Wednesday, April 26, 2017

ब्राहमण पण्डित हो सकता है पण्डित ब्राहमण नहीं - डा. राधेश्याम द्विवेदी

आज के समाज में ऊपरी या फौरी तरह से ब्राहमण और पण्डित को लोग एक दूसरे के समानार्थी के रुप में देखते जानते और पहचानते हैं। परन्तु एसा है नहीं, हर पण्डित ब्राहमण नहीं बन सकता है। इसके विरुद्ध हर ब्राहमण पण्डित का काम कर सकता है। इन दोनों के बीच जो सूक्ष्म अन्तर है उसे रेखांकित करने के लिए यह लेख प्रस्तुत किया जा रहा है। इसको लिखने की प्रेरणा हमारे एक अभिन्न मित्र स्वनाम धन्य ज्ञानेन्द्रजी, जो जन्म से ब्राहमण ना होते हुए अपने विचार चिन्तन एवं साधना से ब्रहम वेत्ता हैं, उनका पे्ररक सहयोग इस अकिंचन को प्रायः सुलभ हो जाता रहा है। आज के सामाजिक लोकाचार में हर ब्राहमण कुल में पैदा होने वाला अपने को पण्डित कहलाना पसन्द करता है। कुछ लोग सम्मान के अर्थ में तो कुछ अज्ञानता बस ब्राहमण को पण्डित कहकर महिमा मण्डित ही नहीं करते अपितु अपात्रों को भय बस या अज्ञानता वस महिमामण्डित कर वास्तविक तत्व ज्ञानियों का अपमान ही करते हैं। इसलिए मेरा आग्रह है कि बा्रहमण पात्र को ही सम्मान दें  अपात्र पण्डित को जो ज्ञानी ना होकर मात्र कर्मकाण्डी या आने को छद्म रुप से प्रचारित कर रहा है उसे यह सम्मान कत्तई ना दें। भारत की धरती को कोई हिंदुस्तान कहता है, कोई आर्यावर्त और कोई मघ्य देश तथा कोई  ब्रहमर्षि प्रदेश आदि । पर इस में कहीं ना कही कुछ सूक्ष्म अन्तर जरुर है। यद्यपि इसका व्यापक असर नहीं पड़ता है। पर यह भावनात्मक रुप से कुछ वर्गों की समरसता को प्रभावित जरुर करता है।
क्रमिक ज्ञान अर्जित करने वाला अधिकारिक बा्रहमण :-अपने आप अथवा विद्वान गुरु के सानिघ्य में क्रमिक रुप में ज्ञान अर्जित करने वाले को हम अधिकारिक बा्रहमण कह सकते हैं। इसके विपरीत मात्र जीविका के लिए अधकचरे ज्ञान से स्वयं को महिमामण्उित कराने वाला ब्रहमण तो नहीं , हां पण्डित अवश्य बन जाता है।  व समाज का उतना भला नहीं कर सकता जितना एक तत्वज्ञानी ब्राहमण कर सकता है। वह अपने पोथी पत्रा पढ़ कर जो कुछ जाना समझा वह पंडित बन समाज की व्यवस्था को कुछ ना कुछ नुकसान ही पहुचा सकता है। इसके विपरीत असली ब्राह्मण तत्वदर्शी होते थे इसलिए उन्होने किसी को कुछ नहीँ बताया क्योंकि बताने के लिये कुछ नहीँ है। अपितु स्वयं सिद्ध करने व समझने के लिए ही जो कुद हैं उसे तो हर कोई अपने प्रयास से ही पा सकता है। समाज तो तत्वज्ञानी के ज्ञान व साधना की प्रतीक्षा कर नहीं सकता। उसे तो तत्काल उपचार चाहिए। इसे तो कोई अधकचरे ज्ञानवाला पझिडत ही दे सकता है। आसानी से कम समय में कुछ समझ में आने के लिए वह पण्डित की शरण में चला गया। पंडित के पास बहुत कुछ था किंतु अपना कुछ नहीं था। उसने सबका सामान इकट्ठा कर लिया था इसलिए जब भी कोई आता उसको कुछ दे देता। धीरे धीरे उसकी दी हुई चीजें सब जगह फैल गईं। यही चीजें कभी शास्त्र, कभी परंपरा और कभी संस्कार के नाम से जानी गईं जो लोगों के दैनिक जीवन से लेकर विभिन्न सुख दुख और सांसारिक व्यवहार में काम आती रहीं हैं।
जन्मना नहीं ब्रहम को जानने वाला ही ब्राहमण :-  यास्क मुनि की निरुक्त के अनुसार – “ब्रह्म जानाति ब्राह्मण:” - ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म (अंतिम सत्य, ईश्वर या परम ज्ञान) को जानता है. अतः ब्राह्मण का अर्थ है - "ईश्वर का ज्ञाता".किन्तु हिन्दू समाज में एतिहासिक स्थिति यह रही है कि पारंपरिक पुजारी तथा पंडित ही ब्राह्मण माने जाते रहे हैं. यद्यपि भारतीय जनसंख्या में ब्राह्मणों का प्रतिशत कम है, तथापि धर्म, संस्कॄति, कला तथा शिक्षा के क्षेत्र में इनका योगदान अपरिमित है. ब्राह्मण को आचार्य, विप्र, द्विज, द्विजोत्तम, भूसुर भी माना जाता है. यह कायस्थों के बाद सबसे ऊँची जाति है. यह आर्यों की समाज व्‍यवस्‍था अर्थात वर्ण व्‍यवस्‍था का सर्वोच्च वर्ण है. भारत के सामाजिक बदलाव के इतिहास में जब भारतीय समाज को हिन्‍दू के रुप में संबोधित किया जाने लगा तब ब्राह्मण वर्ण, जाति में भी परि‍वर्तित हो गया.अब यह ब्राह्मण वर्ण हिन्दू समाज की एक जाति भी है. एतिहासिक रूप से आर्यों की वर्ण व्‍यवस्‍था में चार वर्ण होते हैं. ब्राह्मण (आध्यात्मिकता के लिए उत्तरदायी), क्षत्रिय (धर्म रक्षक),  वैश्य (व्यापारी) तथा शूद्र (सेवक, श्रमिक समाज) होते हैं .
