डा. मुनि लाल उपाध्याय 'सरस'जी
सम्पादन आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी
जीवन परिचय :-
ठाकुर झूरी सिंह @ "बालसोम गौतम " जी का जन्म बस्ती जिले के खुटहन नामक ग्राम में (उपहार पृष्ठ 47 के विवरण के आधार पर) सं० 1992 वि० में हुआ था। एक अन्य विवरण से उनका जन्म श्रावण शुक्ला द्वितीया संवत 1985 विक्रमी / 18 जुलाई 1928 ई को माना जाता है। वे मथुरा सिंह इकलौते पुत्र थे। उन्होंने 1947 ई में मिडिल तक शिक्षा ग्रहण किया था। उन्होने गन्ना विभाग में सुपरवाइजर पद की नौकरी कर बस्ती बहराइच तथा गोण्डा जनपद में काफी भ्रमण तथा कार्य किया है। वे गोंडा जनपद के विशेषरगंज क्षेत्र से दीर्घ काल तक जुड़े रहे। गन्ना पर्यवेक्षक की नौकरी के साथ साथ वे साहित्य सृजन में भी संलग्न रहे। उनकी ससुराल बस्ती के टिनिच स्टेशन के पास शिवपुर में है और वे वहां भी रहते थे। जीवन के अन्तिम दिनों में टिनिच रेलवे स्टेशन के पास एक हरा भरा उद्यान बनाकर उसमें अपना निवास स्थान बनाकर साहित्य की साधना से जुड़े रहे। वे बहुत ही प्रकृति प्रेमी इन्सान थे।
बालसोम जी ने अपने विषय में लिखा था--
है ज्ञान के विज्ञान के अथवा कला के क्षेत्र में,
हूँ नही कुछ खास अपने विषय में क्या कहूं ।
हूँ नही लिक्खाड़ कोई या पढ़ाकू बीर ही,
स्वल्प शिक्षा प्राप्त लघुमति व्यक्ति अति सामान्य हूँ ।।
बालसोम जी की वर्ष1973 में प्रकाशित काव्य संकलन स्वगत में श्री हरिशंकर मिश्र, प्रवक्ता-खैर इंटर कालेज, बस्ती ने *बालसोम कौन?* शीर्षक से लिखा है --
उनिद्र मस्तिक का जागृति बोध छिपाये,
मन की तलहटी में निरन्तर गुनगुनाता,
भीड़ में घुस कर भी अकेला आत्मलीन;
जरा -सा छेड़ने पर निहायत ही वाचाल।
अद्यतन कबीर का नन्हा-सा आपरिचित बेलाग संस्करण; ऊपर से शालीनता की सीमा तक दब्बू दिखाई देने वाला, निर्भीकता के बिंदु तक दबंग;
कभी छुई-मुई-सा- संवेदनशील,
कभी चट्टान -सा निर्मम ।
प्रचीन कालदण्ड पर नवीन के तार बाँधकर
जो स्वगत बोल रहा है--वह है कवि बालसोम ।।
जो शास्त्र थहाने वाला पंडित नहीं,
पंडितो द्वारा चर्चित कवि पुंगव नही,
एक़ साधारण-सा असाधारण व्यक्ति है;
जिसका पानी भवानी का वरदान है।
जिसका काम है
शब्दों की जिह्वा पर नये अर्थ धरना,
पुरानी दिप-शिखा को
नये आलोक से मंडित करना ।
दूर अनाकांक्षी होते हुए
कवि कीर्ति का अधिकारी,
अपनी परायी सबकी पीड़ा का गायक
पपीहा-सा यह व्यक्ति
बस्ती के जीवन-वन में
पिछले बीस वर्षों से
देखा सुना जा रहा है ।।
युवा कवियों को सुझाव देत हुये सोम जी ने निम्न गजल की रचना की थी --
सीधा सदा सच्चा लिख ।
थोडा लिख पर अच्छा लिख ।।
जो भी कुछ लिख पक्का लिख ।
चिठ्ठा एक न कच्चा लिख ।।
लिख जो भए जन जन को ।
गाये बच्चा-बच्चा लिख ।।
नाव डूबने वाली है ।
करें राम ही रक्षा लिख।।
बात न माने शायर की ।
