Friday, July 22, 2022

द्रविड़ शैली का अयोध्या में एकमात्र मन्दिर राम लला सदन का जीर्णोद्धार डा. राधे श्याम द्विवेदी


शिल्पशास्त्र और मंदिर स्थापत्य में मन्दिर की तीन बड़ी शैलियाँ बताई गई हैं – नागर शैली, द्रविड़ शैली और वेसर ( मिश्रित) शैली. इनमे नागर उत्तर भारत में और द्रविड़ शैली दक्षिण भारत में मुख्य रूप से तथा तथा वेसर प्रायः हर जगह गौण रूप से दिखाई देता है.
नागर शैली: - नागर शैली का प्रचलन हिमालय और विन्ध्य पहाड़ों के बीच की मैदानों में पाया जाता है.इस शैली के सबसे पुराने उदाहरण गुप्तकालीन मंदिरों में, विशेषकर, देवगढ़ के दशावतार मंदिर और भितरगाँव के ईंट-निर्मित मंदिर में मिलते हैं.
गुजरात के सोमपुरा नागर शैली के विशेषज्ञ है.ये अयोध्या के राम जन्मभूमि मन्दिर के स्थापत्यकार है।सोमनाथ तथा बिड़ला मंदिर इन्हीं के पूर्वजों ने डिजाइन की है.
द्रविड़ शैली :- दक्षिण भारतीय हिन्दू स्थापत्य कला दक्षिण भारत में विकसित होने के कारण द्रविड़ शैली कहलाती है.द्रविड़ शैली कृष्णा और कावेरी नदियों के बीच की भूमि में अपनाई गई. तमिलनाडु व निकटवर्ती क्षेत्रों के अधिकांश मंदिर इसी श्रेणी के होते हैं. इसका सम्बन्ध दक्षिण और दक्कन के मंदिरों से है. कुछ पुराने नमूने उत्तर भारत और मध्य भारत में भी पाए गए हैं, जैसे – लाड़खान का पार्वती मंदिर तथा ऐहोल के कौन्ठगुडि और मेगुती मंदिर आदि.
द्रविड़ शैली की स्थापत्य कला :-
इस शैली में मंदिर का आधार भाग वर्गाकार होता है तथा गर्भगृह के ऊपर का शिखर भाग प्रिज्मवत् या पिरामिडनुमा होता है, जिसमें क्षैतिज विभाजन लिए अनेक मंजिलें होती हैं. शिखर के शीर्ष भाग पर आमलक व कलश की जगह स्तूपिका होते हैं. इस शैली के मंदिरों की प्रमुख विशेषता यह है कि ये काफी ऊँचे तथा विशाल प्रांगण से घिरे होते हैं. प्रांगण में छोटे-बड़े अनेक मंदिर, कक्ष तथा जलकुण्ड होते हैं. परिसर में कल्याणी या पुष्करिणी के रूप में जलाशय होता है. प्रागंण का मुख्य प्रवेश द्वार गोपुरम कहलाता है. प्रायः मंदिर प्रांगण में विशाल दीप स्तंभ व ध्वज स्तंभ का भी विधान होता है.
द्रविड़ शैली की प्रमुख विशेषतायें:-
द्रविड़ शैली की प्रमुख विशेषता इसका पिरामिडीय विमान है. इस विमान में मंजिल पर मंजिल होते हैं जो बड़े से ऊपर की ओर छोटे होते चले जाते हैं और अंत में गुम्बदाकार आकृति होती है जिसका तकनीकी नाम स्तूपी अथवा स्तूपिका होता है. समय के साथ द्रविड़ मंदिरों में विमानों के ऊपर मूर्तियों आदि की संख्या बढ़ती चली गयी. द्रविड़ मंदिर में एक आयताकार गर्भगृह होता है जिसके चारों ओर प्रदक्षिणा का मार्ग होता है. द्रविड़ मंदिरों में समय के साथ कई विशेषताएँ जुड़ती चली गईं, जैसे – स्तम्भ पर खड़े बड़े कक्ष एवं गलियारे तथा विशालकाय गोपुर (द्वार).
द्रविड़ शैली के दो सबसे प्रमुख लक्षण है :- i) इस शैली में मुख्य मंदिर के चार से अधिक पार्श्व होते हैं .
ii) मंदिर का शिखर और विमान पिरामिडीय आकृति के होते हैं.
iii)द्रविडीय स्थापत्य में स्तम्भ और प्लास्टर का प्रचुर प्रयोग होता है. यदि इस शैली में कोई शिव मंदिर है तो उसके लिए अलग से नंदी मंडप भी होता है. इसी प्रकार ऐसे विष्णु मंदिरों में एक गरुड़ मंडप भी होता है.
iv) उत्तर भारतीय मंदिरों के विपरीत दक्षिण भारतीय मंदिरों में चारदिवारी भी होती है. कांची में स्थित कैलाश नाथ मंदिर द्रविड़ स्थापत्य का एक प्रमुख उदाहरण है. यह मंदिर राजसिंह और उसके बेटे महेंद्र तृतीय द्वारा बनाया गया है.
श्री राघवाचार्यजी महाराज के नेतृत्व में रामलला सदन मंदिर अयोध्या का जीर्णोद्धार :-
अयोध्या स्थित अनेक मंदिर और मठ श्रीमद्जगद्गुरु रामानुजाचार्य स्वामी श्री राघवाचार्यजी महाराज के नेतृत्व में कार्यरत है.श्री महाराजश्री वेदों के अभ्यासक एवं मीमांसा के पंडित है तथा स्वयं उच्च विद्या विभुषित है. स्वामीजी का प्रमुख उद्देश्य है की प्राचीन और सांस्कृतिक सनातन धर्म से समाज को परिचित करवाना है.अपना समाज वेदों के बताये हुए धर्म के मार्ग पर चले, जिस से उन्हें मिले हुवे मानव जन्म का सार्थक हो. बचपन से ही स्वामीजी को देववाणी संस्कृत भाषा और वेदशास्त्र से लगाव था. उनके नानाजी वै. देवी प्रसाद मिश्र उर्फ़ दामोदराचार्य इन से यह धरोहर प्राप्त हुयी है. स्वामीजी राघवाचार्यजी की विद्वत्ता एवं उनका वेदादि शास्त्रों, व्याकरण का विधिवत अभ्यास देखकर श्रीधाम मठ , रामवर्णाश्रम अयोध्या के सर्वराकार श्री जयरामजी महाराज ने 1999 में श्री स्वामीजी को श्रीधाममठ के सर्वराकार महंत पद पर प्रतिष्ठित किया है. इस मठ का पदभार लेने के बाद उनके व्दारा मठ का जीर्णोद्धार, वेदशाला, नंदिनी गोशाला, अन्नक्षत्र और पुरातन मंदिर का जीर्णोद्धार इत्यादि कार्य उनके निर्देशन में सुचारु रूप से कार्यरत है. संप्रति श्री स्वामीजी निम्न संस्थाओं के सर्वराकार महंत पद पर प्रतिष्ठित है.
१) श्रीधाम मठ रामवर्णाश्रम, रामकोट अयोध्या.
२) श्रीराम लला सदन मंदिर, अयोध्या.
३) श्रीहनुमान मंदिर, रामकोट अयोध्या.
४) श्रीराम-जानकी मंदिर, रामापुर घाट, कौड़िया बाजार, जिला : गोंडा (उ. प्र.)
रामलला सदन मंदिर अयोध्या के जीर्णोद्धार कार्य का योगी आदित्यनाथ द्वारा शिलान्यास:-
उत्तर प्रदेश के माननीय मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍यनाथ ने 1 जून 2022 को अयोध्‍या में रामलला सदन राममंदिर के गर्भगृह का शिलान्‍यास किया था. इसके बाद वे रामलला सदन मंदिर के कार्यक्रम में शामिल हुए. यह अयोध्‍या में द्रविड़ शैली बना पहला मंदिर है. मंदिर को देखकर ऐसा लग रहा है जैसे कि हम दक्षिण भारत के किसी मंदिर में आ गए हों. यह काफी प्राचीन स्‍थान है.यह मंदिर, श्रीरामजन्‍म भूमि से कुछ ही कदमों की दूरी पर स्थित है. 
 यह अयोध्‍या का पहला मंदिर है जहां भगवान श्रीराम के कुल देवता भगवान श्री विष्‍णु के स्‍वरूप भगवान रंगनाथन प्रतिष्‍ठ‍ित हैं. यहां भगवान राम, लक्ष्‍मण और मां सीता की प्राण प्रतिष्‍ठा का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ है. दक्षिण भारतीय शैली में बना यह मंदिर अत्‍यंत आकर्षक है और देखने वालों को दक्षिण भारत में होने का एहसास करा रहा है.
मन्दिर की प्रतिष्ठा से संबंधित मान्‍यता:-
रामलला सदन मंदिर का डिजाइन चेन्‍नई के मशहूर आर्किटेक्‍ट स्‍वामीनाथन ने तैयार किया है. मान्‍यता है कि यहां भगवान श्रीराम समेत चारों भाइयों का नामकरण संस्‍कार हुआ था. इसी वजह से इस मंदिर को राम लला सदन का नाम दिया गया है. मंदिर में श्री रामलला, माता जानकी और लक्ष्‍मण की मूर्तियां दक्षिण भारत से अयोध्‍या लाई गई हैं.

Tuesday, July 19, 2022

स्वर्गीय राजेश दूबे की द्वितीय पुण्य तिथि पर विविध आयोजन


         (18 अगस्त 1969 ई.--- 9 जुलाई 2020ई.)

पारिवारिक पृष्ठभूमि:-

उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के कप्तानगंज विकास क्षेत्र में पटखौली राजा ग्राम पंचायत के अंतर्गत दूबे/ द्विवेदी ब्राह्मणों का संस्कार युक्त  दुबौली दूबे एक अति चर्चित गांव है। इसमें श्रीराम सनेही दूबे अपने समय के संभ्रांत और प्रभाव शाली व्यक्ति रहे। ना केवल अपने ग्राम पंचायत अपितु हरैया तहसील और बस्ती जिले में उनकी अच्छी ख्याति रही है।इनके इकलौते पुत्र श्री हरी राम दूबे अपने पिता के धरोहर को अत्यन्त बुलंदियों तक पहुंचाने में कोई कोर कसर नहीं लगाई थी।आगे चल कर इनके चार कुशल और व्यवहार परक पुत्र स्वर्गीय श्री अमृत नाथ दूबे, स्वर्गीय श्री देवनाथ दूबे, स्वर्गीय श्री देव नारायण दूबे और श्री शत्रुघ्न प्रसाद दूबे ने आम जन के सहयोग से श्री राम सनेही इंटर कॉलेज दुबौली दुबे बस्ती की स्थापना 1972 में कराए थे । गांव में दुर्गा माता का मंदिर, राम लीलाओ का आयोजन तथा आल्हा ,फाग और कुश्ती - दंगल प्रतियोगिताएं नियमित रूप से यहां आयोजित होती रहती  रही हैं ।जिले स्तर पर पहले इलेक्ट्रिक मशीनरी, पंपिग सेट,आयल इंजन और अन्य तरह के मशीनरी पार्ट्स के विक्री और व्यापार में इस परिवार का पूरे बस्ती मंडल में एकाधिकार रहा है।खलीलाबाद,हरैया सिद्धार्थ नगर में अभी भी अनेक व्यवसायिक गतिविधियां उत्कृष्टता के साथ संचालित है। इस परिवार के प्रतिष्ठानों द्वारा स्वराज, एस्कॉर्ट और जान डीयर ट्रेक्टर की खूब बिक्री हुई है। एस पी ऑटो मोबाइल, एस पी ऑटो व्हील, हीरो मोटर्स, टाटा मोटर्स आदि अनेक संस्थान संचालित कर स्वर्गीय श्री राजेश दूबे,श्री अखिलेश दूबे श्री आशीष दूबे और डा रोहन दूबे आटो मोबाइल की दुनियां में पूरे बस्ती मण्डल में एकाधिकार बना रखा है।

