श्री मदभागवत पुराण प्रथम स्कन्धः नवमोsध्याय: (प्रसंग 40 )
डा. राधे श्याम द्विवेदी
प्रिय मित्रों ,जय श्री कृष्ण, जय श्री राधे। अष्टमोऽध्याय में आपने कुन्ती के परमात्मा से प्रेम के रसमयी प्रकरण को सुना समझा और मनन किया। आप सभी बहुत ही भाग्यशाली हैं जो करुणासागर श्रीकृष्ण की लीलाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। कुन्ती ने परमात्मा से मांगा कि हमारे जीवन में निरन्तर विपत्तियां आती रहें क्योंकि विपदाओं में निश्चित रूप से परमात्मा का चिन्तन होता है, दर्शन होता है। दुख की स्थिति में मनूष्य परमात्मा के निकट पहुंच जाता है। इसका कारण है कि जब दुख का समय होता है तो जितने भौतिकवादी जगत के सम्बन्धी होते हैं वह हमसे दूर रहते हैं, और तो और विपत्तियों के समय हम स्वयं भोग से दूर रहते हैं । अतः परमात्म चिन्तन अधिक हो पाता है। दुख में भगवान के पास जाने का मन करता है, सुख के समय तो समय ही नहीं होता है परमात्मा के पास जाने का और चिंतन मनन करने का।
भगवान कृष्ण कहते हैं, “बुआ क्या मांग रही हो, आपकी बुद्धि तो नहीं चकरा गई है I बुआ,, जब से तुमने जन्म लिया तब से क्या सुख मिला है तुमको, जन्म के बाद तुम्हारे पिता के घर को तुम्हें त्यागना पड़ा था। तुम्हारे पिता ने तुम्हें राज कुन्ती भोज को गोद दे दिया था। और जब विवाह हुआ तो पति मिले पांण्डु अर्थात पीलिया के रोगी, और उस पर भी उन्हें श्राप मिला कि जब भी विषय-वासना की कामना से पत्नी के पास जायेगे उनकी तुरन्त मृत्यु हो जायेगी। माता-पिता के घर सुख नहीं मिला। पति के घर सुख नहीं मिला और तो और पति जब एक दिन जब अचानक अपनी दूसरी पत्नी के साथ भोग करने की कामना की तो उसी समय उनकी मृत्यु हो गई। पति की मृत्यु के बाद जो कष्ट आपने भोगे उनके बारे में विचार करने से मनुष्य डरता है। कभी आपके बेटों को जहर देकर मारने का प्रयास किया गया। कभी लाक्षागृह में पुत्रों को जलाकर मारने का प्रयास किया गया। कभी वनबास हुआ, कभी अज्ञातवास तो कभी दुशासन बहूं को हाथ पकड़कर खींचता हुआ लाता है और उसे दरवार में सबके सामने निःवस्त्र करने का प्रयास करता है। एक पौत्र था अभिमन्यू उसे युद्ध में मार दिया गया। पांच अन्य पौत्रों को सोते में छल से अश्वत्थामा ने मार दिया। कृष्ण कहते हैं बुआ, आपको जीवन में सिर्फ़ दुःख ही दुःख तो मिले हैं और आज फ़िर दुःख मांगती हो। कृष्ण बुआ से लिपट जाते हैं बुआ कितना प्रेम है आपको मुझसे मेरे स्मरण मेरे दर्शन के लिये दूःख मांगती हो। सिर्फ़ इसलिये दुख मांग रही हो कि तुम्हें मेरी याद आती रहे। परमात्मा तो प्रेम का भूखा है सो कुन्ती से लिपट जाते हैं कृष्ण। बुआ भतीजे दोनो के नेत्र अश्रुओं से भर जाते हैं और वातावरण गम्भीर हो उठता है।
