Thursday, May 24, 2018

जीवन जीने की कला डा. राधेश्याम द्विवेदी


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मानव शरीर बहुत ही अनमोल होता है। इसे 84 कोटि (=प्रकार) के शरीर धारण करने के बाद में ही मिलता है। इसमें सब कुछ अनिश्चित सा रहता है। इसलिए इसे शान से जीना चाहिए और अच्छे कर्मों को करते हुए श्री हरि के शरण में समाहित हो जाना चाहिए। कुरुक्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से निकली हुई वाणी ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ है।  भगवान के विभूतिरूप मार्घशीर्षमास में भगवान की प्रिय तिथि शुक्लपक्ष की एकादशी (मोक्षदा एकादशी) को धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में साक्षात् भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से निकली हुई वाणी ‘गीता’ है जो उन्होंने अर्जुन को निमित्त बनाकर कही है।इसके संकलनकर्ता व्यासजी हैं। भगवान श्रीकृष्ण के उपदेश का जो अंश पद्य में था, उसे व्यासजी ने ज्यों-का-त्यों रख दिया। कुछ अंश जो भगवान ने गद्य में कहा था, उसे व्यासजी ने श्लोकबद्ध कर दिया। अर्जुन, संजय और धृतराष्ट्र के वचनों को भी व्यासजी ने श्लोकबद्ध कर दिया। सात सौ श्लोकों के ग्रन्थ को व्यासजी ने अठारह अध्यायों में विभक्त कर दिया जो महाभारत के भीष्मपर्व में हैं। गीता किसी देश, काल, धर्म, सम्प्रदाय या जातिविशेष के लिए नहीं है अपितु सम्पूर्ण मानव-जाति के लिए है।
जीवन जीने की कला सिखाने वाली ब्रह्मविद्या गीता :- ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में भगवान श्रीकृष्ण ने मानव-जीवन की क्षणभंगुरता को ध्यान में रखकर मानव के कल्याण के लिए जीवन जीने की कला से सम्बधित सुन्दर शिक्षाओं का उपदेश किया है। संसार में किस प्रकार रहा जाए, इस सम्बध में गीता की कुछ शिक्षाएं इस प्रकार हैं–
गीता हमें सिखाती है कि विभिन्न परिस्थितियों में मनुष्य का क्या कर्त्तव्य है? अपने कर्त्तव्य-कर्म को पहचानने के बाद व्यक्ति को पूरे दृढ़ संकल्प से सफलता-असफलता, हानि-लाभ, सुख-दु:ख की चिन्ता किए बिना अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए। ईश्वर पर दृढ़ विश्वास रखते हुए  मनुष्य को अपनी हर परिस्थिति का डटकर सामना करना चाहिए; परिस्थितियों से भागना नहीं चाहिए। (२।३) परिवर्तन ही संसार का नियम है। संसार के जितने भी सम्बन्ध हैं, वे सब-के-सब बिछुड़ने वाले हैं। जिसे तुम मृत्यु समझते हो, वही तो जीवन है। न यह शरीर तुम्हारा है, न तुम शरीर के हो। यह शरीर अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश से बना है और इसी में मिल जाएगा। जिस प्रकार मनुष्य अपने पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर नए शरीर को धारण करती है। (२।२२) अत: गीता सिखाती है कि मनुष्य को संसार के साथ अनासक्ति और परमात्मा के साथ नित्य सम्बन्ध रखना चाहिए।
निर्लिप्तता :-मनुष्य को संसार में कमल, रबर की गेंद या एक मुसाफिर की तरह रहना चाहिए। जैसे कमल का पत्ता जल में रहता है, पर वह जल से भीगता नहीं, जल उसके ऊपर मोती की तरह लुढ़कता रहता है। इसी तरह रबर की गेंद फुदकती रहती है, पर कहीं पर भी चिपकती नहीं, परन्तु मिट्टी का लोंदा जहां रखो वहीं चिपक जाता है। इसी तरह मनुष्य को ममता का त्यागकर संसार में एक मुसाफिर बनकर रहना चाहिए जहां कुछ समय रहकर उसे वापिस अपने शाश्वत घर को लौट जाना है। इस भावना से रहने पर हम संसार में कहीं पर भी फंसेंगे नहीं। यही संसार में रहने की कला है। मनुष्य का निर्माण भाग्य नहीं कर्म करता है।मनुष्य योनि कर्मयोनि है। गीता का संदेश है कि हमारी हर बात कर्म पर ही टिकी है। हमारा सुख, शांति, भाग्य, योनि (चौरासी लाख योनियों में से कौन-सी योनि मिलेगी) और मोक्ष सभी कुछ कर्म पर ही निर्भर है। इसलिए मनुष्य को प्रत्येक कर्म अत्यन्त सावधानी के साथ सोच-समझकर करना चाहिए। क्योंकि मनुष्य का निर्माण भाग्य नहीं, उसकी कर्मशक्ति करती है। सारा संसार कर्ममय है, निष्क्रियता साक्षात् मृत्यु है। काम की पूर्णता में ही जीव को आनन्द मिलता है। उत्साह के साथ कर्म करो, कर्म करना मनुष्य का कर्त्तव्य है पर यह कर्म निष्काम भाव से होना चाहिए। मनुष्य अपने कर्मों द्वारा भगवान की पूजा करके मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। अज्ञानी मनुष्य फल की आसक्ति से कार्य करते हैं; ज्ञानी मनुष्य लोकहित की इच्छा से आसक्ति रहित होकर कार्य करते हैं। (३।२५)
