Saturday, August 31, 2024
सुदामापुरी भी मूल द्वारका का ही अंश आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी
Friday, August 30, 2024
अरब सागर में डूबी पुरातन द्वारका आचार्य डॉ.राधेश्याम द्विवेदी
भारत से सटा समुद्रअपने आप में कई रहस्य समेटे हुए हैं। समुद्र के नीचे आज भी ऐसी कई साइट्स दबी हुई हैं जिनके बारे में कम लोगों को जानकारी है। कुछ वर्षों पहले एक ऐसी ही जगह की खोज हुई थी जिसके बारे में हर कोई हैरान था। ऐसी ही है गुजरात के एतिहासिक द्वारका नगरी । जिसके प्रमाण आज भी गहरे समुद्र में मौजूद है।
सप्त पुरी चार धाम में शामिल
द्वारका धाम हिंदू धर्म के चारों धामों में से एक है। यह गुजरात के काठियावाड क्षेत्र में अरब सागर के द्वीप पर स्थित है। इस नगरी का धार्मिक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्व है। ऐसी मान्यता है कि मथुरा छोड़ने के बाद अपने परिजनों एवं यादव वंश की रक्षा हेतु भगवान श्रीकृष्ण ने भाई बलराम तथा यादववंशियों के साथ मिलकर द्वारका पुरी का निर्माण विश्वकर्मा से करवाया था। यदुवंश की समाप्ति और भगवान श्रीकृष्ण की जीवनलीला पूर्ण होते ही द्वारका समुद्र में डूब गई मानी जाती है। इस क्षेत्र का प्राचीन नाम कुश स्थली था। धार्मिक दृष्टि से द्वारका को चार धाम और सप्तपुरियों में भी गिना जाता है।
आज की द्वारिका से अलग
आज वर्तमान में स्थित द्वारका, गोमती द्वारका के नाम से जानी जाती है। यहां आठवीं शताब्दी में सनातन धर्म की रक्षा और प्रसार के लिए आदि शंकराचार्य ने द्वारकापीठ की स्थापना की थी। और अनेक मंदिरों वा धर्म स्थलों को निर्मित किया गया। आधुनिक वैज्ञानिक खोजों में भी इस क्षेत्र में रेत एवं समुद्र के अंदर से प्राचीन द्वारका के अवशेष प्राप्त हुए हैं। द्वारका की स्थिति एवं बनावट समुद्र के बीच द्वीप पर बने किले के समान है।
पौराणिक मान्यता है कि प्राचीन द्वारका नगरी खुद भगवान श्रीकृष्ण ने बसाई थी. जो एक वक्त के बाद समंदर में समा गई। द्वारकाधीश मंदिर के पुजारी मुरली ठाकर के अनुसार द्वारका 84 किलोमीटर में फैली दुर्गनुमा सिटी थी, जो गोमती नदी और अरब सागर के संगम के तट पर बसी थी।
पानी में डूबी द्वारका की जानकारी
प्राचीन द्वारका नगरी, कुछ दशक पहले तक काल्पनिक मानी जाती थी। पहली बार भारतीय वायु सेना के पायलटों की नजर, द्वारका के समुद्री अवशेष पर पड़ी, जो समुद्र में बहुत नीचे से उड़ान भर रहे थे। 1970 के जामनगर के गजेटियर में इस बात का उल्लेख मिलता है।आर्कियोलॉजिस्ट कहते हैं कि बीसवीं सदी के मध्य में पहली बार द्वारका नगरी को ढूंढने का प्रयास हुआ। 1960 के दशक में पहली बार डेक्कन कॉलेज पुणे ने यहां खुदाई की थी। आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने 1979 में एक और खुदाई की। जिसमें कई तरह के पात्र, घड़े, मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े और कई दूसरे अवशेष मिले हैं ।
