Sunday, February 26, 2023

श्री सनातन और राम सखा संप्रदाय का अग्रणी केंद्र गालव और पयोहरी कृष्णदास की साधना स्थली गलताजी जयपुर

गलताजी जयपुर से 10 कि.मीअरावली पहाड़ियोंमें एक पहाड़ी दर्रे के अंदर निर्मित तीर्थ स्थल है ।  गैलव ऋषि की तपोभूमि होने के कारण यह "गैलव अजीज" के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। इसका नाम समय के साथ बिगडकर गालव से गलता हो गया। यह आज गलताजी तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। गाल्व ऋषि ने 15वीं शताब्दी पूर्व इस सुरम्य, शांत स्थल को तपस्या के अनुकूल पाकर अपनी तपोभूमि बनाया था।
वे यहां रहते, ध्यान और तपस्या करते थे। वे यहां 100 वर्षों के लिए अपने 'तपस्या' का प्रदर्शन किये थे। उनकी तपस्या से प्रसन्न, देवता गण उनके सामने प्रकट हुए और प्रचुर मात्रा में पानी के साथ दिव्यता की आशीर्वाद दिये थे।
घोड़े के दान की कहानी :-
विश्वामित्र तपस्या में लीन थे। ऋषि गालव सिद्ध ऋषि विश्वामित्र के समर्पित शिष्य या पुत्र थे। उसका यह नाम इसलिए मिला क्योंकि वह कठिन समय पर उसकी मां ने उसके गले में रस्सी बांधकर उसे लगभग एक गुलाम के रूप में बेच दिया (गाला)। वह एक समर्पित शिष्य बन गये और उसने अपने गुरु ऋषि विश्वामित्र की सेवा में बहुत मेहनत की। एक दिन उनकी सेवाओं से कार्य करते हुए, विश्वामित्र ने गालव को उन्हें अपने कर्तव्यों से मुक्त कर दिया।
       उस समय प्रथा था एक छात्र हमेशा अपने गुरु को अपने प्रशिक्षण और शिक्षा के पूरा होने पर 'गुरु दक्षिणा' की पेशकश करता था। लेकिन विश्वामित्र ने गालव से कुछ और लेने से इनकार कर दिया क्योंकि वह पहले ही अपने छात्रों के प्रति पूरी तरह से ऋणी महसूस कर रहे थे। गालव  शिष्य सेवारत थे। धर्मराज ने विश्वामित्र की परीक्षा लेने के लिए वसिष्ठ का रूप धारण किया और आश्रम में जाकर विश्वामित्र से तुरंत भोजन मांगा। विश्वामित्र ने मनोयोग से भोजन तैयार किया किंतु जब तक 'वसिष्ठ' रूप-धारी धर्मराज के पास पहुंचे, वे अन्य तपस्वी मुनियों का दिया भोजन कर चुके थे। यह बतलाकर वे चले गये। विश्वामित्र उष्ण भोजन अपने हाथों से, माथे पर थामकर जहां के तहां मूर्तिमान, वायु का भक्षण करते हुए 100 वर्ष तक खड़े रहे। गालव उनकी सेवा में लगे रहे। सौ वर्ष उपरांत धर्मराज पुन: उधर आये और विश्वामित्र से प्रसन्न हो उन्होंने भोजन किया। भोजन एकदम ताजा था। परम संतुष्ट होकर उनके चले जाने के उपरांत गालव मुनि की सेवा-शुश्रुषा से प्रसन्न् होकर विश्वामित्र ने उसे स्वेच्छा से जाने की आज्ञा दी। उसके बहुत आग्रह करने पर खीज कर विश्वामित्र ने गुरु-दक्षिणा में चंद्रमा के समान श्वेत वर्ण के किंतु एक ओर से काले कानों वाले आठ सौ घोड़े माँगे।गालव निर्धन विद्यार्थी था- ऐसे घोड़े भला कहां से लाता:-  चिंतातुर गालव की सहायता करने के लिए विष्णु ने गरुड़ को प्रेरित किया। गरुड़ गालव का मित्र था। वह गालव को पूर्व दिशा में ले उड़ा। ऋषभ पर्वत पर उन दोनों ने शांडिली नामक तपस्विनी ब्राह्मणी के यहाँ भोजन प्राप्त किया और विश्राम किया। जब वे सोकर उठे तब देखा कि गरुड़ के पंख कटे हुए हैं। गरुड़ ने कहा कि उसने सोचा था कि वह तपस्विनी को ब्रह्मा, महादेव इत्यादि के पास पहुंचा दे। हो सकता है कि अनजाने में यह अशुभ चिंतन हुआ हो। फलस्वरूप उसके पंख कट गये। शांडिली से क्षमा करने की याचना करने पर गरुड़ को पुन: पंख प्राप्त हुए। वहां से चलने पर पुन: विश्वामित्र मिले तथा उन्होंने गुरु दक्षिणा शीघ्र प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की।
        गरुड़ गालव को अपने मित्र ययाति के यहाँ ले गया। ययाति राजा होकर भी उन दिनों आर्थिक संकट में था।
उनके पास ऐसे घोड़े भी नहीं थे, लेकिन दानी ययाति याचक को खाली हाथ जाने भी कैसे देते। तब उन्होंने अपनी बेटी, जिसे दिव्य कोख का वरदान मिला था, उसे गालव को दान कर दिया। माधवी को यह वरदान मिला था कि उसकी कोख से चार यशस्वी चक्रवर्ती सम्राट उत्पन्न होंगे। इसके बावजूद उसका कौमार्य सुरक्षित रहेगा यानी वह सुंदर कुमारी कन्या बनी रहेगी। राजा ययाति ने गालव से कहा, 'आप दैवीय गुणों वाली मेरी इस बेटी के बदले अन्य राजाओं से अपनी दक्षिणा के लिए घोड़े पा सकते हैं। ऐसी गुणवान कन्या के लिए तो राजा अपना राजपाट छोड़ दें, घोड़े क्या चीज़ हैं। बाद में, गुरु दक्षिणा पूरी हो जाने पर मेरी बेटी को वापस मेरे यहां छोड़ जाएं।'
         अत: ययाति ने सोच-विचारकर अपनी सुंदरी कन्या गालव को प्रदान की और कहा कि वह धनवान राजा से कन्या के शुल्क स्वरूप अपरिमित धनराशि ग्रहण कर सकता है, ऐसे घोड़ों की तो बात ही क्या! कन्या का नाम माधवी था- उसे वेदवादी किसी महात्मा से वर प्राप्त था कि वह प्रत्येक प्रसव के उपरांत पुन: 'कन्या' हो जायेगी। किसी भी एक राजा के पास कथित प्रकार के आठ सौ घोड़े नहीं थे। गालव को बहुत भटकना पड़ा।
        पहले वह अयोध्या में इक्ष्वाकुवंशी राजा हर्यश्व के पास गया। उसने माधवी से वसुमना नामक (दानवीर) राजकुमार प्राप्त किया तथा शुल्क-रूप में कथित 200 अश्व प्रदान किये।
      धरोहर स्वरूप घोड़ों को वहीं छोड़ गालव माधवी को लेकर काशी के अधिपति दिवोदास के पास गया। उसने भी 200 अश्व दिये तथा प्रतर्दन नामक (शूरवीर) पुत्र प्राप्त किया।
      तदुपरांत दो सौ घोड़ों के बदले में भोजनगर के राजा उशीनर ने शिवि नामक (सत्यपरायण) पुत्र प्राप्त किया।
गुरुदक्षिणा मं अभी भी 200 अश्वों की कमी थी। माधवी तथा गालव का पुन: गरुड़ से साक्षात्कार हुआ। उसने बताया कि पूर्वकाल में ऋचीक मुनि गाधि की पुत्री सत्यवती से विवाह करना चाहते थे। गाधि ने शुल्क स्वरूप इसी प्रकार के एक सहस्त्र घोड़े मुनि से लिये थे। राजा ने पुंडरीक नामक यज्ञ कर सभी घोड़े दान कर दिये। राजाओं ने ब्राह्मणों से दो, दो सौ घोड़े ख़रीद लिये।
      घर लौटते समय वितस्ता नदी पार करते हुए चार सौ घोड़े बह गये थे। अत: इन छह सौ के अतिरिक्त ऐसे अन्य घोड़े नहीं मिलेंगे। दोनों ने परस्पर विचार कर छ: सौ घोड़ों के साथ माधवी को विश्वामित्र की सेवा में प्रस्तुत किया। विश्वामित्र ने माधवी से अष्टक नामक यज्ञ अनुष्ठान करने वाला एक पुत्र प्राप्त किया। तदपरांत गालव को वह कन्या लौटाकर वे वन में चले गये। गालव ने भी गुरुदक्षिणा देने के भार से मुक्त हो ययाति को कन्या लौटाकर वन की ओर प्रस्थान किया।
     इस कहानी की मुख्य तो यह है कि जब कोई विप्रवर अनुग्रह करे तो हमें हठ या दुराग्रह नहीं करना चाहिए । वरना विश्वामित्र जैसा कोई मिल गया तो गालवमुनि जैसी हालत हो सकती है । बाकि इसमें दक्षिणा को पूरी करने के लिए माधवी का जिस तरह उपयोग गया है, वह निश्चय ही सोच का विषय है या फिर इसमें कोई आध्यात्मिक रहस्य छुपा हो सकता है । अखण्ड ज्योति पर तुलसीदास को मानवता का ज्ञान :-
गलिता जी वह तपोभूमि है, जहां सदियों से अखंड जलती ज्योत अपनी ज्योती से इस धाम को पवित्र कर रही है.राम और कृष्ण के एक रुप के दर्शन भी तुलसीदासजी ने यहीं किए थे और दुनिया को धर्म की राह दिखाने वाले तुलसीदास को मानवता का असली ज्ञान भी यहीं हुआ था.
तपो भूमि पर बसने वाले नाभ जी ऋषि के चमत्कारिक व्यक्तित्व की वजह से तुलसीदास जी को यहां पर रुकना पड़ा था. बताते हैं कि पहले केवल भ्रमण भर के लिए आए तुलसीदास जी ने जब नाभ जी ऋषि के प्रसाद की अवज्ञा की, तो उनके पूरे शरीर में कोढ का रोग हो गया और अनेको अनेक वैध को दिखाने के बाद भी वह ठीक नहीं हुआ। जिसके बाद किसी ज्ञानी ने उन्हें बताया कि उनका ये हाल प्रसाद की अवज्ञा की वजह से हुआ है. फिर जब उन्होंने गलता जी आकर प्रसाद खाया तो उनका रोग ठीक हुआ. लेकिन, फिर भी उन्होने यहां रुकने से मना कर दिया और कहा कि यहां तो केवल भगवान कृष्ण के भक्त हैं और वो राम जी के अनुयायी है। तब भगवान कृष्ण ने तुलसीदास को यहां राम रुप में दर्शन दिए. जिसके बाद इस जगह राम और कृष्ण दोनों की मुरत एक साथ दर्शाई गई है और उसे रामगोपाल जी कहा गया है.तुलसीदास भी इस भूमि के चमत्कारों को मानते थे और इसलिए ही उन्होने अपनी जिंदगी के 3 साल यहां पर बिताए.माना जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास जी भी यहां तीन वर्ष तक रहे थे और ‘रामचरित मानस’ के अयोध्या कांड की रचना उन्होंने यहीं रह कर की थी।
कृष्णदास पयहारी की साधना स्थली:-
गालव ऋषि के बाद यहां एक और तपस्वी हुए, जिनका नाम पयोहारी ऋषि था. ये जाति से ब्राह्मण थे वह एक रामानुजी संत, यानी रामानुज सम्प्रदाय के अनुयायी 15वीं शताब्दी की शुरुआत में गलता आए और अपनी योगिक शक्तियों से अन्य योगियों को वहां से खदेड़ दिया। जहां
गलता (जयपुर) में रामानंदी सम्प्रदाय की प्रमुख मंच की स्थापना की थी। गलताजी को रामानुज संप्रदाय में उत्तर तोताद्रि भी कहते हैं। जिसकी एक प्रमुख गद्दी जयपुर में गलता के पास स्थित रही है।  उस वक्त के सबसे बड़े तपस्वी होने के बावजूद उन्होंने गलता की गद्दी नहीं ली और उनके कई शिष्य गलता की गद्दी पर बैठे. उन्होने तवज्जो सिर्फ अपनी तपस्या को दी. कृष्णदास पयहारी 'रामानंद संप्रदाय' के प्रमुख आचार्य और कवि थे। इनका समय सोलहवीं शती ई. कहा जाता है। कृष्णदास जी रामानंद के शिष्य अनंतानंद के शिष्य थे और आमेर के राजा पृथ्वीराज की रानी बालाबाई के दीक्षागुरू थे। कहा जाता है कि इन्होंने 'कापालिक संप्रदाय' के गुरु चतुरनाथ को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। इससे इन्हें 'महंत' का पद प्राप्त हुआ था।ये संस्कृत भाषा के पंडित थे और ब्रजभाषा के कवि थे।'ब्रह्मगीता' तथा 'प्रेमसत्वनिरूप' कृष्णदास पयहारी के मुख्य ग्रंथ हैं।ब्रजभाषा में रचित इनके अनेक पद प्राप्त होते हैं। यह भी कहा जाता है कि कृष्णदास पयहारी अपने भोजन में मात्र दूध का ही सेवन करते थे।इन्ही ऋषि ने जिस धूनी पर तपस्या की थी, वो धूनी आज तक यहां जल रही है. वहीं उन्होंने नाथ संप्रदाय को निर्देश दिया था कि उसकी धूनी बुझनी नहीं चाहिए और इसलिए ही नाथ संप्रदाय इस धूनी को जलाये रखता है.
दिव्य अनुभूति वाली शांति :-
गलता जी की शांति सबके अंदर तक छूती है। यहां आकर  एक दिव्य अनुभूति होगी। इस प्राचीन जगह पर पहुंचने के बाद एक अलग किस्म की आध्यात्मिकता का अहसास होता है। मान्यता है कि सतयुग में गालव ऋषि ने यहां तपस्या की थी और गंगा की धारा को यहां तक लेकर आए थे। आज भी यहां अज्ञात स्रोत से लगातार पानी बहता रहता है। यहां महिलाओं और पुरुषों के स्नान के लिए दो अलग-अलग कुंड बने हैं और बड़ी संख्या में भक्त इनमें स्नान करके पुण्य प्राप्त करते हैं। मान्यता है कि कार्तिक मास की पूर्णिमा को ब्रह्मा, विष्णु और महेश यहां आते हैं और इस दिन यहां स्नान करने का फल लाखों गुना बढ़ जाता है। इस स्थान को गालव आश्रम और गलता गद्दी भी कहा जाता है, क्योंकि यह वैष्णव रामानंदी संप्रदाय की सर्वोच्च पीठ है। मौजूदा मंदिर का निर्माण महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय के दीवान राव कृपा राम ने कराया था। इस परिसर में बहुत सारे भव्य मंदिर हैं। इनमें एक रामगोपाल मंदिर भी है, जिसमें स्थापित मूर्ति में राम और कृष्ण दोनों की झलक मिलती है। यह स्थान अनेकानेक ऋषि-मुनियों और संतों की तपोस्थली रहा है। यही पर राम सखा निध्याचार्य को राम सखा की उपाधि मिली थी।
अष्ट दिव्य कुंड :-
यहां पर प्रसिद्ध आठ कुंड हैं। जिनका नाम है:- यज्ञ कुंड, कर्म कुंड, सूक्ष्म कुंड, मरडाना कुंड, जनाना कुंड, बावरी कुंड, केले का कुंड, और लाल कुंड। इन सब मे बड़ा और मुख्य कुंड मरदाना कुंड है।  इस बड़े कुंड में संगमरमर का एक गौमुख झरना निरंतर गिरता रहता है। गौमुख से गिरने वाली इस जलधारा के उद्गम स्रोतों का पता आज तक भी नहीं चल पाया है। पिछले काल से यह जलधारा विस्तृत रूप से गौमुख से कुंड मे गिरती आ रही है। यह जल धारा गंगा धाराएँ दी जाती हैं। ऐसा माना जाता है कि गैलव मुनि की तपस्या से प्रसन्न गंगा जी यहां प्रकट हुई जो आज भी नियमित प्रवाह में है।
महाराजा रायपुर को कुण्ड में स्नान से कोढ़ से मुक्ति:-
एक ओर किवदंती के अनुसार माना जाता है कि सबसे पहले की बात यह है कि जब एक बार रायपुर के महाराजा शिकार करते हुए पहाड़ पर स्थित ऋषि के आश्रम की ओर आ गए। इस अज्ञात के साथ जुड़े हुए साधु महात्मा सिंह का रूप धारण कर पर्वतों पर विचरण करते थे। राजा ने एक सिंह पर तीर चलाया जो सिंह के पिछले पांव में लगा और यहां रक्त की धार बह निकली। उसी समय यह सिंह अपना रूप छोड़ कर एक महात्मा के वास्तविक रूप में प्रकट हुआ, और राजा से कहा !राजन! आप इस अजनबी की ओर शिकार करने की चेष्टा कैसे की?। इसके विपरीत आपको कुष्ठ रोग हो सकता है। यह श्राप देकर वह महात्मा गिर गए। कहते हैं कि वही गालब ऋषि थे। राजा अपने महल में लौटा, उसी दिन से वह कुष्ठ रोग से ग्रसित हो गया और अधिक पीडित रहने लगा। बहुत उपचार पर भी राजा को रोग से राहत नहीं मिली। राजा दुखी होकर अपने कुछ साथियों के साथ घोड़ की तलाश में उसी आश्रम की ओर चला गया। अत्यंत सावधानी के बाद एक पर्वत की गुफा में समाधिस्थ मिले। समाधि के पास राजा ने प्रार्थना की हे प्रभु! मैं किसी में अज्ञानता वश शहीद शिकार खाने चला गया था। मेरा अपराध क्षमा किजिए, और कृपया इस रोग से मुक्ति का कोई उपाय बताएं। दयावान महात्मा ने राजा से कहा राजन! इस स्थान पर एक पक्का मकान और इसमें एक विशाल कुंड बनवा दिजिए। मैं उस कुंड में गंगा की एक जल धारा लाऊंगा। वह जल धारा जब तक संसार रहेगा तब तक कभी बंद नहीं होगा। उसी गंगा नदी में स्नान करने से तेरह कुष्ठ रोग चलता रहेगा और जो कोई भी श्रद्धापूर्वक स्नान करेगा या जल का आचमन करेगा वह पापों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त होगा। राजा ने ऐसा ही किया और उसका कुष्ठ रोग ठीक हो गया। आज भी भक्तों का मानना ​​है कि इस कुंड में स्नान करने से संकल्प की प्राप्ति होती है और मोक्ष की प्राप्ति होती है।18वीं शताब्दी का गलताजी का मंदिर :-
दीवान राव कृपाराम ने 18वीं शताब्दी में मंदिर की आधारशिला रखी थी। कृपाराम राजा सवाई जय सिंह के दरबार में दीवान थे। जयपुर के रीगल शहर के बाहरी इलाकों में बना ये मंदिर जाने माने धार्मिक स्थलों में से एक है। इस ऐतिहासिक मंदिर को अरावली की ऊंची पहाड़ियों पर बनाया है जो घने पेड़ों और झाड़ियों से घिरा है। यह प्रभावशाली इमारत गोल छतों और खंभों से सजी चित्रित दीवारों से सुशोभित है। कुंडों के अलावा, मंदिर परिसर में मौजूद भगवान राम, भगवान कृष्ण और भगवान हनुमान के मंदिर हैं। गलताजी मंदिर के पास में मौजूद कृष्ण मंदिर, सूर्य मंदिर, बालाजी मंदिर और सीता राम मंदिर भी जा सकते हैं। मंदिर का लेआउट अद्वित्य है। यह एक शानदार संरचना, भव्य मंदिर, गुलाबी बलुआ पत्थर से बनाया गया है । पहाड़ियों के बीच, एक महल या 'हवेली' जैसा पारंपरिक मंदिर की तरह लग रहा है। गलता  बंदर मंदिर हर पेड़-पौधों की विशेषता भव्य परिदृश्य को आपस में जोड़ देता है, और जयपुर शहर का एक आकर्षक दृश्य प्रस्तुत करता है। यह मंदिर है कि इस क्षेत्र में ध्यान केन्द्रित करना बंदरों के कई जनजातियों के लिए प्रसिद्ध है।धार्मिक भजन और मंत्र, प्राकृतिक सेटिंग के साथ संयुक्त,वहां का दौरा किसी के लिए एक शांतिपूर्ण वातावरण प्रदान करते हैं। इस पवित्र स्थल पर आपको हजारों में बंदरों की संख्या देखने को मिल जाएगी। दिलचस्प बात तो ये है कि ये बंदर यहां आने वाले भक्तों को किसी भी तरह का नुकसान भी नहीं पहुंचाते। ये चंचल जंगली बंदर सुबह और शाम के समय मंदिर परिसर में और उसके आसपास पाए जा सकते हैं। इस मंदिर के पास एक और पर्यटक आकर्षण सिसोदिया रानी का बाग है, जो एक शानदार महल और गार्डन के रूप में जाना जाता है।                      ✍️ डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

