श्री मदभागवत पुराण प्रथम स्कन्धः अष्टमोऽध्यायः
डा. राधे श्याम द्विवेदी
प्रिय मित्रों ,जय श्री कृष्ण, जय श्री राधे। सप्तम अध्याय में आपने जाना कि अश्वत्थामा जिसने छल पूर्वक द्रोपदी के सोते हुए पांच पुत्रों की निर्ममता पूर्वक हत्या कर दी थी । फिरभी द्रोपदी अश्वत्थामा पर दया का भाव रखती है । चूंकि अश्वत्थामा एक तो ब्राम्हण है दूसरा गुरु द्रोणाचार्य का पुत्र है। इसलिये उसे मृत्यु दंड नहीं दिया जाता है । उसके मस्तक में लगी मणि निकाल ली जाती है । उसके केश काट दिये जाते हैं और उसे जीवन दान दे दिया जाता है। अश्वत्थामा पांडवो के शिविर से चला जाता है। अश्वत्थामा के चले जाने के बाद पांडव महाराज धृतराष्ट्र, रानी गान्धारी, कुन्ती तथा द्रोपदी आदि भगवान कृष्ण के साथ गंगा तट पर जाते हैं और युद्ध में मारे गये परिवार जनों आदि का अन्तिम संस्कार करते हैं । उन्हें जलांजलि देते हैं उनकी जीवित काल की यादों का स्मरण कर दुख से द्रवित होते हैं I
वहां भगवान कृष्ण सभी को ज्ञानोपदेश देते हैं । भगवान कहते हैं, “इस जगत में आने वाला हर प्राणी काल के आधीन है।सभी को अन्ततः मृत्यु का वरण करना ही है। आज काल ने इन्हें ग्राह्य बनाया है कल आप की बारी है। सभी को काल के गाल में जाना ही पड़ेगा। तो फ़िर व्यर्थ शोक करना है, मृत्यु से कोई बचने वाल नहीं है। "
भागवत कथा कहती है कि युद्ध के पश्चात विजयी पांडवों को उनका राज्य मिल गया। वह राज्य जो उन्हीं के धूर्त परिवार जनों द्वारा छीन लिया गया था। परन्तु युधिष्टिर दुखित थे कि उनके कारण बहुत से लोग मृत्यु को प्राप्त कर चुके हैं।अतः धर्मशील युधिष्टिर ने राजपाठ संभालने के साथ ही पुरोहितों को बुलवाया और तीन अश्वमेघ यज्ञ करवाये I
महाराज युधिष्टिर ने राज्य का कार्यभार गृहण कर लिया था। स्थितियां सामान्य हो गईं थी। सो भगवान कृष्ण ने द्वारिका के लिये प्रस्थान करने का विचार किया। भगवान की विदाई का आयोजन होने लगा । भगवान का स्वागत सत्कार किया गया। पांण्डवों ने राजकीय सम्मान के साथ भगवान की विदाई का आयोजन किया। भगवान श्री कृष्ण सात्यकी और ऊधव के साथ द्वारिका के लिये प्रस्थान करने वाले थे।सभी लोग अत्यन्त दुखी थे भगवान उनको छोड़कर द्वारिका जा रहे थे।तभी अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा भयभीत और व्याकुल होकर भागते हुए आती है और भगवान श्री कृष्ण के सामने आकर उनके शरणागत हो विलाप करती हुई कहती है--
पाहि पाहि महायोगिन् देवदेव जगत्पते |
नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्युः परस्परम् ||
, “हे देवेश्वर, हे योगेश्वर, आप महायोगी हैं । आप की शरण में हुं । आप मेरी रक्षा करिये।मुझे मालूम है इस जगत में आज मेरी रक्षा करने वाला आपके सिवा कोई नहीं है। देखिये देखिये वो अग्नि के समान काल दहकते हुए वाणों के जैसा मेरी और मेरे गर्भ की हत्या करने के लिये काल के समान मेरी तरफ़ बढता चला आ रहा है। "
भगवान कृष्ण स्वयं योगी हैं। भगवान ने तुरन्त ही अपनी योग माया से जान लिये कि यह कार्य धूर्त अश्वत्थामा द्वारा किया गया है । उसी ने पाण्डवों के वंश को समाप्त करने के लिये अभिमन्यू की पत्नी उत्तरा पर ब्रह्म अस्त्र का प्रयोग किया है। ”