पुरातत्व विभाग के मुताबिक इस खुदाई में 500 से ज्यादा चीजें मिलीं, जिनकी डेटिंग से पता लगा कि यह 2000 साल से ज्यादा पुरानी हैं। पानी के अंदर पत्थर के बड़े-बड़े कॉलम, अवशेष जैसी चीजें मिलीं हैं।
2007 की खुदाई से बदला इतिहास
साल 2007 में पहली बार द्वारका में बड़े पैमाने पर खुदाई की गई। 200 मीटर के एरिया में खुदाई शुरू हुई थी ,फिर 50 मीटर का एरिया ऐसा मिला, जहां ज्यादा चीजें मिल रही थीं। इसके बाद दो नॉटिकल मील का हाइड्रोग्राफिक सर्वे किया गया, जिससे पता चला कि उस खास जगह नदी का प्रवाह लगातार बदल रहा है। इसके बाद उस जगह की ग्रेडिंग की गई और बाकायदा एक-एक ग्रेड की खुदाई और सर्वे शुरू हुआ था। इस खुदाई में पिलर, सिक्के, पात्र, बड़े-बड़े कॉलम जैसी चीजें मिलीं हैं। तमाम पत्थरों पर समुद्री घास जम गई थी। जब उन्हें हटाया गया तो वास्तविक आकार का पता चला था।
बड़े-बड़े लंगर मिले
द्वारका की खुदाई में कई बड़े-बड़े लंगर पाए गए, जिससे यह साफ हो गया कि द्वारका एक ऐतिहासिक बंदरगाह शहर था। कुछ आर्कियोलॉजिस्ट कहते हैं कि संस्कृत में द्वारका शब्द का मतलब ‘द्वार’ या ‘दरवाजा’ होता है। द्वारका की खुदाई में जैसी चीजें मिली हैं, उससे प्रतीत होता है कि यह प्राचीन बंदरगाह शहर भारत आने वाले विदेशी नागरिकों के लिए कभी दरवाजे की तरह प्रयुक्त होता था। इसने 15वीं से 18वीं शताब्दी के बीच अरब देशों से व्यापारिक संपर्क में अहम भूमिका निभाई होगी।
द्वारका नगरी कैसे समुद्र में समाई
राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान के पूर्व चीफ साइंटिस्ट डॉ. राजीव निगम के अनुसार
जब यह साफ हो गया कि समुद्र के नीचे शहर का अवशेष है तो हमने यह पता लगाने की कोशिश की कि आखिर यह डूबा कैसे होगा? पिछले 15000 साल के दौरान समुद्र के स्तर की पड़ताल की गई। इससे पता चला कि 15000 साल पहले समुद्र का स्तर, 100 मीटर नीचे हुआ करता था। 7000 साल पहले समुद्र का जल स्तर बढ़ना शुरू हुआ और करीब 3500 साल पहले समुद्र का स्तर, ऐसे लेवल पर पहुंच गया, जहां अभी है और ठीक इसी वक्त द्वारका नगरी डूबी होगी।
गांधारी के श्राप का रहस्य
यह तो हुई साइंस की बात, लेकिन द्वारका नगरी डूबने के पीछे कई पौराणिक मान्यताएं भी प्रचलित हैं। पहली मान्यता गांधारी के श्राप से जुड़ी है। कहा जाता है कि जब महाभारत के युद्ध में पांडवों की जीत हुई और कौरव खत्म हो गए, तब गांधारी ने श्री कृष्ण को महाभारत का दोषी ठहराते हुए श्राप दिया कि उनके कुल का नाश हो जाएगा और यही श्राप द्वारका डूबने की वजह बनी।
महाभारत के 23वें और 24वें श्लोक के अनुसार जिस दिन श्रीकृष्णा 125 साल की आयु के बाद आध्यात्मिक दुनिया में शामिल होने के लिए पृथ्वी छोड़कर गए, उसी दिन द्वारका नगरी अरब सागर में डूब गई थी। यही वह समय था जब कलयुग की शुरुआत हुई थी।
एलियन अटैक का रहस्य
