Friday, February 11, 2022

भगवान के अवतारों का वर्णन (प्रसंग 33) श्रीमदभागवत कथा प्रथम स्कन्घ तृतीय अध्याय

भगवान के अवतारों का वर्णन (प्रसंग 33) 
श्रीमदभागवत कथा प्रथम स्कन्घ तृतीय अध्याय
डा. राधे श्याम द्विवेदी
               सूत जी सुन्दर आसन पर विराजित हैं उनके सामने शौनकादि ऋषि आदि श्रोता विराजमान हैं सूत जी ने कहना प्रारम्भ किया, "हे भक्तों में आप लोगों को इस सृष्टि के प्रारम्भ का वृत्तान्त सुनाता हूं। इस जगत के आदि पुरुष परमात्मा ने एक बार लोकों के निर्माण की इच्छा की, जिसके हेतु परमात्मा ने स्वयं आदि पुरुष का विराट रूप धारण किया।आदि पुरुष में दस इन्द्रियां, पांच महाभूत तथा एक मन था जिन्हे सोलह कलाएं कहा जाता है, सोलह कलाओं से पूर्ण आदि पुरुष का स्वरूप धारण करके जल में शयन किया योग निद्रा में लीन हो गये योग निद्रा में जब परमात्मा गहन में प्रवेश कर गये तो उनकी नाभि से एक कमल प्रकट हुआ । उस कमल पर समस्त प्रजापतियों के अधिपति ब्रम्हा जी उत्पन्न हुए तथा परमात्मा के विराट स्वरूप आदि पुरुष के अंगों से अनेक लोकों का निर्माण हुआ। सुत जी कहते हैं कि परमात्मा का वह आदि पुरुष का विराट स्वरूप अत्यन्त दिव्य था योगी जन उस स्वरूप का ही दर्शन करते हैं। 
भगवान के उस स्वरूप के हजारों पैर, जंघाएं, भुजाएं तथा मुख थे जिसके कारण वह स्वरूप अत्यन्त विलक्षण लग रहा था । उस स्वरूप में सहस्त्रों सिर थे, हजारों कान थे, हजारों आंखें तथा नासिकाएं थीं हजारों मुकुटों तथा आभुषणों से वह स्वरूप विभूषित हो रहा था।परमात्मा के इसी स्वरुप को नारायण कहा जाता है, इसके आगे परमात्मा के अवतारों का वर्णन इस प्रकार है:-समस्त ऋषीगण, देवता, प्रजापति आदि सभी परमात्मा के अंशावतार हैं। परन्तु जब भगवान स्वयं श्रीकृष्ण के रूप  अवतार ग्रहण करने आये तो इसे पूर्ण अवतार कहा गया। परमात्मा के अवतार ग्रहण करने के पीछे अनेकों लक्ष्यं थे। 
परमात्मा अनन्त शक्तियों से समपन्न है, उसकी समस्त क्षमता और व्यापकता को सिर्फ़ परमात्मा के भक्त ही जान पाते हैं जो परमात्मा को पूर्णतः समर्पित हैं और निरन्तर उसके चिन्तन में लीन रहते हैं। 
सूत जी पुनः बोले, “हे भक्त गणों आप सभी बहुत ही भाग्यशाली हैं धन्य हैं कि माया से   परिपूर्ण जगत में, वाधाओं से भरे संसार में भी आप सभी परमात्मा श्री कृष्ण के प्रति भक्ति प्रेम और समर्पण भाव से पूर्ण हैं । आप सभी पर परमात्मा की अनन्य कृपा है, आप सभी बार बार जन्म और मरण के चक्र से मुक्त हैं । सूत जी ने यहां यह रहस्यमयी बात कही कि परमात्मा पर  प्रेम  होना परमात्मा की कृपा से ही संभव है तथा जिसकी सच्ची श्रद्धा और   समर्पण परमात्मा श्री कृष्ण के प्रति होती है वह इस भौतिक जगत के   प्रपंचों से सर्वथा मुक्त रहता है। भगवान के अवतारों के रहस्य  जानना  अत्यन्त जरूरी है कि परमात्मा ने जो अवतार लिये उनके पीछे क्या तत्व ज्ञान है। 