क्यों न खाए गच्चा लिख ।।
मत लिख इसके उसके जैसा ।
केवल अपने जैसा लिख ।।
“मौलश्री” नामक पत्रिका का नाम भी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण रहा है। उनके टिनिच आवास एक सुन्दर उपवन में बना हुआ है। 88 वर्ष की उम्र में वे 20 नवम्बर 2016 को अंतिम सांस / जिला चिकित्सालय बस्ती/गौर क्षेत्र के साड़ी कल्प गांव में ली। बाल सोम गौतम अपने पीछे भरा पूरा परिवार छोड़ गए हैं। उनका अंतिम संस्कार कुआनो नदी के वाराह क्षेत्र घाट पर सम्पन्न हुआ था । मुखाग्नि उनके बडे बेटे सिद्धार्थ कुमार गौतम ने दिया था। उनकी पत्नी जिला परिषद के प्राथमिक विद्यालय की शिक्षिका थी। बस्ती शहर के आवास विकास कालोनी में भी उनका शहरी निवास होता था। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों व भ्रष्टाचार से आजिज होकर समय पूर्व अवकाश लेकर साहित्य साधना में लीन हो गये थे। वह 31मार्च 1984 को स्वेच्छा से सेवामुक्त हुए थे। वे अपने किसी शुभचिन्तक को कभी भी निराश नहीं करते थे। सरल तपस्यवियों की तरह साधारण सा उनकी जीवन यापन की शैली थी। बाल सोम जी बहुत ही सुलझे हुए इन्सान थे।
साहित्य साधना और सम्मान - पुरस्कार
ठाकुर झूरी सिंह बालसोम गौतम ने मौलिक, श्रीकबीर, पत्रिका सम्पादन, सौगात, तरूमंगल काव्य. साहित्य का लेखन किया।बाल सोम गौतम खड़ी बोली के गीतकार के रूप में जिस समय बस्ती के छन्दकारों के बीच में आये उस समय द्विजेश और पावन युग समाप्त हो रहा था। इन्होने साहित्य-सृजन में प्रवेश के निमित्त विद्वानों का साथ बड़े ही सहृदयता के साथ ग्रहण किया। आपके गीतों में मधुरता के साथ भावात्मक प्रवाह है। प्रारंभ में आपने "झरोखा" नामक एक पत्र का संपादन किया। पुन: श्री केशरी धर द्विवेदी के साथ अद्यतन साप्ताहिक पत्र कुछ दिनो तक निकालते रहे। इसके बाद 1960-61 में "कबीर" नामक तथा 1965-66 में "अपना घर" नामक साप्ताहिक पत्र निकालते रहे। इधर कुछ दिनों पहले "मौलश्री" नामक साहित्यिक पत्रिका भी कई अंकों तक प्रकाशित करते रहे। बालसोम जी गोष्ठियों के मुस्कराते हुए कवि हैं। "एकान्त के क्षण" नामक काव्य-संग्रह का प्रकाशन चिनगारी प्रेस, बनारस से हुआ। 1998 में तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने सम्मानित किया था। वर्ष 2000 में उत्तर प्रदेश सरकार के सिचाई मंत्री धनराज यादव, 2004 में साहित्य एकादमी, 2006 कादम्बरी कल्प द्वारा, 2010 में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल द्वारा, 2014 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव व 2015 में पुन;साहित्य एकादमी द्वारा सम्मानित किया गया। उन्होने ’’मौलश्री’’ नामक मासिक पत्रिका का संपादन भी किया है। वे उच्च कोटि के गीतकार थे तथा देश के अनेक ख्यातित कवियों के सानिध्य में रह चुके हैं। नवोदितों को प्रायः मार्ग दर्शन करते रहते थे।