Friday, February 24, 2023

भारत में ब्रह्मण समुदाय पर बढ़ती जातीय हिंसा। ✍️ डॉ. राधे श्याम द्विवेदी


       एक तरफ एम पी कैडर के आई ए एस नियाज़ खान जैसे कुछ प्रबुद्ध अधिकारी ब्राह्मण के आई क्यू की प्रशंसा कर रहे है । ब्रह्मण की सभी वर्गों को साथ लेकर चलने की सराहना कर रहे हैं,वही देश में बहुत बड़ा वर्ग ब्राह्मण के गुणों को नजरंदाज करते हुए नकारतमक प्रचार प्रसार कर रहा है। समाज में हमेशा अच्छी बातें ही प्रसारित होनी चाहिए। 
भारत में जाति हिंसा के विभिन्न रूप:-
भारत में जाति संबंधी हिंसा विभिन्न रूपों में होती है । ह्यूमन राइट्स वॉच की एक रिपोर्ट के अनुसार , "भेदभाव पूर्ण और क्रूर, अमानवीय और भारत में 165 मिलियन से अधिक लोगों के अपमानजनक व्यवहार को जाति के आधार पर उचित ठहराया गया है। जाति प्रकृति पर आधारित है और वंशानुगत है। यह एक विशेषता निर्धारित है। किसी विशेष जाति में जन्म के बावजूद, व्यक्ति द्वारा विश्वास किए जाने के बावजूद। जाति, वंश और व्यवसाय द्वारा परिभाषित रैंक वाले समूहों में कठोर सामाजिक स्तरीकरण की एक पारंपरिक प्रणाली को दर्शाती है। भारत में जाति विभाजन आवास, विवाह, रोजगार और सामान्य सामाजिक क्षेत्रों में हावी है। बातचीत-विभाजन, जो सामाजिक बहिष्कार, आर्थिक बहिष्कार और शारीरिक हिंसा के अभ्यास और खतरे के माध्यम से प्रबलित होते हैं।आरक्षण की त्रुटिपूर्ण व्यवस्था से योग्य होने के बावजूद ब्राह्मण युवा सरकारी नौकरियों में पिछड़ रहे हैं। उनके आगे बढ़ने के अवसर कम हो रहे हैं क्योंकि उनकी बात उठाने वाला कोई नहीं है।किसी एक के बूते नहीं बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को समाज के सम्मान और उत्थान के लिए प्रतिबद्ध होना पड़ेगा तभी ब्राह्मण समाज का गौरव भविष्य में बरकरार रहेगा। 
आजादी में भी सुचिता का अभाव :-
15 अगस्त 1947 को भारत स्वतन्त्र हुआ है लेकिन इसके तीन चार टुकड़े कर दिए गए। अंग्रेजों की चाल,मोती लाल नेहरू की वाक पटुता ,जवाहर लाल नेहरु की हेकड़ी , जिन्ना की जिद और मोहन दास गांधी के तिकड़म ने अपने वा अपनों के निजी स्वार्थ ने इसे आपस में बन्दर बांट करके एक ना रहने दिया। बड़ा भाग नेहरू ने लिया । एक भाग शेख अब्दुल्ला ने तथा दो भाग जिन्ना ने लेकर अपने अपने मंसूबे पूरे किए। इन चारों में चुनी हुई दिखावटी सरकारें बनी पर चलती थी इन सब के सत्तासीनों के मन के मुताबिक जनमत दिखाया जाता। चुनाव भी होते पर सब काम आकाओं के मन मर्जी के मुताबिक चलता था। संविधान कानून और संधि समझौते में देश का व्यापक हित ना देखकर मालिकों के हित साधे गए। विदेशी संविधान का नकल कर अपने अपने देश में कानून बने ।उसे अपनी प्रतिबद्धता के अनुसार बदलते जाते रहे। चूंकि नई नई आजादी मिली थी इसलिए विरोध के स्वर भी दबा दिए जाते रहे। संविधान सभा द्वारा बनाया गया नकल वाले संविधान को एक खास व्यक्तिके नाम पट्टा कर दिया गया।
देश की चंडाल चौकड़ी इसे अपने अपने मन के मुताबिक
बदलती रही।धर्म के आधार पर देश को तोड़ने और अपने हिस्से में लेने वालो ने मुस्लिम बहुल तीन भाग मुस्लिमों को मुकम्मल दे दिया और हिन्दू बहुल भारत को खिचड़ी बना कर सबको लूटने के लिए छोड़ दिया। 
ब्रह्मण धर्म और जाति पर सर्वाधिक प्रहार:-
सनातन धर्म और परम्परा पर प्रहार किया जाता रहा। वैदिक आर्य धर्म पर हर तरह से प्रहार होता रहा। वेद उपनिषद पुराण और धर्म की खिल्ली उड़ाई जाती रही।कांग्रेस कम्नयुस्त और विदेशी दबाव ने यहां के बहुसंख्यक के हितों से खिलवाड़ करते रहे। पक्षपात होता रहा। ब्रह्मण धर्म और जाति पर सर्वाधिक प्रहार होता रहा। उन्हें अगड़ा कह कर सारी सरकारी सुविधाओं से महरूम कर दिया गया। समय समय पर उन्हें जहर और जलालत के आंच में सेंका जाता रहा। 
     ब्राह्मण पर हुई ज्यादती की कुछ प्रमुख घटनाएं :-
1948; महाराष्ट्र में ब्राह्मण विरोधी:- 
महात्मा गांधी की हत्या के बाद नाथूराम गोडसे जो एक ब्राह्मण था, उस पर ब्राह्मणों द्वारा निशाना बनाया गया । कुनबी - मराठा समुदाय द्वारा बलात्कार, लिंचिंग और यौन उत्पीड़न की कई घटनाएं दर्ज की गईं।
1992 बारा नरसंहार, बिहार :-
12-13 फरवरी 1992 की मध्यरात्रि में, भारत के माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (अब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)) ने बिहार, बिहार के गया जिले के पास बारा गाँव में भूमिहार जाति के 35 सदस्यों की बेरहमी से हत्या कर दी । MCC का सशस्त्र समूह बारा गाँव के 35 लोगों को पास की एक नहर के किनारे ले आया, उनके हाथ बाँध दिए और उनका गला काट दिया। 36 के रूप में कई लोगों पर अपराध का आरोप लगाया गया था, लेकिन केवल 13. के खिलाफ आरोप तय किए गए थे। दूसरों को गिरफ्तार करें, जिन्होंने अपने सम्मन को खारिज कर दिया था।
1994 छोटन शुक्ला हत्याकांड :-
छोटन शुक्ला भूमिहार समुदाय के एक गिरोह के सरगना थे। उन्हें ओबीसी बनिया जाति से होने वाले एक सरकारी मंत्री बृज बिहारी प्रसाद के साथ उनके विवाद के लिए जाना जाता था । एक चुनाव अभियान से लौटने के दौरान प्रसाद की ओर से काम कर रहे पुरुषों द्वारा कथित तौर पर उनकी हत्या कर दी गई थी। प्रतिशोध में, प्रसाद को भी गोली मार दी गई थी। आनंद मोहन सिंह, जो उच्च जाति के राजपूतों के नेता थे , और उनके करीबी साथी मुन्ना शुक्ला, जो भूमिहार नेता थे और छोटन शुक्ला के भाई थे, पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें जेल में उम्रकैद की सजा दी गई। 
1999 सेनारी नरसंहार :-
1999 में, यादव और दुसाध के प्रभुत्व वाले माओवादी चरमपंथी केंद्र ने जहानाबाद के पास सेनारी गाँव में 34 भूमिहारों का हत्या किया था।
2015 में संतों और बटुकों पर बर्बर लाठीचार्ज :-
साल 2015 में यूपी के तत्कालीन सीएम अखिलेश यादव की सरकार के दौरान गंगा में मूर्ति विसर्जन को लेकर संतों ने सड़क पर बड़ा आंदोलन किया था. इस आंदोलन में पुलिस ने संतों और बटुकों पर बर्बर लाठीचार्ज किया था. यूपी के वाराणसी में सात साल पुराने संतों के प्रतिकार यात्रा में हुए बवाल मामले में हाईकोर्ट से बड़ी खबर सामने आई है. जिस मामले में स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती समेत सतुआ बाबा आश्रम के पीठाधीश्वर संतोष दास और पातालपुरी मठ के प्रमुख बालक दास समेत कई संतों को निचली अदालत से जमानत लेनी पड़ी।
2017 में पांच ब्राह्मणों की नृशंस हत्या :-
2017 में रायबरेली के अप्टा गांव में रोहित शुक्ला सहित पांच ब्राह्मणों की नृशंस हत्या से ब्राह्मण समाज के लोगों में आक्रोश है। ब्राह्मण समाज के लोगों ने राज्यपाल को संबोधित ज्ञापन डीएम को दिया। इसमें पीड़ित परिवार के लोगों को सरकारी नौकरी देने की मांग की। 
सवर्ण परिवारों से ज़बरन हफ्ता वसूली:-
12 07 2021 के समाचार के अनुसार ग्वालियर एमपी में, ब्राह्मण समुदाय के एक युवा छात्र को बंदूक की नोक पर लूट लिया गया और क्षेत्र में दलितों का दबदबा मानने के लिए मजबूर किया गया था। इस घटना के बाद थाने में तहरीर भी दी गई थी। आवेदक का परिवार, जो कि हिन्दू धर्म का एक ब्राह्मण परिवार है, विगत 23 वर्षों से ग्वालियर की पूजा विहार कॉलोनी, आपा गंज, लश्कर में रहता है। उनके आस पास दलित समाज के लोग रहते हैं जिनमे उमरैया परिवार बाहुबली है, जो आस पास के सवर्ण परिवारों से ज़बरन हफ्ता वसूली करता है। न देने पर SC/ST के झूठे मुकदमे में जेल भिजवाने की धमकी देता है।
ब्राह्मण समाज की बेटी का राजस्थान में अपहरण;-
19 10 2022 के समाचार में राजस्थान के सवाई माधोपुर में एक मुस्लिम युवक द्वारा हिंदू लड़की के अपहरण का मामला सामने आया है। घटना के विरोध में सांसद किरोड़ी लाल मीणा पीड़िता के परिजनों के साथ थाने के बाहर धरने पर बैठ गए। मीणा सहित परिजनों की मांग है कि अपहृत लड़की को जल्द से जल्द मुस्लिम युवक के चंगुल से जारी किया जाए।परवेज ने बंदूक की नोंक पर किया ब्राह्मण समाज की बेटी का अपहरण': पीड़ित परिवार के साथ धरने पर बीजेपी सांसद ने कहा - गहलोत राज में बहन-बेटियां सुरक्षित नहीं हैं (18 अक्टूबर, 2022) को मुस्लिम समाज परवेज ने बंदूक की नोक पर ब्राह्मण समाज का अपहरण कर लिया। परिजनों ने जब विरोध किया तो युवक ने लड़की की मां को झटका देकर गिरा दिया। साथ ही जान मारने की धमकी देकर लड़की की कनपटी पर बंदूक दी और उसे बाइक पर बिठाकर ले गए। 
अधिवक्ता परिवार पर मुस्लिम समाज द्वारा हमला :-
04 02 2024 के समाचार के अनुसार बागपत में अधिवक्ता के परिवार पर मुस्लिम समाज के लोगों द्वारा हमला करने और आरोपियों की गिरफ्तारी नहीं होने से नाराज ब्राह्मण समाज के लोगों ने तहसील में प्रदर्शन किया है। इसके अलावा गुस्साए ब्रह्मण समाज के लोगों ने थाना पुलिस पर मिलीभगत से कार्रवाई न करने का आरोप लगाया है। फिलहाल ब्राह्मण समाज के लोग धरने पर बैठ गए हैं।
कानपुर देहात में 'मौत का बुलडोजर' :-
कानपुर देहात में '13 फरवरी 2023 को मौत का बुलडोजर' चला. यहां अतिक्रमण हटाने के दौरान मां और बेटी की जलकर मौत हो गई. एसडीएम (मैथा) ज्ञानेश्वर प्रसाद मैथा तहसील क्षेत्र के मडौली गांव में सोमवार 13 फरवरी की सुबह बढ़ते अतिक्रमण हटाने के लिए गए थे. प्रमिला दीक्षित (45) और उनकी बेटी नेहा (20) ने कथित तौर पर पुलिस, जिला प्रशासन और राजस्व अधिकारियों की उपस्थिति में यह कदम उठाया, जो जिले के रूरा क्षेत्र के मडौली गांव में "ग्राम समाज" की भूमि से अतिक्रमण हटाने गए थे. एक पुलिस अधिकारी ने इसकी जानकारी दी.
           भारतीय संविधान न्यायपालिका राजनेता 
          और प्रबुद्ध वर्ग अपना नजरिया बदलें :-
 राष्ट्र के निर्माण में सभी का योगदान होता है । ब्राह्मणों के योगदान को भी ये राष्ट्र और ये विश्व कभी भुला नहीं सकता है । ब्राह्मणों ने मानव मात्र के कल्याण की बात कही थी । आज जो इस देश में "वसुंधैव कुटुंबकम्", "सर्वे भवंतु सुखिनः", "असतो मा सद्गमय", "सत्यमेव जयते" और "मनुर्भव जनयः" जैसी बातें कही जाती हैं जो कि भारतीय दर्शन और संस्कृति की पहचान बन चुकी है, वो ब्राह्मण ऋषियों द्वारा ही कही गई थी । चाहे दर्शन शाश्त्र हो, विज्ञान हो, गणित हो, अर्थ शास्त्र हो या खगोल शास्त्र, हर क्षेत्र में उनका योगदान अतुलनीय है । आयुर्वेद और योग शास्त्र की खोज ब्राह्मणों ने ही की है । ये वेद, उपनिषद आदि ब्राह्मणों की ही कृति है । वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, भारद्वाज, अगस्त, कपिल, कणाद, पतंजलि और पाणिनि से लेकर चाणक्य और आर्यभट्ट जैसी महान विभूति ब्राह्मण ही थे । आधुनिक भारत को भी सर्वप्रथम स्वतंत्रता की राह बाल गंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले और सुरेंद्रनाथ बनर्जी जैसे लोगों ने ही दिखाया था।ब्राह्मणों ने समाज को बहुत कुछ दिया था ।  
          वर्तमान समय में भारतीय संविधान न्यायपालिका राजनेता और प्रबुद्ध वर्ग ने इस कौम को शोषण कर्ता बताया है । उन पर आरोप लगाए जाते हैं कि इस कौम ने करोड़ो वर्षों से लोगों का खून चूसा है । अब ये जाति संवैधानिक अछूत है । ये भले कितने भी गरीब हो , पीने के लिए पानी तक न हो , लेकिन ये ब्रह्मांड के सबसे अमीर और खून चूसने वाले प्राणी माने जा रहे हैं। ये राजनैतिक अछूत हो गए हैं और ब्रह्मांड के कण कण का इन्होंने शोषण किया है ।
         आज अगर ब्रह्मण से इतर किसी दूसरी जाति की बात होती तो अब तक पूरा देश उबल पड़ता और दलित दलित करके सूर्य को ठंडा कर चुका होता । ब्रह्मण को धिक्कार है जो लोकशाही भारतवर्ष में जन्में जहाँ इनकी औकात सबसे बदतर है । धिक्कार है इस देश के व्यवस्थकारों को जो धीरे धीरे सारी व्यवस्था को खोखला करते हुए 21वीं सदी तक पहुंच गए हैं। अब कलियुग में आना दलित बन कर आना ज्यादा मुफीद है। जो पाप ब्रह्मण के पूर्वजों ने भी नहीं किया उसका खामियाजा उनकी औलादों को भुगतना ही पड़ रहा है। क्योंकि पूरा कलियुग अब ब्रह्म जनों का नही है गैर ब्रह्म जनों का है ।
       अब तो ब्रह्म जन जल्दी जल्दी इसी जन्म में भज गोविंदं करके अपना उद्धार कर लो तो बेहतर होगा ताकि इस निकृष्ट दुनियाँ में उन्हें फिर न आना पड़े । लेकिन जाने- अनजाने ही समाज को जातीय संघर्ष में धकेलने का नतीजा सभी के लिए विघटनकारी होगा और भारत कभी भी विश्व गुरु नहीं बन पाएगा।