कोविड ने परिवार के युवा पुरोधा को छीन लिया:- 

इस परिवार के सबसे कुशल युवा संचालक सिद्धार्थ नगर और बस्ती में श्री राजेश दूबे के योगदान को भुलाया नही जा सकता है। कोवीड के क्रूर प्रहार ने इस होनहार को असमय में श्रावण कृष्ण चतुर्थी, सम्वत 2077 तदनुसार 09 जुलाई 2020  को
हमसे छीन लिया। श्री राम सनेही सेवा सदन दुबौली दूबे के प्रमुख उत्तराधिकारी और एस पी ऑटो व्हील हीरो मोटर्स के संस्थापक देव तुल्य, ज्येष्ठ भ्राता,  स्मृतिशेष श्री राजेश दूबे जी की दिव्यात्मा ने कोविद संक्रमण से अनुप्राणित होकर अपना पंचभौतिक स्थूल शरीर को छोड़कर बैकुंठ धाम में प्रभु के परम तत्व में अंतर्निहित हो गई हैं। इससे न केवल  दूबे दुबौली के श्री रामसनेही परिवार अपितु बस्ती सिद्धार्थ नगर के पूरे क्षेत्र का  जन मानस हतप्रभ होकर परमेश्वर के इस कृत्य को बड़े ही आत्मिक क्लेश के साथ अंगीकार किया है।

समय समय पर विविध उच्चस्तरीय कार्यक्रम आयोजित: इस परिवार द्वारा लगातार समय समय पर अनेक आध्यात्मिक और सामाजिक कार्यक्रम अपने सामर्थ्य और श्रेष्ठता के साथआयोजीत होते रहे हैं साथ ही विविध चिकित्सा शिविर आयोजित होते रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एवं रोटरी क्लब मिड टाउन बस्ती के संयुक्त तत्वाधान में स्व. राजेश दुबे की स्मृति में दुबौली दुबे गांव में स्थित दुर्गा मंदिर परिसर में 14 जनवरी 2021 को संक्रान्ति के पर्व पर निशुल्क चिकित्सा शिविर एवं सहभोज का आयोजन हुआ था। विश्व रक्त दान दिवस 14 जून 2022 को रक्तदान शिविर गोटवा स्थित टाटा मोटर्स पर संपन्न हुआ था। नवरात्रि के अवसर पर 2 से 10 अप्रैल 2022 को मां दुर्गा मंदिर दुबौली दूबे में शतचंडी यज्ञ आदि पूरी निष्ठा और पवित्रता से संपन्न हुआ है।

द्वितीय पुण्य तिथि पर विविध आयोजन:-
स्मृतिशेष श्री राजेश दूबे जी की द्वितीय पुण्यतिथि पर श्रावण कृष्ण चतुर्थी, सम्वत 2079, दिन- रविवार अंग्रेजी तिथि- 17 जुलाई 2022 ई० को पैतृक निवास, ग्राम - दुबौली दूबे में सुंदर काण्ड पाठ/हवन प्रातः 7 बजे से प्रारंभ हुआ। इसके उपरांत ब्रह्मणदेव और अन्य अथितियों के भोज का आयोजन किया गया है।
निःशुल्क स्वास्थ्य शिविर : -
आंख, कान, नाक, गला, हड्डी , महिला रोग, जनरल फिजिशियन, सर्जन, दांत के रोग की जांच एवम दवा चश्मा आदि का निःशुल्क वितरण किया गया। आयुर्वेदिक, होमियोपैथिक और योग के डाक्टर द्वारा भी  परामर्श  दिए गए। सुगर, ब्लडप्रेशर आदि की जांच भी निःशुल्क संपन्न हुई। स्वास्थ्य शिविर में पांच सौ की सेहत जांची गई है। निशुल्क स्वास्थ्य शिविर में डा.डीके गुप्ता, डा.सौरभ द्विवेदी, डा. तनु मिश्रा, डा.एके पाठक, डा.दुर्गेश पांडेय और डा. उमेश उपाध्याय व उनकी टीम ने 500 लोगों की सेहत जांची, जरूरी परामर्श और दवाएं वितरित की गईं । इस दौरान लोगों को बूस्टर डोज वैक्सीन भी लगाई गई।

दुबौली दूबे गांव में 30 गो सेवक सम्मानित किए गए :-
देसी गायों का पालन, संरक्षण व संवर्धन देश के विकास के लिए ना केवल आध्यात्मिक रूप से बल्कि विभिन्न अन्य रूपों से भी आवश्यक है। देसी गायों को पालने वाला हर पशुपालक न केवल पशु सेवा करता है बल्कि पशुपालन के माध्यम से राष्ट्र सेवा भी करता है। यह बातें पशुपालक धौरहरा निवासी अवधेश पांडेय ने रविवार को दुबौली दुबे गांव में राजेश दुबे की द्वितीय पुण्यतिथि के अवसर पर आयोजित पशुपालक सम्मान समारोह को संबोधित करते हुए कही। उन्होंने कहा कि देसी गाय पालन करना केवल दूध बल्कि दही, घी, गोबर, मूत्र सब कुछ उपयोगी है। उन्होंने गाय के साथ-साथ विभिन्न पेड़ों पौधों की उपयोगिता पर विस्तार से प्रकाश डाला। इस मौके पर  सनातन धर्म सभा की तरफ से सर्व श्री राजेंद्र सिंह, अनिल कुमार, जोखन लाल, जगदीश मिश्रा, रामदयाल, ओंकार मिश्रा, शक्ति शरण उपाध्याय, संध्या दीक्षित सहित 30 गो सेवकों को सम्मानित किया गया।

300 आम्रपाली आम के पौधों का वितरण :-

शिविर में एस पी ऑटो व्हील जान डियर ,बड़े बन ,बस्ती की तरफ से 300 आम्रपाली आम के पौधे भी वितरित किए गए। आज के विविध आयोजनों में सहभागिता के लिए श्री एस पी दुबे और श्री अखिलेश दुबे ने आगंतुकों के प्रति आभार ज्ञापित किया। इस दौरान विनोद शुक्ल, महादेव दुबे, सहदेव दुबे, विंध्याचल तिवारी, परमेश्वर तिवारी, बुद्धीसागर दुबे, राकेश दुबे, दुर्गेश दुबे, राखी दुबे, गिरजेश दुबे, आशीष दुबे, रोहन दुबे, आकाश दुबे शौर्य, विभु, राखी, कुटुंबी,अवधेश तिवारी, अनिल पांडे, राकेश दुबे, दिग्विजय चौबे, अनिल उपाध्याय मौजूद रहे । पूरे दिन चले इन कार्यक्रम का संचालन श्री पंकज त्रिपाठी ने किया।

सैकड़ों संतो ने भजन - पूजा कर बनाई एक अलौकिक दृश्य:-

प्रायः हर आध्यात्मिक और धार्मिक आयोजनों में साधु - संत और गरीब ब्राह्मण भारी संख्या में समलीत होते हैं।आज के आयोजन में भी कई दिन पहले से ही भारी संख्या में साधु - संत शाम होते ही देर रात तक अखंड हरि - कीर्तन और भजन गा - गाकर एक दिव्य अलौकिक वातावरण उत्पन्न कर रखे थे।  जमीन पर आसान जमाए गेरूवे परिधान में ये महान संत अपने मधुर और भक्ति मय वाणी से वातावरण को दिव्य बना रखे थे। इससे श्री राम सनेही सेवा सदन और दुबौली दूबे गांव एक तीर्थ जैसा लग रहा था।