जब अर्जुन ने अश्वत्थामा के मस्तक से मणि निकाल कर तथा उसके केश काट कर उसे भगा दिया तो उसने वहां से आने के पश्चात अपने अपमान का बदला लेने के लिये विचार किया । उसने सोचा कि पांण्डवों के वंश को अर्थात देवकी के पुत्रों को उसने मार ही दिया है ।परन्तु अभिमन्यू की पत्नी उत्तरा गर्भवती है और उसके गर्भ को समाप्त कर पांण्ड्वों के वंश को समाप्त किया जा सकता है। और इसी उद्देश्य से धूर्त अश्वत्थामा ने इस नीच कृत्य को किया I
भगवान श्री कृष्ण करुणावान हैं । भगवान ने उत्तरा को भय से व्याकुल देखा। भगवान मोहक चितवन से उत्तरा को देख रहे हैं । परमात्मा की मंद मंद मुस्कान उत्तरा को अभय कर रही है। भगवान ने स्वयं गीता में कहा है“अनन्याश्चिन्त्यो मां” अर्थात तो अनन्य भाव से मुझे भजते हैं व मेरी शरण आते हैं । अनन्य का अर्थ है ना अन्या इती अनन्या। सिर्फ़ श्री कृष्ण दूसरा कोई नहीं सिर्फ़ और सिर्फ़ श्रीकृष्ण की शरण की शरण में है उत्तरा। परमात्मा उत्तरा के नेत्रों के माध्यम से ऊर्जा के स्वरूप में उत्तरा के गर्भ में प्रवेश कर गये,और उत्तरा के गर्भ को भगवान नें अपनी योग माया से ढक लिया और ब्रम्हास्त्र से गर्भ की रक्षा की। जब कि वाह्य स्वरूप में भगवान ने अपना सुदर्शन चक्र धारण किया और सुदर्शन चक्र के तेज से ब्रम्हास्त के तेज को समाप्त किया। जिस समय यह सब हो रहा था उस समय अर्जुन, युधिष्टिर, भीम आदि सभी उपस्थित थे। सभी भयभीत हो गये थे सभी ने अपने शस्त्र धारण कर लिये।परन्तु उन्हें यह भी नहीं मालुम था कि ब्रम्हास्त्र को निष्क्रिय स्वयं जगतपति ही कर सकते हैं, जो उन्होंने कर दिया। परमात्मा श्रीकृष्ण ने उत्तरा के गर्भ की रक्षा की। परमात्मा मुस्कुरा रहे हैं परमात्मा का दर्शन अभयकारी है। सभी ने आज भगवान की देव लीला का दर्शन किया है I
उत्तरा के गर्भ की रक्षा के पश्चात भगवान द्वारिका के लिये प्रस्थान करने लगते हैं। तभी कृष्ण की बुआ, कुन्ती अपने पुत्रों, द्रोपदी तथा उत्तरा के साथ भगवान कृष्ण की स्तुति करने लगती हैं। आज तक जो कुन्ती बुआ थीं आज उन्होने कॄष्ण को ईश्वर कह कर सम्बोधित किया है। कुन्ती की आंखों में प्रेमाभक्ति के आंसू हैं। कुन्ती का गला रूंध गया है, आंसुंओं से गाल भीग रहे हैं। कुन्ती श्रीकृष्ण के सामने हांथ जोड़ कर खड़ी हैं । आज तक कुन्ती कृष्ण को अपना भतीजा मानती रहीं लेकिन आज कुन्ती की परमात्म भक्ति फ़लित हो गई । उन्हें साक्षात परमात्मा श्रीकृष्ण के दर्शन हो गये।कुन्ती अश्रुपूरित आंखों से कृष्ण को निहार रही हैं। उन्हें आज कृष्ण के दर्शन से तृप्ति नहीं हो रही है क्यों कि आज उन्हें बोध हो गया कि कॄष्ण ही परमात्मा है I
कुन्ती अपनी स्तुति में कह रही हैं, “आप तो परमतत्व हैं परमेश्वर हैं । समस्त जीवों के अन्दर और बाहर आप ही स्थित हैं, परन्तु अपनी इन्द्रियों और उनकी वृत्तियों के वशिभूत मनुष्य आपको देख नहीं पाता है। सब करने वाले आप ही हैं परन्तु मनुष्य अभी अनुकूल होने पर अभिमान करता है । कभी प्रतिकूल होने पर दुखी होता है परन्तु जो करने वाला है उसके दर्शन से विमुख रह जाता है। मनुष्य इन्द्रियों की मांग की पूर्ती करने में व्यस्त है क्यों कि आपकी माया उसे भृमित रखती है।जैसे नट किसी पात्र का अभिनय करता है और देखने वाला नट के पात्र को पहचानता है । परन्तु नट के वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचान पाता है वैसे ही हे कृष्ण मैं एक साधारण स्त्री हूं। आपके परमात्म स्वरूप को आज तक नहीं पहचान पाई थी I”
