Sunday, February 26, 2023
श्री सनातन और राम सखा संप्रदाय का अग्रणी केंद्र गालव और पयोहरी कृष्णदास की साधना स्थली गलताजी जयपुर
वे यहां रहते, ध्यान और तपस्या करते थे। वे यहां 100 वर्षों के लिए अपने 'तपस्या' का प्रदर्शन किये थे। उनकी तपस्या से प्रसन्न, देवता गण उनके सामने प्रकट हुए और प्रचुर मात्रा में पानी के साथ दिव्यता की आशीर्वाद दिये थे।
घोड़े के दान की कहानी :-
विश्वामित्र तपस्या में लीन थे। ऋषि गालव सिद्ध ऋषि विश्वामित्र के समर्पित शिष्य या पुत्र थे। उसका यह नाम इसलिए मिला क्योंकि वह कठिन समय पर उसकी मां ने उसके गले में रस्सी बांधकर उसे लगभग एक गुलाम के रूप में बेच दिया (गाला)। वह एक समर्पित शिष्य बन गये और उसने अपने गुरु ऋषि विश्वामित्र की सेवा में बहुत मेहनत की। एक दिन उनकी सेवाओं से कार्य करते हुए, विश्वामित्र ने गालव को उन्हें अपने कर्तव्यों से मुक्त कर दिया।
उस समय प्रथा था एक छात्र हमेशा अपने गुरु को अपने प्रशिक्षण और शिक्षा के पूरा होने पर 'गुरु दक्षिणा' की पेशकश करता था। लेकिन विश्वामित्र ने गालव से कुछ और लेने से इनकार कर दिया क्योंकि वह पहले ही अपने छात्रों के प्रति पूरी तरह से ऋणी महसूस कर रहे थे। गालव शिष्य सेवारत थे। धर्मराज ने विश्वामित्र की परीक्षा लेने के लिए वसिष्ठ का रूप धारण किया और आश्रम में जाकर विश्वामित्र से तुरंत भोजन मांगा। विश्वामित्र ने मनोयोग से भोजन तैयार किया किंतु जब तक 'वसिष्ठ' रूप-धारी धर्मराज के पास पहुंचे, वे अन्य तपस्वी मुनियों का दिया भोजन कर चुके थे। यह बतलाकर वे चले गये। विश्वामित्र उष्ण भोजन अपने हाथों से, माथे पर थामकर जहां के तहां मूर्तिमान, वायु का भक्षण करते हुए 100 वर्ष तक खड़े रहे। गालव उनकी सेवा में लगे रहे। सौ वर्ष उपरांत धर्मराज पुन: उधर आये और विश्वामित्र से प्रसन्न हो उन्होंने भोजन किया। भोजन एकदम ताजा था। परम संतुष्ट होकर उनके चले जाने के उपरांत गालव मुनि की सेवा-शुश्रुषा से प्रसन्न् होकर विश्वामित्र ने उसे स्वेच्छा से जाने की आज्ञा दी। उसके बहुत आग्रह करने पर खीज कर विश्वामित्र ने गुरु-दक्षिणा में चंद्रमा के समान श्वेत वर्ण के किंतु एक ओर से काले कानों वाले आठ सौ घोड़े माँगे।गालव निर्धन विद्यार्थी था- ऐसे घोड़े भला कहां से लाता:- चिंतातुर गालव की सहायता करने के लिए विष्णु ने गरुड़ को प्रेरित किया। गरुड़ गालव का मित्र था। वह गालव को पूर्व दिशा में ले उड़ा। ऋषभ पर्वत पर उन दोनों ने शांडिली नामक तपस्विनी ब्राह्मणी के यहाँ भोजन प्राप्त किया और विश्राम किया। जब वे सोकर उठे तब देखा कि गरुड़ के पंख कटे हुए हैं। गरुड़ ने कहा कि उसने सोचा था कि वह तपस्विनी को ब्रह्मा, महादेव इत्यादि के पास पहुंचा दे। हो सकता है कि अनजाने में यह अशुभ चिंतन हुआ हो। फलस्वरूप उसके पंख कट गये। शांडिली से क्षमा करने की याचना करने पर गरुड़ को पुन: पंख प्राप्त हुए। वहां से चलने पर पुन: विश्वामित्र मिले तथा उन्होंने गुरु दक्षिणा शीघ्र प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की।
गरुड़ गालव को अपने मित्र ययाति के यहाँ ले गया। ययाति राजा होकर भी उन दिनों आर्थिक संकट में था।