Friday, July 15, 2022

चातुर्मास में अनेक बंदिशें और अनेक प्रकार की साधनाएं भी डा. राधे श्याम द्विवेदी

रविवार 10 जुलाई 2022 से चातुर्मास या चौमासा की शुरुआत हो चुका है जो कि पूरे चार माह तक चलेगी.हमारे भारत देश में त्यौहारों की नदियाँ बहती हैं इसलिए हमारा देश भावनाओं का देश हैं. इस नदी में चौमासा का बहुत महत्व हैं. चौमासा आषाढ़ की एकादशी यानि देव शयनी एकादशी – शुक्ल पक्ष से शुरू होकर कार्तिक की एकादशी यानि देव उठनी एकादशी – शुक्लपक्ष तक चलता हैं. यह काल चौमासा कहलाता हैं. इस बीच बहुत से त्यौहार आते हैं. चौमासा / चातुर मास का महत्त्व आपके लिए विस्तार से लिखा गया है. चातुर्मास के दौरान कोई शुभ व मांगलिक कार्ये नहीं किए जाते. व्रत, भक्ति और शुभ कर्म के 4 महीने को हिन्दू धर्म में 'चातुर्मास' कहा गया है। ध्यान और साधना करने वाले लोगों के लिए ये माह महत्वपूर्ण होते हैं। इस दौरान शारीरिक और मानसिक स्थिति तो सही होती ही है, साथ ही वातावरण भी अच्छा रहता है। चातुर्मास आषाढ़ शुक्ल एकादशी से प्रारंभ होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चलता है। चातुर्मास का समय भगवान के पूजन-आराधना और साधना का समय माना जाता है, इन दिनों माना जाता है की भगवान विष्णु पूरे चार माह के लिए सो जाते हैं .इस समय श्रावण मास में भगवान शिव जी की उपासना भी की जाती है. उक्त 4 माह को व्रतों का माह इसलिए कहा गया है कि उक्त 4 माह में जहां हमारी पाचनशक्ति कमजोर पड़ती है वहीं भोजन व जल में बैक्टीरिया की तादाद भी बढ़ जाती है। इन दिनों कोई शुभ कार्य नहीं होते, जैसे विवाह संबंधी कार्य, मुंडन विधि, नाम करण आदि, लेकिन इन दिनों धार्मिक अनुष्ठान बहुत अधिक किये जाते हैं, जैसे भागवत कथा, रामायण, सुंदरकांड पाठ, भजन संध्या एवं सत्य नारायण की पूजा आदि. इसके अलावा इस समय कई तरह के दानों का भी महत्व हैं, जिसे व्यक्ति अपनी श्रद्धा एवं हेसियत के हिसाब से करता हैं.
जीवों के संरक्षण का संदेश देता है चातुर्मास:-
स्वामी हरि चैतन्य ब्रह्मचारी ने बताया कि चातुर्मास संयमित जीवन शैली का संदेश देता है. इस दौरान जलीय जीव ज्यादा पैदा होते हैं. यात्रा के दौरान जाने अनजाने में जीवों को कोई क्षति न हो इसलिए साधु-संत एक स्थान पर रुककर साधना करते हैं. आचार्य राजेश कुमार जैन ने बताया कि जैन धर्म में चातुर्मास में भी जीव हिंसा से बचने के लिए जैन संत अपनी यात्रा रोक देते हैं. साथ ही चार माह तक व्रत, साधना और तप में लीन रहते हैं। इस बीच पर्युषण पर्व में रात्रि भोजन का त्याग, ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय का पालन किया जाता है.
हिन्दू धर्म में चौमासा का महत्व :-
हिन्दू धर्म के सभी बड़े त्यौहार इन्ही चौमासा के भीतर आते हैं. सभी अपनी मान्यतानुसार इन त्यौहारों को मनाते हैं एवं धार्मिक अनुष्ठान भी करते हैं.इस तरह चौमासा के ये सभी माह त्योहारों से भरे होते हैं. चौमासा या चतुर्मास के अंतर्गत निम्न माह शामिल हैं -
आषाढ़ :-
सबसे पहला महीना आषाढ़ का होता है, जो शुक्ल पक्ष की देवशयनी एकादशी से शुरू होता हैं. ऐसा माना जाता है कि इस दिन से भगवान् विष्णु सोने जाते हैं. आषाढ़ के 15 दिन चौमास के अंतर्गत आते हैं. इसलिए ऐसा भी कहा जाता है कि चौमास अर्ध आषाढ़ माह से शुरू होता है. इस माह में गुरु एवं व्यास पूर्णिमा का त्यौहार भी मनाया जाता है, जिसमें गुरुओं के स्थान पर धार्मिक अनुष्ठान किये जाते हैं. कई जगहों पर मेला सजता हैं. गुरु पूर्णिमा खासतौर पर शिरडी वाले साईं बाबा, सत्य साईं बाबा, गजानन महाराज, सिंगाजी, धुनी वाले दादा एवं वे सभी स्थान जो गुरु के माने जाते हैं वहां बहुत बड़े रूप में गुरु पूर्णिमा मनाई जाती हैं.
श्रावण :-
दूसरा महीना श्रावण का होता है, यह महीना बहुत ही पावन महीना होता है, इसमें भगवान शिव की पूजा अर्चना की जाती हैं. इस माह में कई बड़े त्यौहार मनाये जाते हैं जिनमें रक्षाबंधन, नाग पंचमी, हरियाली तीज एवं अमावस्या, श्रावण सोमवार आदि विशेष रूप से शामिल हैं. रक्षाबंधन का त्यौहार भाई बहनों का त्यौहार होता है. बहनें अपने भाइयों को राखी बांधती हैं. वहीं नाग पंचमी के दिन नाग देवता की पूजा की जाती है. हरियाली तीज में सुहागन औरतें भगवान् शिव एवं देवी पार्वती की पूजा करती है एवं व्रत भी रखती है. इस माह में श्रावण सोमवार का महत्व बहुत अधिक है. इस माह में वातावरण बहुत ही हराभरा रहता है.
भाद्रपद :-
तीसरा महीना भादों अर्थात भाद्रपद का होता हैं. इसमें भी कई बड़े एवं महत्वपूर्ण त्यौहार मनायें जाते हैं जिनमें कजरी तीज, हर छठ, जन्माष्टमी, गोगा नवमी, जाया अजया एकादशी, हरतालिका तीज, गणेश चतुर्थी, ऋषि पंचमी, डोल ग्यारस, अन्नत चतुर्दशी, पितृ श्राद्ध आदि शामिल हैं. हर त्यौहार का हिन्दू धर्म में अपना एक अलग महत्व होता है, और लोग इसे बड़े चौ से मनाते हैं. इस तरह यह माह भी हिन्दू रीती रिवाजों से भरा पूरा रहता हैं.
आश्विन माह :-
चौथा महीना आश्विन का होता हैं. अश्विन माह में पितृ मोक्ष अमावस्या, नव दुर्गा व्रत, दशहरा एवं शरद पूर्णिमा जैसे महत्वपूर्ण एवं बड़े त्यौहार आते हैं. इस माह को कुंवार का महीना भी कहा जाता हैं. नव दुर्गा में लोग 9 दिनों का व्रत रखते हैं इसके बाद दसवें दिन दशहरा का त्यौहार बहुत ही हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं.
कार्तिक माह :-
यह चातुर्मास का अंतिम महीना होता है, जिसके 15 दिन चौमास में शामिल होते हैं. इस महीने में दीपावली के पांच दिन, गोपा अष्टमी, आंवला नवमी, ग्यारस खोपड़ी/ प्रमोदिनी ग्यारस अथवा देव उठनी ग्यारस जैसे त्यौहार आते हैं. इस माह में लोग अपने घर में साफ सफाई करते हैं, क्योकि इस माह में आने वाले दीपावली के त्यौहार का हमारे भारत देश में बहुत अधिक महत्व है. इसे लोग बहुत ही धूम धाम से मनाते हैं. 
पुरुषोत्तम मास / अधिक मास :-
इस चौमास के अलावा अधिकमास का भी बहुत महत्व हैं इसे पुरुषोतम मास कहा जाता हैं.यह मास तीन साल में एक बार आता हैं, एवं गणना में अनुसार वह किसी भी महीने में आ जाता हैं. इस अधिक मास का भी उतना ही महत्व होता हैं जितना की चौमास का. जब यह अधिक मास भाद्रपद में आता है, जो कि कई वर्षों में होता हैं तब उसका महत्व और अधिक बढ़ जाता हैं. 
धार्मिक कर्म कांड ही होते हैं:-
पुरे चौमासा गीता पाठ, सुंदर कांड, भजन एवं रामायण पाठ सभी अपनी श्रद्धानुसार करते हैं. इसके अलावा इस समय कई दान पूण्य एवं तीर्थयात्रा भी की जाती हैं.चौमासा के समाप्त होते ही धार्मिक कार्य जैसे शादी, मुंडन इत्यादि का कार्य शुरू हो जाता हैं. देव उठनी ग्यारस से ही विवाह कार्य प्रारंभ हो जाते हैं. कहा जाता है कि इस दिन देवी तुलसी का विवाह होता है. कुछ लोग इसे छोटी दीवाली भी कहते हैं.

चातुर्मास भगवान विष्णु का शयनकाल होता है:-
चातुर्मास भगवान विष्णु का शयनकाल होता है। इस दौरान भगवान विष्णु योग निद्रा में रहते हैं। इसलिए इन चार माह के दौरान विवाह, यज्ञोपवित, मुंडन आदि मांगलिक कार्य वर्जित रहते हैं। इस दौरान घर का निर्माण प्रारंभ, गृह प्रवेश, उग्रदेवता की प्रतिष्ठा, नवीन दुकान का उद्घाटन, वाहनों का क्रय-विक्रय किया जा सकता है। चातुर्मास का महत्व जैन और बौद्ध धर्मों में भी माना जाता है। चातुर्मास के दौरान जैन मुनि भ्रमण बंद करके एक ही जगह निवास करते हैं।
शिव परिवार के हाथ रहेगा सृष्टि का संचालन:-
धर्म शास्त्रों के अनुसार सृष्टि के संचालन का कार्य भगवान विष्णु के हाथ में रहता है, लेकिन उनके शयनकाल में चले जाने के कारण सृष्टि के संचालन का कार्यभार भगवान शिव और उनके परिवार पर आ जाता है। इसलिए चातुर्मास में भगवान शिव और उनके परिवार से जुड़े व्रत-त्योहार आदि मनाए जाते हैं। श्रावण माह पूरा भगवान शिव को समर्पित रहता है। इसमें श्रद्धालु एक माह उपवास रखते हैं। बाल-दाढ़ी नहीं कटवाते हैं। शिव मंदिरों में विशेष अभिषेक पूजन आदि संपन्न किए जाते हैं। इसके बाद भादव माह में दस दिनों तक भगवान श्रीगणेश का जन्मोत्सव मनाया जाता है। इसके बाद आश्विन माह में देवी दुर्गा की आराधना शारदीय नवरात्रि के जरिए की जाती है।
चातुर्मास का वैज्ञानिक महत्व:-
चातुर्मास का महत्व केवल धार्मिक ही नहीं है, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी ये चार माह खानपान में अत्यंत सावधानी बरतने के होते हैं। ये चार माह बारिश के होते हैं। इस समय हवा में नमी काफी बढ़ जाती है जिसके कारण बैक्टीरिया, कीड़े, जीव जंतु आदि बड़ी संख्या में पनपते हैं। सब्जियों में जल में बैक्टीरिया पनपने लगते हैं। खासकर पत्तेदार सब्जियों में कीड़े आदि ज्यादा लग जाते हैं। इस लिहाज से इन चार माह में पत्तेदार सब्जियां आदि खाने की मनाही रहती है। इस दौरान शरीर की पाचनशक्ति भी कमजोर हो जाती है। इसलिए संतुलित और हल्का, सुपाच्य भोजन करने की सलाह दी जाती है।
चौमासा या चतुर्मास का अलग-अलग धर्मों में महत्व :-
चौमासा का अलग अलग धर्म में अलग महत्व है. यहाँ कुछ धर्म के अनुसार इसका महत्व दर्शाया जा रहा है-
जैन धर्म में चौमासा का महत्व :-
जैन धर्म में चौमासे का बहुत अधिक महत्व होता हैं. वे सभी पुरे महीने मंदिर जाकर धार्मिक अनुष्ठान करते हैं एवं सत्संग में भाग लेते हैं. घर के छोटे बड़े लोग जैन मंदिर परिसर में एकत्र होकर ना ना प्रकार के धार्मिक कार्य करते हैं. गुरुवरों एवं आचार्यों द्वारा सत्संग किये जाते हैं एवं मनुष्यों को सद्मार्ग दिखाया जाता हैं. इस तरह इसका जैन धर्म में बहुत महत्व है.
बौद्ध धर्म में चौमासा का महत्व :-
गौतम बुद्ध राजगीर के राजा बिम्बिसार के शाही उद्यान में रहे, उस समय चौमासा की अवधि थी. कहा जाता है साधुओं का बरसात के मौसम में इस स्थान पर रहने का एक कारण यह भी था कि उष्णकटिबंधीय जलवायु में बड़ी संख्या में कीट उत्पन्न होते हैं जो यात्रा करने वाले भिक्षुकों द्वारा कुचल जाते हैं. इस तरह से इसका बौद्ध धर्म में भी महत्व अधिक है.
हिन्दू धर्म में चौमासा का महत्व :-
हिन्दू धर्म के सभी बड़े त्यौहार इन्ही चौमासा के भीतर आते हैं. सभी अपनी मान्यतानुसार इन त्यौहारों को मनाते हैं एवं धार्मिक अनुष्ठान भी करते हैं.
चौमासा में वर्जित कार्य:-
चौमासा में आपको कोई भी शुभ कार्य नहीं करने चाहिए। कहा जाता है कि, इस मास मे करने वाले शुभ कार्य का फल आपको प्राप्त नहीं होता है। क्योंकि इससे जुड़े हिंदू समाज में कुछ नियम भी होते हैं। जिसके कारण आप इसमें कोई शुभ कार्य नहीं कर सकते हैं। इसमें किसी प्रकार के कोई भी मुहूर्त नहीं निकाले जाते है। हमारे समाज के पंडित भी इस माह में कोई भी शुभ कार्य करने से मना कर देते हैं। साथ ही नशीले पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए।
चौमासा या चातुर्मास व्रत के नियम :-
चौमासा के कई नियम होते हैं जो सभी अपनी मान्यतानुसार निभाते हैं. सबकी अपनी श्रद्धा होती हैं. आगे कुछ नियम आपके सामने लिखे गये हैं.
स्नान
चौमास के दिनों में महिलायें सूर्योदय के पूर्व उठकर स्नान करती हैं साथ ही पूजा कर मंदिर जाती हैं .खासतौर पर श्रावण एवं कार्तिक का महिना. कार्तिक में कृष्ण जी एवं तुलसी जी की पूजा की जाती हैं.
उपवास/व्रत
कई लोग पुरे चार महीने एक वक्त भोजन करते हैं. एवं रात्रि में फलहार किया जाता हैं.प्याज, लहसन, बैंगन, मसूर जैसे भोज्य पदार्थ से परहेज पूरे चार महीने कई लोग ये सभी पदार्थ अपने भोजन में उपयोग नहीं करते. खासतौर पर श्रावण एवं कार्तिक माह में.
पैर में चप्पल नहीं पहनते
कई लोग नव दुर्गा के समय चप्पल नहीं पहनते हैं.
बाल एवं दाड़ी नहीं कटवाते
श्रावण एवं नव दुर्गा में कई पुरुष अपने बाल एवं दाड़ी नहीं कटवाते.