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्माणि।। (२।४७)
कर्म करने में ही मनुष्य का अधिकार है, कर्मफल में कभी नहीं। कर्मफल परमात्मा के हाथ में है। मनुष्य को यही सोचना चाहिए कि परमात्मा सबके हृदय में विराजमान हैं, और वे हमसे जैसा करवा रहे हैं, हम कर रहे हैं। गीता का संदेश है कि आसक्ति त्यागकर तथा सफलता-असफलता की चिंता छोड़कर अपने कर्तव्य-कर्मों का पालन करो। (२।४८) मनुष्य समस्त कर्मों को भगवान को अर्पण कर दे तो संसार में सुख भी मिलेगा और परमात्मा की प्राप्ति भी हो जाएगी।
यत्करोषि यदश्र्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।। (९।२७)
अर्थात्–‘हे कुन्तीपुत्र! तू जो कुछ करता है, जो कुछ खाता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।’ मनुष्य को निषिद्ध कर्मों (चोरी, झूठ, छल, कपट, हिंसा आदि) का त्याग कर देना चाहिए।
भय, लोभ, क्रोध आदि नकारात्मक दुर्गुणों का त्याग :-परमात्मा की प्राप्ति और सुखी व स्वस्थ जीवन के लिए गीता मनुष्य को नकारात्मक दुर्गुणों से दूर रहकर कर्मठ, उत्साहवान और प्रसन्नचित्त रहने की शिक्षा देती है–क्यों व्यर्थ चिन्ता करते हो? किससे व्यर्थ डरते हो? कौन तुम्हें मार सकता है? आत्मा न पैदा होती है, न मरती है। आत्मा स्थिर है। आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकती। (२।२३)गीता का संदेश है कि मनुष्य को त्याग की भावना के साथ इस संसार को भोगना चाहिए। लोभ की प्रवृत्ति पतन कराती है। करुणा व सत्यपथ को अपनाओ। पवित्रता से रहो। अपने आहार-विहार को शुद्ध, पवित्र और परिमित रखो। किसी भी प्राणी के प्रति वैरभाव नहीं रखना चाहिए क्योंकि संसार में जड़-चेतन जितने भी प्राणी हैं सबमें परमात्मा का निवास है।
नहीं किसी से दोस्ती, नहीं किसी से वैर।
नहीं किसी के सिरधणी, नहीं किसी की बैर।।
प्रसन्नचित्त रहने से सम्पूर्ण दु:खों का नाश हो जाता है। (२।६५) ईर्ष्या का सदैव त्याग करो। (४।२२)। जो राग-द्वेष नहीं करता उसको भगवान ने अपना प्यारा भक्त बताया है (१२।१७)। स्वार्थरहित सेवा या लोकोपकार का महत्त्वहमें जो कुछ मिला है, वह सृष्टि से मिला है, इसलिए उसको सृष्टि की सेवा में ही लगा देना चाहिए।
निष्कामभाव की महिमा :-गीता में निष्कामभाव की बड़ी महिमा है। मनुष्य के द्वारा जितनी ज्यादा सेवा होगी, वह उतना ही अधिक श्रेष्ठ हो जाएगा। संसार से कुछ चाहना अपने-आपको पराधीन बनाना है। संसार में देने के लिए ही रहना है, लेने के लिए नहीं। क्योंकि लेने की इच्छा का नाम ही बंधन है, पराधीनता है। सेवा करते रहने से मनुष्य संसार से ऊपर उठ जाता है, यही मुक्ति है। गीता का संदेश है कि एकान्त में भगवान के ध्यान करने से ज्यादा निस्वार्थभाव से किया गया लोकोपकार ज्यादा श्रेष्ठ है। (१२।१२) ‘दूसरों के लिए कल्याण-कार्यों को करने वाले मनुष्य की कभी दुर्गति नहीं होती।’ (६।४०) ‘जो मनुष्य प्राणिमात्र के हित में रत रहते हैं, वे मेरे को ही प्राप्त होते हैं।’ (१२।४) ‘मनुष्य को जो वस्तुएं मिली हैं, वह सबकी सेवा के लिए हैं। जो अकेला उसका उपभोग करता है, उसको चोर कहा गया है।’ (३।१२)
