिए। जय श्री राम जी।जय सियाराम जी की।

Saturday, May 21, 2022

1991 उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम का स्पष्टीकरण प्रस्तुति : डा.राधे श्याम द्विवेदी एडवोकेट


1991 उपासना स्थल अधिनियम का उद्देश्य स्पष्ट रूप से कहता है कि यह किसी भी पूजा स्थल के रूपांतरण को प्रतिबंधित करेगा और यह सुनिश्चित करेगा कि उसका धार्मिक रूप वैसा ही रहे, जैसा कि वह 15 अगस्त, 1947 को अस्तित्व में था। अधिनियम में धारा 3 और धारा 4 इसी आधार पर तैयार की गई हैं. 
अधिनियम की धारा 3 किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी भी धार्मिक संप्रदाय या वर्ग के पूजा स्थल के धर्मांतरण पर रोक लगाती है. वहीं अधिनियम की धारा 4 में यह स्पष्ट रूप से घोषित किया गया है कि किसी भी पूजा स्थल का रूप वही रहेगा जो स्वतंत्रता प्राप्ति के समय 15 अगस्त 1947 को था. साथ ही इस धारा में ये भी लिखा है कि 15 अगस्त 1947 को किसी स्थान के धर्म परिवर्तन से संबंधित किसी भी मौजूदा मुकदमे को अधिनियम शुरू होने के बाद समाप्त माना जाएगा और किसी भी अदालत में उसी मुद्दे पर आगे कोई मुकदमा या कानूनी कार्यवाही नहीं होगी.
अधिनियम में ये भी निर्धारित किया गया है कि किसी भी कानूनी कार्यवाही के तहत अदालत पूजा स्थल के उसी धार्मिक चरित्र को बनाए रखने की कोशिश करेगी जिसमें वह 15 अगस्त 1947 को मौजूद था. हालांकि यदि कोई वाद, अपील या कोई अन्य कानूनी कार्यवाही इस आधार पर स्थापित या दायर की जाती है कि 15 अगस्त 1947 के बाद ऐसे किसी स्थान के धार्मिक स्वरूप में धर्मांतरण हुआ है, तो उसका निपटारा 1991 के अधिनियम की धारा 4 (1) के अनुसार किया जाएगा. वहीं अगर कोई धारा 3 के प्रावधानों का उल्लंघन करता है या उकसाने का प्रयास या कृत्य करता है तो दोषी को धारा 6 के तहत तीन साल की कैद और जुर्माने की सजा देने का प्रावधान रखा गया है.
 कुछ मामलों में छूट
कुछ ऐसे भी मामले हैं जिन पर यह अधिनियम लागू नहीं होता है। पूजा के स्थान (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 में धारा 4(3)(3) उप-धारा (1) और उप-धारा (2) में निहित कुछ भी लागू नहीं होगा ---
(ए )प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 पर लागू नहीं। उक्त उपखंडों में निर्दिष्ट कोई पूजा स्थल जो एक प्राचीन और ऐतिहासिक स्मारक या पुरातात्विक स्थल है या प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 (1958 का 24) या किसी अन्य कानून द्वारा कवर किया गया है कुछ समय के लिए लागू। 
 है. यह अधिनियम न तो किसी भी ऐसे पूजा स्थल पर लागू होता है जो एक प्राचीन और ऐतिहासिक स्मारक या पुरातात्विक स्थल है या फिर प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 के तहत आती है।ताज महल कुतुब मीनार इदगाह मस्जिद और देश के अधिकांश संरक्षित स्मारक पर भी उपासना अधिनियम लागू नहीं होगा।
(बी) उप-धारा (2) में निर्दिष्ट किसी भी मामले के संबंध में कोई मुकदमा, अपील या अन्य कार्यवाही, इस अधिनियम के प्रारंभ से पहले अदालत, न्यायाधिकरण या अन्य प्राधिकरण द्वारा अंतिम रूप से तय, निपटाया या निपटाया गया।
(ग) ऐसे प्रारंभ से पहले पक्षों द्वारा आपस में सुलझाए गए ऐसे किसी मामले के संबंध में कोई विवाद।
(डी) किसी ऐसे स्थान का कोई रूपांतरण जो ऐसे प्रारंभ से पहले परिचित द्वारा किया गया हो।
(ई) ऐसे प्रारंभ से पहले किए गए किसी भी ऐसे स्थान का कोई भी परिवर्तन जो किसी भी अदालत, न्यायाधिकरण या अन्य प्राधिकरण में चुनौती देने के लिए उत्तरदायी नहीं है, जो कि किसी भी कानून के तहत सीमित समय के लिए प्रतिबंधित है।
(एफ). इसके अलावा ये पक्षों या अदालत द्वारा निपटाए गए किसी भी विवाद पर लागू नहीं होता है। वहीं अधिनियम की धारा 5 विशेष रूप से राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को इसके दायरे से बाहर करती है क्योंकि यह मामला पहले से ही लंबे समय से सार्वजनिक हो चुका था।
ज्ञानवापी मस्जिद विवाद में अधिनियम की प्रासंगिकता 
ज्ञानवापी मस्जिद मुद्दे की जड़ें 1991 में काशी विश्वनाथ मंदिर के भक्तों द्वारा दायर की गई एक याचिका से जुड़ी हैं. याचिका में दावा किया गया था कि यह मस्जिद एक मंदिर के ऊपर बनी है और इसलिए यहां हिंदुओं को पूजा करने की अनुमति होनी चाहिए. याचिका में यह भी अपील की गई है कि इस जमीन पर मुसलमानों के किसी भी तरीके के हस्तक्षेप को स्थायी रूप से रोका जाना चाहिए. कुछ समय पहले साल 2021 में, वाराणसी कोर्ट में हिंदू महिला भक्तों द्वारा एक याचिका दायर की गई थी जिसमें ज्ञानवापी मस्जिद क्षेत्र में प्राचीन मंदिर की मुख्य सीट पर अनुष्ठान के प्रदर्शन की बहाली का अनुरोध किया गया था.
1958 में लागू किए गए प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम के तहत प्राचीन स्मारक को इस तरह परिभाषित किया गया है – यह स्मारक ऐतिहासिक, पुरातात्विक या कलात्मक रुचि का होना चाहिए और इसका अस्तित्व कम से कम सौ वर्ष पुराना होना चाहिए. ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार, मुगल सम्राट औरंगजेब ने 16वीं शताब्दी में ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण करवाया था. इस तरह प्राचीन स्मारकों की परिभाषा और ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर देखा जाए तो ज्ञानवापी मस्जिद परिसर को प्राचीन स्मारकों की श्रेणी में रखा जा सकता है. अब अगर कोई पूजा स्थल एक प्राचीन स्मारक के रूप में स्थापित हो जाता है, तो इस तरीके से यह 1991 के अधिनियम के दायरे से भी बाहर हो जाता है।
ज्ञानवापी विवाद: -
सुप्रीम कोर्ट ने Places of Worship Act पर बड़ी बात कही है।जस्टिस चंद्रचूड़ बोले- धार्मिक स्थल का चरित्र तय करना भी हमारा काम है। यह कथन हिंदू पक्ष के लिए बहुत राहत भरा है। मुस्लिम पक्ष ने सुप्रीम कोर्ट में 1991 के Places of Worship Act ऐक्ट का जिक्र किया और कहा कि ज्ञानवापी के सर्वे का आदेश देना गलत था। सुप्रीम कोर्ट ने इसी कानून के सेक्शन 3 का जिक्र किया और कहा कि सर्वे गलत नहीं था। उच्चतम न्यायालय के बेंच के सीनियर सदस्य जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि धार्मिक स्थल का चरित्र तय करना भी हमारा कम है। 1991 के कानून का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, 'भूल जाइए कि वाराणसी में एक तरफ मस्जिद है और दूसरी तरफ मंदिर है। मान लीजिए कि पारसी मंदिर है और उसके एक कोने पर क्रॉस पाया जाता है। फिर क्या इसे क्रॉस अग्यारी कहा जाएगा या फिर अग्यारी क्रिश्चियन कहा जाएगा? हम इस हाइब्रिड कैरेक्ट से अनजान नहीं हैं।' इस तरह ऐसी मिली-जुली चीजें पाए जाने पर एक पारसी पूजा स्थल क्रिश्चियन स्थान नहीं हो सकता और न ही ईसाई स्थान को पारसी मंदिर नहीं माना जा सकता। किसी भी स्थान का ऐसा हाइब्रिड कैरेक्टर हो तो फिर उसके निर्धारण के लिए जांच हो सकती है।