Thursday, July 14, 2022

माताजी की पंचम पुण्यतिथि

तुम हो एक अगोचर, सबके प्रानपति ॥
किस विधि मिलूँ दयामय, तुमको मैं कुमति ॥
तुम एक अगोचर हो सबके प्राणपति हो, अर्थात आप अगोचर हो, अर्थात आप दिखाई नहीं देते हो ,पर क्या इसका मतलब यह नही है कि आप हो ही नहीं। यदि आप नहीं हो तो यह सृष्टि किसके बलबूते पर चल रही है? सबके प्राणों में किसकी आत्मा बसी हुई है?
                    स्मृति शेष श्रीमती प्रानपती
श्रावण कृष्ण प्रतिपदा सन 2017 को आप अपना पंच भौतिक शरीर त्याग कर परम् तत्व में विलीन हुई हो।
आज हमारी माता जी की पंचम पुण्यस्मरण तिथि है
इसी दिन उनकी दिव्य आत्मा ने स्वर्ग में स्थान पाया था।
हम उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें अंतः हृदय से याद करते है !।
हमें पता है कि जाने वाले लौट कर कभी आते नहीं।
लेकिन उनकी यादें हमारे दिलो में हमेशा बानी रहती है।।
हम अपनी माताजी की पंचम पुण्यतिथि पर उन्हें याद करते है।
 उस अदृश्य परम तत्व को शत शत बार नमन करते हैं।। 

Monday, July 11, 2022

योगिराज देवरहा बाबा की चित्र - विचित्र गाथा डा. राधे श्याम द्विवेदी



बस्ती बाबा जी की जन्म और कुलभूमि रही :-
भारत देश में कई चमत्कारिक बाबा और सिद्ध पुरुष अवतरित हुए हैं। उनमें से एक प्रमुख नाम देवरहा बाबा काआता है। बताया जाता है कि बाबा के पूर्वज  उत्तर प्रदेश के जिला बस्ती के उमरिया गांव के मूल निवासी थे।  बाबा के  समय भारत में ब्रिटिश सरकार थी। बस्ती और देवरिया सब गोरखपुर सरकार के अधीन थे।1801 में बस्ती तहसील मुख्यालय बन गया था  जो 1865 में जिले का मुख्यालय बना था। 1997 से बस्ती 3 जिलों वाला मंडल कार्यालय बन चुका है। देवरिया जनपद 16 मार्च 1946 को गोरखपुर जनपद का कुछ पूर्व-दक्षिण भाग लेकर बनाया गया था। वर्तमान में देवरिया में 2 जिले बने हुए हैं।सिद्ध योगी देवरहा बाबा की असली जन्म तिथि अज्ञात है।उनका जन्म उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गोरखपुर तथा वर्तमान बस्ती  जिले के दुबौलिया ब्लाक/ थाना के अंतर्गत सरयू तट  स्थितउमरिया नामक गांव में हुआ था, उनका बचपन का नाम जनार्दन दत्त दूबे था। उनके पिता का नाम पं. राम यश दूबे था उनके तीन पुत्र थे सूर्यबली देवकली और जनार्दन।  पिता जी  अपने  तीनों बेटों से खेती का काम ही  कराना चाहते थे । जनार्दन सबसे छोटे भाई थे।तरुणाई में ही वे बड़ी बहन का उलाहना पाकर सरयू पार कर रामनगरी आ पहुंचे। यहां कुछ दिन निवास करने के बाद वे संतों की टोली के साथ उत्तराखंड चले गए। वहां पहुंचे संतों के मार्गदर्शन में योग एवं साधना की बारीकी सीखी। समाधि को उपलब्ध होते इससे पूर्व दीक्षा की आवश्कता महसूस हुई और वे दैवी प्रेरणा से काशी पहुंचे। दीक्षा के बाद उन्हें गुरु आश्रम में भगवान की पूजा का दायित्व मिला।  भदौनी  निवासी  पं.  गया प्रसाद  ज्योतिषी के यहां  रहकर वे  संस्कृत  व्याकरण  का अध्ययन करने लगे थे।कई वर्ष काशी में  अध्ययनरत  रहने  के  बाद जनार्दन दत्त  स्वामी निरंजन  देव  सरस्वती  के  साथ हरिद्वार आ गये । हरिद्वार  कुम्भ मेले  के दौरान  जनार्दन  दत्त  का अपने पिता  पं. राम यश  दूबे से अचानक  मिलना हो गया। पिता जी  को देखते ही  जनार्दन दत्त  भयभीत  हो गये उनके घर  चलने के  लिए  कहने पर वह उनके  साथ चलने के लिए  तैयार भी हो गये थे। रास्तें  में पिताजी  की इच्छा  अयोध्या में  राम जी  के दर्शन  की हुई। जहां  अचानक  पिता जी  का  निधन हो गया। रामयश जनार्दन को लेकर घर की ओर चल पड़े मगर रास्ते में ही उनकी मृत्यु हो गई ।पिता को वहीं छोड़कर जनार्दन उमरिया गांव पहुंचे और अपने भाइयों को लेकर अयोध्या आए वहां पर पिता का अंतिम संस्कार किया पिताजी  के   निधन के बाद  उनके  परिवार  के  विरोधियों  ने उन्हें  आतंकित  करना प्रारम्भ कर दिया। विरोधियों से  बचने  के लिए  जनार्दन  दत्त को  अपनी  जन्म  भूमि  छोड़नी पड़ी।
ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति देवरिया में:-
उसके बाद जनार्दन पुनः ब्रह्म की खोज में वापस चले गए ब्रह्म की तलाश में निकले जनार्दन दुबे की ज्योति तप साधना योग से पूरे देश में फैलने लगी पूरे देश में बड़ी बड़ी हस्तियां उनकी तरफ चली आ रही थी उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक की बात है पूरे उत्तर प्रदेश में भीषण अकाल पड़ा था । अकाल से सर्वाधिक प्रभावित गोरखपुर जिला था। आज का देवरिया जिला उन दिनों गोरखपुर जिले में ही था। भयंकर सूखे के कारण पूरे जनपद में त्राहि त्राहि मची थी। देवरिया में सरयू नदी के तट पर एक प्राचीन गांव मईल है। एक दिन अकाल ग्रस्त ग्रामवासी सरयू नदी के तट पर एकत्रित होकर भगवान से प्रार्थना कर रहे थे।  देवरा  (एक  प्रकार का  छोटा पौधा)  के घने जंगलों में लम्बे समय तक बाबाजी को  रुकना  व  छिपना  पड़ा था।इससे उनके केश  बाल और  दाढ़ी  बहुत  बढ़ गये थे कोई उस जंगल में अचानक जनार्दन दत्त  को देखकर उन्हे  "देवरा बाबा"  कह भय  से  वहां  से  भाग  गया  था। नदी की रेत को जनभाषा में भी  देवरा कहते हैं ।वहां रहने के कारण बाबा को देवरहा बाबा कहा जाने लगा। अवधूत वेषधारी जटाधारी एक तपस्वी महापुरुष नदी तट पर प्रकट हुए उनका उन्नत ललाट मुख मंडल पर देदीप्यमान तेज आंखों में सम्मोहन देखकर उपस्थित जन अपने को रोक न सके और उस तपस्वी के सामने साष्टांग लेट आए ।यह सूचना पूरे गांव में फैल गई। देखते देखते गांव के समस्त नर- नारी दौड़कर आ गए ।कुछ ही देर में बाबा के सामने एक विशाल जनसमुदाय इकट्ठा हो गया ।बाबा सरयू नदी के जल से प्रकट हुए थे इसलिए "जलेसर महाराज" के नाम से जय - जयकार के नारे लगने लगे। बाबा से सभी मनुष्यों ने अपनी अपनी विपत्तियां कहीं ।बाबा ने सबकी बातें प्रेम पूर्वक सुनी और कहा तुम लोग घर जाओ ।शीघ्र ही वर्षा होगी ।वे बाबा का गुणगान करते हुए अपने घरों को लौट पड़े और शाम होते ही पूरा आकाश बादलों से भर गया देखते ही देखते मूसलाधार वर्षा होने लगी। देवरा ( नदी के रेत ) की  जगह से प्रकट होने के कारण " देवरहा  बाबा" कहे जाने लगे । "जलेसर बाबा"  ही आगे चलकर  " देवरहा बाबा" कहलाए।

मचान पर आवास बना:-
इस नये  परिचय  से नयी  पहचान  लेकर  वे अपने गुरु स्वामी  निरंजन देव  सरस्वती के  सानिध्य में  रहकर योग  साधना  में बर्षों तक संलग्न रहे। देवरहा  बाबा  कठोर  साधना  करते  हुए एषणा शक्ति अर्जित करने के बाद तत्कालीन गोरखपुर तथा वर्तमान  देवरिया जिले के  मइल ग्राम  में सरयू तट  पर  मचान  बनाकर रहने लगे थे। बाबा मथुरा में यमुना के किनारे रहा करते थे। यमुना किनारे लकडिय़ों की बनी एक मचान उनका स्थाई बैठक स्थान था। बाबा इसी मचान पर बैठकर ध्यान, योग किया करते थे। देवरहा बाबा से जब पूछा गया कि वो धरती से इतने ऊपर क्यों रहते हैं? तो उन्होंने बताया कि शिला, अग्नि और जल से चार हाथ ऊपर रहना चाहिए। इस वजह से मैं मचान बनाकर रहता हूं।भक्तों को दर्शन और उनसे संवाद भी यहीं से होता था। कहा जाता है कि जिस भक्त के सिर पर बाबा ने मचान से अपने पैर रख दिए, उसके वारे-न्यारे हो जाते थे ।जब  उनकी  इच्छा होती तो वह काशी,  मथुरा , अयोध्या, वृन्दाबन व झूसी  आदि  स्थानों पर  मंच बनवाकर  वहीं लागों को दर्शन तथा आशीर्वाद  देने लगे थे। उन्हें सामान्य  शिक्षा होने  के बावजूद  वेद पुरान  गीता रामायण  तथा  मनुस्मृति  आदि अच्छे ग्रंथों का अच्छा ज्ञान था। उन्हें कई  विदेशी भाषायें भी आती थी। विदेशी  ज्ञानार्थियों  को वह  उनकी ही भाषा में बात करते थे।

सही आयु का आकलन नहीं :- 
भारत के इतिहास में कई साधू संत ऐसे हुए है जो किसी परिचय के मोहताज नही जिनकी कृति से विश्व आज तक गुंजायमान है। डॉ.  राजेन्द्र  प्रसाद, महामना मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तमदास टंडन, जैसी विभूतियों ने पूज्य देवरहा बाबा के समय-समय पर दर्शन कर अपने को कृतार्थ अनुभव किया था। देवरहा बाबा की सही आयु का आकलन भी नहीं है। 19 जून सन् 1990 को योगिनी एकादशी के दिन अपना प्राण त्यागने वाले इस बाबा के जन्म के बारे में संशय है।  (बाबा के संपूर्ण जीवन के बारे में अलग- अलग मत है, कुछ लोग उनका जीवन 250 साल तो कुछ लोग 500 साल मानते है।

श्रद्धालु को प्रसाद का वितरण:-
श्रद्धालुओं के कथनानुसार बाबा अपने पास आने वाले प्रत्येक व्यक्ति से बड़े प्रेम से मिलते थे और सबको कुछ न कुछ प्रसाद अवश्य देते थे। प्रसाद देने के लिए बाबा अपना हाथ ऐसे ही मचान के खाली भाग में रखते थे और उनके हाथ में फल, मेवे या कुछ अन्य खाद्य पदार्थ आ जाते थे जबकि मचान पर ऐसी कोई भी वस्तु नहीं रहती थी। श्रद्धालुओं को कौतुहल होता था कि आखिर यह प्रसाद बाबा के हाथ में कहाँ से और कैसे आता है ?