ब्राह्मण का निर्धारण:- ब्राह्मण का निर्धारण माता-पिता की जाति के आधार पर ही होने लगा है. स्कन्दपुराण में षोडशोपचार पूजन के अंतर्गत अष्टम उपचार में ब्रह्मा द्वारा नारद को यज्ञोपवीत के आध्यात्मिक अर्थ में बताया गया है- जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते। शापानुग्रहसामर्थ्यं तथा क्रोधः प्रसन्नता.अतः आध्यात्मिक दृष्टि से यज्ञोपवीत के बिना जन्म से ब्राह्मण भी शुद्र के समान ही होता है. इसी प्रकार भगवान बुद्ध कहते हैं कि- “न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो। यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो॥’’(अर्थात ब्राह्मण न तो जटा से होता है, न गोत्र से और न जन्म से, जिसमें सत्य है, धर्म है और जो पवित्र है, वही ब्राह्मण है. कमल के पत्ते पर जल और आरे की नोक पर सरसों की तरह जो विषय-भोगों में लिप्त नहीं होता, मैं उसे ही ब्राह्मण कहता हूं.)
 ब्राह्मण जाति का इतिहास एवं परिचय :-
एक एव पुर वेदः प्रणवः सर्ववाङमय देवो नारायणो नान्योरहयेकोग्निवर्ण एव च।
न विशेषोस्ति वर्णानां सर्व ब्रह्ममयं जगत। प्रथमः ब्राह्मणः कर्मणा वर्णतां गतः।।
पहले वेद एक था। ओंकार में संपूर्ण वांगमय समाहित था। एक देव नारायण था। एक अग्नि और एक वर्ण था। वर्णों में कोई वैशिष्ट्यर नहीं था सब कुछ ब्रह्मामय था। सर्वप्रथम ब्राह्मण बनाया गया और फिर कर्मानुसार दूसरे वर्ण बनते गए. सभी व्यक्ति विराट पुरुष की संतान हैं और सभी थोड़ा बहुत ज्ञान भी रखते हैं तो भी वो अपने आप को ब्राह्मण नहीं कहते। एक निरक्षर भट्टाचार्य मात्र ब्राह्मण के घर जन्म लेने से अपने आपको ब्राह्मण कहता है। और न केवल वही कहता है अपितु भिन्न-भिन्न समाजों के व्यक्ति भी उसे पण्डितजी कहकर पुकारते हैं। लोकाचार सब न्यायों में व सब प्रमाणों में बलवान माना जाता है ‘सर्व ब्रह्मामयं जगत’ के अनुसार सब कुछ ब्रह्म है और ब्रह्म की संतान सभी ब्राह्मण हैं। पुराणों में कहा गया है – ‘ विप्राणां यत्र पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता। ’ जिस स्थान पर ब्राह्मणों का पूजन हो वहां देवता भी निवास करते हैं अन्यथा ब्राह्मणों के सम्मान के बिना देवालय भी शून्य हो जाते हैं । इसलिए ‘ब्राह्मणातिक्रमो नास्ति विप्रा वेद विवर्जिताः ।। ब्राह्मणोंस्य मुखमासिद्......’ आदि भी कहा गया है। शास्त्रो में ब्राह्मण को सबसे श्रेष्ठ बतलाया गया है।  ब्राह्मण की बतलाई हुई विधि से ही धर्म, अर्थ, कम, मोक्ष चारों की सिद्धी मानी गयी है  ब्राह्मण का महत्व बतलाते हुए शास्त्र कहते है -
ब्राह्मणोस्य मुखमासीद बाहु राजन्य क्रतः। ऊरु तदस्य यद्वैश्य पदाभ्यां शूद्रो अजायत  (यजुर्वेद ३१ , ११)
श्री भगवान के मुख से ब्राह्मण की, बाहू से क्षत्रिय की, उरु से वैश्य की और चरणों से शुद्र की उत्पति हुई है। ’ उत्तम अंग से (अर्थात भगवान के श्री मुख से) उत्पन्न होने तथा सबसे पहले उत्पन्न होने से और वेद के धारण करने से ब्राह्मण इस जगत का धर्म स्वामी होता है,  ब्रह्मा ने तप करके हव्य-कव्य पहुचाने के लिए और सम्पूर्ण जगत की रक्षा के लिए अपने मुख से सबसे पहले ब्राह्मण को उत्पन्न किया। ’ (मनु १ , ९३-९४)