Tuesday, May 17, 2022

बुद्ध के अस्तित्व के बारे में भ्रम और षडयंत्र डा. राधेश्याम द्विवेदी

                   हिंदू धर्म के सनातनी बुद्ध
बुद्ध का शाब्दिक अर्थ है,जागृत होना, सतर्क होना तथाजितेन्द्रिय होना। वस्तुतः बुद्ध एक व्यक्ति विशेष का परिचायक न होकर स्थितिविशेष का परिचायक है। वर्तमान समय में बुद्ध शब्द का व्यापकप्रयोग राजकुमार सिद्धार्थ के परिव्राजक रूप के लिए किया जाता हैजो सत्य नहीं है। सनातन धर्म की प्रवृत्ति प्रारम्भ से ही बड़ी उदार है।हमारे यहाँ किसी भी विषय, सिद्धांत और मत पर व्यापक चर्चा एवं विमर्श का स्थान सदा उपलब्ध रहा है। इसीलिए हमारे धर्मशास्त्रों में एक अंग दर्शनग्रन्थ का भी है। दर्शन का अर्थ है, देखना। यहाँ दर्शन का अर्थ है, धर्म को देखने का नजरिया। आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन, दोनों की व्यवस्था हमारे यहाँ की गयी है। आस्तिक दर्शन में पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा, सांख्य, योग, न्याय तथा वैशेषिक दर्शन का नाम आता है, तथा नास्तिक दर्शन में बौद्ध, जैन तथा चार्वाक दर्शन का नाम आता है।
सहस्रों बुद्धों के साथ कलियुग में तीन बुद्ध हुए ये एक नहीं हुए हैं। सहस्रों बुद्धों का आगमन हो चुका है, तथा सहस्रों बुद्ध आयेंगे। इसीलिए वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड में बौद्ध को चोरों की भांति दंड देने कि बात आई है। इससे सिद्ध होता है कि वाल्मीकि के आगमन से पूर्व भी बौद्ध मत था। प्रवीण,निपुण, अभिज्ञ, कुशल, मैत्रेय, गौतम, कश्यप, शक्र, अर्यमा, शाक्यसिंह , क्रतुभुक, कृती, सुखी, शशांक, निष्णात, सत्व, शिक्षित, सर्वज्ञ, सुनत, रुरु, मारजित, बुद्ध, प्रबुद्ध आदि कई बुद्ध का वर्णन आता है। इनमें वर्तमान कलियुग में बुद्ध के तीन अवतार हुए। भगवान् बुद्ध ,सिद्धार्थ बुद्ध और गौतम बुद्ध तीनों अलग अलग हैं। भगवान् बुद्ध 2102-1982 ई पू में हुए , सिद्धार्थ बुद्ध 1887-1807 ई पू में हुए और गौतम बुद्ध 563-483 ई पू में हुए। अर्थात, गौतम ही नहीं, गौतम भी बुद्ध हैं। लोगों में यह भ्रम है कि गौतम ही बुद्ध थे । एक दूसरा भ्रम यह भी व्याप्त है कि गौतम बुद्ध नहीं थे, बल्कि बुद्ध कोई और थे। जबकि सत्य यह है कि गौतम ही नहीं, गौतम भी बुद्ध थे।
वस्तुतः बुद्ध एक नहीं बहुत हैं। जैसे कि पूर्व में बताया गया कि बुद्ध मात्र एक स्थिति विशेष का नाम है, तो उस स्थिति में पहुँचने वाला हर प्राणी बुद्ध कहलाया। ग्रंथों में गर्ग मुनि इत्यादि के मत का वर्णन आता कि तीन अवतार ऐसे हैं, जो हर द्वापर तथा कलियुग में होते है। ये तीन अवतार हैं, व्यास, बुद्ध तथा कल्कि है। शेष सभी अवतार कल्प में एक बार होते हैं। इनमें व्यास का कार्य है, वेदों का विभाजन, पुराणों का संकलन, तथा ग्रंथों का संरक्षण। बुद्ध का कार्य है, समाज में जो लोग धर्म के नाम पर पाखंड तथा पशु हिंसा आदि करें, ऐसी आसुरी सम्पदा से युक्त पुरुषों को मायामय उपदेश के द्वारा सनातन से विमुख करना। कल्कि अवतार का उद्देश्य है, बौद्ध, जैन तथा म्लेच्छों का विनाश करके पुनः विशुद्ध सनातन को स्थापित करना तथा व्यवस्था परिवर्तन करना।
भगवान् बुद्ध के वर्तमान प्रमुख अवतरणः-
भगवान् बुद्ध के दो प्रमुख अवतारों का उल्लेख मिलता है। पहला पौराणिक विष्णु के समान्य अवतारों में तेईसवें क्रम में रहने वाले भगवान बुद्ध और प्रमुख दशावतार का नवें क्रम में रहने वाले पौराणिक बौष्णव बुद्ध अवतार और दूसरा एतिहासिकशाक्यमुनि गौतम बुद्ध का अवतार है जो व्यवहारिक रुप में ज्यादा प्रचलन में है।
आधुनिक मान्यता के अनुसार गौतम बुद्ध को ही बुद्धावतार मानाजाता है परन्तु पुराणों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि गौतम तथा बुद्ध दोनो भिन्न व्यक्ति थे। कृष्णावतार के बाद बुद्धावतार की भविष्यवाणी भगवान वेदव्यास जी ने की है। विडंबना है कि लुम्बिनी में जन्म लिए युवराज गौतमबुद्ध को ही इतिहासकारों ने भगवान बुद्ध बना दिया और सनातन हिन्दू वैदिक अवतार के रूप में जो मूल पुरातन भगवान बुद्ध हुए उनके बारे में प्रर्याप्त प्रचार प्रसार नहीं हुआ। इस पुरातन बुद्ध ने बोध गया में जो ज्ञान पाया वह वास्तविक भगवान बुद्ध से ही पाया लेकिन इतिहास के अल्पज्ञानियों और सनातन के विरुद्ध षड्यंत्र करने वालों ने गौतम बुद्ध को ही भगवान बुद्ध घोषित कर दिया। वास्तविक भगवान बुद्ध से ही अहिंसा का पाठ लेकर अपने नए पंथ मत के प्रसार करने वाले गौतम बुद्ध और वास्तविक भगवान बुद्ध में अंतर को लेकर अभी तक भारत के विद्वानों या शोधकर्ताओं ने कोई निर्णायक कार्य भी नहीं किया। 
सभी पंथों में मतेकता
पौराणिक, वैदिक और शास्त्री जन एक मत को व्यक्त करते हंै। इनमें कोई भेद नहीं क्योंकि धर्ममय वृक्ष के वेद मूल हैं, शास्त्र शाखा है, पुराण पत्ते हैं, काव्य और प्रकरण ग्रन्थ ही पुष्प हैं, अभ्युदय फल हैतथा कल्याण ही उसका रस है। मूल के बिना वृक्ष का अस्तित्व नहीं।
अतः रुद्रयामल तन्त्र, श्रीमद्देवीभागवत महापुराण, स्मृतिग्रन्थ, भविष्य पुराण आदि में वेदों को स्वतः प्रमाण तथा अन्य को परतः प्रमाण की संज्ञा दी गयी है। वेदमूल धर्म की शाखा व्याकरण, निरुक्त आदि वेदांग शास्त्र हैं जो इसे समझने में सहायता करते हैं। पुराण वेदवाक्यों को अपनाने का सुपरिणाम और उल्लंघन के दुष्परिणाम के दृष्टान्त देकर समझाते हैं। काव्य उनके प्रचार का प्रत्यक्षीकरण करते हैं। अतः “अधीतिबोधाचरण प्रचारणैः ” में क्रमशः वेद, शास्त्र, पुराण तथा काव्य का ही संकेत है। भगवान् विष्णु के सामान्य अवतारों में बुद्धअवतार को 23वां और प्रमुख अवतारों में नौंवा अवतार बताया जाता है। बुद्ध अवतार रूप में विष्णु का यह अंतिम अवतार है। वैदिक बुद्ध अवतार कर्मकांड व यज्ञ से होने वाली बलि हिंसक कृत्य को दूर करने के लिए विष्णु ने बुद्ध के रूप में अवतार लिया था। लेकिन भगवान बुद्ध के निर्वाण के मात्र 100 वर्ष बाद ही बौद्धों में मतभेद उभरकर सामने आने लगे थे। वैशाली में सम्पन्न द्वितीय बौद्ध संगीति में थेर भिक्षुओं ने मतभेद रखने वाले भिक्षुओं को संघ से बाहर निकाल दिया। अलग हुए इन भिक्षुओं ने उसी समय अपना अलग संघ बनाकर स्वयं को महासांघिक और जिन्होंने निकाला था उन्हें हीनसांघिक नाम दिया। जिसने कालांतर में महायान और हीनयान का रूप धारण कर किया।
गौतम बुद्ध भगवान विष्णु के नौवें अवतार के प्रमाण इन ग्रंथों में वर्णित है - हरिवंश पर्व (1.41) , विष्णु पुराण (3.18), भागवतपुराण (1.3.24, 2.7.37, 11.4.23) , गरुड़ पुराण (1.1, 2.30.37, 3.15.26) , अग्निपुराण (16), नारदीय पुराण (2.72) , लिंगपुराण (2.71) और पद्म पुराण (3.252) आदि।
बुद्ध भगवान के अवतार
इसका प्रमाण भी पुराणों में प्राप्य इस रुप में व्यक्त है।
एतस्मिनैव काले तु कलिना संस्मृतो हरिः।
काश्यपादुद्भवो देवो गौतमो नाम विश्रुतः।
बौद्धधर्मं समाश्रित्य पट्टणे प्राप्तवान्हरिः।
(भविष्य पुराण)
कलियुग की प्रार्थना पर काश्यप गोत्र में भगवान विष्णु ने गौतम के नाम से अवतार लेकर बौद्धधर्म का विस्तार करते हुए पटना चले गये। पुनः लोग यह शंका करेंगे कि हमें राजा शुद्धोदन का भी नाम चाहिये, तो इसका प्रमाण भी उपलब्ध होता है।
शुद्धोदनस्तमालोक्य महासारं रथायुतैः प्रावृतं तरसा
मायादेवीमानेतुमाययौ ३. बौद्धा शौद्धोदनाद्यग्रे कृत्वा तामग्रतः पुनःयोद्धुं समागता म्लेच्छकोटिलक्षशतैर्वृताः (कल्कि पुराण,)
इस प्रसंग में वर्णन है कि जब कल्कि जी बौद्धों और म्लेच्छों का विनाश करने लगेंगे तो बुद्ध, उनके पिता शुद्धोदन तथा माता मायादेवी पुनः प्रकट होंगे तथा म्लेच्छों के साथ मिलकर कल्कि जी से युद्ध करेंगे। इसी युद्ध के वर्णन के अंतर्गत वर्णन है कि जब शुद्धोदन हारकर मायादेवी को बुलाने चला गया तो बौद्धों ने शुद्धोदन के पुत्र का आश्रय लेकर लाखों करोड़ों म्लेच्छों कि सहायता से युद्ध करना आरम्भ किया। इस प्रकार से सभी प्रमाणों को एक साथ देखा जाय तो बुद्ध कई हैं, तथा सभी अवतार ही हैं जो उद्देश्य विशेष से यथासमय आते हैं। यदि प्रकाश में व्यक्ति हत्या कर रहा हो तो जान बचाने वाला अन्धकार कर देता है। वैसे ही जब धर्म का नाम लेकर
म्लेच्छों में ब्राह्मण बन कर अधर्म प्रारम्भ किया तो उन्हें ठीक करने के लिए भगवान ने बुद्ध के रूप में आकर कहा कि जिस ईश्वर और धर्म के नाम पर तुम ये सब कर रहे हो, उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। बाद में जयदेव कवि आदि ने भी कारुण्यमातान्वते, निन्दसि यज्ञविधे,सदय पशुघातम् आदि शब्दों के द्वारा इसी बात को प्रमाणित किया कि श्रीहरि का ही अवतार भिन्न भिन्न समयों में बुद्ध को रूप में हुआ था ।
काश्यप गोत्र में भगवान विष्णु ने गौतम के नाम से अवतार लेकर बौद्धधर्म का विस्तार करते हुए पटना चले गये। पुनः लोग यह शंका करेंगे कि हमें राजा शुद्धोदन का भी नाम चाहिये, तो इसका प्रमाण भी उपलब्ध होता है।
"शुद्धोदनस्तमालोक्य महासारं रथायुतैः प्रावृतं तरसा
मायादेवीमानेतुमाययौ ३. बौद्धा शौद्धोदनाद्यग्रे कृत्वा तामग्रतः पुनः योद्धुं समागता म्लेच्छकोटिलक्षशतैर्वृताः” (कल्कि पुराण,)।