उनके पास ऐसे घोड़े भी नहीं थे, लेकिन दानी ययाति याचक को खाली हाथ जाने भी कैसे देते। तब उन्होंने अपनी बेटी, जिसे दिव्य कोख का वरदान मिला था, उसे गालव को दान कर दिया। माधवी को यह वरदान मिला था कि उसकी कोख से चार यशस्वी चक्रवर्ती सम्राट उत्पन्न होंगे। इसके बावजूद उसका कौमार्य सुरक्षित रहेगा यानी वह सुंदर कुमारी कन्या बनी रहेगी। राजा ययाति ने गालव से कहा, 'आप दैवीय गुणों वाली मेरी इस बेटी के बदले अन्य राजाओं से अपनी दक्षिणा के लिए घोड़े पा सकते हैं। ऐसी गुणवान कन्या के लिए तो राजा अपना राजपाट छोड़ दें, घोड़े क्या चीज़ हैं। बाद में, गुरु दक्षिणा पूरी हो जाने पर मेरी बेटी को वापस मेरे यहां छोड़ जाएं।'
अत: ययाति ने सोच-विचारकर अपनी सुंदरी कन्या गालव को प्रदान की और कहा कि वह धनवान राजा से कन्या के शुल्क स्वरूप अपरिमित धनराशि ग्रहण कर सकता है, ऐसे घोड़ों की तो बात ही क्या! कन्या का नाम माधवी था- उसे वेदवादी किसी महात्मा से वर प्राप्त था कि वह प्रत्येक प्रसव के उपरांत पुन: 'कन्या' हो जायेगी। किसी भी एक राजा के पास कथित प्रकार के आठ सौ घोड़े नहीं थे। गालव को बहुत भटकना पड़ा।
पहले वह अयोध्या में इक्ष्वाकुवंशी राजा हर्यश्व के पास गया। उसने माधवी से वसुमना नामक (दानवीर) राजकुमार प्राप्त किया तथा शुल्क-रूप में कथित 200 अश्व प्रदान किये।
धरोहर स्वरूप घोड़ों को वहीं छोड़ गालव माधवी को लेकर काशी के अधिपति दिवोदास के पास गया। उसने भी 200 अश्व दिये तथा प्रतर्दन नामक (शूरवीर) पुत्र प्राप्त किया।
तदुपरांत दो सौ घोड़ों के बदले में भोजनगर के राजा उशीनर ने शिवि नामक (सत्यपरायण) पुत्र प्राप्त किया।
गुरुदक्षिणा मं अभी भी 200 अश्वों की कमी थी। माधवी तथा गालव का पुन: गरुड़ से साक्षात्कार हुआ। उसने बताया कि पूर्वकाल में ऋचीक मुनि गाधि की पुत्री सत्यवती से विवाह करना चाहते थे। गाधि ने शुल्क स्वरूप इसी प्रकार के एक सहस्त्र घोड़े मुनि से लिये थे। राजा ने पुंडरीक नामक यज्ञ कर सभी घोड़े दान कर दिये। राजाओं ने ब्राह्मणों से दो, दो सौ घोड़े ख़रीद लिये।
घर लौटते समय वितस्ता नदी पार करते हुए चार सौ घोड़े बह गये थे। अत: इन छह सौ के अतिरिक्त ऐसे अन्य घोड़े नहीं मिलेंगे। दोनों ने परस्पर विचार कर छ: सौ घोड़ों के साथ माधवी को विश्वामित्र की सेवा में प्रस्तुत किया। विश्वामित्र ने माधवी से अष्टक नामक यज्ञ अनुष्ठान करने वाला एक पुत्र प्राप्त किया। तदपरांत गालव को वह कन्या लौटाकर वे वन में चले गये। गालव ने भी गुरुदक्षिणा देने के भार से मुक्त हो ययाति को कन्या लौटाकर वन की ओर प्रस्थान किया।
इस कहानी की मुख्य तो यह है कि जब कोई विप्रवर अनुग्रह करे तो हमें हठ या दुराग्रह नहीं करना चाहिए । वरना विश्वामित्र जैसा कोई मिल गया तो गालवमुनि जैसी हालत हो सकती है । बाकि इसमें दक्षिणा को पूरी करने के लिए माधवी का जिस तरह उपयोग गया है, वह निश्चय ही सोच का विषय है या फिर इसमें कोई आध्यात्मिक रहस्य छुपा हो सकता है । अखण्ड ज्योति पर तुलसीदास को मानवता का ज्ञान :-
गलिता जी वह तपोभूमि है, जहां सदियों से अखंड जलती ज्योत अपनी ज्योती से इस धाम को पवित्र कर रही है.राम और कृष्ण के एक रुप के दर्शन भी तुलसीदासजी ने यहीं किए थे और दुनिया को धर्म की राह दिखाने वाले तुलसीदास को मानवता का असली ज्ञान भी यहीं हुआ था.