राजनीति प्रेरित नेहा सिंह का यूपी में का बा पार्ट 2 ✍️डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

                              नेहा सिंह राठौर 
उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार को घेरने और अपनी जमीन जमाने के लिए कुछ विपक्षी पार्टियों द्वारा अब लोक गायिकाओं का उपयोग किया जा रहा है। नेहा सिंह राठौर के यूपी में का बा पार्ट 2 गाने के पीछे की सच्चाई क्या है? क्या ये गाना माहौल खराब कर रहा है या फिर योगी सरकार इससे डर गई है ये आज का बड़ा सवाल है। दरअसल नेहा सिंह राठौर ने यूपी में का बा पार्ट 2 गाना रिलीज किया है। इस नए गीत में नेहा ने यूपी में रेप, अपहरण, रामराज्य जैसे विषयों पर तंज कसा है। नेताओं के परिवारवाद पर भी नेहा ने इस बार निशाना साधा है। 
        पहले आपको सुनाते हैं कि नेहा राठौर का वो गाने के कुछ अंश जिस पर नया बवाल मचा हुआ है। अपने अंदाज में गाना गाते हुए अधिकारियों और लोकतंत्र पर सवाल खड़े करते हुए नेहा सिंह राठौर ने योगी सरकार पर भी निशाना साधा है। इस यू ट्यूब को बहुत लाइक किया जा रहा है।
 'यूपी में का बा सीजन 2' में कहा था --
 "बाबा के दरबार में घर बार ढह रहे हैं,
 मां-बेटी को आग में झोंका जा रहा है. 
बुलडोजर से दीक्षित परिवार को रौंदा जा रहा है.
 बाबा की डीएम तो बड़ी रंगबाज बा, 
कानपुर देहात में ले आई राम राज बा?"
        ' यूपी में का बा' गाना गाने वाली लोक-गायिका नेहा सिंह राठौर के घर पुलिस गई थी . नेहा के ख़िलाफ़ आरोप हैं कि उनके गाने 'का बा सीज़न-2'से समाज में ‘वैमनस्य’ फैलाया है. 21 फरवरी की रात को उत्तर प्रदेश पुलिस ने नेहा को एक नोटिस थमाया. नोटिस में उनसे सात सवाल किए गए हैं, जिनका स्पष्टीकरण तीन दिन में देने के लिए कहा गया है. जवाब संतोषजनक न होने पर आई पी सी और सीआर पी सी की धाराओं के तहत केस दर्ज किए जाने की बात कही गई है। पुलिस का कहना है कि इस गाने के जरिए सूबे में नफरत का माहौल तैयार किया जा रहा है। यू पी में सब बा गीत लेकर आए सांसद और भोजपुरी अभिनेता रवि किशन का नाम लिए बिना व्यंग्य किया है कि वे ऐसे लोग हैं, जिनको गरीबों का पसीना महकता है।

           रवि किशन का जवाब: यूपी में सब बा :-
रवि किशन ने नेहा राठौर को जवाब देते हुए ट्वीट किया और बताया कि 
यूपी में सब बा
जे कबो न रहक यू अब बा -2
यूपी में सब बा -2
योगी के सरकार बा
विकास के बहार बा
सड़कें के जाल बा
काम बेमिसाल बा
जे कबो न रहक मैं अब बा -2
यूपी में सब बा -2
अपराधी के जल बा
बिजली रेलम रेलम बा -2
कोरोना गिल हार बा हो
जे कबो न रहक मैं अब बा -2
यूपी में सब बा -2
मोदी योगी मेल बा
राशन के ढेर बा
साइट ठिकाना
बदल रोजगार बा
पूरा देश ऐसे कहता है
पूरा उत्तर प्रदेश ये कहता है
पूरा भारत इहे कहता है
मोदी जी के प्यार में
मोदी जी के राज प्रेम में
कोरोना गिल हार बा हो
जे कबो न रहक मैं अब बा -2
यूपी में सब बा -2
अयोध्या के शान बा
मंदिर का निर्माण बा
दुनिया में भिले
जय जय श्री राम
बैरोना गिल हार बा हो
जे कबो न रहक मैं अब बा -2
यूपी में सब बा -2
एम्स में इलाज बा
गोरखपुर के नाम बा
पूर्वांचल एक्सप्रेसवे
फर्टिलीजर के काम बा हो
जय हो योगी जी, 
जय हो महाराज जी
केतना कवराई हो भैया, का 
जीवन बदल गिल उप के लोगों के
कोरोना गिल हार बा हो
जे कबो न रहक मैं अब बा -2
यूपी में सब बा -2
नल से पानी बा
विका के कहनोई बा -2
कुशीनगर जेवर एयरपोर्ट बा
बीजेपी के साथ बा
मोदी जी के हाथ बा
किसान के सम्मान बा
गरीब के घर
बारोना गिल हार बा हो
जो कब न रहक मैं अब बा -2
यूपी में सब बा -2
योगी मोदी जिंदाबाद
हर हर महादेव
कोरोना गिल हार बा हो
जे कबो न रहक मैं अब बा -2
ऊपर में सब बा -2
मोदी योगी खेल बा
विकास रेलम रेल
महाराष्ट्र में प्रेम बा
तिरंगा इ खातिर सम्मान बा
कोरोना गिल हार बा हो
जे कबो न रहक मैं अब बा -2
यूपी में सब बा -2
न साइकिल न हाथी, न हाथ बा
एक बार फिर ऊपर में भैया हो
योगी आदित्यनाथ बा !
कोरोना गिल हार बा हो
जे कबो न रहक मैं अब बा -2
यूपी में सब बा -2
ऊपर में सब बा
जे कबो न रहल यू अब बा-2
ऊपर में सब बा-2
योगी के सरकार बा
विकास के बहार बा
सदन के जाल बा
काम बेमिसाल बा
जे कबो न रहल तुम अब बा-2
ऊपर में सब बा-2
अपराध के जेल बा
बिजली रेल बा-2
कोरोना गेल हार बा हो
जे कबो न रहल तुम अब बा -2
ऊपर में सब बा-2
मोदी योगी मेल बा
राशन के धेर बा
निवेश जोरदार बा
पुरा देश एहे कहता
पुरा उत्तर प्रदेश पूरा भारत एह कहता है
मोदी जी के प्रेम में
मोदी जी के राज प्रेम में
कोरोना गेल हार बा हो
जे कबो न रहल यू अब बा -2
अप में सब बा-2
अयोध्या के शान बा
मंदिर निर्माण बा
दुनिया में भैले
जय श्री राम बा
कोरोना गेलहार बा हो
जे कबो न रहल यू अब बा -2
अप में सब बा -2
एम्स में इलाज बा
गोरखपुर के नाम बा
पूर्वांचल एक्सप्रेसवे
खाद के कम बा हो
जय हो योगी जी, 
जय हो महाराज जी
केतना गिना हो भैया
की जीवन बदल गेल अप के लोग के
कोरोना गेल हार बा हो
जे कबो न रहल यू अब बा -2
अप में सब बा -2
नल से पानी बा
विकास के कहानी बा-2
कुशीनगर जेवर एयरपोर्ट बा
किसान के सम्मान बा
गरीब के मकान बा
कोरोना गेल हार बा हो
जे काबो न रहल यू अब बा -2
अप में सब बा -2
योगी मोदी जिंदाबाद
हर हर महादेव
कोरोना गेल हार बा हो
जे कबो न रहल यू अब बा-2
अप में सब बा-2
मोदी योगी खेल बा
विकास रेलम रेल बा
राष्ट्र के प्रेम बा
तिरंगा खातिर शान बा
कोरोना गेल हार बा हो
जे कबो न रहल यू अब बा-2
ऊपर में सब बा-2
न चक्र न हाथी न हाथ बा
एक बार फिर ऊपर में भैया हो
योगी आदित्यनाथ बा!
यूपी में विकास की रौशनी है 
और यूपी देश की आस है, 
यूपी में सब कुछ है. 
विपक्ष आंख के आन्हर बा, 
पलिहरे के बानर बा, 
यूपी देश के आस बा, 
विकास के प्रकाश बा, 
अब ध्यान से बजट सुनीं, 
आ योगी जी के नाम गुनीं, 
यूपी में सब बा."
           संवित पात्रा का जबाब : 'यूपी में ई बा' :-
भाजपा पार्टी के प्रवक्ता संवित पात्रा ने प्रेस रिलीज करके नेहा को जबाब भी कुछ इस प्रकार दिया है। पात्रा के शुरुआती बोल 'यूपी में ई बा' रहा :-
"यूपी में ई बा, 
किसान को छह हजार बा, 
राशन दो-दो बार बा, 
महिलाओं को अधिकार बा,
 सब गुंडन को बुखार बा, 
ई बा…अरे भैया यूपी में ई बा। 
अनुशासित सरकार बा, 
निर्णय सब धुंआधार बा, 
दंगाइन की संपत्ति पे, 
बुलडोजर से प्रहार बा,
 ई बा… अरे यूपी में ई बा। 
घर-घर मा पहुंचे सिलेंडर, 
अपराधी खुद करे सरेंडर, 
शौचालय घर-घर बनवाए, 
वैक्सीन भी मुफ्त लगाए, 
ई बा..अरे यूपी में ई बा। 
योगीजी के बस यूपी के 
विकास से मतलब बा, 
अब यूपी में सब बा, 
सड़क कड़क बा, 
बड़ी चकाचक बा, 
काशी कॉरिडोर बा,
अयोध्या का हिलोर बा,
 न दंगा व्यवधान बा, 
सब कही…सम्मान बा, 
अरे यू पी में ई बा।"

         कवियित्री अनामिका अंबर का जबाब :-
गायिका नेहा राठौर के 'यूपी में का बा' के बाद अब मशहूर कवियित्री अनामिका अंबर का 'यूपी में बाबा' गीत चर्चा में है। भोजपुरी के बाद अब बुंदेलीखंड अंदाज में सियासी लाइनें लोगों को खूब भा रही हैं। अनामिका अंबर ने गाया है- 
"यूपी में बाबा' गीत
यूपी में काबा काबा नहीं, यूपी में है बाबा,
 जौन जै काबा काबा लगे चिल्लियाबे , 
उन्हें हम आए इते बताबे कि इते नहीं कछु दिखाबा , काएके यूपी में बाबा है यूपी में बाबा, 
गोरखपुर को जो संन्यासी ,
 मन में लेके मथुरा काशी,    
जब जा बैठे लखनऊ में , 
जब से यूपी भर की मिटी उदासी ।"