द्वारका के समंदर में डूबने की एक एलियन थ्योरी भी है। एलियन सिद्धांत में विश्वास रखने वाले कुछ वैज्ञानिक ऐसा भी मानते हैं कि प्राचीन द्वारका नगरी पर एक उड़ने वाली मशीन या यूएफओ द्वारा हमला किया गया था।यह लड़ाई तकनीक और शक्तिशाली हथियारों के साथ लड़ी गई थी। एलियन स्पेसशिप ने ऊर्जा हथियारों का इस्तेमाल किया और शहर पर हमला किया था, जो बिजली गिरने जैसा प्रतीत हो रहा था। यह हमला इतना विनाशकारी था कि हमले के बाद शहर का अधिकतर हिस्सा खंडहर में बदल गया। यद्यपि इस बात की वैज्ञानिक पुष्टि नहीं हो पाई है।
नींव की तलाश जारी
आर्कियोलॉजिस्ट और समुद्र विज्ञानी प्राचीन द्वारका नगरी के और राज जानने की कोशिश में जुटे हैं। वैज्ञानिक अब इस प्राचीन शहर की दीवारों की नींव की तलाश के लिए पानी के नीचे खुदाई की तैयारी कर रहे हैं, ताकि इस बात का सही-सही पता लगाया जा सके कि अवशेष कितने पुराने हैं।
18 लोगों के साथ आए थे कृष्ण
कहा जाता है कि कृष्ण यहां कुल18 लोगों के साथ आए थे। यहां उन्होंने द्वारिका को बसाया और पूरे 36 साल तक राज किया। उनके प्राण त्याग देने के साथ ही द्वारिका नगरी भी समुद्र में डूब गई थी। समुद्र में डूबी इस द्वारिका के दर्शन कराने के लिए अब गुजरात सरकार पनडुब्बी के जरिए वहां तक ले जाने की योजना पर काम कर रही है। हजारों साल पहले समुद्र में डूब चुकी द्वारिका के दर्शन के लिए यात्री पनडुब्बी अरब सागर में जाएगी।
पनडुब्बी से लोग करेंगे पुरातन द्वारका का दर्शन
मिली जानकारी के मुताबिक, गुजरात सरकार पनडुब्बी से लोगों को द्वारका का दर्शन कराएगी। राज्य के पर्यटन विभाग के मझगांव डॉक के साथ किए गए समझौते के मुताबिक. ट्रांसपेरेंट पनडुब्बी से लोग 300 फीट नीचे जाकर द्वारका नगरी के दर्शन कर सकेंगे। हालांकि, अभी करार प्राथमिक चरण में है।
कब तक शुरू होगा सबमरीन से पर्यटन?
माना जा रहा है कि साल 2024 यानी कि इस साल की दिवाली तक इस प्रोजेक्ट को साकार करने का लक्ष्य है, जिसमें सबमरीन में बैठकर समुद्र में 100 मीटर नीचे तक पर्यटकों को ले जाया जाएगा. समुद्र के नीचे लोग अंडर वॉटर मरीन लाइफ का मजा ले पाएंगे.
क्या है इस प्रोजेक्ट का लक्ष्य?
गुजरात पर्यटन के एमडी सौरभ पारदी ने बताया कि ये अपने आप में एक अलग तरह का प्रोजेक्ट है. उन्होंने कहा, इस प्रोजेक्ट की मदद से समुद्री पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा. इसका मुख्य लक्ष्य गुजरात में पर्यटन को बढ़ावा देने के साथ ही वहां धार्मिक स्थान पर आ रहे पर्यटकों को और अधिक सुविधाएं देने का है.
मिली जानकारी के मुताबिक, सबमरीन में एक साथ 24 पर्यटकों के बैठने की व्यवस्था होगी और इसे दो अनुभवी पायलट और प्रोफेशनल क्रू के साथ भेजा जाएगा. बताया गया कि पानी के 300 फीट नीचे द्वारका आईलैंड की समुद्री विशेषताएं देखने को मिलेंगी. सबमरीन में बैठे हर व्यक्ति के पास व्यू विंडो रहेगी यानी कि वो खिड़की पर बैठकर बेहद करीब से इस नजारे का लुत्फ उठा सकेगा.
आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। )
Monday, August 26, 2024
अष्टभुजी देवी के जन्मोत्सव की उपेक्षा क्यों ?
भगवान कृष्ण की बहन अष्टभुजी देवी के जन्मोत्सव की उपेक्षा क्यों ?
आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी
द्वापर युग से जुड़ी हुई यह घटना है। भगवान विष्णु की माया कन्या ( अष्टभूजी) के रूप में अपने इष्टदेव के कार्य सिद्धि के लिए अवतरित होती है।अष्टभुजी मां भगवान कृष्ण की बहन के रूप में भी जानी जाती है। पापी कंस ने अपनी मृत्यु के डर से अपनी बहन देवकी को पति सहित कारागार में कैद कर लिया था।अपने विनाश के भय से वह देवकी की कोख से जन्म लेने वाले हर बच्चे को वध करता गया। इसी बीच भगवान श्री कृष्ण की प्रेरणा से ही उनके पालक मां यशोदा के कोख से ज्ञान की देवी अष्टभुजी अवतरित होती है, जो कंस के हाथों से छूट कर विंध्याचल पहाड़ी पर विराजमान होती है और तब से मां अष्टभुजी अपने भक्तों को अभय प्रदान कर रही हैं।
अष्टभुजी देवी की चेतावनी
माँ अष्टभुजी का जन्म नन्द बाबा के घर में हुआ था और वह भगवान कृष्ण की बहन थीं। उस महामाया ने कंस को चेतावनी दी थी-
“तुम्हारे जैसा दुष्ट मेरा क्या बिगाड़ लेगा?” तुम्हें मारने वाला पहले ही पैदा हो चुका है।”
ऐसा कहकर देवी आकाश की ओर उड़ गईं और विंध्य पर्वत पर उतर गईं, जिसका वर्णन मार्कंडेय ऋषि ने दुर्गा सप्तशती में इस प्रकार किया है -
"नंद गोप गृहे जाता यशोदा गर्भ संभव, ततस्तो नष्टयिष्यामि विंध्याचल निवासिनी"।
नवरात्रि में विशेष महत्त्व
विंध्य पर्वत पर त्रिकोण मार्ग पर स्थित ज्ञान की देवी मां सरस्वती रूप में मां अष्टभुजी के दर्शन के लिए नवरात्र में देश के कोने-कोने से श्रद्धालुओं का तांता लगता है।मार्कंडेय पुराण में मिलता है मां के अवतार का वर्णन विंध्याचल में नवरात्रि के आठवें दिन मां विंध्यवासिनी के महागौरी स्वरूप का दर्शन पूजन होता है। असुरों के भय से नर और नारायण को मुक्ति दिलाने वाली मां के विभिन्न रूपों में एक रूप माता अष्टभुजा का भी है। मां अष्टभुजी ज्ञान की देवी हैं। इनके दर्शन करने से सारी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। नवरात्रि के समय माता के दरबार में मनोकामना लेकर हजारों भक्तों पहुंचते हैं। उन्हें मां की कृपा से असीम सुख मिलता है।
अष्टभुजी देवी का मंदिर की अवस्थिति
अष्टभुजी देवी का मंदिर विंध्याचल मां विंध्यवासिनी की मंदिर से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। विंध्य पर्वत के 300 फुट ऊंचाई पर स्थित मां अष्टभुजी मंदिर पर जाने के लिए 160 पत्थर की सीढ़ियां बनी हुई है। देवी की प्रतिमा एक लंबी और अंधेरी गुफा में है।
गुफा के अंदर दीप जलता रहता है, जिसके प्रकाश में श्रद्धालु देवी मां का दर्शन गुफा में करते हैं। प्राकृतिक गोद में बसा हुआ मां का अष्टभुजी मंदिर बड़ा दिव्य और रमणीक है। यह स्थान अपने शांत और सुंदर दृश्यों के कारण भक्तों के साथ-साथ पर्यटकों के बीच भी लोकप्रिय है। तभी से मां विंध्यवासिनी विंध्य पर्वत पर निवास कर अपने भक्तों को आशीर्वाद देती आ रही हैं। नवरात्रि के दौरान विंध्यधाम में श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ जाती है। अष्टभुजा देवी मंदिर में अष्टभुजा देवी की पूजा और दर्शन के बिना त्रिकोण परिक्रमा अधूरी है। विंध्य क्षेत्र के एक तरफ आदि शक्ति माता विंध्यवासिनी हैं, जबकि दूसरी तरफ महाकाली और महासरस्वती (अष्टभुजा देवी) हैं, जो इस क्षेत्र को एक पवित्र तीर्थ स्थल बनाती हैं।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की धूम