कुन्ती से प्रेमालाप होने के बाद कृष्ण ने द्वारिका जाने का कार्यक्रम बदल दिया और पांडवों के साथ पितामह भीष्म के दर्शन को चल देते हैं।
भीष्म परमात्मा के अनन्य भक्त हैं सो परमात्मा ने लीला करी और कुन्ती को आधार बना कर परमात्मा हस्तिनापुर में रुक जाते हैं । परमात्मा के रुकने से सभी लोग प्रसन्न हैं और सभी विचार करते हैं कि परमात्मा उनके कारण रुके हैं जब कि परमात्मा तो सूर्य उत्तरायण के लिये रुके हैं।
परमात्मा की इच्छा है वो भीष्म के अन्तिम समय में दर्शन करना भी चाहते हैं और उन्हें दर्शन देना भी चाहते हैं। परमात्मा की इच्छा है कि भीष्म जब शरीर त्याग करें तो परमात्मा उनके सम्मुख हों।
कृष्ण पांडवों के साथ भीष्म के दर्शन को पहुंचते हैं। भीष्म बांणों की सैय्या पर लेटे हैं। भीष्म विचार कर रहे हैं कि मुझे तो सूर्य उत्तरायण में प्राणों का त्याग करना है। काल से स्वयं भीष्म ने कहा था कि मैं तेरा गुलाम नहीं हूं मैं तो गोविन्द का दास हूं। मैं चाकर गोविन्द को। लोग अपना जीवन सुधारने के लिये दिन रात प्रयास में लगे रहते हैं । परन्तु गोविन्द अपने भक्त की मृत्यु सुधारने के लिये आये हैं।
भीष्म को वरदान दिया था, प्रतिज्ञा की थी पितामह से द्वारिकाधीश ने कि उनके अन्तिम समय में वो उन्हें दर्शन देने आवश्य आयेंगे ऐसा वत्तांन्त है। महाभारत का युद्ध चल रहा था युद्ध होते होते आठ दिन व्यतीत हो गये लेकिन किसी पांडव को कोई खरोच तक नहीं आई। सूर्यास्त के पश्चात युद्ध बन्द हुआ तो दुर्योधन पितामह भीष्म के पास गया उसने पितामह से व्यंगात्मक लहजे में कहा। “पितामह आठ दिन हो गये युद्ध चलते हुए आपने एक भी पांडव को ना मार पाए और ना ही घायल कर पाए हैं। या तो मुझे लगता है कि आप बृद्ध हो गये हैं अन्यथा आप पांडवों के ममता और मोह वश ऐसा कर रहे हैं। आपके वांण पांडवों पर चलते ही नहीं हैं मुझे मालूम है कि पांडव आपको बहुत प्रिय हैं। ”
पितामह भीष्म को बहुत दुख हुआ दुर्योधन की बातें सुनकर।उन्होने विचार किया कि आज तो दुर्योधन हस्तिनापुर के प्रति मेरी निष्ठा पर प्रश्न चिन्ह लगा रहा है। भीष्म आवेश में आ गये और दुर्योधन से बोले, “दुर्योधन, आज रात जब मैं परमात्मा के ध्यान में बैठूं तो अपनी पत्नी को आशिर्वाद लेने के लिये भेजना। मैं उसे आखण्ड सौभाग्यवती होने का आशिर्वाद दे दूंगा। मैं तुमसे भी उतना ही स्नेह करता हुं इस पर प्रश्न मत लगाओ। ” दुर्योधन प्रसन्न हो गया, और चला गया I
कृष्ण को सब पता चला चुका था। कृष्ण इस घटना को जानने के बाद योजना बनाने लगे। रात्रि में जब दुर्योधन की पत्नी भानुमती पितामह के शिविर की ओर जा रही थी। तभी भगवान श्रीकृष्ण शिविर की ओर से चलते हुए भानुमती के पास पहुंचे और भानुमती से प्रश्न किया कि कहां जा रही हैं?
