Friday, December 23, 2022

उ0प्र0 /जिला सहकारी बैंक लि0 को सुचारू संचालन के लिए अधिग्रहण और सरकारी नियन्त्रण में लिया जाये

सम्पूर्ण भारतवर्ष के अन्य प्रदेशों की भाति उत्तर प्रदेश की आर्थिक प्रगति भी कृषि के विकास पर आधारित है । वाणिज्य, व्यापार एवं उद्योग धन्घों में पर्याप्त विकास के बावजूद भी प्रदेश की सकल आय में कृषि क्षेत्र का योगदान 35 प्रतिशत से अधिक है। रोजगार के अवसर सुलभ कराने की दृष्टि से भी कृषि लगातार सबसे व्यापक क्षेत्र बना हुआ है । प्रदेश के किसानों को कृषि उत्पादन हेतु आवश्यक संसाधन- उर्वरक, बीज, कृषि रक्षा रसायन और उपकरण, कृषि यन्त्र आदि हेतु अल्पकालीन ऋण तथा कृषि पर आधारित उद्योग सेवा एवं व्यवसाय आदि प्रयोजनों के लिये मध्यकालीन ऋण सुलभ कराने में सहकारी एवम भूमि विकास बैंकों की भूमिका अग्रणी है। 
सहकारी बैंक जिसे को-ऑपरेटिव बैंक भी कहा जाता है! यह एक वित्तीय संस्थान होती हैं जो शहरी और गैर-शहरी दोनों क्षेत्रों में छोटे व्यवसायों को ऋण देने का सुविधा प्रदान करती हैं। सहकारी बैंक का गठन एवं कार्यकलाप सहकारिता के आधार पर होता है। इन बैंकों द्वारा किसानों को उनकी उपज के वैज्ञानिक भण्डारण तथा विपणन आदि की सुविधा उपलब्ध कराने के साथ-साथ दैनिक उपयोग की आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं की आपूर्ति हेतु वित्तपोषण की व्यवस्था भी की जाती है। ये बैंक ऋण वित्त पोषण के साथ ही साथ बचत की अनेक योजनाएं भी चलाते हैं। छोटी छोटी समितियों के माध्यम से ये निचले या अंतिम पायदान पर जीवन यापन करने वाले लोगों के संपर्क और पहुंच में आसानी से आ जाते हैं। इनके सदस्यों डायरेक्टर और अध्यक्ष पद के चुनाव होते हैं और हर राजनीतिक पार्टी अपने व्यक्ति को इस पद पर आसीन कराने के लिए प्रयासरत रहता है। उसे गाड़ी नौकर और सुरक्षा गार्ड उपलब्ध कराया जाता है।समाज और सरकार में उसे अच्छे रूप में देखा जाता है।
त्रिस्तरीय सहकारी ढाचा:-
प्रदेश स्तर पर उ0प्र0 सहकारी बैंक लि0 की 27 शाखायें , 17 क्षेत्रीय कार्यालय , 30 पे-आफिस कुल 74 वित्त संस्थाएं हैं। जिला स्तर पर जिला/केन्द्रीय सहकारी बैंक लि0 बैंकों की संख्या 50 है। शाखाओं की संख्या1266 है। न्याय पंचायत स्तर पर: प्रारम्भिक सहकारी कृषि समितियों की संख्या 7479 है। भारतीय सहकारी बैंकिंग का इतिहास वर्ष 1904 में सहकारी समिति अधिनियम के पारित होने के साथ शुरू हुआ। इस अधिनियम का उद्देश्य सहकारी ऋण समितियों की स्थापना करना था। स्वतंत्रता के बाद पहले 3 वर्षों के दौरान यानी वर्ष 1949 तक सहकारी बैंकिंग की दृष्टि से कुछ भी महत्त्वपूर्ण कार्य संभव नहीं हो पाया। सहकारी साख के त्रिस्तरीय ढाचे की वर्तमान वित्तीय स्थिति, उसके सम्मुख विद्यमान प्रमुख समस्यायें एवं उनके निराकरण की योजना वर्णित की जा रही है।
उ0प्र0 कोआपरेटिव बैंक लि0, मुख्यालय, लखनऊ:-
उ0प्र0 कोआपरेटिव बैंक लि0 की स्थापना जिला सहकारी बैंकों की शीर्ष सहकारी संस्था के रुप में निबन्धन संख्या 811 के द्वारा दिनांक 20 नवम्बर 1944 को हुई थी । इस प्रकार इस बैंक को कार्य करते हुए लगभग आठ दशक वर्ष हो चुके हैं । उ0प्र0 कोआपरेटिव बैंक लि0, भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम 1934 की द्वितीय अनुसूची में सूचीबद्ध है। अर्थात् यह एक अनुसूचित बैंक है तथा सहकारी संस्था के रुप में उ0प्र0 सहकारी समिति अधिनियम 1965 एवं उ0प्र0 सहकारी समिति नियमावली 1968 तथा बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट 1949 के अधीन बैंकिंग के रुप में विनियमित होता है। 
50 जिला सहकारी बैंक संचालित :-
सहकारिता विभाग के अधीन प्रदेश में उत्तर प्रदेश कोआपरेटिव बैंक की एक शाखा, जबकि 50 जिलों में जिला सहकारी बैंक संचालित हैं। इन सभी 51 बैंकों को अलग-अलग प्रबंधन संचालित कर रहा है। हर माह करोड़ों रुपये खर्च हो रहे हैं ।साथ ही कर्मचारी भी उसी जिले में वर्षों से जमे होने से राजनीतिक गतिविधि में शामिल हो रहे हैं। बैंकों का अपेक्षित कंप्यूटरीकरण व अन्य कार्य न हो पाने से वहां पारदर्शिता का अभाव है। इसके अलावा कार्मिकों को वेतन सही से नहीं मिल पा रहा है। केंद्रीय सहकारिता मंत्री अमित शाह ने सहकार भारती के अधिवेशन में कहा था कि वे जिला सहकारी बैंकों को प्रदेश बैंक के साथ नाबार्ड से जोड़ेंगे। यह कब भलीभूत हो सकेगा कहा नही जा सकता है। अलबते चुनाव आदि के समय सभी राजनीतिक दल इसे अपने प्रतिष्ठा का विषय बना लेते हैं। इसमें पारदर्शिता पर संदेह होता है और पद प्रतिष्ठा के साथ कुछ गुप्त लाभ और सुविधाएं भी छिपा होना लाजमी है।
प्रदेश सरकार ने यूपीसीबी व जिला सहकारी बैंकों के बेहतर प्रबंधन के लिए 31 अक्टूबर 2018 को आइआइएम लखनऊ के प्रोफेसर विकास श्रीवास्तव की अगुवाई में कमेटी गठित किया था। समिति ने फरवरी 2020 में सरकार को रिपोर्ट सौंपा है कि जिला सहकारी बैंकों का यूपीसीबी में विलय कर दिया जाए, इसके अलावा कई अन्य अहम सुझाव दिए गए हैं, ये प्रकरण शासन स्तर पर लंबित है। यदि इसका निराकरण हो गया तो यह स्वतन्त्र और स्वायत्त होकर पॉकेट संगठन नहीं रह सकेगा।