अष्टांग योग में विशेष पारंगत :-
परमपूज्य महर्षि पातंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग में पारंगत देवरहा बाबा थे। लोगों में विश्वास है कि, बाबा जल पर चलते भी थे और अपने किसी भी गंतव्य स्थान पर जाने के लिए उन्होंने कभी भी सवारी नहीं की और ना ही उन्हें कभी किसी सवारी से कहीं जाते हुए देखा गया। बाबा हर साल कुंभ के समय प्रयाग आते थे। मार्कण्डेय सिंह के अनुसार, वह किसी महिला के गर्भ से नहीं बल्कि पानी से अवतरित हुए थे। यमुना के किनारे वृन्दावन में वह 30 मिनट तक पानी में बिना सांस लिए रह सकते थे। उनको जानवरों की भाषा समझ में आती थी। खतरनाक जंगली जानवारों को वह पल भर में काबू कर लेते थे।लोगों का मानना है, कि बाबा को सब पता रहता था कि कब, कौन, कहाँ उनके बारे में चर्चा हुई। वह अवतारी व्यक्ति थे। उनका जीवन बहुत सरल और सौम्य था। वह फोटो कैमरे और टीवी जैसी चीजों को देख अचंभित रह जाते थे। वह उनसे अपनी फोटो लेने के लिए कहते थे। लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि उनका फोटो कभी नहीं बनता था। वह नहीं चाहते तो रिवाल्वर से गोली नहीं चलती थी। उनका निर्जीव वस्तुओं पर नियंत्रण था।

चमत्कारिक दावा नहीं पर चमत्कार ही चमत्कार दिखा :-
अपनी उम्र, कठिन तप और सिद्धियों के बारे में देवरहा बाबा ने कभी भी कोई चमत्कारिक दावा नहीं किया, लेकिन उनके इर्द-गिर्द हर तरह के लोगों की भीड़ ऐसी भी रही जो हमेशा उनमें चमत्कार खोजते देखी गई। अत्यंत सहज, सरल और सुलभ बाबा के सानिध्य में जैसे वृक्ष, वनस्पति भी अपने को आश्वस्त अनुभव करते रहे। भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें अपने बचपन में देखा था। देश-दुनिया के महान लोग उनसे मिलने आते थे और विख्यात साधू-संतों का भी उनके आश्रम में समागम होता रहता था। उनसे जुड़ीं कई घटनाएं इस सिद्ध संत को मानवता, ज्ञान, तप और योग के लिए विख्यात बनाती हैं।कोई 1987 की बात होगी,  जून का ही महीना था। वृंदावन में यमुना पार देवरहा बाबा का डेरा जमा हुआ था। अधिकारियों मेंअफरातफरी मची थी। प्रधानमंत्री राजीव गांधी को बाबा के दर्शन करने आना था। प्रधानमंत्री के आगमन और यात्रा के लिए इलाके की मार्किंग कर ली गई। आला अफसरों ने हैलीपैड बनाने के लिए वहां लगे एक बबूल के पेड़ की डाल काटने के निर्देश दिए। भनक लगते ही बाबा ने एक बड़े पुलिस अफसर को बुलाया और पूछा कि पेड़ को क्यों काटना चाहते हो ? अफसर ने कहा, प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए जरूरी है. बाबा बोले, तुम यहां अपने पीएम को लाओगे, उनकी प्रशंसा पाओगे, पीएम का नाम भी होगा कि वह साधु-संतों के पास जाता है, लेकिन इसका दंड तो बेचारे पेड़ को भुगतना पड़ेगा! वह मुझसे इस बारे में पूछेगा तो मैं उसे क्या जवाब दूंगा? नही ! यह पेड़ नहीं काटा जाएगा। अफसरों ने अपनी मजबूरी बताई कि, यह दिल्ली से आए अफसरों का आदेश है, इसलिए इसे काटा ही जाएगा और फिर पूरा पेड़ तो नहीं कटना है, इसकी एक टहनी ही काटी जानी है, मगर बाबा जरा भी राजी नहीं हुए।उन्होंने कहा कि, यह पेड़ होगा तुम्हारी निगाह में, मेरा तो यह सबसे पुराना साथी है, दिन रात मुझसे बतियाता है, यह पेड़ नहीं कट सकता। इस घटनाक्रम से बाकी अफसरों की दुविधा बढ़ती जा रही थी। आखिर बाबा ने ही उन्हें तसल्ली दी और कहा कि घबड़ाओ मत, अब पीएम का कार्यक्रम टल जाएगा। तुम्हारे पीएम का कार्यक्रम मैं कैंसिल करा देता हूं। आश्चर्य कि, दो घंटे बाद ही पीएम आफिस से रेडियोग्राम आ गया की प्रोग्राम स्थगित हो गया है। कुछ हफ्तों बाद राजीव गांधी वहां आए, लेकिन पेड़ नहीं कटा।

हठयोग सीखने लोग आते थे :- 
उनके भक्तों में जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री , इंदिरा गांधी जैसे चर्चित नेताओं के नाम हैं। उनके पास लोग हठयोग सीखने भी जाते थे। सुपात्र देखकर वह हठयोग की दसों मुद्राएं सिखाते थे। योग विद्या पर उनका गहन ज्ञान था। ध्यान, योग, प्राणायाम, त्राटक समाधि आदि पर वह गूढ़ विवेचन करते थे। कई बड़े सिद्ध सम्मेलनों में उन्हें बुलाया जाता, तो वह संबंधित विषयों पर अपनी प्रतिभा से सबको चकित कर देते। लोग यही सोचते कि इस बाबा ने इतना सब कब और कैसे जान लिया? ध्यान, प्रणायाम, समाधि की पद्धतियों के वह सिद्ध थे ही। धर्माचार्य, पंडित, तत्वज्ञानी, वेदांती उनसे कई तरह के संवाद करते थे। उन्होंने जीवन में लंबी लंबी साधनाएं कीं। जन कल्याण के लिए वृक्षों-वनस्पतियों के संरक्षण, पर्यावरण एवं वन्य जीवन के प्रति उनका अनुराग जग जाहिर था।

बाबा के आशीर्वाद कांग्रेस प्रचंड बहुमत प्राप्त किया:-
देश में आपातकाल के बाद हुए चुनावों में जब इंदिरा गांधी हार गईं तो वह भी देवरहा बाबा से आशीर्वाद लेने गईं। उन्होंने अपने हाथ के पंजे से उन्हें आशीर्वाद दिया। वहां से वापस आने के बाद इंदिरा ने कांग्रेस का चुनाव चिह्न  "जोड़ी बैल" से हटाकर "हाथ का पंजा" निर्धारित कर दिया। इसके बाद 1980 में इंदिरा के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रचंड बहुमत प्राप्त किया और वह देश की प्रधानमंत्री बनीं।वहीं, यह भी मान्यता है कि इन्दिरा गांधी आपातकाल के समय कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य स्वामी चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती से आर्शीवाद लेने गयीं थी। वहां उन्होंने अपना दाहिना हाथ उठाकर आर्शीवाद दिया और "हाथ का पंजा" पार्टी का चुनाव निशान बनाने को कहा।

खेचरी मुद्रा पर बाबा की सिद्धि:- 
जनश्रूति के मुताबिक, वह खेचरी मुद्रा की वजह से आवागमन से कहीं भी कभी भी चले जाते थे। उनके आस-पास उगने वाले बबूल के पेड़ों में कांटे नहीं होते थे। चारों तरफ सुंगध ही सुंगध होता था। देवरहा बाबा को खेचरी मुद्रा पर सिद्धि थी। जिस कारण वे अपनी भूख और आयु पर नियंत्रण प्राप्त कर लेते थे। बाबा महान योगी और सिद्ध संत थे। उनके चमत्कार हज़ारों लोगों को झंकृत करते रहे। आशीर्वाद देने का उनका ढंग निराला था। मचान पर बैठे-बैठे ही अपना पैर जिसके सिर पर रख दिया, वो धन्य हो गया। पेड़-पौधे भी उनसे बात करते थे। उनके आश्रम में बबूल तो थे, मगर कांटे विहीन। यही नहीं यह खुशबू भी बिखेरते थे। उनके दर्शनों को प्रतिदिन विशाल जनसमूह उमड़ता था। बाबा भक्तों के मन की बात भी बिना बताए जान लेते थे। उन्होंने पूरा जीवन अन्न नहीं खाया। दूध व शहद पीकर जीवन गुजार दिया। श्रीफल का रस उन्हें बहुत पसंद था।

बाबा की ख्याति दूर - दूर तक फैला था :- 
बाबा की ख्याति इतनी कि जार्ज पंचम जब भारत आया तो अपने पूरे लाव लश्कर के साथ उनके दर्शन करने देवरिया जिले के दियारा इलाके में मइल गांव तक उनके आश्रम तक पहुंच गया। दरअसल, इंग्लैंड से रवाना होते समय उसने अपने भाई से पूछा था कि, क्या वास्तव में इंडिया के साधु संत महान होते हैं। प्रिंस फिलिप ने जवाब दिया- हां, कम से कम देवरहा बाबा से जरूर मिलना। यह सन 1911 की बात है। जार्ज पंचम की यह यात्रा तब विश्वयुद्ध के मंडरा रहे माहौल के चलते भारत के लोगों को बरतानिया हुकूमत के पक्ष में करने की थी। उससे हुई बातचीत बाबा ने अपने कुछ शिष्यों को बतायी भी थी, लेकिन कोई भी उस बारे में बातचीत करने को आज भी तैयार नहीं। डाक्टर राजेंद्र प्रसाद तब रहे होंगे कोई दो-तीन साल के, जब अपने माता-पिता के साथ वे बाबा के यहां गये थे। बाबा देखते ही बोल पड़े-यह बच्चा तो राजा बनेगा। बाद में राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने बाबा को एक पत्र लिखकर कृतज्ञता प्रकट की और सन 1954 के प्रयाग कुंभ में बाकायदा बाबा का सार्वजनिक पूजन भी किया। उनके भक्त उन्हें दया का महासमुंदर बताते हैं। और अपनी यह सम्पत्ति बाबा ने मुक्त हाथ से लुटाई। जो भी आया, बाबा की भरपूर दया लेकर गया। वितरण में कोई विभेद नहीं, वर्षाजल की भांति बाबा का आशीर्वाद सब पर बरसा और खूब बरसा। मान्यता थी कि, बाबा का आशीर्वाद हर रोग की दवाई है।

बाबा की थी दिव्यदृष्ठि :-
कहा जाता है कि, बाबा देखते ही समझ जाते थे कि सामने वाले का सवाल क्या है। दिव्यदृष्ठि के साथ तेज नजर, कड़क आवाज, दिल खोल कर हंसना, खूब बतियाना बाबा की आदत थी। याददाश्त इतनी कि दशकों बाद भी मिले व्यक्ति को पहचान लेते और उसके दादा-परदादा तक का नाम व इतिहास तक बता देते, किसी तेज कम्प्युटर की तरह। बलिष्ठ कदकाठी भी थी। लेकिन देह त्याहगने के समय तक वे कमर से आधा झुक कर चलने लगे थे। उनका पूरा जीवन मचान में ही बीता। लकडी के चार खंभों पर टिकी मचान ही उनका महल था, जहां नीचे से ही लोग उनके दर्शन करते थे। मइल में वे साल में आठ महीना बिताते थे। कुछ दिन बनारस के रामनगर में गंगा के बीच, माघ में प्रयाग, फागुन में मथुरा के मठ के अलावा वे कुछ समय हिमालय में एकांतवास भी करते थे। खुद कभी कुछ नहीं खाया, लेकिन भक्तनगण जो कुछ भी लेकर पहुंचे, उसे भक्तों पर ही बरसा दिया। उनका बताशा-मखाना प्राप्त करने के लिए सैकडों लोगों की भीड हर जगह जुटती थी। 

जीवनभर अन्न ग्रहण नहीं किया:-
देवरहा बाबा ने जीवनभर अन्न ग्रहण नहीं किया। वे यमुना का पानी पीते थे अथवा दूध, शहद और श्रीफल के रस का सेवन करते थे। तो क्या इसका मतलब उन्हें भूख नहीं लगती थी। इस प्रश्न का जवाब कई वैज्ञानिक अध्ययनों में मिलता है। एक अध्ययन के अनुसार अगर कोई व्यक्ति ब्रह्माण्ड की ऊर्जा से शरीर के लिए आवश्यक एनर्जी प्राप्त कर ले और उसे भूख ना लगे यह संभव है। साथ ही अगर कोई व्यक्ति ध्यान क्रिया करे और उसकी लाइफस्टाइल संयत और संतुलित हो तो भी लम्बे जीवन की अपार संभावनाएं होती हैं। इसके अतिरिक्त आयु बढ़ाने के लिए किए जाने वाली योग क्रियाएं करे, तो भी लम्बा जीवन सपना नहीं। हालांकि अध्ययन के अनुसार इन तीनों चीजों का एक साथ होना आवश्यक है।

