Friday, January 26, 2018

वाक् देवी मा सरस्वती एक विश्वस्तरीय शास्वत देवी - डा. राधेश्याम द्विवेदी

‘सरस्वती’ का शाब्दिक अर्थ आत्म ज्ञान का सार होता है। जो एक देवी एक नदी दोनों के रूपों में पूजी और जानी जाती है। यह ज्ञान, कला, संगीत, राग, वाकपटुता तथा आत्मशुद्धि की देवी होती हंै। लक्ष्मी पार्वती के साथ इनका नाम त्रिदेवियों में लिया जाता है। ऋग्वेद में एक देवी के रूप में इनका उल्लेख मिलता है। वैदिक परम्पराओं से यह एक महत्वपूर्ण देवी जानी जाती हैं। इनके सम्मान में माघ माह के शुक्ल पक्ष के पंचमी तिथि को इनका जन्म दिन मनाया जाता है। इस दिन से बच्चों के शिक्षा की प्रारम्भ कराई जाती है। हिन्दू के अलावा वौद्ध एवं और जैन धर्मो में भी सरस्वती देवी की मूर्तियां मिलती हैं। इन धर्मो में पूरे विधि विधान तथा अनुष्ठान के साथ इनका पूजन होता है। भारत के अलावा दक्षिण पूर्व एशिया ,नेपाल ,जापान के द्वीपों ,बाली (इण्डोनेशिया) , मयमार के मन्दिरों में भी इनकी पूजा आराधना तथा लीलायें की जाती हैं।
ऋग्वेद के 2.41.16 मे लिखा गया है – ‘अम्बितमें नदीतमे देवितमे सरस्वति।‘
ऋग्वेद के 10.17 मे आगे इसे चिकित्सा तथा सफाई की शक्तियों के देवता के रूप में लिखा गया है-
“अपो अस्मान मातरः शुन्धयन्तु घर्तेन नो घर्तप्वः पुनन्तु।
विश्वं हि रिप्रं परवहन्ति देविरूदिदाभ्यः शुचिरापूत एमि।।“
सरस्वती को ब्रहमाणी (विज्ञान की देवी), ब्राहमी (व्रह्म देव से पैदा होने वाली), भैरवी (इतिहास की देवी) वाणी या वाची (गीत, मधुरभाषण, वाक्पटु बोलने वाली), वर्णेश्वरी (पत्र की देवी) कविजिह्वाग्रावासिनी( कवियों के जीभ के अग्र भाग पर निवास करने वाली ) आदि नाम से भी जानी जाती है।
प्रतीकांकन:-लगभग 1000 . पू. से 1500 . तक के हर प्रमुख प्राचीन तथा मध्यकालीन हिन्दू परम्पराओं तथा वैदिक साहित्य में एक प्रमुख देवी के रूप में सरस्वती देवी का सदैव उल्लेख तथा पूजन किया जाना मिलता है। महाभारत के शांतिपर्व में इन्हें बेदों की जननी कहा गया है। जब ब्रह्माण्ड बनाया गया तब तब आकाशीय स्वर संगीत या नाद के रूप में इन्हें दिखाया गया। तैतरीय ब्राहमण में वह एक वाक्पटु भाषण और मधुर संगीत की मां कहा गया है। वह ब्रह्मा की सक्रिय ऊर्जा और शक्ति होती हैं। इसी प्रकार 8वीं सदी की पुस्तक ’’शारदा तिलकमें उल्लेख है कि वह भाषण की देवी के रूपमें वाग्मिता प्रदान करने वाली , मस्तक पर धारण की जाने वाली , श्वेत कमल पर विराजने वाली, हाथ में वीणा तथा वेद धारण करने वाली होती है। इस धारणा से हटकर बौद्ध साहित्य साधनमाला में उन्हें मंजुश्री की पत्नी कहा गया है। सामान्यतः वह श्वेत वस्त्र धारण करती है। श्वेतकमल पर आसन ग्रहण करती है। वह प्रकाश, ज्ञान, अनुभव तथा सच्चाई का प्रतीक हंै। कभी-कभी इन्हें चारभुजी तो कभी- कभी दोभुजी चित्रित किया गया है। वह दर्पण, मानस, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार का प्रतीकों का प्रतिनिधितव भी करती हैं। चार भुजाओं में पुस्तक, माला, पानी का पात्र, वीणा धारण कर करती हैं पुस्तक से वेदों का बोध होता है। वह सार्वभोैमिक , दिव्य, अनन्त और सच्चा ज्ञान अध्यात्म की प्रतिनिधित्व भी करती हैं। वह विज्ञान और अनुराग तथा प्रेम संगीत की लय होती हैं। उनका वाहन हंस अध्यात्मिक पूर्णता , अतिक्रमण ओर मोक्ष का प्रतीक है। कभी-कभी मोर पर विराजते दिखाने पर वह रंगीन वैभव , नृत्य के उत्सव तथा सांप का भक्षक के प्रतीक के रूपमें जानी जाती हैं। वह नदी के रूप में इस धरा पर अपने भौतिक अस्तित्व का वोध भी कराती रही है।