इस प्रसंग में वर्णन है कि जब कल्कि जी बौद्धों और म्लेच्छों का विनाश करने लगेंगे तो बुद्ध, उनके पिता शुद्धोदन तथा माता मायादेवी पुनः प्रकट होंगे तथा म्लेच्छों के साथ मिलकर कल्कि जी से युद्ध करेंगे। इसी युद्ध के वर्णन के अंतर्गत वर्णन है कि जब शुद्धोदन हार कर मायादेवी को बुलाने चला गया तो बौद्धों ने शुद्धोदन के पुत्र का आश्रय लेकर लाखों करोड़ों म्लेच्छों कि सहायता से युद्ध करना आरम्भ किया। इस प्रकार से सभी प्रमाणों को एक साथ देखा जाय तो बुद्ध कई हैं, तथा सभी अवतार ही हैं जो उद्देश्य विशेष से यथासमय आते हैं। यदि प्रकाश में व्यक्ति हत्या कर रहा हो तो जान बचाने वाला अन्धकार कर देता है। वैसे ही जब धर्म का नाम लेकर
म्लेच्छों में ब्राह्मण बन कर अधर्म प्रारम्भ किया तो उन्हें ठीक करने के लिए भगवान ने बुद्ध के रूप में आकर कहा कि जिस ईश्वर और धर्म के नाम पर तुम ये सब कर रहे हो, उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। बाद में जयदेव कवि आदि ने भी कारुण्यमातान्वते, निन्दसि यज्ञविधे,सदय पशुघातम् आदि शब्दों के द्वारा इसी बात को प्रमाणित किया कि श्रीहरि का ही अवतार भिन्न भिन्न समयों में बुद्ध को रूप में हुआ था ।
नास्तिक बौद्ध दर्शन का आश्रय लेकर विष्णु भक्तों को भ्रमित करनाः-
वर्तमान में तथाकथित नवबौद्ध आदि बुद्ध के मूल सिद्धांत को न जानने के कारण घोर अनर्थ करते हैं। क्योंकि बुद्ध ने समाज में व्याप्त कुरीतियों के फोड़े को काट कर हटाया और शेष को सुरक्षित किया। लेकिन कथित बौद्धगण स्वस्थ देह का गला ही काट दे रहे हैं। वस्तुतः यह सब कुछ पूर्व नियोजित था कि सनातन में घुसपैठ किये म्लेच्छों को नास्तिक बौद्ध दर्शन का आश्रय लेकर विष्णु भगवान भ्रमित करके उन्हें सनातन से वापस दूर करेंगे तथा इस प्रक्रिया में जो भी कुछ सनातनियों में भ्रम व्याप्त होगा उसे बाद में उचित अवसर पाकर कुमार कार्तिकेय तथा भगवान शिव क्रमशः आचार्य कुमारिल भट्ट तथ
आदिगुरू शंकराचार्य के रूप में आकर ठीक करेंगे। निष्कर्ष यह निकलता है कि बुद्ध निःसंदेह नारायण के अवतार हैं तथा उनका उद्देश्य तथा कर्तव्य सही था। बुद्ध सही थे, बौद्ध नहीं।
अजिन पुत्र बौष्णव बुद्धः-
धर्मसम्राट् करपात्री स्वामी आदि ने इसलिये गौतम बुद्ध को अवतरण नहीं माना क्योंकि अम्बेडकर के बौद्ध बन जाने से अंग्रेजों ने सवर्ण तथा दलित नाम का जो कथित विभाजन किया था, उसमे दलित जन सनातन विरोधी हो रहे थे। साथ ही वे यह भी मानते थे कि गौतम ही एक मात्र बुद्ध हैं। उससे पहले कोई बुद्ध नहीं हुआ। इसीलिए करपात्री जी ने गौतम को अवतरण नहीं मानने की दूरगामी नीति अपनायी ताकि लोग बाद में भ्रमित न हों। साथ ही उन्होंने अजिन पुत्र पर भी जोर दिया। यदि गौतम से विरोध होता तो आचार्य शंकर, आचार्य कुमारिल तथा आचार्य उदयन आदि, जो गौतम से कुछ ही
समय बाद हुए थे, कभी न कभी कहीं न कहीं यह जरूर कहते कि अजिन पुत्र ही वास्तव में बुद्ध अवतार हैं। यह गौतम नाम का आदमी फर्जी बुद्ध था। लेकिन एसा कभी नहीं हुआ। क्योंकि वे इस बात को अच्छे से जानते थे। आदिगुरु ने कभी गौतम के अवतार न होने की बात कही ? या ये कि वो फर्जी बुद्ध है। एक मात्र अंजन पुत्र ही बुद्ध हैं। और केवल वे ही
अवतार हैं। कुमारिल भट्ट या आचार्य उदयन ने भी नहीं कहा। जबकि गौतम के सबसे निकट समकालीन बौद्ध खंडक तो वही लोग थे। इसका कारण अम्बेडकर के बौद्ध बनने से सनातनियों का बड़ा वर्ग जो अंग्रेजों की कूटनीति का शिकार था, बुद्ध की ओर आकर्षित हुआ। यदि धर्मसम्राट जी जैसा अतिमान्य व्यक्तित्व यह कहता कि गौतम बुद्ध विष्णु के अवतार हैं तो बाकी सुधरे हुए सनातनियों में यह भ्रम होता
कि विष्णु के कृष्ण और बौद्ध अवतार के उपदेश में इतनी विसंगति क्यों है। मूल उद्देश्य जो अवतारों का था, उससे वे परिचित तो थे नहीं। अब बुद्ध का मत भौतिकवादी है। मायाप्रधान है। बहुत लुभावना है, बहुत आकर्षक है। अतः यदि उन्हें विष्णु का अवतार कह देते तो लोग और तेजी से बुद्ध की ओर भागते। ये कह कर कि बौद्ध बनने से हमें भौतिकवाद का लाभ मिलेगा और लोग हमें गलत भी नहीं कहेंगे क्योंकि बुद्ध तो विष्णु के अवतार थे। अतः उन्होंने सीधा कह दिया कि
गौतम बुद्ध विष्णु के अवतार ही नहीं है। यहाँ ध्यान दें कि नीति
उन्होंने वही अपनायी जो विष्णु भगवान् ने बौद्धवतार में लगायी थी।
ईश्वर के नाम पर अधर्म करने वालों को यह कह कर रोका कि ईश्वर ही नहीं है। इस प्रकर धर्मसम्राट करपात्री स्वामी जी ने सनातन का बहुत बड़ा वर्ग बचा लिया जो बौद्ध बनने जा रहे थे। अब जैसे हमारे हजारों जन्मों में हजारों माता पिता हुए, पर हमने उसी को प्रधानता दी, उसी से प्रभावित हुए जो सबसे अर्वाचीन है। वैसे ही सभी लोग अंजन पुत्र की अपेक्षा गौतम से अधिक प्रभावित हुए। अब गौतम का विरोध करने से एसे लोग, जो यह सोच रहे थे कि बौद्ध मत का लाभ लेंगे लेकिन धर्मभीरु होने से बौद्ध मत को भी सनातन ही मान रहे थे,यह कह कर कि गौतम बुद्ध विष्णु के अवतार हैं, अतः हम सही हैं,ऐसे लोगों पर विराम लग गया।
आधुनिक मान्यता के अनुसार गौतम बुद्ध को ही बुद्धावतार माना जाता है। धर्मग्रंथों के अनुसार बौद्धधर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध भी भगवान विष्णु के ही अवतार थे। पुराणों में वर्णित भगवान बुद्धदेव का जन्म गया के समीप कीकट में ब्राहमण परिवार में हुआ बताया गया है। उनके माता का नाम अंजना और पिता का नाम हेमसदन बताया गया है। 
पुराणों में भगवान् विष्णु के चैबीस समान्य अवतार बतलाए गए हैं। इनमें बुद्ध का स्थान तेइसवां है। 24 अवतार में से 10 अवतार विष्णु जी के मुख्य अवतार माने जाते है। इस समूह में बुद्ध का नवां स्थान रहा है। 
दैत्यों के वैदिक आचरण एवं महायज्ञों को रोकने के लिए    हुआ थापौराणिक विष्णु का बुद्धावतार -
गौतम बुद्ध और भगवान बुद्ध एक नहीं हैं। वे भगवान क्षीरोदशायी विष्णु के अवतार हैं। बलि प्रथा की अनावश्यक जीव हिंसा को बंद करने के लिए ही इनका अवतार हुआ था। एक समय दैत्यों की शक्ति बहुत बढ़ गई। देवता भी उनके भय से भागने लगे। राज्य की कामना से दैत्यों ने देवराज इंद्र से पूछा कि हमारा साम्राज्य स्थिर रहे, इसकाउपाय क्या है ? तब इंद्र ने शुद्ध भाव से बताया कि बताया कि सुस्थिर शासन के लिए यज्ञ एवं वेद विहित आचरण आवश्यक है। तब दैत्य
वैदिक आचरण एवं महायज्ञ करने लगे, जिससे उनकी शक्ति और बढने लगी। तब सभी देवता भगवान विष्णु के पास गए। तब भगवान विष्णु ने देवताओं के हित के लिए बुद्ध का रूप धारण किया। उनके हाथ में मार्जनी (झाड़ू) थी और वे मार्ग को बुहारते हुए चलते थे। इस प्रकार भगवान बुद्ध दैत्यों के पास पहुंचे और उन्हें उपदेश दिया कि यज्ञ करना पाप है। यज्ञ से जीव हिंसा होती है। यज्ञ की अग्नि से कितने ही प्राणी भष्म हो जाते हैं। भगवान बुद्ध के उपदेश से दैत्य प्रभावित हुए। उन्होंने यज्ञ व वैदिक आचरण करना छोड़ दिया। इसके कारण उनकी शक्ति कम हो गई और देवताओं ने उन पर हमला कर अपना
राज्य पुनः प्राप्त कर लिया। 
पौराणिक प्रमाणों का विश्लेषण:-
श्रीमद् भागवत स्कन्ध 1 अध्याय 6 के श्लोक 24 अनुसार कहा गया  है -
ततः कलौ सम्प्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम्।
बुद्धोनाम्नाजनसुतः कीकटेषु भविष्यति॥
अर्थात - कलयुग में देवद्वेषियों को मोहित करने नारायण कीकट प्रदेश (बिहार या उड़ीसा) में अंजन के पुत्र के रूप में प्रकट होंगे। जबकि गौतम का जन्म वर्तमान नेपाल में राजा शुद्धोदन के घर हुआ था। बौद्ध धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है.।इसके संस्थापक महात्मा बुद्ध शाक्यमुनि (गौतम बुद्ध) थे। वे 563 ईसा पूर्व से 483 ईसा पूर्व तक रहे। ईसाई और इस्लाम धर्म से पहले बौद्ध धर्म की उत्पत्ति हुई थी। दोनों धर्म के बाद यह दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है। इस धर्म को मानने वाले ज्यादातर चीन, जापान,
कोरिया, थाईलैंड, कंबोडिया, श्रीलंका, नेपाल, भूटान और भारत जैसे कई देशों में रहते हैं।
गौतम बुद्ध और भगवान बुद्ध एक नहीं -
गौतम बुद्ध शुद्धोदन व माया के पुत्र थे,जबकि शाक्यसिंह यानी
भगवान गौतम बुद्ध बहुत ही ज्ञानी व्यक्ति थे, कठिन तपस्या के बाद जब उन्हें तत्त्वानुभूति हुई तो वे बुद्ध कहला। यही भगवान बुद्ध विष्णु के अवतार हैं। इसकी प्रमाणिकता एतिहासिक ग्रंथों में मिलती है।1807 में रामपुर से प्रकाशित अमरकोश में एच टी कोलब्रुक ने इस प्रमाणित किया है। ललित विस्तार ग्रन्थ के 21 वें अध्याय के 178 पृष्ठ पर बताया गया है कि यह मात्र संयोग ही है कि गौतम बुद्ध(शाक्यसिंह) ने उसी स्थान पर तपस्या की थी, जिस स्थान पर भगवान बुद्ध ने तपस्या करने की लीला किया था। यही कारण है कि लोगों ने दोनों को एक ही मान लिया। जर्मन के वरिष्ठ स्कॉलर मैक्स मुलर जी
के अनुसार शाक्यसिंह बुद्ध यानी गौतम बुद्ध, कपिलवस्तु के लुम्बिनी के वनों में 477 ईप.ू में जन्मे थे। गौतम बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन तथा माता का नाम मायादेवी है। एक और बात श्रीमद्भागवत महापुराण (1.3.24) तथा श्रीनरसिंह पुराण (36/29) के अनुसार भगवान बुद्ध आज से लगभग 5000 साल पहले इस धरातल पर आए जबकि मैक्समूलर के अनुसार गौतम बुद्ध 2491 साल पहले आए। कहने का तात्पर्य यह है कि गौतम बुद्ध और भगवान बुद्ध एक नहीं हैं। 
भागवत के श्लोक भगवान के अवतार का जन्म स्थान और माता का नाम अवतरण से 2500 वर्ष पहले ही बता दिया गया है जो की शत प्रतिशत सही प्रतीत होता है। इससे श्रीमद भागवतम की सत्यता का अंदाजा लगाया जा सकता है। बुद्ध भगवान को विष्णु का 21वां अवतार भी कहीं कहीं कहा गया है। फिर श्रीमद भागवतम 2.7.37में भगवान के बुद्ध अवतार का प्रयोजन समझाया गया है।
देवद्विषां निगमवर्त्मनि निष्ठितानां
पूर्भिर्मयेन विहिताभिरदृश्यतूभिर्रू।
लोकान् घ्नतां मतिविमोहमतिप्रलोभं
वेषं विधाय बहु भाष्यत औपधर्म्यम् ॥
अर्थात जब सभी नास्तिक वेदिक वैज्ञानिक ज्ञान में पारंगत होने के बाद दूसरे लोकों में रहने वालों का संघार करेंगे, बिना दिखे बड़े-बड़े अंतरिक्ष यानों में उड़ेंगे जो की माया द्वारा निर्मित होंगे तब भगवान ऐसा आकर्षक बुद्ध रूप लेकर धरती पर अवतरित होंगे जिससे नास्तिक भ्रमित हो जाए और फिर वे उन्हें उप धार्मिक सिद्धांतों यानिकम महत्व वाले सिद्धांतों का पाठ पढ़ाएंगे। और यदि देखा जाए तो भगवान बुद्ध ने अधर्मी नास्तिकों को धर्म के मार्ग पर लाने का ही तो काम किया और सारी नास्तिकों से भरी दुनिया को जो वेदों का
हवाला देकर जानवरों का बेमतलब संहार कर रही थी उससे वेदों कोन मानने को कहकर भ्रमित कर दिया। गरुड़ पुराण 3.15.26 में बताया गया है भगवान बुद्ध क्या करेंगे।
ततः कलौ संप्रवृत्ते हार्रिस्तु। संमोहनार्थं चासुरणां खगेन्द्र।
नाम्ना बुद्धो कीकटेषु प्रजातो। वेदप्रमाणम निराकर्तुमेव।
अर्थात फिर कालियुग में भगवान, बुद्ध के रूप में कीकटों में पैदा हुए थे। उन्होंने असुरों को भड़काया और वेदों की धज्जियाँ उड़ा दीं। अन्य बहुत सारी जगहों पर भगवान के बुद्ध अवतार का वर्णन मिलता है जैसे हरिवंश पुराण (1.41), विष्णु पुराण (3.18), नारद पुराण (2.72), पद्म पुराण (3.252) इत्यादि। इस प्रकार भगवान बुद्ध, भगवान के अवतार हैं। 
धर्म ग्रंथों के अनुसार बौद्धधर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध भी भगवान विष्णु के ही अवतार थे परंतु पुराणों में वर्णित भगवान बुद्धदेव का जन्म गया के समीप कीकट में हुआ बताया गया है और उनके पिता का नाम अंजन बताया गया है। यह प्रसंग पुराण वर्णित बुद्धावतार का ही है। एक समय दैत्यों की शक्ति बहुत बढ़ गई। देवता भी उनके भय से भागने लगे। राज्य की कामना से दैत्यों ने देवराज इंद्र से पूछा कि हमारा साम्राज्य स्थिर रहे, इसका उपाय क्या है। तब इंद्र ने शुद्धभाव से बताया कि सुस्थिर शासन के लिए यज्ञ एवं वेद विहितआचरण आवश्यक है। तब दैत्य वैदिक आचरण एवं महायज्ञ करने
लगे, जिससे उनकी शक्ति और बढने लगी। तब सभी देवता भगवान विष्णु के पास गए। तब भगवान विष्णु ने देवताओं के हित के लिए बुद्ध का रूप धारण किया। उनके हाथ में मार्जनी थी और वे मार्ग को बुहारते हुए चलते थे।इस प्रकार भगवान बुद्ध दैत्यों के पास पहुंचे और उन्हें उपदेश दिया कि यज्ञ करना पाप है। यज्ञ से जीव हिंसा होती है। यज्ञ की अग्नि से कितने ही प्राणी भस्म हो जाते हैं। भगवान बुद्ध के उपदेश से दैत्य
प्रभावित हुए। उन्होंने यज्ञ व वैदिक आचरण करना छोड़ दिया। इसकेकारण उनकी शक्ति कम हो गई और देवताओं ने उन पर हमला कर अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लिया।
श्रीमद भागवतम 1.3.1 में बताया गया हैं कैसे भगवान अपने आप को विस्तृत करते हैं ताकि संसार कि रचना की जा सके।
जगृहे पौरुषं रूपं भगवान्महदादिभिः।
सम्भूतं षोडशकलमादौ लोकसिसृक्षया ॥ 1 ॥
अर्थात सूत ने कहा सृष्टि की शुरुआत में, भगवान ने सर्वप्रथम अपनेआप को सर्वव्यापी पुरुष अवतार के रूप में विस्तारित किया और भौतिक निर्माण के लिए सभी आवश्यक सामग्री को प्रकट किया और इस प्रकार सबसे पहले भौतिक क्रिया के सोलह सिद्धांतों का निर्माण हुआ। यह सामग्री ब्रह्मांड बनाने के उद्देश्य से थी। ये हैं भगवान का प्रथम अवतार, सर्वव्यापी पुरुष जिसे करणोदकशाई विष्णु कहते हैं 
श्रीमद भागवतम 1.3.2 में बताया गया है भगवान के दूसरे अवतार विष्णु भगवान हैं, जिनकी नाभि से निकले कमल से ब्रह्मा जी का जन्म हुआ।
यस्याम्भसि शयानस्य योगनिद्रां वितन्वतरू।
नाभिह्रदाम्बुजादासीद्ब्रह्मा विश्वसृजां पतिरू ॥ 2 ॥
अर्थात पुरुष का एक भाग ब्रह्मांड के पानी के भीतर स्थित है, उसके शरीर की नाभि झील से एक कमल का तना निकलता है और इस तने के ऊपर कमल के फूल से ब्रह्मा, ब्रह्मांड के सभी इंजीनियरों के गुरु प्रकट होते हैं। हम सभी भी इसी व्यक्ति को विष्णु जी (गर्भोदकशायी विष्णु) जानते और समझते हैं जिसकी नाभि से कमल का फूल निकलता हैं, जिससे
ब्रह्मा का जन्म होता हैं और ये भगवान का दूसरा अवतार हैं। अब ये भी स्थापित हो गया हैं कि विष्णु जी भी भगवान के अवतार हैं।
शंकराचार्य ने भगवान बुद्ध व गौतम बुद्ध                      को अलग-अलग व्यक्ति बताया
श्रीगोवर्धन मठ पुरी के पीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती ने कहा है कि भगवान बुद्ध और गौतम बुद्ध अलग-अलग व्यक्ति थे। दोनों का जन्म अलग-अलग काल में हुआ था। जिस गौतम बुद्ध को भगवान विष्णु का अंशावतार घोषित किया गया था, उनका जन्म कीकट प्रदेश (मगध) में ब्राह्मण कुल में हुआ था। उनके सैकड़ों साल बाद कपिलवस्तु में जन्मे गौतम बुद्ध क्षत्रिय राजकुमार थे।
ब्राह्मण काल के थे भगवान बुद्ध
कर्मकांड में जिस बुद्ध की चर्चा होती है वे अलग हैं। इनकी चर्चा वेदों में भी हुई है। भगवान के ये अंशावतार हैं। इनकी चर्चा श्रीमद्भागवत में है। इनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था।
दोनों का गोत्र था गौतम शंकराचार्य ने कहा कि दोनों का गोत्र गौतम था। यह भी एक कारण था कि इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया। अग्निपुराण में लंब कर्ण कहकर भगवान बुद्ध की चर्चा की गई है। गौतम बुद्ध के लंबे कान प्रतिमाओं में बनाए जाने लगे। बौद्ध स्वयं को वैदिक नहीं मानते।दलाई लामा कहते हैं कि हम हिंदू नहीं हैं। दोनों के अनुयायियों में विभेद है। तथापि जैन, बौद्ध एवं सिख जन्म, पुनर्जन्म, दाह संस्कार, वेद, बीज ओम या प्रणव, गाय एवं गंगा पर आस्था रखते हैं। वट को मानें और उसके बीज को न मानें यह तो अद्भुत है।