कुन्ती कह रही है, “हे प्रभू आपका अवतार तो मोह और आसक्ति से परे रहने वाले शुद्ध हृदय परमहंसों में अपनी प्रेममयी भक्ति का प्राकट्य करने के लिये हुआ है।
कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च |
नंदगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नमः ||
हे कृष्ण हे देवकी के सुत, हे वासुदेव के लाला गोपियों के प्यारे गोविन्द, तुम्हे हम बार बार प्रणाम करती हूं।, हे प्रभू आपकी ही नाभि से कमल उत्पन्न हुआ जिस पर इस सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जन्मे।आपके नेत्र भी कमल के समान सुन्दर हैं । आपके गले में सुन्दर कमलों की माला है तथा आपके श्रीचरणों में कमल अंकित है। हे कृष्ण तुम्हें बारंबार प्रणाम है। हे गोविन्द जैसे आपने कंस के भय से उसकी कैद से देवकी की रक्षा की थी।वैसे ही आपने मेरे पुत्रों सहित मेरी बार बार रक्षा की। कुन्ती की आंखों से निरन्तर आंसू बह रहे हैं विलाप कर रही है कह रही है। हे प्रभू कितने उपकार किये आपने हम पर क्या क्या गिनाऊं। दुर्योधन आदि ने मेरे पुत्रों को विष दे दिया था । तब आपने ही हमारी रक्षा की, लाक्षाग्रह की आग से हमारी रक्षा की। राक्षसों की कुःदृष्टि से रक्षा की भरी सभा में जब कोई हमारा सहारा नहीं था तो आपने द्रोपदी की पुकार सुनी। हमारे कुल की लाज बचाई। वनवास में अनेकों विपत्तियों से हमारी रक्षा की। महाभारत के युद्ध में हमारी कितनी सहायता की तुम ईश्वर होकर मेरे पुत्र के सारथी बने।अनेकों बार महारथियों के शस्त्रों से युद्ध में मेरे पुत्रों की रक्षा की। हे केशव आज आज तो तुमने हमारे कुल के समाप्त होने से बचाया है। मेरी पौत्र बधू उत्तरा के गर्भ की रक्षा की है आपने । "
कुन्ती की वात्सल्य भक्ति है भगवान के प्रति, परन्तु अब दास्य भाव मिश्रित वात्सल्य भक्ति हो गई, दीनता का भाव है भगवान से विनती करते हुए, कुन्ती भगवान की स्तुति करते हुए भगवान से याचना करने लगीं कुन्ती ने कहा, “हे जगत के गुरु, मेरी इच्छा है कि मेरे जीवन में निरन्तर पद पद पर विपदाएं आती रहें।निरन्तर समस्याएं आती रहें हमारे जीवन में, क्यों कि जब जब समस्याएं आती हैं तो हे केशव हमें तुम्हारी याद आती हैं और तुम हमारे पास होते हो। ”
कुन्ती आत्मा की अनन्य भक्त हैं । भगवान से उन्होने अपने जीवन में दुख की मांग की बहुत चतुर भक्त हैं । कुन्ती जानती हैं उन्हें अनुभव भी है कि जब जब समस्याएं उनके जीवन में रहीं परमात्मा उनके पास उनकी सहायता में रहे।इसीलिये कुन्ती स्वयं कह रही हैं, “हे प्रभू ऊंचे कुल में जन्म होने से, सम्पत्ति वान होने से, ज्ञानवान होने से अथवा विद्यावान होने से मनुष्य में अहंकार आ जाता है, और अहंकारी परमात्मा की भक्ति के विषय में सोच भी नहीं सकता, जिसमें दीनता का भाव है, अकिंचन भाव है उसे परमात्मा स्नेह करते हैं। विद्या, एश्वर्य, सम्पत्ति तथा प्रतिष्ठा जिसकी कृपा से प्राप्त हुई है । उसके लिये स्नेह हो समर्पण हो धन्यवादं का भाव हो, क्यों कि इस ब्रम्हाण्ड का समस्त वैभव सब आपकी कृपा से है। समस्त जीव, जन्तु, जलचर, मनुष्य आदि आपसे जन्मते हैं आप ही इस सृष्टि के कारण भूत हैं।
