श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, एकोनविंशो अध्यायः
डा. राधे श्याम द्विवेदी
🌷जय श्री कृष्ण जय श्री राधे। 🌷
मेरे प्रिय मित्रों! जय श्री कृष्ण,जय श्री राधे। जय श्री परम वन्दनीय अकारण करूणा वरूनालय भक्तवान्छा कल्पतरू श्री कृष्णचन्द्र जी के चरणों में बरम्बार प्रणाम है। आप सभी सौभाग्य शाली मित्रों को भी मेरा सादर प्रणाम है । आप सभी पर परमात्मा की अत्यन्त कृपा है कि आप परमात्मा की रसोमय लीला का रसास्वादन कर पा रहे हैं I
भगवान श्रीकृष्ण के अवतार समाप्ति के बाद पृथ्वीपर कलियुग आरम्भ हो गया । जब कलियुग ने अभिमन्यु पुत्र परीक्षित के राज्य में प्रवेश किया तब परीक्षित कलियुग को मारने के लिए तैयार हो गये । राजा को हाथमे तलवार लिए देख , कलियुग परीक्षित की शरण मे आगया और कुछ सीमित स्थानों में रहने के लिए अनुमति मांगी । राजा परीक्षित शरण मे आये हुए की सदा रक्षा करते थे इसलिए उनोहनें कलियुग को द्यूत, मद्यपान, स्त्री-संग , हिंसा और सुवर्ण में रहने की अनुमति दी है।
एक दिन राजा शिकार करते हुए जंगल मे बहुत दूर चले गए । थकान के कारण उन्हें भूख और प्यास लग गयी । जंगल मे बहुत ढूंढने पर भी राजा को कहीं भी जल नही मिला तब राजा ने पास ही में ऋषि एक आश्रम में चले गए । जब राजा आश्रम में गए तब ऋषि ध्यान में थे इसीलिए राजा का आदर सत्कार नही कर पाए और राजा की प्यास भी नही बुझा सके । राजा ने इसे अपना अपमान समझा और एक मारे हुए सांप को ऋषि के गले मे डाल दिया और वहां से चले गए । राजा का यह व्यवहार कलियुग के प्रभाव से हुआ था जो राजा के स्वर्ण मुकुट में बस गया था । पूर्व में राजा ने कलियुग को सीमित स्थानों में रहने की अनुमति दी थी । स्वर्ण भी उन स्थानों में से एक था ।
राजधानीमें पहुँचनेपर राजा परीक्षित्को अपने उस निन्दनीय कर्मके लिये बड़ा पश्चात्ताप हुआ । वे अत्यन्त उदास हो गये और सोचने लगे-‘मैंने निरपराध एवं अपना तेज छिपाये हुए ब्राह्मणके साथ अनार्य पुरुषोंके समान बड़ा नीच व्यवहार किया , यह बड़े खेदकी बात है । अवश्य ही उन महात्माके अपमानके फलस्वरूप शीघ्र-से शीघ्र मुझपर कोई घोर विपत्ति आवेगी । मैं भी ऐसा ही चाहता हूँ ,क्योंकि उससे मेरे पाप का प्रायश्चित्त हो जायगा और फिर कभी मैं ऐसा काम करनेका दुःसाहस नहीं करूँगा । ब्राह्मणोंकी क्रोधाग्नि आज ही मेरे राज्य, सेना और भरे-पूरे खजाने को जलाकर खाक कर दे। जिससे फिर कभी मुझ दुष्टकी ब्राह्मण, देवता और गौओं के प्रति ऐसी पापबुद्धि न हो ।
राजा इस प्रकार चिन्ता कर ही रहे थे कि उन्हें मालूम हुआ। ऋषिकुमार के शापसे तक्षक मुझे डसेगा। उन्हें वह धधकती हुई आग के समान तक्षक का डसना बहुत भला मालूम हुआ। उन्होंने सोचा कि बहुत दिनों से मैं संसारमें आसक्त हो रहा था। अब मुझे शीघ्र वैराग्य होनेका कारण प्राप्त हो गया । वे इस लोक और परलोक के भोगों को तो पहलेसे ही तुच्छ और त्याज्य समझते थे। अब उनका स्वरूपत: त्याग करके भगवान् श्रीकृष्ण के चरण कमलों की सेवाको ही सर्वोपरि मानकर आमरण अनशनव्रत लेकर वे गंगातट पर बैठ गये ।