क्षेत्रीय अभिव्यक्तियां:-देवी महात्म्य में त्रिदेवियों में उन्हें महा सरस्वती के रूप में दिखया गया है। उन्हें आठ शस्त्र - बेद, त्रिशूल, फल, शंख, मूसल, थाल, धनुष तीर धारण करते भी चित्रित किया गया हंै। नौ देवियों में भी इनको स्थान दिया गया है। तिब्बत तथा भारत के कुछ हिस्सों में वह तंत्र महादेवी तारा के रूप में रचनात्मक ऊर्जा का संचार करती हैं। इन्हे नील सरस्वती भी कहा गया है।
प्रमुख मन्दिर:- संसार में अनेक सरस्वती मंदिर हैं। इनमंे कुछ प्रमुख - बसर नदी के तट पर गनाना  गोदावरी तट पर वारांगल तथा मेडक , तेलंगाना में क्षेत्रम, कर्नाटक में श्रृंगेरी शारदाम्बा, केरल में एर्नाकुलम , दक्षिण मूकम्बिका  तथा तमिलनाडु में कूटनूर आदि हैं। केरल तथा तमिलनाडु में नवरात्रि के समय सरस्वती मां के विशेष पूजन होता है।
विदेशों में सरस्वती की पूजा:- जापान में चीन के माध्यम से 8वी सदी में सरस्वती की पूजा का प्रचलन शुरू हुआ था। बीवा एक परम्परागत जापानी वीणा यंत्र है जो कामाकुरा के रूप में जापान भर में प्रचलित है। कम्बोडिया में सातवीं से ग्यारहवीं सदी में इनका मंदिर अभिलेख मिलता है। यहां के खमेर साहित्य में वागेश्वरी सरस्वती के बारे में काफी कुछ मिलता है। थाईलैण्ड में श्रुतवदी भाषण और सीखने के लिए इन्हे ब्रह्मा की पत्नी के रूपमें जाना जाता हैं बाद में यहां बौद्ध अवधारणों में इनका विलय हो गया। इण्डोनेशिया के बाली में यह हिन्दू धर्म की एक प्रमुख देवी के रूप में जानी जाती हैं। इनकी पूजा बहुतायत से होती है। इस दिन लोग फूल तथा पवित्र ग्रंथों को प्रसाद के रूपमें वितरित करते हंै। यहां यह स्वच्छता का दिन भी माना जाता है। समुद्र झरने तथा नदी की पानी से कुल्ला करके जल को सरस्वती देवी मानकर उनकी पूजा करते हंै। यहां के थियेटरों में नृत्य आदि के रंगारंग कार्यक्रम आयोजित होते है।



उत्तर प्रदेश दिवस 24 जनवरी के पावन पर्व पर- डा. राधेश्याम द्विवेदी


उत्तर-प्रदेश की खासियत :- उत्तर प्रदेश में ही भगवान राम कृष्ण परशुराम व गौतम बुद्ध का जन्म हुआ। माता सीता गौतम बुद्ध तथा संत कबीर ने यहीं समाधि ली थी। यहीं पर सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र जी का जन्म हुआ। यहाँ के राजा दशरथ ने चक्रवर्ती होकर पूरे भूमंडल पर पताका फहराया था।  रामायण के रचयिता वाल्मीकि सूरदास तुलसीदास, व्यास, रहीम, कबीर व जायसी आदि महान लोगों का जन्म यहीं पर हुआ था। यहाँ के 20 साल के युवा चंद्रशेखर आजाद ने अंग्रेजो के दांत खट्टे किये थे। इस प्रदेश ने देश को अनेक प्रधान मंत्री दिया है। पंडित जवाहरलाल नेहरु, लालवहादुर शास़्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी,राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, अटल विहारी वाजपेयी, चन्द्र शेखर आदि इसी प्रदेश की विभूतियां थी। यहाँ महान क्रांतिकारी मंगल पांडे का जन्म हुआ. यहाँ परम वीर चक्र विजेता अब्दुल हमीद, कै.मनोज पांडे, यदुनाथ सिंह, योगेन्द्र यादव आदि वीरों का जन्म हुआ। सदी के महानायक अमिताभ बच्चन उत्तर प्रदेश के ही हैं। यहाँ भगवती शरण बर्मा , महादेवी वर्मा, मुंशी प्रेमचंद आदि जैसे कई महान लेखको का जन्म हुआ। यहाँ बिस्स्मिल्लाह खान का जन्म हुआ। यहाँ आज भी दिलो में प्रेम बसता है। यहाँ आज भी बच्चे अपने माँ - बाप के पैर दबाये बिना नहीं सोते। यहाँ से सबसे ज्यादा बच्चे देश का सबसे कठिन परीक्षाएँ आईएएस  पास करते हैं।  