नोट बन्दी के समय इस संस्था द्वारा बड़े पैमाने पर कालेधन को सफेद किया गया है। इन बैंकों द्वारा वित्तीय अनियमितताएं की गई। धड़ाधड़ अनुदान और ऋण बांटे गए। वसूली पर जोर नही दिया गया।इसलिए इनका घाटा बढ़ते बढ़ते इतना ज्यादा हो गया कि इन्हें अपना कारोबार समेट कर ताला लटकाना पड़ा। मुझे तो यह भी प्रतीत होता है कि वार्षिक लेखा परीक्षण के प्रस्तरों की भी अनदेखी की गई होगी। बाद में जब सरकार की साख पर सवाल उठा तो सीमित और मनमानी तरीके से इसे चालू करने का नाटक किया गया।  यूपी के बंद 16 जिला सहकारी बैंक फिर से खुल गए हैं। भारतीय रिजर्व बैंक के आदेश के अनुसार, ये 16 जिला सहकारी बैंक प्रदेश के अन्य बैंकों की तरह कार्य शुरू कर भी दिए हैं पर सच्चाई तो कोई भुक्त भोगी ही बता पाएगा। बैंक उपभोक्ताओं को उनका पैसा मिलने और एक महीने तक इंतजार करने के अलावा और कोई सुगम रास्ता नहीं बचा है। भारतीय रिजर्व बैंक ने इन 16 जिला सहकारी बैंक के निर्धारित मानक की पूर्ति न करने के वजह से इनके लाइसेन्स निरस्त कर दिए थे। पर  एक अक्टूबर 2022 से बैंक खाताधारक बिना किसी असुविधा के लेन-देन कर सकेंगे,इस प्रकार की घोषणा भी हो चुकी है । किसी भी खाताधारक को चिन्ता ना करने की और सभी ग्राहकों का पैसा पूरी तरह सुरक्षित होने की लालीपाप दिया जा चुका है। प्रभावित बैंक हैं -- जनपद गाजीपुर, वाराणसी, सीतापुर, हरदोई, आजमगढ़, फतेहपुर, बलिया, इलाहाबाद, फैजाबाद, गोरखपुर जौनपुर, सिद्धार्थनगर, सुलतानपुर, बहराइच, देवरिया तथा बस्ती की जिला सहकारी बैंक।इन सब शाखाओं के खाता भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा लाइसेंस आरबीआई द्वारा निरस्त किया गया थे।
 उत्तर प्रदेश के सहकारिता राज्य मंत्री जेपीएस राठौर ने कहा था कि भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित मानकों की पूर्ति न करने के कारण 16 जिला सहकारी बैंकों के निरस्त लाइसेंस को रिन्यूअल कर दिया गया है। 16 कमजोर स्थिति वाली जिला सहकारी बैंकों की समीक्षा करते हुए सहकारिता मंत्री ने निर्देश देते हुए कहा था कि सभी अधिकारी व कर्मचारी मेहनत एवं लगन से कार्य करें, तथा चुनौतियों का सामना मिलजुल कर करें। बैंक की आय बढ़ाने के लिए वेतन भोगी समितियों को जोड़ा जाये। जिससे तत्काल बैंक की पूंजी बढ़ेगी। इसके साथ ही कृषक हित के ऋण देने के अतिरिक्त होम लोन, एजुकेशन लोन, बिजनेस लोन के साथ-साथ अन्य लोन भी दिए जाये। उन्होंने कहा कि कोई भी अधिकारी भ्रष्टाचार तथा वित्तीय अनियमितता में शामिल न हों।नहीं तो उनके खिलाफ सख्त कार्यवाही की जायेगी। उन्होंने कहा था कि अथक प्रयासों के बाद इन बैंकों को पुनः लाइसेंस प्राप्त हुआ है। इसीलिए सभी बैंकों को अपनी स्थिति में और सुधार करने तथा पूंजी बढ़ाने की अवश्यकता है।
इतना सब होते हुए भी इन बैंकों के काम काज में सुधार होता नहीं दिख रहा है।जो बैंक बैंक के काम काज की अवधि में उपभोक्ताओं से खचाखच भरा रहता था वह अब इने गिने लोगों को देखने को तरस रहे हैं। स्टाफ की भर्ती बंद हो गई है।एक लिपिक और एक कैशियर से काम काज चल जाता है। कुछ अन्य वफादार स्टाफ भी देखे जा सकते हैं पर वे क्या करते हैं और कितना उपभोक्ता के लिए उपयोगी है? इसे बिरले लोग ही समझ सकते हैं। आम जनता का विश्वास हासिल करने में ये सक्षम नही हो पा रहे हैं। धीरे धीरे लोग अपना एकाउंट बंद कराते जा रहे हैं। हां यदि उ0प्र0 /जिला सहकारी बैंक लि0 का अधिग्रहण और सरकारी नियन्त्रण में ले लिया जाए और जन जागरण अभियान चला कर लोगों का विश्वास जीता जाय तो ये बैंक पुनः स्थापित होकर जीवित हो सकते हैं।
जिला सहकारी बैंक बस्ती का नवीन प्रयास:-
जिला सहकारी बैंक के नवनिर्वाचित अध्यक्ष राजेंद्र नाथ तिवारी ने बैंक की साख बचाने के लिए जरूरी पहल की है। उन्होंने भारत सरकार के सहकारिता मंत्री को पत्र भेजकर कहा है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के 16 सहकारी बैंकों में लेन देन की स्थिति विभागीय दु‌र्व्यवस्था के कारण इतनी खराब हो गई है कि उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध हो गई है। रिजर्व बैंक की स्थापना के पूर्व का जिला सहकारी बैंक लिमिटेड बस्ती है। जिसको रिजर्व बैंक की मुख्य धारा में रहने के लिए रिजर्व बैंक से लाइसेंस लेना पड़ा। लाइसेंस लेने से पूर्व ही रिजर्व बैंक ने एक आदेश जारी कर जिला सहकारी बैंकों में जिसमें बस्ती, वाराणसी, गोरखपुर, बहराइच जैसे 16 जिले शामिल हैं, को लेन-देन से मना कर दिया। बाद में 16 अगस्त 2016 को लेन-देन के लिए सीमित अधिकारी देते हुए पुन: कार्य करते रहने की अनुमति दी गई। इस बीच बैंक की साख इतनी खराब हो गई कि लेन-देन की बढ़ती भीड़ के कारण और मांग के अनुरूप भुगतान न करने के कारण बैंकों पर विश्वास का संकट खड़ा हो गया। प्रधानमंत्री की ओर से सहकारी बैंकों के उपचार के लिए लिए पैकेज की घोषणा की गई। भारत सरकार ने उत्तर प्रदेश कोआपरेटिव बैंक लिमिटेड लखनऊ में धनराशि भेज दी, मगर उस धनराशि के सापेक्ष बीमार बैंकों को धन आवंटित नहीं किया गया।अध्यक्ष जी ने सहकारिता मंत्री जी से अनुरोध किया है कि जिला सहकारी बैंकों के उत्तर प्रदेश कोआपरेटिव बैंक लिमिटेड में जमा धनराशि लगभग 76 करोड़ रुपये को तुरंत अवमुक्त किया जाए। जिला सहकारी बैंक बस्ती में मांग के अनुरूप बैंक अधिकारी व कर्मचारी भी तैनात किए जाएं।
जिला सहकारी बैंक बस्ती द्वारा बस्ती और संत कबीर नगर की साधन सहकारी सहकारी संस्थाओं को वित्त पोषित करने के लिए अब तक सहकारी समितियों को 500000 से ₹1000000 तक का उर्वरक ऋण सीमा स्वीकृत की गई है। इसके साथ सहकारी बैंक द्वारा उद्यमियों सहित अन्य पात्र लोगों विभिन्न प्रकार के ऋण उपलब्ध कराये जा रहे हैं। जिससे अपने बलबूते ऊर्जा का सदुपयोग करते हुए लोग अपने जीवन स्तर में और अधिक सुधार ला सकें।

