Wednesday, November 29, 2023

बस्ती जिले के केरोना पर एक विहंगम दृष्टि डा. राधे श्याम द्विवेदी


         कोविड-19 पर एक विहंगम दृष्टि:-
चीन से उत्पन्न हुआ नोवेल कोरोना वायरस रोग कोविड -19 तेजी से दरिया और पहाड़ के लहरों को पार करते हुए पूरी दुनिया में लोगों को बुरी तरह से प्रभावित किया था । पूरी दुनिया में इसके तीन - चार लहरों या आवेगों में भारी संख्या में लोगों के अमूल्य जीवन को नुकसान पहुंचाया है।
पहली लहर:- देश में कोरोना का पहला केस 30 जनवरी 2020 को केरल में सामने आया था।इसका पीक 17 सितंबर 2020 को आया था। उस दिन करीब 98 हजार केस सामने आए थे। 10 फरवरी 2021 से पहली लहर कमजोर हुई और मामले कम होने लगे। पहली लहर करीब 377 दिन तक चली थी। इस दौरान 1.08 करोड़ मामले सामने आए थे और 1.55 लाख मौतें हुई थीं। हर दिन औसतन 412 मौतें हुईं थीं।
दूसरी लहर: मार्च 2021 से ही संक्रमण के मामले तेजी से बढ़ने लगे थे। अप्रैल और मई में दूसरी लहर अपने चरम पर थी। 1 अप्रैल से 31 मई यानी 61 दिन तक कोरोना की दूसरी लहर ने जमकर तबाही मचाई थीं । इस दौरान 1.60 करोड़ नए मरीज मिले थे । इसमें लगभग 1.69 लाख लोगों की मौत हुई थी ।यानी हर दिन औसतन 2,769 मरीजों की मौत हुई थीं।
तीसरी लहर : ओमिक्रॉन की वजह से देश में 27 दिसंबर 2021 से तीसरी लहर शुरू हुई थीं ।इस दौरान 50.05 लाख नए मरीज मिल चुके थे। जबकि, 10 हजार 465 लोगों की मौत हुई है थीं । तीसरी लहर में मृत्यु दर 0.2% रही है। 
          उत्तर प्रदेश का बस्ती जिला अछूता नहीं :-
उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले की दूसरी लहर में स्थिति पहले की अपेक्षा बिल्कुल उल्टी रही। मार्च अप्रैल 2021 में तीन मरीजों के जिले में प्रवेश किया और बाद में यह बढ़ता गया। दूसरी लहर में पचास पार उम्र वालों पर संक्रमण का खतरा अधिक रहा है। एक अप्रैल से अब तक 995 से ज्यादा लोग संक्रमित हुए। इसमें सर्वाधिक पाजिटिव पाए गए लोग 50 -55 आयु वर्ग के रहे हैं। कोरोना से जो मौतें हुई हैं,उसमें अधिकतर युवा वर्ग के लोग शामिल रहे हैं। 20 से 50 साल की उम्र वाले लोग कोरोना से कुछ ज्यादा ही संक्रमित हुए थे।
           रोकथाम के व्यापक प्रयास भी हुए :-
 कोरोना का प्रभाव रोकने के लिए जिले में जांच का दायरा बढ़ाया गया था। शहर से लेकर गांव तक में जांच टीमें निरंतर भ्रमण कर रही थी। उन दिनों 1300 से अधिक एंटीजन व 1200 से अधिक आरटीपीसीआर जांच कराई गई थी। शहर में दो से तीन सौ एंटीजन व आरटीपीसीआर व गांव में एक हजार से दो हजार के बीच एंटीजन व आरटीपीसीआर जांच की जा गई थी। ग्रामीण क्षेत्र में एक से 18 अप्रैल तक 14 हजार 400 जबकि शहरी क्षेत्र में 3600 जांच की गई थी। 
      शहर की अपेक्षा गांव में मिले अधिक संक्रमित :-
शहर की अपेक्षा गांव में संक्रमित अधिक मिले हैं। एक अप्रैल से अब तक ग्रामीण क्षेत्र में 14 हजार 400 जांच हुई है, जिसमें 650 से अधिक संक्रमित मिले थे। वहीं शहर में 3600 जांच हुई थी जिसमें 345 लोग संक्रमित मिले थे । कुल मिलाकर शहर में संक्रमण कम है तो ग्रामीण क्षेत्र में अधिक रहा हैं। बस्ती जिले में 14 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों के अलावा 37 पीएचसी, 369 हेल्थ वेलनेस सेंटर संचालित हैं। पीएचसी व हेल्थ वेलनेस सेंटर ग्रामीण इलाकों में प्राथमिक चिकित्सा सेवा उपलब्ध कराती है जबकि सीएचसी पर जांच, इलाज से लेकर भर्ती करने तक की व्यवस्था रहती है। कोरोना की दूसरी लहर में स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के चलते तमाम लोगों ने जान गवां दी थी। इस झटके के बाद सरकार सक्रिय हुई और आक्सीजन की उपलब्धता स्थानीय स्तर पर ही बनाए रखने के लिए आक्सीजन उत्पादन इकाई स्थापित करने को मंजूरी दी गई थी। इस क्रम में जिले में छह आक्सीजन जनरेटर प्लांट स्थापित किए गए । इसमें से पांच प्लांट सक्रिय हो चुके हैं। अब कोरोना के संक्रमितों को उनके घर के निकट ही इलाज की सुविधा मुहैया कराई गई। गांव तक कोरोना इलाज की व्यवस्था सुनिश्चित कराने के इसके अलावा अस्पताल में सौ बेड सामान्य मरीजों के लिए भी तैयार हुए । बच्चों के लिए भी सौ बेड का पीआईसीयू स्थापित किया गया । सभी संसाधनों से सुसज्जित कोरोना वार्ड तैयार किया गया था। इन सबसे बस्ती मंडल और जिले में कोरोना काफ़ी कुछ नियंत्रण में आ गया है। जिले के मेडिकल कॉलेज में कोरोना के नए वैरिएंट ओमिक्रान को देखते हुए तैयारी शुरू हो गई है। लेबल-2 के इस अस्पताल में संसाधनों को सक्रिय कर दिया गया है। यहां 240 बेड कोरोना के मरीजों के लिए सुरक्षित कर दिया गया है। वहीं सौ बेड पीआईसीयू में भी तैयार किया गया है। कोरोना संक्रमण तेज होने के दौरान ही मेडिकल कॉलेज से संबद्ध ओपेक चिकित्सालय कैली को लेबल-टू का अस्पताल घोषित कर दिया गया था। अब ओमिक्रान के नए वैरिएंट को देखते हुए फिर से तैयारी तेज कर दी गई । लेबल टू के इस कोरोना अस्पताल में 240 बेड इसी के लिए ही सुरक्षित किए गए । 125 बेड पर वेंटिलेटर हैं तो सभी पर पाइप लाइन से ऑक्सीजन आपूर्ति की व्यवस्था भी करा दी गई है। इसका कनेक्शन ऑक्सीजन जेनरेटर प्लांट से कराया गया है।   
बस्ती जिले का कोरॉना बैरियर : 
           आर्थोपेडिक सर्जन डा. सौरभ द्विवेदी 
बस्ती जिले के मूल निवासी तथा केंद्रीय विद्यालय बस्ती और आगरा से अपनी शिक्षा शुरू करने वाले रिम्स सैफई से एमबीबीएस और एस एन मेडिकल कॉलेज आगरा से आर्थोपेडिक विषय में एमएस चिकित्सा में गोल्ड मेडिलिस्ट युवा आर्थोपेडिक सर्जन, अब अपने गृहनगर बस्ती के लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए सेवा दे रहे हैं। बड़े शहरों की सुवधाओं और चकाचौध को दर- किनारे लगाते हुए अपनी चलती- चलाती प्राइवेट प्रैक्टिस को छोड़कर 10अप्रैल 2021 को बस्ती के महर्षि वशिष्ठ स्वशाषी चिकित्सा महाविद्यालय में सीनियर रेजिडेंट के पद पर अपनी सेवा अपनी मातृ भूमि को यह समझ कर शुरू किया था की अस्थि और जोड़ से संबंधित रोग का निदान आम जनता को अपने शहर में उपलब्ध हो सके और लोगों को गोरखपुर वा लखनऊ का रुख ना करना पड़े। उस समय तक बस्ती के आस पास में अस्थि रोग से संबंधित अच्छी चिकित्सा की सुविधाओं का अभाव था । कोविड 19 के अपने आगरा के सेवा दौरान डा सौरभ द्विवेदी दो बार तथा बस्ती में सेवा के दौरान तीन बार संक्रमित भी हुए। उन्होंने दिन- रात एक कर सैकड़ों मरीजों को प्रत्यक्ष या टेली कंसलटेंट द्वारा उपचारित किया है। अपनी मां श्रीमती कमला द्विवेदी और मामी श्रीमती अंशु उपाध्याय को अपने घर के अलग अलग कमरों में क्वार्टीन करके कैरोना से बचाया था।
अध्ययन स्थिति 
जिले में कोरोना का अंतिम मामला 11 अगस्त 2023 को मिला था। केजीएमसी के आरटीपीसीआर जांच में कोरोना
वायरस की पुष्टि के बाद जिले में एलर्ट किया गया था। उस समय तक जिले में कोरोना से संबंधित केसों की संख्या 13533 रही। 11 अगस्त 2023 को एक केश बढ़ोतरी से यह संख्या 13534 हो गई। इसमें 341 की मृत्यु हो चुकी है। सवा तीन महीने बाद एक 29 नवम्बर तक बस्ती जिले के एक मरीज में कोरोना वायरस की पुष्टि हुई है। यह रुधौली क्षेत्र के मिश्रौलिया इमिलिया गांव के 32 वर्षीय युवक है।


Tuesday, November 28, 2023

ऋषिकेश के प्रमुख आकर्षण और पर्यटन केन्द्र आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी

गंगा मां केआमंत्रण और पुत्र डा सौरभ द्विवेदी और डा तनु के प्रयास से लगभग एक सप्ताह देवभूमि उत्तराखंड के योग नगरी ऋषिकेश को निकट से देखने चिन्तन और कुछ भाव समर्पण का सुअवसर प्राप्त हुआ। विगत कई वर्षों से ताज नगरी आगरा से हट कर वशिष्ठ नगरी में प्रवास के दौरान कुछ घरेलू और कुछ स्वास्थ्यगत कारणों से कुछ अलग थलग जीवन चर्या बन पड़ी थी। इस छोटे से बाह्य भ्रमण में कुछ आधी अधूरी जानकारी इस लिंक में इस आशय से साझा कर रहा हूं कि आने वाले समय में यह पाठक गण को अपने कार्यक्रम चयन में सहायक होगा।
सामान्य परिचय :-
ऋषिकेश उत्तरखण्ड के देहरादून ज़िले में देहरादून के निकट एक नगर है। यह गंगा नदी के दाहिने किनारे पर स्थित है और हिन्दुओं का एक तीर्थस्थल है, जहाँ प्राचीन सन्त उच्च ज्ञानान्वेषण में यहाँ ध्यान करते थे।नदी के किनारे कई मन्दिर और आश्रम बने हुए हैं। इसे "गढ़वाल हिमालय का प्रवेश द्वार" और "विश्व की योगनगरी" के रूप में जाना जाता है।
       यहां से टिहरी बाँध केवल 86 किमी दूर है और उत्तरकाशी, एक लोकप्रिय योग स्थल है, जो गंगोत्री के मार्ग में 170 किमी की पर्वतोर्ध्व पर स्थित है। हृषीकेश छोटा चार धाम तीर्थ स्थानों जैसे बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री और हरसिल, चोपता, औली जैसे हिमालयी पर्यटन स्थलों की यात्रा हेतु प्रारम्भिक बिन्दु है और शिविर वास और भव्य हिमालय के मनोरम दृश्यों हेतु डोडी ताल, दयारा बुग्याल, केदार कण्ठ, हर की दून घाटी जैसे प्रसिद्ध ग्रीष्मकालीन और शीतकालीन पदयात्रा गन्तव्य हैं।
                                 राम झूला
इतिहास:-
ऋषिकेश सतयुग से ही ऋषि-मुनियों की तपोस्थली रही है. यहां स्थित प्राचीन श्री भरत मंदिर में रैभ्य ऋषि और सोम ऋषि ने भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए तपस्या की थी. भगवान नारायण ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए थे।ऋषिकेश को “ स्वर्ग की जगह” के नाम से भी जाना जाता है।चंद्रभागा और गंगा के संगम पर हरिद्वार से 24 किलोमीटर की ऊंचाई पर स्थित एक आध्यात्मिक शहर है। हृषिकेश मूल शब्द "हृषि" और "ईश" मिलकर "हृषि+ईश, हृषिकेश" बनाते हैं; हृषिक" का अर्थ है "इंद्रियाँ" और "ईश" का अर्थ है "स्वामी" या "भगवान"। इसलिए इस शब्द का अर्थ है जिसने महारत हासिल कर ली है। रैभ्य ऋषि ने अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त की और भगवान विष्णु को प्राप्त किया था। इसलिए इस स्थान को हृषिकेश के नाम से जाना जाता है। यह माना जाता है कि “ऋषिकेश” के नाम से भगवान रैभ्य ऋषि द्वारा कठिन तपस्या से प्रकट हुए थे और अब से इस जगह का नाम व्युत्पन्न हुआ है।
                 -: ऋषिकेश के प्रमुख आकर्षण :-
लक्ष्मण झूला वा मंदिर :-
तपोवन, ऋषिकेश में लक्ष्मण मंदिर की जड़ें रामायण के समय से जुडी हुई हैं। ऐसा माना जाता है कि लक्ष्मण और राम को यहां ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। माना जाता है कि जूट पुल जिसे अब लक्ष्मण झूला कहा जाता है, का निर्माण राम और लक्ष्मण ने किया था। इस मंदिर तक स्थानीय परिवहन जैसे कैब या ऑटो द्वारा आसानी से पहुँचा जा सकता । 
गंगा नदी के एक किनारे को दूसरे किनारे से जोड़ता यह झूला नगर की विशिष्ट की पहचान है। इसे विकम संवत 1996 में बनवाया गया था। कहा जाता है कि गंगा नदी को पार करने के लिए लक्ष्मण ने इस स्थान पर जूट का झूला बनवाया था। झूले के बीच में पहुँचने पर वह हिलता हुआ प्रतीत होता है। 450 फीट लम्बे इस झूले के समीप ही लक्ष्मण और रघुनाथ मन्दिर हैं। झूले पर खड़े होकर आसपास के खूबसूरत नजारों का आनन्द लिया जा सकता है। लक्ष्मण झूला के समान राम झूला भी नजदीक ही स्थित है। यह झूला शिवानन्द और स्वर्ग आश्रम के बीच बना है। इसलिए इसे शिवानन्द झूला के नाम से भी जाना जाता है। ऋषिकेश मैं गंगाजी के किनारे की रेेत बड़ी ही नर्म और मुलायम है, इस पर बैठने से यह माँ की गोद जैसी स्नेहमयी और ममतापूर्ण लगती है, यहाँ बैठकर दर्शन करने मात्र से हृदय मैं असीम शान्ति और रामत्व का उदय होने लगता है।इस समय निर्माण कार्य के कारण यह बंद है।
त्रिवेणी घाट :-
गढ़वाल, उत्तरांचल में हिमालय पर्वतों के तल में बसे ऋषिकेश में त्रिवेणी घाट प्रमुख पर्यटन स्थलों में से है। यह प्रमुख स्नानागार घाट है जहाँ प्रात:काल में अनेक श्रद्धालु पवित्र गंगा नदी में डुबकी लगाते हैं।कहा जाता है कि यह हिन्दू धर्म की तीन प्रमुख नदियों गंगा,चंद्रभागा और अदृश्य सरस्वती के संगम पर बसा हुआ है। त्रिवेणी घाट से ही गंगा नदी दायीं ओर मुड़ जाती है।त्रिवेणी घाट के एक छोर पर शिवजी की जटा से निकलती गंगा की मनोहर प्रतिमा है तो दूसरी ओर अर्जुन को गीता ज्ञान देते हुए श्री कृष्ण की मनोहारी विशाल मूर्ति और एक विशाल गंगा माता का मन्दिर हैं।घाट पर चलते हुए जब दूसरी ओर की सीढ़ियाँ उतरते हैं तब यहाँ से गंगा के सुंदर रूप के दर्शन होते हैं।
        शाम को त्रिवेणी घाट पर भव्य आरती होती है और गंगा में दीप छोड़े जाते हैं, उस समय घाट पर काफ़ी भीड़ होती है।ऋषिकेश का त्रिवेणी घाट अपने आप में विशेष महत्त्व रखता है.यहां इस स्थान पर देश-विदेश से श्रद्धालु स्नान करने और दान, पुण्य, कर्मकांड करने आते हैं. इस स्थान की पौराणिक मान्यता है कि यहां स्नान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है. इस स्थान पर पितरों का पिंडदान करने से उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है. साथ ही श्राद्ध तर्पण करने से उन्हें स्वर्ग में स्थान प्राप्त होता है. ऐसा कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने इस पवित्र स्थान का दौरा किया था। इस तीर्थ घाट पर भक्तगण अपने पितरों की शांति के लिए पिंड श्राद्ध की पूजा का पाठ भी कराते हैं। पास में ही है गंगा माता का मंदिर भी स्थित है। बाल्मीकि भगवान का एक आधुनिक मंदिर भी यहां स्थित है।  
गंगेश्वर महादेव मन्दिर:-
 गंगेश्वर घाट और मंदिर,आस्था पथ , 72 सीढ़ी, माया कुंड वा एम्स के पास ऋषिकेश में स्थित है। एम्स के पास बैराज से थोड़ा आगे की ओर बढ़ेंगे तो श्री गंगेश्वर महादेव मंदिर पहुंचेंगे। मंदिर परिसर से अविरल गंगा के दर्शन और घने जंगलों वाले पहाड़ों के दर्शन का आनंद मिलता है। मंदिर परिसर से अविरल गंगा के दर्शन और घने जंगलों वाले पहाड़ों के दर्शन का आनंद मिलता है। 
स्वर्ग आश्रम :-
स्वामी विशुद्धानन्द द्वारा स्थापित यह आश्रम ऋषिकेश का सबसे प्राचीन आश्रम है। स्वामी जी को 'काली कमली वाले' नाम से भी जाना जाता था। इस स्थान पर बहुत से सुन्दर मन्दिर बने हुए हैं। यहाँ खाने पीने के अनेक रस्तरां हैं जहाँ केवल शाकाहारी भोजन ही परोसा जाता है। आश्रम की आसपास हस्तशिल्प के सामान की बहुत सी दुकानें हैं।
नीलकण्ठ महादेव मन्दिर :-
भगवान शिव को समर्पित, नीलकंठ महादेव मंदिर कोटद्वार पौडी रोड पर स्थित है । अपने स्थानऔर प्राथमिकता के कारण, यह मंदिर देवताओं के अन्य शिव चित्रों की तुलना में छोटा दिखता है । मंदिर के किसी को भी यात्रा के दौरान सकारात्मक ऊर्जा महसूस हो सकती है। इसके अलावा इस मंदिर की यात्रा के दौरान झरने और प्रकृति के अन्य चमत्कार भी देख सकते हैं।यह मंदिर स्वर्ग आश्रम से लगभग 7 किमी दूर है। ऐसा कहा जाता है कि यहीं पर भगवान शिव ने पौराणिक 'अमृत मंथन' के बाद समुद्र मंथन से निकले विष को पिया था। इस विष की वजह से उनका गला नीला पड़ गया था और यही वजह है कि इस मंदिर का नाम नीलकंठ महादेव रखा गया। तीर्थयात्री इस मंदिर में गंगा जल चढ़ाते हैं। लगभग 5,500 फीट की ऊँचाई पर स्वर्ग आश्रम की पहाड़ी की चोटी पर नीलकण्ठ महादेव मन्दिर स्थित है। मन्दिर परिसर में पानी का एक झरना है जहाँ भक्तगण मन्दिर के दर्शन करने से पहले स्नान करते हैं।
त्र्यंबकेश्वर तेरह मंजिल मंदिर :-