एक समय में दो स्थानों पर उपस्थिति :-
बाबा देवरहा एक साथ दो अलग जगहों पर भी प्रकट हो सकते थे।कहा जाता है कि बाबा एक साथ दो अलग-अलग जगहों पर उपस्थित होने का दावा करते थे। इसके पीछे पतंजलि योग सूत्र में वर्णित सिद्धी थी। बाबा के पास इस तरह की कई और सिद्धियां भी थी। इनमें से एक और सिद्धी थी पानी के अंदर बिना सांस लिए आधे घंटे तक रहने की। इतना ही नहीं बाबा जंगली जानवरों की भाषा भी समझ लेते थे। कहा जाता है कि वह खतरनाक जंगली जानवरों को पल भर में काबू कर लेते थे। पलक झपकते ही हाथ में आ जाता था कुछ भी बाबा देवरहा के बारे में कहा जाता है कि उनको कहीं भी आवागमन की सिद्धी प्राप्त थी। वे पल भर में कहीं भी चले जाते थे। इसकी वजह खेचरी मुद्रा को माना जाता था। हालांकि बाबा को किसी ने कहीं आते-जाते नहीं देखा था। उनके अनुयायियों के अनुसार बाबा के पास जो भी आता उसे वे प्रसाद जरूर देते थे। बाबा मचान पर बैठे-बैठे अपना हाथ मचान के खाली भाग में करते और उनके हाथ में मेवे, फल और कई अन्य तरह के खाद्य पदार्थ आ जाते थे। कहा तो यह भी जाता है कि बाबा के रहने के स्थान के आस-पास के बबूल के पेड़ों के कांटे भी नहीं होते थे। 

दिव्यदृष्टि से करते थे समाधान :-
बाबा के अनुयायियों के अनुसार बाबा को दिव्यदृष्टि की सिद्धी प्राप्त थी। बाबा बिना कहे-सुने ही अपने पास आने वालों की समस्याओं और उनकी मन की बात जान लिया करते थे। याद्दाश्त उनकी इतनी गजब की थी कि वे दशकों बाद भी किसी व्यक्ति से मिलते थे उसके दादा-परदादा तक के नाम और इतिहास बता दिया करते थे।

भक्तों में नेता भी रहे बाबा जी:-
बाबा अपनी युवावस्था में मजबूत कद-काठी के हुआ करते थे, लेकिन वृद्धावस्था में उनकी कमर झुक गई थी। चलते समय उन्हें कमर को झुका के चलना पड़ता था। बाबा के भक्तों में ना केवल आम नागरिक थे बल्कि दिग्गज राजनीतिक हस्तियां भी थीं। इनमें से प्रमुख हैं, पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, पूर्व गृह मंत्री नेता बूटा सिंह, मौजूदा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद। ये कई बार बाबा का आशीर्वाद लेने के लिए उनके पास जाते थे। हालांकि ज्यादातर समय ये नेता चुनावों के दौरान बाबा के दर्शनों के लिए गए। शायद इसके पीछे बाबा से जीत का आशीर्वाद लेना ही प्रमुख वजह रही हो।

जानवरों और पक्षियों की भाषा को भी समझते थे:-
देवरहा बाबा के भक्त बताते हैं कि बाबा जल पर भी चलते थे, उन्हें प्लविनी सिद्धि प्राप्त थी। किसी भी स्थान पर पहुंचने के लिए उन्होंने कभी सवारी नहीं की। मान्यता है कि मचान पर कोई प्रसाद नहीं होने के बाद भी वह भक्तों को अपने हाथ से प्रसाद वितरित किया करते थे। साथ ही भक्तों के अनुसार वह जानवरों और पक्षियों की भाषा को भी समझते थे। साथ ही जंगली जानवरों को अपने वश में कर लेते थे।

पूरी दुनिया में देवरहवां बाबा के अनेक आश्रम:-
देवरहवां आश्रम पूरी दुनिया में है जिसमे प्रमुख रूप से यूपी के देवरिया जिले के सलेमपुर के पास मईल में सरयू नदी के किनारे, काशी में गंगा जी के किनारे अस्सी घाट पर द्वारिकाधीश मठ, विंध्य पर्वत मालाओं पर स्थित अमरावती पर्वत, नर्मदा उदगम स्थल अमरकंटक, यमुना नदी के किनारे वृंदावन और तिब्बत पर्वत में अति दुर्लभ निर्जन स्थान ज्ञानगंज इत्यादि में है।तिब्बत स्थित ज्ञानगंज में ऋषि मण्डल है जहां देवरहा बाबा अब भी अज्ञात रूप में विद्यमान हैं।

देवरहा बाबा का गुरु मंत्र:-
देवरहा बाबा श्री राम और श्री कृष्ण को एक मानते थे और भक्तो को कष्ट से मुक्ति के लिए कृष्ण मंत्र भी देते थे। प्रणत: क्लेश नाशाय, गोविन्दाय नमो-नम:”। बाबा कहते थे-“जीवन को पवित्र बनाए बिना, ईमानदारी, सात्विकता-सरसता के बिना भगवान की कृपा प्राप्त नहीं होती। अत: सबसे पहले अपने जीवन को शुद्ध-पवित्र बनाने का संकल्प लो।

पांच साल पहले ही बता दिया था उनकी मृत्यु का समय :-
कहा जाता है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक वकील ने दावा किया था कि उसके परिवार की सात पीढिय़ों ने देवहरा बाबा को देखा है। उनके अनुसार देवहरा बाबा ने अपनी देह त्यागने के 5 साल पहले ही मृत्यु का समय बता दिया था। ऐसे ही कई और सुनी-सुनाई बाते हैं जो बाबा देवहरा के बारे में कही जाती हैं। हालांकि उन्होंने स्वयं इस तरह का दावा कभी नहीं किया। उनके अनुयायियों ने ही अपने तरीके से तथ्य बनाए और उनका प्रचार आगे से आगे होता रहा। अचानक 11 जून 1990 को उन्होंने दर्शन देना बंद कर दिया। लगा जैसे कुछ अनहोनी होने वाली है। मौसम तक का व्यवहार बदल गया। यमुना की लहरें तक बेचैन होने लगीं। मचान पर बाबा त्रिबंध सिद्धासन पर बैठे ही रहे. डॉक्टरों की टीम ने थर्मामीटर पर देखा कि, पारा अंतिम सीमा को तोड निकलने पर तैयार है। 19 जून को मंगलवार के दिन योगिनी एकादशी थी। आकाश में काले बादल छा गये, तेज आंधियां तूफान ले आयीं। यमुना जैसे समुंदर को मात करने पर उतावली थी। लहरों का उछाल बाबा की मचान तक पहुंचने लगा। और इन्हीं सबके बीच शाम चार बजे बाबा का शरीर स्पंदनरहित हो गया। भक्तों की अपार भीड भी प्रकृति के साथ हाहाकार करने लगी। बाबा ने शारीर त्याग दिया था। अपने जीवन के अन्तिम दिनों मे वह मथुरा में रहकर पवित्र यमुना तट पर 19 जून 1990 को वह इस धरा धाम से सदा सदा के लिए चले गये। हम उस परम पुण्य आत्मा को हृदय से नमन करते हैं और अपनी श्रद्धा समर्पित करते हैं।



Wednesday, July 6, 2022

उद्धार की प्रतीक्षा में अयोध्या का पौराणिक त्रेता के ठाकुर का असली प्राचीन मंदिर ( नौरंग शाह मस्जिद )अब खंडहर बना

प्राचीन काल से अयोध्या के त्रेता के ठाकुर के मंदिर का बहुत महत्व  रहा है। स्कंद पुराण के वैष्णव खंड के अयोध्या महात्म्य में इस स्थान का उल्लेख किया गया है। आक्रांताओं की बलि चढ़े इस पौराणिक धरोहर को उसके उद्धारकर्ता के रूप में भागीरथ जैसे राजा, राम जैसे उद्धारकर्ता भगवान ,हनुमान और पराशुराम जैसे न्यायप्रिय शक्तिशाली धर्म धुरंधर शक्ति या कृष्ण  जैसे कूटनीतिक भगवान या कल्की भगवान जैसे भविष्य के परित्रानाय भगवान की प्रतीक्षा है। काश ! कोई कार सेवा जन्म भूमि जैसे दौर का चल पाता तो इस खंडहर के असली रूप का दर्शन भी हो जाता और पुनरुद्धार भी हो जाता।रंगजेब का मंदिर तोड़ने का आदेश :-मुगल काल में 9 अप्रैल 1669 ईस्वी में औरंगजेब ने फरमान जारी कर मुल्तान, काशी अयोध्या, मथुरा के हिंदू मंदिरों को तोड़कर मस्जिद बनाये जाने का आदेश दिया था। यह फारसी भाषा में है। अयोध्या के इस महत्वपूर्ण स्थान को तोड़ कर औरंगजेब के आदेश पर वहां उसके नौरंग शाह नामक एक मस्जिद का निर्माण किया गया। अयोध्या के इतिहास पर प्रामाणिक शोध करने वाले लेखक और अयोध्या के पूर्व आईपीएस अधिकारी आचार्य किशोर कुणाल ने अपनी उसी पुस्तक "अयोध्या रिविजिटेड"  के अध्याय आठ पृष्ठ संख्या 239 में इसकी पुष्टि की है। अवध विश्वविद्यालय के इतिहासकार डॉक्टर देशराज उपाध्याय के अनुसार, अंग्रेज इतिहासकार कनिंघम और ए. फ्यूरर, हालैंड के इतिहासकार हंस बेकर ने अपनी पुस्तकों में इसका जिक्र किया है। हंस बेकर सात साल तक आयोध्या आते जाते रहे और इस दौरान उन्होंने अयोध्या में रिसर्च कर इस स्थान का जिक्र अपनी किताब में किया है। इस मस्जिद के खंडहर में छिपे अवशेष इतिहास के पन्नों के साथ दबे पड़े हैं l ये स्थल सैकड़ों साल से वीरान होकर अब खंडहर बन चुका है l लंबे समय से पर्यटकों और श्रद्धालुओं के लिए भी  यह अवशेष कौतूहल का विषय बना  हुआ है।