           नेहा को यूपी में कुछ अच्छा नहीं दिखा :-
         उत्तर प्रदेश, हर दृष्टिकोण से भारत का एक महत्वपूर्ण राज्य, महाकाव्यों, पवित्र नदियों, प्राचीन शहरों और तीर्थों की भूमि कहा जाता है। आधुनिक समय में, यह एक्सप्रेसवे, औद्योगिक गलियारों, अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डों, शैक्षिक और चिकित्सा उत्कृष्टता के केंद्रों और स्वदेशी उत्पादों के निर्यातक के अपने नेटवर्क के साथ देश की अर्थव्यवस्था के प्रमुख चालक के रूप में उभर रहा है।
           भगवान राम, भगवान कृष्ण, गौतम बुद्ध और भगवान महावीर के समय से, यह राज्य सांस्कृतिक और बौद्धिक प्रतिभा का केंद्र रहा है। आज, अपने मजबूत बुनियादी ढांचे और एक सक्रिय नेतृत्व के साथ, राज्य अपने लोगों और पूरे देश के बेहतर भविष्य के लिए सबसे अधिक निवेशक अनुकूल वातावरण प्रदान करता है।
         अभी हाल ही में योगी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल का दूसरा बजट पेश किया। योगी सरकार ने 6 लाख 90 हजार 242 करोड़ 43 लाख रुपए का बजट पेश किया है। सरकार का दावा है कि ये अमृत काल का बजट है और ये बजट उत्तर प्रदेश को देश की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने में मील का पत्थर साबित होगा। नेहा राठौर ने अपने गाने में योगी सरकार की आलोचना की है। आलोचना करने का हक हर किसी को है लेकिन सवाल ये उठ रहे हैं कि नेहा सिंह ने सरकार की तमाम अच्छी योजनाओं पर कभी कुछ क्यों नहीं गाया। क्या राजनीति से प्रेरित होकर नेहा सिंह ने यूपी में काबा पार्ट टू गाया है। क्या योगी सरकार के विरोधियों की साजिश है कि वो नेहा राठौर को मोहरा बना रही है। सवाल ये भी उठ रहे हैं कि अखिलेश राज में भी कई ऐसी बड़ी घटनाएं हुई जिस पर नेहा सिंह ने कभी कोई गाना क्यों नहीं गाया। क्यों सिर्फ योगी सरकार को टारगेट किया जा रहा है। नेहा सिंह राठौर के इस गाने के बाद विपक्षी दल सरकार पर हमलावर हो गए हैं। अखिलेश तो सबसे ज्यादा मुखर हो गए है। उन्हें प्रदेश की पिछली बदहाली और गुंडा राज में केवल अच्छाई ही नजर आ रही है। जनता अब बेवकूफ नहीं रह गई है। 2014, 2017 ,2019 और 2022 के चुनाव में मिले जनमत को विपक्षी नेता नजर अंदाज करके कोई उपलब्धि हासिल नहीं कर सकते हैं।
              प्रस्तोता:डा.राधे श्याम द्विवेदी 



Tuesday, February 21, 2023

सत्ता ताड़न के अधिकारी ✍️ डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

सत्ता ताडने के लिए नाटक:-
बार बार जनता द्वारा सांप के  कुचले हुए फन का राजनैतिक जहर खिसकी हुई सत्ता की जमीन को ताड़ने के लिए उपयोग में लाया जा रहा है। ताड़ने में माहिर एक दल बदलू नेता की अपनी कोई जमीन है ही नहीं जो बैसाखियों के सहारे विभिन्न दलों में जूठनपान को ताड़ते रहते हैं। विद्वेष मानसिकता की चासनी में डूबे हुए इस तथाकथित नेता द्वारा श्री रामचरित मानस पर बैन लगाने का जहर बार बार उगला जा रहा है। बसपा और फिर भाजपा पार्टी में सत्ता का राजसुख भोगते हुए इस टूटपुजिए की अक्ल मार गई थी जो अपनी बेटी को दूसरी ओर अपने को दूसरी पार्टी में रह कर केवल और केवल अपना उल्लू सीधा करने को ताड़ रहा है। उसके इस जहर से अपनी अमरता ढूँढ़ने वाले टुटपुंजियों ने उ.प्र. के लखनऊ में पवित्र रामचरित मानस के पन्ने फाड़कर जला दिए।  यूपी सरकार ने उन विधर्मियों पर प्राथमिकी दर्ज कर अपनी ओर से कार्यवाही शुरू कर दी है।  लेकिन फिर भी अभी तक उसका जहरीला फन कुचला नही जा सका है। यह छुट्टा सांड की तरह घूम रहा है और कोई इसे नाथ नही पा रहा है।
जहर की दवा जरूरी:-
बाबा गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा लिखी गई श्री रामचरित मानस को लेकर हर दिन जहर उगलने वाले विधर्मियों की संख्या में दिनोदिन बढ़ती जा रही है। असल में इनके इस जघन्य से जघन्यतम अपराध के लिए कानून व्यवस्था को ऐसा दण्ड देना चाहिए जिससे इनकी कई पीढ़ियाँ इस सबक को याद रखें। संविधान जहर फैलाने की ना तो इजाजत देता है और ना ही सनातन समाज। सरकार की मजबूरी हो सकती है क्योंकि उन्हें उसी कीचड़ में से मोती निकालना होता है और इन्हीं जहर से जहर की दवा इजाद करनी होती है।
परिवारवादी पार्टी का कारनामा:-
 ऐसा कुकृत्य करने वालों के इस काम पर कोई आश्चर्य की बात नहीं होती है।  ऐसा करने वाले राष्ट्र के शत्रु होने के साथ साथ समाज के सबसे बड़े अपराधी भी होते हैं। जो अपने राजनैतिक मंसूबों को पाने के लिए इस स्तर तक गिर जाते हैं। इस सिरफिरे का श्री रामचरितमानस को लेकर विवादास्पद निन्दनीय बयान देना,फिर उसके समर्थकों द्वारा रामचरित मानस के पन्ने फाड़कर जलाना। तदुपरान्त एक परिवारवादी पार्टी के  राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा उस नेता को महासचिव का राजनैतिक प्रमोशन देना और उसके बाद जानबूझकर श्रीरामचरितमानस को लेकर अपमानजनक बयानबाजी करवाना। सबकुछ सुनियोजित ढंग से अपनाए जा रहे किसी बड़े षड्यंत्र की शातिर चालें नज़र आ रही हैं। इस पार्टी का अतीत सब को पता है। चाहे वह गेस्ट हाउस कांड हो या अयोध्या में राम भक्तों पर गोली चलवाने का मामला हो। प्रदेश और देश की जनता की स्मृतियों में सब कुछ ताजा का ताजा भरा है। राम जन्म भूमि मंदिर की पूर्णता और बार बार अपना बचा कुचा गवाने के कारण इनका मत भ्रम हो गया है और वे अपने पैर में ही कुल्हाडी मार रहे हैं।
अगड़ा- पिछड़ा' का राग :-
असल में यह गिरोह अगड़ा- पिछड़ा' का राग अलापकर अपनी खोई हुई राजनैतिक जमीन तलाश रहा है। इन सबने एक लम्बे काल खण्ड में समाज को 'अगड़ा- पिछड़ा'  इत्यादि के नाम पर तोड़ा है। तो कभी 'भीम-मीम' के सियासी एंगल को लेकर सत्तासीन हुए। कभी एम वाई फैक्टर से, देश की राजनीति में वर्ष 2014 में नरेन्द्र मोदी युग के उदय के साथ ही इनकी राजनीति का अवसान प्रारम्भ हो गया। इनकी देश  व समाज को कुनबों में बाँटने वाली सियासी रोटियां सिंकनी बन्द हो गई। इन सभी के तमाम विभाजनकारी शिगूफों के बावजूद भी दूसरी बार उ.प्र. में योगी आदित्यनाथ सरकार बन गई। इन नेताओं व सियासी दलों ने जिस हिन्दू समाज को लम्बे समय तक 'अगड़ा- पिछड़ा',दलित- सवर्ण' के नाम पर बाँटा, विद्वेष फैलाया और राज किया। वे समस्त जाति, वर्ग अपनी एक पहचान 'हिन्दू और हिन्दुत्व' के नाम पर उठ खड़े हुए। और एक नहीं बल्कि बारम्बार इन नेताओं के  मुँह पर तमाचा मारते हुए इनके मुखौटे नोंचकर फेंक दिए। अतएव खोई हुई सत्ता की जमीन तलाशने के लिए इन तथाकथित नेताओं ने फिर से समाज को तोड़ना प्रारम्भ कर दिया है।
मानस राष्ट्र का  पवित्र संजीवनी:-
श्रीरामचरितमानस तो वह महान पवित्र ग्रन्थ है जिसने इस्लामिक आक्रमण व दासता के कालखंड में समूचे राष्ट्र को सञ्जीवनी दी। और जो भारत वर्ष ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व के कोने कोने में बसने वाले सनातनी हिन्दू समाज व प्राणि मात्र में चैतन्य की झंकार उत्पन्न कर रहा है।
प्रसंग और अर्थ का ज्ञान नहीं:-
रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड की चौपाई को  लेकर यह पूरा विषवमन किया जा रहा है। 
प्रभु भल कीन्ह मोहिं सिख दीन्हीं,
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं।
ढोल गवाँर सूद्र पशु नारी ,
सकल ताड़ना के अधिकारी ।। 
यह चौपाई तो प्रभु श्री राम द्वारा समुद्र से रास्ता माँगने व समुद्र की हठधर्मिता पर प्रभु श्री रामके  के कुपित होने के व समुद्र द्वारा क्षमायाचना के प्रसंग पर आधारित है। चौपाई की उपरोक्त पंक्तियों का अर्थ यह है कि - हे! प्रभु आपने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी । किन्तु जीवों का स्वभाव ( मर्यादा) भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गवाँर, शूद्र , पशु और स्त्री ये सब शिक्षा, स्नेह दृष्टि के अधिकारी हैं।
इस चौपाई के  'ताड़ना' शब्द का अर्थ न तो अपमान से है, और न ही प्रताड़ित करने के किसी भाव से है। रामचरित मानस मूलतः 'अवधी' में लिखी गई है जिसमें ताड़ना का अर्थ - शिक्षा, रख रखाव, देखभाल या स्नेहपूर्ण दृष्टि से माना जाता है। 
तुलसीदास को अपमानित करने का महापाप:-
इस चौपाई के आधार पर श्री रामचरितमानस व बाबा तुलसीदास को अपमानित करने के महापाप किए जा रहे हैं। इस चौपाई के आधार पर कभी भी देश- समाज में ऐसी कोई घटना या उदाहरण देखने को नहीं मिला है । जिससे उस चौपाई के 'अर्थ से अनर्थ' का बोध हुआ हो‌ । तीसरा क्या इन तथाकथित अवसर वादी नेताओं को श्रीरामचरित मानस से जीवन दर्शन सीखने को नहीं मिला है । यह भी सुनिश्चित है कि इन्होंने कभी भी श्रीरामचरित मानस न तो पढ़ी है। और न ही कभी धार्मिक रहे हैं। अन्यथा ऐसा घोर पाप करने का दुस्साहस कभी भी नहीं कर सकते। बाबा गोस्वामी तुलसीदास  ऐसे महर्षि हैं जिन्होंने बर्बर आक्रान्ता अकबर को भी खरी- खरी सुनाई है। वे अकबर द्वारा कई बार बुलाए जाने के बाद भी कभी भी उसके दरबार में नहीं गए। बल्कि उन्होंने अकबर को सन्देश भेजा था  —
हम चाकर रघुवीर के, पटौ लिखौ दरबार;
अब तुलसी का होहिंगे नर के मनसबदार।
अकबर द्वारा फतेहपुर सीकरी में तुलसी बाबा को बन्द किए जाने पर बाबा के बंदरों ने राजधानी को तहस नहस कर दिया था और हनुमान चालीसा की रचना हो गई थी। बाबा का यह  संदेश अपने आप में बाबा गोस्वामी तुलसीदास की धर्मनिष्ठता और अभूतपूर्व साहस को दिखलाता है। अतएव समूचे हिन्दू समाज को न तो इन अवसर वादी नेताओं से कोई सर्टिफिकेट लेना है। और न ही बाबा गोस्वामी तुलसीदास व श्रीरामचरित मानस की दिव्यता - भव्यता में कोई आँच आनी है। प्रभु श्री राम और रामचरितमानस भारतवर्ष के रोम- रोम में बस चुके हैं। और राष्ट्र को सतत् जीवनादर्शों की राह दिखला रहे हैं। 
सनातन धर्म को तोड़ने की साजिश:-
 इन अराजक- राजनैतिक विधर्मियों द्वारा सनातन हिन्दू धर्म समाज की आस्था पर प्रहार किया जा रहा है।
एक सोची समझी सुनियोजित हमला इनकी रणनीति है। इनके ये कुकृत्य कोई नए नहीं है। इन्होंने अपने 'राजनैतिक और आर्थिक स्वार्थों' साधने के लिए हिन्दू समाज को तोड़ने की सुपारी ले रखी  है। आश्चर्य नहीं ये किसी 'मिशनरी - मौलाना' या विदेशी शक्ति की हाथों की कठपुतली भी हो सकती हैं। जो उनके इशारों पर नाचते हुए हिन्दू धर्म समाज की आस्था के मानबिन्दुओं पर लगातार हमला बोल रहे हैं और अपमानित कर रहे हैं। क्योंकि ये उस अभियान की फ़िराक में हैं कि - कब हिन्दू समाज आपस में लड़े । देश को वर्ग संघर्ष की आग में झोंक दिया जाए।   हिन्दू के रूप में जो समाज उठ खड़ा हुआ है वह एक बार फिर टूट जाए। 
चादर - फादर' व विदेशी साजिश:-
ये अचानक से उभार में दिखने वाली नई नई जहरीले फसलें यूं ही नहीं दिख रही हैं। ये सब  'चादर - फादर' व विदेशी कठपुतलियों के स्नाइपर और शार्प शूटर बनकर आए हैं। ये लोक आस्था एवं भारत के आधार स्तम्भ मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम और श्री रामचरित मानस पर अनर्गल - अपमानजनक बयानबाजी कर‌ रहे हैं। इनके बयान और कुकृत्य हर उस जगह दिख जाएंगे, जहां राष्ट्र व समाज को तोड़ने की बात आती है।
कन्वर्टेड हिन्दू की करतूत:-
हो सकता है ये सब 'चादर- फादर' में कन्वर्टेड भी हो गए हों, और इनका नाम बस हिन्दू रह गया हो।  जैसे ही चुनावों की आमद होगी  ये 'कालनेमि' का स्वांग रचकर मंदिरों व प्रभु की शरण में दिखने लगेंगे। सत्ता के लिए प्रभु श्री राम  व रामचरितमानस , समस्त हिन्दू समाज से इनकी यह शत्रुता कोई नई नहीं है। मुस्लिम वोटों को साधने के लिए ऐसा ही काम सन् 1990 में तत्कालीन मुख्य मंत्री ने रामभक्त कारसेवकों पर गोली चलवाकर किया था। ये सब समाज को तोड़कर सत्ता पाने वाले कुण्ठित लोग हैं।
विषधर को प्रमोशन:-
ऊपर से एक और पूर्व मुख्य मंत्री ने जिस अवसरवादी को श्री रामचरितमानस ' को अपमानित करने के बाद प्रमोशन दिया है। वह उनकी हिन्दू विरोधी मानसिकता का परिचायक है‌। उन्होंने इसे परिवार पार्टी - घर पार्टी ' में बदल दिया। वे सनातन हिन्दू धर्म समाज की आस्था पर चोट पहुंचाने वाले शार्प शूटरों को इनाम देना कैसे भूल सकते थे?
विष दंत तोड़ना जरूरी:-
 श्रीरामचरितमानस के पन्ने फाड़कर जलाने वाले ये टुटपुँजिए विधर्मी लोग हैं। इन सबको देशभर का हिन्दू समाज ऐसा सबक सिखाएगा कि - ये न तो कभी राजनीति में  आ पाएंगे और न ही समाज में कोई इन्हें इज्जत देगा। ये जिस जाति या वर्ग के नाम पर राजनैतिक ध्रुवीकरण व सामाजिक सौहार्द को तोड़ने का अभियान चला रहे हैं वह समाज इन सभी के नापाक इरादों को भांप चुका है। इन्हें जवाब देने के लिए तैयार बैठा है। इनकी ठेकेदारी पर अब पूर्णविराम लगने वाला है।  समाज अपनी आस्था एवं संस्कृति पर प्रहार करने वालों को अच्छी तरह से सबक सिखाना जानता है । हिन्दू समाज के सभी वर्ग इन ठेकेदारों की चूलें हिला देने का माद्दा रखता है । यह सनद रहे कि - देश का हिन्दू समाज सहिष्णु जरूर है लेकिन कायर और भीरू बिल्कुल भी नहीं है‌। ये वो धर्मनिष्ठ - राष्ट्रनिष्ठ हिन्दू समाज है जो - जहरीले नेताओं का जहर उतारना अच्छी तरह से जानता है । देर सबेर विष व्यालों के विषदन्त अवश्य ही टूटेंगे। देखना है कि योगिराज श्रीकृष्ण द्वारा ये कालीडह के नाग कब नाथे जा सकेंगे और समाज इनके विष प्रभाव से मुक्त हो सकेगा।