यहाँ आज भी खुद भूखे रह कर अतिथि को पहले खिलाया जाता है। यहाँ के बच्चे कोई सुविधा न होते हुए भी देश में सबसे ज्यादा सरकारी नौकरी पाते है। पूरे देश कोें उत्तर प्रदेश पर गर्व है। आज भारतवासी महाराष्ट और गुजरात के लोग विशेष रुप से इस प्रदेश के लोगों को भैया कहकर एक तरह से अपमानित करतें हैं पर उत्तर प्रदेश वासी इसे अपना बड़कपन समझकर उन्हें माफ करते आ रहे हैं।
उत्तर प्रदेश का इतिहास :- उत्तर प्रदेश का इतिहास बहुत प्राचीन और रोचक है। उत्तर वैदिक काल में इसे ब्रह्मर्षि देश या मध्य देश के नाम से जाना जाता था। वैदिक काल के कई महान ऋषि-मुनियों, जैसे - भारद्वाज, गौतम, याज्ञवल्क्य, वशिष्ठ, विश्वामित्र और वाल्मीकि आदि की यह तपोभूमि रही है। आर्यों की अनेक पवित्र पुस्तकें भी यहीं पर लिखी गई। भारत के दो महान महाकाव्यों - रामायण और महाभारत की कथा भी इसी भू क्षेत्र पर आधारित है। उत्तर प्रदेश का इतिहास लगभग 4000 वर्ष पुराना है, जब आर्य यहाँ आये और वैदिक सभ्यता का आरम्भ हुआ, तभी से यहाँ का इतिहास मिलता है। आर्य सिन्धु और सतलुज के मैदानी भागों से यमुना और गंगा के मैदानी भाग की ओर बढ़े। उन्होंने यमुना और गंगा के मैदानी भाग और घाघरा क्षेत्र को अपना घर बनाया। उन्हीं आर्यों के नाम पर भारत देश का नाम ‘आर्यावर्त’ अथवा ‘भारतवर्ष’ पड़ा है। भरत आर्यों के एक चक्रवर्ती राजा थे, जिनके नाम और ख्याति से यह देश भारतवर्ष के नाम से जाना गया । गंगा के मैदान के बीचोंबीच की अपनी स्थिति के कारण उत्तर प्रदेश समूचे उत्तरी भारत के इतिहास का केन्द्र बिन्दु रहा है। उत्तर वैदिक काल में इसे ‘ब्रहर्षि देश’ या ‘मध्य देश’ के नाम से जाना जाता था। उत्तर प्रदेश का इतिहास बहुत प्राचीन है। उत्तर प्रदेश के इतिहास को पाँच कालों में बाँटा जा सकता है-
1.प्रागैतिहासिक एवं पौराणिक काल (लगभग 600 ई.पू. तक),
2.बौद्ध-हिन्दू (ब्राह्मण) काल (लगभग 600 ई.पू. से लगभग 1200 ई.),
3.मुस्लिम काल (लगभग 1200 से 1775 ई.),
4.ब्रिटिश काल (लगभग 1775 से 1947 ई.),
 5.स्वतंत्रता पश्चात का काल (1947 से वर्तमान तक)।
1.प्रागैतिहासिक एवं पौराणिक काल:- पुरातत्त्व ने उत्तर प्रदेश की आरम्भिक सभ्यता पर नई रौशनी डाली है। दक्षिणी ज़िले प्रतापगढ़ में पाई गई मानव खोपड़ियों के अवशेष लगभग 10,000 ई. पू. के बताए गए हैं। वैदिक साहित्य और दो महाकाव्यों, रामायण व महाभारत से इस क्षेत्र के सातवीं शताब्दी ई. पू. के पहले की जानकारी मिलती है। जिसमें गंगा के मैदानों का वर्णन उत्तर प्रदेश के अन्तर्गत किया गया है। महाभारत की पृष्ठभूमि राज्य के पश्चिमी हिस्से हस्तिनापुर के आसपास है, जबकि रामायण की पृष्ठभूमि पूर्वी उत्तर प्रदेश राज्य में भगवान राम का जन्मस्थान अयोध्या है। राज्य में दे अन्य पौराणिक स्रोत हैं-वृन्दावन व मथुरा के आसपास के क्षेत्र जहाँ कृष्ण का जन्म हुआ था। रामायण में हिन्दुओं के भगवान राम का प्राचीन राज्य कौशल इसी क्षेत्र में था, अयोध्या कौशल राज्य की राजधानी थी। हिन्दू धर्म के अनुसार भगवान विष्णु के आठवें अवतार भगवान कृष्ण का जन्म उत्तर प्रदेश के मथुरा शहर में हुआ था। विश्व के प्राचीनतम नगरों में से एक माना जाने वाला वाराणसी शहर भी इसी प्रदेश में है। वाराणसी के समीप सारनाथ का स्तूपभगवान बुद्ध के लिए प्रसिद्ध है। समय के साथ साथ यह विशाल क्षेत्र छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गया और गुप्त, मौर्यऔर कुषाण साम्राज्यों का भाग बन गया। 7वीं शताब्दी में कन्नौज गुप्त साम्राज्य का प्रमुख केन्द्र बन गया था।