बालसोम जी बस्ती के छंदकार नामक शोध प्रबंध में काल क्रमिक विभाजन के चतुर्थ चरण के सहृदय कवि और उत्कृष्ट छन्दकार होने के साथ-साथ गीतकार भी रहे है। तरुण कवियों के प्रेरणा स्रोत और कवि सम्मेलनों के आयोजक है। इनसे जनपद को बड़ी-बड़ी आशाएं हैं।उन्होंने वैसे तो गीतों की बहुत बड़ी सीरीज लिख छोड़ी है। वह अनगिनत कविताओं के सुप्रसिद्ध रचनाकार रहे हैं।गीत सहृदय साधको के लिए बड़े मनोहारी है। इन्होंने अपने युवा काल में घनाक्षरी और सवैया छन्द भी लिखा है जिनकी संख्या शताधिक थी। ये छन्द असावधानी के कारण कहीं गायब हो गये।
प्रकाशित पुस्तके -
1.एकान्त के क्षण,
2. स्वगत
3.तरुमंगल
4.बाल सोम जी के फुटकर गीत
फुटकर गीतों की कुछ पंक्तियां:-
हम उनके पावन स्मृति को सादर नमन करते हैं । उनके अति प्रचलित कुछ की पक्तियां नमूना स्वरुप यहां प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं –
"दो ईंटों पर खड़ी हुई है वह ऊँची मीनार हमारी ।"
"नीड़ बनाने में मजबूरी तुम मुझको मजदूर करो न । "
ये शाम और ऐ फूलों का मुरझाना देख उदासी क्यों,
जब तय है होगी सुबह, खिलेंगे फूल हजारों नये-नये ।।’’
‘‘ओ मन्दिर के नभचुम्बी शिखरासीनकलश,
तुम बन्धु नींव के ईटों का सम्मान करो।।’’
“अब ना पपीहे का स्वर अच्छा लगता है।
अब न भीड़ भौरे की अच्छी लगती है।
पकड़ लिया बाजार की जबसे गीतों ने।
गाने से सौ कोस तबीयत भगती है।।’’
“तेरे महलों की चहल पहल,
तेरे बैभव की चमक दमक,
मेरे खेतों में रोज सुबह
भिखमंगिन बनकर आती है।।”
"हर पल गीत प्रेम के गाया,
नहीं किसी का दिल दुखाया।"
"कौन करे अब किताब का जोखा,
जिंदगी में क्या खोया क्या पाया' "
तरुमंगल लघु काव्य
बाल सोम गौतम का “तरुमंगल” एक लघु काव्य, जो अभी विगत दिनों प्रकाशित हुआ है, इसमें 14 गीत प्रकाशित हुए हैं, इसमें पर्यावरण से सम्बन्धित अनेक सरल गीतों का संकलन किया गया है--
हम चाहे रहें न रहें ये रहें, नित ही द्रुम द्वारे हरे हरे ये।
रहें द्वारे हमारे हमेशा बने, द्रुम देव दुलारे हरे हरे ये।
तने यों ही रहें सर ऊॅचां किये,सदियों तरु सारे हरे हरे ये।
सदा शीतल छांह गहाये रहें, तरु प्यारे हमारे हरे हरे ये।।
ये भले महरुम जबान से हैं, पर पूरित आंख से कान से हैं।
अनजान से ये दिखते हैं भले, नहीं वंचित किन्तु ये ज्ञान से हैं।
कम पूज्य न वेद कुरान से ये, घट के न किसी भगवान से हैं।
वरदान से हैं मिले प्राणियों को, तरु ये हमको प्रिय प्रान से हैं।।
जहां वृक्ष लता न सुखी सरिता, न ही शीतल मंद बयार जहां।
खगवृन्द करें न कलोल जहां, न ही गुंजित मेघ मल्हार जहां ।
न तो नाचते मोर न श्याम घटा, छटा सावन की न फुहार जहां ।
कहो कैसे भला वहां कोई टिके, न हो वृक्ष घना छतनार जहां।।
घर चाहे बने न बने अपना, कर लेंगे गुजारा इन्हीं के तले।