Sunday, December 18, 2022

पेरिय नम्बि परांकुशदास महापूर्ण स्वामीजी एक महान आचार्य (सनातन श्री सम्प्रदाय परम्परा 19) डा. राधे श्याम द्विवेदी


            कमलापति कल्याण गुणामृत निषेवया।
            पूर्ण कामाय सततम् पूर्णाय महते नमः ॥

         सनातन धर्म श्री सम्प्रदाय के आचार्यों की श्रृंखला में दक्षिणभारत के पेरिय नम्बि परांकुशदास महापूर्णस्वामीजी के बारे में कतिपय सूचनाओं से अवगत कराएंगे। सनातन अर्थात श्री सम्प्रदाय के आचार्यों की श्रृंखला में दक्षिण भारत के आचार्यों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस कड़ी में पुण्डरीकाक्ष जी के बाद उनके शिष्य राममिश्र जी और उनके बाद उनके शिष्य परांकुश जी हुए थे उसके बाद उनके शिष्य यामुनाचार्य जी और उनके बाद रामानुज जी हुए हैं ।
           पेरिय नम्बि को परांकुशदास श्री महापूर्ण स्वामीजी भी कहा जाता है। परांकुशदास महापूर्णाचार्य का ही दूसरा नाम है। परांकुश का मतलब सर्वशक्तिमान होता है।
 वे आळवन्दार् श्री यामुनाचार्यजी के ही शिष्य और रामानुजाचार्य के गुरु रहे हैं । उनका जन्म श्रीरंगम में मार्गशीर्ष् मास, ज्येष्ठ नक्षत्र में हुआ था। आळवन्दार (श्री यामुनाचार्य स्वामीजी) के समय के बाद , सारे श्रीरंगम के श्रीवैष्णव पेरिय नम्बि से विनती करते है की वह श्री रामानुजाचार्य को श्रीरंगम मे लाये । अतः वह श्रीरंगम से अपने सपरिवार के साथ कांचीपुरम की ओर चले। इसी दौरान श्री रामानुजाचार्य भी श्रीरंगम की ओर निकल पडे।
          भगवान पेरुमल थे जो सदैव इळयाळ्वार स्वामीजी की बचाव करते थे और उनको पेरिय नम्बि जी के पास जाने को प्रेरित करते थे, और कहते की आप पेरिय नम्बि से पञ्च संस्कार करवाइये और उनके शिष्य बन जाईये।
वरदराज पेरुमाल मंदिर भारत के तमिल नाडु राज्य के कांचीपुरम तीर्थ-नगर में स्थित भगवान विष्णु को समर्पित एक हिन्दू मंदिर है। यह दिव्य देशम में से एक है, जो विष्णु के वह 108 मंदिर हैं जहाँ 12 आलवार संतों ने तीर्थ करा था। यह कांचीपुरम के जिस भाग में है उसे विष्णु कांची कहा जाता है।
             इळयाळ्वार स्वामीजी (श्री रामानुजाचार्य) कान्चि छोड़ कर जाते हैं, फिर पेरिय नम्बि से कान्चि के रास्ते में मिलते है| आश्चर्य की बात यह थी की वे दोनो मदुरान्तगम् मे मिलते है और तभी पेरिय नम्बि श्री रामानुजाचार्य का पञ्च संस्कार करते हैं और कान्चिपुरम पहुँचकर श्री रामानुजाचार्य को सम्प्रदाय के अर्थ को बतलाते है।इसी बींच रामानुजाचार्य की धर्मपत्नी पेरियनम्बि (जिनका कुल नीचा था) के प्रति असद्भावना होने की वजह से पेरियनम्बि दुखित होकर अपने परिवार के साथ श्रीरंगम वापस लौट गए ।
             पेरिय नम्बि एक महान आचार्य थे जिन्हें श्री रामानुजाचार्य के प्रति अत्यधिक लगाव और सम्मान था।
जब उनकी बेटी को अलौकिक सहायता की जरूरत थी तब इसके हल के लिये अपनी बेटी को रामानुजाचार्य के पास जाने का उपदेश देते है।वह जानते थे कि इस तरह के अच्छे कर्मों को कभी स्थगित नहीं किया जाना चाहिए । 
          एक बार श्रीरामानुजाचार्य अपने शिष्यगण के साथ चल रहे थे तब अचानक श्रीरामानुजाचार्य के गुरु पेरियनम्बि उनको दण्डवत प्रणाम करते है । तब श्रीरामानुजाचार्य इस क्रिया का स्वीकार या समर्थन नही करते क्योंकि किसी भी शिष्य को अपने आचार्य का प्रणाम स्वीकार नही करना चाहिये । इस क्रिया से सभी शिष्य आश्चर्यचकित होते देखकर श्रीरामानुजाचार्य अपने आचार्य से पूछते है," उन्होने ऐसा क्यों किया ?" तब श्रीपेरियनम्बि कहते है कि "रामानुजाचार्य मे वह अपने आचार्य श्री यामुनाचार्य को देखते है इसीलिये उन्होने दण्दवत प्रणाम किया |" वार्ता माला में एक विशेष वचन सूचित करती हैं की आचार्य को अपने शिष्य के प्रति बहुत सम्मान होना चाहिए और पेरियनम्बि उस वचन के अनुसार जीवन यापन किए हैं ।
             पेरियनम्बि मारनेरीनम्बि (जो शूद्र होने के बावजूद यामुनाचार्य के शिष्य हुए और फिर एक महान श्रीवैष्णव बने) का अन्तिम संस्कार करते है , जब वह परपदम को प्रस्थान हुए । इस क्रिया का समर्थन अधिकतर श्रीवैष्णव नही करते और वे श्रीरामानुजाचार्य को इस घटना के बारें मे बताते है । यह जानकर जब श्रीरामानुजाचार्य पेरियनम्बि से पूछते है तब पेरियनम्बि कहते है की उन्होने सीधा आळ्वार के श्रीसूक्तियों ( तिरुवाय्मोळि – पयिलुम् चुडरोळि (3.7) और नेडुमार्क्कडिमै (8.10) ) का पालन किया और यही वार्दात श्री अळगिय मनवाळ पेरुमाळ्नायणार अपने आचार्य हृदय मे कहते है और यह हमारे गुरुपरंपराप्रभावम् मे भी है ।
         एक बार पेरियपेरुमाळ को कुछ कुकर्मियों से खतरा था यह जानकारी प्राप्त कर श्रीवैष्णव निश्चय करते है की पेरियनम्बि ही सही व्यक्ति है जो देवालय की प्रदक्षिणा कर सकते है । तब वह श्री कूरत्ताळ्वार को अपने साथ प्रदक्षिणा करने को बुलाते है क्योंकि कूरत्ताळ्वार ऐसे एक मात्र भक्त थे जिन्होने परतन्त्रता का दिव्यस्वरूपज्ञान मालूम था । यही विषय नम्पिळ्ळै अपने तिरुवाय्मोलि (७ .१० .५ ) ईडु व्याख्यान में बताते हैं ।
           इसके पश्चात , एक बार शैव राजा ने श्री रामानुजा- चार्य को अपने दरबार मे आमंत्रित किया जिससे समाधान मे श्री कूरत्ताळ्वार (श्रीरामानुजाचार्य के भेष मे) और बूढे श्री पेरियनम्बि उनके साथ गए । यह शैव राजा को श्रीरामानुजाचार्य के प्रति सद्भावना नही होने के कारण अपने अनुचरों को आज्ञा देते है की श्रीरामानुजाचार्य के आँखें नोच लें । तब श्री पेरियनम्बि राज़ी होकर अपने आपको समर्पित करते है और उनकी आँखें नोच ली जाती है । अपने वृध्द अवस्था मे होने के कारण श्री पेरियनम्बि परम पद को प्रस्थान करते है । कहते है की उनके अन्तिम काल के इस घटना से एक सीख मिलती है ।
         श्री कूरत्ताळ्वान और पेरियनम्बि कि बेटी (अतुळाय) कहते है कि जैसे भी हो आप अपने प्राणों को ना त्यागें, क्योंकि श्रीरंगम ज्यादा दूर नही है । यानि वह अपने प्राण तभी त्यागें जब वह श्रीरंगम पहुँचे । यह सुनकर श्री पेरियनम्बि तुरन्त रुकने को कहते है और फिर कहते है अगर इस घटना को लोग कुछ इस प्रकार समझेंगे कि अपने प्राणों का त्याग श्रीरंगम मे करना जरूरी है तब वह एक श्रीवैष्णव के वैभव को सीमित करने के बराबर है और यह कदाचित भी नही होना चाहिये । अतः वह वही अपने प्राणों को त्यागते है ।
             आळ्वार कहते है –
               "वैकुंठमागुम् तम् ऊरेल्लाम्” – 
         यानि जहाँ श्रीवैष्णव रहते है वही वैकुंठ हो जाता है । अतः हमारे लिये यह जरूरी है की हम जहाँ भी हो भगवान पर पूर्णनिर्भर रहे क्योंकि ऐसे कुछ लोग जो दिव्यदेशों मे रहने के बावज़ूद नही समझते की उनपर भगवान की असीम कृपा और प्रशंशनीय आशीर्वाद है और इसके व्यतिरेक मे ऐसे श्रीवैष्णव है जो सदैव भगवद्चिंतन मे रहते है (जैसे – चाण्डिलि और गरुड की घटना) ।
          पेरिय नम्बि हमारे सम्प्रदाय के सच्चे सिद्धांतों को जानते थे जो कभी भगवान के भक्त को अलग नहीं करते थे और सभी को प्यार और सम्मान के साथ समान रूप से व्यवहार करते थे । वह अपने शिष्य रामानुज से इतना प्यार करते थे कि उन्होंने हमारे सम्प्रदाय के भविष्य के आचार्य के लिए अपना जीवन त्याग दिया । उस समय, वहां के शैव राजा ने रामानुजा को अपनी मांगों को स्वीकार करने के लिए अपनी अदालत में आने का आदेश दिया था। 
           जब राजा उन्हें अपनी मांगों को स्वीकार करने का आदेश देता है, तो श्री कूरेश (कूरत्ताज़्ह्वान्) और पेरिय नम्बि दोनों राजा की मांगों को नहीं मानते हैं। राजा बहुत क्रोधित हो गया और अपने सैनिकों को उनकी आंखें निकालने का आदेश दिया। वृद्धावस्था के कारण दर्द को सहन करने में असमर्थ, पेरिय नम्बि अपना जीवन छोड़ देते है और श्रीरंगम जाने के रास्ते में परमपद चले जाते है, अंत समय में पेरिय नम्बि स्वामीजी कुरेश स्वामीजी की गोद में अपना सिर रखते है और फिर परमपद को प्रस्थान करते है। इन महान आत्माओं ने बिना किसी चिंता के सब कुछ त्याग दिया, हमारे रामानुज स्वामीजी की रक्षा करने के लिए, जो एक मोती के हार में केंद्रीय मणि की तरह हैं, जिसे हमारे श्री रामानुजा सम्प्रदाय कहा जाता है, मोतियों के रूप में सभी आचार्यों ने हार को एक साथ रखा और देखा कि केंद्रीय मणि सुरक्षित रहे । तो हम सभी को अपने आचार्यों के प्रति हमेशा आभारी रहना चाहिए और हमेशा अपने जीवन से नम्र होना चाहिए।
      अतः हम देख सकते है की श्री पेरियनम्बि कितने उत्कृष्ट श्रीवैष्णव थे और वह भगवान पर पूरि तरह निर्भर थे । तिरुवाय्मोळि और नम्माळ्वार के प्रति असीमित लगाव के कारण उन्हे परांकुश दास के नाम से जाना जाता है । उनके प्रार्थना से हमे यह पता चलता है की वह भगवान श्रियपती के कल्याणगुणों मे इतने निमग्न थे की वह इस दिव्यानुभव से सुखी और संतुष्ठ थे ।
पेरियनम्बि के शिष्य गण : - पेरियनम्बि के शिष्य निम्न हैं - श्रीरामानुजाचार्य (एम्पेरुमानार) , मलैकुनियनिन्रार , आरियुरिल् श्री शठगोप दासर , अणियैरंगतमनुदानार पिळ्ळै और तिरुवैक्कुलमुदैयार भट्टर इत्यादि।