2. बौद्ध-हिन्दू (ब्राह्मण) काल : दो नए धर्मों -जैन औरबौद्ध का विकास :-  ईसा पूर्व छठी शताब्दी में उत्तर प्रदेश में दो नए धर्मों – जैन औरबौद्ध का विकास हुआ। बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश सारनाथ में दिया और बौद्ध धर्म की शुरुआत की। उत्तर प्रदेश के ही कुशीनगर में उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। उत्तर प्रदेश के कई नगर जैसे-अयोध्या, प्रयाग, वाराणसी और मथुरा विद्या अध्ययन के लिए प्रसिद्ध केंद्र थे। मध्य काल में उत्तर प्रदेश मुस्लिम शासकों के अधीन हो गया था, जिससे हिन्दू और इस्लाम धर्म के पास आने से एक नई मिली-जुली संस्कृति का विकास हुआ। तुलसीदास, सूरदास,रामानंद और उनके मुस्लिम शिष्य कबीर के अतिरिक्त अन्य कई संत पुरुषों ने हिन्दी और अन्य भाषाओं के विकास में अपना बहुमूल्य योगदान दिया। सातवीं शताब्दी ई. पू. के अन्त से भारत और उत्तर प्रदेश का व्यवस्थित इतिहास आरम्भ होता है, जब उत्तरी भारत में 16 महाजनपद श्रेष्ठता की दौड़ में शामिल थे, इनमें से सात वर्तमान उत्तर प्रदेश की सीमा के अंतर्गत थे। बुद्ध ने अपना पहला उपदेश वाराणसी (बनारस) के निकट सारनाथ में दिया और एक ऐसे धर्म की नींव रखी, जो न केवल भारत में, बल्कि चीन वजापान जैसे सुदूर देशों तक भी फैला। कहा जाता है कि, बुद्ध को कुशीनगर में परिनिर्वाण (शरीर से मुक्त होने पर आत्मा की मुक्ति) प्राप्त हुआ था, जो पूर्वी ज़िले देवरिया में स्थित है। पाँचवीं शताब्दी ई. पू. से छठी शताब्दी ई. तक उत्तर प्रदेश अपनी वर्तमान सीमा से बाहर केन्द्रित शक्तियों के नियंत्रण में रहा, पहले मगध, जो वर्तमान बिहार राज्य में स्थित था, और बाद मेंउज्जैन, जो वर्तमान मध्य प्रदेश राज्य में स्थित है। इस राज्य पर शासन कर चुके इस काल के महान शासकों में चन्द्रगुप्त प्रथम (शासनकाल लगभग 330-380 ई.) व अशोक (शासनकाल लगभग 268 या 265-238), जो मौर्य सम्राट थे औरसमुद्रगुप्त (लगभग 330-380 ई.) और चन्द्रगुप्त द्वितीय हैं (लगभग 380-415 ई., जिन्हें कुछ विद्वान विक्रमादित्य मानते हैं)। एक अन्य प्रसिद्ध शासक हर्षवर्धन (शासनकाल 606-647) थे। जिन्होंने कान्यकुब्ज (आधुनिक कन्नौज के निकट) स्थित अपनी राजधानी से समूचे उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, पंजाब और राजस्थान के कुछ हिस्सों पर शासन किया। इस काल के दौरान बौद्ध और हिन्दू (ब्राह्मण) संस्कृति, दोनों का उत्कर्ष हुआ। अशोक के शासनकाल के दौरान बौद्ध कला के स्थापत्य व वास्तुशिल्प प्रतीक अपने चरम पर पहुँचे। गुप्त काल (लगभग 320-550) के दौरान हिन्दू कला का भी अधिकतम विकास हुआ। लगभग 647 ई. में हर्ष की मृत्यु के बाद हिन्दूवाद के पुनरुत्थान के साथ ही बौद्ध धर्म का धीरे-धीरे पतन हो गया। इस पुनरुत्थान के प्रमुख रचयिता दक्षिण भारत में जन्मे शंकर थे, जो वाराणसी पहुँचे, उन्होंने उत्तर प्रदेश के मैदानों की यात्रा की और हिमालय मेंबद्रीनाथ में प्रसिद्ध मन्दिर की स्थापना की। इसे हिन्दू मतावलम्बी चौथा एवं अन्तिम मठ (हिन्दू संस्कृति का केन्द्र) मानते हैं।