कुन्ती भगवान को सम्बोधित करते हुए कहती हैं, “हे यशोदा नन्दन मुझे आपके बचपन की वो घटना याद है। आप छोटे थे और दूध की मटकी को आपने फ़ोड़ दिया था। आपकी माता यशोदा खीझ गईं और मैया को क्रोध आ गया। उन्होने गुस्से में आपको बांधने के लिये हांथ में रस्सी उठा ली थी। मां यशोदा को क्रोध में देखकर आप सहम गये थे भयभीत हो गये थे। मैया ने आपका हांथ पकड़ कर आपको बांधने के लिये अपनी ओर खींचा था कि आप बहुत दुखित चेहरा बनाकर रो दिये थे। आपकी आंखों से आंसू बहने लगे, आंखों का काजल बहकर आपके गालों पर आ गया था। आपके नेत्र चंचल हो गये थे भयभीत होकर आप की नजरें नीचे झुकी हुई थीं। आज मुझे वो आपकी छवि ध्यान आती है तो मैं आपकी लीला से मोहित हो जाती हुं। जिसके भय से भय भी भयभीत है वो आज लीला कर रहा है। जन्म लेकर यशोदा मां से भयभीत हो रहा है। वेद आपको अजन्मा कहते हैं परमात्मा अजन्मा है । आप अजन्मा होकर जन्म गृहण करते हैं अवतार लेते हैं। ”
कुन्ती कहती हैं, “भक्तवान्छाकल्पतरू प्रभो, आप हम भक्तों को छोड़कर जाना चाहते हैं ।आप जानते हैं कि हम लोगों के पास आपके चरणों के अलावा कोई सहारा नहीं है। अब तो हमारे बहुत से दुश्मन हो चुके हैं आपके बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। ”
भगवान कृष्ण बुआ कुन्ती के मुख से अपने बारे में मधुर शब्दों को सुनते हुए प्रसन्न हो रहे थे। मुस्कुराते हुए कृष्ण ने बुआ कुन्ती से कहा, “बुआ मैं आपकी बात मानता हुं और भगवान कॄष्ण आखिर हस्तिनापुर में रुक गये। ”
कुन्ती को लगा कि गोविन्द उनकी वजह से रुके हैं। द्रोपदी विचार करती हैं कि कृष्ण उनके प्रिय हैं । इसलिये उनके कारण रुक गये हैं।सुभद्रा कहती हैं मेरे कारण रुके हैं परन्तु कृष्ण किसके लिये रुके हैं। यह तो कृष्ण जानते हैं परन्तु वह तो जैसा चाहते हैं वैसी लीलाएं सभी लोग करते हैं।परमात्मा रुक जाते हैं परमात्मा के रुकने से महाराज युधिष्टिर अत्यन्त प्रसन्न होते हैं। युधिष्टिर युद्ध में बहुत से परिजनों के मारे जाने के कारण बहुत चिन्तातुर थे । उनके मन में दोषी का भाव था उन्हें ऐसा महसुस हो रहा था कि युद्ध में मारे गये । उनके परिजनों के लिये वही दोषी हैं। धर्मराज युधिष्टिर को व्यास, विदुर आदि ने समझाने का प्रायास किया परन्तु कोई फ़र्क नहीं हुआ। भागवान कृष्ण ने सोचा कि युधिष्टिर को समझाने का प्रयास करना चाहिये जिससे उनका अविवेकी चित्त विवेक युक्त और मोह से निवृत्त हो सके।
कृष्ण विचार करते हैं तथा धर्मराज युधिष्टिर को विवेकपूर्ण और ज्ञानपूर्ण वक्तव्य सुनाकर धर्मराज युधिष्टिर को समझाने का प्रयास किया । परन्तु युधिष्टिर पर कोई फ़र्क नहीं हुआ। इसका कारण यह कि युधिष्टिर ने कृष्ण को सिर्फ़ स्नेह किया था।कृष्ण उनसे छोटे जो थे । सो कृष्ण ने निश्चय किया कि धर्मराज की दृष्टिः में कृष्ण की बातों का कोई महत्व नहीं है । सो उन्होने विचार किया कि युधिष्टिर को भीष्म से उपदेश दिलाया जाय। क्यों कि कृष्ण ही इस जगत के प्राणी के मुंख से बोल रहे हैं। इसलिये कृष्ण ने निश्चय किया कि युधिष्टिर को पितामह भीष्म से ज्ञानोपदेश दिलवाया जाय। मुंह ही तो भीष्म का होगा वचन तो कॄष्ण के ही होंगे। आखिर कृष्ण स्वयं बांणों की सैया पर लेटे भीष्म को दर्शन देना चाहते हैं। और कृष्ण भीष्म को लेकर पितामह भीष्म के दर्शन को प्रस्थान करते हैं
🌹जय श्री कृष्णा 🌺 जय श्री राधे 🌷
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