धरा धाम पर परमात्मा का अवतार की अवधारणा आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी


" अवतार” से तात्पर्य 
“अवतार” से तात्पर्य है ऊँचे स्थान से नीचे स्थान पर उतरना। यह शुभ शब्द विशेषकर उन उत्तम आत्माओं के लिए प्रयोग किया जाता है, जो किसी विशिष्ट कार्य को करने के लिए “धरती” पर आते हैं। परमात्मा स्वयं अथवा उनके प्रतिनिधि “धरती पर अवतार” लेकर आगमन करते हैं। विशिष्ट कार्य पूरा हो जाने के बाद वे अपने मूलधाम या लोक वापस चले जाते हैं।
धरती पर अवतार” के प्रकार 
पूर्ण परमात्मा परम अक्षर ब्रह्म स्वयं पृथ्वी पर प्रकट होते हैं। वे सशरीर आते हैं। सशरीर लौट जाते हैं। धरती पर लीला करने के लिए परमेश्वर दो प्रकार से प्रकट होते हैं।
1. पूर्ण परमात्मा का शिशु रूप में सरोवर में कमल के फूल पर प्रकट होना
प्रत्येक युग में पूर्ण परमात्मा शिशु रूप में वन में स्थित एक सरोवर में कमल के फूल पर प्रकट होते हैं। वहां से एक निःसन्तान दम्पति उन्हें वात्सल्य स्वरूप अपने साथ ले जाते हैं। बाल्यकाल से ही ज्ञान सर्जन की विशिष्ट लीला करते हुए बड़े होते हैं और समाज में आध्यात्मिक ज्ञान प्रचार करके अधर्म का नाश करते हैं। सरोवर के जल में कमल के फूल पर अवतरित होने के कारण परमेश्वर नारायण कहलाते हैं। नार का अर्थ जल और आयण का अर्थ आने वाला अर्थात् जल पर निवास करने वाला नारायण कहलाता है।
2.भक्त की इच्छा पूरा करने के लिए पंच भौतिक अवतार
इस श्रेणी में अनेक स्वरूप देखने को मिलते हैं ।
राम जनम के हेतु अनेका, परम विचित्र एक तें एका ।
1.परमात्मा के अवतार के कारण परमात्मा की इच्छा
 परमात्मा के अवतार के कारण परमात्मा की इच्छा है। वह स्वयं अपनी इच्छा से प्रकट होते है। यह जीव जब जगत में आता है वह अपने पूर्व जन्म के कर्म ओर वासना के अनुसार शरीर लेकर आता है। परतु ईश्वर जगत में आते है तो किसी कर्म-वासना के अधीन होकर नहीं अपितु स्वेच्छा से आते है। जीव का कार्य निर्मित शरीर है जबकि परमात्मा निज इच्छा निर्मित है। परमात्मा के अवतार के कारण धर्म का रक्षण, अधर्म का विनाश ये तो साधारण कारण है। परमात्मा लीला करने के लिए तथा अपने भक्तों को परमानंद दान करने के लिए जगत में अवतार लेते है।
2 .ब्राह्मणों के शाप के कारण
भगवान शिव ने माता पार्वती को श्रीराम जन्म के जो प्रमुख कारण बताए हैं वह हमें पुराणों में मिलते हैं। एक किंवदंती के अनुसार ब्राह्मणों के शाप के कारण प्रतापभानु, अरिमर्दन और धर्मरूचि यह तीनों रावण, कुंभकर्ण और विभीषण बने। रावण ने अपनी प्रजा पर बहुत अत्याचार किया। एक बार तीनों भाईयों ने घोर तप किया। ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए और वर मांगने को कहा। 
रावण बोला, ' हे प्रभु, हम वान और मनुष्य इन दो जातियों को छोड़कर किसी के मारे न मरे यह वरदान दीजिए। शिव जी ने बताया कि मैंने और ब्रह्मा ने मिलकर यह वरदान दिया। फिर कुंभकर्ण को देखकर भगवान सोच में पड़ गए कि यह विशालकाय प्राणी नित्य आहार लेगा तो पृथ्वी ही उजड़ जाएगी। तब मां सरस्वती ने उसकी बुद्धि फेरी और 6 माह की नींद का उसने वरदान मांग लिया। विभीषण ने प्रभु चरण में अनन्य और निष्काम प्रेम की अभिलाषा की। वर देकर ब्रह्मा जी चले गए। 
3. धर्म की रक्षा और दुष्टों का संहार हेतु
 जब इस धरती पर धर्म की हानि होगी, असुरों और अधर्मियों का अन्याय धरती पर बढ़ जाएगा. तब तब प्रभु अलग अलग रूपों में अवतार लेकर धरती पर आयेंगे, और सच्जनों और साधु संतों को उन अधर्मियों के अन्याय से मुक्ति दिलाएंगे. ये रामायण की वो चौपाई है, जिसमें सम्पूर्ण युगों और कालखंडों का सार है. 
ये सच है हर युग में प्रभु ने अवतार लेकर धरती से अधर्मियों और अधर्म का अंत किया है. जीवन में बहुत सारे बदलाव होते हैं. ऐसे ही युगों में भी बदलाव होते हैं. हर युग में इस धरती पर पाप और पुण्य सामान रूप से रहे, और जब पापियों का अन्याय बहुत बढ़ जाता है, मनुष्य के लिए जीवन कठिन होते लगता है. तब तब प्रभु किसी न किसी रूप में धरती पर ज़रूर आये हैं. भगवान विष्णु ने कई अवतार लेकर असुरों का अंत किया. और उनके प्रमुख अवतारों में श्रीराम और श्रीकृष्ण के अवतार मुख्य माने जाते हैं. श्रीराम ने ज्यादा से ज्यादा स्वयं ही असुरों का अंत किया. और श्रीकृष्ण भी वही किया, और कई लोगों को अधर्म पर विजय प्राप्त करने का मार्ग सुझाया. तुलसी दास जी के अनुसार जब रावण के अत्याचार बढ़े और धर्म की हानि होने लगी तब भगवान शंकर कहते हैं :
जब जब होई धरम की हानि, बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी।
तब-तब प्रभु धरि विविध सरीरा, हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।
अर्थात् जब-जब धर्म का ह्रास होता है और अभिमानी राक्षस प्रवृत्ति के लोग बढ़ने लगते हैं तब तब कृपानिधान प्रभु भांति- भांति के दिव्य शरीर धारण कर सज्जनों की पीड़ा हरते हैं। वे असुरों को मारकर देवताओं को स्थापित करते हैं। अपने वेदों की मर्यादा की रक्षा करते हैं। यही श्रीराम जी के अवतार का सबसे बड़ा कारण है।  
4..सो केवल भक्तन हित लागी
भगवान भक्तों के हित व धर्म की रक्षा के लिए अवतार लेते हैं। तुलसी दास रचित चौपाई में कहा गया है -
सो केवल भक्तन हित लागी ।दीन दयाल प्रणत अनुरागी। 
जिनकी भृकुटि मात्र टेढ़ी होने से सृष्टि में प्रलय हो सकती है। उन्हें किसी को मारने के लिए धरती पर आने की जरूरत नहीं है। ये काम प्रभु वही से कर सकते हैं। पर शबरी, गिद्ध, अहिल्या आदि भक्तों को भी तो तारना व दर्शन देने के प्रभू धरती पर अवतरित हुए। इंसान को सत्कर्मों पर ही चलकर अपना जीवन बिताना चाहिए. अधर्म करने के बहुत से रास्ते हैं, जो हमारा पथ भ्रमित करते हैं. पर हमें हमेशा ये याद रखना चाहिए कि, ईश्वर हमें देख रहे हैं. संयम और धैर्य ही जीवन की सभी परेशानियों से हम सबको बाहर निकालते हैं. अन्याय और बुरे कर्म न तो मन को शांति देते हैं, और ना आत्मा को, हर तरह के रास्ते हमारे सामने आते ही हैं. पर उनपर चलने का और उन्हें चुनने का अधिकार हमारा ही होता है.
5. भक्त मनु शतरूपा की तपस्या से खुश होकर
स्वायम्भुवमनु और रानी सतरूपा ने अनेको वर्षों तक तपस्चर्या की उनके घर पुत्र के रूप में पधारने का प्रभु ने वरदान दिया । मनु महाराज और शतरूपा ने दशरथ कौशिल्या के रूप में जन्म लिये और इस प्रकार प्रभु श्रीराम होकर उनके घर पधारे।पहले माता कौशल्या को भगवान ने चतुर्भुजी स्वरूप में दर्शन दिए पर जब उन्होंने बाल रूप गोद में आने का आग्रह किया तो भगवान बाल रूप में उनकी गोद में आ गए। श्रीराम की बाल रूप की झांकी देख कर भक्त भी भाव विभोर हो गए।
6.नारद जी के शाप को सत्य करने के लिए
एक समय नारदजी ने आदि नारायण परमात्मा को शाप दिया था । वह शाप सत्य करने के लिए प्रभु पधारे थे। श्रीधर स्वामी भागवत के प्रखर टीकाकार हैं। जय विजय के प्रसंग के विषय में लिखते हैं कि परमात्मा की इच्छा हुई कि हमें रमण करना है,लीला करनी है। परमात्मा की प्रत्येक लीला जीव के कल्याण के लिए है और इसलिये जीव के कल्याण करने के लिये जीव के ऊपर कृपा करके भगवान लीला करते है।जहां काम नही क्रोध नही शोक नही लोभ नही रजोगुण तमोगुण नहीं। जहां केवल सतगुण है, वहीं बैकुंठ है।
चित्र की नहीं चरित्र और विचार की पूजा
राम के चित्र की पूजा नहीं की जाती है, लेकिन उनके चरित्र की पूजा होती है। यूं कहें कि उनके चरण की नहीं, उनके आचरण की पूजा होती है। समाज के बदलते परिवेश में आज के समाज में शैतान बनना आसान है। भगवान बनना और भी आसान है। लेकिन, इंसान बनना बहुत ही कठिन है। भगवान श्रीराम केवल इंसान बनने की प्ररेणा देते हैं। जीवन में मानवता का आ जाना ही रामकथा की सार्थकता है।आज व्यक्ति कहने को भले मानव हों, परंतु आंतरिक रूप से मानवता समाप्त होती जा रही है। संवेदना मरती जा रही है। उसी मानवता का पुन: स्थापना कर आपसी सौहार्द का विकास करने की जरूरत है। इसी प्रकार श्री कृष्ण के विचार आदर्श और उनकी लीलाओं की पूजा और मंचन किया जाता है। यही बात अन्य अंश या पूर्ण अवतार के चरित्र और विचारों पर भी लागू होता है।