देशभर में कृष्ण जन्माष्टमी आज धूमधाम से मनाई जा रही है। देश के विभिन्न मंदिरों में खास तैयारियां की गई हैं और सुबह से ही श्रद्धालुजन मंदिर में कान्हा के दर्शन करने के लिए आ रहे हैं। भगवान कृष्ण के जन्मस्थली मथुरा और वृंदावन में जन्माष्टमी के भव्य तैयारियां की गई हैं और भक्तों के लिए खास व्यवस्था की गई है। लोग अपने घरों को सजाते हैं, दही-हांडी प्रतियोगिता आयोजित करते हैं और भगवान कृष्ण के बाल रूप की पूजा करते हैं।यह त्योहार प्रेम, करुणा और सच्चाई के प्रतीक भगवान कृष्ण की याद में मनाया जाता है। कृष्ण जन्मोत्सव के अवसर पर भगवान श्री कृष्ण को छप्पन भोग लगाया जाता है। साथ ही विशेष पोशाक पहनाकर उनका श्रृंगार भी किया जाता है। इस दिन भगवान कृष्ण की पूजा-अर्चना की जाती है। इस दिन व्रत रखने, दान करने और भगवान कृष्ण के मंदिरों में जाने का विशेष महत्व होता है।
नारी की त्रि-शक्तियाँ
नारी (मां) में त्रि-शक्तियाँ होती है - प्रेरक, तारक और मारक। कन्या, बहन, पत्नी, माता ऐसी जीवन की इन चार अवस्थाओं में समाज को प्रेरणा देने वालें कई स्त्री चरित्र हमारे इतिहास के पन्नों पर अंकित है। जब आसुरी वृत्ति का प्रतिरोध करने देवगण असमर्थ सिद्ध हुए। तब उन्होंने आदिशक्ति - मातृशक्ति का आवाहन किया। उसको अपने अच्छे शस्त्र अस्त्र प्रदान किये और इस संगठित सामर्थ्य से युक्त हो कर यह महाशक्ति दुष्टता के विनाश का संकल्प लेकर सिद्ध हुई और देवों को भी असंभव सा लगने वाला कार्य उसने कर दिखाया। आज भी जीवनमूल्यों को नैतिकता के पैरों तले कुचलने वाली अहंमन्य दानवी शक्ति को, जीवन के श्रेष्ठ अक्षय तत्त्वज्ञान को दुर्लक्षित कर क्षणिक भौतिक सुख को शिरोधार्य माननेवाली मानसिकता को तथा श्रद्धा को उखाडने वाली बुद्धि को हमें हटाना है, तो फिर मातृशक्ति को ललकारना होगा, उसे संगठित करना होगा। अतः ऐसी अष्टभुजी का प्रतीक हमेशा हमारे सामने रहे जो हमें अपने कर्तव्य शक्ति का, संगठन का बोध कराते रहेगा।
भगवान कृष्ण की सहचरीअष्टभुजी देवी के जन्मोत्सव की उपेक्षा क्यों ?
श्री कृष्णा की सहचरी और उनके लक्ष्य की सहायिका के जन्म के क्षण को देश वह सम्मान नहीं दे रहा है जो मिलना चाहिए ।
"यस्य नार्यस्तु पुजंते रमंते तत्र देवता" वाले देश में इस देवी का जन्मोत्सव भी श्री कृष्णा जन्मोत्सव के समान ही मनाया जाना चाहिए। इसमें तनिक भी उपेक्षा नहीं करना चाहिए। हर श्रीकृष्णा के पंडाल में प्रमुखता के साथ मां अष्टभुजी देवी का जन्मोत्सव बड़ी धूम धाम से मनाया जाना चाहिए।
आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदीलेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। )
Sunday, August 11, 2024
भारत के पर्व और त्यौहार जो विलुप्त के कगार पर हैं : आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी
Sunday, August 4, 2024
दादा पोता के रिश्ते: आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी
Friday, August 2, 2024
भारत में कावड़ यात्रा का ऐतिहासिक विवेचन आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी
कांवड़ यात्रा सावन का विशेष आयोजन
सावन माह में शिव भक्त गंगा या अन्य किसी पवित्र नदी जलाशय के तट पर कलश में गंगाजल भरते हैं और उसको कांवड़ पर बांध कर कंधों पर लटका कर अपने अपने इलाके के शिवालय में लाते हैं और शिवलिंग पर अर्पित करते हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, कांवड़ यात्रा करने से भगवान शिव सभी भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं और जीवन के सभी संकटों को दूर करते हैं।