3. मुस्लिम काल:-इस क्षेत्र में हालांकि 1000-1030 ई. तक मुसलमानों का आगमन हो चुका था, लेकिन उत्तरी भारत में 12वीं शताब्दी के अन्तिम दशक के बाद ही मुस्लिम शासन स्थापित हुआ, जब मुहम्मद ग़ोरी ने गहड़वालों (जिनका उत्तर प्रदेश पर शासन था) और अन्य प्रतिस्पर्धी वंशों को हराया था। लगभग 600 वर्षों तक अधिकांश भारत की तरह उत्तर प्रदेश पर भी किसी न किसी मुस्लिम वंश का शासन रहा, जिनका केन्द्र दिल्ली या उसके आसपास था। 1526 ई. में बाबर ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी को हराया और सर्वाधिक सफल मुस्लिम वंश, मुग़ल वंश की नींव रखी। इस साम्राज्य ने 200 वर्षों से भी अधिक समय तक उपमहाद्वीप पर शासन किया। इस साम्राज्य का महानतम काल अकबर(शासनकाल 1556-1605 ई.) का काल था, जिन्होंने आगरा के पास नई शाही राजधानी फ़तेहपुर सीकरी का निर्माण किया। उनके पोते शाहजहाँ (शासनकाल 1628-1658 ई.) ने आगरा में ताजमहल (अपनी बेगम की याद में बनवाया गया मक़बरा, जो प्रसव के दौरान चल बसी थीं) बनवाया, जो विश्व के महानतम वास्तु शिल्पीय नमूनों में से एक है। शाहजहाँ ने आगरा व दिल्ली में भी वास्तुशिल्प की दृष्टि से कई महत्त्वपूर्ण इमारतें बनवाईं थीं। उत्तर प्रदेश में केन्द्रित मुग़ल साम्राज्य ने एक नई मिश्रित संस्कृति के विकास को प्रोत्साहित किया। अकबर इसके महानतम प्रतिपादक थे, जिन्होंने बिना किसी भेदभाव के अपने दरबार में वास्तुशिल्प, साहित्य, चित्रकला और संगीत विशेषज्ञों को नियुक्त किया था। हिन्दुत्व और इस्लाम के टकराव ने कई नए मतों का विकास किया, जो इन दोनों और भारत की विभिन्न जातियों के बीच आम सहमति क़ायम करना चाहते थे। भक्ति आन्दोलन के संस्थापक रामानन्द (लगभग 1400-1470 ई.), जिनका दावा था कि, मुक्ति लिंग या जाति पर आश्रित नहीं है और सभी धर्मों के बीच अनिवार्य एकता की शिक्षा देने वाले कबीर ने उत्तर प्रदेश में मौजूद धार्मिक सहिष्णुता के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई केन्द्रित की। 18वीं शताब्दी में मुग़लों के पतन के साथ ही इस मिश्रित संस्कृति का केन्द्र दिल्ली से लखनऊ चला गया, जो अवध (वर्तमान अयोध्या) के नवाब के अन्तर्गत था और जहाँ साम्प्रदायिक सदभाव के माहौल में कला, साहित्य, संगीत और काव्य का उत्कर्ष हुआ।
4. ब्रिटिश काल:-1857-1859 ई. के बीच ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध हुआ विद्रोह मुख्यत: पश्चिमोत्तर प्रान्त तक सीमित था। 10 मई, 1857 ई. को मेरठ में सैनिकों के बीच भड़का विद्रोह कुछ ही महीनों में 25 से भी अधिक शहरों में फैल गया। 1858 ई. में विद्रोह के दमन के बाद पश्चिमोत्तर और शेष ब्रिटिश भारत का प्रशासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी से ब्रिटिश ताज को हस्तान्तरित कर दिया गया। 1880 ई. के उत्तरार्द्ध में भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के साथ संयुक्त प्रान्त स्वतंत्रता आन्दोलन में अग्रणी रहा। प्रदेश ने भारत को मोतीलाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू और पुरुषोत्तमदास टंडन जैसे महत्त्वपूर्ण राष्ट्रवादी राजनीतिक नेता दिए। 