तपो भूमि पर बसने वाले नाभ जी ऋषि के चमत्कारिक व्यक्तित्व की वजह से तुलसीदास जी को यहां पर रुकना पड़ा था. बताते हैं कि पहले केवल भ्रमण भर के लिए आए तुलसीदास जी ने जब नाभ जी ऋषि के प्रसाद की अवज्ञा की, तो उनके पूरे शरीर में कोढ का रोग हो गया और अनेको अनेक वैध को दिखाने के बाद भी वह ठीक नहीं हुआ। जिसके बाद किसी ज्ञानी ने उन्हें बताया कि उनका ये हाल प्रसाद की अवज्ञा की वजह से हुआ है. फिर जब उन्होंने गलता जी आकर प्रसाद खाया तो उनका रोग ठीक हुआ. लेकिन, फिर भी उन्होने यहां रुकने से मना कर दिया और कहा कि यहां तो केवल भगवान कृष्ण के भक्त हैं और वो राम जी के अनुयायी है। तब भगवान कृष्ण ने तुलसीदास को यहां राम रुप में दर्शन दिए. जिसके बाद इस जगह राम और कृष्ण दोनों की मुरत एक साथ दर्शाई गई है और उसे रामगोपाल जी कहा गया है.तुलसीदास भी इस भूमि के चमत्कारों को मानते थे और इसलिए ही उन्होने अपनी जिंदगी के 3 साल यहां पर बिताए.माना जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास जी भी यहां तीन वर्ष तक रहे थे और ‘रामचरित मानस’ के अयोध्या कांड की रचना उन्होंने यहीं रह कर की थी।
कृष्णदास पयहारी की साधना स्थली:-
गालव ऋषि के बाद यहां एक और तपस्वी हुए, जिनका नाम पयोहारी ऋषि था. ये जाति से ब्राह्मण थे वह एक रामानुजी संत, यानी रामानुज सम्प्रदाय के अनुयायी 15वीं शताब्दी की शुरुआत में गलता आए और अपनी योगिक शक्तियों से अन्य योगियों को वहां से खदेड़ दिया। जहां
गलता (जयपुर) में रामानंदी सम्प्रदाय की प्रमुख मंच की स्थापना की थी। गलताजी को रामानुज संप्रदाय में उत्तर तोताद्रि भी कहते हैं। जिसकी एक प्रमुख गद्दी जयपुर में गलता के पास स्थित रही है। उस वक्त के सबसे बड़े तपस्वी होने के बावजूद उन्होंने गलता की गद्दी नहीं ली और उनके कई शिष्य गलता की गद्दी पर बैठे. उन्होने तवज्जो सिर्फ अपनी तपस्या को दी. कृष्णदास पयहारी 'रामानंद संप्रदाय' के प्रमुख आचार्य और कवि थे। इनका समय सोलहवीं शती ई. कहा जाता है। कृष्णदास जी रामानंद के शिष्य अनंतानंद के शिष्य थे और आमेर के राजा पृथ्वीराज की रानी बालाबाई के दीक्षागुरू थे। कहा जाता है कि इन्होंने 'कापालिक संप्रदाय' के गुरु चतुरनाथ को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। इससे इन्हें 'महंत' का पद प्राप्त हुआ था।ये संस्कृत भाषा के पंडित थे और ब्रजभाषा के कवि थे।'ब्रह्मगीता' तथा 'प्रेमसत्वनिरूप' कृष्णदास पयहारी के मुख्य ग्रंथ हैं।ब्रजभाषा में रचित इनके अनेक पद प्राप्त होते हैं। यह भी कहा जाता है कि कृष्णदास पयहारी अपने भोजन में मात्र दूध का ही सेवन करते थे।इन्ही ऋषि ने जिस धूनी पर तपस्या की थी, वो धूनी आज तक यहां जल रही है. वहीं उन्होंने नाथ संप्रदाय को निर्देश दिया था कि उसकी धूनी बुझनी नहीं चाहिए और इसलिए ही नाथ संप्रदाय इस धूनी को जलाये रखता है.