Saturday, December 17, 2022

खरमास के बारे में कुछ जरूरी तथ्य-- डा. राधे श्याम द्विवेदी


        वैदिक पंचांग के अनुसार एक साल में 12 संक्रांति होती हैं। सूर्य जब भी एक राशि से निकलकर दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं तो वह क्षण संक्रांति के नाम से जाना जाता है। वहीं सूर्यदेव जिस भी राशि में प्रवेश करते हैं, उसी राशि का नाम संक्रांति के साथ जुड़ जाता है। सभी संक्रांतियों में मीन और धनु संक्रांति बहुत ही महत्वपूर्ण संक्रांति मानी जाती हैं। क्योंकि ये संक्रांति जब भी होती हैं, उसके बाद एक महीने तक किसी भी प्रकार के शुभ और मांगलिक कार्य नहीं किए जाते हैं ।
     ज्योतिषीय दृष्टि से देखा जाए तो साल में दो बार खरमास आता है। जब -जब सूर्य बृहस्पति की राशि धनु और मीन में प्रवेश करते हैं,तब-तब खरमास लगता है। खरमास में सूर्य अपने तेज को देवगुरु बृहस्पति के घर पहुंचते ही कम कर लेते हैं,ऐसी परिस्थिति में पृथ्वी पर सूर्य का तेज कम हो जाता है। सूर्य के कमजोर होने के कारण एक माह के लिए मंगलिक कार्यों पर विराम लगा दिया जाता है। जब सूर्य गुरु की राशियों में होता है,तब सूर्य के तेज से गुरु की राशि धनु और मीन निर्बल हो जाती है। ऐसी स्थिति में शुभ कार्यों के अपूर्ण होने की आशंका रहती है,इसलिए इस दौरान प्रभु का स्मरण करना बहुत पुण्यदायी माना जाता है।
प्रथम दिसंबर - जनवरी का खरमास :-
16 दिसंबर 2022 को भगवान सूर्यदेव धनु राशि में प्रवेश कर गए और 14 जनवरी 2023 को मकर राशि में सूर्यदेव गोचर करेंगे। इसीलिए 16 दिसंबर 2022 से लेकर 14 जनवरी 2023 तक खरमास रहेगा।
14 जनवरी 2023 शनिवार के दिन 7 व्रत और त्यौहार है
1. मकर संक्रान्ति - (सूर्य का मकर राशि में प्रवेश)
2. पोंगल - (मकर संक्रान्ति के दिन)
3. उत्तरायण - (सौर कैलेण्डर पर आधारित)
4. मकरविलक्कु - (सौर कैलेण्डर पर आधारित)
5. रोहिणी व्रत - (जैन कैलेण्डर पर आधारित)
6.स्वामी विवेकानंद जयंती
7. लोहड़ी (लोहरी)
द्वितीय मार्च - अप्रैल का खरमास :-
15 मार्च 2023, दिन बुधवार को भगवान सूर्यनारायण मीन राशि में प्रवेश कर जाएंगे और खरमास आरंभ हो जाएगा। इसके बाद 14 अप्रैल 2023, दिन शुक्रवार तक खरमास रहेगा और इसी दिन भगवान सूर्यदेव मीन राशि से निकलकर मेष राशि में प्रवेश करेंगे।
14 अप्रेल 2023, वैशाख कृष्ण नवमी शुक्रवार के दिन 5 व्रत और त्यौहार है
1. बौशाखी (मेष संक्रान्ति के दिन)
2. मेष संक्रान्ति - (सूर्य का मीन से मेष राशि में प्रवेश)
3. सोलर नववर्ष - (हिन्दु सौर कैलेण्डर का पहला दिन)
4.पुथन्डू - (सौर कैलेण्डर पर आधारित)
5. अम्बेडकर जयन्ती - (ग्रेगोरियन कैलेण्डर में निश्चित दिन)
इस दौरान कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता है. आने वाले नए साल में 14 जनवरी को मकर संक्रांति के दिन खरमास का महीना खत्म होगा. इस समय का निर्धारण सूर्य की गति से हर बार होता है और चन्द्र की स्थिति से कोई मतलब नहीं होता है।कुछ लोग इसे मलमास समझने का भ्रम मन बैठते है। खरमास साल में दो बार तथा मलमास तीन साल में एक बार होता है। हिंदू मान्यताओं के मुताबिक खरमास में शादी-विवाह पर पाबंदी होती है. इसके अलावा घर बनाना या खरीदना या कोई नया काम करने पर रोक होती है. 
खरमास की कथा:-
खरमास की कथा गधे से संबंधित है. संस्कृत में खर का मतलब गधा होता है और मास का मतलब महीना होता है. कथाओं के मुताबिक एक बार सूर्य देवता अपने रथ पर बैठकर ब्राह्मांड की परिक्रमा कर रहे थे. इस दौरान उनके रुकने का मतलब धरती पर जनजीवन का रुक जाना था. इसलिए उनका रथ हमेशा चलता रहता था. लेकिन इस दौरान उनके घोड़े थक गए और उनको प्यास लगने लगी. इससे चिंतित होकर भगवान ने रथ को एक तालाब के किनारे रोक दिया और घोड़ों को आराम के लिए छोड़ दिया. इसी वक्त तालाब किनारे दो गधे घास चर रहे थे. भगवान ने दोनों गधों को रथ से जोड़ा और फिर परिक्रमा पर निकल पड़े. लेकिन गधे तो गधे होते हैं. उनकी रफ्तार घोड़ों के मुकाबले कम होती है. इसलिए रथ की रफ्तार भी धीमी हो गई. भगवान सूर्य ने किसी तरह से एक महीने का वक्त पूरा किया और तालाब के किनारे पहुंचे. इसके बाद उन्होंने गधों को मुक्त किया और घोड़ों को रथ से जोड़ा और फिर परिक्रमा पर निकले पड़े. इस तरह से हर सौर साल में एक महीना खरमास का होता है।
खरमास के महीने में क्या करना चाहिए:-
खरमास के महीने में शुभ कामों पर रोक होती है. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि खरमास में हर काम अशुभ होता है. चलिए आपको बताते हैं कि खरमास में क्या-क्या करना चाहिए.
भगवान सूर्य की पूजा करनी चाहिए. 
इस महीने में लक्ष्मी नारायण की पूजा करके विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ कर सकते हैं 
इस महीने में दान-पुण्य करना भी फलदायी होता है
खरमास में ईष्ट देवों की पूजा-पाठ करने से जीवन की सभी बाधाएं दूर होती हैं
खरमास में गरीबों की मदद करने से मां लक्ष्मी का आशीर्वाद मिलता है
इस महीने में जप-तप और मंत्रों का उच्चारण करने से भी शुभ फल मिलता है
खरमास में क्या नहीं होता है:-
मांगलिक कार्यक्रमों जैसे शादी-विवाह, मुंडन, गृह प्रवेश जैसे काम नहीं करने चाहिए।
खरमास में कोई भी नया काम करने की पाबंदी होती है
मकान, जमीन या प्लॉट नहीं खरीदा चााहिए।
नए कपड़े और आभूषण भी पहनना नुकसानदायक होता है।
खरमास में अगर संभव हो तो मूंग दाल, जीरा, आम, सुपारी, सेंधा नमक, तिल नहीं खाना चाहिए।