लक्ष्मण झूला के पास इस मंदिर का निर्माण भगवान शिव के निवास के रूप में किया गया था, और यह विशेष रूप से त्र्यंबकेश्वर तेरह मंदिर भगवान शिव के कई ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। इस त्रयंबकेश्वर मंदिर के अंदर की दीवारों और अलमारियों पर जटिल डिजाइन और वास्तुशिल्प प्रतिभा को देख सकते हैं। 400 वर्ष से भी अधिक पुराना माना जाने वाला यह मंदिर देवताओं में से एक है । यहां के प्रमुख देवता भगवान शिव हैं। यह मंदिर ऋषिकेश के सबसे प्रतिष्ठित मंदिरों में से एक है, जो लक्ष्मण झूला से दिखाई देता है। अपनी आकर्षक वास्तुकला के लिए लोकप्रिय इस मंदिर की 13वीं मंजिल से आप मनोरम दृश्य भी देख सकते हैं।
भारत मन्दिर:-
12 वीं शताब्दी में आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित, मंदिर में भगवान विष्णु को सालिग्राम के एक टुकड़े से उकेरा गया है। भगवान राम के छोटे भाई भरत को समर्पित यह मन्दिर त्रिवेणी घाट के निकट ओल्ड टाउन में स्थित है। मन्दिर का मूल रूप 1398 में तैमूर आक्रमण के दौरान क्षतिग्रस्त कर दिया गया था। मन्दिर की बहुत सी महत्वपूर्ण चीजों को उस हमले के बाद आज तक संरक्षित रखा गया है। मन्दिर के अन्दरूनी गर्भगृह में भगवान विष्णु की प्रतिमा एकल शालीग्राम पत्थर पर उकेरी गई है। आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा रखा गया श्री यन्त्र भी यहाँ देखा जा सकता है। मंदिर की वास्तुकला और आंतरिक सज्जा का विवरण केदार खंड के प्राचीन अभिलेखों में मिलता है। तैमूर द्वारा नष्ट किए गए मूल मंदिर के खंडहरों का फिर से पुनर्निर्माण किया गया था। उत्खनन से इस स्थल से कई पुरानी मूर्तियाँ, प्राचीन बर्तन और सिक्के प्राप्त हुए हैं।
 कुंजापुरी देवी मंदिर :-
 मुख्य स्टेशन से 25 किमी की दूरी पर स्थित इस मंदिर तक बस या कार से एक घंटे में पहुंच सकते हैं। कोई भी व्यक्ति केवल 2 घंटों के अंदर मंदिर का भ्रमण पूरा कर सकता है। नवरात्रि और दशहरे के समय, मंदिर हमेशा के लिए संजोने दृश्य पेश करता है क्योंकि पूरी जगह रोशनी से जगमगा उठता है और सभी लोग भव्य उत्सव के लिए एक साथ आते हैं। कुंजापुरी मंदिर की देवी सती, शिव की पहली पत्नी थी और देवी पार्वती के अवतार को समर्पित है। यह शक्ति पीठों में से एक है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शिव उनके शव के साथ पूरे ब्रह्मांड की यात्रा कर रहे थे, तो सती का एक अंग इस स्थान पर गिरा था।
 रघुनाथ मंदिर : -
यह प्रगति विहार,त्रिवेणी घाट पर स्थित, जहां हर शाम गंगा आरती होती है, ऋषिकेश में रघुनाथ मंदिर हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र स्थानों में से एक माना जाता है। रघुनाथ मंदिर भगवान राम और देवी सीता को समर्पित है। इस मंदिर के पास ही एक पवित्र तालाब ऋषिकुंड भी है। ऋषि कुंड, एक छोटा सा मठ भी रघुनाथ मंदिर के सामने स्थित है । कोई भी मंदिर के आसपास के स्थानीय बाजार मे कुछ समग्र मूर्तियां, तैयार किए गए आभूषण और बहुत कुछ खरीद सकता है।
प्राचीन हनुमान मंदिर :-
ऋषिकेश के राम झूला पर स्थित यह प्राचीन हनुमान मंदिर स्थित है।तीर्थ नगरी ऋषिकेश में पूजा पाठ की काफ़ी मान्यता है. यहां के घाट व मंदिर मुख्य आकर्षण का केंद्र है. देश के विभिन्न हिस्सों से लोग यहां दर्शन के लिए आते है, और साथ ही भगवान के दरबार में अपनी इच्छाओं की पूर्ती की कामना करते है. ऐसा ही एक मान्यता प्राप्त मंदिर है ऋषिकेश का श्री प्राचीन हनुमान मंदिर, इस मंदिर में सभी भक्तगण अपनी इच्छाएं लेकर भगवान के दरबार में आते हैं और इच्छा पूरी होने पर यहां नारियल या चुनरी श्रद्धा अनुसार चढ़ाते है. इस मंदिर की एक कथा काफी प्रचलित है, मान्यता है की भगवान हनुमान ने ऋषि मणि राम दास जी के तप से प्रसन्न होकर यहां उन्हें दर्शन दिए थे.
          राम झूला पर स्थित यह प्राचीन हनुमान मंदिर काफी प्रसिद्ध मंदिर है. अयोध्या के महान संत ऋषि मणि राम दास जी ने इस मंदिर में घोर तप किया, उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान हनुमान ने उन्हें यहां दर्शन दिए थे। महंथ नृत्य गोपाल दास इसके मुखिया हैं। वर्तमान में राम कुमार दास इस मंदिर की देखभाल करते हैं।
शत्रुघ्न मंदिर :-
शत्रुघ्न मंदिर रामायण के शत्रुघ्न को समर्पित है। ऋषिकेश में इस मंदिर का निर्माण आदि शंकराचार्य ने ऋषिकेश की यात्रा के दौरान किया था। यह प्राचीन मंदिर राम झूला के पास स्थित है।शत्रुघ्न मंदिर मुनि-की-रेती, शिवानंद नगर, ऋषभ गढ़वाल में स्थित है। जो लोग विश्व में शांति और शांति चाहते हैं, उन्हें शत्रुघ्न मंदिर की ओर अवश्य जाना चाहिए, जो तीर्थों के सबसे महान मंदिरों में से एक है। लोग मंदिर के अंदर आराम और योगाभ्यास भी कर सकते हैं। इस मंदिर का निर्माण केरल के त्रिशूर जिले में मौजूद मंदिर के साथ-साथ भगवान राम के छोटे भाई के रूप में किया गया है।
 भूतनाथ मंदिर :-  
ऋषिकेश के स्वर्ग आश्रम में यह अलग-थलग मंदिर तीन तरफ से राजाजी नेशनल पार्क और दूसरी तरफ गंगा नदी के किनारे ऋषिकेश शहर से घिरा हुआ है। मंदिर के ऊपर से शहर का शानदार दृश्य देख सकते हैं। यह वह स्थान है जहां भगवान शिव ने उस समय विश्राम किया था जब उन्होंने अपनी पत्नी सती से विवाह करने की योजना बनाई थी। यह आम तौर पर प्रकृति के बीच शांति और एकांत से भरा स्थान होगा क्योंकि अभी तक यात्रियों द्वारा इसकी पूरी क्षमता से इसकी खोज नहीं की गई है। दोस्तों और परिवार के साथ घूमने के लिए एक आदर्श स्थान, एक आदर्श दिन की योजना बनाने के लिए यह देवताओं के सबसे महान मंदिरों में से एक है। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है क्योंकि उन्हें देवी सती की बारात के दौरान यहीं विश्राम किया था।
कैलाश आश्रम निकेतन मन्दिर :-
लक्ष्मण झूले को पार करते ही कैलाश निकेतन मन्दिर है। 12 खण्डों में बना यह विशाल मंदिर ऋषिकेश के अन्य मन्दिरों से भिन्न है। इस मंदिर में सभी देवी देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित हैं। 
वशिष्ठ गुफा मन्दिर :-
ऋषिकेश से 22 किलोमीटर की दूरी पर 3,000 साल पुरानी वशिष्ठ गुफा बद्रीनाथ-केदारनाथ मार्ग पर स्थित है। इस स्थान पर बहुत से साधुओं विश्राम और ध्यान लगाए देखे जा सकते हैं। कहा जाता है यह स्थान भगवान राम और बहुत से राजाओं के पुरोहित वशिष्ठ का निवास स्थल था। वशिष्ठ गुफा में साधुओं को ध्यानमग्न मुद्रा में देखा जा सकता है। गुफा के भीतर एक शिवलिंग भी स्थापित है। यह जगह पर्यटन के लिये बहुत मशहूर है।
गीता भवन :-
गंगापार , स्वर्ग आश्रम क्षेत्र में यह बहुत प्रसिद्ध मन्दिर है।
राम झूला पार करते ही गीता भवन है जिसे विकम संवत 2007 में श्री जयदयाल गोयन्दका जी के द्वारा बनवाया गया था। यह अपनी दर्शनीय दीवारों के लिए प्रसिद्ध है। यहां रामायण और महाभारत के चित्रों से सजी दीवारें इस स्थान को आकर्षण बनाती हैं। यहां एक आयुर्वेदिक डिस्पेन्सरी और गीताप्रेस गोरखपुर की एक शाखा भी है। प्रवचन और कीर्तन मन्दिर की नियमित क्रियाएँ हैं। शाम को यहां भक्ति संगीत की आनन्द लिया जा सकता है। तीर्थयात्रियों के ठहरने के लिए यहाँ सैकड़ों कमरे हैं। यह तीर्थस्थल में दर्शन का दृश्य सबसे पुराना तीर्थस्थल में से एक माना जाता है । इस मंदिर की क़ीमती प्रसिद्ध महाकाव्यों, रामायण और महाभारत के सुंदर चित्रण से अलंकृत हैं। प्रसिद्ध गंगा आरती के उत्साह का अनुभव लेने के लिए लोग यहां आते हैं।
मोहनचट्टी :-
ऋषिकेश से नीलकण्ठ मार्ग के बीच यह स्थान आता है जिसका नाम है फूलचट्टी , मोहनचट्टी , यह स्थान बहुत ही शान्त वातावरण का है यहाँ चारों और सुन्दर वादियाँ है , नीलकण्ठ मार्ग पर मोहनचट्टी आकर्षण का केंद्र बनता है ।
मोहनचट्टी ऋषिकेश से लगभग 25 किमी दूर एक छोटा सा गाँव है । यह अपनी प्राकृतिक प्राकृतिक और साहसिक यात्रा के लिए जाना जाता है। यह यात्रा के लिए भी एक आदर्श स्थान है। हरे-भरे जंगल से लेकर ह्यूएल नदी के नज़ारे तक, यह जगह मानक पर खरी उतरती है। मोहनचट्टी शांत और निर्मल वातावरण वाला एक साहसिक स्थल है। कैंपिंग, राफ्टिंग और बंजी जंपिंग से लेकर, मोहनचट्टी में अपने धर्मशाला को देने के लिए बहुत कुछ है। 

