Friday, February 11, 2022

महर्षि व्यास जी का असंतोष ( प्रसंग 34) श्रीमदभागवत कथा प्रथम स्कन्ध चतुर्थ अध्याय

महर्षि व्यास जी का असंतोष ( प्रसंग 34) 
श्रीमदभागवत कथा प्रथम स्कन्ध चतुर्थ अध्याय
डा. राधे श्याम द्विवेदी
 प्रिय सुधी पाठकों आपने श्रीमदभागवत जी की कथा के प्रथम स्कन्ध के तृतीय अध्याय की कथा में परमात्मा के अवतारों की कथा का रसास्वादन किया है। यहां हम व्यास जी बारे में चर्चा करेंगे, जिन्होने वेदान्त दर्शन-शास्त्रों आदि की रचना की पुराणों का सम्पादन किया और इन सब के पश्चात भी व्यास जी असंन्तुष्ट थे दुखी थे। आइये हम सभी श्रद्धा पूर्वक कथा रहस्य के बारे में अवगत होवें।                       

वर्णन किया गया है कि सूत जी महाराज जो कि शौनकादि ऋषिगणों को कथा का श्रवण करा रहे हैं । उन्होने प्रश्न किया, "हे सूत जी महाराज आप वक्ताओं में परम श्रेष्ठ हैं तथा भाग्यशाली हैं। आप हमें उस कथा का रसास्वादन कराइये जो कथा शुकदेव जी ने राज परिक्षित को सुनाई थी। हमारे मन में भी परमात्मा की पुण्य़ प्रदायनी कथा को विस्तार से सुनने की पूर्ण अभिलाषा है। आप हमें विस्तार पूर्वक कहें कि वह कथा किस युग में किस स्थान पर तथा किस कारण से आयोजित हुई थी जिसे परम वैरागी शुकदेव जी ने परिक्षित को सुनाया था ? यह भी वर्णन करें कि मुनिवर व्यास जी ने किसकी प्रेरणा से श्रीमदभागवत जी की रचना की थी ?"                                  

यहां शौनकादि द्वारा व्यास जी के द्वारा भागवत जी की रचना को लेकर जो प्रश्न किया गया यह अत्यन्त ही ज्ञानदायी है। कारण व्यास जी द्वारा जिन वेदान्त आदि का सम्पादन किया गया सभी गृन्थ ज्ञान प्रधान हैं । जब कि यह भागवत नामक रचना परमात्मा की लीलाओं का गृन्थ है, भक्ति प्रधान गृन्थ है और सगुण उपासना का गृन्थ है। आश्चर्य यह है कि परम वीतरागी तथा निरनतर एक ब्रम्ह की उपासना में लीन रहने वाले योगी शुकदेव जी द्वारा भक्तिमयी, रसमयी परमात्मा की लीलाओं का श्रवण राजा परिक्षित को कराया जाना, यह एक रहस्यात्मक घटनाक्रम है जिसे पूर्णतः जानने की श्रद्धा शौनकादि में जाग्रत हुई। 