काशी विश्वनाथ मंदिर के बनने-उजड़ने की कहानी डा. राधे श्याम द्विवेदी


बाबा विश्वनाथ का मंदिर काशी में भगवान शिव और माता पार्वती का आदि स्थान कहा जाता है। 11वीं सदी तक यह अपने मूल रूप में बना रहा। काशी शिव की नगरी के रूप में पूरे विश्व के सनातनियो द्वारा पूजी जाती रही है।
विश्वनाथ मंदिर पर घात प्रतिघात
सबसे पहले इस मंदिर के टूटने का उल्लेख 1034 में मिलता है। इसके बाद 1194 में मोहम्मद गोरी ने इसे लूटने के बाद तोड़ा। काशी वासियों ने इसे उस समय अपने हिसाब से बनाया लेकिन वर्ष 1447 में एक बार फिर इसे जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने तुड़वा दिया। फिर वर्ष 1585 में राजा टोडरमल की सहायता से पंडित नारायण भट्ट ने इसे बनवाया था । वर्ष 1632 में शाहजहाँ ने एक बार फिर काशी विश्वनाथ मंदिर को तुड़वाने के लिए मुग़ल सेना की एक टुकड़ी भेज दी। हिन्दुओं के प्रतिरोध के कारण मुग़लों की सेना अपने मकसद में कामयाब न हो पाई। इस संघर्ष में काशी के 63 मंदिर नष्ट हो गए थे।
काशी के माथे पर सबसे बडा कलंक औरंगजेब
सबसे बड़ा विध्वंश आततायी औरंगजेब था, जो काशी के माथे पर सबसे बड़े कलंक के रूप में आज भी विद्यमान है। साक़ी मुस्तइद खाँ की किताब ‘मासिर -ए-आलमगीरी’ के मुताबिक़ 16 जिलकदा हिजरी- 1079 यानी 18 अप्रैल 1669 को एक फ़रमान जारी कर औरंगजेब ने मंदिर तोड़ने का आदेश दिया था। साथ ही यहाँ के ब्राह्मणों-पुरोहितों, विद्वानों को मुसलमान बनाने का आदेश भी पारित किया था। औरंगजेब के ग़ुस्से की एक वजह यह थी यह परिसर संस्कृत शिक्षा बड़ा केन्द्र था और दाराशिकोह यहाँ संस्कृत पढ़ता था। इस बार मंदिर की महज एक दीवार को छोड़कर जो आज भी मौजूद है और साफ दिखाई देती है, समूचा मंदिर संकुल ध्वस्त कर दिया गया। 15 रब- उल-आख़िर यानी 2 सितम्बर 1669 को बादशाह को खबर दी गई कि मंदिर न सिर्फ़ गिरा दिया है, बल्कि उसकी जगह मस्जिद की तामीर करा दी गई है।औरंगजेब के आदेश पर उस समय मंदिर संकुल को तुड़वा कर बाबा विश्वनाथ मंदिर के ही ऊपर एक मस्जिद बना दी गई। जिसे बाद में औरंगजेब द्वारा दिया गया नाम था अंजुमन इंतजामिया जामा मस्जिद। जिसे बाद में ज्ञानवापी के नाम पर ज्ञानवापी मस्जिद कहा गया। कई चरणों में काशीवासियों, होल्कर और सिन्धिया सरदारों की मदद से मंदिर परिसर का स्वरुप बनता-बिगड़ता रहा। उसकी वह अलौकिक भव्यता नहीं लौटी जो काशी में कभी हुआ करती थी। मंदिर के खंडहरों पर ही बना वह मस्जिद बाहर से ही स्पष्ट दीखता है। जिसके लिए न किसी पुरातात्विक सर्वे की जरुरत है न किसी खुदाई की। प्राचीन काशी विश्वनाथ मंदिर की वह आखिरी बची दीवार जो ज्ञानवापी मस्जिद का हिस्सा है। विश्वनाथ मंदिर परिसर से दूर रहे ज्ञानवापी कूप और विशाल नंदी को एक बार फिर विश्वनाथ मंदिर परिसर में शामिल कर लिया गया है। इस प्रकार 352 साल पहले अलग हुआ यह ज्ञानवापी कूप एक बार फिर विश्वनाथ धाम परिसर में आ गया है। 
औरंगजेब के जाने बाद मंदिर के पुनर्निर्माण का संघर्ष जारी रहा। 1752 से लेकर 1780 तक मराठा सरदार दत्ता जी सिन्धिया और मल्हार राव होल्कर ने मंदिर की मुक्ति के प्रयास किए। पर 1777 और 80 के बीच इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होल्कर को सफलता मिली। महारानी अहिल्याबाई ने मंदिर तो बनवा दिया पर वह उसका वह पुराना वैभव और गौरव नहीं लौटा पाई। 1836 में महाराजा रणजीत सिंह ने इसके शिखर को स्वर्ण मंडित कराया। वहीं तभी से संकुल के दूसरे मंदिरों पर पुजारियों-पुरोहितों का क़ब्ज़ा हो गया और धीरे-धीरे मंदिर परिसर एक ऐसी गलियों की बस्ती में बदल गया जिसके घरों में प्राचीन मंदिर तक क़ैद हो गए।
आने वाले समय में काशी मंदिर पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया, जिस कारण मंदिर का निर्माण रोक दिया गया। फिर साल 1809 में काशी के हिन्दुओं द्वारा मंदिर तोड़कर बनाई गई ज्ञानवापी मस्जिद पर कब्जा कर लिया गया। इस प्रकार काशी मंदिर के निर्माण और विध्वंस की घटनाएँ 11वीं सदी से लेकर 15वीं सदी तक चलती रही। हालाँकि, 30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिला दंडाधिकारी मि. वाटसन ने ‘वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल’ को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने के लिए कहा था, लेकिन यह कभी संभव ही नहीं हो पाया। तब से ही जारी यह विवाद आज तक चल रहा है।
28 जनवरी, 1983 को मंदिर को सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इसका प्रबंधन तब से डॉ विभूति नारायण सिंह को एक ट्रस्ट के रूप में सौंपा गया है। इसमें पूर्व काशी नरेश, अध्यक्ष के रूप में और मंडल के आयुक्त के चेयरमैन के साथ एक कार्यकारी समिति बनाई गई। अभी एक न्यास परिषद भी है जो मंदिर के पूजा सम्बन्धी प्रावधानों को भी देखता है।
एक और बात वर्तमान आकार में मुख्य मंदिर 1780 में इंदौर की स्वर्गीय महारानी अहिल्या बाई होल्कर द्वारा बनाया गया था। 1785 में गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के कहने पर तत्कालीन कलेक्टर मोहम्मद इब्राहीम खान द्वारा मंदिर के सामने एक नौबतखाना बनाया गया था। 1839 में, मंदिर के दो गुंबदों को पंजाब केसरी महाराजा रणजीत सिंह द्वारा दान किए गए सोने से कवर किया गया। तीसरा गुंबद अभी भी वैसे ही बिना स्वर्ण जड़ित है। जिस पर योगी सरकार ने ध्यान देते हुए संस्कृति धार्मिक मामले मंत्रालय के जरिए मंदिर के तीसरे शिखर को भी स्वर्णमंडित करने में गहरी दिलचस्पी ले रहा है।
       जब भी इतिहास में काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर के पुनर्निर्माण का ज़िक्र किया जाएगा, मंदिर का पुनरुद्धार करने वाली महारानी अहिल्या बाई होल्कर, इसके शिखर को स्वर्ण मंडित करने वाले महाराजा रणजीत सिंह और मंदिर को उसकी ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक आभा लौटाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम सामने आ रहा है।
ज्ञानव्यापी कुएं में डाला गया था बाबा विश्वनाथ का शिवलिंग
18 अप्रैल 1669 में औरंगजेब के फरमान के बाद जब श्री काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ा जाने लगा तब उस वक्त मौजूद संत और पुजारियों ने बाबा विश्वनाथ के शिवलिंग को बचाने के उद्देश्य उन्हें ज्ञानवापी कूप में डाल दिया था. ऐसा कहा जाता है कि स्वयंभू ज्योतिर्लिंग विश्वेश्वर आज भी इसी कुएं में मौजूद है. जिसकी पूजा तो होती ही है साथ ही इस कुएं का जल पीने मात्र से ही मोक्ष और मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त होता है. यही वजह है कि ज्ञानवापी कूप आज भी अपने आप में काशी की अलग पहचान है. इस पूरे कूप की विस्तृत जानकारी स्कंद पुराण में भी वर्णित है. महारानी अहिल्याबाई ने 1777 में जब काशी विश्वनाथ मंदिर की पुनर्स्थापना करवायी, उसके पहले से यह कुआं यहां पर मौजूद है.
       जब धरती पर बारिश नहीं होती थी नदियां नहीं थी तब भी यह कुआं लोगों की प्यास बुझाने के लिए मौजूद था. ऐसा माना जाता है कि काशी में इस कुएं का निर्माण भगवान शिव के त्रिशूल के वेग से हुआ था इसलिए माता पार्वती और भगवान शिव का यहां पर वास बताया जाता है. इस का जल इतना मीठा और लाभकारी है कि इसका आचमन काशी यात्रा के पूर्ण होने के साथ ही मोक्ष की राह को भी प्रशस्त करता है.
       नए प्लान के मुताबिक अब 351 सालों के बाद ज्ञानवापी कुआं एक बार फिर से विश्वनाथ मंदिर परिसर में शामिल होने जा रहा है. विशाल नंदी के साथ ही इस कुएं के दर्शन के अलावा इसके भव्य रूप को निखारने की तैयारी भी की जा रही है.
 नंदी महराज की दिशा और दृष्टि से कोई छेड़छाड़ नहीं हुई है। जो कहीं न कहीं बाबा विश्वनाथ की मुक्ति का आवाहन तब तक करते रहेंगे जब तक वो अपने महादेव को देख नहीं लेते।
एक और घटना जो उस समय घटी वह यह है कि स्वयंभू ज्योतिर्लिंग को कोई क्षति न हो इसके लिए मंदिर के महंत शिवलिंग को लेकर ज्ञानवापी कुंड में ही कूद गए थे। हमले के दौरान मुगल सेना ने मंदिर के बाहर स्थापित विशाल नंदी की प्रतिमा को भी तोड़ने का प्रयास किया था लेकिन तमाम प्रयासों के बाद भी वे नंदी की प्रतिमा को नहीं तोड़ सके। जो आज भी अपने महादेव के इंतजार में मंदिर के उसी पुराने परिसर जो अब ज्ञानवापी मस्जिद है, की तरफ एक टक देख रहे हैं।
    नंदी की प्रतीक्षा पूरी हुई
महंत पन्ना कुंए मे कूदने से पहले नंदी के कान में कुछ कहा
मुझे तो मरना है पर आपका तप बड़ा है, आपको सदियों तक इंतजार करना है" काशी में मंदिर के बाहर बैठे नंदी के कान में ये वाक्य बोल कर "महंत पन्ना कुंए मे कूदने से पहले नंदी के पास गए, आँखे बंद की और उनके कान में कहने लगे, 'विपत्ति भगवान राम पर भी पड़ी थी" 
महंत पन्ना कुंए मे कूदने से पहले नंदी के पास गए, आँखे बंद की और उनके कान में कहने लगे, 'विपत्ति भगवान राम पर भी पड़ी थी, त्रिलोक स्वामिनी माता सीता को रावण हर ले गया था। जब हनुमान जी माता की खोज में अशोक वाटिका पहुँचे और उन्हें अपने साथ चलने के लिए कहा तो माता ने मना कर दिया और कहा कि सीता की प्रतीक्षा ही श्रीराम द्वारा लंका के विनाश की प्रेरणा बनेगी। यदि तुम्हारे साथ मैं जाऊंगी तो कदाचित मुझे पाकर श्रीराम वापस चले जाएंगे, इसलिए हे पुत्र मुझे प्रतीक्षा करने दो। 
हे नंदी महाराज, यही बात मैं आपको स्मरण करा रहा हूँ, प्रतीक्षा करना, इस तीर्थ का उद्धार करने कोई न कोई अवश्य आएगा। माता सीता सा विश्वास रखकर प्रतीक्षा करना, मेरे हिस्से समाधि आएगी आपके हिस्से प्रतीक्षा है शिव वाहन।' यह कहकर महंत पन्ना कुंए में कूद गए।
आताताइयों की फौज आई, अविमुक्तेश्वर क्षेत्र को ध्वस्त कर दियागया। नंदी जटायु से हत होकर यह देखते रहे, फिर एक दिन एक रानी आयीं, उसने महादेव को आँचल से उठाया, नंदी ने देखा उनके सिर पर माँ अनुसूइया का वात्सल्य स्पर्श हो रहा था पर नंदी की प्रतीक्षा शेष थी। सदियाँ बीतीं, युग बदला, नंदी दिन गिन रहे थे।
एक दिन नंदी ने देखा अविमुक्तेश्वर क्षेत्र का पुनरुद्धार हो रहा है, उन्होंने सुना नए भारत के राजा ने काशी का कायाकल्प करने का आदेश दिया है। एक दिन नंदी के शरीर को माँ गंगा से आने वाली हवाओं ने छुआ। तीन सौ बावन साल बीत गए माँ गंगा को निहारे।
नंदी का आनंद लौट आया, विश्वनाथ धाम की अलौकिकता लौट आयी, पर नंदी अभी भी ज्ञानवापी तीर्थ की ओर देख रहे थे, महंथ पन्ना को देख रहे थे।
नए भारत के राजा के खंडित कार्यों की कीर्ति पर नंदी का तप भारी पड़ा। उसे यह समझ में आया कि महादेव का काम अधूरा है, माँ गंगा से किया हुआ वादा अधूरा है। उसने आदेश दिया कि ज्ञानवापी तीर्थ को मुक्त किया जाए।कुंए में समाधिस्थ महंत पन्ना मुस्कराये, नंदी की प्रतीक्षा पूर्ण होने को है। उस पंडित ने शिवलिंग के साथ कुएं में छलांग लगा दी।
औरंगजेब की सेना ने काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने के लिए पूरे क्षेत्र को घेर लिया था। पूरे काशी में मुग़ल सैनिकों के हाथों में तलवारें और मंदिर को छोड़कर भागते लोगों की चीखें ही दिखाई और सुनाई दे रहीं थी।
तब एक पुजारी ने हिम्मत दिखाई और महादेव के स्वयंभू ज्योतिर्लिंग को बचाने के लिए शिवलिंग के साथ ही ज्ञानवापी कुएं में कूद गए।
मोदी सरकार के प्रयासों से 353 साल पुराना ज्ञानवापी कुंड काशी विश्वनाथ मंदिर के विस्तार में कॉरिडोर का हिस्सा बना 
350 साल से अपने महादेव की प्रतीक्षा करते इस नंदी की प्रतीक्षा अब समाप्त होने को है।