ज्ञानी का घमंड टूटना व विद्वतकर की प्रथा का अंत आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी

पंडितों में कर लेने की प्रथा:-
बात दसवीं - ग्यारहवी शताब्दी के उन दिनों की है जब दक्षिण भारत में राजा पांड्य राज करते थे। उनके दरबार में कोलाहल नामक एक विद्वान ब्राह्मण राजपंडित के पद पर नियुक्त थे । वह विद्वान के साथ ही साथ बड़ा घमंडी भी था। राजा पांड्य भी इसका बहुत सम्मान करते थे। वह विद्वान ब्राह्मïणों से शास्त्रार्थ करता था और शास्त्रार्थ में पराजित होने वाले ब्राह्मïणों से प्रति वर्ष कर वसूला करता था। सामान्य जीवन यापन करने वाले और हारे हुए पंडितों को राज पंडित को मजबूरन कर देना पड़ता था।
       उन्हीं गुरु भाष्याचार्य के एक शिष्य थे यमुनाचार्य, जिन्होंने वैष्णव सम्प्रदाय की स्थापना की थी। वे बचपन से ही काफी प्रतिभाशाली और विद्वान थे। उनकी विशेषता यह थी कि वे जिस पुस्तक को पढ़ लेते, वह उनको कंठस्थ हो जाया करती थी। भाष्याचार्य की अनुपस्थिति में कोलाहल का सेवक आया और यमुनाचार्य से कर की मांग करने लगा। कर की बात सुनकर यमुनाचार्य को बहुत आश्चर्य हुआ और बोले, ‘ किस बात का कर? तुम्हें किसने कर लेने के लिए भेजा है? मेरे गुरु तो किसी को कर नहीं देते।’ सेवक ने सोचा यह जानबूझकर ऐसा बोल रहा है। यही सोचकर क्रोधित होकर बोला, ‘जानकर भी अनजान बन रहे हो यामुन मुनि । तुम्हारे गुरु हमारे राजपंडित से शास्त्रार्थ में पराजित हो गये हैं। नियमानुसार पराजित होने वाले प्रत्येक विद्वान को कर देना पड़ता है। तुम्हारे गुरु ने पिछले कई वर्षों से कर नहीं दिया है और मुंह छिपाये फिर रहे हैं। यदि अपना कुशल चाहते हो, तो हमारा कर चुकता कर दो, वरना इसका परिणाम बुरा होगा।’
महापंडित, राज पुरोहित कोलाहल अन्य पंडितो को हरा कर आनंदित होता और इन सबकी खिल्ली उड़ाता था। उस समय गुरु भाष्याचार्य की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, फिर भी किसी प्रकार से वे कर दे रहे थे। यह बात उन्होंने अपने शिष्यों को नहीं बतायी थी। आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के से वे कई वर्षों तक कर नहीं चुका पाये और किसी आवश्यक कार्य से कहीं बाहर चले गये थे।  
        कोलाहल अपने प्रतिनिधियों को पंडितों के पास भेज कर उनसे कर वसुल करने को भेजता है । एक दिन कोलाहल का एक शिष्य ‘वंजि’ आया और बकाया कर की वसूली के लिए वहां बैठे यामुनाचार्य को अपशब्द बोल दिया। गुरु की अनुपस्थिति में उनका बारह वर्षीय शिष्य यामुन मुनि ने वंजि से कहा,"अपने गुरु तथा राजा को मेरा संदेश सम्मान के साथ दे देना कि मैं उन महापंडित ‘कोलाहल’ जी से शास्त्रार्थ करके उन्हें पराजित कर दूंगा।"
       उसी समय इस नए पंडित श्री यामुन मुनि की विद्वता की ख्याति फैल रही थी जो धीरे धीरे राजा पांड्य के कानों तक पहुंच गई थी। राजा को अपने महा पंडित के पांडित्य पर पूर्ण विश्वास था ही, अतः कुतुहल बस नए पंडित श्री यामुन मुनि को कोलाहल से शास्त्रार्थ करने के लिए आमंत्रित कर दिया ।  
           यामुनाचार्यजी एक श्लोक भेजते हैं, जिसमे वह स्पष्ट रूप से कहते है, वह उन सब कवियों का जो अपना स्वप्रचार के लिये अन्य विद्वानों पर अत्याचार करते है, उनका नाश करेंगे। यह देखकर कोलाहल को गुस्सा आता है और अपने सैनिकों को यमुनाचार्य को राजा के अदालत में लाने के लिए भेजता है।    
ज्ञान के घमंड का टूटना :-
       उस समय यमुनाचार्य की आयु मात्र बारह वर्ष की थी। उन्हें अपने गुरु का अपमान सहन न हुआ और बोल पड़े, ‘यदि कोलाहल को अपने ज्ञान का घमंड हो गया है । जाओ, जाकर अपने राजपंडित से कह दो, पहले भाष्याचार्य के शिष्य यमुनाचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित करें, फिर कर लेने की बात करें।’ सेवक ने राजदरबार में जाकर कोलाहल को सारी बातें बतायीं। उस समय दरबार में राजा पांड्य भी मौजूद थे। यह सुनकर कोलाहल भी आग -बबूला हो गया और उसने राजा से कहा, ‘महाराज, उस धृष्ट बालक को बुलाया जाये।’
        राजा ने तुरंत अपने सेवकों को आदेश दिया, ‘जाओ और उस बालक को शीघ्र दरबार में पेश करो।’ सेवक ने शीघ्र यमुनाचार्य के पास जाकर राजा का संदेश सुनाया और दरबार में चलने को कहा। यमुनाचार्य बड़े गर्व से बोले, ‘जाओ और अपने राजा से कह दो हम इस प्रकार राजदरबार नहीं जा सकते। यदि वे राज पंडित के साथ शास्त्रार्थ के लिए बुलाना चाहते हैं, तो मुझे सम्मानपूर्वक आमंत्रित करें और मेरे आने के लिए सवारी भेजें।’
       सेवक ने जाकर राजा को सारी बात बतायी। राजा ने तुरंत आमंत्रण पत्र और सवारी सहित ससम्मान यमुनाचार्य को लाने के लिए सेवक को भेजा। उस समय तक उनके गुरु भाष्याचार्य भी बाहर से लौट आये थे। अपने द्वार पर राजा का रथ देखकर, वे भयभीत हो गये। उन्होंने सोचा कि शायद कोलाहल का कर न देने के कारण राजा के अधिकारी उन्हें दंड देने के लिए आये हैं। तभी सेवक ने आकर यमुनाचार्य को राजा का निमंत्रण पत्र दिया। भाष्याचार्य को बड़ा आश्चर्य हुआ। यमुनाचार्य ने अपने गुरु को सारी बातें बता दीं और कहा, ‘मैं कोलाहल के घमंड को चकनाचूर कर दूंगा। आप मुझे आशीर्वाद दें।’ यह सुनकर भाष्याचार्य ने अपना सिर पीटते हुए कहा, ‘यमुना, यह तूने क्या किया? कोलाहल जैसे विद्वान को पराजित करना कोई सरल कार्य नहीं। तू अभी बच्चा है। फिर तेरे लिए भी प्रतिवर्ष मुझे कर देना होगा। मेरा कहा मान तू अपना हठ छोड़ दे। राजा और कोलाहल से क्षमा मांग ले।’ लेकिन यमुनाचार्य अपनी जिद पर अड़े हुए थे। गुरु के लाख समझाने पर भी नहीं माने। वे राजा के दूत के साथ राज सभा में उपस्थित हो गए।
       राज दरबार में राजा ने सभा में उन्हें ऊंचा आसन दिया। बालक होकर भी यमुनाचार्य सबसे अधिक प्रभावशाली लग रहे थे। उस दिन दरबार में महारानी भी मौजूद थीं। तब बालक को देखकर बोली, ‘यह तो साक्षात् विद्या का अवतार है। यह बालक अवश्य कोलाहल को पराजित करेगा।’ 
       यह सुनकर राजा बोला, ‘क्या कहती हो रानी? कोलाहल जैसे विद्वान को पराजित करने की हिम्मत बड़े-बड़े विद्वानों में नहीं है, फिर इस बालक की क्या बिसात! कोलाहल जैसे विद्वान तो इसके गुरु भी नहीं हैं।’
इस बात को लेकर दोनों में बहस शुरू हो गयी। राजा ने उत्तेजित होकर कहा, ‘यदि तुम्हारी बात सच निकली, तो मैं इसे अपना आधा राज्य दे दूंगा।’
         रानी भी कहां पीछे रहने वाली थी। बोली, ‘यदि आप की बात सच निकली, तो मैं आपकी दासी की दासी बनकर रहूंगी।’
         शास्त्रार्थ आरंभ हुआ। राजा को ही निर्णायक बनाया गया। राजा ने पहले यमुनाचार्य से कहा, ‘आप प्रश्न पूछिए। यदि निश्चित समय में उत्तर नहीं मिला, तो कोलाहल की हार मानी जाएगी।’
         यमुनाचार्य ने प्रश्न किया, ‘शास्त्रों में कहा गया है, यह संसार अपार है। भगवान ने एक से एक बड़ा पापी और धर्मात्मा संसार में उत्पन्न किया है। कहा जाता है, राजा पांड्य बड़े धर्मात्मा हैं। क्या यह सबसे बड़े धर्मात्मा हैं?’
         यह प्रश्न सुनकर कोलाहल चुप हो गए। अगर सबसे बड़ा धर्मात्मा राजा को बताये, तो शास्त्र के विरुद्ध। अगर न बताये तो राजा के अपमान का भय। वह कोई उत्तर न दे सका।
     यमुनाचार्य ने फिर प्रश्न किया, ‘सतियों में सावित्री का नाम आता है। आपने कई बार अपनी रानी को महान सती बताकर प्रशंसा की है। क्या वह सावित्री से भी महान है। हैं तो प्रमाण दीजिए।’ बेचारे कोलाहल को काटो तो खून नहीं। कोलाहल को कोई उत्तर न सूझ पड़ा। वे चुपचाप सिर झुकाए खड़े थे। 
     यमुनाचार्य ने राजा से कहा, ‘आप अपना निर्णय दें।’ राजा ने हाथ उठाकर यमुनाचार्य को विजयी घोषित कर दिया। शर्त के अनुसार उन्हें आधा राज्य दे दिया गया। कोलाहल को भी अपनी गलती का अहसास हो गया। उसने उसी दिन से ज्ञान का घमंड न करने और किसी पराजित विद्वान से कर न लेने का संकल्प कर लिया।