पुराणों में बताया गया है कि कांवड़ यात्रा भगवान शिव को प्रसन्न करने का सबसे सहज रास्ता है। कांवड़ धारी ऐसा व्यक्ति होता है जो अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार की कठिन से कठिन बाधाओं को पार कर लेता है। कांवड़ लाने वाले भक्तों को कांवड़िया और भोला कहा जाता है। यह कावड़ आम या सेमला के पेड़ों की लकड़ी से बनाए जाते हैं। कावड़ बनाने वाले में बढ़ई और कलाकार दोनों के कौशल का मिश्रण होता है। दो मटकियों में किसी नदी या पवित्र सरोवर का जल भरा जाता है और फिर उसे आपस में बंधी हुई बांस की तीन स्टिक पर रखकर उसे बांस के एक लंबे डंडे पर बांधा जाता है। इस अवस्था में आकृति किसी तराजू की तरह हो जाती है। आजकल तांबे के लोटे में जल भरकर इसे कंधे पर लटकाकर यात्रा की जाती है। इस दंड में दोनो छोर पर जल के दो घड़े या पात्र (डिब्बे या बोतल) टांग लेता है। एक तरफ पानी और दूसरे तरफ यात्री का अन्य सामान्य भी हो सकता है। कावड़ , पवित्र नदियों से पानी ले जाने के लिए टोकरियों के रूप में हो सकता है। लोग कावड़ लेकर शिव भगवान की यात्रा करने जाते हैं। लोग भगवान शिव की तीर्थ यात्रा के लिए पवित्र नदियों से जल ले जाने के लिए टोकरियों का उपयोग करते हैं।
हर साल श्रावण मास में लाखों की तादाद में कांवडिये सुदूर स्थानों से आकर गंगा जल से भरी कांवड़ लेकर पदयात्रा करके अपने गांव वापस लौटते हैं इस यात्रा को कांवड़ यात्रा बोला जाता है। कांवड़ यात्रा हमेशा सावन के पहले सोमवार से शुरू होती है, वहीं समापन ऐसे दिन पर करते हैं जब दिन सोमवार, प्रदोष या शिवरात्रि हो।
डा. ज्ञानेंद्र नाथ श्रीवास्तव
हाथरस यू पी का परसरा परंपरागत कावड़ वाला गांव है : डा. ज्ञानेंद्र नाथ श्रीवास्तव
भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के पूर्व अधीक्षण पुरातत्वविद डॉ. ज्ञानेंद्र श्रीवास्तव ने इस गांव का सर्वेक्षण अपने आगरा के कार्यकाल में किया था। उनकी विवेचना के अनुसार - “ परसरा नामक गांव जो पहले अलीगढ़ और वर्तमान में हाथरस जिले में स्थित है। यहां के लोगों को बाबाजी और जोगी भी कहते हैं। इनकी छोटी छोटी मढ़ियाँ भी होती हैं। ये लोग काँवड़ लेकर चलते रहते हैं। सावन में विशेषकर इनके साथ और लोग भी जल लेने और जगह जगह थानों और शिवालयों में चढ़ाने जाते हैं । उस समय वहाँ उनके 18-20 घर थे किंतु अधिकांश लोग बाहर गये हुये थे।
प्राचीन काल से योगी या जोगी ( योग साधना करने वाले), यति (जती ईश्वरोपासना के यत्न या जतन करने वाले), तपस्वी या तपसी = तप या तपस्या करने वाले जिसमे व्रत,उपवास, आसन, शयन,एकांतवास, ठंढ या ताप सहने की अनेकानेक प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है।), मुनि ( मौन साधक) आदि ईश्वरोपासक संप्रदायों की परंपरा रही है। यह भारतवर्ष की विशेषता रही है कि सामान्य जन सदैव इनसे जुड़कर इनकी देखभालएवं सुविधा का ध्यान रखता रहा है । सामान्य जन गृहस्थ धर्म का पालन करते हुये जोगी -जती आदि साधकों के साथ मिलकर उनके समारोहों को भी भव्य बनाता रहा है और इसी क्रम में वह इनके साथ यात्रा आदि पर भी निकलने लगा तथा अन्य तीर्थों का भ्रमण कर साधु-संतों के दर्शन तथा तीर्थयात्रा का प्रसाद लेने लगा।
शैव धर्म में कालांतर में इसमें पाशुपत, कापालिक, मत्तमयूर , अघोरादि पाँच व्यवस्थित साधना वाले सम्प्रदाय विकसित हुये। पाशुपत सम्प्रदाय का उत्थान गुजरात के आचार्य लकुलीश की महत्ता से हुआ जो ओडिसा से लेकर सम्पूर्ण उत्तर भारत में फैल गया । इसी सम्प्रदाय में आचार्य पराशर नामक महान् शैवाचार्य हुये जिनके नाम से पाराशरेश्वर नामक अनेकानेक शिवमंदिर भी मिलते है एवं परसरा , परसौंजा आदि अपभ्रंश नामों वाले सेटलमेंट या गांव भी मिलते हैं जो इस संप्रदाय के अनुसरण करने वालों के जीवंत केंद्र थे। समय के साथ यद्यपि विशिष्ट साधना सम्प्रदाय ओझल हो गये किंतु लोकमत में उनकी मान्यता बनी रही और यह सब मनुष्य की जीवन शैली में रच बस गया। इस प्रकार रुद्र या शिव के जलाभिषेक हेतु कांवड़ यात्रा लोकजीवन का अभिन्न अंग बन गयी। “