 नंदी की प्रतीक्षा खत्म होने वाली है

भए प्रकट कृपाला ! दीनदयाला विश्वेश्वर त्रिपुरारी l
मैं शिलाद-पुत्र नंदी हूँ ! 1669 ई से ज्ञानवापी के प्रांगण में शीत,आतप, वर्षा सह रहा हूँ, इसी आशा में – “एक दिन बाबा प्रकट होंगे।”
दीर्घ 353 वर्षों की कठोर तपस्या से थककर एक दिन मैंने महादेव से पूछा “प्रभु ! आप अपना त्रिशूल क्यों नही चलाते ?” बाबा ने मुझे श्रीराम कथा सुनाई और कहा, “यदि प्रभु राम चाहते तो बिना फणवाले एक बाण से दशानन के दसों शीश काट देते और समूची लंका का विनाश कर देते l पर इससे सामान्य जन पर कोई प्रभाव नही पड़ता। राम और रावण की लड़ाई मात्र दो लोगों की लड़ाई नही थी, बल्कि सामान्य जन में मर्यादा की पुन:स्थापना और अन्याय के विरुद्ध उन्हें उठ खड़े होने का साहस देने की लड़ाई थी। अधर्म के विरुद्ध युद्ध को जन-संघर्ष बनाना ही राम का उद्देश्य था l भारत में भी जब हिन्दू जगेगा तभी मैं प्रकट होऊंगा l”
राम-कथा ने मेरा हर संदेह दूर कर दिया l मैं जान गया, “मेरे यहाँ होने का उद्देश्य क्या है। मैं काशी पर हुए अत्याचार की गवाही देने के लिए समाधि लगाए बैठा हूँ। भारत-भूमि में निवास करने वाले लोगों में धर्म और सामर्थ्य के जागरण के लिए तप कर रहा हूँ। काशी धाम आने वाले शिव-भक्त मुझे देखते हैं l मैं गवाह हूँ कि मेरे बाबा विश्वनाथ ज्ञानव्यापी-तीर्थ के अधिष्ठाता हैं। मैं हर घड़ी, हर पल महादेव की ओर मुँह करके जम्बूद्वीप के प्रत्येक कोने से आने वाले सभी सनातनियों को बता रहा हूँ कि विश्वेश्वर यहीं हैं, यहीं हैं – ठीक मेरे सामने । सम्पूर्ण भरतखंड के एक- एक व्यक्ति को मैं सदियों से इसी बात की गवाही दे रहा हूँ ।“
आज मैं महादेव की माया पर मुस्कुरा रहा हूँ l उसने कैसी लीला रचाई है ? उन्हें भी पता चल चूका है कि हिन्दू जाग रहा है l तभी तो विधि व्यवस्था ने मेरी पीड़ा समझी, विडिओग्राफी हुई और जल में समाधि लिए भोलेनाथ प्रकट हो गए l आज मैं बहुत प्रसन्न हूँ, मेरा रोम-रोम सिहर उठा है, आँखों से अश्रु-धारा बह रही है और मेरे सम्मुख मेरे नाथ खड़े हैं !

भए प्रकट कृपाला, दीनदयाला विश्वेश्वर त्रिपुरारी l
        हर्षित नर-नारी, जन-मन हारी हर-हर घोष उचारी ll




Thursday, May 12, 2022

विष्णु चालीसा

                       
हिंदू धर्म में एकादशी तिथि का बहुत अधिक महत्व होता है। यह तिथि विष्णु भगवान को समर्पित होती है। इस दिन विधि- विधान से विष्णु भगवान की पूजा- अर्चना की जाती है। हिंदू पंचांग के अनुसार  वैशाख माह में शुक्ल पक्ष में पड़ने वाली एकादशी तिथि को मोहिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। इस पावन दिन भगवान विष्णु के मोहिनी स्वरूप की पूजा- अर्चना की जाती है। इस पावन दिन भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए श्री विष्णु चालीसा का पाठ किया जाता है

                            विष्णु चालीसा

                                   दोहा

विष्णु सुनिए विनय सेवक की चितलाय।
कीरत कुछ वर्णन करूं दीजै ज्ञान बताय।
 
               चौपाई

नमो विष्णु भगवान खरारी।
कष्ट नशावन अखिल बिहारी॥
 
प्रबल जगत में शक्ति तुम्हारी।
त्रिभुवन फैल रही उजियारी॥

सुन्दर रूप मनोहर सूरत।
सरल स्वभाव मोहनी मूरत॥

तन पर पीतांबर अति सोहत।
बैजन्ती माला मन मोहत॥

शंख चक्र कर गदा बिराजे।
देखत दैत्य असुर दल भाजे॥

सत्य धर्म मद लोभ न गाजे।
काम क्रोध मद लोभ न छाजे॥

संतभक्त सज्जन मनरंजन।
दनुज असुर दुष्टन दल गंजन॥

सुख उपजाय कष्ट सब भंजन।
दोष मिटाय करत जन सज्जन॥

पाप काट भव सिंधु उतारण।
कष्ट नाशकर भक्त उबारण॥

करत अनेक रूप प्रभु धारण।
केवल आप भक्ति के कारण॥

धरणि धेनु बन तुमहिं पुकारा।
तब तुम रूप राम का धारा॥

भार उतार असुर दल मारा।
रावण आदिक को संहारा॥

आप वराह रूप बनाया।
हिरण्याक्ष को मार गिराया॥

धर मत्स्य तन सिंधु बनाया।
चौदह रतनन को निकलाया॥

अमिलख असुरन द्वंद मचाया।
रूप मोहनी आप दिखाया॥

देवन को अमृत पान कराया।
असुरन को छवि से बहलाया॥

कूर्म रूप धर सिंधु मझाया।
मंद्राचल गिरि तुरत उठाया॥

शंकर का तुम फन्द छुड़ाया।
भस्मासुर को रूप दिखाया॥

वेदन को जब असुर डुबाया।
कर प्रबंध उन्हें ढूँढवाया॥

मोहित बनकर खलहि नचाया।
उसही कर से भस्म कराया॥

असुर जलंधर अति बलदाई।
शंकर से उन कीन्ह लडाई॥

हार पार शिव सकल बनाई।
कीन सती से छल खल जाई॥

सुमिरन कीन तुम्हें शिवरानी।
बतलाई सब विपत कहानी॥

तब तुम बने मुनीश्वर ज्ञानी।
वृन्दा की सब सुरति भुलानी॥

देखत तीन दनुज शैतानी।
वृन्दा आय तुम्हें लपटानी॥

हो स्पर्श धर्म क्षति मानी।
हना असुर उर शिव शैतानी॥

तुमने ध्रुव प्रहलाद उबारे।
हिरणाकुश आदिक खल मारे॥

गणिका और अजामिल तारे।
बहुत भक्त भव सिन्धु उतारे॥

हरहु सकल संताप हमारे।
कृपा करहु हरि सिरजन हारे॥

देखहुं मैं निज दरश तुम्हारे।
दीन बन्धु भक्तन हितकारे॥

चहत आपका सेवक दर्शन।
करहु दया अपनी मधुसूदन॥

जानूं नहीं योग्य जप पूजन।
होय यज्ञ स्तुति अनुमोदन॥

शीलदया सन्तोष सुलक्षण।
विदित नहीं व्रतबोध विलक्षण॥

करहुं आपका किस विधि पूजन।
कुमति विलोक होत दुख भीषण॥

करहुं प्रणाम कौन विधिसुमिरण।
कौन भांति मैं करहु समर्पण॥

सुर मुनि करत सदा सेवकाई।
हर्षित रहत परम गति पाई॥

दीन दुखिन पर सदा सहाई।
निज जन जान लेव अपनाई॥

पाप दोष संताप नशाओ।
भव-बंधन से मुक्त कराओ॥

सुख संपत्ति दे सुख उपजाओ।
निज चरनन का दास बनाओ॥

निगम सदा ये विनय सुनावै।
पढ़ै सुनै सो जन सुख पावै॥
                   
                     दोहा

भक्त ह्रदय में वास करैं, पूर्ण कीजिये काज।
शंखचक्र और गदा पद्म हे विष्णु महाराज।।

सेवक : डा.राधे श्याम द्विवेदी

Wednesday, May 11, 2022

कश्मीर के मंदिर में उपराज्यपाल की पूजा से केंद्रीय कानून का उलंघन डा. राधे श्याम द्विवेदी

प्राचीन संस्मारक तथा पुरातत्वीय स्थल और अवशेष अधिनियम में कहा गया है कि केंद्र सरकार की लिखित अनुमति के बिना किसी संरक्षित स्मारक में बैठकें, स्वागत, दावत, मनोरंजन या सम्मेलन आयोजित नहीं किए जा सकते। मार्तंड सूर्य मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा संरक्षित स्मारक है।
जम्मू और कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा द्वारा अनंतनाग के मट्टन में आठवीं शताब्दी के मार्तंड सूर्य मंदिर के खंडहरों में प्रार्थना में भाग लेने के एक दिन बाद, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने "जिला प्रशासन के प्रति चिंता व्यक्त की"।
       अपनी गलती मानने और भविष्य में नियमों का परिपालन करने का आश्वासन देने के बजाय जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने स्पष्ट किया कि केंद्र शासित प्रदेश के अनंतनाग जिले स्थित मार्तंड सूर्य मंदिर में पूजा अर्चना करने के लिए उप राज्यपाल को किसी अनुमति की जरूरत नहीं है। अनंतनाग जिले के उपायुक्त डॉ. पीयूष सिंघला ने कहा कि कार्यक्रम को प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल व अवशेष अधिनियम-1959 के नियम 7(2) के तहत इजाजत थी। 
नियम का उलंघन हुआ
नियम 7 (2 )अनुमति तभी देता है जब वहां परम्परा के अनुसार पहले से पूजा होती चली आ रही हो। अन्यथा सक्षम अधिकारी की लिखित अनुमति आवश्यक है।इस मामले में महामहिम को ना तो अनुमति थी और ना विशेषाधिकार। प्रशासन प्रदेश से केन्द्र तक उनके लिए सुगम था। केन्द्र का प्रतिनिधि प्रदेश में ही सुलभ था । केवल औपचारिकता की पूर्ति होनी थी, जो अपनाई नही गई।
उल्लेखनीय है कि श्री मनोज सिन्हा ने प्राचीन मंदिर परिसर में ‘नवग्रह अष्टमंगलम पूजा’ में हिस्सा लिया था जिसके लिए केंद्र शासित प्रदेश के बाहर से पुजारियों को बुलाया गया था। इसके एक दिन बाद एएसआई के अधिकारियों ने कहा कि इस स्मारक को संरक्षण करने वाले संगठन से इस पूजा की अनुमति नहीं ली गई थी। एएसआई अधिकारियों ने अपनी नाराजगी दक्षिण कश्मीर में अनंतनाग जिले के प्रशासन के समक्ष व्यक्त की है और मुद्दे पर चिंता जताई है जिनमें नियम 7(1) का उल्लंघन शामिल है। इसके तहत कोई भी बैठक, रिसेप्शन, पार्टी या सम्मेलन संरक्षित स्मारक में बिना केंद्र सरकार की लिखित अनुमति के नहीं हो सकता।
क्या है संरक्षित जगहों पर कार्यक्रम को लेकर नियम
प्राचीन संस्मारक और पुरातत्वीय स्थल और अवशेष अधिनियम 1959 के नियम 7 (1) के मुताबिक किसी संरक्षित स्मारक में केंद्र सरकार की लिखित अनुमति के बिना कोई कार्यक्रम आयोजित नहीं किया जा सकता है। इसी वजह से उपराज्यपाल मनोज सिन्हा द्वारा उस मंदिर में पूजा करने पर विवाद हो गया है। प्राचीन संस्मारक तथा पुरातत्वीय स्थल और अवशेष अधिनियम, 1959 के नियम 7 (1) में कहा गया है कि केंद्र सरकार की लिखित अनुमति के बिना किसी संरक्षित स्मारक में बैठकें, स्वागत, दावत, मनोरंजन या सम्मेलन आयोजित नहीं किए जा सकते। 
नियम 7 (2) कहता है कि यह "किसी मान्यता प्राप्त धार्मिक प्रथा या प्रथा के अनुसरण में" आयोजित होने वाले किसी भी कार्यक्रम पर लागू नहीं होना चाहिए। अधिकारियों ने कहा कि नियमों के अनुसार, यदि कोई स्थल संरक्षण निकाय के अधिकार क्षेत्र में आने के समय पूजा-अर्चना का एक कार्यात्मक स्थान था, तो वह पूजा स्थल बना रहेगा।
एएसआई द्वारा संरक्षित हैं ये स्थल
ऐसे संरक्षित स्थल जो एएसआई के कार्यभार संभालने के समय पूजा स्थल थे, उनमें जामिया मस्जिद, श्रीनगर और फतेहपुर सीकरी मस्जिद शामिल हैं। आठवीं शताब्दी का मार्तंड मंदिर भारत के सबसे पुराने सूर्य मंदिरों में से एक है और अमूल्य प्राचीन आध्यात्मिक विरासत का प्रतीक है। 8 अप्रैल 2022 को श्री सिन्हा पूजा में शामिल हुए थे जो संतों, कश्मीरी पंडित समुदाय के सदस्यों और स्थानीय निवासियों की उपस्थिति में आयोजित की गई थी। उपराज्यपाल ने इस आयोजन को एक ‘‘दिव्य अनुभव’’ करार दिया था। इस अवसर पर, सिन्हा ने सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व के प्राचीन स्थलों की रक्षा एवं विकास के लिए सरकार की प्रतिबद्धता दोहराई। बाद में सिन्हा ने मंदिर में विभिन्न सुविधाओं की समीक्षा की। इस दौरान क्षेत्र की पर्यटन क्षमता के दोहन पर भी चर्चा हुई।