भानुमती ने कृष्ण को बताया कि पितामह के पास प्रणाम करने जा रही हुं। इस पर कृष्ण ने कहा मैं भी उधर से आ रहा हूं। पितामह भगवान की स्तुति अरधना ध्यान आदि में लीन हैं । अभी काहे की जल्दी है, कल चली जाना। कृष्ण की माया से मोहित भानुमती वापस चली जाती है।
भानुमती के वापस चले जाने के बाद मायापति कृष्ण द्रोपदी के पास जाते हैं और द्रोपदी को जगा कर द्रोपदी से कहते हैं कि तुरन्त पितामह के पास प्रणाम करने चलना है। मैंने बहुत से तपस्वियों से यह कथा सुनी है कि कृष्ण ने वहां दो रूप धारण किये थे । एक तो कृष्ण का जो द्रोपदी के लिवाकर पितामह के शिविर में गये। दूसरा द्रोपदी का जो अर्जुन के साथ शैया पर शयन कर रही थी। कृष्ण तो भक्तन हितकारी हैं भक्त के कल्याण हेतु कुछ भी करते हैंI
कृष्ण द्रोपदी को लिवाकर पितामह के शिविर में जाते हैं। पितामह परमात्मा के ध्यान में लीन हैं । द्रोपदी के साथ श्याम सुन्दर शिविर में प्रवेश करने लगे तो द्वारपाल ने रोक दिया।आदेश नहीं है किसी पुरुष के अन्दर जाने का। द्रोपदी शिविर में प्रवेश कर जाती है। ध्यानस्थ पितामह के सामने जाकर प्रणाम करती है। पितामह ने ऐसा सोचा कि दुर्योधन की पत्नी भानुमती है । अतः उन्होने आशिर्वाद दिया, “अखंड सौभाग्यवती भव।”
द्रोपदी को तो कॄष्ण ने आशिर्वाद के विषय में और कुछ बताया ही नहीं था । अतः उसने पितामह से अश्चर्य चकित होकर पूछ दिया, “पितामह आपका आशिर्वाद सत्य होगा?”
द्रोपदी के शब्दों को सुनते ही पितामह ने पूछा, “हे देवी, आप कौन हैं? "
द्रोपदी ने उत्तर देते हुए कहा, “हे पितामह मैं द्रोपदी हूं। ”
पितामह विचार कर रहे हैं कि पांडवों को मारने की प्रतिज्ञा तो मैंने आवेश में की थी। सत्य तो यह है कि मैं उनसे अत्यन्त प्रेम करता हूं। "
पितामह मुस्कुराते हुए बोले, “देवी जब मैंने आशिर्वाद दे दिया है तो सत्य होगा ही, परन्तु बेटी ति मुझे सिर्फ़ इतना बता दे कि तू यहां इस शिविर में अकेले कैसे आई है ? तुझे साथ लाने वाला कहां है ?” पितामह की आंखें नम हो गईं यह कहते कहते।
पितामह उठ कर दौड़्ते हुए शिविर से बाहर आ गये। कृष्ण सामने खड़े हैं। भीष्म कह रहे हैं, “हे गोविन्द मैं तुम्हारा ध्यान अन्दर कर रहा था। तुम बाहर खड़े हो तुम भक्त वत्सल हो। आज तुमने मुझे धर्म संकठ से बचाया है। हे केशव, मैंने तो आवेश में दुर्योधन को वचन दिया था पांडवों के बध करने का। परन्तु हे गोविन्द तुमने अनर्थ होने से बचा लिया।
भीष्म भगवान की स्तुति कर रहे हैं। भगवान भी मुस्कुरा रहे हैं। द्रोपदी दोनो की लीला देख रही है। भगवान और भक्त दोनों का संवाद हो रहा है । द्रोपदी देख रही है कृष्ण भीष्म को पितामह कहते हैं उन्हें प्रणाम करते हैं परन्तु भीष्म तो उन्हें जगतपति कहते हैं । भगवान कहते हैं और प्रणाम भी करते हैं द्रोपदी यह देख कर भृमित है I