 

















Wednesday, December 14, 2022

श्री सम्प्रदाय के श्रीयामुनाचार्यजी राजा भी और सन्त भी (श्रीसनातन सम्प्रदाय परम्परा 18 )आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी

अल्पायु में पिता की छत्रछाया छिनी :-
संवत् 965 में आचार्य नाथमुनि अवतरित हुए हैं। उनके पुत्र का नाम ईश्वरमुनि तथा पौत्र थे यामुनाचार्य। ये सभी वैष्णव संप्रदाय से जुड़े हुए थे। बालक यामुनाचार्य 916 ई./ विक्रमी संवत् 1010 को दक्षिणात्य आषाढ़ माह के उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में काट्टुमन्नार् कोविल, वीर नरायणपुराम , वर्तमान मदुरा के मन्नारगुडी गांव में पैदा हुए थे। बाद में इन्हे आळवन्दार् के नाम से जाना जाने लगा। वे अभी मात्र दस वर्ष के थे कि पिता ईश्वरमुनि की मृत्यु हो गई। पौत्र को भगवान के सहारे छोड़कर दादा नाथ मुनि ने संन्यास ले लिया था। 
अलौकिक प्रतिभा:-
 यामुनाचार्य का लालन-पालन पिता के अभाव में उनकी दादी तथा माता ने किया था। बचपन से ही उनकी अलौकिक प्रतिभा सामने आ गई थी। उनके गुरु थे, भाष्याचार्य। उनसे शिक्षा पाकर वह थोड़े समय में ही शास्त्रों में पारंगत हो गए थे। उनका स्वभाव मधुर प्रेम मय और उदार था, इसलिए उनकी ओर लोग खिंचे चले आते। श्री आळवन्दार ने अपना विद्याध्यन, अपनी प्रारंभिक शिक्षा महाभष्य भट्टर् से प्राप्त किया था। पांड्य राज के महा पंडित कोलाहल को शास्त्रार्थ में परास्त करने के उपलक्ष्य में वहां के महारानी ने उन्हें आधा राज्य सौंप दिया था।
पंडितों में कर लेने की प्रथा:-
 उन दिनों सामान्य और हारे हुए पंडितों को मुख्य और जीते हुए पंडित को कर चुकाना पडता था। उस समय पांड्य राजा के राजदरबार के विद्वान पंडित, राज पुरोहित कोलाहल थे। जो अन्य पंडितो को हरा कर आनंदित होता था। इधर श्री यामुन मुनि की विद्वता की ख्याति फैल रही थी जो राजा पांड्य के कानों तक पहुंची। उन्हें अपने महा पंडित पर विश्वास था ही, अतः कुतुहल बस श्री यामुन मुनि को कोलाहल से शास्त्रार्थ करने के लिए आमंत्रित किया।
यामुनाचार्य के गुरु भाष्याचार्य एक बार राजा के दरबारी ‘कोलाहल नामक दिग्विजयी पंडित से शास्त्रार्थ में हार गए।
 एक बार आर्थिक तंगी के कारण यामुनाचार्य गुरु दो-तीन वर्ष तक महा पंडित कोलाहल को कर नहीं दे पाए। एक दिन कोलाहल का एक शिष्य ‘वंजि’ आया और बकाया कर की वसूली के लिए वहां बैठे यामुनाचार्य को अपशब्द बोल दिया। गुरु की अनुपस्थिति में बारह वर्षीय यामुन मुनि शिष्य ने वंजि से कह दिया अपने गुरु तथा राजा को मेरा संदेश दे देना कि मैं उन महापंडित ‘कोलाहल’ जी से शास्त्रार्थ करके उन्हें पराजित कर दूंगा।
        कोलाहल अपने प्रतिनिधियों को पंडितों के पास भेज कर उनसे कर वसुल करने को कहते थे। इसे सुनकर महाभाष्य भट्टर् चिन्तित हो जाते हैं और यामुनाचार्य जी से कहते हैं के वो इसका ख्याल रखेंगे। यामुनाचार्यजी एक श्लोक भेजते हैं, जिसमे वह स्पष्ट रूप से कहते है, वह उन सब कवियों का जो अपना स्वप्रचार के लिये अन्य विद्वानों पर अत्याचार करते है, उनका नाश करेंगे। यह देखकर कोलाहल को गुस्सा आता है और अपने सैनिकों को यमुनाचार्य को राजा के अदालत में लाने के लिए भेजता है। 
        यामुनाचार्यजी उन्हें बताते हैं कि वह केवल तभी आएगें जब उसे उचित सम्मान की पेशकश की जाएगी।
जब यह बात राजा तथा पंडित तक पहुंची, तो वह तिलमिला उठे। राजा ने यामुनाचार्य को लाने के लिए सवारी (पालकी )भेज दी। तब तक गुरु भाष्याचार्य भी आ चुके थे। वह डरे हुए थे । शिष्य ने कहा, आप चिंता न करें। मैं उन्हें पराजित कर हर वर्ष देने वाले कर से आपको मुक्ति दिला दूंगा।
यामुनाचार्य जी जब पालकी पर बैठ कर आ रहे थे तो राजा और रानी ने उन्हें झरोखों से देखा। रानी को आचार्य श्री के चेहरे पर दिव्य तेज दिखाई दिया। उन्होंने महाराज जी से कहा कि ये कोई दिव्य पुरुष हैं, कोलाहल पंडित इनसे जीत नहीं पाएंगे।
         रानी राजा को बताती है कि उन्हे यकीन है कि यामुनाचार्य जी जीतेगा और यदि वह हारेंगे तो वह राजा का सेवक बन जाएंगी। पांडव देश की रानी शर्त रखी थी - अगर वह जीतते नही तो, रानी एक नौकर बन जाएगी। 
उधर राजा को भरोसा था कि कोलाहल जीतेंगे और वो कहते हैं कि अगर यामुनाचार्य जी जीतते हैं, तो राजा उन्हे आधा राज्य दे देंगे। यामुनाचार्य जी राज सभा में आते हैं। दरबार लगा, दोनों पंडित अपने अपने आसन पर विराजमान हो गए।
घमण्ड का मर्दन:-
दोनो विद्वानो के मध्य शास्त्रार्थ शुरू हो गया। उस समय रानी भी वहां उपस्थिति थी। कोलाहल ने घमंड में भरकर आचार्य श्री से कहा आप जो कुछ भी कहेंगे मैं उसका खण्डन कर दूंगा। इस पर यमुनाचार्य ने कहा मैं तीन बातें कह रहा हूं। इनमे से किसी एक का तुम खंडन कर दोगे तो मैं तुम्हारा शिष्य हो जाऊंगा। यह कहकर उन्होंने कोलाहल पण्डित से तीन बातें कही ,जो इस प्रकार है --
पहला – आप ( अक्की आलवान ) के माताजी बंध्या (बाँझ ) स्त्री नहीं है।
दूसरा – हमारे राजा धार्मिक पुण्यवान है, हमारे राजा समर्थ (काबिल/योग्य/सक्षम) है।
तीसरा – राजा की पत्नी (महारानी) पतिव्रता स्त्री और साधु स्वभाव की है।
       यह प्रश्न कर यमुनाचार्य ने कहा अब इन तीनो का खण्डन अपने शास्त्रार्थ के नैपुण्य से करिये । ये तीन प्रश्न सुनकर कोलाहल दंग रह गए । वह एक भी प्रश्न का खण्डन नही कर पाए क्योंकि, इन प्रश्नो का खंडन स्वयं की माता को बाँझ बताना , राजा को अधर्मी बतलाना और महारनी के पतिव्रत्य पर आक्षेप लगाना होता। वह ऐसे असमंजस मे पड गए की अगर वह जवाब दे तो राजा बुरा मान जायेंगे और अगर इसका समाधान नही (खण्डन) करें तो भी राजा बुरा मानेंगे । इस प्रकार वह एक बालक से हार मान ली। इसी विपरीत चिंतित अवस्था मे वह यामुनाचार्य से अपनी पराजय स्वीकार कर लेते है। यमुनाचार्य को ही इन प्रश्नो का खंडन कर समाधान करने की बात कहते है । इसके उत्तर मे यामुनाचार्य कुछ इस प्रकार कहते है।
पहला – शास्त्रों के अनुसार , वह माँ बाँझ (निस्संतान) होती है जिसका एक ही पुत्र/पुत्री हो (आप अपनी माँ की एकलौती संतान हो, अतः आपकी माँ एक बाँझ (निस्संतान) स्त्री है ) ।