दिव्य अनुभूति वाली शांति :-
गलता जी की शांति सबके अंदर तक छूती है। यहां आकर एक दिव्य अनुभूति होगी। इस प्राचीन जगह पर पहुंचने के बाद एक अलग किस्म की आध्यात्मिकता का अहसास होता है। मान्यता है कि सतयुग में गालव ऋषि ने यहां तपस्या की थी और गंगा की धारा को यहां तक लेकर आए थे। आज भी यहां अज्ञात स्रोत से लगातार पानी बहता रहता है। यहां महिलाओं और पुरुषों के स्नान के लिए दो अलग-अलग कुंड बने हैं और बड़ी संख्या में भक्त इनमें स्नान करके पुण्य प्राप्त करते हैं। मान्यता है कि कार्तिक मास की पूर्णिमा को ब्रह्मा, विष्णु और महेश यहां आते हैं और इस दिन यहां स्नान करने का फल लाखों गुना बढ़ जाता है। इस स्थान को गालव आश्रम और गलता गद्दी भी कहा जाता है, क्योंकि यह वैष्णव रामानंदी संप्रदाय की सर्वोच्च पीठ है। मौजूदा मंदिर का निर्माण महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय के दीवान राव कृपा राम ने कराया था। इस परिसर में बहुत सारे भव्य मंदिर हैं। इनमें एक रामगोपाल मंदिर भी है, जिसमें स्थापित मूर्ति में राम और कृष्ण दोनों की झलक मिलती है। यह स्थान अनेकानेक ऋषि-मुनियों और संतों की तपोस्थली रहा है। यही पर राम सखा निध्याचार्य को राम सखा की उपाधि मिली थी।
अष्ट दिव्य कुंड :-
यहां पर प्रसिद्ध आठ कुंड हैं। जिनका नाम है:- यज्ञ कुंड, कर्म कुंड, सूक्ष्म कुंड, मरडाना कुंड, जनाना कुंड, बावरी कुंड, केले का कुंड, और लाल कुंड। इन सब मे बड़ा और मुख्य कुंड मरदाना कुंड है। इस बड़े कुंड में संगमरमर का एक गौमुख झरना निरंतर गिरता रहता है। गौमुख से गिरने वाली इस जलधारा के उद्गम स्रोतों का पता आज तक भी नहीं चल पाया है। पिछले काल से यह जलधारा विस्तृत रूप से गौमुख से कुंड मे गिरती आ रही है। यह जल धारा गंगा धाराएँ दी जाती हैं। ऐसा माना जाता है कि गैलव मुनि की तपस्या से प्रसन्न गंगा जी यहां प्रकट हुई जो आज भी नियमित प्रवाह में है।
महाराजा रायपुर को कुण्ड में स्नान से कोढ़ से मुक्ति:-
एक ओर किवदंती के अनुसार माना जाता है कि सबसे पहले की बात यह है कि जब एक बार रायपुर के महाराजा शिकार करते हुए पहाड़ पर स्थित ऋषि के आश्रम की ओर आ गए। इस अज्ञात के साथ जुड़े हुए साधु महात्मा सिंह का रूप धारण कर पर्वतों पर विचरण करते थे। राजा ने एक सिंह पर तीर चलाया जो सिंह के पिछले पांव में लगा और यहां रक्त की धार बह निकली। उसी समय यह सिंह अपना रूप छोड़ कर एक महात्मा के वास्तविक रूप में प्रकट हुआ, और राजा से कहा !राजन! आप इस अजनबी की ओर शिकार करने की चेष्टा कैसे की?। इसके विपरीत आपको कुष्ठ रोग हो सकता है। यह श्राप देकर वह महात्मा गिर गए। कहते हैं कि वही गालब ऋषि थे। राजा अपने महल में लौटा, उसी दिन से वह कुष्ठ रोग से ग्रसित हो गया और अधिक पीडित रहने लगा। बहुत उपचार पर भी राजा को रोग से राहत नहीं मिली। राजा दुखी होकर अपने कुछ साथियों के साथ घोड़ की तलाश में उसी आश्रम की ओर चला गया। अत्यंत सावधानी के बाद एक पर्वत की गुफा में समाधिस्थ मिले। समाधि के पास राजा ने प्रार्थना की हे प्रभु! मैं किसी में अज्ञानता वश शहीद शिकार खाने चला गया था। मेरा अपराध क्षमा किजिए, और कृपया इस रोग