प्राचीन त्रेतानाथ ठाकुर मंदिर  पर बना नौरंग शाह मस्जिद 
वर्तमान में राम की पैड़ी अयोध्या में सरयू नदी के तट पर  अहिल्याबाई घाट और मंदिर के पश्चिम ओर यह त्रेता के ठाकुर  पर  एक प्राचीन मंदिर स्थित था । इसके उत्तरी भाग पर हनुमत कृपा धाम ,गोपाल पुस्तकालय और राम दल ट्रस्ट की आफिस है। यह काफी बड़े भूभाग को घेर रखा है ।इसका मुकदमा भी बहुत दिनों से दो सम्प्रदाय के बीच चल रहा है। लगता नही की इसका जल्द उद्धार हो पाएगा। यह बहुत जाग्रत धर्म स्थान रहा।जिसे आक्रांताओं द्वारा तोड़ा माना जाता है कि इस मंदिर में भगवान राम सीता, लक्ष्मण, हनुमान, भरत और सुग्रीव सहित कई मूर्तियों को रखा गया था जो प्राचीन समय में काले रेत के पत्थरों से उकेरी गई थीं। इस मंदिर के बारे में यह भी कहा जाता है कि यह वही जगह है जहां पर श्री राम ने अश्वमेध यज्ञ किया था। यह मंदिर कार्तिक के पवित्र महीने के एकादशी ग्यारहवें दिन खुलता था। यहां भक्तों की भारी भीड़ भगवान राम का आशीर्वाद लेने के लिए यहां आती है। इस स्थान पर एकादशी के दिन पारंपरिक रीति-रिवाजों के साथ रंगारंग समारोह मनाया जाता था जो स्थानीय लोगो के साथ साथ बड़ी संख्या में श्रद्धालुयों और पर्यटकों को अपनी और आकर्षित करता  रहा है।
मूल मंदिर का निर्माण :-
प्राचीनकाल में कन्नौज नरेश राजा जयचंद ने बारहवीं सदी में इस त्रेता के ठाकुर मंदिर का निर्माण कराया था। मुगल शासक औरंगजेब का ही दूसरा नाम नौरंगशाह था। त्रेता के मंदिर को उसी समय ध्वस्त कर मस्जिद नौरंग शाह मस्जिद बनाई गई थी।   उसने 1969 ईस्वी में चन्द्रहरि मंदिर को ध्वस्त कर नौरंग शाह मस्जिद बनवाया था। यहां से राजा जयचंद का एक प्रस्तर अभिलेख प्राप्त हुआ था। जो राज्य संग्रहालय लखनऊ में सुरक्षित है। इससे स्पष्ट है कि राजा जयचंद ने त्रेता के ठाकुर मंदिर की स्थापना वही किया था जहां प्रभु श्रीराम ने अश्वमेव यज्ञ किया था।
नौरंग शाह मस्जिद का निर्माण :- प्राचीन मंदिर को मुगलकाल में औरंगजेब ने ध्वस्त कराकर उस स्थान पर नौरंग शाह मस्जिद का निर्माण करा दिया था।  इसके बाद इसके बगल में त्रेतानाथ का एक छोटा सा मंदिर बना लिया गया l इसे कालू (कुल्लू हिमाचल प्रदेश) के राजा ने पुराने मंदिर से 50 मीटर दूरी पर त्रेता के ठाकुर के नाम पर दूसरे मंदिर का निर्माण कराया था। इन दावों की पुष्टि फैजाबाद गजेटियर के पृष्ठ संख्या 353, अवध गजेटियर पृष्ठ सात तथा यूरोपीय यात्रियों के प्रतिवेदन से भी होती है। डच इतिहासकार हंशवेकर (अयोध्या पृष्ठ संख्या 53 व 54 ) ने इसके निर्माण की तिथि वर्ष 1670 बताई है। वर्तमान समय में ये प्रतिमा परिसर के कोशल संग्रहालय में संरक्षित की गई है। स्वर्गद्वार मोहल्ले का नाम भी आक्रांताओं ने बदलकर उर्दू बाजार रखा था।फिरभी पुराना नाम भी चला आ रहा है। 

नए मंदिर का निर्माण

त्रेत्तानाथ का वतर्मान मंदिर हिमाचल प्रदेश के कुल्‍लु के राजा ने बनवाया था, जो लगभग 300 साल पहले से स्‍थापित है। इसे अयोध्‍या में स्वर्गद्वार मोहल्ले के नाम से जाना जाता है। बाद में इस मंदिर को मराठा रानी अहिल्‍या बाई होलकर के द्वारा पुनर्निर्मित करवाया गया था। 

मंदिर में भगवान श्रीराम और उनकी पत्‍नी सीता माता की मूर्ति है। साथ में उनके छोटे भाई लक्ष्‍मण, भरत, शत्रुघ्‍न, रक्षक जय-विजय, गुरू वशिष्‍ठ, राजा सुग्रीव और भक्‍त हनुमान की भी मूर्ति हैं। माना जाता है कि इस मंदिर की मूर्तियों को पुराने मंदिर से वर्तमान मंदिर में लाया गया है। मंदिर की सभी मूर्तियां एकल काले पत्‍थर की बनी हैं।

नौरंग शाह मस्जिद खंडहर रूप में

औरंगजेब द्वारा  बनवाए गए मस्जिद आज भगनावस्था में है जो अयोध्या के सरयू नदी तट के दृश्य पर दाग नुमा धब्बा है।राम की पौड़ी जैसे महत्व पूर्ण स्थल पर ये देखने में बहुत खटकता है और सारे सौंदर्य पर पानी फेर देता है।




Monday, July 4, 2022

भगवान राम के त्रेता युग के पहले का अयोध्या का विष्णु और शिव का संयुक्त चंद्रहरि मन्दिर पुरातन भाग आक्रांताओं की भेंट चढ़ा

                  भगवान राम के त्रेता युग के पहले का 
  अयोध्या का विष्णु और शिव का संयुक्त चंद्रहरि मन्दिर 
                   पुरातन भाग आक्रांताओं की भेंट चढ़ा 
डा.राधे श्याम द्विवेदी
श्रीहरि विष्णु ने रक्ष संस्कृति के विनाश के लिए अयोध्या में राजा दशरथ के यहां श्रीराम के रूप में अवतार लिया था। यह अवातर त्रेता युग में हुआ था लेकिन इसके पहले भी श्री हरि के अयोध्या की सांस्कृतिक सीमा 84 कोस में लेने से जुड़े होने के संकेत हैं।अयोध्या में प्राचीन काल में हरि अर्थात भगवान विष्णु के 16 मंदिर अति प्रसिद्ध मंदिर थे. कालांतर में अयोध्या में चक्रहरि चंद्रहरि धर्महरि विष्णुहरि ,गुप्तहरि, पुण्यहरि और बिल्लहरि आदि केवल सात हरिस्थान बचे हैं। इन स्थानों में कइयों की स्थिति वर्तमान में अत्यंत दयनीय हो चुकी है . यह  माना जाता है कि ये सप्त हरिस्थानों का अस्तित्व और प्रमाण 12वी शताब्दी से पूर्व से रहा है । इनमे चंद्रहरि मंदिर को 16 हरियों में चौथा स्थान प्राप्त है। 
चंद्रहरि मन्दिर की अवस्थिति:-
अयोध्या के विभिन्न कोणों पर स्थित सप्त हरि में चंद्रहरि को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। चंद्रहरि का प्राचीन मंदिर अयोध्या के स्वर्गद्वार मोहल्ले में राम की पैडी के पास स्थित सुरक्षित अवस्था में है। इस मंदिर परिसर में भी कुल 5 मंदिर हैं. मंदिर के मुख्य गर्भगृह में चंद्रहरि भगवान विराजमान हैं, जबकि उसके दाहिने ओर मंदिर में भगवान राधा-कृष्ण, बाईं ओर द्वादश ज्योतिर्लिंग मंदिर है. द्वादश ज्योतिर्लिंग एक विशाल अर्घ्य के ऊपर है और वह भी मूर्ति में साक्षात ओमकार का दर्शन कराता है। चंद्रजी मंदिर का पावन वैभव अति विशिष्ट है. यह मंदिर ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से तो महत्वपूर्ण है ही, साथ ही मंदिर के परिसर में स्थित मुख्य गर्भगृह में विराजमान काले कसौटी के एक ही पत्थर में 11 मूर्तियां मौजूद हैं, जो अति महत्वपूर्ण मानी जाती हैंl  माना जाता है इस मंदिर में दर्शन-पूजन करने से समस्त मनोकामनाएं पूरी होती हैं और नित्य दर्शन से बैकुंठ लोक की प्राप्ति होती है l इस स्थान पर यह मंदिर भगवान चन्द्रमा द्वारा स्थापित किया गया था। इसका महत्व कई धार्मिक ग्रंथो व पुराणों में वर्णित है। सैकड़ों वर्षों पूर्व इस मंदिर को महाराज विक्रमादित्य द्वारा पुनः जीर्णोद्धार किया गया। तब से लेकर आज भी यह मंदिर स्थापित है। 
मान्यता है कि चंद्रमा की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान नारायण ने चंद्रमा को आशीर्वाद दिया कि वे जहां विराजे, वहीं चंद्रहरि मंदिर होगा. मंदिर के गर्भगृह में एक काले कसौटी के पत्थर में ही भगवान राम गरुड़ पर विराजमान हैं. जिनके साथ किशोरीजी, लक्ष्मणजी, भरतजी, नल, नील अंगद, जामवंत, हनुमान और गरुण विराजमान हैं। 
       मंदिर के महंत और चंद्रहरि ट्रस्ट के अध्यक्ष स्वामी कृष्णकांत आचार्य कहते हैं कि चंद्रमा द्वारा पूजित हरि अर्थात नारायण ही चंद्रजी महादेव हैं. यह मंदिर अत्यंत प्राचीन एवं धार्मिक महत्व रखता है. मंदिर के ठीक सामने यहां वर्तमान में राम की पैड़ी है, वहां सरयू की धारा प्रवाहित होती थी और त्रेता युग में यहां चंदन वन था। चंद्रमा द्वारा उपासना के बाद इसी वन में नारायणजी ने चंद्रमा को दर्शन दिया था. संत श्रीनाथ प्रपन्नाचार्य कहते हैं कि वैसे तो अयोध्या का कण-कण सिद्धि की खान है, लेकिन स्वर्गद्वार तीर्थ अत्यंत महत्व का है और उसमें भी चंद्रहरि में हरि और हर दोनों के दर्शन होते हैं।
बारह ज्योतिर्लिंग के दर्शन:-  इस मंदिर में भगवान चंद्र्हरेश्वर के साथ बारह ज्योतिर्लिंग स्थापित है। इस मंदिर की महत्व को बताते हुए आचार्य सतेन्द्र दास ने कहा कि चंद्र्हरी का मतलब होता है कि भगवान शिव और भगवान विष्णु की परम शक्ति वहां पर उपस्थित है और द्वादश ज्योतिर्लिंगों की स्थापना भी किया गया है। पृथ्वी पर विद्यमान बराह ज्योतिर्लिंग के दर्शन के लिए कई स्थानों पर जाते है और उस स्थान के पुण्य प्राप्ति के लिए वह सिर्फ अयोध्या के इस चन्द्र हरि में दर्शन करने से प्राप्त होता है । जो व्यक्ति जो कमाना लेकर आता है उसे उस प्रकार की फल की प्राप्ति होती है। 
गोदांबा महोत्सव:-इस मंदिर की परंपरानुसार प्रत्येक वर्ष के एक माह तक धनुर्मास महोत्सव का आयोजन होता है। जिसे श्री गोदाम्बा पर्व कहा जाता है।  मंदिर का वार्षिकोत्सव ज्येष्ठ पूर्णिमा को मनाया जाता है. इसमें एक महीने तक प्रतिदिन खीर और खिचड़ी से भगवान की सेवा की जाती है. इसका प्रसाद सैकड़ों लोगों में वितरित किया जाता है. 14 जनवरी को समापन के दिन भव्य भंडारा और संत सेवा होती है। मंदिर की परंपरा और पूजन पद्धति आगम है। मंदिर परिसर में गोदांबा जी का मंदिर भी निर्माणाधीन है. गोदांबा जी साक्षात लक्ष्मी जी ही हैं, जो भगवान रंगनाथ की पटरानी हैं और भगवान रंगनाथ अयोध्या के कुलदेवता हैं. इस नाते गोदांबा जी अयोध्या की कुलदेवी हुईं. मंदिर पर निरंतर पूजन स्त्रोत का पाठ आदि चलता रहता है.
उद्धार की प्रतीक्षा में खंडहर हो चुके प्राचीन धर्मस्थल का असलियत :-
प्राचीन काल से अयोध्या के चंद्रहरि मंदिर का बहुत महत्व  रहा है। स्कंद पुराण के वैष्णव खंड के अयोध्या महात्म्य में इस  स्थान का उल्लेख किया गया है। आक्रांताओं की बलि चढ़ गए इन पौराणिक धरोहरों को उसके उद्धारकर्ता के रूप में भागीरथ जैसे राजा, राम जैसे उद्धारकर्ता भगवान ,हनुमान और पराशुराम जैसे न्यायप्रिय शक्तिशाली धर्म धुरंधर शक्ति या कृष्ण  जैसे कूटनीतिक भगवान या कल्की भगवान जैसे भविष्य के किसी परित्रानाय भगवान की प्रतीक्षा है। 
हमेशा हमेशा के लिए ढक दिया गया प्राचीन कुआं :-  इस मंदिर परिसर में एक प्राचीन कुआं था। इसके जल के स्नान से चर्म रोग ठीक होते हैं। स्कंध पुराण में स्थान के महत्व बताया है कि स्वर्ग द्वार में इस मंदिर में प्रवेश करने मात्र से जन्म जन्मान्तरो के पाप नष्ट हो जाते है। तथा लिखा है कि इस स्थान पर भगवान विष्णु की परम शक्ति व गूढ़ स्थान है। मनुष्य भगवान विष्णु का व्रत धारण कर विष्णु लोक आकांक्षा रख कर जिस प्रकार का धर्म फल पाता है वैसा अन्य किसी स्थान पर नहीं प्राप्त होती है। इस मंदिर में स्थापित कुएं के जल से स्नान कर वस्त्र व आनाज दान करने से बड़ा फल मिलता है।
औरंगजेब का मंदिर तोड़ने का आदेश :-
मुगल काल के 1669 ईस्वी में औरंगजेब ने फरमान जारी कर मुल्तान, काशी अयोध्या, मथुरा के हिंदू मंदिरों को तोड़कर मस्जिद बनाई जाने का आदेश दिया था। यह फारसी भाषा में है। अयोध्या के इस महत्वपूर्ण स्थान को औरंगजेब के आदेश पर ध्वस्त कर दिया गया और वहां एक  मस्जिद का निर्माण किया गया। अयोध्या के इतिहास पर प्रामाणिक शोध करने वाले लेखक और अयोध्या के पूर्व आईपीएस अधिकारी आचार्य किशोर कुणाल ने अपनी उसी पुस्तक "अयोध्या रिविजिटेड"  के अध्याय आठ पृष्ठ संख्या 239 में इसकी पुष्टि की है। अवध विश्वविद्यालय के इतिहासकार डॉक्टर देशराज उपाध्याय के अनुसार, अंग्रेज इतिहासकार कनिंघम और ए फ्यूरर, हालैंड के इतिहासकार हंस बेकर ने अपनी पुस्तकों में इसका जिक्र किया है। हंस बेकर सात साल तक आयोध्या आते जाते रहे और इस दौरान उन्होंने अयोध्या में रिसर्च कर इस स्थान का जिक्र अपनी किताब में किया है। इस मस्जिद के खंडहर में छिपे अवशेष इतिहास के पन्नों के साथ दबे पड़े हैं l ये स्थल सैकड़ों साल से वीरान होकर अब खंडहर बन चुके हैंl लंबे समय से पर्यटकों और श्रद्धालुओं के लिए भी इस स्थल के अवशेष कौतूहल का विषय बने हुए हैं ।
मंदिर के प्राचीन कूप पर बना मीनारनुमा मस्जिद :-
चंद्रहरि मंदिर के ठीक पीछे एक अत्यंत प्राचीन कूप हैl  इसके जल के स्नान से चर्म रोग ठीक होते रहे हैंl मुगल काल में इस मंदिर की प्रतिष्ठा और महिमा के कारण लगने वाले मेले और जुटने वाले श्रद्धालुओं की संख्या को देखते हुए इसे बंद करवा दिया गया l चंद्रहरि मंदिर के ठीक पीछे एक अत्यंत प्राचीन कूप है, जिसके ऊपर लोहे का मोटा चद्दर रखकर उसे बंद किया गया है। इसी के तहत अयोध्या की चंद्रहरि कूप पर मीनार बना दी गई। इस मीनार के नीचे आज भी सीढ़ी मौजूद हैं। इसके ऊपर मस्जिद बना दी गई जो आज खंडहर होकर समाप्त होने के कगार पर हैl इस स्थान पर मस्जिद के अवशेष बचे हैं, जिसके नीचे प्राचीन चंद्रहरि कूप होने का दावा किया जा रहा है। कूप को इसे लोहे की चद्दर से ढंक दिया गया। जिसका सरिया हिलाने पर कूप पर लगी लोहे के चद्दर से आवाज आती थी। अब यह खंडहर बन गया है।इसे  आसपास के लोगों को कुछ साल पहले तक देखा और बजाया l वर्तमान में मलबा गिरने से वह स्थान पट गया है ।



