Monday, January 31, 2022
महर्षि वेदव्यास का आश्रम और गणेश-व्यास स्तुतिडा. राधे श्याम द्विवेदी (भागवत प्रसंग 9 )
Saturday, January 29, 2022
कृष्णद्वैपायन वेदव्यास और सत्यवती डा. राधे श्याम द्विवेदी। (भगवत प्रसंग 8)
प्राचीन काल में सुधन्वा नाम के एक राजा थे। वे एक दिन आखेट के लिये वन गये। उनके जाने के बाद ही उनकी पत्नी रजस्वला हो गई। उसने इस समाचार को अपनी शिकारी पक्षी के माध्यम से राजा के पास भिजवाया। वहां प्राकृतिक सुंदरता से आविर्भूत होकर तथा रानी का सन्देश पाकर महाराज सुधन्वा ने एक दोने में अपना वीर्य निकाल कर पक्षी को दे दिया। पक्षी उस दोने को राजा की पत्नी के पास पहुँचाने आकाश में उड़ चला। मार्ग में उस शिकारी पक्षी को एक दूसरी शिकारी पक्षी मांस का टुकड़ा समझकर युद्ध होने लगा। युद्ध के दौरान वह दोना पक्षी के पंजे से छूट कर यमुना में जा गिरा। यमुना में ब्रह्मा के शाप से मछली बनी एक अप्सरा रहती थी। मछली रूपी अप्सरा दोने में बहते हुये वीर्य को निगल गई तथा उसके प्रभाव से वह गर्भवती हो गई।
गर्भ पूर्ण होने पर एक निषाद ने उस मछली को अपने जाल में फँसा लिया। निषाद ने जब मछली को चीरा तो उसके पेट से एक बालक तथा एक बालिका निकली। निषाद उन शिशुओं को लेकर महाराज सुधन्वा के पास गया। महाराज सुधन्वा के पुत्र न होने के कारण उन्होंने बालक को अपने पास रख लिया जिसका नाम मत्स्यराज रखा और बाद में वह राजा विराट नाम से प्रसिद्ध हुआ। बालिका निषाद के पास ही रह गई और उसका नाम काली,मत्स्यगंधा रखा गया क्योंकि उसके अंगों से मछली की गंध निकलती थी। उस कन्या को सत्यवती के नाम से भी जाना जाता है।
बड़ी होने पर सत्यवती नाव खेने का कार्य करने लगी एक बार पराशर मुनि को उसकी नाव पर बैठ कर यमुना पार करना पड़ा। पराशर मुनि सत्यवती रूप-सौन्दर्य पर आसक्त हो गये और बोले, "देवि! मैं तुम्हारे साथ सहवास करना चाहता हूँ।" सत्यवती ने कहा, "मुनिवर ! आप ब्रह्मज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या। हमारा सहवास सम्भव नहीं है।"
काफी अनुनय विनय पर सत्यवती ने पराशर के प्रस्ताव को स्वीकार तो किया लेकिन तीन शर्तें रखीं, पहली शर्त की- दोनों को प्रेम संबंधों में लीन होते हुए कोई ना देखे तो पराशर ने अपनी दिव्य शक्ति से चारों ओर एक गहरा कोहरा उत्पन्न किया. दूसरी शर्त यह कि प्रसूति होने पर भी सत्यवती कुमारी ही रहे और तीसरी यह कि सत्यवती के शरीर से मछली की गंध हमेशा के लिए खत्म हो जाए. पराशर ने सभी शर्तों को स्वीकारा व मछली की गंध को सुगन्धित पुष्पों में बदल डाला।
पराशर मुनि बोले, "बालिके! तुम चिन्ता मत करो। प्रसूति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी।" इतना कह कर उन्होंने अपने योगबल से चारों ओर घने कुहरे का जाल रच दिया और सत्यवती के साथ भोग किया। तत्पश्चात् उसे आशीर्वाद देते हुये कहा, तुम्हारे शरीर से जो मछली की गंध निकलती है वह सुगन्ध में परिवर्तित हो जायेगी।" इस प्रकार धीवर कन्या मत्स्यगंधा से पराशर ऋषि का गंदर्भ विवाह हुआ था। समय आने पर एक द्वीप पर सत्यवती गर्भ से वेद वेदांगों में पारंगत वेदव्यास नामक पुत्र एक पुत्र हुआ। जन्म होते ही वह बालक बड़ा हो गया और अपनी माता से बोला, “माता! तू जब कभी भी विपत्ति में मुझे स्मरण करेगी, मैं उपस्थित हो जाऊंगा.” यह कहकर वह बालक तपस्या करने के लिए द्वैपायन द्वीप चला गया.