तभी पितामह भगवान से बोले, “हे केशव, ये आपकी ही कृपा है कि मैं आपका चिन्तन, ध्यान, पूजन आदि करता हूं बल्कि मैं कहूं कि आप ही मुझसे कराते हो। परन्तु हे केशव, एक विनती है तुमसे जब मेरा अन्त समय होगा तब पता नहीं मेरी शारीरिक स्थिति कैसी होगी?मेरी स्मरण शक्ति कैसी होगी? मेरे नेत्रों की देखने की शक्ति होगी कि नहीं होगी । कुछ पता नहीं परन्तु हे केशव मेरा तुमसे बस एक निवेदन है कि उस समय जब मैं शरीर से मुक्त हो रहा होऊं तब मैं तुम्हारा स्मरण कर पाऊं या नहीं, मैं तुम्हें पुकार पाऊं या नहीं पता नहीं। तब हे प्रभू उस समय आप मेरे अंत काल में मुझे दर्शन देने आवश्य आना। मैं चाहता हुं हे गोविन्द मेरे अंत समय में आप मेरे सामने रहो। हे द्वारिका नाथ आज मुझे वचन दीजिये प्रतिज्ञा करिये मुझसे।
तब श्रीकृष्ण ने पितामह से प्रतिज्ञा की थी वह प्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिये कृष्ण आज पितामह के पास पांडवों के साथ आए हैं।
पितामह को बावन दिन हो गये हैं बांणों की सैया पर लेटे हुए। सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं । भीष्म और असाध्य कष्ट सहन कर जाने अनजाने अपने किये हुए पापों का प्रश्चित भी कर रहे हैं। पितामह सैया पर हैं, उन्हें देखने देवर्षि, राजर्षि और बृम्हर्षि आये हैं। व्यास, नारद, धौम्य, भरद्वाज, आदि अपने शिष्यों के साथ आये हैं । परशुराम, वशिष्ठ, गौतम, विश्वामित्र तथा सुदर्शन आदि ऋषि सभी पितामह के आस पास खड़े हैं । अध्यात्म की चर्चा हो रही है। तभी किसी ने पितामह को संदेश दिया कि द्वारिकाधीश पांडवों, कुन्ती तथा द्रोपदी आदि के साथ आए हैं। पितामह के नेत्रों में अश्रु भर आये तभी द्वारिकाधीश पितामह के नजदीक आ गये । उन्होने पितामह को प्रणाम किया, पितामह के नेत्रों से अश्रु धारा प्रवाहित हो गई। द्वारिकाधीश भी करुणा से भर गये और बोले, “पितामह, वासुदेव नन्दन कृष्ण का प्रणाम स्वीकार करिये। देखिये महाराज युधिष्टिर आपसे मिलने अपने भाइयों के संग आये हैं। साथ बुआ कुन्ती भी अपनी बहुओं के साथ आपके दर्शन को आयी हैं।
पितामह तो बांणों की सैया पर लेटे हैं । पितामह युधिष्टिर आदि को इधर उधर मुंह घुमाकर नहीं देख सकते वो तो असहाय लेटे हैं शरीर में आनेकों बांण धंसे हैं । शरीर का सारा रक्त बह चुका है। पितामह आपने आत्मबल से जीवित हैं और उत्तरायण का इन्तिजार कर रहे हैं।
पितामह भीष्म के पास अनेकों ऋषि गण आदि भी एकत्र हैं। पितामह कृष्ण को देखते हैं कृष्ण का दर्शन करते ही उनका हृदय आनन्दित हो गया। पितामह की आंखों से अश्रु बहने लगे।पाण्डव भी भीष्म के नजदीक पहुंच गये। पितामह सभी को निहार रहे हैं।
तभी कृष्ण पितामह से कहते हैं कि, “हे पितामह,युधिष्टिर को ऐसा लगता है कि इस महाभारत युद्ध के लिये ये ही दोषी हैं। तथा इन्हें ऐसा लगता है युद्ध में मारे गये लोगों की हत्या के जिम्मेदर ये स्वयं ही हैं। जब से युद्ध समाप्त हुआ है तबसे पितामह इनका मन अशात्न है। पितामह, आपका जीवन एक आदर्श चरित्र है । आपने जीवन भर धर्म का पालन किया है। आप अपने अनुभव ज्ञान से युधिष्टिर का मार्गदर्शन करिये। इन्हें अब इस राज्य का कार्यभार गृहण करना है आप इनके मोह को नष्ट करें पितामह। "