सूत जी कह रहे हैं कि हे ऋषियों जब भगवान श्री कृष्ण इस पृथ्वी से   प्रस्थान कर रहे थे तो भगवान ज्ञान तथा धर्म को अपने साथ ही स्वधाम ले गये।इसके बाद कलियुग के आगमन से इस पृथ्वी पर मनुष्य अज्ञानरूपी अन्धकार से अन्धे हो गये हैं अर्थात अपनि दृष्टिः खो चुके हैं । सूत जी कह रहे हैं कि जब से भगवान श्रीकृष्ण इस प्रथ्वी से स्वधाम चले गये तो इस धरा से धर्म और ज्ञान उनके साथ ही चला गया और उसके बाद से   मनुष्य माया के मोह में गृसित लोभ मोह और वासनाओं से पीड़ित है।परन्तु व्यास जी द्वारा रचित श्रीमदभागवत जी उन सभी को भौतिक  जगत से मुक्ति प्रादान कारने का सवसे सफ़ल और सरल साधन है । यह  मनुष्य के मोह रूपी अन्धकार को   समाप्त करने के लिये सूर्य के समान हैं । 
१.   सूत जी ने कहा कि परमात्मा का पहला अवतार है सनक, सनन्दन, सनातन सनत्कुमारों का ब्राम्हण के रूप में अवतार है। ये ब्रम्हा जी के मानस पुत्र कहे जाते हैं,   सनत्कुमार आदि ब्रम्हचर्य के प्रतीक हैं, मनुष्य के लिये धर्म में पहली सीढी है ब्रम्हचर्य जिसके द्वारा मनुष्य मन बुद्धि चित्त और अहंकार की शुद्धता कर सकता है, ब्रम्हचर्य के द्वारा मन स्थिरता को प्राप्त करता है तथा अन्तः करण शुद्ध होता है……
२. दूसरा अवतार है वाराह का अर्थात सूकर का इस अवतार को ग्रहण  कर परमात्मा ने सूकर रूप में अवतार लेकर दैत्यों के द्वारा छिपाई गई पृथ्वी को गन्दे और विषैले रसतल से ऊपर उठाया। वाराह  अवतार संन्तुष्टी का  प्रतीक है।दैत्यों ने लोभ वश पृथ्वी को धरातल के नीचे विषैले गन्दे जल में नीचे डुबो दिया था। परमात्मा ने वाराह अवतार ग्रहण कर लोभ को  संन्तुष्टि से परास्त किया और भक्तों को संदेश दिया कि प्रारब्ध वश जो स्थितियां हैं उन्हें स्वीकार करो संतोष करो। यह अवतार परमात्मा ने लिया था संसार के कल्याण के लिये जिसमें सूकर का रूप ग्रहण कर उन्होने रसातल में गई पृथ्वी को निकाला I
३.    तीसरा अवतार है नारद के स्वरूप का है, जिसमें एक भक्त तथा परम वैरागी की लीला किया Iब्रम्हचारी जब संतुष्टि की अवस्था को पा लेता है भक्ति का जन्म तभी होता है। यह है नारद अवतार का रहस्य। नारद जी भक्ति मार्ग के आचार्य हैं । 
४.  चौथे अवतार में परमात्मा ने राजा धर्म की पत्नी मूर्ती के जुड़वां पुत्र  नर-नारायण के रूप में अवतार लिया । जब मनुष्य भक्ति के मार्ग पर चलने लगता है तो उसे भगवान का साक्षात्कार हो जात है। यह रहस्य नर नारायण अवतार का है।  ५.पांचवा अवतार है सांख्ययोग के परम आचार्य कपिल देव का है जिसके अनुसार भक्ति के मार्ग पर चलने वाला भक्त परमात्मा को पा लेता है परन्तु भक्ति जब तक ज्ञान और वैराग्य युक्त नहीं है तब तक भक्ती में पूर्णता नहीं आती। जब ज्ञान और वैराग्य की दृढ अवस्था तक भक्त पहुंच जाता है तब सिद्ध अवस्था अर्थात कपिल जी जैसी अवस्था और सांख्य योग की पूर्णता प्राप्त होती है। 