वीरभद्र मंदिर:-
ऋषिकेश के आईडीपीएल कॉलोनी वीरभद्र क्षेत्र में स्थित है. इस मंदिर में भगवान शिव ने का क्रोध शांत करवाया था और तभी से वीरभद्र शिवलिंग के रूप में यहां विराजमान है, और तभी से यह मंदिर वीरभद्र मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर लगभग 1300 वर्ष पुराना है। हरिद्वार में दक्ष प्रजापति का यज्ञ चल रहा था जिसमे सभी देवी देवता आमंत्रित थे, पर राजा दक्ष ने अपनी बेटी सती और दामाद भगवान शिव को आमंत्रण नही दिया. भगवान के मना करने के बाद भी माता सती उस यज्ञ में चली गई. माता सती का मानना था की वह उन्हीं का घर है तो आमंत्रण कैसा. सती पहुंची तो उन्होंने देखा कि वहां सभी देवी देवता आमंत्रित थे और यज्ञ चल रहा था, यह देख मां सती राजा दक्ष से पूछ बैठी की उन्हें आमंत्रण क्यों नहीं दिया, यह सुन राजा दक्ष ने भगवान शिव के लिए कई अपशब्दो का प्रयोग किया जो सती सुन नहीं पाई और हवन कुंड की अग्नि में खुद की आहुति दे दी .जब भगवान शिव को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया. उस जटा के पूर्वभाग से महा भंयकर वीरभद्र प्रगट हुए. भगवान शिव के वीरभद्र अवतार है ।
शिव के इस अवतार ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया और दक्ष का सिर काटकर उसे मृत्युदंड दिया. फिर भी उनका क्रोध शांत नहीं हुआ. रास्ते में जो भी दिखता वो उसका गला काट देते. जब वीरभद्र ऋषिकेश पहुंचे, तो वहां भगवान शिव ने उन्हें गले लगा लिया, जिसके बाद वो शांत हुए और वहीं शिवलिंग के रूप में विराजमान हो गए. तभी से इस क्षेत्र को वीरभद्र क्षेत्र और इस मंदिर को वीरभद्र मंदिर के नाम से जाना जाता है।
परमार्थ निकेतन :-
 यह मेन मार्केट रोड के पास, रामझूला स्वर्ग आश्रम ऋषिकेश में हिमालय की गोद में गंगा के किनारे स्थित है। इसकी स्थापना 1942 में सन्त शुकदेवानन्द सरस्वती जी महाराज ने की थी। सन् 1986 स्वामी चिदानन्द सरस्वती इसके अध्यक्ष एवं आध्यात्मिक मुखिया हैं । इसमें 1000 से भी अधिक कक्ष हैं। आश्रम में प्रतिदिन प्रभात की सामूहिक पूजा, योग एवं ध्यान, सत्संग, व्याख्यान, कीर्तन, सूर्यास्त के समय गंगा-आरती आदि होते हैं। इसके अलावा प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद चिकित्सा एवं आयुर्वेद प्रशिक्षण आदि भी दिए जाते हैं। आश्रम में भगवान शिव की 14 फुट ऊँची प्रतिमा स्थापित है। आश्रम के प्रांगण में 'कल्पवृक्ष' भी है जिसे 'हिमालय वाहिनी' के विजयपाल बघेल ने रोपा था।
स्वर्गाश्रम:-
"स्वर्गाश्रम" शब्द प्राथमिक शब्द "स्वर्ग" से बना है जिसका अर्थ "स्वर्ग" है। आश्रम का निर्माण स्वामी अविनाशानंद की याद में किया गया था, जो संत काली कमली वाले (काले कंबल वाले संत) के नाम से जाने गए थे। यह मुख्य रूप से जातीय स्पर्श के कारण विदेशी फिल्मों के बीच बहुत लोकप्रिय स्थान है। यह गंगापार, राम झूला पर स्थित है। स्वर्ग आश्रम के अंदर बहुत सारे आश्रम और मंदिर हैं। यह स्थान अपने जातीय संपर्क के कारण विदेशी दृश्य के साथ-साथ स्थानीय लोगों के बीच भी बहुत लोकप्रिय है। स्वर्ग आश्रम परिसर के भीतर जप, ध्यान, आरती जैसे कई धार्मिक धार्मिक स्थल हैं। इस क्षेत्र को "काली कमली वाला क्षेत्र" के नाम से भी जाना जाता है। यह स्थान मानव मन और आत्मा के लिए स्वर्ग के अलावा और कोई नहीं है, शांति, समृद्धि और शांत वातावरण के साथ यह स्थान मानव मन और आत्मा को फिर से जीवंत कर देता है।
स्वर्गाश्रम माँ गंगा और शिवालिक शिखरों के बीच स्थित है, स्वर्गाश्रम तक पहुँचने का मुख्य मार्ग रामझूला या जानकी सेतु है। यह राजाजी राष्ट्रीय उद्यान के जंगलों से घिरा हुआ है और इसके चारों ओर मनमोहक हरियाली है। अद्भुत स्थान के अलावा स्वर्गाश्रम 100 (सौ) से अधिक साधुओं को कुटिया प्रदान करता है, जहां वे ध्यान करते हैं और अपना जीवन शैली बनाते हैं। पर्यटन मूल रूप से इस स्थान पर 'योग पर्यटन' और 'आयुर्वेदिक औषधियों के अध्ययन' के लिए आएं। यह उन सभी लोगों के लिए एक आदर्श स्थान है जो प्रकृति के साथ बातचीत करना पसंद करते हैं और आध्यात्मिक रूप से चाहते हैं।

अलोहा ऑन द गंगा:-
ऋषिकेश में यह उत्कृष्ट रिसॉर्ट 'अलोहा ऑन द गंगा', लक्ष्मण झूला के करीब गंगा नदी के तट पर स्थित है। बहुत शांत और शांत वातावरण. जंगल की पहाड़ियों से घिरी तेज़ बहती गंगा पर रिज़ॉर्ट की स्थापना ध्यान और मन के विस्तार के लिए अनुकूल है। शाम के समय, घाटी में हवा चलती है, जिससे मंदिर की घंटियाँ बजने लगती हैं और साधु, तीर्थयात्री और पर्यटक रात्रिकालीन गंगा आरती की तैयारी करते हैं। अलोहा ऑन द गंगा, अपने परिवेश के आकर्षण से आपको बेदम कर देगा, बल्कि यह आपको शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के आराम का अनुभव करने और आपके रोजमर्रा के जीवन में शांति और व्यक्तिगत स्थान के एक पल के महत्व को महसूस करने में ज़िंदगी को सक्षम बनाता है। 
तपोवन ऋषिकेश:-
तपोवन का अर्थ एक ऐसा जंगल है जहाँ आध्यात्मिक अभ्यास किया जाता है। इस स्थान का नाम तपोवन महाराज के नाम पर 19वीं शताब्दी में उनकी यात्रा के दौरान इस स्थान का उल्लेख किया गया था। यह उत्तराखंड में गंगा के प्राथमिक स्रोतों में से एक गंगोत्री ग्लेशियर के ऊपर का क्षेत्र है। शिवलिंग शिखर के तल पर, लगभग 4,463 मीटर (14640 फीट) की ऊंचाई पर एक बंजर क्षेत्र, गुफाओं, झोपड़ियों आदि में रहने वाले कई साधुओं का मौसमी घर है। यहां संपूर्ण शांति रहती है। सबके मध्य मैत्री का संबंध होता है। कहीं कोई वैर, शत्रुता अथवा नकारात्मक भाव दृष्टिगत नहीं होता। हर किसी के हृदय में कोमलता और प्रेम का संचार होता है। तपोवन क्षेत्र शिवलिंग शिखर, भागीरथी शिखर आदि सहित कई पर्वतारोहण अभियानों के लिए आधार शिविर है। तपोवन क्षेत्र घास के मैदानों, झरनों और फूलों वाले पौधों से भरा हुआ है और घास के मैदानों को भारत में सबसे अधिक ऊंचाई वाले घास के मैदानों में से एक माना जाता है।यह शांतिपूर्ण और खूबसूरत जगह। विशेष रूप से तपोवन क्षेत्र सुंदर और शांतिपूर्ण है, लक्ष्मण झूला और राम झूला दोनों ही शानदार हैं और शांति से बहती हुई सर्वशक्तिमान गंगा का एक शानदार दृश्य और अनुभव देते हैं। 
बीटल्स आश्रम:-
 यह स्वर्ग आश्रम ऋषिकेश चौरा कुटिया  के नाम से भी जाना जाता है जो हिमालय की तलहटी में, ऋषि के मुनि की रेती क्षेत्र के सामने, गंगा नदी के पूर्वी तट पर स्थित है । 1960 और 1970 के दशक के दौरान, अंतर्राष्ट्रीय ध्यान अकादमी के रूप में, यह महर्षि महेश योगी के छात्रों के लिए प्रशिक्षण केंद्र था , जो कि ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन टेक्नोलॉजी की तैयारी की थी। आश्रम ने फरवरी अप्रैल और 1968 के बीच अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान आकर्षित किया जब अंग्रेजी रॉक बैंड बीटल्स ने डोनोवन , मिया फैरो और माइक लव जैसे प्रसिद्ध कलाकारों के साथ वहां ध्यान का अध्ययन किया । इस साइट को 1990 के दशक में छोड़ दिया गया था और 2003 में इसे स्थानीय वनिकी विभाग द्वारा वापस ले लिया गया था, जिसके बाद यह बीटल्स के प्रशंसक के रूप में एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल बन गया। प्रकृति और जंगल ख़त्म हो गए, इस साइट को आधिकारिक तौर पर दिसंबर 2015 में जनता के लिए खोल दिया गया था। अब इसे बीटल्स आश्रम के रूप में जाना जाता है ।
महर्षि महेश योगी आश्रम :-
 महर्षि महेश योगी ने भावातीत ध्यान आंदोलन शुरू किया था। इसे 1997 में छोड़ दिया गया था, लेकिन अब इसे वन विभाग के नियंत्रण में ले लिया गया है। 1968 में, जब प्रसिद्ध रॉक बैंड, 'द बीटल्स' यहां रुका, तो आश्रम प्रसिद्धि में बढ़ गया और उसने ऋषिकेश को वैश्विक मानचित्र पर ला दिया। अंततः यह जीर्ण-शीर्ण हो गया, लेकिन आज भी, काई और घास के नीचे, प्रभावशाली शैली की इमारतें, ध्यान झोपड़ियाँ और व्याख्यान कक्ष अभी भी देखे जा सकते हैं, जिनमें महर्षि का घर और वह स्थान भी शामिल है जहाँ बीटल्स रुके थे।
      ऋषिकेश काफी समय लेकर आकर विविध आकर्षणों को आत्मसात कर बहुत कुछ आनंद और शांति का अनुभव प्राप्त किया जा सकता है ।
               आचार्य डा राधे श्याम द्विवेदी 
लेखक परिचय 
27.06.1957 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में जन्में डॉ. राधेश्याम द्विवेदी ने अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद से बी.ए. और बी.एड. की डिग्री,गोरखपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी),एल.एल.बी., सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी का शास्त्री, साहित्याचार्य , ग्रंथालय विज्ञान शास्त्री B.Lib.Sc. तथा विद्यावारिधि की (पी.एच.डी) "संस्कृत पंच महाकाव्य में नायिका" विषय पर उपार्जित किया। आगरा विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास से एम.ए. तथा ’’बस्ती का पुरातत्व’’ विषय पर दूसरी पी.एच.डी.उपार्जित किया। डा. हरी सिंह सागर विश्व विद्यालय सागर मध्य प्रदेश से MLIS किया। आप 1987 से 2017 तक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण वडोदरा और आगरा मण्डल में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्य कर चुके हैं। प्रकाशित कृतिः ”इन्डेक्स टू एनुवल रिपोर्ट टू द डायरेक्टर जनरल आफ आकाॅलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया” 1930-36 (1997) पब्लिस्ड बाई डायरेक्टर जनरल, आकालाजिकल सर्वे आफ इण्डिया, न्यू डेलही। आप अनेक राष्ट्रीय पोर्टलों में नियमित रिर्पोटिंग कर रहे हैं। साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और अध्यात्म विषयों पर आपकी लेखनी सक्रिय है।
वर्तमान पता :-
नोवा हॉस्पिटल,
कैली रोड, बस्ती 272002 ( उत्तर प्रदेश)
 ई मेल: rsdwivediasi@gmail.com
मोबाइल नंबर 8630778321
वर्डसैप्प नंबर 9412300183