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 चिन्ता, शोक और उद्वेग दूर करने का रामबाण उपाय :- गीता सिखाती है चिन्ता, शोक और उद्वेग दूर करने का रामबाण उपाय जो हुआ वह अच्छा हुआ, जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है। जो होगा, वह भी अच्छा ही होगा। भूत का पश्चाताप न करो। भविष्य की चिन्ता न करो। वर्तमान में जियो। तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो? तुम क्या लाए थे, जो तुमने खो दिया? तुमने क्या पैदा किया, जो नाश हो गया। न तुम कुछ लेकर आए, जो लिया यहीं (भगवान) से लिया, जो दिया यहीं पर दिया। खाली हाथ आए, खाली हाथ चले जाओगे। फिर भी मनुष्य वस्तुओं और प्राणियों में ‘मैं’ और ‘मेरेपन’ का भाव रखता है। मनुष्य सभी को अपने मन-मुताबिक नहीं बना सकते, जितने दिन चाहें साथ में रह नहीं सकते, न किसी का स्वभाव बदल सकते न ही रंगरूप। तब ये सब ‘मेरे’ और ‘मेरी चीजें’ कैसे उसकी हुईं। जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का था, परसों किसी और का होगा। तुम इसे अपना समझकर प्रसन्न हो रहे हो। बस यही प्रसन्नता ही तुम्हारे दु:खों का कारण है। अत: मनुष्य को मानना चाहिए कि ये संसार, घर, धन, परिवार सब भगवान का है और हम भगवान का ही काम करते हैं। सब चीजें भगवान की मानने से वे प्रसादरूप हो जाएंगी। ऐसा भाव रहने से चिन्ता, भय आदि कुछ नहीं रहेगा।
यह संसार एक रंगमंच है। जहां सभी को खेलना (अपना कर्त्तव्य कर्म करना) है। खेल की चीजों को ‘अपना’ मान लेने से ही अशान्ति आ जाती है। अपनापन छोड़ा और शान्ति मिली। (२।७१) आज के युग की सबसे बड़ी बीमारी चिन्ता का समाधान बताते हुए भगवान कहते हैं–
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।। (१८।६६)
अर्थात्–‘तू सम्पूर्ण धर्मों के आश्रयों को छोड़कर केवल एक मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा, तू चिन्ता मत कर।’ (१८।६६)
भगवान की शरण में जाने का अर्थ है:–श्रद्धापूर्वक निष्कामभाव से भगवान की आज्ञा का पालन करना, उनके गुण व स्वरूप का चिन्तन करना एवं हमारे कर्मों के अनुसार जो सुख-दु:ख आदि प्राप्त हों उनमें सम रहना। अपने आपको भगवान के अर्पित करो। यह सबसे उत्तम सहारा है। जो इस सहारे को जानता है, वह भय, चिन्ता और शोक से सदैव मुक्त है।
चिन्तामुक्त रहने के लिए रे आश्वासन :- गीता में भगवान ने मनुष्य को चिन्तामुक्त रहने के लिए कितना सारे आश्वासन दिये हैं– ‘तू मेरे परायण होकर सम्पूर्ण कर्मों को मेरे अर्पण कर दे तो तू मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्न-बाधाओं को तर जाएगा।’ (१८।५७-५८) ‘मेरे परायण हुए जो भक्त सम्पूर्ण कर्मों को मुझे अर्पण करके अनन्यभाव से मेरा भजन करते हैं, उनका मैं स्वयं संसार-सागर से उद्धार करने वाला बन जाता हूँ।’ ‘मुझे भजकर लोग स्वर्ग तक की कामना करते हैं; मैं उन्हें देता हूँ। अर्थात् सब कुछ परमात्मा से सुलभ है।’ (९।२०)
प्रसन्न, संतोषी और सहनशील बने रहना :- हर परिस्थिति में प्रसन्न, संतोषी और सहनशील बने रहना ,संसार में सुख भी आता है और दु:ख भी; क्योंकि सुख-दु:ख, अनुकूलता-प्रतिकूलता संसार का स्वरूप है। परन्तु हमें न सुख का भोग करना चाहिए न दु:ख का। भगवान का कहना है कि सुख-दु:ख तो आने-जाने वाले और अनित्य हैं। उनको तुम सहन करो। जिसका मन समभाव में स्थित है, उन्होंने जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया; क्योंकि समता आने से सब दोष चले जाते हैं। गीता कहती है कि ये दो तरह-तरह की परिस्थितियां आ रही हैं, उनके साथ मिलो मत, उनमें प्रसन्न-अप्रसन्न मत होओ; वरन् उनका सदुपयोग करो। हमें मिलने वाली वस्तु, परिस्थिति आदि दूसरे व्यक्ति के अधीन नहीं है वरन् प्रारब्ध के अधीन है। प्रारब्ध के अनुसार जो वस्तु, परिस्थिति हमें मिलने वाली है, वह न चाहने पर भी मिलेगी। प्रतिकूल परिस्थिति भी अपने-आप आती है, उसी प्रकार अनुकूल परिस्थिति भी अपने-आप आएगी। इसलिए मनुष्य को केवल निष्कामभाव से अपना कर्त्तव्य करना चाहिए। प्रारब्ध पहले रचा, पीछे रचा शरीर।
तुलसी चिन्ता क्यों करे, भज ले श्रीरघुबीर।।
गीता में परमात्मा को प्राप्त करने के लिए मनुष्य में समता का होना एक आवश्यक लक्षण बताया गयाहै –
‘जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी-गर्मी और सुख-दु:खादि द्वन्द्वों में सम है और आसक्ति से रहित है वह भक्त है।’ (१२।१८) ‘जो निरन्तर आत्मभाव में स्थित, दु:ख-सुख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक-सा मानने वाला और अपनी निन्दा-स्तुति में भी समान भाव वाला है, वही गुणातीत है।’ (१४।२४) इसलिए मनुष्य को अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में हर्ष और शोक नहीं करना चाहिए। सुख-दुख में सम रहना ही गीता का संदेश है।