यह घटना उस समय की है जब शुकदेव सन्यास के लिये वन को चल दिये थे और उनके पिता व्यास जी अपने पुत्र का पीछा कर रहे थे । रास्ते में एक सरोवर में सुन्दर युवतियां नग्न अवस्था में जल क्रीड़ा कर रही थीं। शुकदेव जी को आते देख युवतियों ने देखा परन्तु उन्होने कोई प्रतिक्रिया नहीं की । बल्कि जैसे वो स्नान कर रही थीं बिना किसी व्यवधान के स्नान करती रहीं हों। शुकदेव जी भी दिगम्बर ही रहते थे और भागवत जी में ऐसा उल्लेख है कि शुकदेव जी कामदेव के समान सुन्दर थे । सोलह वर्ष उनकी उम्र थी परन्तु स्त्रियां सरोवर में स्नान करती रहीं और शुकदेव जी सरोवर के पास से गुजर गये। शुकदेव जी का पीछा करते हुए व्यास जी जब उस सरोवर के पास से गुजरे तो स्नान कर रही युवतिओं ने व्यास जी को आता देख सरोवर से बाहर आकर अपने शरीरों को वस्त्रों से ढक कर उन्हें प्रणाम किया।      
व्यास जी ने युवतियों के आचरण को देखा तो उन्हें आश्चर्य हुआ व्यास देव जी ने उन युवतिओं से प्रश्न किया, "देवियों अभी मुझसे पूर्व सरोवर के पास से मेरे पुत्र शुकदेव गुजरे जो दिगम्बर रहते हैं और उन्हें देखकर तुम लोगों ने बिना किसी परवाह के स्नान जारी रक्खा था। जब कि मुझे आता देख तुम लोग शरीर ढक कर मुझे प्रणाम कर रही हो। मुझे आश्चर्य है कि मेरे पुत्र से तुम लजाईं नहीं जब कि तुम सभी मेरे लिये पौत्रियों जैसी हो फ़िर भी मुझसे लाज करती हो।                                           
व्यास जी की बात सुनकर युवतिओं ने कहा, "आदरणीय व्यास जी ! आप ज्ञानी हैं शास्त्रज्ञ हैं परन्तु आपकी दृष्टि में पुरुष और स्त्री का भेद है, जबकी शुकदेव जी सिर्फ़ केवल विवेकी अथवा वैरागी नहीं हैं वो ब्रम्हज्ञानी हैं ब्रम्हदृष्टि है। उनकी अर्थात अभेददृष्टि सिद्ध है उनकी। उनकी दृष्टि में स्त्री-पुरुष का कोई भेद नहीं है। उनका चित्त सदैव परमात्मा में स्थित रहता है उनसे कैसा भय कैसी लज्जा? जब वो आत्म भाव में मग्न रहते हैं शरीर का उन्हें आभास तक नहीं है।"                                                   
शौनकादि ने सूत जी महाराज से पूछा - शुकदेव जी तो परमात्म भाव में निमग्न, शान्त, मूक भाव से जड़ वत भृमण करते रहते थे।फ़िर उन्हें नागरिकों द्वारा कैसे पहचाना गया? शुकदेव जी तो मौन रहते थे। हर समय परमात्मा के ब्रम्ह स्वरूप में निमग्न रहते थे । अर्थात समाधी जैसी अवस्था में रहते थे। परिक्षित जी से उनका संवाद कैसे हुआ? कैसे भागवत जी की कथा कही थी उन्होने?                  
शौनकादि कहते हैं , हे सूत जी हमने सुना है कि शुकदेव जी भिक्षा गृहण करने के लिये गृहस्थों के द्वार पर जाते थे और एक द्वार पर सिर्फ़ उतनी देर ही रुकते थे जितने समय में एक गाय को दुहा जाता है।                                                  
शौनकादि ने कहा, “महाराज हमने सुना है कि अभिमन्युनन्दन परिक्षित भगवान के बहुत अनन्य भक्त थे। अतः सूत जी आपसे विनमृ आगृह है कि हमें सारी कथा विस्तार पूर्वक सुनाइये।"
सूत जी महाराज ने शौनकादि को सम्बोधित करते हुए कहना प्ररम्भ किया, "हे ऋषियों, द्वापर युग में व्यास जी का जन्म हुआ था । इनके पिता पाराशर मुनि थे तथा इनकी माता सत्यवती, मछुआरे की पुत्री थीं। व्यास देव जी परम ज्ञानी थे उन्होने वेतान्त-पुराणादि की रचना की थी। व्यास जी ने देखा कि कलियुग के प्रभाव से मनुष्य श्रद्धाविहीन होता जा रहा है तथा उनकी आयु भी क्षीण होती जा रही है । मनुष्यों की इस भाग्यहीनता को देख व्यास जी ने विचार किया कि किस प्रयोजन आदि से समस्त मानव जाति का कल्याण हो, किस तरह सभी वर्णों के लोगों का कल्याण हो? "                                                                                              
सूत जी महारज ने कहा , व्यास जी ने समाज के कल्याण के निमित्त ही वेदों, शास्त्रों तथा पुराणादि का सम्पादन किया था। सर्वथा वह समाज और मानव जाति के कल्याण के लिये कार्य करते रहे परन्तु उन्हें अपने किये आज तक के प्रयासों से सस्तुष्टि नहीं मिली। उनका मन खिन्न सा था और वह उदास थे ।"
         तभी देवर्षि नारद वहां प्रकट हुए। नारद जी को आया देखकर व्यास जी ने तुरन्त उनका स्वागत सत्कार आदि किया। देवताओं के समान ही नारद जी की पूजा की, उन्हे आसन प्रदान किया।                                                                              
नारद जी साक्षात परमात्मा का मन होते हैं । नारद जी का कहीं उपस्थित होना परमात्मा की इच्छा दर्शाता है। जब परमात्मा कहीं किसी के पास कोई सन्देश आदि भेजना चाहते हैं तो उनका मन अर्थात नारद जी वहां पहुंच जाते हैं। परमात्मा के मन में विचार का आना और नारद जी का उन विचार को क्रियान्वित कर देना होता है।               
भागवत जी के इस अध्याय में यह संकेत किया गया है कि व्यास जी ने तमाम वेदों के भाष्य, पुराण आदि की रचना की परन्तु उन्हें सुख अर्थात सन्तुष्टि नहीं मिली। कारण क्या है? कारण मुख्य यह है कि व्यास जी द्वारा जिन शास्त्रों आदि की रचना की गई सभी ज्ञान प्रधान थे। और ज्ञान रसहीन होता है, ज्ञान बहुत ही प्रभावी होता है परन्तु ज्ञान पाचक नहीं है। ज्ञान स्थाई नहीं है। कारण इस धरती पर जन्मने वाला मनुष्य परमात्मा की त्रिगुणी माया से मोहित है। सिर्फ़ भगवान के प्रेमी भक्तों को प्रभू की माया प्रभावित नहीं करती है। परमात्मा अथवा मुक्ति ज्ञान साध्य नहीं है यह परमत्मा की कृपा साध्य है। अर्थात परमात्मा की कृपा के बिना भक्ति, ज्ञान और वैराग्य सम्भव ही नहीं है। यही मुख्य कारण है कि व्यास जी ज्ञान प्रधान रचनाएं करने के बाद भी आनन्दित नहीं हुए उन्हें संन्तुष्टि नहीं मिली और खिन्नता से पीड़ित रहने लगे थे। 
व्यास जी परम ज्ञानी थे भगवान के भक्त थे । अतः परमात्मा से उनका दुख देखा नहीं गया । उनके मन में आया कि व्यास जी को अपनी लीलाओं को रचनात्मक लिपिबध्द करने के लिये आदेश दिया जाये । और उनके मन अर्थात नारद जी तुरन्त परमात्मा के विचार मात्र से व्यास जी के सन्मुख उपस्थित हो गये थे। 
                  ।।ओउम् हरिः ओउम् तत्सत्।। 


                    






 




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