Sunday, November 26, 2023

यमुना माता की वेदना आचार्य डा. राधेश्याम द्विवेदी

यमराज की बहन है यमुना- हिंदू पौराणिक ग्रंथों के अनुसार यमुना नदी को यमराज की बहन बताया गया है। यमुना नदी का एक नाम यमी भी है। कहा जाता है कि सूर्य, यमराज और यमी के पिता हैं। बताया जाता है कि यमुना नदी को ‘काली गंगाÓ और ‘असित के नाम से भी जाना जाता है और इसके पीछे की वजह ये है कि यमुना का जल पहले कुछ साफ, कुछ नीला और कुछ सांवला था। असित नाम के पीछे ये तर्क बताया जाता है कि असित एक ऋषि थे, जिन्होंने सबसे पहले यमुना नदी को खोजा था और तभी से यमुना को ‘असित नाम से भी संबोधित किया जाने लगा।
कार्तिक पूर्णिमा के पावन अवसर पर मां की वेदना के कुछ पंक्तियां प्रस्तुत है i---
मेरे पद पंकज का वंदन चाहे तुम मत एक बार करो । 
गाल बजाने वालो के सब ढोंगो का प्रतिकार करो ।
भाव सुमन के नहीं दिखावटी माला मुझे चढ़ाते हो ।
सड़ी गली बदबू से भरकर मेरी पवित्रता मिटाते हो ।।

मुझको चुनरी नहीं चढ़ाओ मत दीपो का दान करो । 
दीन हीन को कपड़े बाँटो इनके तन को ढ़को भरो। 
टूटी फूटी प्रतिमायें तस्वीरें सब मुझमे डाली जाती ।         जिनकी किरचें कोर नुकीली सब लोगो को चुभती ।। 

बची हवन पूजन सामग्री घर से तुम ले आते हो ।
वेरहमी से पावन जल को गंदा तुम कर जाते हो । 
मूर्ति यहां विसर्जित कर तुमने ना कुछ पुण्य किया।
जहरीले रंगों तत्वों से तुमने जल मेरा बदरंग किया ।। 

डाल शवो की भस्म अस्थियां क्या उनको स्वर्ग मिलेगा।        जिंदा परिवारों की सोचो जल के बिना उन्हें नरक दीखेगा । सोडा साबुन प्रतिवन्धित हो जल पीने के लायक करो ।     शहरों के गंदे नालों से मुझको पूरा ही पूरा मुक्त करो ।।

 कालिन्दी पर्वत से निकली कालिन्दी मैं कहलाती हूं।
 यमनोत्री से नीचे उतर के संगम प्रयाग तक जाती हूं ।
शहर गांव उपवन फुलवारी सबको सींचती जाती हॅं।
संग सरस्वती गंगा में मिल त्रिवेणी बन जाती हूं।। 

मैं सूर्यदेव की बेटी हूं इस जग को जीवन देने आई ।     शीतलता के साथ धरा की भी प्यास बुझाने आयी । 
यमदेव हमारे भाई हैं उनकी हम पर असीम करुणा है। 
स्नान किया जिसने मुझमें यम के बंधन में ना बंधता है।।

 वृन्दावन में मेरे तट पर सुन्दर घाटों की श्रृंखला है ।        मंदिर-देवालय, छतरियां मेरे तट पर धर्मशाला है ।
मथुरा बृन्दावन गोकुल बरसाना मेरे तट पर बसते हैं। 
बाग महल मकबरे हवेलियां मेरे तट पर बनते हैं ।।

 कालिया मर्दन हमने देखा कंस शिरच्छेदन देखा है। 
कृष्ण की लीला देखा है वंशी की तान भी देखा है। 
गौवों का गोचर देखा है पक्षी का कलरव देखा है। 
गीता की वाणी सुनकर भारत का कौशल देखा है।। 

मेरा पानी फसल उगाता वरना मरण तुम्हारा है । 
मेरे रहने से ही तो सम्पूर्ण अस्तित्व तुम्हारा है ।
 पशुपक्षी मेरा पान करें जलचर भी मुझमें पलते हैं। 
विश्व कोनों से आये पथिक हम पर जान लुटांते हैं।। 

अगली पीढ़ी का तुम सोचो कैसे वह रह पाएगी । 
जल के खातिर युद्ध करे जलबिन जलभुन जाएगी । 
रेत माफिया कुछ तो सोचो गर्दन को रेत रहे मेरी । 
मुठ्ठी से बालू खिसकी तो जीवन गया बिना देरी ।।

मेरे तट पर आज अनेक कालोनिया बनती जाती हैं। 
कचरे को घर से निकाल मुझमें फैलायी जाती है ।
मेरे तट पर जंगल थे अब एक भी नहीं दीखते हैं । 
खग भी मेरे तट पर अपने बसेरों के लिए तरसते हैं।। 

अगर भेंट करना है कुछ तो तट पर यह संकल्प करो । 
पीड़ा नही किसी को देकर निर्वल के दुख दूर करो । 
भक्तो सबसे हाथ जोड़कर मैं यही कामना करती हूं । 
गांठ बांध लो जल ही जीवन सत्य यही मैं कहती हूं ।।

                 कवि :  आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी 

Saturday, November 25, 2023

कार्तिक मास की देवोत्थान एकादशी की महत्ता डा राधे श्याम द्विवेदी


भगवान विष्‍णु का प्रिय कार्तिक मास 27 नवम्बर 2023 तक चलेगा।शास्त्रीय मान्यता है कि शरद पूर्णिमा के पर्व पर चन्द्र किरणों से अमृत की वर्षा होती है। इसी अमृत मिश्रित खीर प्रसाद के सेवन से नाना प्रकार की शारीरिक व्याधियों का शमन हो जाता है। सामान्यतया इसी तिथि से शरद ऋतु का भी आगमन हो जाता है। इसी समय में स्वाति नक्षत्र में गिरने वाली ओस की बूदें सीप के मुंह में जाकर बहुमूल्य मोती का स्वरुप धारण करती हैं। इन्हीं मान्यताओं को लेकर सभी मंदिरों में आश्विन शुक्ल पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा महोत्सव का भी आयोजन मठ-मंदिरों में होता है। इस अवसर पर भगवान के चल विग्रह को खुले आसमान के नीचे मंदिर के आंगन में प्रतिष्ठित कर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है और खीर का विशेष भोग लगाकर श्रद्धालुओं में प्रसाद का वितरण किया जाता है।
कल्पवास एक साधना है:-
कल्पवास एक प्रकार की साधना है, जो पूरे कार्तिक मास के दौरान पवित्र नदियों के तट पर की जाती है। भविष्य पुराण में वर्णित है कि कार्तिक का व्रत आश्विन की पूर्णिमा को शुरू कर कार्तिक की पूर्णिमा को पूरा किया जाता है। स्कन्ध पुराण के अनुसार कार्तिक मास समस्त मासों में सर्वश्रेष्ठ है। कहा जाता है कि इस मास में तीर्थ नगरियों में प्रवाहमान पवित्र नदियों के पावन सलिल में सूर्योदय के पूर्व स्नान करने और तुलसी दल के साथ भगवान विष्णु की आराधना करने का विशेष फल प्राप्त होता है। कार्तिक मास की शुरुआत से ही अयोध्या में कल्पवासी श्रद्धालुओं का जमावड़ा शुरू हो जाता है। इस दौरान रामनगरी में बड़ी संख्या में श्रद्धालु कल्पवास के लिए आते हैं। अयोध्या के विभिन्न मंदिरों ,आश्रमों , होटलों, धर्मशालाओं व गुरु स्थानों पर रुक कर कार्तिक कल्पवास करते हैं। कार्तिक पूर्णिमा तक चलने वाले इस अनुष्ठान के दौरान श्रद्धालुगण तीर्थ नगरी में आकर पूर्ण नियम और संयम के साथ प्रवास करते हैं और दैनिक पूजा-पाठ के साथ रामकथा- भागवत प्रवचनों के श्रवण के साथ विविध धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन कर पुण्य लाभ अर्जित करते हैं।
कार्तिक सर्वोत्तम मास :-
कार्तिक मास सभी मासों में श्रेष्ठ व सर्वोत्तम फलदायक माना गया है। व्रत, स्नान व दीपदान के लिए सरयू तट पर सुबह-शाम कल्पवासी श्रद्धालुओं की भीड़ शुरू होने जाती है। कार्तिक मास त्योहारों का माह कहा जाता है। ऋतु परिवर्तन की दृष्टि से कार्तिक का महीना समशितोष्ण होता है। अर्जुन को गीता का ज्ञान देते समय भगवान कृष्ण ने स्वयं को महीनों में कार्तिक बताया था। इस महीने में व्रत त्योहारों की संख्या भी अधिक होती है। चातुर्मास का सबसे प्रमुख मास होता है कार्तिक मास। इस मास में गंगा यमुना सरयू आदि पवित्र नदियों में स्‍नान, दीप दान, यज्ञ और अनुष्‍ठान परम फल देने वाले माने गए हैं। इसे करने से कष्‍ट दूर होने के साथ पुण्‍य की प्राप्ति होती है और ग्रह दशा भी सुधरती है। शरद पूर्णिमा से प्रारंभ होकर करवा चौथ, धनतेरस, वी आई पी अयोध्या दीपोत्सव,हनुमान जयंती ,दीपावली ,भैया दूज , छठ पूजा,अक्षय नवमी चौदह कोसी परिक्रमा ,देवोत्थान एकादशी पंच कोसी परिक्रमा, बीतुलसी शालिग्राम विवाह, कार्तिक पूर्णिमा तक शायद ही कोई दिन हो जिस दिन का विशेष महत्व न हो। इसी दौरान मंत्रार्थ मंडप में अंतर्राष्ट्रीय राम महायज्ञ का एक भव्य आयोजन और संत सम्मेलन 5 से 14 अक्टूबर के मध्य आयोजित हुआ था।
देवोत्‍थान एकादशी 22 नवम्बर को :-
कार्तिक मास की ही देवोत्‍थान एकादशी पर भगवान विष्‍णु चार महीने की निद्रा के बाद जागृत होते हैं। इस महीने में भगवान विष्‍णु के साथ तुलसी पूजन का विशेष महत्‍व माना गया है। इसी महीने में तुलसी और शालिग्राम का विवाह आयोजित होता है।
तुलसी का विशेष पूजन :-
आंवले का पूजन :-
कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को श्रद्धालु जन आंवले के पूजन के साथ वृक्ष के नीचे ही भोजन का निर्माण कर प्रसाद भी ग्रहण करते हैं। कार्तिक महात्म्य की कथा के अनुसार भगवान के दस अवतारों में प्रथम मत्स्यावतार इसी मास में हुआ था। पौराणिक मान्‍यताओं के अनुसार इस महीने में श्रीहरि मत्‍स्‍य अवतार में रहते हैं, इसलिए इस महीने में भूलकर भी मछली या फिर अन्‍य प्रकार की तामसिक चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए। इसी मास में भगवान श्रीहरि योग निद्रा से जागृत होते हैं और मंत्रों की शक्ति का हरण करने वाले शंखासुर का वध करके मंत्रों की रक्षा करते हैं और देवताओं को सुरक्षित करते हैं।
कार्तिक माह के दान :-
कलयुग में दान को सभी पापों से मुक्ति का सबसे बड़ा माध्यम माना गया है. पौराणिक मान्यता के अनुसार कार्तिक मास में कुछ चीजों का दान करने पर व्यक्ति को अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है. कार्तिक मास में तुलसी, अन्न, आंवले का पौधा, गोदान आदि का बहुत ज्यादा महत्व है।
कार्तिक मास में दीपदान :-
कार्तिक मास में तमाम तरह के दान के साथ व्यक्ति को विशेष रूप से दीपदान करना चाहिए. मान्यता है कि यदि कार्तिक मास में यमुना अथवा किसी पवित्र नदी, तुलसी, या देवस्थान पर श्रद्धा के साथ दान करने का बहुत ज्यादा महत्व है. मान्यता है कि यदि पूरे मास कोई व्यक्ति दीपदान करता है तो उसकी बड़ी से बड़ी कामना पूरी होती है। दीपदान की यह पूजा शरद पूर्णिमा से प्रारंभ होकर कार्तिक पूर्णिमा तक की जाती है।
तुलसी को घी का दीपक :-
कार्तिक के महीने में पूरे 30 दिन तुलसी के नीचे घी का दीपक जरूर जलाना चाहिए। अगर हम लगातार इतने दिन दीपक जलाने में असमर्थ हैं तो देवोत्‍थान एकादशी से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक कम से कम 5 दिन दीपक जरूर जलाना चाहिए। तुलसी के पूजा करने पर मां लक्ष्‍मी के साथ-साथ कुबेरजी की विशेष कृपा भी प्राप्‍त होती है।
कार्तिक के महीने में भगवान विष्‍णु का स्‍मरण करते हुए शाम के वक्‍त पूजा के स्‍थान में तिल के तेल का दीपक जलाकर रखें। पौराणिक मान्‍यताओं के अनुसार भगवान विष्‍णु ने स्‍वयं कुबेरजी से कहा के कार्तिक मास में जो मेरी उपासना करे उसे कभी धन की कमी मत होने देना।
साधना के विकल्प:-
स्नान, दीपदान, तुलसी के पौधों को लगाना और सींचना, पृथ्वी पर शयन, ब्रह्मचर्य का पालन, भगवान विष्णु के नामों का संकीर्तन व पुराणों का श्रवण, इन सब नियमों का कार्तिक मास में निष्काम भाव से पालन करने वाले श्रेष्ठकर हैं। पीपल के रूप में साक्षात् भगवान विष्णु विराजमान होते हैं, इसलिए कार्तिक में उसका पूजा जाना चाहिए।
                     लेखक : डा.राधे श्याम द्विवेदी 