वासुदेव: सर्वम्:- गीता का संदेश है कि संसार परमात्मा का स्वरूप है–वासुदेव: सर्वम् (७।११) और संसार दु:खालयशाश्वतम् (८।१५) भी है। अर्थात् जो संसार की वस्तु, व्यक्ति या कार्यों से सुख लेना चाहता है उसके लिए संसार भयंकर दु:ख देने वाला है परन्तु जो अपनी वस्तु या कार्यों से संसार की सेवा करता है, उसके लिए संसार परमात्मा का स्वरूप है।
सब जग ईश्वर रूप है, भलो बुरो नहिं कोय।
जैसी जाकी भावना, तैसो ही फल होय।।
मनुष्य अपनी भावना के अनुसार ही संसार को सुखालय या दु:खालय मानता है। इसलिए तेरा-मेरा, अपना
पराया, छोटा-बड़ा मन से मिटा दो। फिर सब तुम्हारा है, तुम सबके हो।
सुखी मानव जीवन के लिए शिष्टाचार और सदाचार बहुत महत्वपूर्ण हैं
गीता में मानव जीवन में शिष्टाचार और सदाचार का महत्व दर्शाया गया है। पवित्र हृदय वाला मनुष्य ही शान्ति प्राप्त करता है। विनम्रता, दीनता और वाणी की मिठास का मानव जीवन में बहुत महत्त्व है। अर्जुन के चरित्र में शिष्टाचार और सदाचार के गुण दर्शाकर सभी मनुष्यों को उनका अनुसरण करने की शिक्षा दी गयी है। (गीता २।7)
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भगवान के प्रति पूर्ण शरणागति ही जीवनयुद्ध में विजय का आधार :- भगवान का एक स्वभाव है कि जिसका भगवान के सिवाय कोई दूसरा सहारा नहीं है, वह भगवान को बहुत प्यारा लगता है। मनुष्य को एकमात्र भगवान का भरोसा करना चाहिए। उन्हीं को अपना भर्ता, त्राता और उद्धर्ता समझना चाहिए।
जो मनुष्य संसार से विमुख होकर भगवान के सिवाय कुछ भी नहीं चाहता है, उसके उद्धार की सम्पूर्ण जिम्मेदारी भगवान पर ही आ जाती है। इसलिए भगवान स्वयं उसके योगक्षेम का वहन करते हैं–
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।। (९।२२)
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तुनिरामया:
यदि हम सुख चाहते हैं तो दूसरों को भी सुख पहुंचाना हमारा कर्त्तव्य है। मनुष्य को सबकी सेवा करने का भाव और सबको सुख पहुंचाने का भाव रखना चाहिए। सेवा करने से पुराना ऋण उतर जाएगा और सेवा लेने की इच्छा न रहने से नया ऋण नहीं चढ़ेगा और मनुष्य मुक्त हो जाएगा। सबको देने के बाद जो शेष बचता है वह ‘यज्ञशेष’ कहलाता है। गीता कहती है– ‘यज्ञशेष ग्रहण करने वाले मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाते है।’ (३।१३) मनुष्य में ऐसा उदारभाव त्याग से आता है। इसलिए गीता में त्याग की बड़ी महिमा बतलाई गयी है। त्याग से तत्काल शान्ति मिलती है। (१२।१२)।
गीता का आखिरी (७००वां) श्लोक है–
‘यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम्।। (१८।७८)
अर्थात्–जिस प्रकार जहां सूर्य रहता है, वहीं प्रकाश रहता है; उसी प्रकार जहां योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन रहते हैं वहीं सम्पूर्ण शोभा, ऐश्वर्य और धर्म रहते हैं। विजय उसी की होती है जिस पक्ष में धर्म रहता है।
अत: हमारी जीवनचर्या धर्मानुकूल होनी चाहिए।
ओशो के अनुसार :–जीवन को एक कला समझो । और कला की कुंजी यही है :रातो को दिन बनाओ, अंधेरो मे दीये जलाओ, शोरगुल मे भी संगीत खोजो ।और तब तुम मिट्टी भी छुओगे, तो सोना हो जायेगी ।और जहर तुम्हारे पास जैसे- जैसे आयेगा, वैसे- वैसे अमृत होने लगेगा ।तुम्हारे भीतर पहुचते- पहुचते अमृत हो जायेगा ।…..जीवन तो जायेगा इसलिए जी लो।अगर ना भी जियोगे तो भी मौत तो आएगी ही।“





Wednesday, May 23, 2018

भ्रष्टाचार की जड़ : हमारे सरकारी कार्यालय डा. राधेश्याम द्विवेदी