Monday, February 20, 2023

अनेक संप्रदाय और तीर्थ धामों में प्रस्फुटित हुआ राम सखा संप्रदाय✍️ डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

                         मधवाचार्य जी
माध्व वैष्णव( ब्रह्म) सम्प्रदाय द्वारा अनुप्राणित:-
राम सखा संप्रदाय, मूलतः ' माध्व वैष्णव( ब्रह्म) सम्प्रदाय' की एक शाखा है, जो एक संगठित समूह में नहीं बल्कि बिखरे स्वरूप में मिलता है। इसके अलावा रामानंद संप्रदाय से भी इसका लिंक मिलता है। संत राम सखे राम सखा संप्रदाय के संस्थापक रहे हैं । माधव सम्प्रदाय के संस्थापक मध्वाचार्य जी थे। जिसे भगवान नारायण की आज्ञा से वायु देव ने भक्ति सिद्धांत की रक्षा के लिए मंगलूर के वेलालि गांव में माघ शुक्ल सप्तमी संवत 1295 विक्रमी को अवतरित कराया था। माधवाचार्य ने अपने शिष्य पद्मनाभ तीर्थ (प्राप्त सिद्धि 1317-- 1324) के साथ तुलुनाडु क्षेत्र के बाहर तत्त्व वाद(द्वैत) का प्रसार करने के एक मठ की स्थापना की। वे द्वैत दार्शनिक और विद्वान थे । उनके शिष्य नरहरि तीर्थ , माधव तीर्थ और अक्षरोभ तीर्थ इस मठ के उत्तराधिकारी बने। 
                              जयतीर्थ जी
    अक्षोभ तीर्थ के शिष्य श्री जयतीर्थ ( सी. 1345 - सी. 1388 ) एक हिंदूवादी, द्वंद्वात्मकतावादी, नीतिशास्त्री और माधवाचार्य पीठ के छठे पुजारी थे। माधवाचार्य के कार्यों की उनकी ध्वनि व्याख्या के कारण उन्हें द्वैत विचारधारा के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण संतों में से एक माना जाता है । द्वैत ग्रंथों पर विस्तार करने के उनके अग्रणी प्रयासों को 14 वीं शताब्दी के दार्शनिक जयतीर्थ ने आगे बढ़ाया ।
उत्तरादि मठ की प्रबलता :-
माधवाचार्य द्वारा स्थापित अष्ट मठों में मुख्य मठ उत्तरादि मठ का प्रमुख तुलुनाडु क्षेत्र के बाहर द्वैत वेदांत ( तत्ववदा ) को संरक्षित और प्रचारित करने के लिए पद्मनाभ तीर्थ नाम पड़ा है। उत्तरादि मठ तीन प्रमुख द्वैत मठों या मठात्रय में से एक है, जो जयतीर्थ के माध्यम से पद्मनाभ तीर्थ के वंश में माधवाचार्य के वंशज हैं । जयतीर्थ और विद्याधिराज तीर्थ के बाद, उत्तरादि मठ कवींद्र तीर्थ (विद्याधिराज तीर्थ के एक शिष्य) और बाद में विद्यानिधि तीर्थ (रामचंद्र तीर्थ के एक शिष्य) के वंश में जारी रहा। उत्तरादि मठ में पूजे जाने वाले मूल राम और मूल सीता की मूर्तियों का एक लंबा इतिहास है और वे अपनी महान दिव्यता के लिए पूजनीय हैं। उत्तरादि मठ प्रमुख हिंदू मठवासी संस्थानों में से एक है। इस मठ को पहले "पद्मनाभ तीर्थ मठ" के नाम से भी जाना जाता था। उत्तरादि मठ मुख्य मठ था जो पद्मनाभ तीर्थ , नरहरि तीर्थ , माधव तीर्थ , अक्षोब्य तीर्थ , जयतीर्थ , विद्याधिराज तीर्थ और कविंद्र तीर्थ के माध्यम से माधवाचार्य से उतरा था, इसलिए इस मठ को "आदि मठ" के रूप में भी जाना जाता है। इसे "मूल मठ" या "मूल संस्थान" या "श्री माधवाचार्य का मूल महासंस्थान" भी कहा जाता है। राम सखा के गुरु वशिष्ठ तीर्थ इसी परम्परा का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं।
                         राम सखा जी महराज
राम सखा की आध्यात्मिक यात्रा:-
राम सखा संप्रदाय के संस्थापक का जयपुर में जन्म उडुपी में दीक्षा अयोध्या और मैहर में तप साधना से विकसित और प्रस्फुटित हुआ है। श्रीमद् रामसखेंद्र जी महाराज ( निध्याचार्य जी महराज) का जन्म विक्रम संवत के 18वी सम्बत के आखिरी चरण या 18वीं ईसवी शताब्दी के प्रथम भाग में चैत्र शुक्ल में राम नवमी को जयपुर में एक सुसंस्कृत गौड़ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन में उनका संस्कार असाधारण अलौकिक और दिव्य था।
साधु संतों और भगवान के भक्तों के प्रति उनके मन में बड़ा आदर भाव था। राम के स्मरण मात्र से ही वे आत्म मुग्ध हो जाया करते थे। वे भगवान के जन्म जात सखा थे।
रामानंदी सम्प्रदाय गलिता से भी लगाव:-
गलताजी जयपुर से 10 कि.मीअरावली पहाड़ियोंमें एक पहाड़ी दर्रे के अंदर निर्मित है । 15वीं शताब्दी की शुरुआत से गलताजी वैष्णव रामानुज संप्रदाय से संबंधित हिंदू तपस्वियों के लिए एक शरणस्थल रहा है। यहां पर गालव नाम के एक संत यहां रहते थे, ध्यान करते थे और तपस्या करते थे। राजानुज/ रामवत/रामनदी सम्प्रदाय में राम और सीता के स्वरूप का पूजा किया जाता है। कहा जाता है कि यह लंबे समय से योगियों के व्यवसाय में है; पयोहारी कृष्णदास, एक रामानुजी संत, यानी रामानुज सम्प्रदाय के अनुयायी 15वीं शताब्दी की शुरुआत में गलता आए और अपनी योगिक शक्तियों से अन्य योगियों को वहां से खदेड़ दिया। गलता उत्तरी भारत का पहला वैष्णव रामानुज पीठ था और रामानुज संप्रदाय के सबसे महत्वपूर्ण घटना में से एक बन गया। कृष्णदास जी पयाहारी ने गलता (जयपुर) में रामानंदी सम्प्रदाय की प्रमुख मंच की स्थापना की थी। गलताजी को रामानुज संप्रदाय में उत्तर तोताद्रि भी कहते हैं। रामानुज सम्प्रदाय की एक प्रमुख गद्दी जयपुर में गलता के पास स्थित रही है। गलताजी (जयपुर) के साथ अयोध्यामें भी एक मठ है।
           यद्धपि जयपुर गलिता उडुपी चित्रकूट और मैहर आदि तीर्थों में घूमते फिरते हुए राम सखा जी का राम सखा नामक ये नया संप्रदाय 18वी संवत से प्रकाश में आया परन्तु सखी सम्प्रदाय का प्रभाव तो सनातन काल से ही राम सखा ,राम सखी ,सीता सखा सीता सखी ,कृष्ण सखा ,कृष्ण सखी , राधा सखा और राधा सखी के विविध रुपों में पुराणों व भक्ति साहित्य में पाया जाता रहा है।
अलग अलग उपाधियों को अंगीकार करना:-
जिस प्रकार राम सखा के गुरु वशिष्ठ तीर्थ उपाधि को विभूषित कर रहे थे। जिसका अर्थ यह होता है कि उसे सभी शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान हो गया है। ठीक उसी तरह राम सखा जी के शिष्य गुरु की तरह निध्याचार्य उप नाम प्रयुक्त करने लगे थे। तात्पर्य अनेक शास्त्रीय निधियां ये अपने में समाहित किए हुए हैं। शील निधि सुशील निधि और विचित्र निधि उनके परम शिष्य हुए थे। श्री निध्याचार्य जी महाराज की तपोभूमि मैहर के बड़ा अखाड़े के रूप में बहुत लोकप्रिय है। अयोध्या में चौथे गुरु अवध शरण ने अपने उपनाम में परिवर्तन कर लिया। निधि उपाधि की पूर्णता को त्यागते हुए दास्य वा भक्ति भाव की प्रधानता वाली उपाधि " शरण "अपनाई जाती है। उचेहरा सहडौल और पुष्कर के आचार्यों ने न जाने कब से अपने उप नाम। "शरण" प्रयोग करने लगे हैं।
       राम सखा महाराज जी जयपुर से निकलने के बाद विराट वैष्णव बन गए थे। उन्होंने सत्य का मार्ग खोजना शुरू कर दिया। राम सखेंद्र श्री राम जी के पिछ्ले जन्म से ही परम भक्त थे। वे युवास्था में तीर्थ यात्रा पर निकल पड़े थे। वे कर्नाटक के तीर्थ क्षेत्र उडुपी पहुंचे। महाराज जी ने माध्य संप्रदाय के आचार्य श्री वशिष्ठ तीर्थ से गुरु दीक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने लिखा है -
"मध्य माध्य निज द्वैत मन
मिलन द्वार हनुमान।
राम सखे विद सम्पदा
उडुपी गुरु स्थान।।"
       वे दक्षिण के उडीपि (कर्नाटक) में बड़ी तनमयता से गुरु की सेवा किये थे। वह अपने गुरु जी के साथ रहे और भगवान और उनके स्नेह को प्राप्त करने का कौशल सीख लिया था। 
जयपुर में बीता बचपन :- जयपुर में जन्में राम सखा जी जयपुर के रामलीला अभ्यास में लक्ष्मण जी के रूप में भाग लेते थे। वे श्रीराम से इतना लगाव कर लिए कि वह वास्तव में उनका छोटा भाई होने का विश्वास करने लगे थे। एक दिन राम लीला प्रशिक्षण के दौरान महाराज जी को भगवान राम का किरदार निभाना पड़ा था। जिसके परिणाम स्वरूप महाराज जी को भोजन नहीं मिल पाया था। महाराज जी ने पूरे दिन कुछ भी नहीं खाया और रात तक इतना परेशान थे कि वे पास के जंगल में चले गए और एक पेड़ के नीचे बैठ रोते रहे। रामलीला मंडली में युवा बच्चा गायब हो जाने के कारण हर कोई चिंतित था।
श्रीरामजी ने खुद खाना खिलाया :-
आधी रात तक जब महाराज जी पेड़ के नीचे रो रहे थे तब राम जी स्वयं स्वादिष्ट भोजन से भरे हाथों में सुनहरे बर्तन लेकर प्रकट हुए। प्रभु की मधुर वाणी सुनकर महाराज जी अभिभूत हो गए। दोनों ने एक-दूसरे को बड़े प्यार से गले लगाया। महाराज जी ने अपनी भूख को शांत किया और दोनों काफी देर तक बातें करते रहे। जिसके बाद भगवान राम अपने साथ लाए सभी सोने के बर्तनों को छोड़कर गायब हो गए।
मन्दिर के सोने के बर्तन गायब मिले :-
इधर जयपुर में जब राम मंदिर के पुजारियों ने मंदिर का दरवाजा खोला, तो वे सभी सोने के बर्तनों को गायब देखकर हैरान रह गए। बर्तन गायब होने की सूचना जयपुर नरेश तक पहुंची । राजा ने तुरंत लापता संपत्ति और चोर की गहन खोज का आदेश दिया। कुछ लोग जंगल में पहुंचे और देखा कि एक युवा लड़का अपने चारों ओर सोने के बर्तन के साथ पड़ा है। लोगों ने उनसे बर्तनों के बारे में पूछा तो महाराज जी ने उन्हें बताया कि राम जी ने उन्हें भोजन कराया, लेकिन बर्तनों को वापस नहीं ले गए। उन्हें लगा कि भगवान राम ने उन्हें अपने छोटे भाई के रूप में स्वीकार कर लिया है। इस समय तक महाराज जी जयपुर में ही थे। उनकी जन्मस्थली होने के कारण वे जयपुर छोड़कर पहले उडुपी और बाद में गुरु जी से दीक्षा लेकर अयोध्या आएं थे।
रामसखा जी का अयोध्या में आगमन:-
अयोध्या आकर राम सखा जी सरयू नदी के तट पर एक पर्णकुटी में भगवान को याद करते- करते अपना जीवन बिताया। वे प्रभु के दर्शन के लिए सरयू तट पर साधना करने लगे। उन्होंने भगवान राम के दर्शन का बहुत दिनों तक इंतजार किया।भगवान का विरह उन्हें असह्य होता जा रहा था। जब उनकी व्यथा बढ़ी तो वे प्रभु को उपालंभ भी देना शुरू कर दिए। संप्रदाय भास्कर में उल्लिखित है -
“अरे शिकारी निर्दयी, करिया नृपति किशोर ।
क्यों तरसावत दरश को, राम सखे चित्त चोर ।।"
      उनकी व्यथा देख एक बार प्रभु ने उन्हें अल्प समय के लिए दर्शन दिया। वे उनसे अंक में लिपट कर खूब रोए और खूब आनंद लिए। बाद में प्रभु जी अंतर्ध्यान हो गए। कुछ दिनों बाद फिर उन्हें दर्शन करने की तलब लगी। अब वे और बेचैन रहने लगे।जब उनकी बेचैनी असहय हो गई । उन्हें बेचैन मनो व्यथा जानकर इस बार रामजी माता सीता जी के साथ उन्हें युगल किशोर के दर्शन हुए। उनका सारा दुख दूर हो गया । सन्त राम सखा आजीवन राम की सरस भक्ति का प्रसार किए। भगवान की सरस झांकी का चिन्तन करते हुए उन्होंने साकेत धाम में प्रवेश किया था।
प्रभु की झांकी का वर्णन : -
प्रभु श्री राम सीता की झांकी राम सखे जी के हृदय में एसे बैठ गया और उनके मुख से ये भाव निकले -
"बगिया शिर लाल हरी कलगी
उर चंदन केसर खौर दिये।
मन मोहन राम कुमार सखी
अनुभारी नहीं जग जन्म लिए।
पग नुपुर पीत कसी कछनी
बन मालती के बन मॉल हिये।
बिहरे सरयू तट कुंजन में
तनु राम सखे चित चोर लिए।।"
          थोड़ी देर दर्शन के बाद प्रभु अंतर्ध्यान हो गए तो राम सखे अब फिर रोना धोना शुरू कर दिया।
काछवाह राजा द्वारा अयोध्या में मन्दिर का निर्माण :-
उनका निवास नृत्य राघव कुंज बना। अयोध्या में इसी नाम से एक मंदिर का निर्माण हुआ था। जो राम सखा की दूसरी गद्दी बनी। इसका निर्माण मैहर के तत्कालीन राजा दुर्जन सिंह कछवाह ने करवाया था। दुर्जन सिंह कछवाहा भारत में राजपूत जाति की उपजाति है। उनके कुछ परिवारों ने कई राज्यों और रियासतों पर शासन किया है जैसे अलवर, अंबर (जिसे बाद में जयपुर कहा जाने लगा) और मैहर आदि । कुंवर दुर्जन सिंह राजा मान सिंह के चौथे पुत्र थे। इनकी माता का नाम सहोद्रा गौड़ था. यह अत्यंत ही साहसी और पराक्रमी योद्धा थे. कुंवर दुर्जन सिंह के वंशजों को दुर्जन सिंहोत राजावत के नाम से जाना जाता है।
चित्रकूट में आगमन:-
अयोध्या के बड़े बड़े सन्त और महात्मा उनका दर्शन पाने के लिए लालायित रहते थे। इससे उनके यहां बहुत भीड़ भाड़ रहने लगी। अवध में इस भीड़ भाड़ से बचने और भगवान राम का मनोवांछित दर्शन ना पाने व्यथा के कारण तथा अयोध्या में बेचैनी पूर्ण समय बिताने के बाद, महाराज जी वहां से चित्रकूट चले गए और वहां कामद वन गिरी पर प्रमोदवन में अपनी प्रार्थना जारी रखी। निरंतर प्रभु के चिन्तन ध्यान और भक्ति के कारण चित्रकूट में अनेक सिद्धियां उनके चरणों की दासी हो गई।
    प्रभु का मिलन और वियोग तथा दर्शन बातचीत का लुका छिपी जारी रहा। एक बार ज्यादा दिनों तक दर्शन ना होने पर उनके मस्तिष्क में ये भाव आया । रूप सामर्थ्य चन्द्र में लिखा है -
"ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे,ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे।
ले चल कुटिल बदल जुल्फान छवि राज माधुरी वेशे।
केसर तिलक कंज मुख श्रम जल ललित लसत द्वई रेफे।
दशरथलाल लाल रघुवर बिनु बहुत जियब केही लेखे।
ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे,ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे।
डूब डूब उर श्याम सुरती कर प्राण रहे अवशेषे।
राम सखे विरहिन दोउ अखियां चाहत मिलन विशेषे।।"
    सरयू तट की भांति एक बार फिर यहां राम ने अपने जुगुल किशोर स्वरूप का दर्शन दिया। इसके संबंध में कुछ लाइनें राम सखे इस प्रकार लिखी है -
"अवध पुरी से आइके चित्रकूट की ओर।
राम सखे मन हर लियो सुन्दर युगुल किशोर।"
            भक्त भगवान का अब लुका छिपी का खेल होने लगा। अब प्रायः दर्शन होने लगे। वे इसका वर्णन सुनाते जाते और भक्त आनंदित होते रहते थे-
"आज की हाल सुनो सजनी मडये प्रकटी एक कौतुक भारी।
जेवत नारी बारात सभौ रघुनाथ लखे मिथिलेश उचारी।
श्री रघुवीर को देख स्वरूप भई मत विभ्रम गावनहारी।
भूली गयो अवधेश को नाम देने लगी मिथिलेश को गारी।।"
         अब तक की साधना और भक्ति से राम सखे की कुंडलिनी जागृति हो गई थी। उनकी सुरति खुलने लगी थी।योग में जब चाहा दर्शन होने लगा था । अब ध्यान लगाना नही पड़ता अपितु मानस पटल पर प्रभु की छवि खुद ब खुद आ जाती थी। उनके भंडारे में सामान्य सा भोजन बनता तो खत्म नहीं होता। राम सखे जी ध्यान में रसोई की जो कल्पना करते वह प्रभु प्रकट कर देते थे। एक दिन खुद महराज जी ने प्रभु के लिए ध्यान में रसोई बनाई। प्रभु उसे पूरा किए। नाना प्रकार के स्वाद और व्यंजन बन जाया करते थे।राम रसिकावली में राजा रघुराज सिंह ने लिखा है
"करई ध्यान में विपुल भावना,
जैसी छवि की होय कामना।
ध्यान में एक दिन रस रांचे,
राम भोग बनबै चित सांचे।
जो व्यंजन मन राम बनाए ,
सो तेहि प्रगट होई आए।।"
श्री रामजी का धनुष बाण के साथ दर्शन :-
महाराज जी को उन सभी भौतिक चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं थी, जो वे करना चाहते थे, वे अपने भगवान के बारे में अधिक जानते हैं और दुनिया में और कुछ भी उनके लिए मायने नहीं रखता था। जब वह ध्यान और प्रार्थना में व्यस्त रहते थे कुछ और महात्मा उससे प्रभावित हुए उनके वास्तविकता का परीक्षण करना चाहे। वह उनसे बोले यदि भगवान राम अपने धनुष वाण के साथ प्रकट हो तो मानेगे कि महात्मा जी उनके सच्चे सेवक है। महात्माओं के सुनने के बाद महराज जी चुप हो गये और इसका उत्तर नहीं दिये। किन्तु रामजी ने इसे नहीं छोड़ा । इसके कुछ देर के बाद रामजी धनुष बाण धारण किए हुए प्रकट हुए और सिद्व किये महराज जी उनके सच्चे भक्त है। महराज जी के सामने धनुष वाण के साथ लेकर देखने व मुस्कराने को महात्मा जन प्रभु जी का महराज जी पर आर्शीबाद मानने लगे।
कुएं में गिरे भगवान के विग्रह को खुद बाहर आना पड़ा :-
यहां राम सखा मंदिर और जानकी मंदिर आज भी इस परम्परा का निर्वहन कर रहे हैं। उनके भजनों का प्रभाव जल्द ही पन्ना के तत्कालीन महाराज (राजा) के ध्यान में आया। राजा महाराज जी के दर्शन करने आए और महाराज जी की भक्ति से बहुत प्रभावित हुए। यह भी कहा जाता है कि चित्रकूट में एक बार जब महाराज जी अपनी सुबह की दिनचर्या समाप्त करने के बाद अपने शालिग्राम भगवान की पूजा की तैयारी कर रहे थे, तभी अचानक से मूर्ति नीचे की ओर लुढ़क गई और पास के कुएं में गिर गई। इस कारण महाराज जी बहुत आहत व शोकाकुल हुए। रोते हुए उसने दुःख में एक दोहा का जाप किया। जैसे ही उन्होंने दोहा समाप्त किया, कुएं में पानी का स्तर नाटकीय रूप से बढ़ गया और मूर्ति ने उन्हें पानी पर नृत्य करते हुए देखा, महाराज जी अभिभूत हो गए और उन्होंने भगवान को दोनों हाथों से गले लगाया। इसके बाद महाराज जी खुशी-खुशी अपनी पूजा करने चले गए।
उचेहरा में अस्थाई प्रवास :-
कुछ महात्मा यह भी बताते हैं कि महाराज जी के एक शिष्य उनके साथ रहे, वे लोगों से भिक्षा माँगते थे और ठाकुर जी के लिए भोग भी तैयार करते थे। ठाकुर जी के भोग के बाद, कई महात्माओं के पास प्रसाद था और वे संतुष्ट होकर लौटे। चित्रकूट में रहने के बाद महाराज जी उचेहरा (अब सतना जिला) में गए।लेकिन उन्हें वहाँ बहुत अच्छा नहीं लगा और संवत 1831विक्रमी (अर्थात 1774 ई.)में मैहर चले गए।
मैहर में तपोसाधना :-
उन्होंने मेहर राज्य के नीलमती गंगा के तट पर पर्णकुटी में गणेश जी के सामने भजन किया और मानसिक ध्यान पूजा और भगवद भजन में लग गए। बड़ा अखाड़ा एक प्राचीन मंदिर है। यह मंदिर शिव भगवान जी को समर्पित है। कम उम्र में रामलीला में शामिल होने के कारण, महाराज जी संगीत के साथ-साथ लेखन कौशल में भी पारंगत थे। उनका लेखन कौशल उनके कई पवित्र लेखन जैसे दोहावली, कवितावली से स्पष्ट होता है। उन्होंने कई पवित्र लेखन जैसे अष्टयाम, स्वाधिष्ठान- प्रतिपादक और नृत्य राघव मिलन भी लिखे जो वास्तव में अभूतपूर्व हैं