ऋषिकेश का त्रिवेणी घाट आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी

उत्तराखंड की तीर्थ और योगनगरी ऋषिकेश सतयुग से ही ऋषि-मुनियों की तपोस्थली रही है. यहां स्थित प्राचीन श्री भरत मंदिर में रैभ्य ऋषि और सोम ऋषि ने भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए तपस्या की थी. भगवान नारायण ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए थे।
ऋषिकेश को “ स्वर्ग की जगह” के नाम से भी जाना जाता है।चंद्रभागा और गंगा के संगम पर हरिद्वार से 24 किलोमीटर की ऊंचाई पर स्थित एक आध्यात्मिक शहर है। हृषिकेश मूल शब्द "हृषि" और "ईश" मिलकर "हृषि+ईश, हृषिकेश" बनाते हैं; "हृषिक" का अर्थ है "इंद्रियाँ" और "ईश" का अर्थ है "स्वामी" या "भगवान"। इसलिए इस शब्द का अर्थ है जिसने महारत हासिल कर ली है रैभ्य ऋषि ने अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त की और भगवान विष्णु को प्राप्त किया। इसलिए इस स्थान को हृषिकेश के नाम से जाना जाता है। यह माना जाता है कि “ऋषिकेश” के नाम स भगवान रैभ्य ऋषि द्वारा कठिन तपस्या से प्रकट हुए थे और अब से इस जगह का नाम व्युत्पन्न हुआ है।किंवदंती के अनुसार, रावण ने रावण की हत्या के लिए तपस्या करने के लिए ऋषि वशिष्ठ की सलाह पर आया। लंका के राजा यहां कई प्राचीन मंदिर और आश्रम हैं जो तीर्थयात्रियों को आध्यात्मिक सांत्वना देते हैं।
त्रिवेणी घाट
गढ़वाल, उत्तरांचल में हिमालय पर्वतों के तल में बसे ऋषिकेश में त्रिवेणी घाट प्रमुख पर्यटन स्थलों में से है।
ऋषिकेश में त्रिवेणी घाट प्रमुख स्नानागार घाट है जहाँ प्रात:काल में अनेक श्रद्धालु पवित्र गंगा नदी में डुबकी लगाते हैं।कहा जाता है कि त्रिवेणी घाट पर हिन्दू धर्म की तीन प्रमुख नदियों गंगा,चंद्रभागा और अदृश्य सरस्वती
के संगम पर बसा हुआ है।
    त्रिवेणी घाट से ही गंगा नदी दायीं ओर मुड़ जाती है।
त्रिवेणी घाट के एक छोर पर शिवजी की जटा से निकलती गंगा की मनोहर प्रतिमा है तो दूसरी ओर अर्जुन को गीता ज्ञान देते हुए श्री कृष्ण की मनोहारी विशाल मूर्ति और एक विशाल गंगा माता का मन्दिर हैं।घाट पर चलते हुए जब दूसरी ओर की सीढ़ियाँ उतरते हैं तब यहाँ से गंगा के सुंदर रूप के दर्शन होते हैं।
        शाम को त्रिवेणी घाट पर भव्य आरती होती है और गंगा में दीप छोड़े जाते हैं, उस समय घाट पर काफ़ी भीड़ होती है।ऋषिकेश का त्रिवेणी घाट अपने आप में विशेष महत्त्व रखता है. हिमालय से गंगा और सरस्वती के आने के बाद यह देश का पहला ऐसा स्थान है, जहां पर त्रिवेणी संगम है. यहां इस स्थान पर देश-विदेश से श्रद्धालु स्नान करने और दान, पुण्य, कर्मकांड करने आते हैं. इस स्थान की पौराणिक मान्यता है कि यहां स्नान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है. इस स्थान पर पितरों का पिंडदान करने से उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है. साथ ही श्राद्ध तर्पण करने से उन्हें स्वर्ग में स्थान प्राप्त होता है. इस स्थान पर तीनों प्रमुख पवित्र नदियों का अद्भुत संगम होता है.
                       बाल्मीकि भगवान
       रामायण और महाभारत के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने इस पवित्र स्थान का दौरा किया था। इस तीर्थ घाट पर भक्तगण अपने पितरों की शांति के लिए पिंड श्राद्ध की पूजा का पाठ भी कराते हैं। पास में ही है गंगा माता का मंदिर भी स्थित है। बाल्मीकि भगवान का एक आधुनिक मंदिर भी यहां स्थित है।

Monday, November 20, 2023

अयोध्या सांस्कृतिक क्षेत्र की नदिया आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी

 


भारतीय सनातन परम्परा में सप्त नगरियों का यह श्लोक विश्व विश्रुत है। इस श्लोक से इन नगरों का महत्व और स्पष्ट हो जाता है।
        अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवंतिका।
          पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्ष दायिकाः॥

ये सात शहर अलग-अलग देवी-देवताओं से संबंधित हैं। अयोध्या श्रीराम से संबंधित है। मथुरा और द्वारिका का संबंध श्रीकृष्ण से है। वाराणसी और उज्जैन शिवजी के तीर्थ हैं। हरिद्वार विष्णुजी और कांचीपुरम माता पार्वती से संबंधित है। रामायण में बताया गया है कि अयोध्या राजा मनु द्वारा बसाई गई थी। यह नगर सरयू नदी के किनारे बसा हुआ है।  यहां आज भी हिन्दू, बौद्ध, इस्लाम, जैन धर्म से जुड़ी निशानियां दिखाई देती हैं। अयोध्या की महत्ता के बारे में पूर्वी उत्तर प्रदेश के जनसाधारण में निम्न कहावतें प्रचलित हैं-
              गंगा बड़ी गोदावरी  तीरथ बड़ो प्रयाग,
      सबसे बड़ी अयोध्या नगरी जहँ राम लियो अवतार।

          अयोध्या की सांस्कृतिक सीमा के 84 कोस की परिधि को सरयू मुख्य नदी रूप में अभिसिंचित करती ही है। साथ ही सरयू की अनेक सहायक नदियां जैसे वाशिष्ठी(,गोमती), घर्घर घाघरा महानद , सरयू, कुटिला मनोरमा,तमसा छोटी सरजू,वेदश्रुति बिसुही नदी,तिलोदकी गंगा’ तिलैया, कल्याणी, राम रेखा शारदा, सेती, बबई, अचिरावती /राप्ती,इरावती,छोटी गंडक और झरही आदि डेढ़ दर्जन अस्तित्व वाली और कुछ लुप्तप्राय नदियां भी इस भूभाग में अपनी खुशबू और शीतलता से आह्लादित और पाप शमन का काम करती रहती है।

1-
आदिगंगा गोमती नदी/ वसिष्ठी नदी :-
पौराणिक कथाओं के अनुसार ऐसा माना जाता है कि वनवास से लौटते समय प्रभु श्रीराम ने अयोध्या में प्रवेश से पहले सई नदी को पार कर गोमती में स्नान किया था। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में भी इस बात का उल्लेख किया है कि सई उतर गोमती नहाए, चौथे दिवस अवधपुर आए। रामायण काल से जुड़े होने की वजह से गोमती नदी का इतिहास और ज्यादा दिलचस्प हो जाता है और इसे अवध की पवित्र नदियों में से एक बनाता है।
गोमती नदी नदी का उद्गम स्थान माधव तांडा, पीलीभीत में स्थित गोमत ताल से होता है, यही कारण है कि पीलीभीत को गोमती के जन्मस्थान के रूप में भी जाना जाता है। गोमती नदी पवित्र एवं प्राचीन भारतीय नदियों में से एक है जो मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश में प्रवाहित गोमती पीलीभीत, माधोटांडा के गोमत ताल से उद्गमित होकर लगभग 960 किमी का लंबा सफ़र तय करते हुए अनंतोग्त्वा वाराणसी के कैथ क्षेत्र में मार्कंडेय महादेव मंदिर के सामने गंगा नदी में जाकर मिल जाती है।
       पुराणों के अनुसार गोमती ब्रह्मर्षि वशिष्ठ की पुत्री हैं तथा एकादशी को इस नदी में स्नान करने से संपूर्ण पाप धुल जाते हैं। हिन्दू ग्रन्थ श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार गोमती भारत की उन पवित्र नदियों में से है जो मोक्ष प्राप्ति का मार्ग हैं। पौराणिक मान्यता ये भी है कि रावण वध के पश्चात "ब्रह्महत्या" के पाप से मुक्ति पाने के लिये भगवान श्री राम ने भी अपने गुरु महर्षि वशिष्ठ के आदेशानुसार इसी पवित्र पावन आदि-गंगा गोमती नदी में स्नान किया था एवं अपने धनुष को भी यहीं पर धोया था और स्वयं को ब्राह्मण की हत्या के पाप से मुक्त किया था, आज यह स्थान सुल्तानपुर जिले की लम्भुआ तहसील में स्थित है एवं धोपाप नाम से सुविख्यात है। लोगों का मानना है कि जो भी व्यक्ति गंगा दशहरा के अवसर पर यहाँ स्नान करता है, उसके सभी पाप आदिगंगा गोमती नदी में धुल जाते हैं। सम्पूर्ण अवध क्षेत्र में गोमती तट पर स्थित "धोपाप" के महत्व को कुछ इस तरह से समझाया गया है:
2-
घर्घर घाघरा महानद :-
तंत्रशास्त्र के विश्वकोश 'रुद्रयामल' के अनुसार-
यस्या: पश्चिमतो नद: प्रवहति ब्रह्मात्मजो घर्घर:।
सामीप्यं न जहाति यत्र सरयू: पुण्या नदी सर्वदा।

     घर्घर करता हुआ महानद के कारण इसे घाघरा कहा जाता है। घाघरा नद को सरयूजी का बड़ा भाई कहा गया है, घाघरा अपनी बहन सरयू की रक्षा में तत्पर रहता है। घाघरा नदी, गोगरा, घाघरा, नेपाली कौरियाला, गंगा नदी की प्रमुख बाएं किनारे की सहायक नदी भी है। यह दक्षिणी तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र, चीन के उच्च हिमालय में करनाली नदी के रूप में उभरती है और नेपाल के माध्यम से दक्षिण-पूर्व में बहती है। शिवालिक रेंज में दक्षिण की ओर काटते हुए यह दो शाखाओं में विभाजित हो जाती है जो भारतीय सीमा के दक्षिण में फिर से जुड़ती हैं और घाघरा को नया रूप देती है। यह उत्तर प्रदेश और बिहार राज्यों के माध्यम से दक्षिण-पूर्व में बहती है और 600 मील दूरी मापने के  बाद छपरा के नीचे गंगा में प्रवेश करती है।
         घाघरा नदी दक्षिणी तिब्बत के ऊंचे पर्वत शिखरों से निकलती है जबकि सरयू का उद्गम स्थल बहराइच या लखीमपुर खीरी जिले के खैरीगढ़ रियासत की राजधानी रही सिंगाही के जंगल की झील से भी कहा जाता है। घाघरा और सरयू का संगम बाराबंकी के चौका घाट में होता है। चौका घाट में दोनों नदी एक होकर बलिया में गंगा में मिल जाती है।
3-
पतित पावनी सरयू नदी :