एन. डी.ए. के चार साल तक कारगर परिणाम दिखा नहीं :- केन्द्र में माननीय नरेन्द्र मोदी की सरकार को आये चार साल व्यतीत होने वाले हैं जिस उद्देश्य को लेकर यह पार्टी सत्ता में आयी थी संभवतः वह उसके करीब तक अभी नही पहुच सकी है। सारा ताना बाना तो पुराना ही है, जो नये -नये अधिकरियों व मंत्रियो को पाठ पढ़ा देते है। जब तक बुनियादी स्तर पर काया कल्प नहीं होगा , तब तक सीटों पर बैठे बाबू और अधिकारी सुधरने वाले नहीं है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग, भारत सरकार के संस्कृति विभाग के अन्तर्गत एक सरकारी एजेंसी है, जो कि पुरातत्व अध्ययन और सांस्कृतिक स्मारकों के अनुरक्षण के लिये उत्तरदायी होती है।, ए.एस. आई. के प्रकार्यों में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय महत्व के स्थलों और स्मारकों की खोज, खुदाई, संरक्षण, सुरक्षा इत्यादि आते हैं। मैं भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग से विगत एक साल 30 जून 2017 से सेवानिवृत्त हुआ हूं परन्तु अभी तक एक भी सेवानिवृत्त लाभ का हकदार भारत का केन्द्रीय सरकार नहीं दिला पायी है, एसे में कैसे मेरी जीविका चल रही है ? इसका वर्णन करना भी मेरे लिए संभव नहीं है। जब इन्तजार की सारी हदें पार कर लिया तो आज यह पोस्ट लिखने का साहस  जुटा सका हॅू। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण संस्कृति मंत्रालय के अधीन है। महानिदेशक का कार्यालय मंडल कार्यालय वेतन एवं लेखा कार्यालय हैदराबाद / नई दिल्ली इसके प्रमुख कार्यालय हैं, जहां सेवा निवृत्त तथा पेशन के मामलों का निस्तारण होता हैं। इन कार्यालयों में ना तो इस बाबत कोई मीटिंग होती है ना ही कोई समीक्षा । सब भगवान के भरोसे लेट-लतीफ चलता रहता हैं। कुछ अधिकारी व्यक्तिगत रुचि लेकर कार्य जल्द करवा देते हैं तो कुछ अपने धंधे पानी में ही व्यस्त रहते हैं .उन्हें पर पीड़ा से लेना देना ही नहीं रहता है। मेरे मामले में आगरा का मंडल कार्यालय, दिल्ली का महानिदेशक कार्यालय तथा वेतन एवं लेखा कार्यालय का रवैया सदा उदासीन तथा नकारात्मक रहा। वेतन एवं लेखा कायालय में मामले सालो पेण्डिंग पड़े रहते है ना तो पुरातत्व सर्वेक्षण और ना ही वित् मंत्रालय को इसकी कोइ्र फिक्र होती है और ना ही किसी प्रकार की मानीटरी होती है।
नौकरशाही का भ्रष्टाचार :- यह सर्वविदित है कि भारत में नौकरशाही का मौजूदा स्वरूप ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की देन है। इसके कारण यह वर्ग आज भी अपने को आम भारतीयों से अलग, उनके ऊपर, उनका शासक और स्वामी समझता है। अपने अधिकारों और सुविधाओं के लिए यह वर्ग जितना सचेष्ट रहता है, आम जनता के हितों, जरूरतों और अपेक्षाओं के प्रति उतना ही उदासीन रहता है। भारत जब गुलाम था, तब महात्मा गांधी ने विश्वास जताया था कि आजादी के बाद अपना राज यानी स्वराज्य होगा, लेकिन आज जो हालत है, उसे देख कर कहना पड़ता है कि अपना राज है कहां? उस लोक का तंत्र कहां नजर आता है, जिस लोक ने अपने ही तंत्र की स्थापना की? आज चतुर्दिक अफसरशाही का जाल है। लोकतंत्र की छाती पर सवार यह अफसरशाही हमारे सपनों को चूर-चूर कर रही है। कांग्रेस की 70 साल की नीतियां इतनी निम्न स्तर पर आ चुकी हैं कि इसे सुधरने में ना जाने कितनी सरकारें आयेंगी व जायेंगी। यह भी निश्चित है कि लोकतंत्र में यह हो भी पायेगा या नहीं ,यह कहना बहुत मुश्किल है।
नौकरशाही की विरासत और चरित्र जस का तस :- स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारत में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के तहत तमाम महत्वपूर्ण बदलाव हुए, लेकिन एक बात जो नहीं बदली, वह थी नौकरशाही की विरासत और उसका चरित्र। कड़े आंतरिक अनुशासन और असंदिग्ध स्वामीभक्ति से युक्त सर्वाधिक प्रतिभाशाली व्यक्तियों का संगठित तंत्र होने के कारण भारत के शीर्ष राजनेताओं ने औपनिवेशिक प्रशासनिक मॉडल को आजादी के बाद भी जारी रखने का निर्णय लिया। इस बार अनुशासन के मानदंड को नौकरशाही का मूल आधार बनाया गया। यही वजह रही कि स्वतंत्र भारत में भले ही भारतीय सिविल सर्विस का नाम बदलकर भारतीय प्रशासनिक सेवा कर दिया गया और प्रशासनिक अधिकारियों को लोक सेवक कहा जाने लगा, लेकिन अपने चाल, चरित्र और स्वभाव में वह सेवा पहले की भांति ही बनी रही। प्रशासनिक अधिकारियों के इस तंत्र को आज भी ‘स्टील फ्रेम ऑफ इंडिया’ कहा जाता है। नौकरशाह मतलब तना हुआ एक पुतला। इसमें अधिकारों की अंतहीन हवा जो भरी है। हमारे लोगों ने ही इस पुतले को ताकतवर बना दिया है। वे इतने गुरूर में होते हैं कि मत पूछिए। वे ऐसा करने का साहस केवल इसलिए कर पाते हैं कि उनके पास अधिकार हैं, जिन्हें हमारे ही विकलांग-से लोकतंत्र ने दिया है।