से मुक्ति का कोई उपाय बताएं। दयावान महात्मा ने राजा से कहा राजन! इस स्थान पर एक पक्का मकान और इसमें एक विशाल कुंड बनवा दिजिए। मैं उस कुंड में गंगा की एक जल धारा लाऊंगा। वह जल धारा जब तक संसार रहेगा तब तक कभी बंद नहीं होगा। उसी गंगा नदी में स्नान करने से तेरह कुष्ठ रोग चलता रहेगा और जो कोई भी श्रद्धापूर्वक स्नान करेगा या जल का आचमन करेगा वह पापों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त होगा। राजा ने ऐसा ही किया और उसका कुष्ठ रोग ठीक हो गया। आज भी भक्तों का मानना है कि इस कुंड में स्नान करने से संकल्प की प्राप्ति होती है और मोक्ष की प्राप्ति होती है।18वीं शताब्दी का गलताजी का मंदिर :-
दीवान राव कृपाराम ने 18वीं शताब्दी में मंदिर की आधारशिला रखी थी। कृपाराम राजा सवाई जय सिंह के दरबार में दीवान थे। जयपुर के रीगल शहर के बाहरी इलाकों में बना ये मंदिर जाने माने धार्मिक स्थलों में से एक है। इस ऐतिहासिक मंदिर को अरावली की ऊंची पहाड़ियों पर बनाया है जो घने पेड़ों और झाड़ियों से घिरा है। यह प्रभावशाली इमारत गोल छतों और खंभों से सजी चित्रित दीवारों से सुशोभित है। कुंडों के अलावा, मंदिर परिसर में मौजूद भगवान राम, भगवान कृष्ण और भगवान हनुमान के मंदिर हैं। गलताजी मंदिर के पास में मौजूद कृष्ण मंदिर, सूर्य मंदिर, बालाजी मंदिर और सीता राम मंदिर भी जा सकते हैं। मंदिर का लेआउट अद्वित्य है। यह एक शानदार संरचना, भव्य मंदिर, गुलाबी बलुआ पत्थर से बनाया गया है । पहाड़ियों के बीच, एक महल या 'हवेली' जैसा पारंपरिक मंदिर की तरह लग रहा है। गलता बंदर मंदिर हर पेड़-पौधों की विशेषता भव्य परिदृश्य को आपस में जोड़ देता है, और जयपुर शहर का एक आकर्षक दृश्य प्रस्तुत करता है। यह मंदिर है कि इस क्षेत्र में ध्यान केन्द्रित करना बंदरों के कई जनजातियों के लिए प्रसिद्ध है।धार्मिक भजन और मंत्र, प्राकृतिक सेटिंग के साथ संयुक्त,वहां का दौरा किसी के लिए एक शांतिपूर्ण वातावरण प्रदान करते हैं। इस पवित्र स्थल पर आपको हजारों में बंदरों की संख्या देखने को मिल जाएगी। दिलचस्प बात तो ये है कि ये बंदर यहां आने वाले भक्तों को किसी भी तरह का नुकसान भी नहीं पहुंचाते। ये चंचल जंगली बंदर सुबह और शाम के समय मंदिर परिसर में और उसके आसपास पाए जा सकते हैं। इस मंदिर के पास एक और पर्यटक आकर्षण सिसोदिया रानी का बाग है, जो एक शानदार महल और गार्डन के रूप में जाना जाता है। ✍️ डॉ. राधे श्याम द्विवेदी
Friday, February 24, 2023
भारत में ब्रह्मण समुदाय पर बढ़ती जातीय हिंसा। ✍️ डॉ. राधे श्याम द्विवेदी
राजनीति प्रेरित नेहा सिंह का यूपी में का बा पार्ट 2 ✍️डॉ. राधे श्याम द्विवेदी
Tuesday, February 21, 2023
सत्ता ताड़न के अधिकारी ✍️ डॉ. राधे श्याम द्विवेदी
Monday, February 20, 2023
अनेक संप्रदाय और तीर्थ धामों में प्रस्फुटित हुआ राम सखा संप्रदाय✍️ डॉ. राधे श्याम द्विवेदी
Thursday, February 16, 2023
माधव वैष्णव ब्रह्म संप्रदाय और उत्तर तोत्रादि मठ एक विशाल आध्यात्मिक समूह. ✍️ डॉ. राधे श्याम द्विवेदी