जल की यात्रा का पर्व
श्रावण की चतुर्दशी के दिन उस गंगा जल से अपने निवास के आसपास शिव मंदिरों में शिव का अभिषेक किया जाता है। कहने को तो ये धार्मिक आयोजन भर है, लेकिन इसके सामाजिक सरोकार भी हैं। कांवड के माध्यम से जल की यात्रा का यह पर्व सृष्टि रूपी शिव की आराधना के लिए हैं। पानी आम आदमी के साथ साथ पेड पौधों, पशु - पक्षियों, धरती में निवास करने वाले हजारो लाखों तरह के कीडे-मकोडों और समूचे पर्यावरण के लिए बेहद आवश्यक वस्तु है। उत्तर भारत की भौगोलिक स्थिति को देखें तो यहां के मैदानी इलाकों में मानव जीवन नदियों पर ही आश्रित है ।
कावड़ यात्रा का इतिहास
हिंदू पुराणों में कांवड़ यात्रा का संबंध दूध के सागर के मंथन से है। जब अमृत से पहले विष निकला और दुनिया उसकी गर्मी से जलने लगी, तो शिव ने विष को अपने अंदर ले लिया। लेकिन, इसे अंदर लेने के बाद वे विष की नकारात्मक ऊर्जा से पीड़ित होने लगे। त्रेता युग में, शिव के भक्त रावण ने कांवड़ का उपयोग करके गंगा का पवित्र जल लाया और इसे पुरामहादेव में शिव के मंदिर पर डाला। अन्य जगह रावण द्वारा देवघर में वैद्यनाथ में जल अर्पण का विवरण मिलता है।धार्मिक मान्यता के अनुसार, समुद्र मंथन के दौरान निकले विष को पीने से शिवजी का गला जलने लगा था। इस स्थिति में देवी- देवताओं ने गंगाजल से प्रभु का जलाभिषेक किया, जिससे प्रभु को विष के प्रभाव से मुक्ति मिल गई। ऐसा माना जाता है कि तभी से कांवड़ यात्रा की शुरुआत हुई।
सृष्टि की मान्यताओं का अंकन
प्रतीकात्मक तौर पर कांवड यात्रा का संदेश इतना भर है कि आप जीवनदायिनी नदियों के लोटे भर जल से जिस भगवान शिव का अभिषेक कर रहे हें वे शिव वास्तव में सृष्टि का ही दूसरा रूप हैं। धार्मिक आस्थाओं के साथ सामाजिक सरोकारों से रची कांवड यात्रा वास्तव में जल संचय की अहमियत को उजागर करती है। कांवड यात्रा की सार्थकता तभी है जब आप जल बचाकर और नदियों के पानी का उपयोग कर अपने खेत खलिहानों की सिंचाई करें और अपने निवास स्थान पर पशु पक्षियों और पर्यावरण को पानी उपलब्ध कराएं तो प्रकृति की तरह उदार शिव सहज ही प्रसन्न होंगे।
कांवड़ के चार प्रकार
कांवड़ मुख्यत: चार प्रकार की होती है और हर कांवड़ यात्रा के नियम और महत्व अलग होते हैं। इनमें सामान्य कांवड़, डाक कांवड़, खड़ी कांवड़, दांडी कांवड़ हैं। जो व्यक्ति जैसी कांवड़ लेकर जाता है, उसी हिसाब से तैयारियां भी की जाती है।
1. सामान्य कांवड़
सामान्य कांवड़ यात्रा के लिए कांवड़िये रास्ते में आराम करते हुए यात्रा करते हैं और फिर अपने लक्ष्य तक पहुंचते हैं। इसके नियम बेहद सहज और सरल है। इसकी सबसे अच्छीा बात है कि कांवड़ियां बीच रास्ते में कभी भी आराम कर सकता है और फिर यात्रा शुरू कर सकता है।
2.डाक कांवड़
डाक कांवड़ यात्रा के दौरान कांवड़िये नदी से जल लेकर भगवान शिव का जलाभिषेक करने तक लगातार चलना होता है। एक बार यात्रा शुरू करने के बाद जलाभिषेक के बाद ही यात्रा खत्म की जाती है। शिव मंदिरों में जलाभिषेक के लिए विशेष व्यवस्था भी की जाती है। इसके नियमों का पालन करने के लिए शिव भक्त को बहुत मजबूत बनना पड़ता है, क्योंकि इस यात्रा में कांवड़ को पीठ पर ढोकर लगातार चलना पड़ता है।
3. खड़ी कावड़