नौकरशाहों की मानसिकता में बदलाव की जरूरत :- भारत में अब तक हुए प्रशासनिक सुधार के प्रयासों का कोई कारगर नतीजा नहीं निकल पाया है। वास्तव में नौकरशाहों की मानसिकता में बदलाव लाए जाने की जरूरत है। हमारे राजनीतिज्ञ करना चाहें, तो पांच साल में व्यवस्था को दुरुस्त किया जा सकता है, लेकिन मौजूदा स्थिति उनके लिए अनुकूल है, इसलिए वो बदलाव नहीं करते। 2019 का आम चुनाव इतना आयान नहीं होगा । यह एनडीए सरकार की अग्नि परीक्षा की घड़ी होगी। हम 70 साल भले गवांये हैं पर अगला 5 साल कुछ समझ कर ही दिया जाएगा। अब जनता जागरुक हो चुकी है और केवल भाषण व घोषणायें सुनकर निर्णय  करने वाली नही है।

Thursday, May 10, 2018

2019 में गुजरना पड़ेगा भ्रष्टाचार की अग्नि परीक्षा से - डा. राधेश्याम द्विवेदी


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एन. डी.ए. के चार साल तक कारगर परिणाम दिखा नहीं :- केन्द्र में माननीय नरेन्द्र मोदी की सरकार को आये चार साल व्यतीत होने वाले हैं जिस उद्देश्य को लेकर यह पार्टी सत्ता में आयी थी संभवतः वह उसके करीब तक अभी नही पहुच सकी है। सारा ताना बाना तो पुराना ही है जो नये नये अधिकरियों व मंत्रियो को पाठ पढ़ा देते है। जब तक बुनियादी स्तर पर काया कल्प नहीं होगा तब तक सीटों पर बैठे बाबू और अधिकारी सुधरने वाले नहीं है। मैं विगत एक साल 30 जून 2017 से सेवानिवृत्त हुआ हूं परन्तु अभी तक एक भी लाभ का हकदार भारत का केन्द्रीय सरकार नहीं दिला पायी है, एसे में कैसे मेरी जीविका चल रही है ? इसकावर्णन करना भी मेरे लिए संभव नहीं है। जब इन्तजार की सारी हदें परर कर लिया तो आज यह पोस्ट लिखने का साहस  जुटा सका हॅू।
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भ्रष्टाचार का बोलबाला है- भ्रष्टाचार अर्थात भ्रष्ट + आचार। भ्रष्ट यानी बुरा या बिगड़ा हुआ तथा आचार का मतलब है आचरण। अर्थात भ्रष्टाचार का शाब्दिक अर्थ है वह आचरण जो किसी भी प्रकार से अनैतिक और अनुचित हो। आम तौर पर सरकारी सत्ता और संसाधनों के निजी फायदे के लिए किये जाने वाले बेजा इस्तेमाल को भ्रष्टाचार की संज्ञा दी जाती है। निजी या सार्वजनिक जीवन के किसी भी स्थापित और स्वीकार्य मानक का चोरी-छिपे उल्लंघन भी भ्रष्टाचार है। विभिन्न मानकों और देशकाल के हिसाब से भी इसमें तब्दीलियाँ होती रहती हैं। भ्रष्टाचार का मुद्दा एक ऐसा राजनीतिक प्रश्न है जिसके कारण कई बार न केवल सरकारें बदल जाती हैं। बल्कि यह बहुत बड़े-बड़े ऐतिहासिक परिवर्तनों का वाहक भी रहा है। भ्रष्टाचार राज्य द्वारा लोगों की आर्थिक गतिविधियों में हस्तक्षेप की मात्रा और दायरे पर निर्भर करती है। बहुत अधिक टैक्स वसूलने वाले निजाम के तहत कर-चोरी को सामाजिक जीवन की एक मजबूरी की तरह लिया जाता है। इससे एक सिद्धांत यह निकलता है कि जितने कम कानून और नियंत्रण  होंगे, भ्रष्टाचार की जरूरत उतनी ही कम होगी। इस   दृष्टिकोण के पक्ष पूर्व सोवियत संघ और चीन समते समाजवादी देशों का उदाहरण दिया जाता है जहाँ राज्य की संस्था के सर्वव्यापी होने के बावजूद बहुत बड़ी मात्रा में भ्रष्टाचार की मौजूदगी रहती है। 