उन्होंने अनेक भाव पूर्ण और सरस दोहे भी लिखे हैं।उन्होंने द्वैत-भूषण नामक एक संस्कृत लेखन को लिखा था। अब महराज जी नित्य प्रति प्रभु का दर्शन पाने लगे थे।इस स्वरूप का वर्णन अपने पदों के माध्यम से करने लगे थे। उनके भक्त उसे याद करके घूमते फिरते और लोगों को सुनाया करते थे।
                         नवाब आसफ़ुद्दौला
अनेक सिद्धियों के ज्ञाता:-
नवाब आसफ़ुद्दौला अवध का एक रंगीन मिज़ाज और दरियादिल नवाब था । उसके बारे में कहा जाता है जिसे न दे मौला, उसे दे आसफ़ुद्दौला। लखनऊ का नवाब आसफदौला राम सखा महराज का भक्त हो गया था सुना जाता है कि एक बार एक गायक ने लखनऊ के नवाब आसफुद्दौला के समक्ष को निम्न पंक्तियाँ गाईं-
प्यारे तेरी छबीं वर ।
विश्रामी वंदन कुमार दशरथ के मार जुल्फें कारियों ।।
तीखी सजल लाल अज्जन युत लागत खोलन प्यारियाँ ।।
राम सखे दृग ओटन हमको दो ना पल भर न्यारियाँ।।"
       उपरोक्त पंक्तियों को सुनने के बाद नवाब आसफुद्दौला बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने गायक से लेखक के बारे में पूछा। उन्होंने उसे महाराज जी के बारे में बताया और यह भी बताया कि वह मैहर में रहते हैं। उन्होंने नवाब को यह भी बताया कि महाराज जी द्वारा लिखी गई कई अन्य उत्कृष्ट पंक्तियाँ हैं और कई गायक संगीत के कौशल को जानने के लिए उनकी पंक्तियों को गाते हैं। नवाब उस गायक की सूचना से बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने महाराज के लिए अपने संदेश के साथ अपने नाजिर सन्देश वाहक भेजा, जिसमें उनसे लखनऊ आने और अपना भजन सुनाने का अनुरोध किया था। बदले में उन्हें प्रति वर्ष लगभग 3 लाख की राशि के साथ भेंट करने की बात कही थी। महाराज जी ने नरमी से यह कहते हुए धीरे से मना कर दिया कि उनके पास भगवान राम के साथ कुछ कमी नहीं है। जिस नाजिर सन्देश वाहक को सुनिश्चित करने के लिए उसने धन की एक झलक दिखाई, उसके लिए भगवान ने आश्चर्य चकित कर दिया था। वह नवाब के पास लौट आया और उसने वह सब कह सुनाया जो उसने वहां देखा था।
मेंहर में अंतिम सांस :-
महाराज जी विक्रमीय उन्नीसवीं संवत के प्रथम चरण यानी 1842 विक्रमी (अर्थात 1785 ई.) में मैहर में अपना शरीर त्याग कर अमरता प्राप्त की। उनकी समाधि मैहर में ही है। उसे बड़ा अखाड़ा कहा जाता है। यहां राम जानकी मंदिर में आज भी इस पंथ की पुजा पद्वति प्रचलित है। राम सखेन्दु जी महराज के नाम से उनकी ख्याति आज भी विद्यमान है। मैहर के पूर्व राजा की पत्नी ने भी दीक्षा प्राप्त की और साधु, महात्माओं के लिए जगह-जगह पर सहायता प्रदान की। राजस्थान के पुष्कर में राम सखा आश्रम में आज भी इस सम्प्रदाय के लोग पूजा आराधना करते है । अयोध्या, चित्रकूट, पुष्कर और मैहर सबसे प्रमुख स्थान हैं। रीवा, नागोद आदि क्षेत्रों में महाराज जी के शिष्यों की भारी संख्या है।
                       डा. राधे श्याम द्विवेदी 
(लेखक सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्य कर चुके हैं। वर्तमान में साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और अध्यात्म विषयों पर अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं।)


Thursday, February 16, 2023

माधव वैष्णव ब्रह्म संप्रदाय और उत्तर तोत्रादि मठ एक विशाल आध्यात्मिक समूह. ✍️ डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