पितामह कृष्ण के वचन सुनकर पाण्डवों को सम्बोधित करते हुए बोले, “तुम लोग सदैव धर्म के मार्ग पर चलते रहे। गुरु, ब्रम्हण और भगवान पर आश्रित रहे। उनकी आज्ञा का पालन किया। उसके बाद भी कितना कष्टप्रद जीवन बीता तुम लोगों का। तुम्हारे पिता की असमय मृत्यु होने के बाद तुम्हारी माता कुन्ती ने तुम्हें पालने के लिये कितने कष्ट सहे। यह सब इन्ही की लीला है यह कहते हुए भीष्म कृष्ण की ओर इशारा करते हैं। विचार करो जहां स्वयं धर्मराज युधिष्टिर हैं, महाबली भीम हैं, परम धनुर्धर अर्जुन हैं और स्वयं भगवान कृष्ण हैं वहां विपत्तियों की संम्भावना है ? परन्तु ये कृष्ण जो तुम्हारे साथ आये हैं ये स्वयं कालरूप हैं ये कब क्या लीला कर रहे हैं क्या करने वाले हैं कोई परम ज्ञानी भी नहीं जान सकता है। युधिष्टिर इस बृम्हाण्ड की सारी घटनाएं इन्ही के आधीन हैं। यही इस जगत के जगत्पति हैं और यही स्वयं अपनी माया फ़ैलाकर यहां लीला कर रहे हैं और मनुष्य इनकी माया से मोहित हैं और स्वयं को कर्ता मानकर उलझा हुआ है I इस जगत में कोई भी किसी के सुख दुख का कारण अथवा कर्ता नहीं है। कर्ता और कर्म के बन्धन से मुक्त रहो। यह मोह है जिसके कारण मनुष्य कर्ता के बंधन में बंधा है। युधिष्टिर ये योगेश्वर जिनके साथ तुम यहां आये हो इस जगत के करण कारण सिर्फ़ यही हैं । इनकी ,त्रिगुणी माया से सम्पूर्ण जगत मोहित है, और यही बंधन का कारण है। "
ऐसा कहते हुए स्वयं पितामह ने कृष्ण से कहना आरम्भ किया, “हे गोविन्द मेरे एक प्रश्न का समाधान करो। मैंने अपने जीवन में पाप नहीं किया धर्माचरण करते हुए जीवन जिया है मैंने। मैं अपनी इन्द्रियों के आधीन नहीं रहा। यह सब आप भी जानते हैं परन्तु आज मैं अपने जीवन के अन्तिम समय में ये कष्ट भोग रहा हूं । मैं बांणों की सैया पर असहनीय पीड़ा भोग रहा हूं। आखिर यह किस कर्म के फ़लस्वरूप मैं भोग रहा हुं?”
कृष्ण पितामह के वचनों को सुनकर मुस्कुराए मानो कह रहे हों कि हे पितामह कितनी करुणा है आपमें युधिष्टिर सहित सभी को शिक्षा देने के लिये मुझसे यह प्रश्न कर रहे हैं। कष्ट की पीड़ा से अधिक आनन्द तो आपको मेरी उपस्थिति का है।
कृष्ण पितामह को सम्बोधित करते हुए कहने लगते हैं, “पितामह आप निष्पाप हैं तभी तो मैं आपके सम्मुख उपस्थित हूं। आपने पाप किया नहीं है परन्तु आपने पाप होते हुए देखा है जिसके फ़ल स्वरूप आपको यह कष्ट मिल रहा है। ”
पितामह भीष्म ने कृष्ण के वचनों को सुना और बोले हे केशव मुझे आज यह याद नहीं आ रहा कि कौन से पाप मैंने कब होते हुए देखे। मुझे बतलाओ हे केशव व्याख्या करों।
कृष्ण कहते हैं, “पितामह, याद करिये एक दिन जब दुःशासन राज सभा में द्रोपदी को खींचते हुए लाया था। जुंए में युधिष्टिर द्रोपदी को हार गये थे और दुःशासन द्रोपदी को भरी सभा में निर्वस्त्र करना चाहता था। आप सभा में उपस्थित थे।द्रोपदी ने आपसे गुहार लगाई थी । द्रोपदी ने आपसे कहा था कि हे पितामह आप ही फ़ैसला करिये कि जो व्यक्ति अपना सब कुछ हार चुका है उसे यह अधिकार नहीं कि वह अपनी पत्नी को दांव में लगा सके।आपसे द्रोपदी ने बार बार गुहार की थी कि पितामह, आप न्याय करें कि मुझे दांव पर लगाना ही न्यायपूर्ण नहीं है।