1922 में भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने के लिए किया गया महात्मा गांधी का असहयोग आन्दोलन पूरे संयुक्त प्रान्त में फैल गया, लेकिन चौरी चौरा गाँव (प्रान्त के पूर्वी भाग में) में हुई हिंसा के कारण महात्मा गांधी ने अस्थायी तौरर पर आन्दोलन को रोक दिया। संयुक्त प्रान्त मुस्लिम लीग की राजनीति का भी केन्द्र रहा। ब्रिटिश काल के दौरान रेलवे, नहर और प्रान्त के भीतर ही संचार के साधनों का व्यापक विकास हुआ। अंग्रेज़ों ने यहाँ आधुनिक शिक्षा को भी बढ़ावा दिया और यहाँ पर लखनऊ विश्वविद्यालय (1921 में स्थापित) जैसे विश्वविद्यालय व कई महाविद्यालय स्थापित किए।लगभग 75 वर्ष की अवधि में वर्तमान उत्तर प्रदेश के क्षेत्र का ईस्ट इण्डिया कम्पनी (ब्रिटिश व्यापारिक कम्पनी) ने धीरे-धीरे अधिग्रहण किया। विभिन्न उत्तर भारतीय वंशों 1775, 1798 और 1801 में नवाबों, 1803 में सिंधिया और 1816 में गोरखों से छीने गए प्रदेशों को पहले बंगाल प्रेज़िडेन्सी के अन्तर्गत रखा गया, लेकिन 1833 में इन्हें अलग करके पश्चिमोत्तर प्रान्त (आरम्भ में आगरा प्रेज़िडेन्सी कहलाता था) गठित किया गया। 1856 ई. में कम्पनी ने अवध पर अधिकार कर लिया और आगरा एवं अवध संयुक्त प्रान्त (वर्तमान उत्तर प्रदेश की सीमा के समरूप) के नाम से इसे 1877 ई. में पश्चिमोत्तर प्रान्त में मिला लिया गया। 1902 ई. में इसका नाम बदलकर संयुक्त प्रान्त कर दिया गया।
5. स्वतंत्रता पश्चात का काल:-1947 में संयुक्त प्रान्त नव स्वतंत्र भारतीय गणराज्य की एक प्रशासनिक इकाई बना। दो साल बाद इसकी सीमा के अन्तर्गत स्थित, टिहरी गढ़वाल और रामपुर के स्वायत्त राज्यों को संयुक्त प्रान्त में शामिल कर लिया गया। 1950 में नए संविधान के लागू होने के साथ ही संयुक्त प्रान्त का नाम उत्तर प्रदेश रखा गया और यह भारतीय संघ का राज्य बना। स्वतंत्रता के बाद से भारत में इस राज्य की प्रमुख भूमिका रही है। इसने देश को जवाहर लाल नेहरू और उनकी पुत्री इंदिरा गांधी सहित कईप्रधानमंत्री, सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक आचार्य नरेन्द्र देव, जैसे प्रमुख राष्ट्रीय विपक्षी (अल्पसंख्यक) दलों के नेता और भारतीय जनसंघ, बाद में भारतीय जनता पार्टी व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता दिए हैं। राज्य की राजनीति, हालांकि विभाजनकारी रही है और कम ही मुख्यमंत्रियों ने पाँच वर्ष की अवधि पूरी की है।
24 जनवरी को उत्तर प्रदेश दिवस :-उत्तर प्रदेश सरकार हर साल 24 जनवरी को उत्तर प्रदेश दिवस मनाती है। इस मौके पर प्रदेश की सांस्कृतिक धरोहरों एवं परम्पराओं को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। राज्य सरकार के प्रवक्ता एवं स्वास्थ्य मंत्री श्री सिद्धार्थनाथ सिंह ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अध्यक्षता में हुई राज्य मंत्रिमण्डल की बैठक में लिये गये इस निर्णय की जानकारी दिया है। उन्होंने बताया कि पूर्व में उत्तर प्रदेश का नाम यूनाइटेड प्राविंस था। चैबीस जनवरी 1950 को संशोधन करते हुए उसका नाम उत्तर प्रदेश किया गया। प्रदेश सरकार ने यह निर्णय लिया है कि हर 24 जनवरी को उत्तर प्रदेश दिवस मनाया जाए। इसके लिये एक समिति बनायी जाएगी, जिसमें संस्कृति विभाग और पर्यटन विभाग भी शामिल होंगे। श्री सिंह ने बताया कि उत्तर प्रदेश दिवस को सिर्फ प्रदेश में ही नहीं, बल्कि प्रदेश के बाहर भी मनाया जाएगा। इसमें खासतौर से उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक धरोहरों को प्रमुखता से बढ़ावा दिया जाएगा। साथ ही नयी पीढ़ी को प्रदेश के नये विकास के परिवेश से जोड़ने का कार्यक्रम किया जाएगा।  