तपस्या के दौरान द्वैपायन द्वीप में सत्यवती के पुत्र का रंग काला हो गया और इसीलिए उन्हें कृष्ण द्वैपायन भी कहा जाने लगा. इसी पुत्र ने आगे चलकर महान ग्रंथों व वेदों का वर्णन किया है। महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास महाभारत ग्रंथ के रचयिता थे। उनके द्वारा रची गई श्रीमद्भागवत भी उनके महान ग्रंथ महाभारत का ही हिस्सा है. महाभारत ग्रंथ का लेखन भगवान् गणेश ने महर्षि वेदव्यास से सुन सुनकर किया था। वेदव्यास महाभारत के रचयिता ही नहीं, बल्कि उन घटनाओं के साक्षी भी रहे हैं, जो क्रमानुसार घटित हुई हैं।
कालक्रम से इसी सत्यवति का असली विवाह चन्द्रवंशीय राजा शान्तनु से हुआ। जिस विवाह को देवव्रत भीष्म पितामह ने आजीवन ब्रह्मचर्य कीप्रतिज्ञा कर महान त्याग करके सम्पन्न करवाया था। जब शान्तनु पुत्र विचित्रवीर्य का देहांत हो गया और कोई राज्याधिकारी न रहा तब सत्यवति ने व्यास जी का स्मरण किया था। ब्यास जी के ही योगबल से धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर का जन्म हुआ।
अपने आश्रम से हस्तिनापुर की समस्त गतिविधियों की सूचना उन तक तो पहुंचती थी। वे उन घटनाओं पर अपना परामर्श भी देते थे। जब-जब अंतर्द्वंद्व और संकट की स्थिति आती थी, माता सत्यवती उनसे विचार-विमर्श के लिए कभी आश्रम पहुंचती, तो कभी हस्तिनापुर के राजभवन में आमंत्रित करती थी। ब्रह्म ऋषि व्यास जी परम ब्रह्म और अपर ब्रह्म के ज्ञाता कवि (त्रिकालदर्शी) सत्यव्रत परायण तथा परम पवित्र हैं। इनकी बनाई हुई महाभारत संहिता सब शास्त्रों के अनुकूल वेदार्थों से भूषित तथा चारों वेदों के भावों से संयुक्त है।
Friday, January 28, 2022
ऋषि पराशर (भगवत प्रसंग ,7) डा. राधे श्याम द्विवेदी
Thursday, January 27, 2022
शक्ति वसिष्ठ और राजा सौदास/कल्मषपाद (भागवत प्रसंग 6)डा. राधे श्याम द्विवेदी
Tuesday, January 25, 2022
स्वामी एकरसानन्द सरस्वती की अध्यात्म साधना डा. राधेश्याम द्विवेदी
स्वामी एकरसानन्द सरस्वती एक महान सन्त थे। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन मानवता के लिए समर्पित किया है। उनका जन्म 29 अगस्त 1866 को राजस्थान के जोधपुर जिले के भूरियाना गांव के एक ब्राहमण परिवार में पंडित राधा कृष्ण और उनकी पत्नी पालूबाई के घर हुआ था। बचपन में उनका मूल नाम नारायण दास था। वह बचपन से ही विनम्र दया आदर आदि गुणों से युक्त थे। उन्होंने ऊपरी हिमालय की घाटियों स्थित बदरी नाथ धाम जाकर गहन ध्यान का अभ्यास किया , तत्पश्चात वे काशी प्रस्थान कर गये। वहां उनकी भेंट उनके गुरु स्वामी गणेशानन्द जी से हुई। उन्होंने नारायण दास को अपना शिष्य बनाया और दीक्षा के बाद उनका नया नाम एकरसानन्द रखा। काशी में बेदों की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे विभिन्न धार्मिक स्थानों जैसे मथुरा, बृन्दाबन, हरिद्वार ऋषिकेष आदि स्थानों की यात्रा कीं मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ पहुंचने पर वहां के राजा ने उनका अत्यन्त आदर भाव से स्वागत किया था।
दैवी सम्पदा मण्डल की
स्थापना:-
स्वामी एकरसानन्द सरस्वती ने श्रीमद्
भगवत गीता के 16वें अध्याय में वर्णित
दैवी सम्पति पर आधारित ’’सर्वभूतहितो रताः’’ के सिद्धान्तों पर 1914 ई. में दैवी सम्पदा मण्डल की
स्थापना मैनपुरी के पंजाबी बाग में किया । यह संगठन जाति सम्प्रदाय तथा धर्म का
भेदभाव किए बिना , समस्त मनुष्य जाति में निर्भीकता, अंतःकरण की शुद्धता, आध्यात्मिक ज्ञान हेतु निरन्तर
ध्यान और योगाभ्यास , दानशीलता, इन्द्रियों
पर नियंत्रण, अहिंसा, सत्यवादी होने,
त्याग, शान्ति, दया,
अनाशक्ति, कोमलता,विनयशीलता