मध्वाचार्य माध्व वैष्णव ब्रह्म सम्प्रदाय के संस्थापक :-
राम सखा संप्रदाय का पैतृक गुरु घराना "माधव वैष्णव संप्रदाय" और उत्तर तोत्रादि मठ रहा है। यह मूलतः ' माध्व वैष्णव सम्प्रदाय' की एक शाखा है, जो एक संगठित समूह में नहीं बल्कि बिखरे स्वरूप में मिलता है।  संत राम सखे इनके अनुयायी थे। माधव सम्प्रदाय के संस्थापक मध्वाचार्य जी थे। मध्वाचार्य भारत में भक्ति आन्दोलन के समय के सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिकों में से एक थे। वे पूर्णप्रज्ञ व आनन्दतीर्थ के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। वे भगवान नारायण की आज्ञा से वायु देव ने भक्ति सिद्धांत की रक्षा के लिए मंगलूर के वेलालि गांव में माघ शुक्ल सप्तमी संवत 1295 विक्रमी ( 1238 ई.--1317 ई.) को अवतार ग्रहण किया था। मध्वाचार्य को वायु का तृतीय अवतार माना जाता है । हनुमान और भीम वायु देव के क्रमशः प्रथम व द्वितीय अवतार थे। मध्वाचार्य कई अर्थों में अपने समय के अग्रदूत थे।  जिस मन्दिर में वे रहते थे, वह अब भी 'उडीपी' नामक स्थान में विद्यमान है। वहाँ उन्होंने एक चमत्कारपूर्ण कृष्ण की मूर्ति स्थापित की थी। द्वारका के मालावार तट तुलुब के पास एक जहाज समुंद्र में डूब रही थी। इस पर गोपी चन्दन से ढकी श्री कृष्ण जी की सुन्दर मूर्ति थी। भगवान की आज्ञा से मध्वाचार्य ने उडुपी में उस दिव्य मूर्ति की स्थापना कराई थी। इसे महाभारत के योद्धा अर्जुन ने बनाई हुई बताया जाता हैं।( संदर्भ : श्री भक्तमाल गीता प्रेस,पृष्ठ : 332)।
        उनके द्वारा स्थापित यह सम्प्रदाय भागवत पुराण पर आधारित होने वाला पहला सम्प्रदाय है। रामानंद की भांति चतुष्ट्य संप्रदाय में इसकी भी गणना होती है। भगवान भक्ति को ही मोक्ष का सर्वोपरि साधन मानने वाले रामानुज- सम्प्रदाय के पश्चात एक तीसरा सम्प्रदाय निकला जिसे द्वैत सम्प्रदाय-माध्व सम्प्रदाय– ब्रह्म सम्प्रदाय भी कहते हैं।
महान संत और समाज सुधारक माधवाचार्य:-
माधवाचार्य  महान संत और समाज सुधारक थे। इन्होंने ब्रह्म सूत्र और दस उपनिषदों की व्याख्या लिखी। इस संप्रदाय को ब्रह्म संप्रदाय के रूप में भी जाना जाता है, आध्यात्मिक गुरु (गुरु) के उत्तराधिकार में अपने पारंपरिक मूल का उल्लेख करते हुए ब्रह्मा से उत्पन्न हुआ कहा है। इस मूल सम्प्रदाय की स्थापना तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में हुई।
मध्वाचार्य जी के  सिद्धान्त : --
मध्वाचार्य जी के  प्रमुख सिद्धान्त निम्न लिखित हैं ।
विष्णु सर्वोच्च तत्त्व है। जगत सत्य है। ब्रह्म और जीव का भेद वास्तविक है। जीव ईश्वराधीन है। जीवों में तारतम्य है।आत्मा के आन्तरिक सुखों की अनुभूति ही मुक्ति है। शुद्ध और निर्मल भक्ति ही मोक्ष का साधन है।मध्वाचार्य ने इस सम्प्रदाय की स्थापना तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में की थी।  श्री राम सखे का गुरु घराना वैष्णव माध्व सम्प्रदाय के उत्तर तोत्रादि मठ से सबंधित है।
माधव सम्प्रदाय की स्थापना:-
माधवाचार्य, एक कट्टर वैष्णव थे, जिन्होंने इस विश्वास को दृढ़ता से आगे बढ़ाया कि विष्णु हिंदू देवताओं में सबसे ऊंचे थे, और किसी भी दावे को स्वीकार करने से इनकार कर दिया कि अन्य हिंदू देवता समान रूप से उच्चतम हो सकते हैं। वे कहते हैं कि शुरुआत में केवल एक ही भगवान नारायण या विष्णु थे । परम दिव्य वास्तविकता जिसे हिंदू परंपराएं ब्राह्मण के रूप में संदर्भित करती और व्यक्तिगत आत्माएं, जिन्हें जीवात्मा के रूप में जाना जाता है , स्वतंत्र वास्तविकताओं के रूप में मौजूद हैं, और ये अलग हैं। कई मठों की स्थापना :-
माधवाचार्य ने विभिन्न संप्रदायों के विभिन्न आचार्यों को हराकर कई मठों की स्थापना की। माधव के अनुयायी कई अलग-अलग समूहों के हैं, वे हैं, तुलुवा ब्राह्मण , कन्नड़ ब्राह्मण , मराठी ब्राह्मण , तेलुगु ब्राह्मण और कोंकणी भाषी गौड़ सारस्वत ब्राह्मण । इस प्रकार माधव-वैष्णव मत की चौबीस अलग-अलग संस्थाएँ हैं।
लम्बी शिष्य परंपरा और घराने:-
मध्वाचार्य जी ने कई शिष्य बनाये:- 1. सत्यतीर्थ जी, 2. श्री शोभन जी भट्ट 3. श्री त्रिविक्रम जी 4. श्री रामभ्रद जी, 5. विष्णुतीर्थ, 6. श्री गोविन्द जी शास्त्री, 7. पद्मनाभाचार्य जी, 8. जयतीर्थाचार्य, 9. व्यासराज स्वामी, 10. श्री रामाचार्य जी 11. श्री राघवेन्द्र स्वामी, 12. श्री विदेह तीर्थ जी आदि कई शिष्य ने वैष्णव धर्म का प्रचार किया । इसके अलावा आठ मठ या घराने भी इन्ही से उदभ्रित हुए हैं। माधवाचार्य के प्रत्यक्ष शिष्यों द्वारा स्थापित उडुपी के अष्ट मठ है। उडुपी का तुलु अष्ट मठ माधवाचार्य द्वारा स्थापित आठ मठों या हिंदू मठों का एक समूह है, जो हिंदू विचार के द्वैत विद्यालय के पूर्वदाता हैं। आठ मठों में से प्रत्येक के लिए, माधवाचार्य ने अपने प्रत्यक्ष शिष्यों में से एक को पहला स्वामी नियुक्त किया।
शास्त्रों का पूर्ण ज्ञानवाली उपाधि तीर्थ:-
मध्वाचार्य की मृत्यु के 150 वर्ष बाद उनके शिष्य जयतीर्थ इस सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य हुए।संस्कृत में, 'तीर्थ' शब्द का अर्थ 'शास्त्र' (शास्त्र) है। इसलिए जब किसी संत के नाम में 'तीर्थ' होता है, तो इसका अर्थ यह होता है कि उसे सभी शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान हो गया है। माधव संतों के नाम में 'तीर्थ' होने के पीछे यही तर्क है। इस संप्रदाय के गुरुओं ने तीर्थ उप नाम अपने नाम के आगे लगाना शुरू कर दिया। 
           माधवाचार्य ने अपने शिष्य पद्मनाभ तीर्थ (प्राप्त सिद्धि 1317-- 1324) के साथ तुलुनाडु क्षेत्र के बाहर तत्त्ववाद(द्वैत) का प्रसार करने के निर्देश के साथ अपने शिष्य पद्मनाभ तीर्थ के साथ एक मठ की स्थापना की। जो एक द्वैत दार्शनिक और विद्वान थे । उनके शिष्य नरहरि तीर्थ , माधव तीर्थ और अक्षरोभ तीर्थ इस मठ के उत्तराधिकारी बने। 

अक्षोभ तीर्थ के शिष्य श्री जयतीर्थ ( सी. 1345 - सी. 1388 ) एक हिंदू दार्शनिक, महान द्वैतवादी, नीतिज्ञ और मध्वचार्य पीठ के छठे आचार्य थे। उन्हें टीकाचार्य के नाम से भी जाना जाता है। मध्वाचार्य की कृतियों की सम्यक व्याख्या के कारण द्वैत दर्शन के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण विचारकों में उनकी गिनती होती है। मध्वाचार्य, व्यासतीर्थ और जयतीर्थ को द्वैत दर्शन के 'मुनित्रय' की संज्ञा दी गयी है। वे आदि शेष के अंश तथा इंद्र के अवतार माने गये हैं। माधवाचार्य के कार्यों की उनकी ध्वनि व्याख्या के कारण उन्हें द्वैत विचारधारा के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण संतों में से एक माना जाता है । अंतर्निहित आध्यात्मिक पेचीदगियों को उजागर करने के लिए द्वैत ग्रंथों पर विस्तार करने के उनके अग्रणी प्रयासों को 14 वीं शताब्दी के दार्शनिक जयतीर्थ ने आगे बढ़ाया ।

उत्तरादि मठ की विशालता :-
ऐतिहासिक रूप से, श्री उत्तरादि मठ जगद्गुरु श्री माधवाचार्य की मूल सीट है। विश्वसनीय स्रोतों से हमें पता चलता है कि माधवाचार्य को यह सीट श्री अच्युत प्रेक्षा से विरासत में मिली है, जो ब्रह्म सम्प्रदाय के एकदंडी क्रम से संबंधित थे। इस ब्रह्म सम्प्रदाय की शुरुआत कैसे हुई, इस पर एक किंवदंती है। माधवाचार्य द्वारा स्थापित मुख्य मठ उत्तरादि मठ का प्रमुख तुलुनाडु क्षेत्र के बाहर द्वैत वेदांत ( तत्ववदा ) को संरक्षित और प्रचारित करने के लिए पद्मनाभ तीर्थ है।  उत्तरादि मठ तीन प्रमुख द्वैत मठों या मथात्रय में से एक है, जो जयतीर्थ के माध्यम से पद्मनाभ तीर्थ के वंश में माधवाचार्य के वंशज हैं । जयतीर्थ और विद्याधिराज तीर्थ के बाद, उत्तरादि मठ कवींद्र तीर्थ (विद्याधिराज तीर्थ के एक शिष्य) और बाद में विद्यानिधि तीर्थ (रामचंद्र तीर्थ के एक शिष्य) के वंश में जारी रहा।
माध्वाचार्य ने उत्तरादि मठ में दैनिक पूजा के लिए श्री सीता और श्री राम की मूर्तियाँ भी दीं। चूंकि ये मूर्तियाँ श्री सीता और राम की अन्य सभी मूर्तियों से पहले थीं, इसलिए उन्हें श्री मूल सीता और मूल राम की मूर्तियाँ कहा जाता था।  तदनुसार श्री ब्रह्मा ने श्री उत्तरादि मठ के पुजारी के रूप में अपनी क्षमता में बहुत लंबे समय तक श्री मूल राम और श्री सीता की पूजा की और सनक को पोंटिफिकल सीट दी। कलियुग के आगमन तक यह परंपरा लंबे समय तक चलती रही। उत्तरादि मठ में पूजे जाने वाले मूल राम और मूल सीता की मूर्तियों का एक लंबा इतिहास है और वे अपनी महान दिव्यता के लिए पूजनीय हैं। उत्तरादि मठ प्रमुख हिंदू मठवासी संस्थानों में से एक है जिसने ऐतिहासिक रूप से भारत में उपग्रह संस्थानों के माध्यम से मठवासी गतिविधियों का समन्वय किया है , संस्कृत साहित्य को संरक्षित किया है और द्वैत अध्ययन किया है । इस मठ को पहले "पद्मनाभ तीर्थ मठ" के नाम से भी जाना जाता था। पारंपरिक खातों के अनुसार, उत्तरादि मठ मुख्य मठ था जो पद्मनाभ तीर्थ , नरहरि तीर्थ , माधव तीर्थ , अक्षोब्य तीर्थ , जयतीर्थ , विद्याधिराज तीर्थ और कविंद्र तीर्थ के माध्यम से माधवाचार्य से उतरा था, इसलिए इस मठ को "आदि मठ" के रूप में भी जाना जाता है" मूल मठ" या "मूल संस्थान" या "श्री माधवाचार्य का मूल महा संस्थान" भी कहा जाता है। उत्तरादि मठ का कोई मुख्यालय नहीं है,  कभी-कभी कुछ स्थानों पर विशेष ध्यान दिया गया है। यह मुख्य रूप से एक भ्रमणशील संस्था है जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर चलती और डेरा डाले रहती है, जहाँ भी यह जाती है आध्यात्मिक शिक्षा की मशाल को ले जाने में व्यस्त रहती है।

(लेखक सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्य कर चुके हैं। वर्तमान में साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और अध्यात्म विषयों पर  अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं।)  

Friday, February 10, 2023

शूद्र नीच नही समाज के आधार स्तम्भ रहे हैं ✍️ डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