दूसरा – शास्त्रों में बतलाया है की , प्रजा के पाप पुण्य में राजा का भी भाग होता है, ऐसे में प्रजा के पाप का भागी होने से पुण्यवान नहीं कहलाता । हमारे राजा बिलकुल भी काबिल/समर्थ नही है क्योंकि वह केवल अपने राज्य का ही शासन करते है पूरे साम्राज्य के अधिपति नही है।
तीसरा – शास्त्रों के अनुसार राजा में अन्य देव भी विद्यमान रहते है , विवाह के समय कन्या को , पहले वेद मंत्रों से देवतावों को अर्पित करते है। इस कारण रानी को पवित्र नही मानते है।
        कोलाहल’ यामुनाचार्य के सक्षम और आधिपत्य को स्वीकार करते हुए अपने आप को यमुनाचार्य से पराजित मानकर उनके शिष्य बन जाते है । राजा ने ही निर्णय सुनाया। बारह वर्षीय बालक से हमारे ‘कोलाहल’ हार गए। राजा ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार आधा राज्य दे दिया। महान बहादुरी और ज्ञान के साथ, यामुनाचार्य जी ने कोलाहल के खिलाफ शास्त्रार्थ जीता। कोलाहल इतने प्रभावित हो जाते हैं कि वो भी यामुनाचार्य जी का शिष्य बन जाते हैं। बाद में रानी भी उनकी शिष्य बन जाती हैं। राजा द्वारा वादा किए गए अनुसार यामुनाचार्य को आधा राज्य भी मिलता है। रानी ने उन्हें “आळवन्दार्” नाम उपाधि में दिया – वह जो उनकी रक्षा करने आये थे ।
यामुनाचार्य की अभी केवल बारह वर्ष की आयु थी, अपनी प्रखर बुद्धि के बल पर पांडव राज्य का आधा हिस्सा अपने अधिकार में कर लिया। 
      यामुनाचार्य शाश्त्रों के आधार पर दिव्य स्पष्टीकरण से विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त की स्थापना करते है । महारानी उन्हें आळवन्दार नाम से सम्बोधित करती हैं (जिसका मतलब हैं की वह जो उनकी रक्षा करने , सब पर विजय पाने के लिए आये हैं) और उनकी शिष्या बन जाती हैं । राजा महारानी को दिए वचन अनुसार यामुनाचार्यजी को अपनाआधा राज्य दे देता है |
श्री रंगनाथ के सेवक बने :-  
यामुनाचार्य जब 35 साल के हुए थे तो अपने देहावसान काल में नाथ मुनि ने अपने शिष्य प्रवर राम मिश्र से कहा --
"ऐसा न हो कि यामुन राजकाज में ही अपना अमूल्य समय बिता दे , विषय भोग में ही उनकी आयु बीत जाए।" नाथ मुनि के देहावसान के बाद एक दिन यामुनाचार्य से राम मिश्र मिलने आए। वह यामुनाचार्य के दादाजी के शिष्य थे। वे उन्हें सम्पत्ति का अधिकार सौंपने के लिए अपने साथ ले चलने को तैयार किए।उन्होंने कहा महाराज आप मेरे साथ चलें। आपके दादाजी बहुत बड़ा खजाना छोड़ गए थे, इसे संभाल लीजिए। राजा यामुनाचार्य उसके साथ हो लिए। पैंतीस वर्षीय राजा को रंगनाथ मंदिर पहुंचाया गया। रास्ते में राम मिश्र का स्पर्श पा लेने तथा उनके भगवदविचार सुन लेने के कारण राजा यामुनाचार्य का हृदय बदल गया। वह भी रंगनाथ के सेवक बनकर वहीं रहने लगे। उन्होंने अपना राज्य भी त्याग दिया। उनके हृदय में वैराग्य का उदय हुआ,माया और राज भोग की प्रवृति का नाश हो गया।
श्रीरंगजी की स्तुति :-
 यामुनाचार्य जी ने शुद्ध अंतर्मन से भगवान श्रीरंगजी की इस प्रकार स्तुति की --"हे परम पुरुष,मुझ अपवित्र , उदंड,निष्ठुर और निर्लज्ज को धिक्कार है,जो स्वेक्षाचारी होते हुए आपका पार्षद होने की इच्छा रखता है। आपके पार्षद भाव को बड़े बड़े योगीश्वरों के अग्र गण्य तथा ब्रह्मा शिव और संकादि को भी पाना दूर रहा,मन में सोच भी नहीं सकते।" उन्होंने बड़े सादगी और विनम्रता से कहा," आपके दास्य भाव में ही सुख का अनुभव करने वाले सज्जनों के घर में मुझे कीड़े की भी योनि मिले , पर दूसरे के घर में मुझे ब्रह्मा जी की भी योनि ना मिले।"
       वे भगवान के भक्त हो गए ,उनके अधरों पर भक्ति की रसमयी वाणी विहार करने लगी। इस प्रकार उन्होंने अपने दादा द्वारा छोड़ा गया सच्चा धन प्राप्त कर लिया। श्री यामुनाचार्य ने भगवान को पूर्ण पुरुषोत्तम माना,जीव को अंश और ईश्वर को अंशी के रूप में निरूपित किया है।जीव और ईश्वर नित्य पृथक हैं। उन्होंने कहा कि जगत ब्रह्म का परिणाम है।ब्रह्म ही जगत के रूप में परिणत है।जगत ब्रह्म का शरीर है।ब्रह्म जगत के आत्मा है। आत्मा और शरीर अभिन्न है। इसलिए जगत ब्रह्मात्मक है। ब्रह्म सविशेष सगुण, अशेष कल्याण गुण गण सागर सर्व नियंता है।जीव स्वभाव से ही उनका दास दास है, भक्त है। भक्ति जीव का स्वधर्म है ,आत्म धर्म है। भक्ति शरणागत का पर्याय है। भगवान अशरण शरण हैं।
यमुनाचार्य की रचनाएँ :-
यमुनाचार्य जी ने अनेक रचनाएँ संस्कृत में रची हैं। उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ निम्नलिखित हैं-
आगम-प्रमाण्य, सिद्धित्रय (आत्मसिद्धि, संवितसिद्धि, ईश्वरसिद्धि), गीतार्थसंग्रह, चतुश्लोकी, और स्तोत्ररत्न
महापुरुष निर्णय, नित्यमऔर मायावाद खण्डनम।
 उनका आल बंदार स्रोत बड़ा ही मधुर है। उन्होंने भगवान से अनन्य भक्ति का ही वरदान मांगा। उनके लिए भगवान ही परमाश्रय थे। उन्हीं के चरणों में शरण लेने में उन्हें बन्धन मुक्ति दीख पड़ी। वे अपने समय के महान दार्शनिक, अनन्य भक्त और विचारक थे।
गुरु के संकेत को समझा और पूरा किया:-
रामानुजाचार्य, यामुनाचार्य की शिष्य-परम्परा में थे। 1041 ई में जब यामुनाचार्य की मृत्यु निकट थी, तब उन्होंने अपने शिष्य द्वारा रामानुज को अपने पास बुलवाया। लेकिन उनके पहुंचने से पहले ही यामुनाचार्य की मृत्यु हो चुकी थी।वहाँ पहुंचने पर रामानुज ने देखा कि यामुनाचार्य की तीन अंगुलियां मुड़ी हुई थीं। इससे उन्होंने समझ लिया कि यामुनाचार्य उनके माध्यम से 'ब्रह्मसूत्र', 'विष्णुसहस्रनाम' और 'अलवन्दारों' जैसे दिव्य सूत्रों की टीका करवाना चाहते हैं।
यामुनाचार्य के मृत शरीर को प्रणाम कर रामानुज ने उनकी अंतिम इच्छा पूरी करने का वचन दिया। उन्होंने यामुनाचार्य को प्रणाम किया और कहा -"भगवान्! मुझे आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, मैं इन तीनों ग्रन्थों की टीका अवश्य लिखूंगा अथवा लिखवाऊंगा।" रामानुज के यह कहते ही यामुनाचार्य की तीनों अंगुलियां सीधी हो गईं। इसके बाद श्रीरामानुज ने यामुनाचार्य के प्रधान शिष्य पेरियनाम्बि जिसे महापुराण भी कहा जाता है, से विधिपूर्वक वैष्णव दीक्षा ली और भक्तिमार्ग में प्रवृत्त हो गए। उनके मन में तीन कामनाएं थी, जिसको रामानुजा- चार्य ने पूरा किया।     