परन्तु हे पितामह आप उस सभा में उपस्थित सबसे ज्येष्ठ थे। पितामह थे परन्तु आपने अन्याय होते हुए पाप होते हुए देखा परन्तु कुछ नहीं बोला। उस समय दुर्योधन का अन्न खाने के कारण आपकी बुद्धि मलीन हो गई थी। आप कुछ नहीं बोले थे। द्रोपदी को उस सभा में आपका ही सहारा था परन्तु आपने उस पाप को नहीं रोका और हे पितामह अत्नतः द्रोपदी ने मुझे पुकारा था और मैं द्रोपदी की लाज बचाने उस सभा में आया था । मैने आपको देखा था आप उस सभा में बैठे अन्याय होते पाप होते देख रहे थे । सभा में आपने पाप होने दिया, इसी पाप का फ़ल है यह बांणों की सैया।
प्रिय पाठकों ! यहां एक बहुत बड़ा संदेश दे रहे हैं श्री कृष्ण और वह संदेश हैं कि हमें अपना भोजन शुद्ध रखने का प्रयास करना चाहिये। पितामह बहुत बड़े भक्त थे । उन्होने कोई पाप नहीं किया अपने जीवन में परन्तु सिर्फ़ दुर्योधन के यहां दूषित अन्न का भोजन करने के कारण उनकी बुद्धि मलीन हो गई और उन्होने स्वयं पाप होते देखकर भी उसका बिरोध नहीं किया।
सिर्फ़ इसलिये कि उनका भोजन पवित्र नहीं था ईमानदारी का नहीं था, इस जगह हमें यह ध्यान देने वाली बात है कि आज हम आहार शुद्धि पर ध्यान नहीं देते हमें बेईमानी, भृष्टाचार, रिश्वत तथा अपराध के द्वारा धनार्जन करने वालों के अन्न से बचना चाहिए।
सिर्फ़ दुर्योधन का दूषित अन्न खाने से भीष्म को मृत्यु से भी अधिक कष्टकारी पीड़ा सहनी पड़ी।तो हम यदि किसी तरह का दूषित अन्न खा रहे हैं तो क्या हम बच जायेंगे,इसलिये हमे सावधान रहना चाहिए।
पितामह भीष्म परमात्मा के भक्त हैं । उनका अन्त सुधारने भगवान को स्वयं आना पड़ा।भीष्म और कृष्ण के मध्य बहुत गहन संवाद हुआ। भीष्म कहते हैं ये द्वारिकाधीश अब मैं अपनी बुद्धि आपको समर्पित करता हुं। यह कामना रहित है इच्छा हीन है मेरी बुद्धि इसे आपके चरणों में समर्पित करता हुं, । ऐसा कहते हुए भीष्म परमात्मा की छवि का ध्यान कर रहे हैं । परमात्मा का सुन्दर श्याम वर्ण का शरीर है।उनके कमल के समान मुख के दोनों तरफ़ बालों की घुंघराली अलकें लटक रही हैं । उनके कन्धे पर सुन्दर पीताम्बर लहरा रहा है। ऐसे सुन्दर परमात्मा के स्वरूप का स्मरण कर रहे हैं भीष्म । उन्हें युद्ध के समय के वो छण याद आ रहे हैं जब, कृष्ण अपने सखा अर्जुन का रथ हांक रहे थे। मुंख के दोनों तरफ़ लहराती घुंघराली अलकें घोड़ों की टापों से उड़ने वाली घूल से मैली हो गई हैं और उनके श्याम वर्ण के सुन्दर चेहरे पर पसीने की बूंदें चमचमा रही हैं । भीष्म को स्मरण हो रहा है वो छ्ड़ जब अपने नुकीले बांणों से भीष्म अर्जुन का रथ हांकते हुए कृष्ण को बींधते थे।