गंगाजीका जल भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलों का वह पराग लेकर प्रवाहित होता है, जो श्रीमती तुलसी की गन्धसे मिश्रित है। यही कारण है कि वे लोकपालों के सहित ऊपर-नीचेके समस्त लोकों को पवित्र करती हैं। कौन ऐसा मरणासन्न पुरुष होगा, जो उनका सेवन न करेगा । इस प्रकार गंगाजीके तटपर आमरण अनशनका निश्चय करके उन्होंने समस्त आसक्तियों का परित्याग कर दिया और वे मुनियोंका व्रत स्वीकार करके अनन्यभाव से श्रीकृष्ण के चरण कमलों का ध्यान करने लगे । उस समय त्रिलोकी को पवित्र करने वाले बड़े-बड़े महानुभाव ऋषि-मुनि अपने शिष्यों के साथ वहाँ पधारे । इस प्रकार विभिन्न गोत्रों के मुख्य-मुख्य ऋषियों को एकत्र देखकर राजा ने सबका यथायोग्य सत्कार किया और उनके चरणों पर सिर रखकर वन्दना की ।
जब सब लोग आरामसे अपने-अपने आसनो पर बैठ गये, तब महाराज परीक्षित् ने उन्हें फिरसे प्रणाम किया और उनके सामने खड़े होकर शुद्ध हृदयसे अंजलि बाँधकर वे जो कुछ करना चाहते थे, उसे सुनाने लगे ।
राजा परीक्षित्ने कहा-अहो! समस्त राजाओं में हम धन्य हैं ,धन्यतम हैं । क्योंकि अपने शील स्वभावके कारण हम आप महापुरुषों के कृपापात्र बन गये हैं । राजवंश के लोग प्रायः निन्दित कर्म करने के कारण ब्राह्मणोंके चरण-धोवनसे दूर पड़ जाते हैं । यह कितने खेद की बात है, मैं भी राजा ही हूँ । निरन्तर देह-गेहमें आसक्त रहनेके कारण मैं भी पापरूप ही हो गया हूँ । इसीसे स्वयं भगवान ही ब्राह्मण के शाप के रूप में मुझ पर कृपा करने के लिये पधारे हैं । यह शाप वैराग्य उत्पन्न करने वाला है । क्योंकि इस प्रकारके शापसे संसारासक्त पुरुष भयभीत होकर विरक्त हो जाया करते हैं ।
ब्राह्मणो! अब मैंने अपने चित्त को भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया है। आपलोग और माँ गंगाजी शरणागत जानकर मुझपर अनुग्रह करें, ब्राह्मणकुमार के शापसे प्रेरित कोई दूसरा कपट से तक्षक का रूप धरकर मुझे डस ले अथवा स्वयं तक्षक आकर डस ले ,इसकी मुझे तनिक भी परवा नहीं है । आपलोग कृपा करके भगवान की रसमयी लीलाओंका गायन करें ।
मैं आप ब्राह्मणों के चरणों में प्रणाम करके पुन: यही प्रार्थना करता हूँ कि मुझे कर्मवश चाहे जिस योनि में जन्म लेना पड़े, भगवान् श्रीकृष्णके चरणों में मेरा अनुराग हो । उनके चरणाश्रित महात्माओं से विशेष प्रीति हो और जगत्के समस्त प्राणियों के प्रति मेरी एक-सी मैत्री रहे ,ऐसा आप आशीर्वाद दीजिये ।
महाराज परीक्षित ऐसा दृढ़ निश्चय करके गंगाजीके दक्षिण तटपर उत्तरमुख होकर बैठ गये। राज-काजका भार तो उन्होंने पहले ही अपने पुत्र जनमेजयको सौंप दिया था ।
राजा के ऐसे वचन सुनकर सारे देवता आकाश से परिक्षितपर फूल बरसाने लगे । वहां पर आए सभी ऋषियों ने भी महाराज परीक्षित की प्रशंसा की और कहा , महाराज भगवान श्रीकृष्ण के सेवक आप पांडव वंशियों के लिए ए कोई बड़ी बात नही है । महाराज जबतक अब आप अपना शरीर त्यागकर भगवान के धाम में नही चले जाते ।