राम सखा संप्रदाय का पैतृक गुरु घराना "माधव वैष्णव संप्रदाय" और उत्तर तोत्रादि मठ रहा है। यह मूलतः ' माध्व वैष्णव सम्प्रदाय' की एक शाखा है, जो एक संगठित समूह में नहीं बल्कि बिखरे स्वरूप में मिलता है। संत राम सखे इनके अनुयायी थे। माधव सम्प्रदाय के संस्थापक मध्वाचार्य जी थे। मध्वाचार्य भारत में भक्ति आन्दोलन के समय के सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिकों में से एक थे। वे पूर्णप्रज्ञ व आनन्दतीर्थ के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। वे भगवान नारायण की आज्ञा से वायु देव ने भक्ति सिद्धांत की रक्षा के लिए मंगलूर के वेलालि गांव में माघ शुक्ल सप्तमी संवत 1295 विक्रमी ( 1238 ई.--1317 ई.) को अवतार ग्रहण किया था। मध्वाचार्य को वायु का तृतीय अवतार माना जाता है । हनुमान और भीम वायु देव के क्रमशः प्रथम व द्वितीय अवतार थे। मध्वाचार्य कई अर्थों में अपने समय के अग्रदूत थे। जिस मन्दिर में वे रहते थे, वह अब भी 'उडीपी' नामक स्थान में विद्यमान है। वहाँ उन्होंने एक चमत्कारपूर्ण कृष्ण की मूर्ति स्थापित की थी। द्वारका के मालावार तट तुलुब के पास एक जहाज समुंद्र में डूब रही थी। इस पर गोपी चन्दन से ढकी श्री कृष्ण जी की सुन्दर मूर्ति थी। भगवान की आज्ञा से मध्वाचार्य ने उडुपी में उस दिव्य मूर्ति की स्थापना कराई थी। इसे महाभारत के योद्धा अर्जुन ने बनाई हुई बताया जाता हैं।( संदर्भ : श्री भक्तमाल गीता प्रेस,पृष्ठ : 332)।
उनके द्वारा स्थापित यह सम्प्रदाय भागवत पुराण पर आधारित होने वाला पहला सम्प्रदाय है। रामानंद की भांति चतुष्ट्य संप्रदाय में इसकी भी गणना होती है। भगवान भक्ति को ही मोक्ष का सर्वोपरि साधन मानने वाले रामानुज- सम्प्रदाय के पश्चात एक तीसरा सम्प्रदाय निकला जिसे द्वैत सम्प्रदाय-माध्व सम्प्रदाय– ब्रह्म सम्प्रदाय भी कहते हैं।
महान संत और समाज सुधारक माधवाचार्य:-
माधवाचार्य महान संत और समाज सुधारक थे। इन्होंने ब्रह्म सूत्र और दस उपनिषदों की व्याख्या लिखी। इस संप्रदाय को ब्रह्म संप्रदाय के रूप में भी जाना जाता है, आध्यात्मिक गुरु (गुरु) के उत्तराधिकार में अपने पारंपरिक मूल का उल्लेख करते हुए ब्रह्मा से उत्पन्न हुआ कहा है। इस मूल सम्प्रदाय की स्थापना तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में हुई।
मध्वाचार्य जी के सिद्धान्त : --
मध्वाचार्य जी के प्रमुख सिद्धान्त निम्न लिखित हैं ।
विष्णु सर्वोच्च तत्त्व है। जगत सत्य है। ब्रह्म और जीव का भेद वास्तविक है। जीव ईश्वराधीन है। जीवों में तारतम्य है।आत्मा के आन्तरिक सुखों की अनुभूति ही मुक्ति है। शुद्ध और निर्मल भक्ति ही मोक्ष का साधन है।मध्वाचार्य ने इस सम्प्रदाय की स्थापना तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में की थी। श्री राम सखे का गुरु घराना वैष्णव माध्व सम्प्रदाय के उत्तर तोत्रादि मठ से सबंधित है।
माधव सम्प्रदाय की स्थापना:-
माधवाचार्य, एक कट्टर वैष्णव थे, जिन्होंने इस विश्वास को दृढ़ता से आगे बढ़ाया कि विष्णु हिंदू देवताओं में सबसे ऊंचे थे, और किसी भी दावे को स्वीकार करने से इनकार कर दिया कि अन्य हिंदू देवता समान रूप से उच्चतम हो सकते हैं। वे कहते हैं कि शुरुआत में केवल एक ही भगवान नारायण या विष्णु थे । परम दिव्य वास्तविकता जिसे हिंदू परंपराएं ब्राह्मण के रूप में संदर्भित करती और व्यक्तिगत आत्माएं, जिन्हें जीवात्मा के रूप में जाना जाता है , स्वतंत्र वास्तविकताओं के रूप में मौजूद हैं, और ये अलग हैं। कई मठों की स्थापना :-