खड़ी कावड़ यात्रा सामान्य यात्रा से थोड़ी मुश्किल होती है। इस कांवड़ यात्रा में लगातार चलना होता है। इसमें एक कांवड़ के साथ दो से तीन कांवड़िएं होते हैं। जब कोई एक थक जाता है, तो दूसरा कांवड़ लेकर चलता है। ऐसा इसलिए क्योंकि यात्रा में कांवड़ को नीचे जमीन पर नहीं रखते। इसी कारण इसे खड़ी कांवड़ यात्रा कहते हैं।
4.दांडी कांवड़
दांडी कांवड़ को सबसे कठिन यात्रा माना जाता है। इसमें कांवड़िए को बोल बम का जयकारा लगाते हुए दंडवत करते हुए यात्रा करते हैं। कांवड़िए घर से लेकर नदी तक और उसके बाद जल लेकर शिवालय तक दंडवत करते हुए जाते हैं। इसमें सामान्य कांवड़ यात्रा से काफी समय लगता है।
कांवड़ यात्रा की परंपरा
1.सभी देवों द्वारा शिव जी का अभिषेक
कांवड़ यात्रा को लेकर प्रथम मान्यता है कि समुद्र मंथन के दौरान जब महादेव ने हलाहल विष का पान कर लिया था, तब विष के प्रभावों को दूर करने के लिए भगवान शिव पर पवित्र नदियों का जल चढ़ाया गया था। ताकि विष के प्रभाव को जल्दी से जल्दी कम किया जा सके। सभी देवता मिलकर गंगाजल से जल लेकर आए और भगवान शिव पर अर्पित कर दिया। उस समय सावन मास चल रहा था। मान्यता है कि तभी से कांवड़ यात्रा की शुरुआत हो गई थी।
2.परशुराम द्वारा पुरा महादेव जी का अभिषेक
मान्यताओं के अनुसार, भगवान परशुराम ने सबसे पहले कांवड़ यात्रा की शुरुआत की थी। परशुराम गढ़मुक्तेश्वर धाम से गंगाजल लेकर आए थे और यूपी के बागपत के पास स्थित 'पुरा महादेव' का गंगाजल सेअभिषेक किया था। उस समय सावन मास ही चल रहा था, इसी के बाद से कांवड़ यात्रा की शुरुआत हुई। आज भी इस परंपरा का पालन किया जा रहा है। लाखों भक्त गढ़मुक्तेश्वर धाम से गंगाजल लेकर जाते हैं और पुरा महादेव पर जल अर्पित करते हैं।
3. रावण द्वारा भी पुरा महादेव जी का अभिषेक
प्राचीन ग्रंथों में रावणको पहला कांवड़िया बताया है। समुद्र मंथन के दौरान जब भगवान शिव ने हलाहल विष का पान किया था, तब भगवान शिव का कंठ नीला हो गया था और वे तभी से नीलकंठ कहलाए थे। लेकिन हलाहल विष के पान करने के बाद नकारात्मक शक्तियों ने भगवान नीलकंठ को घेर लिया था। तब रावण ने महादेव को नकारात्मक शक्तियों से मुक्त के लिए रावन ने ध्यान किया और गंगा जल भरकर 'पुरा महादेव' का अभिषेक किया, जिससे महादेव नकारात्मक ऊर्जाओं से मुक्त हो गए थे। तभी से कांवड़ यात्रा की परंपरा भी प्रारंभ हो गई।
4. श्रवण कुमार माता पिता के साथ हरिद्वार से कावड़ लाया गया
कुछ विद्वान का मानना है कि सबसे पहले त्रेतायुग में श्रवण कुमार ने पहली बार कांवड़ यात्रा शुरू की थी। श्रवण कुमार ने अंधे माता पिता को तीर्थ यात्रा पर लेजाने के लिए कांवड़ बैठया था। श्रवण कुमार के माता पिता ने हरिद्वार में गंगा स्नान करने की इच्छा प्रकट की थी, माता पिता की इच्छा को पूरा करने के लिए श्रवण कुमार कांवड़ में ही हरिद्वार ले गए और उनको गंगा स्नान करवाया। वापसी में वे गंगाजल भी साथ लेकर आए थे। बताया जाता है कि तभी से कांवड़ यात्रा की शुरुआत हुई थी।
5. रावन द्वारा बैद्यनाथ जी का अभिषेक
जनश्रुति एवं पुराणों के अनुसार भगवान शिव को खुश करने के लिए लंकेश्वर रावण ने हरिद्वार से कांवर में जल लाकर बाबा बैद्यनाथ पर जलार्पण किया था।
6. भगवान राम द्वारा बैद्यनाथ जी का अभिषेक
आनंद रामायण में इस बात का उल्लेख मिलता है कि भगवान राम पहले कांवड़िया थे।भगवान राम ने बिहार के सुल्तानगंज से गंगाजलभरकर देवघर स्थित बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का अभिषेक किया था। उस समय सावन मास चल रहा था।राज्याभिषेक के पश्चात राम अपनी पत्नी सीता एवं तीनों भाईयों के साथ देवघर आए थे और बाबा बैद्यनाथ पर जलाभिषेक किए थे।
आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। )