सरयू नदी का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है और रामायण के अनुसार सरयू नदी अयोध्या शहर के पास बहती है । भगवान विष्णु के सातवें अवतार भगवान राम का जन्म अयोध्या में हुआ था। यह माना जाता है कि यह पवित्र नदी शहर की अशुद्धियों और पापों को धोती है। पुराणों में वर्णित है कि सरयू नदी से भगवान विष्णु के उत्सव प्रकट होते हैं। आनंद रामायण में उल्लेख है कि प्राचीन काल में शंखासुर दैत्य / मधु कैटभ ने वेद को चुराकर समुद्र में डाल दिया था । तब भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप में धारण कर दैत्य का वध किया था और ब्रह्मा को वेदों में अपना वास्तविक स्वरूप धारण कराया था। उस समय हर्ष के कारण भगवान विष्णु की आंखों से प्रेमाश्रु टपक पड़े थे। ब्रह्मा ने उस प्रेमाश्रु को मानसरोवर में डाल कर उसे सुरक्षित कर लिया। इस जल को महापराक्रमी वैवस्वत महाराज ने मानसरोवर से बाहर तक बाण के प्रभाव से प्रकट किया। यह भी उल्लेख मिलता है कि ऋषि वशिष्ठ की तपस्या से सरयू का प्रादुर्भाव हुआ है। जिस प्रकार गंगा नदी को भगीरथ धरती पर लाए थे। उसी प्रकार सरयू नदी को भी धरती पर लाया गया था।राजा मनु के पुत्र इक्ष्वाकु हुए जिन्होंने अपने गुरु वशिष्ठ से अयोध्या में सरोवर निर्माण की बात कही। जिसके बाद वशिष्ठ ऋषि ने अपने पिता ब्रम्हा से सरयू के अवतरण की प्रार्थना किया था ।ब्रम्हा जी ने अपने कमंडल से ही सरयू का अवतरण कराया। इस प्रकार  भगवान विष्णु की मानस पुत्री सरयू नदी को धरती पर लाने का श्रेय ब्रह्मर्षि वशिष्ठ को ही जाता है । सरयू नदी का नाम सुनते ही मन राम की नगरी में अनायास ही पहुंच जाता है।  

जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि,उत्तर दिसि बह सरजू पावनि।

       नेपाल से डोरीगंज (बलिया) तक कुल सरयू की लंबाई- 1080 किमी है। इनमे यह नेपाल में 507 किमी व भारत में 573 किमी तक विस्तारित है। इसकी लंबाई बस्ती में 80 किमी, गोरखपुर में 77 किमी है।
         भौगोलिक दृष्टि से देखा जाए तो सरयू नदी वास्तव में शारदा नदी की ही एक सहायक नदी है। यह नदी उत्तराखंड में शारदा नदी से अलग होकर उत्तर प्रदेश की भूमि के माध्यम से अपना प्रवाह जारी रखती है। यह गंगा नदी की सात सहायक नदियों में से एक है और इतनी पवित्र मानी जाती है कि यह मानव जाति की पापों को धो देती है। कवि राम धारी सिंह दिनकर ने कहा है -
वह मृतकों को मात्र पार उतारती,

                  यह जीवितों को यहीं से तारती।।
शिव और पार्वती मां भी इसे लाने का प्रयास किए :-
स्कंद पुराण में वर्णित कथा अनुसार एक समय मार्कंडेय नाम के ऋषि नील पर्वत पर तपस्या कर रहे थे और ब्रह्मर्षि वशिष्ठ देवलोक से विष्णु की मानस पुत्री सरयू को लेकर आ रहे थे। लेकिन तपस्या में लीन मार्कंडेय ऋषि के कारण सरयू नदी को आगे बढ़ने का रास्ता नहीं मिल रहा था। इस पर ब्रह्माजी और ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने शिवजी को अपनी व्यथा सुनाई और संकट को दूर करने का निवेदन किया। इस पर आदिदेव महादेव ने तब बाघ का रूप धारण किया और माता पार्वती ने गाय का रूप धारण किया। मां पार्वती गाय के रूप में पास ही घास चरने लगीं। तभी वहां बाघ के रूप में पहुंचे महादेव ने गर्जना की, भयंकर दहाड़ सुनकर गाय डर के कारण जोर-जोर से रंभाने लगी। इससे मार्कंडेय ऋषि की समाधि भंग हो गई। जैसे ही मार्कंडेय ऋषि गाय को बचाने को दौड़े तो सरयू नदी आगे बढ़ने का रास्ता मिल गया। भगवान शिव ने जिस स्थान पर शेर का रूप धारण किया था। बाद में उस स्थान का नाम व्याघ्रेश्वर तथा बागेश्वर पड़ा और यहां भगवान शिव के बागनाथ मंदिर की स्थापना की गई।
4-
वरस्रोत और सरयू से मिलने वाली कुटिला/ टेढ़ी नदी :-
बहराइच के चित्तौड़ झील से निकलकर अयोध्या के सरयू नदी में मिलने वाली यह नदी टेढ़े मेढे़ रास्ते से हो कर गुजरती है। इसी लिए इसे टेढ़ी नदी कहा जाता है। इस नदी को कुटिला गंगा के नाम से भी जाना जाता है।  इसका उद्गम से चंदवतपुर घाट तक लगभग 130 किमी  है। आगे बढ़कर अयोध्या के निकट कपिल ग्राम मंहगूपुर /लोलपुर तक जाकर यह नदी सरयू नदी में मिलती है। यह स्थान श्री कपिल मुनि मंदिर के नाम से नवाबगंज के समीप महंगूपुर गांव में प्रसिद्ध है। कपिल मुनि को भी भगवान विष्णु के 24 अवतारों में से एक माना जाता है। यहां सरयू और कुटिला नामक दो नदियों का संगम स्थल है।
       कुटिला वरस्रोत नदी का संग चौघडिय़ा घाट के नाम से भी जाना जाता है। यह स्थान स्वप्नेश्वरी देवी से पूरब दिशा में वरस्रोत नाला में स्थित है।  पहले यहां वरस्रोत और कुटिला (टेढ़ी नदी) का संगम था लेकिन अब यहां पर टेढ़ी नदी ही प्रवाहित होती हैं। यहां पर हनुमान जी का एक मंदिर भी है। इस संगम स्थान पर स्नान करने से समस्त पापों का नाश होता है। मान्यता है कि कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि को यहां पर श्रद्धापूर्वक स्नान-दान से समस्त दुष्कर्मों का नाश होता है और देवलोक की प्राप्ति होती है।
5-
मनोरमा नदी :-
मखौड़ा के आस पास कोई नदी नहीं थी। यज्ञ के समय मनोरमा नदी का अवतरण कराया गया था। गोण्डा जिला मुख्यालय से 19 किमी. की दूरी पर इटिया थोक नामक जगह स्थित है। यहां उद्दालक ऋषि का आश्रम मनोरमा मंदिर तथा तिर्रे नामक एक विशाल सरोवर है। इस स्थान की उत्पत्ति महाभारत के शल्य पर्व में वर्णित है। उद्दालक द्वारा यज्ञ का अनुष्ठान करके सरस्वती नदी को मनोरमा के रूप में यहीं प्रकट किया था। तिर्रे तालाब के पास उन्होंने अपने नख से एक रेखा खीचंकर गंगा का आहवान किया तो गंगा सरस्वती ( मनोरमा ) नदी के रूप में अवतरित हुई थीं। जिस मख स्थान पर राजा दशरथ ने यज्ञ किया था, उसी से स्पर्शित मनोरमा नाम की नदी बहती है। इस नदी का वर्णन महाभारत में भी मिलता है। 84कोसी परिक्रमा करने वाले श्रद्धालु मनोरमा का जल शिरोधार्य कर परिक्रमा की शुरुआत करते हैं।
6-
तमसा नदी  छोटी सरजू:-
तमसा का उल्लेख वाल्मीकीय रामायण में अयोध्या के निकट बहने वाली छोटी नदी के रूप में हुआ है। यह अम्बेडकर नगर से निकलकर आज़मगढ़, मऊनाथ भंजन (मऊ) होते हुए बलिया जिले में गंगा में मिलती है। इसकी लम्बाई 89 कि०मी० है। वन गमन के दौरान भगवान राम ने प्रथम रात्रि इसी नदी के तट पर गुजारी। अयोध्या जिला के मवई कस्बा के निकट जिस लखनी पुर गांव से तमसा का प्रादुर्भाव हुआ, वह अयोध्या जिला में होने के साथ 84कोसी परिक्रमा का प्रमुख पड़ाव भी है।वर्तमान में यह तमसा नदी अयोध्या (जिला फैजाबाद) से लगभग 12 मील दक्षिण में बहती हुई लगभग 36 मील के बाद अकबरपुर के पास बिसवी नदी से मिलती है तथा इसके बाद संयुक्त नदी का नाम टौंस हो जाता है, जो कि तमसा का ही अपभ्रंश माना गया है । यह टौंस नदी आजमगढ़, मऊ जिले में बहती हुई बलिया के पश्चिम में गंगा में मिल जाती है।
7-
वेदश्रुति बिसुही नदी :-
सरयू से वेदश्रुति तक अयोध्या फैली हुई थी । वह वेद- श्रुति अयोध्या से 24 मील की दूरी पर होनी चाहिये । इसे आजकल विसुई कहते और यह सुलतानपुर जिले से निकल कर आजकल भी अयोध्या जिले की सीमा बनाती हुई इलाहाबाद-फैजाबाद रेलवे लाइन को खुजरहट स्टेशन से दो मील की दूरी पर काटती हुई अकबरपुर के पास मड़हा से मिल जाती है और वहाँ से इसे टोंस ( तमसा) कहते हैं। रामनगरी की 84कोसी परिक्रमा की परिधि गोमती नदी स्पर्श करती है।
8-
तिलोदकी गंगा /तिलैया नदी:-
अयोध्या में बहने वाली गंगा ‘तिलोदकी गंगा’ थी, जिसकी बाबत पौराणिक मान्यता है ।महारानी कैकेयी राजा दशरथ से विवाह के बाद जब अयोध्या आई तो उनके पिता अष्टपति ने विशेष प्रकार के घोड़े भेजे थे । राजा राम ने सिंधु देश के घोड़ों के पानी पीने के लिए दूसरी सिंधु नदी और दूसरे समुद्र की भांति इस नदी का निर्माण कराया था। इन घोड़ों को पीने के लिए उनके अनुकूल जल अयोध्या में नहीं था,इसलिए कश्मीर से गंगा नदी अयोध्या लाई गई l इस गंगा का पानी काले तिल के रंग के होने के नाते इनका इस नदी का नाम तिलोदकी गंगा पड़ा l
       1905 के फैजाबाद गजेटियर में इसका जिक्र तत्कालीन फैजाबाद जिले के मंगलसी नामक स्थान से निकलने वाली छोटी नदी के रूप में किया गया है, जिसे तिलई या तिलंग कहा जाता था और जो अयोध्या के पूर्व में सरयू की मुख्य धारा में मिलकर मंगलसी के पूर्व और हवेली अवध के पश्चिम से होकर बहा करती थी। रामनगरी में ही सीताकुंड के करीब तिलोदकी और सरयू का संगम पवित्र स्थल के रूप में प्रतिष्ठित रहा है। प्रत्येक वर्ष भाद्र माह की अमावस्या को यहां स्नान के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते रहे। अतिक्रमण के चलते गत चार-पांच दशक के दौरान तिलोदकी लुप्त हो गईं। राजस्व अभिलेखों में तिलोदकी का बेसिन अभी भी दर्ज है। पौराणिक तिलोदकी गंगा (तिलैया) नदी दो तहसील सदर और तीन ब्लॉकों सोहावल, मसौधा और पूरा बाजार से होते हुए अपनी लगभग 47 किमी. की यात्रा पूरी करती है। इसके बाद यह सरयू में मिल जाती हैं।
        संभेदा तीर्थ को 'तिलोदकी' के रूप में जाना जाता है, जहां पानी भी काले तिल का रंग होता है और काले तिल के साथ 'पितृत्रय' के लिए उपयोग किया जाता है।  भाद्रपद कृष्ण अमावस्या पर त्रयस्थ पित्रों के कष्टों को दूर करने में मदद करते हैं और उनके सात के पाप नारायण की पूजा से जल जाते हैं। रुद्रयामल ग्रंथ,स्कंद पुराण में तिलोदकी गंगा का उल्लेख है जो कश्मीर से गुप्त रूप से अयोध्या आई हैं l ये अधिकांश स्थानों पर गुप्त हैं जबकि अयोध्या में 50 किलोमीटर के दायरे में इनका कहीं वजूद मिलता है तो कहीं गुप्त रहती है। प्रतीक रूप में मणि पर्वत, यज्ञवेदी के पास पौराणिक रूप से मुखर होने के अतिरिक्त इसकी सूक्ष्म उपस्थिति को इन दोनों ही स्थानों पर एक लम्बी पतली सूख चुकी धारा के रूप में आसानी से देखा जा सकता है. इसका विस्तार क्षेत्र अयोध्या के पंचकोसी परिक्रमा मार्ग से चौदह कोसी परिक्रमा मार्ग की ओर जाने पर इसी मार्ग के समानांतर मिलता है, जो पूरी तरह खेतों में बदल चुका है और नदी तो क्या छोटे तालाब के रूप में भी दिखाई नहीं देता.तिलोदकि नदी को लगभग भरकर क़ब्ज़ा किया जा चुका है
9-
कल्याणी नदी:– 
कल्याणी स्थानीय मूल की एक छोटी नदी है। यह अपनी सहायक नदियों के साथ बहते हुये जिले के अधिकांश केंद्रीय भू-भाग को सम्मिलित करती है। कल्याणी वर्षा ऋतु के दौरान कहर पैदा करती है ओर  जिले का काफी हिस्सा बाढ़ ग्रस्त हो जाता है, हालांकि ग्रीष्म काल में नदी के कुछ हिस्सों में शायद ही पानी रहता हो। यह वर्ष की अधिकांश अवधि के लिए पानी का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, तथा कई स्थानों के तटों पर अवसादन की स्थिति है।बाराबंकी और सीतापुर के बॉर्डर से निकलकर अयोध्या तक जाने वाली 173 किलोमीटर लंबी कल्याणी नदी इस इलाके में दम तोड़ चुकी थी, लेकिन बाराबंकी प्रशासन ने पहले पायलट प्रोजेक्ट के जरिए इसका कायाकल्प कर दिया. अब पूरे नदी के प्रवाह को पुनर्जीवित करने की कोशिश हो रही है.
10-
रामरेखा नदी :-
यह तीर्थस्थल बस्ती जिले में के छावनी क्षेत्र के अमोढ़ा गांव में स्थित है। यहां श्रीराम जी का मंदिर और भगवान शिव का शिवलिंग स्थापित है। रामरेखा नदी इसी मंदिर से सटकर प्रवाहित होती है। यहां पहुंचकर स्थल की ऊर्जा को महसूस किया जा सकता है। ग्रंथों में कहा गया है कि जनकपुर में विवाह के पश्चात शुद्ध लग्न में गुरु वशिष्ठ की आज्ञा से अयोध्या के लोग बारात वापसी में निकले थे। यात्रा में शामिल लोगों ने इसी स्थान पर विश्राम किया। गुरूदेव की आज्ञा से यहीं पर उनकी प्यास शांत करने के लिए श्रीरामचंद्र जी ने अपने धनुष से एक रेखा खींच दी थी। उस स्थान से जो दिव्य जल प्रवाहित हुआ उसी का नाम रामरेखा नदी के नमाम पर रामरेखा तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 84 कोसी परिक्रमा का यह प्रथम विश्राम स्थान है।
11-
शारदा नदी:-
काली नदी, जिसे महाकाली, कालीगंगा या शारदा के नाम से भी जाना जाता है। काली नदी सरयू नदी की सबसे बड़ी सहायक नदी है।काली नदी की कुल लंबाई 460 किमी है। पश्चिमी काली नदी उत्तर प्रदेश के सहारनुपर जिले में शिवालिक से 25 किमी दक्षिण से निकलकर दक्षिण- पश्चिम तथा दक्षिण की ओर सहारनपुर तथा मुजफ्फरनगर जिलों में बहती है। मेरठ जिले की उत्तरी सीमा पर यह हिंडन नदी में समा जाती हैं। इस नदी का उद्गम उत्तराखण्ड राज्य के पिथौरागढ़ जिले में वृहद्तर हिमालय में 5000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित कालापानी नामक स्थान से होता है, और लिपु-लीख दर्रे के निकट भारत और तिब्बत की सीमा पर स्थित काली माता के एक मंदिर से इसे अपना नाम मिलता है। अपने ऊपरी मार्ग पर यह नदी नेपाल के साथ भारत की निरंतर पूर्वी सीमा बनाती है, जहां इसे महाकाली कहा जाता है। यह नदी उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश के मैदानी क्षेत्रों में पहुँचने पर शारदा नदी के नाम से भी जानी जाती है।
12-
सेती नदी :-
यह नदी नेपाल में बहने वाली एक नदी है। यह कर्णाली नदी (घाघरा नदी) की एक उपनदी है। कर्णाली स्वयं गंगा नदी की उपनदी है। यह हिमालय के अपि और नम्पा पर्वतों की हिमानियों से उत्पन्न होती है। यह पहले दक्षिणपूर्व दिशा में बहती है और फिर मुड़कर दक्षिणपश्चिम दिशा में बहने लगती है। डोटी ज़िले में यह बुढीगंगा नदी से संगम करती है और फिर इनकी संयुक्त धारा (जो सेती कहलाती है) कर्णाली नदी में विलय हो जाती है।
13-
बाबई नदी :-
 मध्य-पश्चिमी नेपाल की आंतरिक तराई डांग घाटी से डिफ़ॉल्ट है और पूरी तरह से इसमें से निकलना है । दंग महाभारत श्रेणी और इसी नाम के जिलों में शिवालिक पर्वतों के बीच एक शत्रुतापूर्ण घाटी है । 
14-
राप्ती/अचिरावती नदी :-
अचिरावती राप्ती नदी का प्राचीन नाम हैं। अचिरावती को अचिरवती नदी और अजिरावती नदी के नाम से भी जाना जाता था। राप्ती नदी  या पश्चिम राप्ती नदी नेपाल के मध्य-पश्चिमाञ्चल विकास क्षेत्र और भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में बहने वाली एक नदी है। यह घाघरा नदी (कर्णाली नदी) की एक उपनदी है, जो स्वयं गंगा नदी की एक उप नदी है। राप्ती नदी मध्य नेपाल के दक्षिणी भाग की निचली पर्वतश्रेणियों में प्यूथान नगर के उत्तर से निकलती है। गंगा के मैदान में उतरने से पूर्व यह कुछ दूर तक शिवालिक पर्वत के समांतर पश्चिम दिशा में बहती है और मैदानी भाग में पूर्व एवं दक्षिण-दक्षिण-पूर्व दिशाओं में प्रवाहित होकर बरहज नगर (जिला देवरिया, उत्तर प्रदेश) के समीप घाघरा नदी से मिलती है। यह उत्तर प्रदेश के बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, सिद्धार्थनगर एवं गोरखपुर जिलों के धान एवं गन्ना उत्पादक क्षेत्रों के मध्य से होकर बहती है बाँसी, डुमरियागंज एवं गोरखपुर इस नदी पर स्थित मुख्य नगर हैं। इसकी सहायक नदियों में मुख्यत: उत्तर के तराई प्रदेश से निकलने वाली छोटी छोटी अनेक नदियाँ हैं। नदी की कुल लंबाई 600 किलोमीटर है। यह गोरखपुर से नीचे की ओर बड़ी नौकाओं द्वारा नौगम्य है।
15-
इरावती नदी :-
इरावती नदी नदी का नाम संस्कृत शब्द इरावती या ऐरावत से आया है। हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार इरावती एक पवित्र नदी एवम एक देवी का नाम है और एरावत उनके पुत्र का नाम था जो कि देवराज इन्द्र के वाहन थे।
उत्तरी बर्मा में स्थित एनमाइ एवम माली नदी का संगम इरावती नदी का उद्गम स्थान है। अंडमान सागर से 290 किलोमीटर पुर्व यह नदी एक विशाल डेल्टा का निर्माण करती है। इस डेल्टा के पश्चिमी एवम पूर्वी सीमा क्रमशः पाथेन(बासेन) एवम यांगोन नदी बनाती है।
16-
छोटी गंडक नदी:-
छोटी गण्डक एक नदी है जो नेपाल से निकलकर भारत के उत्तर प्रदेश में प्रवेश करती है। यहाँ यह महराज गंज, कुशीनगर, देवरिया जनपदों में बहती हुई अन्ततः घाघरा में मिल जाती है।
17-
झरही नदी :-
झरही  घाघरा की सहायक नदी है। झरही नदी के उद्भव स्थल के बारे में मतैक्य नहीं है। कोई इसे करम झनी ताल से निकला बताता है, तो कोई इसे नारायणी या बांसी नदी का छाड़न बताता है। पडरौना के खिरकिया स्थान से और कुछ पहले से पूर्णत : अस्तित्व में आती यह नदी प्रतापपुर के पास खनुआ नदी में जाकर मिलती है।