ऐसा कहते कहते भीष्म कृष्ण से बोले, “हे द्वारिकाधीश आपने इस जगत में मेरी प्रतिष्ठा बहुत बढा दी है। मैंने एक बार प्रतिज्ञा कर ली थी कि गोविन्द ने शस्त्र ना ग्रहण करने की जो शपथ ले रखी है उसे मैं तुड़वा दुंगा।आज मैं उन्हें शस्त्र ग्रहण करवा दुंगा, मेरी प्रतिज्ञा का मान कायम रखने के लिये हे गोविन्द आपने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी थी। ”
वृत्तांन्त ऐसा है महाभारत के युद्ध में एक दिन जब कौरवों की तरफ़ से युद्ध की बागडोर भीष्म जी के हांथ में थी तो यह आरोप लगे भीष्म पर कि वो अर्जुन को तथा द्वारिकाधीश को बहुत स्नेह करते हैं । अतः उन पर प्रहार करते समय मोह गृस्त हो जाते हैं।बस इतनी सी पर भीष्म को आवेश आ गया बोले कल मैं ऐसा भीषण युद्ध करुंगा कि जिन द्वरिकाधीश से शस्त्र ग्रहण ना करने की शपथ ले रक्खी है उनसे शस्त्र ग्रहण करवा ही लुंगा। दूसरे दिन युद्ध शुरु हुआ भीष्म ने अर्जुन पर बांणों की बारिश कर दी।अर्जुन के कवच-कुण्डल तोड़ डाले।अर्जुन भीष्म के प्रहारों से बचता हुआ रथ से नीचे जा गिरा। भीष्म ने अपने बांणों के जबर्दस्त प्रहार से रथ को अस्त-व्यस्त कर डाला। रथ में जुते घोड़े बाणों के प्रहार से व्याकुल हो गये।वे अपने प्रांणों की रक्षा के हेतु से इधर उधर भागने लगे। रथ के पहिये भी पितामह ने काट डाले।और आज तो पितामह के प्रहार का मुख्य केन्द्र अर्जुन का रथ था।जब अर्जुन स्वयं रथ से नीचे गिर गये तो, भीष्म ने अपने प्रहार का केन्द्र कृष्ण को बना दिया।कॄष्ण के कवच कुण्डल तोड़ डाले।उनका शरीर भी बांणों से लहूलुहान कर दिया। तो भीष्म क्रोधित सिंह की तरह टूटे रथ से नीचे कूद गये और नीचे पड़े रथ के पहिये को उठा लिया और भीष्म जी को मारने के लिये ऐसे झपटे जैसे सिंह क्रोधित होकर हाथी को मारने दौड़ता है।और परमात्मा इतने वेग से दौड़े कि उनका दुपट्टा कंधे से धरती पर जा गिरा I अर्जुन ने स्वयं दौड़कर कॄष्ण को रोका। हे केशव ! यह आप क्या कर रहे हैं, आप तो परमात्मा हैं और आप ही मर्यादाओं को तोड़ रहे हैं। "
हे गोविन्द मैंने अपना धनुष बांण नीचे गिरा दिया। मैंने तुम्हारे सामने पूर्ण समर्पण कर दिया और मैं बोल पड़ा, “हे द्वारिकाधीश क्या आज मुझे मार ही डालोगे। मेरे आक्रमण से तुम भयभीत हो गये, हे गोवोन्द जिससे काल भी डरता है, वह आज गंगा पुत्र भीष्म से इतना भयभीत हो गया कि युद्ध में शस्त्र ना ग्रहण करने की प्रतिज्ञा तोड़ कर शस्त्र ग्रहण कर लिया। वाह लीलाधारी कैसी लीला करते हो, आज मेरी लाज रखने के लिये अपनी ही प्रतिज्ञा तोड़ दी।”
ऐसा कहते हुए भीष्म कृष्ण का दर्शन करते करते उनमें ही लीन हो गये। सभी एकत्र जन समूह जय जयकार का घोष करने लगे। आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी।भक्त और भगवान का मिलन देखकर उपस्थित सभी जनों के नेत्र अश्रुओं से भर गये थे I
पितामह भीष्म के शरीर का अन्तिम संस्कार किया गया। कृष्ण ने धृतराष्ट्र, गान्धारी, कुन्ती आदि को धैर्य का उपदेश दिया। धृतराष्ट्र की आज्ञा से युधिष्टिर ने राज्य का कार्यभार गृहण किया और धर्मपूर्वक शासन करने लगे।
।।इति नवम अध्यायः।।
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