Saturday, December 10, 2022

श्री सम्प्रदाय के आचार्य श्री मणक्काल् नम्बी 'राममिश्र' (श्री सनातन सम्प्रदाय परम्परा कड़ी 17) -- आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी

              दक्षिण भारत के श्री सनातन परम्परा के प्रमुख आचार्य नाम्मालवार (शठकोपन )के शिष्यों में मधुर कवि और रत्ननाथ मुनि दो प्रमुख नाम थे। रत्ननाथ मुनि के दो शिष्य मणक्काल् नम्बी और उयकोण्डा पुण्डरीकाक्ष थे। दोनों श्री वैष्णव सम्प्रदाय के आचार्य तथा समकालीन थे। आचार्य श्री मणक्काल् नम्बी का उपनाम राम मिश्र था। वे श्री यमुनाचार्य के पितामह श्री रत्न नाथ मुनि के अत्यंत प्रिय कृपा प्राप्त और विश्वास पात्र शिष्य थे। वे उच्च कोटि के विद्वान सदाचारी थे और हर जीव में परमात्मा का दर्शन करते थे।

         उनका जन्म माघ मास, माघ नक्षत्र के महीने में श्रीरंगम के पास कावेरी नदी के तट पर स्थित एक छोटा सा गांव मनक्कल में हुआ था। मधुर कवि आळ्ळवार की तरह जो नम्माळ्ळवार के लिए बहुत समर्पित थे, मनक्कल नम्बि उय्यक्कोण्डार् के लिए बहुत समर्पित थे। उय्यक्कोण्डार रत्ननाथ मुनि की पत्नी के निधन के बाद, उन्होंने यमुनाचार्य का खाना पकाने खिलानेऔर सम्पूर्ण देखरेख की जिम्मेदारी ली और अपने गुरु के अंश की हर व्यक्तिगत आवश्यकता को पूरा किया।
          एक बार उय्यक्कोंडार रत्ननाथ मुनि की बेटियां नदी में स्नान करने के बाद वापस लौट रही थीं, तब रास्ते में कीचड़ के कारण वह आगे नहीं बढ़ीं। यह देख मनक्कल नम्बि छाती के बल पर कीच पर लेट जाता है और अपने गुरु के बेटों को अपनी पीठ पर बहते हुए नदी पार कराया था । उनके अंश यूयक्कोण्डार रत्ननाथ मुनि को जब इस घटना का रहस्य मिला, तब वह मनक्कल नम्बि के अंश चरणों में भक्ति और जिम्मेदारी वहन करने की क्षमता को देख अत्यंत प्रशंसा की थी।
         रत्न नाथमुनि के पुत्र यमूनाचार्य थे । परंपरा के अनुसार रत्ननाथमुनि श्रीरंगम मंदिर की मूर्ति में प्रवेश कर ईश्वर में समाहित हो गये थे।  जिसके कारण यमुनाचार्य के देखरेख की जिम्मेदारी पितामह पुण्डरीकाक्ष ने अपने शिष्य श्री राम मिश्र को सौंप रखी थी। एक तरह से श्री राम मिश्र जी यमूनाचार्य के गुरु और संरक्षक की जिम्मेदारी निभाई थी।
           एक दिन यामुनाचार्य से राम मिश्र मिलने आए।
उन्होंने कहा महाराज आप मेरे साथ चलें। आपके दादाजी बहुत बड़ा खजाना छोड़ गए थे, इसे संभाल लीजिए। यमुनाचार्य ने अपनी विद्वता से राज पुरोहित को शास्त्रार्थ में पराजित कर वहां के राजा को प्रसन्न कर उनका आधा राज्य प्राप्त कर लिया था।

           राजा यामुनाचार्य राम मिश्र जी के साथ हो लिए। पैंतीस वर्षीय राजा यमुनाचार्य को रंगनाथ मंदिर पहुंचाया गया। रास्ते में राम मिश्र का स्पर्श पा लेने  तथा उनके भगवद विचार सुन लेने के कारण राजा यामुनाचार्य का हृदय बदल गया। वह भी रंगनाथ के सेवक बनकर वहीं रहने लगे। उन्होंने अपना राज्य भी त्याग दिया। इस प्रकार उन्होंने अपने दादा द्वारा छोड़ा गया सच्चा धन प्राप्त कर लिया।  इनके उपदेश के प्रभाव से यामुनाचार्य राज सम्मान छोड़ कर रंगनाथ विष्णु जी के अनन्य सेवक हो गए थे।