सच बोलते हैं हम लेंगे बिता, यह जीवन सारा इन्हीं के तले।
रह लेगा सुखी से मजे में यहीं,परिवार हमारा इन्हीं के तलें।
जो मरें तो इन्हीं विटपों के तले, जनमें जो दुबारा इन्हीं के तले।।
बसने को वहां मन क्यों न कहे,सुमनों का जहां सुनिवास रहे।
चरने को सदा हिरनों के लिए,चहु ओर हरी हरी घास रहे।
कभी धूप खुली कभी छांव घनी, नदी-ताल भी आस ही पास रहे।
मन क्यों न रमें उस ठौर जहां,तरु संग विहंग विलास रहे।।
ले टिकोरे खड़ी अमराई जहां, वहां न पिकी का निवास रहे।
कहो कूके न क्यों वहां प्यारी पिकी, जहां हाजिर हर्ष- हुलास रहे।
सुमनों से सजी हो दिशाए जहां,पसरा चहु ओर सुबास रहे।
मधुपों की जमात जमीं हो जहां, वहा क्यों न जमा मधुमास रहे।।
यदि चाहते वंशी रहे बजती, सुख चैन की रात उजाली रहे।
न हो खाली खजाना खुशी का कभी,नित खेलती होंठ पे लाली रहे।
मन की अमराई न सूनी रहे,सदा कूंकती कोयल काली रहे।
घरती को ढ़को तरु पललवों से, चहुं ओर सजी हरियाली रहे।।
चलो भागो कटेरों अभी यहां से, कभी लौट दुबारा न आना यहां।
तरुओं को तरेरता जो भी उसे, पड़ता दृग दोऊ गवाना यहां।
इस ओर न झांकना भूल के भी, मत सूरत स्याह दिखाना यहां।
कभी आना ही आना पड़े यदि तो,यह काला कुठारा न लाना यहां।।
पृथ्वी पर तत्व महत्व के ये, यह सत्य कदाचिद् जाना नहीं।
यह वृक्ष तुम्हारे भी तो हैं हितू, लगता है इन्हें पहचाना नहीं।
पर सेवा व्रती इन पादपों को, दुख दे अपकीर्ति कमाना नहीं।
कहलाना कृतघ्न नहीं निजको, इन्हें कष्ट कभी पहुंचाना नहीं।।
हित हेतु सभी तनधारियों के, अवतार लिये अवनी पर ये।
विहगों को न केवल मात्र विहार,आहार भी देते विरादर ये।
बट पीपर गूलर पाकर ये, बनें यों ही रहे निशिवासर ये।
कटने नहीं देंगे कदापि इन्हें, कट जायें भले अपना सर ये।।
चिर मौनव्रती सब योगी यती, तपधारी सभी तरु न्यारे हैं ये।
ऋषियों मुनियों को रहे प्रिय ये,नहीं केवल देव-दुलारे हैं ये।
प्रिय हैं इनके उनके सबके, नहीं मात्र हमारे तुम्हारे हैं ये।
धरती को सजाए संवारे हुए,बड़े भोले हैं ये बड़े प्यारे हैं ये।।
सुख देते समान सदा सबको, महिपाल स्वरुप महीं पर ये।
प्रतिपालक कीट पतंग के भी, नभ चूम रहे बट-पीपर ये।
सदा देते ही देते रहे हैं हमें, हमसे कुछ लेते नहीं पर ये।
सुरलोक में भी प्रिय पूजित हैं, नहीं केवल पूज्य यहीं पर ये।।
विश्राम के हेतु घड़ी दो घड़ी, सकुचाना नहीं चले आना यहां।
चले आना यहां बड़े शौक से तू,भरपूर छंहाना-जुड़ाना यहां।
पर घ्यान रहे इस बात का भी,मत ढ़ेला से हाथ छुआना यहां।
फल बीन के खाना मना नहीं है पर झोर के एक न खाना यहां।।
सुनना चुपचाप पखेरुओं का , कलगायन शोर मचाना नहीं।
खुश होकर नाच भी लेना भले, पर ताली थपोड़ी बजाना नहीं।
हृदयंगम ये भी रहे कि यहां, कभी आकर जाल विछाना नहीं।
करना ना भयंकर भूल कभी, इन्हें गुल्ता-गुलेल दिखाना नहीं।।