६. छठा अवतार दत्तात्रेय जी के रूप में है। इसके तत्व का रहस्य यह है कि जब मनुष्य में ब्रन्हचर्य, संतोष, ज्ञान, भक्ति, वैराग्य दृढ हो जाते हैं तब अत्रि और अन्सुइया के घर परमात्मा दत्तात्रेय के रूप में अवतार ग्रहण करता है।
 यह प्रथम से लेकर छः अवतार परमात्मा ने ग्रहण किये यह ब्राम्हणों के लिये हैं। ये उन्हे  विशेष रूप से मार्गदर्शित करते हैं।
७.  सातवां अवतार उन्होने रुचि प्रजापति की पत्नी आकूति से यज्ञ के रूप में लिया  I                                                   
८.    आठवां अवतार उन्होने राजा नाभि की पत्नी मेरू देवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में लिया I   
९.     नवां अवतार उन्होने ऋषियों की प्रार्थना से राजा पृथू के रूप में लिया  I                                                
१०.   दसवां अवतार मत्स्य के रूप में लिया तथा वैवस्वत मनु की रक्षा की  I      
          ये ७  से १० तक के अवतार इस रहस्य को दर्शाते हैं कि ज्ञान वैराग्य की परम अवस्था के बाद भी मनुष्य अर्थात भक्त का जो मुख्य आदर्श कर्म कर्तव्यः है वह प्रस्तुत किया परमात्मा ने यह चार अवतार क्षत्रिय कर्मों को आदर्श धर्म के बारे में शिक्षा देते हैं।                                
११.   ग्यारहवां अवतार देव - दानव द्वारा किये जाने वाले समुद्र मन्थन के समय कच्छप के रूप में लिया तथा मन्दराचल पर्वत को अपनी पीठ पर धारण किया I भगवान ने कछुए के रूप ग्रहण किया जिनकी पीठ पर नास्तिकों और आस्तिकों द्वारा अर्थात दौत्यों और देवों द्वारा मदरान्चल पर्वत को मथानी की तरह चलाया गया। 
१२.    बारहवां अवतार धन्वन्तरी के रूप में समुद्र मंथन से अमृत कलश लेकर हुआ  I                                  
१३.   तेरहवां अवतार समुद्र मंथन के समय मोहिनी रूप में लिया और दैत्यों को अपने रूप से मोहित कर देवताओं को अमृत पिला दिया  I                                                                ये तीनों ११,१२ व १३वां अवतार वैश्यों को शिक्षित करते हैं। परमात्मा वैश्यों जैसे लोगों के लिए बताया गया है।            १४. चौदहवां अवतार परमात्मा नें नृसिंह का लिया। परमात्मा ने नरसिंह के रूप में खम्भे को फ़ाड़ कर प्रकट हुए थे। यह पुष्टि अवतार है। अपने भक्त प्रहलाद को प्रभु दर्शन दिये तथा उसके पिता का उद्धार किया। प्रह्लाद के पिता की बुद्धि अहंकारित हो चुकी थी। वह अपने भक्त पुत्र को पीड़ित करता है और कहता है मैं स्वयं इस ब्रम्हमांड का सर्वशक्तिशाली शासक हूं, परन्तु उसका पुत्र प्रहलाद भक्त था । परमात्मा पर उसका दृढ प्रेम था उसकी परमात्मा में दॄढ निष्ठा थी उसे विश्वास था परमात्मा सर्वशक्तिमान है और सभी जगह उपस्थित है, उसने अपने पुत्र प्रहलाद को