डॉक्टर्स डे के अवसर पर सम्मानित हुए फ्रंट लाइनर्स

बस्ती। इन्डियन मेडिकल एसोसिएशन द्वारा हर साल की भांति 1 जुलाई 2022 को डॉक्टर्स डे यानी राष्ट्रीय चिकित्सक दिवस मनाया गया । इस दिन सभी लोग, जिनका जीवन किसी न किसी डॉक्टर से जुड़ा हो, वह चिकित्सक को धन्यवाद करते हैं। एक शिशु के तौर पर उन्हें इस दुनिया में लाने के लिए और उन्हें सेहतमंद रखने के लिए डॉक्टर के प्रयासों के लिए उनका आभार जताया जाता है। साल 2022 डाक्टर्स डे की थीम ' फैमली डॉक्टर्स ऑन दि फ्रंट लाइन' है।
भारत में पहली बार राष्ट्रीय चिकित्सक दिवस मनाने की शुरुआत साल 1991 से हुई थी। इस साल केंद्र सरकार ने पहली बार डॉक्टर डे मनाया था। इस दिन को मनाने की शुरुआत एक डॉक्टर की याद में हुई थी। उनका नाम डॉ बिधान चंद्र राॅय था।
एक जुलाई को ही डॉक्टर दिवस मनाने की एक खास वजह भी है। 
महान चिकित्सक डॉ बिधान चंद्र रॉय का जन्मदिन 1 जुलाई 1882 को हुआ था। इतना ही नहीं एक जुलाई 1962 को ही डॉ बिधान का निधन भी हुआ था। इसी वजह से उनके जन्मदिन और पुण्यतिथि के दिन पर ही उनकी याद में हर चिकित्सक को सम्मान देने के लिए एक जुलाई को राष्ट्रीय चिकित्सक दिवस मनाने की घोषणा की गई। 
केरोना वेलेंटियर्स को विशेष सम्मान:-
इलाज के दौरान कोरोना पॉजिटिव होने के बाद भी स्वास्थ्य विभाग व अस्पतालों से जुड़े चिकित्सकों में मरीजों की सेवा का हौसला बरकरार रहा। निगेटिव होने के साथ ही काम पर लौटे और सेवा में जुट गए। इसी सेवाभाव की बदौलत काफी कोविड मरीजों की जान कोविड की दूसरी व तीसरी लहर में बचाई जा सकी है।
मेडिकल कॉलेज, जिला अस्पताल, जिला महिला अस्पताल, स्वास्थ्य विभाग में तैनात 40 से ज्यादा चिकित्सक कोविड की चपेट में आए। वार्ड में तैनात, आईडीएसपी सेल, आरआरटी के इमरजेंसी में मरीजों के इलाज के दौरान चिकित्सक संक्रमित हुए। दूसरी लहर में कोविड वार्डो में तैनात चिकित्सक परिवार से हफ्तों दूर रहे, केवल फोन पर ही परिवार से हाल-चाल लेते रहे। चिकित्सकों की इस महान सेवा को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।
मई में पॉजिटिव हो गए थे। हम सभी इस समय एक मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं। यह शायद हमारे जीवन का सबसे कठिन समय है। डॉक्टरों के लिए यह सुनिश्चित करना और भी मुश्किल हो गया है कि जो लोग संक्रमित हैं उन्हें उचित चिकित्सा सुविधाएं मिलती रहें। डॉक्टर्स और हेल्थकेयर स्टॉफ जिस तरह से समाज के प्रति अपना योगदान देते रहे हैं और कड़ी मेहनत करते हैं इसके लिए उनका सम्मान हर दिन होना चाहिए न कि सिर्फ किसी विशेष दिन ही उनके द्वारा किए गए कार्यों को सम्मान देना चाहिए। 
जून के मध्य में पॉजिटिव हो गया था। भारत में डॉक्टरों को भगवान का दर्जा दिया जाता है। डॉक्टर ही लोगों को छोटी-बड़ी या गंभीर और खतरनाक बीमारियों से बचाते हैं, यही वजह है कि हर साल डॉक्टर्स को सम्मान देने के लिए पहली जुलाई को राष्ट्रीय डॉक्टर दिवस मनाया जाता है। कोविड महामारी बीती एक सदी की सबसे अभूतपूर्व घटना रही है। इसका सबसे बुरा असर स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े लोगों पर पड़ा, खास तौर पर डॉक्टरों और नर्सों पर। इसकी वजह यह थी कि उनकी लड़ाई एक अनदेखे दुश्मन से ऐसे मैदान में थी, जिसके बारे में उन्हें कुछ भी नहीं पता था। ज़्यादातर चीज़ों के बारे किसी को कोई जानकारी नहीं थी।
इन्डियन मेडिकल एसोसिएशन द्वारा आयोजित आज के कार्यक्रम के मुख्य अतिथि बस्ती के जिलाधिकारी श्रीमती प्रियंका निरंजन रहीं।विशेष अतिथि बस्ती के पुलिस अधीक्षक श्री आशीष श्रीवास्तव रहे।कार्यक्रम प्रारंभ में दीप प्रज्वलित करके डा बी सी राय के चित्र पर अतिथियों द्वारा माल्यार्पण किया गया। आईएमए के सदस्यों ने पुलिस अधीक्षक की पत्नी डा आकांक्षा श्रीवास्तव को बैज लगाकर बुके और स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया।पैरा मेडिकल कॉलेज गोटवा की छात्राओं ने अतिथियों के स्वागत में गीत गया।कार्यक्रम का संचालन डा रंगजी द्विवेदी ने किया।
आईएमए के अध्यक्ष डा अनिल श्रीवास्तव ने डॉक्टर्स डे की महत्ता पर प्रकाश डाला।डा वी के वर्मा ने डा बी सी राय के जीवन पर चर्चा किया। डा रंगजी द्विवेदी ने इस साल के थीम
' फैमली डॉक्टर्स ऑन दि फ्रंट लाइन' पर विस्तार से चर्चा किया।
बस्ती जिले के डीएम और एसपी द्वारा अधिवक्ता , स्वमसेवी संस्थाएं,संस्था पत्रकार छायाकार शिक्षाविद समाजसेवी चिकित्सको को सम्मानित किया गया। पत्रकार में श्री संतोष श्रीवास्तव, अरुणेश श्रीवास्तव,अशोक श्रीवास्तव,विनोद उपाध्याय, वशिष्ठ पाण्डेय और रमेश गिरि प्रमुख थे। ब्लड डोनेशन हेतु रोटरी क्लब,मिड टाउन और संत निरंकारी मिशन को सम्मानित किया गया। समाज सेवा के लिए डा वी के वर्मा,कार्तिक सेवा समिति तथा अन्नपूर्णा रसोई के राघवेंद्र मिश्र को सम्मानित किया गया।
शिक्षा विभाग में जीजीआईसी प्राचार्य श्री मती नीलम सिंह, जीआईसी के प्राचार्य श्री शिव बहादुर सिंह,जीवीएम के श्री संतोष सिंह,एनसीसी के तफ्फाजल हुसैन,सेंट्रल एकेडमी के जे पी तिवारी,सीएमएस के अनूप खरे सम्मान पाने वालों में थे। अधिवक्ताओं में भारत भूषण, वीरेंद्र नाथ पांडे रहे।कोतवाली थाना प्रभारी संजय कुमार,पुरानी बस्ती थाना के आलोक श्रीवास्तव, दक्षिण दरवाजा चौकी के जितेंद्र सिंह, गांधी नगर चौकी के मनीष जायसवाल सम्मानित किए गए। चिकित्सकों में 
डा पी एल मिश्रा, डा ऊषा सिंह,डा आफताब रजा, डा डी के गुप्ता और डा के बी सिंह को सम्मानित किया गया। अंत में आईएमए के संरक्षक डा के के तिवारी ने सभी आगंतुकों के प्रति आभार व्यक्त किया।