माधवाचार्य ने विभिन्न संप्रदायों के विभिन्न आचार्यों को हराकर कई मठों की स्थापना की। माधव के अनुयायी कई अलग-अलग समूहों के हैं, वे हैं, तुलुवा ब्राह्मण , कन्नड़ ब्राह्मण , मराठी ब्राह्मण , तेलुगु ब्राह्मण और कोंकणी भाषी गौड़ सारस्वत ब्राह्मण । इस प्रकार माधव-वैष्णव मत की चौबीस अलग-अलग संस्थाएँ हैं।
लम्बी शिष्य परंपरा और घराने:-
मध्वाचार्य जी ने कई शिष्य बनाये:- 1. सत्यतीर्थ जी, 2. श्री शोभन जी भट्ट 3. श्री त्रिविक्रम जी 4. श्री रामभ्रद जी, 5. विष्णुतीर्थ, 6. श्री गोविन्द जी शास्त्री, 7. पद्मनाभाचार्य जी, 8. जयतीर्थाचार्य, 9. व्यासराज स्वामी, 10. श्री रामाचार्य जी 11. श्री राघवेन्द्र स्वामी, 12. श्री विदेह तीर्थ जी आदि कई शिष्य ने वैष्णव धर्म का प्रचार किया । इसके अलावा आठ मठ या घराने भी इन्ही से उदभ्रित हुए हैं। माधवाचार्य के प्रत्यक्ष शिष्यों द्वारा स्थापित उडुपी के अष्ट मठ है। उडुपी का तुलु अष्ट मठ माधवाचार्य द्वारा स्थापित आठ मठों या हिंदू मठों का एक समूह है, जो हिंदू विचार के द्वैत विद्यालय के पूर्वदाता हैं। आठ मठों में से प्रत्येक के लिए, माधवाचार्य ने अपने प्रत्यक्ष शिष्यों में से एक को पहला स्वामी नियुक्त किया।
शास्त्रों का पूर्ण ज्ञानवाली उपाधि तीर्थ:-
मध्वाचार्य की मृत्यु के 150 वर्ष बाद उनके शिष्य जयतीर्थ इस सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य हुए।संस्कृत में, 'तीर्थ' शब्द का अर्थ 'शास्त्र' (शास्त्र) है। इसलिए जब किसी संत के नाम में 'तीर्थ' होता है, तो इसका अर्थ यह होता है कि उसे सभी शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान हो गया है। माधव संतों के नाम में 'तीर्थ' होने के पीछे यही तर्क है। इस संप्रदाय के गुरुओं ने तीर्थ उप नाम अपने नाम के आगे लगाना शुरू कर दिया।
माधवाचार्य ने अपने शिष्य पद्मनाभ तीर्थ (प्राप्त सिद्धि 1317-- 1324) के साथ तुलुनाडु क्षेत्र के बाहर तत्त्ववाद(द्वैत) का प्रसार करने के निर्देश के साथ अपने शिष्य पद्मनाभ तीर्थ के साथ एक मठ की स्थापना की। जो एक द्वैत दार्शनिक और विद्वान थे । उनके शिष्य नरहरि तीर्थ , माधव तीर्थ और अक्षरोभ तीर्थ इस मठ के उत्तराधिकारी बने।
अक्षोभ तीर्थ के शिष्य श्री जयतीर्थ ( सी. 1345 - सी. 1388 ) एक हिंदू दार्शनिक, महान द्वैतवादी, नीतिज्ञ और मध्वचार्य पीठ के छठे आचार्य थे। उन्हें टीकाचार्य के नाम से भी जाना जाता है। मध्वाचार्य की कृतियों की सम्यक व्याख्या के कारण द्वैत दर्शन के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण विचारकों में उनकी गिनती होती है। मध्वाचार्य, व्यासतीर्थ और जयतीर्थ को द्वैत दर्शन के 'मुनित्रय' की संज्ञा दी गयी है। वे आदि शेष के अंश तथा इंद्र के अवतार माने गये हैं। माधवाचार्य के कार्यों की उनकी ध्वनि व्याख्या के कारण उन्हें द्वैत विचारधारा के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण संतों में से एक माना जाता है । अंतर्निहित आध्यात्मिक पेचीदगियों को उजागर करने के लिए द्वैत ग्रंथों पर विस्तार करने के उनके अग्रणी प्रयासों को 14 वीं शताब्दी के दार्शनिक जयतीर्थ ने आगे बढ़ाया ।