पीड़ित करने के उद्देश्य से प्रश्न किया कि क्या तुम्हारा भगवान इस खम्भे में भी है? तो भक्त प्रहलाद नें दृढता से कहा कि हां परमात्मा सर्वव्यापक है और इस खम्भे में भी है । परमात्मा नरसिंह के रूप में रौद्र रूप में प्रकट हुए। वे प्रहलाद के विश्च्वास को पुष्टि प्रदान की और उसके पिता को उठाकर अपनी गोद में परमात्मा ने लिटा लिया और उसके पेट को फ़ाड़ कर उसका बध  और मुक्ति प्रदान किया। परमात्मा की सर्वव्यापकता का अनुभव पूर्ण समर्पण के बाद ही आने वाला है, परन्तु प्रहलाद जैसा समर्पण हो जाने पर परमात्मा भक्त के आधीन होकर पूष्टि अवतार ग्रहण करते हैं। परमात्मा की सर्वव्यपकता का अनुभव होते ही आपका व्यवहार  सुधर जायेगा।  आप किसी पर क्रोध नहीं कर सकेंगे, पाप आपके द्वारा होगा ही नहीं।
१५. पंद्रहवां अवतार परमात्मा ने लिये वामन अर्थात छोटे बैने ब्राम्हण का  और भिक्षा मांगने गये । दानवीर दैत्यराज बलि के पास  परमात्मा ने बलि से तीन पग भूमि मांगी। बली ने दान देने का दृढ किया तो बलि के गुरु शुक्राचार्य ने बलि को मना किया कि ये वामन रूप में परमात्मा स्वयं हैं परन्तु बलि ने कहा कि जब स्वयं नारायण उससे मांगने आये हैं तो वह उन्हें सन्तुष्ट आवश्य करेगा और राजा बली ने उन्हे तीन पग भूमि देने का संकल्प किया और उन्हे तीन पग भूमि दे दी। 
राजा बलि ने वामन देव से कहा आप तीन पग भूमि नाप लें, जहां आपकी इच्छा हो भूमि ले लें। वामन देव ने तीन पग भूमि नापी। कहते हैं कि दो पग में परमात्मा ने राज बलि के राज्य को नाप लिया । तीसरा पग बाकी था बलि से परमात्मा ने  कहा कि तीसरा पग कहां रक्खूं? बलि ने हांथ जोड़  कर परमात्मा से कहा कि यह तीसरा पैर मेरे ऊपर रखिये ।  बलि ने  भगवान  को स्वयं अपने आप को समर्पित कर दिया। परमात्मा ने राजा  बलि को भी गृहण कर लिया और उसे अपने लोक सूतल का राज बना   दिया तथा स्वयं भगवान उसके चौकीदार बने। 
इस अवतार का मुख्य तत्व रहस्य यह है कि मनुष्य जब पूर्ण समर्पित भाव से परमात्मा को समर्पित हो जाता है परमात्मा उसका योग और क्षेम स्वयं वहन करता है। 
१६.सोलहवां अवतार परशुराम के रूप में अवेशावतार है। उनहोंने पतित हो रहे क्षत्रियों का इक्कीस बार संहार किया I    
१७.   सत्रहवां अवतार उन्होने व्यास देव के रूप में सत्यवती तथा पराशर के पुत्र हुए  I यह अवतार व्यास देव के रूप में ,आचार्य रूप में है जिसके द्वारा अनेकों वेद पुराणादि की रचना की तथा अन्ततः भागवत की का प्रचार किया।                     
१८.   अठारहवां अवतार प्रुथ्वी के दुख हरने के लिये राम के रूप में लिया। वे मर्यादापुरुषोत्तम राम के रूप में लिया धरती की पीडा़ का हरण किया और अहंकार का नाश किया था।      १९,२०.उन्नीसवां तथा बीसवां अवतार कृष्ण और बलराम के रुप में लिया परमात्मा ने यह अवतार परमात्मा का आननद और प्रेम स्वरूप में हैं जहां परमात्मा मैया यशोदा के प्रेम के सामने कमजोर पड़ जाते हैं और मैया उन्हें प्रेम की रस्सी से बांध लेती है, इस अवतार में परमात्मा की लीलाएं गूढ हैं ।परमात्मा ने संदेश दिया कि मैं परम शक्तिशाली हूं परन्तु प्रेम के सामने मैं असमर्थ हुं प्रेम की रास से मैं बंध जाता हूँ। 