पंडित उपाधिधारी जवाहर ब्राहमण नहीं :-भारत में एक दुष्ट पंडित जिसका नाम जवाहर था ने इसमें तरह तरह के दोष खोजने लगा क्योंकि उसे राज करने के कुछ लोगों का साथ चाहिये था और फिर जो काम लाखों जाहिल सैकड़ो साल में नहीँ कर पाये थे उस दुरात्मा पंडित ने कर दिया। आज तक हिंदुत्व को टुकडों टुकडों में समझने के कितने ही पढ़े लिखे मूर्ख लोगो ने किताबें लिख डाली और लिख रहे हैं। पंडित की कोई जात नहीँ होती ये पढ़े लिखे नासमझ मूर्ख लोग ही वास्तव में आज के पंडित हैं जो कभी पुरातत्त्ववेत्ता तो कभी अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री आदि बनकर लोगों को परेशान कर रहे हैं। इसलिए पंडित न बनकर ब्राह्मण बनना चाहिये और स्वाध्याय करके तत्व को समझना चाहिये।
ब्राह्मणों के योगदान :- मनुष्य जीवन मोक्ष साधनार्थ है ! इसलिए सर्वप्रथम जीवन व्यवस्थित करने लिये चार आश्रम या पड़ाव (आश्रम कभी पर्मानेन्ट नहीँ होता है इसलिए जीवन के किसी भी पड़ाव में निर्धारित समय से अधिक रुकना नहीँ चाहिए)  ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास। इस जीवनचर्या से काम, क्रोध, मोह माया आदि समयानुसार स्वयं समाप्त हो जाते हैं। मृत्यु सुखदाई एवं मोक्षदायिनी होती है। इसलिए उससे डरना या भयभीत नहीं होना चाहिए अपितु उसे सहर्ष अंगीकार कर उसमें आनन्द की अनुभूति करना चाहिए। अपने कर्मों में निरन्तर सुधार लाकर धीरे धीरे परम तत्व के पास तथा अधीन पहुचने में सुगमता मिल सकती है।
वर्ण आश्रम व्यवस्था :-  मानसिक एवं शारीरिक योग्यता के अनुसार जीविकोपार्जन के लिये निश्चित व्यवसाय प्रतियोगिता मे बिना समय की बरबादी किये लग जाना चाहिए। उसी में सुतुष्टि का अनुभव करना चाहिए। अपनी क्षमता और योग्यता से इसका समय समय पर चयन करना चाहिए और परम लक्ष्य की तरफ उन्मुक्त होते रहना चाहिए। समय से विवाह एवं संतानोत्पत्ति करना चाहिए। यह एक सामाजिक दायित्व है तथा पूर्वजों के ऋण से मुक्त होने का माध्यम भी है। गृहस्थाश्रम में रहकर भी व्यक्ति वह सब कुछ कर सकने की स्थिति में आ सकता है जिसे महान सन्त भी नहीं प्राप्त कर सकते है। इसी भौतिक शरीर के माध्यम से ही वह लौकिक तथा पारलौकिक अपना तथा समाज का हित तथा कल्याण के निमित्त बन सकता है। इसी प्रकार विवाह व्यवस्था को नियमानुकूल धार्मिकता व पवित्रता के साथ अपनाकर समाज में स्त्रियों की सुरक्षा बड़ती है। गृहस्थ का सम्यक अर्थशास्त्र, और सभ्य समाज की संरचना के लिए यह संस्कार होना ही होना चाहिए। इसी प्रकार वानप्रस्थ काल लोभ और मोह का होता है किंतु आश्रम धर्म के निर्वाह से धीरे धीरे मुक्ति मिलती जाती है। संन्यास से पार्थिव चीजों से आकर्षण समाप्त और ईश्वर स्मरण में मृत्यु की प्राप्ति होती है। निरंतर विकास और निरंतर परिवर्तन को स्वीकार करना ही प्राकृतिक धर्म है जो हिंदू धर्म और सस्ंकृति का मूल तत्व है। जो ब्राह्मण है वही बुद्ध है वही जिन है। ब्रह्म अनंत है अनंत को पाने के मार्ग अनंत हैं , वाहन अनंत हैं। इसलिए हिंदुओं के अनेक गुरु, सम्प्रदाय, योग और आराधना पद्धतिया जन्मी और जन्मते रहेंगे। यह विखर व पद्धति असली ब्रहम ज्ञान वाले ब्राह्मण तो समझेंगे किंतु  कर्मकाण्डी व्यवसायिक बृत्ति वाले पंडितजी महराज इसे नहीं हृदयंगम कर सकते हैं।


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