काले धन की मौजूदगी भी भ्रष्टाचार का कारण- साठ और सत्तर के दशक में कुछ विद्वानों ने अविकिसित देशों के आर्थिक विकास के लिए एक सीमा तक भ्रष्टाचार और काले धन की मौजूदगी को उचित करार दिया था। अर्नोल्ड जे. हीदनहाइमर जैसे सिद्धांतकारों का कहना था कि परम्पराबद्ध और सामाजिक रूप से स्थिर समाजों को भ्रष्टाचार की समस्या का कम ही सामना करना पड़ता है। लेकिन तेज रक्रतार से होने वाले उद्योगीकरण और आबादी की आवाजाही के कारण समाज स्थापित मानकों और मूल्यों को छोड़ते चले जाते हैं। परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार की परिघटना पैदा होती है। सत्तर के दशक में हीदनहाइमर की यह सिद्धांत खासा प्रचलित था। भ्रष्टाचार विरोधी नीतियों और कार्यक्रमों की वकालत करने के बजाय हीदनहाइमर ने निष्कर्ष निकाला था कि जैसे-जैसे समाज में समृद्धि बढ़ती जाएगी, मध्यवर्ग की प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी और शहरी सभ्यता व जीवन-शैली का विकास होगा, इस समस्या पर अपने आप काबू होता चला जाएगा। लेकिन सत्तर के दशक में ही युरोप और अमेरिका में बड़े-बड़े राजनीतिक और आर्थिक घोटालों का पर्दाफाश  हुआ। इनमें अमेरिका का वाटरगेट स्केंडल और ब्रिटेन का पौलसन एफेयर प्रमुख था। इन घोटालों ने मध्यवर्गीय नागरिक गुणों के विकास में यकीन रखने वाले हीदनहाइमर के इस सिद्धांत के अतिआशावाद की हवा निकाल दी। हाल ही में जिन देशों में आर्थिक घोटालों का पर्दाफाश हुआ है उनमें छोटे-बड़े और विकसित-अविकसित यानी हर तरह के देश (चीन, जापान, स्पेन, मैक्सिको, भारत, चीन, ब्रिटेन, ब्राजील, सूरीनाम, दक्षिण  कोरिया, वेनेजुएला, पाकिस्तान, एंटीगा, बरमूडा, क्रोएशिया, इक्वेडोर, चेक गणराज्य, वगैरह)  हैं। भ्रष्टाचार को सुविधाजनक और हानिकारक मानने के इन परस्पर विरोधी नजरियों से परे हट कर अगर देखा जाए तो अभी तक आर्थिक वृद्धि के साथ उसके किसी सीधे संबंध का सूत्रीकरण नहीं हो पाया है। उदाहरणार्थ, एशिया के दो देशों, दक्षिण  कोरिया और फिलीपींस, में भ्रष्टाचार के सूचकांक बहुत ऊँचे हैं। लेकिन, कोरिया में आर्थिक वृद्धि की दर खासी है, जबकि फिलीपींस में नीची।
आंकड़े झूठे नहीं  :-2005 में भारत में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल नामक एक संस्था द्वारा किये गये एक अध्ययन में पाया गया कि 62% से अधिक भारतवासियों को सरकारी कार्यालयों में अपना काम करवाने के लिये रिश्वत या ऊँचे दर्जे के प्रभाव का प्रयोग करना पड़ा। वर्ष 2008 में पेश की गयी इसी संस्था की रिपोर्ट ने बताया है कि भारत में लगभग 20 करोड़ की रिश्वत अलग-अलग लोकसेवकों को (जिसमें न्यायिक सेवा के लोग भी शामिल हैं) दी जाती है। उन्हीं का यह निष्कर्ष है कि भारत में पुलिस कर एकत्र करने वाले विभागों में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार है। आज यह कटु सत्य है कि किसी भी शहर के नगर निगम में रिश्वत दिये बगैर कोई मकान बनाने की अनुमति नहीं मिलती। इसी प्रकार सामान्य व्यक्ति भी यह मानकर चलता है कि किसी भी सरकारी महकमे में पैसा दिये बगैर गाड़ी नहीं चलती।
निर्णय लेने व विवेकाधिकार प्रयोग में भी भ्रष्टाचार :- किसी को निर्णय लेने का अधिकार मिलता है तो वह एक या दूसरे पक्ष में निर्णय ले सकता है। यह उसका विवेकाधिकार है और एक सफल लोकतन्त्र का लक्षण भी है। परन्तु जब यह विवेकाधिकार वस्तुपरक न होकर दूसरे कारणों के आधार पर इस्तेमाल किया जाता है तब यह भ्रष्टाचार की श्रेणी में आ जाता है अथवा इसे करने वाला व्यक्ति भ्रष्ट कहलाता है। किसी निर्णय को जब कोई शासकीय अधिकारी धन पर अथवा अन्य किसी लालच के कारण करता है तो वह भ्रष्टाचार कहलाता है। भ्रष्टाचार के सम्बन्ध में हाल ही के वर्षों में जागरुकता बहुत बढ़ी है। जिसके कारण भ्रष्टाचार विरोधी अधिनियम -1988, सिटीजन चार्टर, सूचना का अधिकार अधिनियम - 2005, कमीशन ऑफ इन्क्वायरी एक्ट आदि बनाने के लिये भारत सरकार बाध्य हुई है। बर्तमान नरेन्द्र मोदी की सरकार को आये चार साल व्यतीत होने वाले हैं जिस उद्देश्य को लेकर यह पार्टी सत्ता में आयी थी संभवतः वह उसके करीब तक अभी नही पहुच सकी है। सारा ताना बाना तो पुराना ही है जो नये नये अधिकरियों व मंत्रियो को पाठ पढ़ा देते है। जब तक बुनियादी स्तर पर काया कल्प नहीं होगा तब तक सीटों पर बैठे बाबू और अधिकारी सुधरने वाले नहीं है।