इस दिवस के आयोजन की रूपरेखा तैयार करने और तैयारियों के लिये मंत्रियों तथा अधिकारियों की एक समिति गठित की जाएगी। अगले साल 24 जनवरी से इस आयोजन का सिलसिला शुरू होगा। एक अधिकारी ने बताया कि हर साल 24 जनवरी को लखनऊ में एक कार्यक्रम आयोजित किया जाएगा, जिसमें मुख्यमंत्री और राज्यपाल शिरकत करेंगे। उत्तर प्रदेश दिवस को सिर्फ प्रदेश में ही नहीं, बल्कि प्रदेश के बाहर भी मनाया गया.  प्रदेश की जिन महान विभूतियों ने देश की आजादी में योगदान दिया है, उत्तर प्रदेश दिवस के अवसर पर उन्हें प्रचारित-प्रसारित किया गया । साथ ही, उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक धरोहर एवं विविधता को भी प्रमुखता से प्रदर्शित किया गया । नई पीढ़ी को प्रदेश के विकास एवं परिवेश से जोड़ने के लिए विविध कार्यक्रम आयोजित किया गया । राज्य के बाहर अन्य प्रदेशो में वहां रहने वाले प्रवासी प्रदेशवासियो के बीच भी उत्तर प्रदेश दिवस’ सम्बन्धी कायर्क्रमों का आयोजन किया गया, जिससे उनकी प्रतिबंदिता उत्तर प्रदेश के प्रति बढ़ सके। उत्तर प्रदेश दिवस के कायर्क्रमों को मुख्यत सूचना, संस्कृति तथा पयर्टन विभाग द्वारा आयोजित किया गया, जिसका समन्वय सूचना विभाग द्वारा किया गया । इस आयोजन में ग्राम्य विकास, नगर विकास, आवास एव शहरी नियोजन तथा औद्योगिक विकास विभाग सहित अन्य विभागों की सहभागिता सुनिश्चित किया गया
राज्य का विभाजन:-उत्तर प्रदेश के गठन के बाद उत्तराखण्ड क्षेत्र (गढ़वाल और कुमाऊँ क्षेत्र द्वारा निर्मित) में समस्याएँ उठ खड़ी हुईं। इस क्षेत्र के लोगों को लगा कि, विशाल जनसंख्या और वृहद भौगोलिक विस्तार के कारण लखनऊ में बैठी सरकार के लिए उनके हितों की देखरेख करना सम्भव नहीं है। बेरोज़गारी, ग़रीबों और सामान्य व्यवस्था व पीने के पानी जैसी आधारभूत सुविधाओं की कमी और क्षेत्र के अपेक्षाकृत कम विकास ने लोगों को एक अलग राज्य की माँग करने पर विवश कर दिया। शुरू-शुरू में विरोध कमज़ोर था, लेकिन 1990 के दशक में इसने ज़ोर पकड़ा व आन्दोलन तब और भी उग्र हो गया, जब 2 अक्टूबर 1994 को मुज़फ़्फ़रनगर में इस आन्दोलन के एक प्रदर्शन में पुलिस द्वारा की गई गोलीबारी में 40 लोग मारे गए। अन्तत: नवम्बर, 2000 में उत्तर प्रदेश के पश्चिमोत्तर हिस्से से उत्तरांचल के नए राज्य का, जिसमें कुमाऊं और गढ़वाल के पहाड़ी क्षेत्र शामिल थे, गठन किया गया।
प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम:- सन 1857 में अंग्रेज़ी फ़ौज के भारतीय सिपाहियों ने बग़ावत कर दी थी। यह बग़ावत लगभग एक वर्ष तक चली और धीरे धीरे यह बग़ावत पूरे उत्तर भारत में फ़ैल गयी। इसी बग़ावत को भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम नाम दिया गया। यह बग़ावत मेरठ शहर से शुरू हुई। जिसका कारण अंग्रेज़ों द्वारा गाय और सुअर की चर्बी से बने कारतूस थे। इस बग़ावत की वज़ह लॉर्ड डलहौज़ी की राज्य हड़पने की नीति भी थी। यह संग्राम मुख्यतः दिल्ली, लखनऊ, कानपुर, झाँसीऔर बरेली में लड़ा गया। इस संग्राम में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, अवध की बेगम हज़रत महल, बख़्त खान, नाना साहेब, तात्या टोपे आदि अनेक देशभक्तों ने भाग लिया। उत्तर प्रदेश राज्य की बौद्धिक श्रेष्ठता ब्रिटिश शासन काल में भी बनी रही। सन् 1902 में ‘नार्थ वेस्ट प्रोविन्स’ का नाम बदल कर ‘यूनाइटिड प्रोविन्स ऑफ आगरा एण्ड अवध’ कर दिया गया। साधारण बोलचाल की भाषा में इसे ‘यू. पी.’ कहा गया। सन् 1920 में प्रदेश की राजधानी को इलाहाबाद के स्थान पर लखनऊ बना दिया गया। प्रदेश का उच्च न्यायालय इलाहाबाद में ही बना रहा और लखनऊ में उच्च न्यायालय की एक न्यायपीठ शाखा (हाईकोर्ट बैंच) स्थापित की गयी। बाद में 1935 में इसका संक्षिप्त नाम ‘संयुक्त प्रांत’ प्रचलित हो गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 24 जनवरी 1950 में ‘संयुक्त प्रांत’ का नाम बदल कर ‘उत्तर प्रदेश’ रखा गया। प्रदेश का नाम पूर्व में यूनाइटेड पविन्सेंस था, जिसे गवर्मेंट ऑफ इण्डिया एक्ट, 1935 के तहत 24 जनवरी, 1950 को परिवतिर्त कर उत्तर प्रदेश कर दिया गया था, जो गजट ऑफ इण्डिया एक्स्ट्राऑडिर्नरी में दिनांक 24 जनवरी, 1950 को प्रकाशित हुआ। गोविंद बल्लभ पंत इस प्रदेश के प्रथम मुख्य मन्त्री बने। अक्टूबर 1963 में सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश और भारत की ‘प्रथम महिला मुख्यमन्त्री’ बनीं। सन 2000 में भारतीय संसद ने उत्तर-प्रदेश के उत्तर पश्चिमी, पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश के मुख्यतः पहाड़ी भाग गढ़वाल और कुमाऊँ मण्डल को मिला कर उत्तर प्रदेश को विभाजित कर उत्तरांचल राज्य का निर्माण किया, जिसका नाम बाद में बदल कर उत्तराखंड कर दिया गया है। उत्तर प्रदेश की अधिकांश झीलें कुमाऊँ क्षेत्र में हैं।

त्‍योहार :- इलाहाबाद में प्रत्‍येक बारहवें वर्ष कुंभ मेला आयोजित होता है जो कि संभवत: दुनिया का सबसे बड़ा मेला है। इसके अलावा इलाहाबाद में प्रत्‍येक 6 साल में अर्द्ध कुंभ मेले का आयोजन भी होता है। इलाहाबाद में ही प्रत्‍येक वर्ष जनवरी में माघ मेला भी आयोजित होता है, जहां बड़ी संख्‍या में लोग संगम में डुबकी लगाते हैं। अन्‍य मेलों में मथुरा, वृंदावन व अयोध्‍या के झूला मेले शामिल हैं, जिनमें प्रतिमाओं को सोने एवं चांदी के झूलों में रखा जाता है। ये झूला मेले एक पखवाड़े तक चलते हैं। कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर गंगा में डुबकी लगाना अत्‍यंत पवित्र माना जाता है और इसके लिए गढ़मुक्‍तेश्‍वर, सोरन, राजघाट, काकोरा, बिठूर, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और अयोध्‍या में बड़ी संख्‍या में लोग एकत्रित होते हैं। आगरा जिले के बटेश्‍वर कस्‍बे में पशुओं का प्रसिद्ध मेला लगता है। बाराबंकी जिले का देवा मेला मुस्‍लिम संत वारिस अली शाह के कारण काफी प्रसिद्ध हो गया है। इसके अतिरिक्‍त यहां हिंदू तथा मुस्‍लिमों के सभी प्रमुख त्‍यौहारों को राज्‍य भर में मनाया जाता है।

वह गणतंत्र बेकार है- डा. राधेश्याम द्विवेदी


झूठी शान दिखावा आदि का अब नहीं कोई सारोकार है।
जिस सिस्टम में इज्जत ना गण की वह गणतंत्र बेकार है।।
आजादी जो मिली वह केवल संभ्रान्त जनों की देन नहीं।
कितने अनाम दिवाने देश के आहुति देकर फिरे नहीं।।
देश की सेवा करके वे उसका ना कोई मोल लिये।
उनके कुल व खानदान ने देश को दिया इनाम है।।
राजनीति के पद पर बैठे उस सबको अब भूल गये।
अपने छद्म सम्बंधों को दिखला के पद पर आ दमके।।
हमें उन अनाम शहीदों की कुरबानी में गुण शान है।
गणतंत्र दिवस पर उन सबको श्रद्धा देकर नतवान हैं।।