             लेखक आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी 

Monday, November 13, 2023

राम की तरह मत्स्य अवतार की घटना अयोध्या में हुआ था आचार्य डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

अयोध्या हिंदुओं और उससे उद्भृत बौद्धों, जैनियों और सिक्खों का सबसे प्राचीन नगर रहा है। वह सात पवित्र  (सप्त तीर्थ पुरियों) में एक है। अथर्ववेद में इसे ईशपुरी कहा गया है। इसके वैभव की तुलना स्वर्ग से की गई है। इसका निर्माण भगवान राम के जन्म से बहुत पहले हो चुका था। अयोध्या में भगवान राम का जन्म हो इसके लिए देवताओं और ऋषि- मुनियों ने इसकी चौरासी कोस की परिधि में सालों तक कठोर तप किया, जिसके परिणाम स्वरूप भगवान विष्णु ने राम का अवतार लिया था । कई शताब्दी तक यह नगर सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी रहा। वैवस्वत मनु ने ही कोसल देश बसाया और अयोध्या को उसकी राजधानी बनाया था ।
        वैवस्वत मनु को  श्रद्धा देव और सत्यव्रत भी कहा जाता है, वर्तमान मनु हैं मानव जाति के पूर्वज रहे। वह हिंदू ब्रह्मांड विज्ञान के वर्तमान कल्प के 14 मनुओं में से सातवें हैं। वह सूर्य देवता विवस्वान के पुत्र रहे ,जिन्हें सूर्य के नाम से भी जाना जाता है । मत्स्य पुराण में लिखा है कि अपना राज अपने बेटे को सौंप कर मनु मलय पर्वत पर तपस्या करने चले गये। दक्षिण भारत के एक पर्वत का नाम मलय है। यह पश्चिमी घाट में मैसूर राज्य के दक्षिण और ट्रावंकोर के पूर्व में है । आजकल इसको 'तिरुवांकुर की पहाड़ी' कहते हैं। यहाँ हजारों वर्ष तक तपस्या करने पर ब्रह्मा उनसे प्रसन्न होकर बोले - "बर मांग"। 
    राजा उनको प्रणाम करके बोले, "मुझं एक ही बर मांगना है। प्रलय काल में मुझे जड़ चेतन सब की रक्षा की शक्ति मिले" | इसपर 'एवमस्तु' कहकर ब्रह्मा अन्तर्धान हो गये और देवताओं ने फूल बरसाये थे। इसके अनन्तर मनु फिर अपनी राजधानी को लौट आये । 
         एक दिन पितृ तर्पण करते हुये उनके हाथ से पानी के साथ एक नन्ही सी मछली गिर पड़ी। दयालु राजा ने उसे उठाकर घड़े में डाल दिया। परन्तु दिन में वह नन्ही सी मछली इतनी बड़ी हो गयी कि घड़े में न समायी। मनु ने उसे निकाल कर बड़े मटके में रख दिया ।
        जब मछली तीन हाथ की हो गयी और मनु से कहने लगी ,  राजन आप हम पर दया कीजिये और हमें बचाइये । तब मनु ने उसे मटके में से निकाल कर कुयें में डाल दिया । थोड़ी देर में कुआं भी छोटा पड़ गया तब वह मछली एक बड़े तलाव में पहुँचा दी गयी । यहाँ वह योजन भर लम्बी हो गई तब मनु ने उसे (गंगा = सरयू नदी) में डाला । वहाँ भी वह बढ़ी तो महासागर भेज दी गयी। फिर भी उसकी बाढ़ न रुकी तब तो मनु बहुत घबराये और कहने लगे "क्या तुम असुरों के राजा हो ? या साक्षात् बासुदेव हो जो बढ़ते बढ़ते सौ योजन के हो गये । हम तुम्हें पहचान गये, तुम केशव हृषीकेश जगन्नाथ और जगद्धाम हो।" 
     भगवान् बोले "तुमने हमें पहचान लिया । थोड़े ही दिनों में प्रलय होने वाली है , जिसमें बन और पहाड़ सब डूब जायेंगे । सृष्टि को बचाने के लिये देवताओं ने यह नाव बनायी है । इसी में स्वंदज, अण्डज, उद्भिज और जरायुज रक्खे जायेंगे । तुम इस नाव को ले लो और आनेवाली विपत्ति से सृष्टि को बचाओ। जब तुम देखना कि नाव बही जाती है तो इसे हमारे सींघ में बाँध देना । दुखियों को इस संकट से बचाकर तुम बड़ा उपकार करोगे । तुम कृतयुग में एक मन्वन्तर राज करोगे और देवता तुम्हारी पूजा करेंगे।" 
        मनु ने आगे मत्स्य रूपा प्रभु से पूछा कि प्रलय कब होगी और आप के फिर कब दर्शन होंगे। मत्स्य भगवान् ने उत्तर दिया कि “ सौ वर्ष तक अनावृष्टि होगी, फिर काल पड़ेगा और सूर्य की किरणें ऐसी प्रचंड होंगी कि सारे जीव जन्तु भस्म हो जायेंगे फिर पानी बरसेगा और सब जल - थल हो जायगा। उस समय हम सींगधारी मत्स्य के रूप में प्रकट होंगे। तुम इस नाव में सब को भर कर इस रस्सी से हमारे सींग में बाँध देना। 
       मत्स्य रूपा प्रभु ने अयोध्यापुरी का वर्णन करते हुए कहा कि जिस प्रकार मत्स्य का आकार होता है। उसी प्रकार से अयोध्या का आकार होगा । अयोध्या 12 योजन लंबी और 3 योजन चौड़ी है। सृष्टि के शुरुआत में, भगवान ब्रह्मा ने पृथ्वी के पहले चार पीढ़ी इस प्रकार बनाई थी। शुरुवात में पहली पीढ़ी की शुरूआत सबसे पहले ब्रह्मा की उत्पत्ति से हुई। दूसरी पीढ़ी में ब्रह्मा जी के पुत्र मरीचि हुए थे। तीसरी पीढ़ी  में मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। चौथी पीढ़ी  में कश्यप के पुत्र हुए विवस्वान हुए। ये सब ब्रह्म देव की प्रेरणा और आशीर्वाद से आगे बढ़ते रहे। भगवान सूर्य के पुत्र वैवस्वत मनु को बनाया। भगवान सूर्य के पुत्र होने के कारण मनु जी सूर्यवंशी कहलाए और उन्हीं से यह वंश सूर्यवंश कहलाया। बाद में अयोध्या के सूर्यवंश में प्रतापी राजा रघु ने कहा। राजा रघु से इस वंश को रघुवंश कहा गया। इक्ष्वाकु वंश के आचार्य वशिष्ठ जी थे जिन्होंने इस प्रकार श्री राम के वंश का वर्णन किया है -
"इक्ष्वाकु वंश सूर्य वंश या रघुवंश के राम के पूर्वजों को 
पांचवी पीढ़ी में विवस्वान के पुत्र वैवस्वत हुए। जैसा कि रामायण में बताया गया है, अयोध्या की खोज मूल रूप से हिंदू कानून-निर्माता मनु ने की थी। जल प्लावन मत्स्य अवतार वेदों की रक्षा और अयोध्या नगर को बसाने में सतयुग की ब्रह्मा आदि सहित पांच पीढ़ियां अपने को न्योछावर कर दी थीं।
        भगवान विष्णु का यह अवतार सृष्टि के अंत में हुआ था जब प्रलय काल आने में कुछ वक्त बचा था। मत्स्य अवतार भगवान विष्णु के प्रथम अवतार रहा है। मछली के रूप में अवतार लेकर भगवान विष्णु ने एक ऋषि सत्यव्रत मनु को सब प्रकार के जीव-जंतु एकत्रित करने के लिए कहा था। आप एक बड़ी सी नाव बना लीजिए और उसमें सभी प्रकार की औषधि और बीज रख लीजिए ताकि प्रलय के बाद फिर से सृष्टि के निर्माण का कार्य पूरा हो सके।
       प्रलय आने से पहले भगवान सत्यव्रत के पास आए और उनसे कहा कि आप अपनी नाव को मेरी सूंड में बांध दीजिए। सत्यव्रत परिवार सहित नाव पर सभी प्रकार के बीज और औषधि लेकर सवार हो गए और प्रलय काल के अंत तक भगवान विष्णु के मत्स्य अवतार के सहारे महासागर में तैरते रहे। मत्स्य अवतार में भगवान ने चारों वेदों को अपने मुंह में दवाए रखा और जब पुनः सृष्टि का निर्माण हुआ तो ब्रह्मा जी को वेद सौंप दिए। इस तरह भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार लेकर प्रलय काल से लेकर सृष्टि के फिर से निर्माण का काम पूरा किया।
       एसी भी कथा है कि सृष्टि के निर्माण के समय जब चारों तरफ जल ही जल था तब पृथ्वी की स्थापना के लिए मत्स्य भगवान ही महासागर के तल में जाकर अपने मुंह में मिट्टी लेकर आए थे और इससे जल के ऊपर पृथ्वी का निर्माण किया गया था।
        एक दूसरी मान्यता के अनुसार एक बार ब्रह्माजी की असावधानी के कारण एक राक्षस ने जब वेदों को चुराकर सागर की अथाह गहराई में छुपा दिया । उस दैत्य का नाम हयग्रीव था। वेदों को चुरा लिए जाने के कारण ज्ञान लुप्त हो गया। चारों ओर अज्ञानता का अंधकार फैल गया और पाप तथा अधर्म का बोलबाला हो गया। तब भगवान विष्णु ने धर्म की रक्षा के लिए मत्स्य रूप धारण करके हयग्रीव का वध किया और वेदों की रक्षा की।भगवान ने ब्रह्माजी को पुन: वेद दे दिए। इस प्रकार भगवान ने मत्स्य रूप धारण करके वेदों का उद्धार तो किया ही, साथ ही संसार के प्राणियों का भी अमिट कल्याण किया।
वाल्मीकि रामायण में अयोध्या का वर्णन :-
अयोध्या नगर के वैभव का वर्णन वाल्मीकि रामायण में विस्तार से आता है। ऋषि वाल्मीकि रामायण के ‘बालकांड’ में अयोध्या का वर्णन करते हुए कहते हैं –
कोसलो नाम मुदितः स्फीतो जनपदो महान् ।
निविष्ट सरयूतीरे प्रभूतधनधान्यवान ।।
अयोध्या नाम नगरी तत्रासील्लोकविश्रुता ।
मनुना मानवेंद्रेण या पुरी निर्मिता स्वयंम् ।।
आयता दश च द्वे च योजनानि महापुरी ।
श्रीमती त्रीणि विस्तीर्णा सुविभक्तमहापथा ।।
(अर्थात  -- सरयू नदी के तट पर एक खुशहाल कोशल राज्य था । वह राज्य धन और धान्य से भरा पूरा था । वहां जगत प्रसिद्ध अयोध्या नगरी है । रामायण के अनुसार इसका निर्माण स्वयं मानवों में इंद्र मनु ने किया था । यह नगरी बारह योजनों में फैली हुई थी । अयोध्या भगवान बैकुण्ठ नाथ की थी | इसे महाराज मनु पृथ्वी के ऊपर अपनी सृष्टि का प्रधान कार्यालय बनाने के लिए भगवान बैकुण्ठनाथ से मांग लाये थे।)
        बैकुण्ठ से लाकर मनु ने अयोध्या को पृथ्वी पर अवस्थित किया और फिर सृष्टि की रचना की | उस विमल भूमि की बहुत काल तक सेवा करने के बाद महाराज मनु ने उस अयोध्या को इक्ष्वाकु को दे दिया | वह अयोध्या जहाँ पर साक्षात भगवान ने स्वयं अवतार लिया | सभी तीर्थों में श्रेष्ठ एवं परम मुक्ति धाम है |मुनि लोग विष्णु भगवान के अंगों का वर्णन करते हुए अयोध्यापुरी को भगवान का मस्तक बतलाते हैं ।समस्त लोकों के द्वारा जो वन्दित है, ऐसी अयोध्यापुरी भगवान आनन्दकन्द के समान चिन्मय अनादि है | यह आठ नामों से पुकारी जाती है अर्थात इसके आठ नाम हैं हिरण्या, चिन्मया, जया, अयोध्या, नंदिनी, सत्या, राजिता और अपराजिता । भगवान की यह कल्याणमयी राजधानी साकेतपुरी आनन्दकन्द भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक का हृदय है | इस देश में पैदा होने वाले प्राणी अग्र जन्मा कहलाते हैं | जिसके चरित्रों से समस्त पृथ्वी के मनुष्य शिक्षा ग्रहण करते हैं | मानव सृष्टि सर्वप्रथम यहीं पर हुई थी |
 यह अयोध्यापुरी सभी बैकुण्ठों (ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, विष्णुलोक, गोलोक आदि सभी देवताओं का लोक बैकुण्ठ है) का मूल आधार है | तथा जो मूल प्रकृति है (जिसमें दुनिया पैदा हुई है) उससे भी श्रेष्ठ है | यह सदरूप है यह ब्रह्ममय है सत, रज, तम इन तीनों गुणों में से रजोगुण से रहित है | यह अयोध्यापुरी दिव्य रत्नरूपी खजाने से भरी हुई है और सर्वदा नित्यमेव श्रीसीतारामजी का बिहार स्थल है ।
अयोध्या का परिमाप :-
अयोध्या का परिमाप स्कंध पुराण के वैष्णव खंड अयोध्या महात्म्य १ /६४–६५ में कहा गया है कि सहस्रधारा (लक्ष्मण घाट) इसका मध्य भाग है। इससे एक योजन पूर्व,सरयू नदी से एक योजन दक्षिण, समंत से एक योजन पश्चिम तथा तमसा नदी से एक योजन उत्तर तक अयोध्या नगरी रही है।
अयोध्या का मत्स्याकार स्वरूप:-
विष्णोस्ससुदर्शने चक्रेस्थिता पुण्यांकुरा सदा।
यत्र साक्षात् स्वयं देवो विष्णुर्वसति सर्वदा।।
सहस्रधारामारभ्य योजनं पूर्वतो दिशि।
पश्चिमे च यथा देवि योजनं संमतोवधि।।
मत्स्याकृतरियं भद्रे पुरी विष्णो रुदिरिता।
पश्चिमेतस्य मूर्धा तू गोप्रताराश्रता प्रिये।।
पूर्वत: पुच्छभागो हि दक्षिणोत्तर मध्यमा।।
एतत् क्षेत्रस्य संस्थानम् हरेरंतगृहम स्मृतम।
(अर्थात अयोध्या में श्रीहरि विष्णु के सुदर्शन चक्र पर स्थित है। यहां सदैव पुण्य का वास रहता है। वह स्वयं सदैव यहां् विराजमान रहते हैं। अयोध्या का निर्धारण करते हुए पुराण में कहा गया है कि सहस्रधारा (लक्ष्मण घाट) इसका मध्य स्थल है। इससे एक योजन पूरब इसका पुच्छ भाग तो एक योजन पश्चिम इसका सिर भाग है। इसकी आकृति मत्स्याकार है। साथ ही इसका मध्य भाग उत्तर से दक्षिण है।)
        भौगोलिक परिवर्तनों के बावजूद अयोध्या आज भी मनु से बसाई गई अयोध्या के स्वरूप में है। पश्चिम में गुप्तारघाट तो पूरब में बिल्वहरिघाट को यहां के लोग सिर व पुच्छ भाग मानते हैं।  सहस्रधारा आज भी अयोध्या के मध्य भाग में स्थित है। प्राचीन अयोध्या को कोसल साकेत, इच्छवाकु भूमि और रामपुरी आदि के नाम से भी जाना जाता है। इक्ष्वाकु वैवस्वत मनु के सबसे बड़े पुत्र थे। धरती का दूसरा नाम पृथ्वी इस वंश के छठे राजा पृथु के नाम पर पड़ा। गंगा को पृथ्वी पर लाने वाले इसी वंश परंपरा के भगीरथ थे। बाद में अयोध्या का इतिहास रघुवंश के नाम से आगे बढ़ा। 
वासुदेव घाट अयोध्या में मत्स्य अवतार का अवतरण:-
वासुदेव घाट भगवान विष्णु के अवतार की कथा से जुड़ा है।  यह अयोध्या के सबसे पुराने घाटों में से एक रहा है।  अब यह स्नान घाट नहीं रहा है क्योंकि सरयू नदी उत्तर की ओर खिसक गई है और वह स्थान सूख गया है। यहां अनेक प्राचीन मंदिर और घनी आबादी बस गई है। पर बासुदेव घाट की कथा अभी भी बनी है। अयोध्या नगर निगम में वासुदेव घाट, वार्ड दक्षिण- वेदान्ती मंदिर कारसेवक पुरम से रामघाट चौराहा से श्यामा सदन होते हुए बाईपास मार्ग तक फैला है। 1960 के दशक तक यहां स्नान अनुष्ठान किया जाता था। बाद में नदी उत्तर की ओर बढ़ गई, जिसके घाट में पानी नहीं रह गया। राजमार्ग और रेलवे परियोजना ने वासुदेव घाट की आश्चर्यजनक वास्तुकला और भी प्राचीन बना ली है। आज वासुदेव घाट चौदह कोसी प्रतिमा का एक महत्वपूर्ण अवलोकन है। तीर्थयात्री अभी भी इस पवित्र स्थल पर आते हैं और तीर्थयात्रा करते हैं। मान्यता है कि  कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान विष्णु मत्स्य का अवतार लिए थे।मत्स्य अवतार ने वैवस्वत मनु की अवधि के दौरान महान जलप्रलय की स्थापना की थी। जब जलप्रलय का पानी कम हुआ तो सब कुछ खत्म हो गया और मनु अयोध्या में यहां ही प्रकट हुए थे।   कोप भवन में विष्णु के 24 अवतारो का दर्शन होता है :-
अयोध्या में भगवान विष्णु के 24 अवतारो का भी दर्शन होता है. 24 अवतार मंदिर राम जन्म भूमि परिसर के दर्शन मार्ग पर स्थित कोप भवन में है. इसी भवन में रानी केकई ने भगवान राम को 14 वर्ष का वनवास भी दिया था ।  अयोध्या में एकमात्र ऐसा जगह है. जहां भगवान विष्णु के 24 अवतार का अलग-अलग रूपों में दर्शन होता है. इस जगह पर भगवान कृष्ण से लेकर भगवान राम ,कल्कि राम,वराह अवतार , नर नारायण, कपिल मुनि समेत भगवान विष्णु के 24 अवतार के दुर्लभ दर्शन होते हैं।