नौकरशाही का भ्रष्टाचार :- यह सर्वविदित है कि भारत में नौकरशाही का मौजूदा स्वरूप ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की देन है। इसके कारण यह वर्ग आज भी अपने को आम भारतीयों से अलग, उनके ऊपर, उनका शासक और स्वामी समझता है। अपने अधिकारों और सुविधाओं के लिए यह वर्ग जितना सचेष्ट रहता है, आम जनता के हितों, जरूरतों और अपेक्षाओं के प्रति उतना ही उदासीन रहता है। भारत जब गुलाम था, तब महात्मा गांधी ने विश्वास जताया था कि आजादी के बाद अपना राज यानी स्वराज्य होगा, लेकिन आज जो हालत है, उसे देख कर कहना पड़ता है कि अपना राज है कहां? उस लोक का तंत्र कहां नजर आता है, जिस लोक ने अपने ही तंत्र की स्थापना की? आज चतुर्दिक अफसरशाही का जाल है। लोकतंत्र की छाती पर सवार यह अफसरशाही हमारे सपनों को चूर-चूर कर रही है। कांग्रेस की 70 साल की नीतियां इतनी निम्न स्तर पर आ चुकी हैं कि इसे सुधरने में ना जाने कितनी सरकारें आयेंगी व जायेंगी। यह भी निश्चित है कि लोकतंत्र में यह हो भी पायेगा या नहीं।
ब्रिटिश हुकूमत से यह फला फूला :- देश की पराधीनता के दौरान इस नौकरशाही का मुख्य मकसद भारत में ब्रिटिश हुकूमत को अक्षुण्ण रखना और उसे मजबूत करना था। जनता के हित, उसकी जरूरतें और उसकी अपेक्षाएं दूर-दूर तक उसके सरोकारों में नहीं थे। नौकरशाही के शीर्ष स्तर पर इंडियन सिविल सर्विस के अधिकारी थे, जो अधिकांशत अंग्रेज अफसर होते थे। भारतीय लोग मातहत अधिकारियों और कर्मचारियों के रूप में सरकारी सेवा में भर्ती किए जाते थे, जिन्हें हर हाल में अपने वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारियों के आदेशों का पालन करना होता था। लॉर्ड मैकाले द्वारा तैयार किए गए शिक्षा के मॉडल का उद्देश्य ही अंग्रेजों की हुकूमत को भारत में मजबूत करने और उसे चलाने के लिए ऐसे भारतीय बाबू तैयार करना था, जो खुद अपने देशवासियों का ही शोषण करके ब्रिटेन के हितों का पोषण कर सकें।
नौकरशाही की विरासत और चरित्र जस का तस :- स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारत में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के तहत तमाम महत्वपूर्ण बदलाव हुए, लेकिन एक बात जो नहीं बदली, वह थी नौकरशाही की विरासत और उसका चरित्र। कड़े आंतरिक अनुशासन और असंदिग्ध स्वामीभक्ति से युक्त सर्वाधिक प्रतिभाशाली व्यक्तियों का संगठित तंत्र होने के कारण भारत के शीर्ष राजनेताओं ने औपनिवेशिक प्रशासनिक मॉडल को आजादी के बाद भी जारी रखने का निर्णय लिया। इस बार अनुशासन के मानदंड को नौकरशाही का मूल आधार बनाया गया। यही वजह रही कि स्वतंत्र भारत में भले ही भारतीय सिविल सर्विस का नाम बदलकर भारतीय प्रशासनिक सेवा कर दिया गया और प्रशासनिक अधिकारियों को लोक सेवक कहा जाने लगा, लेकिन अपने चाल, चरित्र और स्वभाव में वह सेवा पहले की भांति ही बनी रही। प्रशासनिक अधिकारियों के इस तंत्र को आज भी ‘स्टील फ्रेम ऑफ इंडिया’ कहा जाता है। नौकरशाह मतलब तना हुआ एक पुतला। इसमें अधिकारों की अंतहीन हवा जो भरी है। हमारे लोगों ने ही इस पुतले को ताकतवर बना दिया है। वे इतने गुरूर में होते हैं कि मत पूछिए। वे ऐसा करने का साहस केवल इसलिए कर पाते हैं कि उनके पास अधिकार हैं, जिन्हें हमारे ही विकलांग-से लोकतंत्र ने दिया है।
नौकरशाहों की मानसिकता में बदलाव की जरूरत :- भारत में अब तक हुए प्रशासनिक सुधार के प्रयासों का कोई कारगर नतीजा नहीं निकल पाया है। वास्तव में नौकरशाहों की मानसिकता में बदलाव लाए जाने की जरूरत है। हालांकि, नौकरशाही पर किताब लिख चुके पूर्व कैबिनेट सचिव टी.एस.आर. सुब्रमण्यम के मुताबिक राजनीतिक नियंत्रण हावी होने के बाद ही नौकरशाही में भ्रष्टाचार आया, अब उनका अपना मत मायने नहीं रखता, सब मंत्रियों और नेताओं के इशारों पर होता है। हमारे राजनीतिज्ञ करना चाहें, तो पांच साल में व्यवस्था को दुरुस्त किया जा सकता है, लेकिन मौजूदा स्थिति उनके लिए अनुकूल है, इसलिए वो बदलाव नहीं करते। 2019 का आम चुनाव इतना आयान नहीं होगा । यह एनडीए सरकार की अग्नि परीक्षा की घड़ी होगी। हम 70 साल भले गवांये हैं पर अगला 5 साल कुछ समझ कर ही दिया जाएगा। अब जनता जागरुक हो चुकी है और केवल भाषण व धोषणायें सुनकर निर्णय  करने वाली नही है।