ऋषियों की बाते सुनकर राजा परीक्षित ने सभी का अभिनंदन किया और भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं को सुनाने की प्रार्थना की । वहां उपस्थित ऋषियों से राजा परीक्षित ने कहा ,विप्रवरो! आपलोगों पर पूर्ण विश्वास करके मैं अपने कर्तव्यके सम्बन्ध में यह पूछने योग्य प्रश्न करता हूँ । आप सभी विद्वान् परस्पर विचार करके बतलाइये कि सबके लिये सब अवस्थाओंमें और विशेष करके थोड़े ही समयमें मरने वाले पुरुष के लिये अन्तःकरण और शरीर से करने योग्य विशुद्ध कर्म कौन-सा है ।
उसी समय पृथ्वीपर स्वेच्छासे विचरण करते हुए, किसी की कोई अपेक्षा न रखने वाले व्यास नंदन भगवान् श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ प्रकट हो गये। वे वर्ण अथवा आश्रमके बाह्य चिह्नोंसे रहित एवं आत्मानुभूतिमें सन्तुष्ट थे। बच्चों और स्त्रियोंने उेने घेर रखा था । उनका वेष अवधूतका था ।
राजा परीक्षित् ने अतिथि रूपसे पधारे हुए श्रीशुकदेवजी को सिर झुकाकर प्रणाम किया और उनकी पूजा की । उनके स्वरूप को न जानने वाले बच्चे और स्त्रियाँ उनकी यह महिमा देखकर वहाँसे लौट गये; सबके द्वारा सम्मानित होकर श्रीशुकदेवजी श्रेष्ठ आसनपर विराजमान हुए ।
जब प्रखरबुद्धि श्रीशुकदेवजी शान्त भावसे बैठ गये, तब भगवान् के परम भक्त परीक्षित् ने उनके समीप आकर और चरणों पर सिर रखकर प्रणाम किया। फिर खड़े होकर हाथ जोड़कर नमस्कार किया। उसके पश्चात् बड़ी मधुर वाणीसे उनसे यह पूछा
प्रभु अवश्य ही पाण्डवों के सुहृद् भगवान् श्रीकृष्ण मुझपर अत्यन्त प्रसन्न हैं । भगवान् श्रीकृष्णकी कृपा न होती तो आप- सरीखे एकान्त वनवासी अव्यक्तगति परम सिद्ध पुरुष स्वयं पधार कर इस मृत्युके समय हम-जैसे प्राकृत मनुष्यों को क्यों दर्शन देते आप योगियों के परम गुरु हैं, इसलिये मैं आपसे परम सिद्धि के स्वरूप और साधन के सम्बन्धमें प्रश्न कर रहा हूँ । जो पुरुष सर्वथा मरणासन्न है, उसको क्या करना चाहिये ।
भगवन्! साथ ही यह भी बतलाइये कि ,मनुष्य मात्र को क्या करना चाहिये। वे किसका श्रवण , किसका जप, किसका स्मरण और किसका भजन करें तथा किसका त्याग करें ।
परीक्षित का प्रश्न सुनकर शुकदेव जी कहनें लगे , परिक्षीत जो मनुष्य अभय पद को प्राप्त करना चाहता हो उसे तो भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का श्रवण, कीर्तन और स्मरण ही करना चाहिए । श्रीकृष्ण की लीलाओं से भरे इस श्रीमद भागवत नाम के पुराण को मैंने अपने पिता के मुख से सुना था । उसे ही मैं अब तुम्हें सुनता हूं । परीक्षित , जब राजर्षि खट्वांग अपनी आयु की केवल दो घड़ी शेष देखकर सबकुछ त्यागकर भगवान के अभय पद को प्राप्त हो गए थे । तुमरे पास तो सात दिन है उसमें तुम अपने कल्याण के लिए जो चाहिए ओ कर सकते हो । इतना कहकर शुकदेव जी ने परिक्षितको भागवत पुराण सुनाया जिसके श्रवण से राजा मुक्त होगये । इस तरह श्रृंगी ऋषि के शाप के बाद राजा परीक्षित ने भागवत पुराण श्रवण करके मोक्ष प्राप्त किया था ।
🌷 ।।इति एकोनविंशो अध्यायः।। 🌷
🌹✳ इति प्रथम स्कन्ध सम्पूर्णम् ✳🌷
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