उत्तरादि मठ की विशालता :-ऐतिहासिक रूप से, श्री उत्तरादि मठ जगद्गुरु श्री माधवाचार्य की मूल सीट है। विश्वसनीय स्रोतों से हमें पता चलता है कि माधवाचार्य को यह सीट श्री अच्युत प्रेक्षा से विरासत में मिली है, जो ब्रह्म सम्प्रदाय के एकदंडी क्रम से संबंधित थे। इस ब्रह्म सम्प्रदाय की शुरुआत कैसे हुई, इस पर एक किंवदंती है। माधवाचार्य द्वारा स्थापित मुख्य मठ उत्तरादि मठ का प्रमुख तुलुनाडु क्षेत्र के बाहर द्वैत वेदांत ( तत्ववदा ) को संरक्षित और प्रचारित करने के लिए पद्मनाभ तीर्थ है। उत्तरादि मठ तीन प्रमुख द्वैत मठों या मथात्रय में से एक है, जो जयतीर्थ के माध्यम से पद्मनाभ तीर्थ के वंश में माधवाचार्य के वंशज हैं । जयतीर्थ और विद्याधिराज तीर्थ के बाद, उत्तरादि मठ कवींद्र तीर्थ (विद्याधिराज तीर्थ के एक शिष्य) और बाद में विद्यानिधि तीर्थ (रामचंद्र तीर्थ के एक शिष्य) के वंश में जारी रहा।
माध्वाचार्य ने उत्तरादि मठ में दैनिक पूजा के लिए श्री सीता और श्री राम की मूर्तियाँ भी दीं। चूंकि ये मूर्तियाँ श्री सीता और राम की अन्य सभी मूर्तियों से पहले थीं, इसलिए उन्हें श्री मूल सीता और मूल राम की मूर्तियाँ कहा जाता था। तदनुसार श्री ब्रह्मा ने श्री उत्तरादि मठ के पुजारी के रूप में अपनी क्षमता में बहुत लंबे समय तक श्री मूल राम और श्री सीता की पूजा की और सनक को पोंटिफिकल सीट दी। कलियुग के आगमन तक यह परंपरा लंबे समय तक चलती रही। उत्तरादि मठ में पूजे जाने वाले मूल राम और मूल सीता की मूर्तियों का एक लंबा इतिहास है और वे अपनी महान दिव्यता के लिए पूजनीय हैं। उत्तरादि मठ प्रमुख हिंदू मठवासी संस्थानों में से एक है जिसने ऐतिहासिक रूप से भारत में उपग्रह संस्थानों के माध्यम से मठवासी गतिविधियों का समन्वय किया है , संस्कृत साहित्य को संरक्षित किया है और द्वैत अध्ययन किया है । इस मठ को पहले "पद्मनाभ तीर्थ मठ" के नाम से भी जाना जाता था। पारंपरिक खातों के अनुसार, उत्तरादि मठ मुख्य मठ था जो पद्मनाभ तीर्थ , नरहरि तीर्थ , माधव तीर्थ , अक्षोब्य तीर्थ , जयतीर्थ , विद्याधिराज तीर्थ और कविंद्र तीर्थ के माध्यम से माधवाचार्य से उतरा था, इसलिए इस मठ को "आदि मठ" के रूप में भी जाना जाता है" मूल मठ" या "मूल संस्थान" या "श्री माधवाचार्य का मूल महा संस्थान" भी कहा जाता है। उत्तरादि मठ का कोई मुख्यालय नहीं है, कभी-कभी कुछ स्थानों पर विशेष ध्यान दिया गया है। यह मुख्य रूप से एक भ्रमणशील संस्था है जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर चलती और डेरा डाले रहती है, जहाँ भी यह जाती है आध्यात्मिक शिक्षा की मशाल को ले जाने में व्यस्त रहती है।
(लेखक सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्य कर चुके हैं। वर्तमान में साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और अध्यात्म विषयों पर अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं।)