आजकल गोस्वामी तुलसी दास जी के राम चरित मानस के एक चौपाई को आधार बनाकर कुछ नासमझ सुविधा- भोगी लोग समाज की परंपरागत व्यवस्था को त्रुटि पूर्ण बता रहे हैं। वे समाज में विद्वेष की भावना फैलाकर राजनीतिक लाभ लेना चाहते हैं। वास्तव में ना तो शास्त्रों ने और ना ही समाज ने इस वर्ग भेद को स्वीकृति दी है और ना ये सत्य को समझ पा रहे हैं। 
शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति:- 
शुद्र नीच नही अपितु क्षुद्र (सामान्य) का प्रतिनिधित्व करने वाला शब्द है , इन्होंने अपनी मर्जी से समाज में अपनी जगह बनाई है। ये भारतीय समाज व्यवस्था में चक्राकार व्यवस्था में चतुर्थ क्रम के वर्ण है। इसे पहला क्रम मानकर पूरी शरीर संरचना का आधार भी कहा जा सकता है। यह कर्म के आधार पर निर्धारण किया जाता रहा है । किसी भी वर्ण का मानव अपनी मर्जी से अपना कर्म चुन भी सकता है और बदल भी सकता है। विश्वामित्र क्षत्रिय से ब्रह्मर्षि बन गए थे।स्कन्द पुराण में रत्नाकर नामक एक डाकू का वर्णन है जो देवर्षि नारद की प्रेरणा से राम नाम लेकर महान तपस्वी बनता है और अपना नाम वाल्मीकि रख लेता है। बादमें कर्मणा के बजाय जन्मना अवधारणा का विस्तार देखा गया है।
         शूद्र शब्द मूलत: विदेशी है और संभवत: एक पराजित अनार्य जाति का मूल नाम था। वायु पुराण का कथन है कि शोक करके द्रवित होने वाले परिचर्यारत व्यक्ति शूद्र हैं। भविष्य पुराण में श्रुति की द्रुति (अवशिष्टांश) प्राप्त करने वाले शूद्र कहलाए गए हैं। वैदिक परंपरा अथर्ववेद में कल्याणी वाक (वेद) का श्रवण शूद्रों को विहित था। परंपरा है कि ऐतरेय ब्राह्मण का रचयिता महीदास इतरा (शूद्र) का पुत्र था। बाद में वेदाध्ययन का अधिकार शूद्रों से ले लिया गया था। 
ऐतिहासिक संदर्भ :-
शूद्र जनजाति का उल्लेख डायोडोरस, टॉल्मी और ह्वेनत्सांग भी करते हैं। उत्तर वैदिक काल में शूद्र की स्थिति दास की थी अथवा नहीं इस विषय में निश्चित नहीं कहा जा सकता। वह कर्मकार और परिचर्या करने वाला वर्ग था। 
महाभारत भी इस तथ्य को प्रमाणित करता है-
न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत्। ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्॥
(महाभारत- शान्तिपर्व 188:10)
(अर्थात्-सारा मनुष्य-जगत् एक ब्रह्म की सन्तान है। वर्णों में कोई भेद नहीं है। ब्रह्मा के द्वारा रचा गया यह सारा संसार पहले सम्पूर्णतः ब्राह्मण ही था। मनुष्यों के कर्मों द्वारा यह वर्णों में विभक्त हुआ।)
         मनु स्मृति में तो कहा है " जन्मना जायते शूद्रः"। यह वर्ण ,गुण और कर्म से होते हैं। गीता में कहा है, चातुवर्ण्यं मया श्रष्टम गुण कर्म विभागश: (4/13) अर्थात मैंने गुण व कर्म से चार वर्ण किये हैं।एक पिता के चार पुत्र चार वर्ण के हो सकते हैं । जिसकी बुद्धि ज्ञान प्रधान है वह ब्राह्मण, जिसकी न्याय रक्षा प्रधान है वह क्षत्रिय , किसी की व्यापार प्रधान वृत्ति है वह वैश्य और जिसकी बुद्धि केवल शरीर से सेवा करने की है वह शूद्र है। भगवान कृष्ण स्वयं क्षत्रिय वर्ण प्रधान थे। हमारे शरीर मे ही समझें तो सिर ब्राह्मण, भुजाएं क्षत्रिय, पेट वैश्य व पैर शूद्र हैं। कोई छोटा बड़ा नहीं, सबके सहयोग से शरीर का कार्य चलता है।
        महाभारत सभी को जन्म से शुद्र बताता है :--
तावच्छूद्रसमो ह्येष यावद् वेदे न जायते।
तस्मिन्नेवं मतिद्वैधे मनु: स्वायम्भुवोब्रवीत्॥
(महाभारत वनपर्व 180 : 35)
(अर्थात्‌ - जब तक बच्चे का संस्कार करके उसे वेद का स्वाध्याय न कराया जाय, तब तक वह शुद्र होता है। यह नियम स्वयंभू मनु द्वारा ही बनाया गया है। मनु महाराज क्षत्रिय राजा थे।)
      भारतीय समाज सुधारक बी आर अम्बेडकर द्वारा लिखित पुस्तक हु वज़ द शूद्रस में ऋग्वेद, महाभारत और अन्य प्राचीन वैदिक धर्मग्रंथों का हवाला देते हुए वे कहते हैं कि शूद्र मूल रूप से आर्य थे।अंबेडकर आर्य जाति के सिद्धांत पर भी चर्चा करते हैं और अपनी पुस्तक में इंडो-आर्यन प्रवासन सिद्धांत को खारिज करते हैं। मध्य काल में कबीर, रैदास, पीपा प्रसिद्ध शूद्र संत हैं। असम के शंकरदेव द्वारा प्रवर्तित मत, पंजाब का सिक्ख संप्रदाय और महाराष्ट्र के बारकरी संप्रदाय ने शूद्र महत्त्व धार्मिक क्षेत्र में प्रतिष्ठित किया। 
          पुराणों में जो परम्पराएँ हैं, उनसे भी शूद्र शब्द 'शुच्' धातु से सम्बद्ध जान पड़ता है, जिसका अर्थ होता है, संतप्त होना। कहा जाता है कि ‘जो खिन्न हुए और भागे, शारीरिक श्रम करने के अभ्यस्त थे तथा दीन-हीन थे, उन्हें शूद्र बना दिया गया’। 
समाज का प्रभाव :-
ब्राह्मणों द्वारा प्रस्तुत व्युत्पत्ति में शूद्रों की दयनीय अवस्था का चित्रण किया गया है, किन्तु बौद्ध व्युत्पत्ति में समाज में उनकी हीनता और न्यूनता का परिचय मिलता है। इन व्युत्पत्तियों से केवल इतना पता चलता है कि भाषा और व्युत्पत्ति सम्बन्धी व्याख्याएँ भी सामाजिक स्थितियों से प्रभावित होती हैं।
शूद्र दयनीय और उपेक्षित:-
उत्पत्ति के समय 'शूद्र वर्ण' की स्थिति दयनीय और उपेक्षित थी, यह बात ऋग्वेद और अथर्ववेद में वर्णित समाज के चित्रण से शायद ही सिद्ध होती है। इन संहिताओं में कहीं पर भी न तो 'दास' और आर्य के बीच और न शूद्र और 'उच्च वर्गों' के बीच भोजन और वैवाहिक प्रतिबंध का प्रमाण मिलता है। 
          इसका कोई आधार नहीं कि दास और शूद्र अपवित्र समझे जाते थे और न ही इसका कोई प्रमाण मिलता है कि उनके छू जाने से उच्च वर्णों के लोगों का शरीर और भोजन दूषित हो जाता था। अपवित्रता का सारा ढकोसला बाद में खड़ा किया गया, जब समाज 'कृषिप्रधान' होने के बाद वर्णों में बँट गया और ऊपर के वर्ण अपने लिए तरह-तरह की सुविधाएँ और विशेषाधिकार माँगने लगे।
शूद्र वर्ण का उद्‌भव:-
शूद्र वर्ण के उदभव के विषय में कहा गया है कि आंतरिक और बाहरी संघर्षों के कारण आर्य या आर्य-पूर्व लोगों की स्थिति ऐसी हो गई है। चूँकि संघर्ष मुख्यतया मवेशी के स्वामित्व को लेकर और बाद में भूमि को लेकर होता था, अत: जिनसे ये वस्तुएँ छीन ली जाती थीं, और जो अशक्त हो जाते थे, वे नए समाज में 'चतुर्थ वर्ण' कहलाने लगते थे। जिन परिवारों के पास इतने अधिक मवेशी हो गए और इतनी अधिक ज़मीन हो गई कि वे स्वयं सम्भाल नहीं पाते थे, तो उन्हें 'मज़दूरों' की आवश्यकता हुई और वैदिक काल के अन्त में ये शूद्र कहलाने लगे।
       आर्थिक तथा सामाजिक विषमताओं के कारण आर्य और आर्येतर, दोनों के अन्दर श्रमिक समुदाय का उदय हुआ और ये श्रमिक आगे जाकर शूद्र कहलाए। समाज शास्त्रीय सिद्धान्त है कि 'वर्ग विभाजन' बराबर सजातीय असमानताओं से मूलतया सम्बद्ध होता है, किन्तु इस सिद्धान्त से शूद्रों और दासों की उत्पत्ति पर आंशिक प्रकाश ही पड़ता है। बहुत सम्भव है कि दासों और शूद्रों का नाम क्रमश: इन्हीं नामों की 'जनजातियों' के आधार पर रखा गया हो, जो भारतीय आर्यों के निकट सम्पर्क में रही हों। कालक्रम से आर्य - पूर्व आबादी के लोग और विपन्न आर्य भी इन वर्गों में शामिल हो गए होंगे। वैदिक काल के आरम्भिक लोगों में शूद्रों और दासों की जनसंख्या बहुत सीमित थी और उत्तरवर्ती वैदिक काल के अन्त से लेकर आगे तक शूद्र जिन अशक्तताओं के शिकार रहे हैं, वे आदि वैदिक काल में विद्यमान नहीं थीं।
महाभारत में चारो धर्मों की व्याख्या :-
:शाँतिपर्व’ के आरम्भ ही में भीष्म पितामह ने चारों वर्णों के धर्मों का वर्णन करते हुये कहा था— "अक्रोध, सत्य भाषण, धन को बाँट कर भोगना, क्षमा, अपनी स्त्री से सन्तान उत्पन्न करना, शौच, अद्रोह, सरलता और अपने पालनीय व्यक्तियों का पालन करना—ये नौ धर्म सभी वर्णों के लिये समान हैं। 
जन्म नहीं कर्म से ब्राह्मण की उच्च पदवी :-
 इन्द्रियों का दमन करना यह ब्राह्मणों का पुरातन धर्म है। इसके सिवाय स्वाध्याय का अभ्यास भी उनका प्रधान धर्म है, इसी से उनके सब कर्मों की पूर्ति हो जाती है। यदि अपने धर्म में स्थित, शान्त और ज्ञान-विज्ञान से तृप्त ब्राह्मण को किसी प्रकार के असत् कर्म का आश्रय लिये बिना ही धन प्राप्त हो जाय तो उसे दान या यज्ञ में लगा देना चाहिये। ब्राह्मण केवल स्वाध्याय से ही कृतकृत्य हो जाता है, दूसरे कर्म वह करे या न करे। दया की प्रधानता होने के कारण वह सब जीवों का मित्र कहा जाता है।” कोई व्यक्ति केवल जन्म से ब्राह्मण की उच्च पदवी का अधिकारी नहीं हो सकता, वरन् जो उस तरह के शुभ कर्म और त्याग का आचरण करेगा वही सम्मान और श्रद्धा का पात्र हो सकता है। 
मानवीय कर्तव्यों की प्रमुखता :-
मानवीय कर्तव्यों का सर्वोच्च दिग्दर्शन कराने वाली ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है—
शमो दमस्तपः शौचं क्षाँति रार्जवमेव च। 
ज्ञानं विज्ञानमस्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वमावगम्॥ 42॥
शौर्यम् तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्। 
दीनमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावगम्॥ 43॥
कृषिगोरक्ष्य वाणिज्यम् वैश्य कर्म स्वभावजम्॥ 44॥
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यपि स्वभावजम्॥ 44
(गीता, अध्याय 18)
(अर्थात शम, दम, तप, शुद्धता, सहनशक्ति, सीधापन, ज्ञान, विज्ञान, आस्तिक्य ये सब स्वभाव ही से उत्पन्न हुये ब्राह्मण का कर्म है। स्वभाव ही से उत्पन्न क्षत्रिय के कर्म हैं, शौर्य, तेज धैर्य, दाक्षिण्य, युद्ध से न भागना दान तथा ईश्वर भाव। स्वभाव से उत्पन्न हुये वैश्य के कर्म हैं खेती, गोरक्षा तथा वाणिज्य। शूद्र का स्वाभाविक कर्म है परिचर्या।”)
एक ही वर्ण की प्रधानता:-
इस प्रकार गीता में स्वभाव को ही प्रधानता दी गई है। 
इतना ही नहीं अधिकाँश शास्त्रों और पुराणों से यह भी प्रकट होता है कि पहले समय मनुष्य जाति का एक ही वर्ण था, चार वर्ण अथवा भिन्न-भिन्न जातियों की स्थापना बाद में हुई है। पहले सर्व वांग्मय प्रणव (ओंकार) ही एक मात्र वेद था। एक मात्र देवता नारायण थे और कोई नहीं। एक मात्र लौकिक अग्नि ही अग्नि थी और एकमात्र हंस ही एक वर्ण था।” इससे स्पष्ट जान पड़ता है कि प्राचीन समय में चार वर्णों के स्थान में एक ही वर्ण था। यही बात ‘महाभारत’ में कही गई है—
एक वर्ण मिदं पूर्वं विश्वमासीद् युधिष्ठिर।
कर्म क्रिया विभेदेन चातुर्वर्ण्यम् प्रतिष्ठितम्॥
न विशेषोऽस्ति वर्णानाम् सर्व ब्राह्ममिदं जगत्।
ब्रह्मणा पूर्व सृष्टं हि कर्मभिर्वर्णात् गतम्॥
(अर्थात्—”हे युधिष्ठिर, इस जगत में पहले एक ही वर्ण था। गुण-कर्म के विभाग से पीछे चार वर्ण स्थापित किये गये।
“वर्णों में कोई भी वर्ण किसी प्रकार की विशेषता नहीं रखता, क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत ब्रह्ममय है। पहले सबको ब्रह्मा ने ही उत्पन्न किया है। पीछे कर्मों के भेद से वर्णों की उत्पत्ति हुई।”)
भिन्न-भिन्न युगों में बर्णभेद :-
“वायु-पुराण” में बतलाया गया है कि भिन्न-भिन्न युगों में मानव-समाज का संगठन विभिन्न प्रकार का था—
अप्रवृत्तिः कृतयुगे कर्मणोः शुभ पाययो। 
 वर्णाश्रम व्यवस्थाश्च तदाऽऽसन्न संकरः॥
त्रेतायुगे त्वविकलः कर्मारम्भ प्रसिध्यति। 
 वर्णानाँ प्रविभागाश्च त्रेतायाँ तु प्रकीर्तितः।
शाँताश्च शुष्मिणश्चैव कर्मिणो दुखनिस्तथा।
 ततः प्रवर्त्तमानास्ते त्रेतायाँ जज्ञिरे पुनः॥
(वायु पुराण 8, 33, 49, 57)
(अर्थात्—”सतयुग में कर्मभेद, वर्णभेद, आश्रमभेद न था। त्रेतायुग में मनुष्यों की प्रकृतियाँ कुछ भिन्न-भिन्न होने लगीं, इससे कर्म-वर्ण आश्रम भेद आरम्भ हुये। तदनुसार शान्त, शुष्मी, कर्मी, और दुखी ऐसे नाम पड़े। द्वापर और कलि में प्रकृति-भेद और भी अभिव्यक्त हुआ, तदनुसार क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र नाम पड़े।”)
ब्रह्मा से उत्पत्ति :-
“सृष्टि के आदि में पहले चतुर्मुख ब्रह्मा ने ब्राह्मण ही बनाये। फिर दूसरे वर्ण उन्हीं ब्राह्मणों के वंश में अलग-अलग उत्पन्न हुये।”अनेक व्यक्ति “ऋग्वेद” के “ब्राह्मणोऽस्व मुखमासीद् बाहू राजन्या कृतः” वाले मन्त्र के आधार पर भगवान के विभिन्न अंगों से अलग-अलग वर्णों की उत्पत्ति बतला कर उनको ऊँचा नीचा सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। पर “भविष्य महापुराण” के ब्रह्मपर्व (अध्याय 42) में इसको भ्रमपूर्ण बतलाते हुये लिखा है—
“यदि एक पिता के चार पुत्र हैं तो उन चारों की एक ही जाति होनी चाहिये। इसी प्रकार सब लोगों का पिता एक परमेश्वर ही है। इसलिए मनुष्य समाज में जातिभेद है ही नहीं। जिस प्रकार गूलर के पेड़ के अगले भाग, मध्य के भाग और जड़ के भाग तीनों में एक ही वर्ण और आकार के फल लगते हैं, उसी प्रकार एक विराट पुरुष, परमेश्वर के मुख, बाहु, पेट और पैर से उत्पन्न हुए मनुष्यों में (स्वाभाविक) जाति भेद कैसे माना जा सकता है?”      
वास्तविक ब्राह्मण और शूद्र कौन :-
भारतवर्ष के मध्यकालीन और वर्तमान समय के इतिहास में जात-पाँत की समस्या बड़ी महत्वपूर्ण है। आजकल भारतवर्ष में जो कई हजार जातियाँ पाई जाती हैं उन सब का अस्तित्व प्राचीन काल से है। चार वर्णों का विभाजन अवश्य ही प्राचीन है। वेदों में यद्यपि चारों वर्णों का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं है तो भी ब्राह्मण, राजन्य, पाणि, शूद्र आदि का नामोल्लेख कितने ही स्थानों पर मिलता है। उसके बाद की स्मृतियों में तो चारों वर्णों का पूरा वर्णन ही नहीं किया गया है वरन् उनके संयोग से उत्पन्न अनेक मिश्रित जातियों का भी विवरण दिया गया है। इससे यह कहा जा सकता है कि भारतीय समाज में जात-पाँत की प्रणाली अधिक नहीं तो कई हजार वर्ष पुरानी है।
समय के साथ जाति प्रथा में परिवर्तन:-
जात-पाँत की प्रथा के पुरानी होने पर भी पुराने और नये समय में बहुत बड़ा अन्तर हो गया है। 
1. पहले जहाँ चार मुख्य जातियाँ और दस बीस उपजातियाँ थीं, वहाँ अब जातियों और उपजातियों की संख्या कई हजार तक पहुँच गई हैं। इनमें बहुसंख्यक जातियाँ तो दो-चार सौ वर्ष के भीतर ही उत्पन्न हुई हैं।
 2. आरम्भ में यह विभाजन पूर्णतया कर्म पर आधारित था। इसका अर्थ यह है कि भगवान ने या नियति ने किसी को ब्राह्मण, क्षत्री या शूद्र नहीं बना दिया वरन् जो व्यक्ति या समूह जैसे कार्य करते थे वे वैसे ही माने जाते थे। पर ज्यों-ज्यों समय बीतता गया और लोगों में स्वार्थ तथा संकीर्णता के भाव प्रबल होते गये त्यों-त्यों जातिप्रथा में कठोरता आने लगी और अन्त में ऐसा समय आ पहुँचा जब कि लोगों को जाति और वर्ण का बदल सकना, एक जाति के व्यक्ति का दूसरी जाति में शामिल हो सकना असम्भव जान पड़ने लगा।
निष्कर्ष:- इस प्रकार सभी प्राचीन शास्त्रों, पुराणों, इतिहासों के प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में वर्ण भेद नहीं था और बाद में जब चार वर्णों की व्यवस्था स्थापित भी की गई तो कर्म के अनुसार ही मनुष्यों का वर्ण माना जाता था। जैसे आज मुसलमानों और अंग्रेजों- अमेरिकनों में भी एक प्रकार का जाति-भेद पाया जाता है और उनके सामाजिक सम्बन्ध प्रायः उसी के अनुसार ही होते हैं, तो भी उनमें कट्टरता का भाव नहीं पाया जाता। नीची श्रेणी का कोई भी व्यक्ति विद्या और धन प्राप्त करके ऊँची श्रेणी में सम्मिलित हो जाता है और ऊंची श्रेणी का व्यक्ति अयोग्यता के फलस्वरूप नीची में पहुँच जाता है। इस प्रकार का श्रेणी विभाजन, जो कर्म और योग्यता के आधार पर स्वाभाविक रूप में हो, बुरा नहीं कहा जाता, वरन् उससे समाज की व्यवस्था में सहायता मिलती है। 
        वर्तमान समय में हिन्दू समाज में वर्ण-व्यवस्था तो नष्ट हो चुकी है और उसके स्थान पर बिना जड़ मूल की बिना आधार की जाति-प्रथा उत्पन्न हो गई है। इसको किसी दृष्टि से शास्त्रानुकूल या धर्म सम्मत नहीं कहा जा सकता और इस महा हानिकारक प्रथा को नष्ट किए बिना हिन्दू- समाज की स्थिति कदापि नहीं सुधर सकती। समरसता से चर्चा चिंतन मनन तो किया जा सकता है वैमनस्यता से ऊंच नीच का भाव समझना और भ्रम उत्पन्न करना एक समाज और राष्ट्र के लिए उचित नही है।
(लेखक सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्य कर चुके हैं। वर्तमान में साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और अध्यात्म विषयों पर अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं।)