Monday, May 9, 2022

ताजमहल व केशवदेव मन्दिर बटेश्वर अभिलेख के आलोक में डा. राधेश्याम द्विवेदी

राजा परमार्दी देवने २ विशाल संगमरवरी मंदिरों का निर्माण कार्य कराया था जिसमें एक श्री विष्णु का जो मथुरा में केशव देव तो दूसरा भगवान शिवजी का तेजो महालय था। कुछ समय पश्चात मुसलमान आक्रमणकर्ताओं ने इन मंदिरों का पावित्र्य भंग किया। मंदिरों की पवित्रता का भंग होने के कारण उनका धार्मिक उपयोग बंद हो गया। इसीलिए बादशहा नामा के लेखक अब्दुल हमीद लाहोरी ने मंदिरके स्थान पर महल ऐसा उल्लेख किया है। इस अभिलेख का परीक्षण और ताज महल का सत्य अन्वेषण होना ही चाहिए।
बटेश्वर शिलालेख
गुर्जर प्रतिहार वंश की स्थापना 8वी शताब्दी में उज्जयिनी में हुई थी।उनके वंशज बाद में उज्जयिनी के साथ साथ गंगा यमुना के दोआब क्षेत्र कान्यकुब्ज या कन्नौज पर भी शासन करते रहे। बटेश्वर शिलालेख से उत्पन्न विरोधाभासों को स्पष्ट किया जाय।
राजा परमार्दिदेव का परिचय :-गुर्जर प्रतिहार वंश की स्थापना 8वी शताब्दी में उज्जयिनी में हुई थी।उनके वंशज बाद में उज्जयिनी के साथ साथ गंगा यमुना के दोआब क्षेत्र कान्यकुब्ज या कन्नौज पर भी शासन करते रहे। इसी वंश का शासक नागभट्ट द्वितीय का समामनत राजा चन्द्रवर्मन (नन्नुक) ने बुन्देलखण्ड वर्तमान उ. प्र. तथा म.प्र. का सीमान्त क्षेत्र में चन्द्रातेय चन्डेल वंश की स्थापना किया था। इनकी राजधानी महोबा थी इनके अन्य प्रसिद्ध केन्द्र खजुराहो, कालंजर तथा अजयगढ़ रहे। गुर्जर प्रतिहारों के पतन के साथ साथ चण्डेल वंश की श्री वृद्धि हुई। चण्डेल वंश में परमार्दिदेव का 1163- 1203 के मध्य शासन किया था। इसकी सेना में आल्हा और ऊदल नामक दो प्रसिद्ध बीर योद्धा थे। इनकी सहायता से परमार्दिदेव ने अजमेर के चाहमान (चैहान) वंशी राजा पृथ्वीराज तृतीय पर आक्रमण कर दिया परन्तु ऊदल की मृत्यु के साथ परमार्दिदेव को पराजय का मुह देखना पड़ा था। पृथ्वीराज के अधीन महोबा भी आ गया। परन्तु वहां पर वह अधिक दिन शासन नहीं कर पाया और वह क्षेत्र पुनः परमार्दिदेव को वापस मिल गया। परमार्दिदेव के शासनकाल में मोहम्मद गोरी ने दो बार पृथ्वीराज पर आक्रमण किया था। तराइन के द्वितीय युद्ध में 1192 ई. में पृथ्वीराज मारा गया था। 1194 ई. में मोहम्मद गोरी ने कन्नौज के गहड़वाल नरेश जयचन्द को चन्दवार में पराजित कर मार डाला था। आश्चर्य है कि परमार्दिदेव ने किन परिस्थितियों में जयचन्द की सहायता नहीं कर सका था। बादमें अजमेर में चैहान वंश, कन्नौज में गहड़वाल वंश के पतन के साथ साथ बुन्देलखण्ड में चण्डेलवंश का भी पतन हो गया और भारत में मुस्लिम शासन का आधार मजबूत हो गया। परमार्दिदेव के समय बुन्देलखण्ड का चण्डेलवंशी शासन उत्तर भारत में गंगा यमुना की अन्तर्वेदी तक फैला हुआ था। इसमें कन्नौज मथुरा आगरा आदि पूरा ब्रज मण्डल समाहित था।
प्राप्ति स्थल विवादास्पद :- परमार्दिदेव का विक्रम 1252- 1195 ई. का बटेश्वर अभिलेख एक प्राचीन टीले पर प्राप्त होना बताया जाता है। कार्लाइल 1871- 72 में इस क्षेत्र का विस्तृत अध्ययन व सर्वेक्षण किया था । उस समय तक उसे यह अभिलेख नहीं प्राप्त हुआ था। मेजर जनरल ए. कनिंघम ने एएसआई रिर्पोट 1873-74 भाग 7 के पृ. 5 पर बटेश्वर आगरा से प्राप्त होना बताते हैं। पुनः मेजर जनरल ए. कनिंघम ने एएसआई रिर्पोट 1883-84 भाग 21 के पृ. 82 क्रम संख्या 52 पर इसे बगरारी के तालाब के तट पर दो टुकड़ों में प्राप्त होना बताते हैं। बगरी को मथुरा के निकट सिंघनपुर के पास होना भी बताया जाता है। अधिकांश अभिलेखीय साक्ष्य इसे आगरा जिले में स्थित बटेश्वर का अभिलेख मानते हैं। 1886 में हुलुतज ने Zeitechrift D Morg. Ges. के भाग 11 के पृ. 51-54 में प्रतिलिप्यान्तर कराया था। बादमें 1888 में प्रो. एफ. कीलहर्न ने इसका अध्ययन कर Epigraphia Indica के भाग 1 में पृ. 207-214 में प्रकाशित कराया था। इन दोनों संदर्भों में इस अभिलेख की प्रतिकृति नहीं प्रस्तुत की गयी है। प्रसिद्ध पुरालेख शास्त्री हरिहर विट्टल त्रिवेदी ने इस अभिलेख को उक्त संदर्भों के अतिरिक्त अन्य़ कहीं नहीं देखा था। उनके निवेदन पर लखनऊ राज्य संग्रहालय के निदेशक ने इस अभिलेख का स्याही के छाप की अनुमति दी। श्री त्रिवेदी इसे Corpus Inscriptions Indicarem के खण्ड 7 भाग 3 में क्रम सं. 139 पृ. 473-78 प्लेट 126 पर इसे प्रकाशित कराया है। अभिलेख के विषयवस्तु के अनुसार यहां प्राचीन विष्णु एवं शिव मंदिरों के निर्माण कराने की बात कही गयी है। एक विशाल शुभ्र शिव मंदिर भगवान शिव को ऐसा मोहित किया कि उन्होंने वहाँ आने के बाद फिर कभी अपने मूल निवास स्थान कैलाश वापस न जाने का निश्चय कर लिया।ष् पूर्णिमा की रात कोए या फिर उन रातों को जब चंद्र अच्छी रौशनी देता हैए उसकी रौशनी शिवलिंग पर पड़ती थी तो सफ़ेद शिवलिंग रात को चमकता था। ये मंदिर कहां थे यह शोध का विषय है । 
शुभ्र शिव मंदिर तेजोमहालय (ताजमहल) :- राष्ट्रवादी विचारक विष्णु मंदिर को मथुरा का द्वारिकाधीश तथा शिव मंदिर को आगरा का तेजेश्वर महादेव मंदिर (ताजमहल) के रुप में जोड़ते हैं। बटेश्वर शिलालेख में राजा परमार्दिदेव के मंत्री सलक्षणा द्वारा भव्य वैष्णव व शैव मंदिर बनवाने का जिक्र है। लखनऊ संग्रहालय में रखे वर्ष 1195 के इस शिलालेख में दो फुट चौड़ाई व एक फुट आठ इंच ऊंचाई में नागरी लिपि में संस्कृत भाषा के 34 श्लोक हैं। शिलालेख मंदिरों की जगह के बारे में कुछ नहीं कहता। मगर, इतिहासकार प्रो. पीएन ओक ने इसमें उल्लिखित शिव मंदिर को ताजमहल बताया था। श्री ओक अपनी पुस्तक Tajmahal is a Hindu Temple Palace में 100 से भी अधिक प्रमाण एवं तर्क देकर दावा करते हैं कि ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजोमहालय है। यह तेजाजी के नाम से बनाया गया था । इसके अनुक्रमांक 30 पर बटेश्वर शिलालेख का उल्लेख है। बटेश्वर एक संस्कृत शिलालेख भी ताज के मूलतः शिव मंदिर होने का समर्थन करता है। इस शिलालेख में, जिसे कि बटेश्वर शिलालेख कहा जाता है शाहज़हां के आदेशानुसार सन् 1155 के इस शिलालेख को ताजमहल के वाटिका से उखाड़ दिया गया इस शिलालेख को ‘बटेश्वर शिलालेख’नाम देकर इतिहासज्ञों और पुरातत्वविज्ञों ने बहुत बड़ी भूल की है क्योंकि कहीं भी कोई ऐसा अभिलेख नहीं है कि यह बटेश्वर में पाया गया था। आगरा शहर का नाम अंगिरा ऋषि के नाम पर पढ़ा था, अंगिरा ऋषि इसी इलाके में रहते थे, और वो भगवान् शिव के भक्त थे, आज जहाँ पर ताजमहल है, वहां पर हज़ारों साल पहले अंगिरा ऋषि ने शिवमंदिर बनाया था उसका नाम तेजोमहालय रखा था, कुछ लोग इसे अग्रेश्वर महादेव के नाम से भी सम्बोधित करते रहे हैं। वास्तविकता तो यह है कि इस शिलालेख का नाम ‘तेजोमहालय शिलालेख’ होना चाहिये क्योंकि यह ताज के वाटिका में जड़ा हुआ था और शाहज़हां के आदेश से इसे निकाल कर फेंक दिया गया था शाहज़हां के कपट का एक सूत्र Archaeological Survey of India Reports (1874 में प्रकाशित) के पृष्ठ 216-217, खंड 4 में मिलता है जिसमें लिखा है, great square black balistic pillar which, with the base and capital of another pillar....now in the grounds of Agra,...it is well known, once stood in the garden of Tajmahal". इस शिलालेख में, जिसे कि गलती से बटेश्वर शिलालेख कहा जाता है (वर्तमान में यह शिलालेख लखनऊ अजायबघर के सबसे ऊपर मंजिल स्थित कक्ष में संरक्षित है) में संदर्भित है, "एक विशाल शुभ्र शिव मंदिर भगवान शिव को ऐसा मोहित किया कि उन्होंने वहाँ आने के बाद फिर कभी अपने मूल निवास स्थान कैलाश वापस न जाने का निश्चय कर लिया।" यह अभिलेख प्रशंसात्मक रुप में प्रशस्ति गाथा है। इस अभिलेख के तीन प्रमुख भाग हैं- प्रथम भाग में 13 पद्य हैं जिसमें चण्डेल वंश की परम्परा का वर्णन किया गया है। द्वितीय भाग पद्य 14 से 24 तक है। इसमें राजा के मुख्यमंत्री के वंश परम्परा का वर्णन किया गया है। तृतीय खण्ड मुख्य है । इसमें पद्य 25 से 29 तक अभिलेख का उद्देश्य का वर्णन आता है। पद्य 30 से 34 तक लिखने वाले का परिचय दिया गया है। इस खण्ड का पद्य 25 व 26 दो विशाल मंदिरों के निर्माण का वर्णन करता है। इसका मूल पद्य का हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत किया जा रहा है। 
     प्रासादो वैष्णवस्तेन निमर्मितोन्तव् र्वहन्हरिम्। 
 मू द् ध् र्ना स्पृसशति यो नित्यं पदमस्यैव मध्यमम्।।
उन्होंने विष्णु मन्दिर का निर्माण कराया था जिसमें हरि की एक मूर्ति स्थापित थी। इस मंन्दिर का शिखर इतना ऊंचा था कि मध्य आकाश को स्पर्श करता था।। 
  अकारयच्च स्फटिकावदातमसाविदम्मन्दिरमिन्दुमौलेः। 
 न जातु यस्मिन्निवसन्स देवः कैलासवासाय चकार चेतः।
चन्द्र को मस्तक पर धारण करने वाले शिव मंन्दिर का निर्माण स्फटिक के समान धवल रंग से प्रकाशित हो रहा था जिसमें निवास करने के कारण भगवान शिव ने कैलाश पर निवास करने का विचार छोड़ दिया।।



 