२१.  एक्कीसवां अवतार उन्होने बुद्ध के रूप में लिया I
२२. बाइसवां अवतार भविष्य में कल्कि अवतार के रूप में होगा। सूत जी कहते हैं कि जब कलियुग का अन्त निकट होगा। तब जब राज करने वाले राजा भी चोर हो जायेंगे। उस काल में जगत के रक्षक भगवान विष्णू यश नामक ब्राम्हण के घर कल्कि के रूप में अवतार  लेंगे I
            सूत जी कहते हैं कि जिस प्रकार एक जल के सरोवर से अनेकों नदियां नाले नहर आदि नकलते हैं उसी प्रकार से परमात्मा विभिन्न रूपों और शरीरों को धारण कर अवतार ग्रहण करते हैं। परमात्मा की लीलाएं अमोघ हैं और वह छः ऎश्वर्यों धन, शक्ति, यश, सौन्दर्य, ज्ञान तथा त्याग से सम्पन्न हैं । वे बृम्हाण्डों का सृजन करते हैं । उनका पालन करते हैं और पुनः नवसृजन के हेतु से उनका संहार करते हैं । परमात्मा तो सूक्ष्म रूप में प्रत्येक जीव में व्याप्त है। मनुष्य तो बहुत ही छुद्र प्राणी है वह अल्प ज्ञानी है । अतः परमात्मा के रूप, नाम और कर्मों के रहस्य और उसकी गूढता को नहीं जान सकता है। जिस प्रकार एक बहुत बड़े नगर के निर्माण में कार्यरत साधारण श्रमिक उस नगर निर्माण में कार्यरत यांत्रिक अर्थात इन्जीनियर के प्लान आदि के बारे में नहीं जान सकता । वह सिर्फ़ इतना जानता है उसे क्या कार्य करना है। जैसे एक नाटक में एक नट का कार्य करने वाला नाटक के निर्देशक के कार्य के बारे में कुछ नहीं जान सकता वैसे ही साधारण प्राणी और परमात्मा है। 
     परमात्मा के विषय में तो बहुत महान और ज्ञानी लोग भी अपनी वाणी द्वारा कुछ व्यक्त करने में समर्थ नहीं है। सूत जी कह रहे हैं कि भगवान श्री वेदव्यास जी ने इस श्रीमदभागवत जी की रचना जो की है। यह परमात्मा की लीलाओं का गृन्थ है। उनकी लीलाओं का चित्रण है । यह गृन्थ भी वेदों के स्वरूप ही है। इस गृन्थ की रचना के पश्चात श्री व्यास जी ने इसे अपने पुत्र परम वैराग्य में रहने वाले श्री शुकदेव जी को प्रदान किया। जिन्होने इस महान गृन्थ को गंगा नदी के तट पर बैठकर राजा परिक्षित को सुनाया। महाराज परिक्षित जो निराहार रहकर अपनी मृत्यु की प्रतिक्षा कर रहे थे उन्हे शुकदेव जी ने परमात्मा की लीला रहस्य गृन्थ का श्रवण कराया था। 
हे परम पूज्य विद्वानों शुकदेव जी ने सर्पदंश के शाप से ग्रसित महाराज परिक्षित को यही श्रीमदभावगत जी की कथा का श्रवण कराया। जिसके फ़ल्स्वरूप परिक्षित जी को मुक्ति की प्राप्ति हुई।      
               ।।  जय श्री कृष्ण जय श्री राधे।। 

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