जानकी नवमी डा. राधे श्याम द्विवेदी

09 मई 2022 के दिन सीता जयंती का उत्सव संपूर्ण भारत में उत्साह व श्राद्धा के साथ मनाया जा रहा है । यह पर्व माँ सीता के जन्म दिवस के रुप में जाना जाता है। वैशाख मास के शुक्लपक्ष की नवमी तिथि को भी जानकी-जयंती के रूप में मनाया जाता है, परंतु भारत के कुछ क्षेत्रों में फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष को सीता-जयंती के रूप में भी मनाने की परंपरा रही है। इस तथ्य का उदघाटन निर्णयसिंधु से भी प्राप्त होता है जिसके अनुसार फाल्गुन माह की कृष्ण पक्ष के दिन सीता जी का जन्म हुआ था इसीलिए इस तिथि को सीताष्टमी के नाम से भी संबोद्धित किया जाता है। सीता शक्ति, इच्छा-शक्ति तथा ज्ञान-शक्ति तीनों रूपों में प्रकट होती हैं वह परमात्मा की शक्ति स्वरूपा हैं।
सीता जयंती का पौराणिक संदर्भ :- जोती हुई भूमि तथा हल के नोक को भी 'सीता' कहा जाता है, इसलिए बालिका का नाम 'सीता' रखा गया था। अत: इस पर्व को 'जानकी नवमी' भी कहते हैं। मान्यता है कि जो व्यक्ति इस दिन व्रत रखता है एवं राम-सीता का विधि-विधान से पूजन करता है, उसे 16 महान दानों का फल, पृथ्वी दान का फल तथा समस्त तीर्थों के दर्शन का फल मिल जाता है। सीता माँ का चरित्र सभी के लिये मार्गदर्शक रहा है और आज भी प्रासंगिक है. सीता उपनिषद जो कि अथर्ववेदीय शाखा से संबंधित उपनिषद है जिसमें सीता जी की महिमा एवं उनके स्वरूप को व्यक्त किया गया है. इसमें सीता को शाश्वत शक्ति का आधार बताया गया है तथा उन्हें ही प्रकृति में परिलक्षित होते हुए देखा गया है. सीता जी को प्रकृति का स्वरूप कहा गया है तथा योगमाया रूप में स्थापित किया गया है.सीता जी ही प्रकृति हैं वही प्रणव और उसका कारक भी हैं. शब्द का अर्थ अक्षरब्रह्म की शक्ति के रूप में हुआ है यह नाम साक्षात 'योगमाया' का है. देवी सीता जी को भगवान श्रीराम का साथ प्राप्त है, जिस कारण वह विश्वकल्याणकारी हैं. सीता जी जग माता हैं और श्री राम को जगत-पिता बताया गया है एकमात्र सत्य यही है कि श्रीराम ही बहुरूपिणीमाया को स्वीकार कर विश्वरूप में भासित हो रहे हैं और सीता जी ही वही योगमाया है.वाल्मीकि रामायण में तथा वेद-उपनिषदों में सीता के स्वरूप का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है. ऋग्वेद में एक स्तुति के अनुसार कह अगया है कि असुरों का नाश करने वाली सीता जी आप हमारा कल्याण करें. गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरित मानस में सीताजी को संसार की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करने वाली माता कहते हुए नमस्कार करते हैं, एक पुत्री, पुत्रवधू, पत्‍‌नी और मां के रूप में उनका आदर्श रूप सभी के लिए पूजनीय रहा है।
सीता जयंती पूजन :- सीता जयंती के उपलक्ष्य पर भक्तगण माता की उपासना करते हैं. परम्परागत ढंग से श्रद्धा पूर्वक पूजन अर्चन किया जाता है. सीता जी की विधि-विधान पूर्वक आराधना की जाती है. इस दिन व्रत का भी नियम बताया गया है जिसे करने हेतु व्रतधारी को व्रत से जुडे सभी नियमों का पालन करना चाहिए. सुबह स्नान आदि से निवृत होकर माता सीता व श्री राम जी की पूजा उपासना करनी चाहिए. पूजन में चावल, जौ, तिल आदि का प्रयोग करना चाहिए.इस व्रत को करने से सौभाग्य सुख व संतान की प्राप्त होती है, माँ सीता लक्ष्मी का हैं इसकारण इनके निमित्त किया गया व्रत परिवर में सुख-समृ्द्धि और धन कि वृद्धि करने वाला होता है. एक अन्य मत के अनुसार माता का जन्म क्योंकि भूमि से हुआ था, इसलिए वे अन्नपूर्णा कहलाती है. माता जानकी का व्रत करने से उपावसक में त्याग, शील, ममता और समर्पण जैसे गुण आते है. इस दिन माता सीता के मंगलमय नाम 'श्री सीतायै नमः' और 'श्रीसीता-रामाय नमः' का उच्चारण करना लाभदायी रहता है।

Sunday, May 8, 2022

Mother’s Day मई का दूसरा रविवार : भारतीय परम्परा नहीं डा. राधे श्याम द्विवेदी

वैसे तो हर दिन ही मां का होता है। संतान के लिए अपनी मां को याद करने का कोई खास दिन या खास वजह तो होती है नहीं। मां तो वो हैं जिनकी हर सुख-दुख, अच्छे-बुरे, कामयाबी- नाकामयाबी में सहसा ही याद आ जाती है।चोट लगती है तो मुंह से निकलता है 'उई मां'। फिर ऐसा क्या है कि मई महीने के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाया जाता है।
अमेरिकी ईसाइयों की मदर डे परम्परा:-
 मातृ दिवस की शुरुआत सबसे पहले साल 1908 में अमेरिका से हुई थी। 1908 में ग्रेफट्न के एंड्रयूज मेथॉडिस्ट चर्च में पहली बाद मातृ दिवस का आयोजन किया गया था। आज पूरी दुनिया में मातृ दिवस (Mothers Day 2022) मनाया जा रहा है। इस दिवस को हर साल मई महीने के दूसरे रविवार को मनाया जाता है। इसका मकसद दुनियाभर की माताओं द्वारा बिना शर्त प्यार और उनके द्वारा अपने बच्चों के लिए किए गए प्रत्येक बलिदान को याद करना है। इस अवसर पर सभी लोग अपनी जिन्दगी में मां या मां का किरदार अदा करने वाली महिलाओं को उनके त्याग और समर्पण के लिए शुक्रिया अदा करते हैं। 1908 में ग्रेफट्न (वेस्ट वर्जीनिया) के एंड्रयूज मेथॉडिस्ट चर्च में पहली बार मातृ दिवस का आयोजन किया गया था। इस दिवस की लोकप्रियता का नतीजा था कि साल 1914 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन ने इसे देश के राष्ट्रीय दिवस के रूप में घोषित किया।एन रीव्स जार्विस एक अमेरिकी महिला थी। उन्होंने अपने जीवनकाल महिलाओं को इस बात के लिए जागरूक करने में बिताया कि उन्हें कैसे अपने बच्चों का पालन-पोषण करना चाहिए। पूरे साल माताओं को अपने अपने बच्चों के लिए समर्पित देखकर एना रीव्स ने भी इच्छा जताई कि कभी कोई अपनी मां की इच्छाओं को पूरा करने के लिए साल में एक दिन जरूर समर्पित करेगा। उनकी सेवाओं के लिए उनका सम्मान किया जाएगा। एना रीव्स जार्विस ने स्वास्थ्य जागरूकता के लिए मदर्स डे वर्क क्लब का आयोजन किया था। वह इस क्लब को वार्षिक मेमोरियल के रूप में आयोजित करना चाहती थी। हालांकि, इससे पहले ही साल 1905 में उनकी मृत्यु हो गई थी। 
        यह सीधे तौर पर माताओं और मातृत्व के कई पारंपरिक समारोहों से संबंधित नहीं है, जो हजारों वर्षों से दुनिया भर में मौजूद हैं, जैसे कि ग्रीक पंथ से लेकर साइबेले , माता देवता रिया, हिलारिया का रोमन त्योहार , या अन्य ईसाई कलीसियाई मदरिंग संडे उत्सव ( मदर चर्च की छवि के साथ जुड़ा हुआ )। हालांकि, कुछ देशों में, मदर्स डे अभी भी इन पुरानी परंपराओं का पर्याय है। मदर्स डे की औपचारिक शुरुआत के लिए बाकायदा अमेरिकी संसद में कानून पास हुआ. इसके बाद मई माह के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाया जाने लगा. इसे बाद में अमेरिका के अलावा यूरोप, भारत, चीन, जापान, दक्षिण अफ्रीका समेत कई देशों में स्वीकृति मिली। भारत के कुछ भागों में इसे 19 अगस्त को भी मनाया जाता है।भारत में इसे कस्तुरबा गांधी के सम्मान में मनाए जाने की परंपरा भी कही जाती है।
कुछ देशों में अलग तारीख हैं:-
मातृ दिवस कई देशों में मई के बजाय अन्य महीनों में मनाया जाता है। यूनाइटेड किंगडम में इसे मार्च महीने के चौथे रविवार को मनाया जाता है। वहीं, नॉर्वे में मातृ दिवस फरवरी में मनाया जाता है। अलग-अलग कहानियों से प्रेरित होकर भिन्न तारीखों पर ही, लेकिन इस दिन सभी अपनी माताओं को सम्मान देते हैं। यह तारीखें कुछ इस तरह बदली कि वि‍भिन्न देशों में प्रचलित धर्मों की देवी के जन्मदिन या पुण्य दिवस को इस रूप में मनाया जाने लगा। जैसे कैथोलिक देशों में वर्जिन मैरी डे और इस्लामिक देशों में पैगंबर मुहम्मद की बेटी फातिमा के जन्मदिन की तारीखों से इस दिन को बदल लिया गया।भारत में इसे कस्तुरबा गांधी के सम्मान तथा ग्रीष्म व शारदीय नवरात्रि को मनाए जाने की परंपरा है। मातृनवमीऔर राधाअष्टमी को क्यों नही मातृ दिवस मनाते हैं?
वेलेंटाइन डे को भी भारत में बदला गया :-
मातृ दिवस( Mother's Day). कुछ बरस पहले तक 'मदर'ज़ डे' भारतीयों के लिए विशेष अर्थ नहीं रखता था चूंकि हमारे माता-पिता तो अधिकतर हमारे साथ ही रहा करते थे लेकिन नई सदी में सब कुछ जैसे परिवर्तित होता जा रहा है । इससे हमारी सभ्यता, संस्कृति, मर्यादाएं और परम्पराएं भी अछूती न रह सकी। हमारे पूर्वजों ने संभवत: इस 'मदर'ज़ डे' व 'फादर'ज़ डे' का कोई प्रावधान शायद इसलिए नहीं रखा कि वे ऐसा कोई दिन आएगा, इसकी कल्पना ही नहीं कर पाए होंगे। वर्तमान में भारत पश्चिम का अंधानुकरण इस भांति कर रहा है कि हर व चीज जो पश्चिम में होती है वह बिना उनके आधार, कारण और वैज्ञानिक पक्ष को समझे भारत में भी होती है ।आज हम लोग पश्चिमी चकाचौंध में अपनी संस्कृति और सभ्यता को भूलते जा रहे हैं जो हमारे पतन का कारण बन रहा है। इसलिए भारत में लोगों को वेलेंटाइन डे को मातृ पितृ पूजन दिवस मनाना चाहिए, यही भारतीय सभ्यता और संस्कृति है। इसलिए 14 फरवरी को देशभर में मातृ-पितृ पूजन दिवस भी मनाया जा रहा है। स्कूलों-कॉलेजों में इसके लिए विशेष आयोजन किए जा रहे हैं। कई समितियां और दल इसके लिए युवाओं को जागरूक कर रहे हैं। आलम यह है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक माता-पिता की पूजा की जा रही है।
भारत में दो गुप्त और दो प्रकट नवरात्रि मदर डे ही तो हैं 
भारत में नवरात्रि के नौ रातों में तीन देवियों - महालक्ष्मी, महासरस्वती या सरस्वती और महाकाली के नौ स्वरुपों की पूजा होती है जिनके नाम और स्थान क्रमशः इस प्रकार है नन्दा देवी योगमाया (विंध्यवासिनी शक्तिपीठ), रक्तदंतिका (सथूर), शाकम्भरी (सहारनपुर शक्तिपीठ), दुर्गा(काशी), भीमा (पिंजौर) और भ्रामरी (भ्रमराम्बा शक्तिपीठ) नवदुर्गा कहते हैं। नवरात्रि एक महत्वपूर्ण प्रमुख त्योहार है जिसे पूरे भारत में महान उत्साह के साथ मनाया जाता है। नवरात्रि उत्सव देवी अंबा (विद्युत) का प्रतिनिधित्व है। वसंत की शुरुआत और शरद ऋतु की शुरुआत, जलवायु और सूरज के प्रभावों का महत्वपूर्ण संगम माना जाता है। इन दो समय मां दुर्गा की पूजा के लिए पवित्र अवसर माने जाते है। त्योहार की तिथियाँ चंद्र कैलेंडर के अनुसार निर्धारित होती हैं। नवरात्रि पर्व, माँ-दुर्गा की अवधारणा भक्ति और परमात्मा की शक्ति (उदात्त, परम, परम रचनात्मक ऊर्जा) की पूजा का सबसे शुभ और अनोखा अवधि माना जाता है। यह पूजा वैदिक युग से पहले, प्रागैतिहासिक काल से चला आ रहा है। ऋषि के वैदिक युग के बाद से, नवरात्रि के दौरान की भक्ति प्रथाओं में से मुख्य रूप गायत्री साधना का हैं। नवरात्रि में देवी के शक्तिपीठ और सिद्धपीठों पर भारी मेले लगते हैं । माता के सभी शक्तिपीठों का महत्व अलग-अलग हैं। लेकिन माता का स्वरूप एक ही है।