,क्षमा और घौर्य आदि गुणों को बढ़ावा देने के प्रति समर्पित
है।
दस उपदेश
स्वामी एकरसानन्द सरस्वती के अनुयायी
उनके दस उपदेश का शव्दशः पालन करतेे हैं। ये उपदेश प्रेम,
सहानुभूति तथा ईश्वर के प्रति समर्पण भाव का संदेश देते हैं। उनके
द्वारा बनाये गये दस उपदेश इस प्रकार है -
पहला संसार
को स्वप्नवत जानों।
दूसरा अति
साहस रखो।
तीसरा अखण्ड
प्रफुल्लित रहो दुख में भीं।
चैथा परमात्मा
का स्मरण करो, जितना बन सके।
पांचवां किसी
को दुख मत दो, बने तो सुख दो।
छठा सभी
पर अति प्रेम करो।
सातवां नूतन
बालवत स्वभाव रखो।
आठवां मर्यादानुसार चलो।
नौवां अखण्ड
पुरुषार्थ करो, गंगा प्रवाहवत, आलसी मत बनों।
दसवां जिसमें
तुमको नीचा देखना पड़े एसा काम मत करो।
व्यवहार जगत में उपरोक्त दसो सूत्र
मनुष्यों के चारित्रिक भौतिक एवं
आध्यात्मिक विकास के लिए बहुत आवश्यक हैं। इनमें से यदि एक मात्र दसवें सूत्र को
भली भांति अपना लिया जाये तो फिर व्यक्ति का कल्याण सुनिश्चित है।
स्वामी एकरसानन्द
सरस्वती की अध्यात्मिक गतिविधियां
स्वामी एकरसानन्द सरस्वती के अनुयायी
उनके सत्कर्मों को आगे बढ़ा रहे हैं। उनके अनुयायी विभिन्न संस्थाओं से जुड़े हैं।
जैसे स्वामी एकरसानन्द सरस्वती आश्रम, स्वामी
एकरसानन्द सरस्वती संस्कृत महावियालय, श्री एकरासनन्द आदर्श
इन्टर कालेज ,श्री एकरसानन्द धर्मार्थ आयुर्वेदिक अस्पताल,
श्री एकरसानन्द गोशाला आदि। स्वामी एकरसानन्द सरस्वती द्वारा
स्थापित दैवी सम्पदा मण्डल मानव जाति की
सेवा में कार्यरत रहा है।दैवी सम्पदा के सभी संस्थान जन कल्याण की दिशा में
कार्यरत हैं। और सम्मेलनों, ध्यान व योग शिक्षण शिविरों ,
सत्संगों,प्रवचनों तथा समागमों के आयोजनों के
माध्यम से लोगों में संयम,, उत्तम आचरण और अध्यात्म को
प्रोत्साहित कर रहे हैं। मैनपुरी के पंजाबी कालोनी में दैवा सम्पदा मण्डल, आश्रम तथा संस्कृत महाविद्यालय संचालित हो रहा है। जन हित के तमाम कार्य
करने के कारण शासन प्रशासन में इस आश्रम का विशेष महत्व है। 9 सितम्बर 1938 को स्वामी एकरसानन्द सरस्वती जी का
निधन हो गया है। उनके सम्मान में भारत सरकार के डाक तार विभाग ने 500 पेसे का डाक टिकट जारी किया है।
स्वामी हरिहरानन्द को
राज्यमंत्री का दर्जा
मैनपुरी के दैवी सम्पदा मण्डल के और
एकरसानन्द आश्रम के महामण्डलेश्वर स्वामी हरिहरानन्द जी महराज को 4 अक्तूबर 2018 को मध्य प्रदेश सरकार ने राज्य मंत्री
का दर्जा प्रदान कर रखा है। इस संस्था के माध्यम से गरीबों और आदिवासियों के जीवन
उत्थान और गौ संरक्षण के लिए काम करने वाले महामण्डलेश्वर को मध्य प्रदेश की सरकार
ने नर्मदा के किनारे के क्षेत्रों में पौधारोपण, जल संरक्षण
व स्वच्छता के विषयों पर जन जागरुकता अभियान चलाने की गठित कमेटी का सदस्य बनाया
गया है। स्वामी हरिहरानन्द जी का आश्रम विभिन्न सामाजिक गतिविधियों के लिए
प्रसिद्ध है। मैनपुरी शहर से सटे संसारपुर में आश्रम की ओर से बृहद गोशाला बनवायी
जा रही है।
मियागंज कन्नौज की
धर्मनिष्ठा: स्वामी एकरसानंद सरस्वती के तीन विशिष्ट शिष्य:-
कन्नौज के पूर्वी इलाके में स्थित
मियागंज एक ऐसा ग्राम है जिसे अब ऋषि नगर के नाम से जानते हैं। वहां तीन महान
संतों का जन्म हुआ जिन्होंने पूरे देश में ख्याति अर्जित की है। स्वामी
सुखदेवानन्द, स्वामी नारदानंद और
स्वामी भजनानंद जी हैं। स्वामी सुखदेवानन्द का गृहस्थ नाम प्रयाग नरायन था और
स्वामी भजनानंद का नाम लङैते लाल था। बाबूराम स्वामी नारदानंद के नाम से विख्यात
हुए। लङैते लाल की मिठाई की दुकान थी। तीनों स्वामी एकरसानंद सरस्वती के दर्शन
करने गए और वहीं पर उन्हें गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया। उसी समय सवामी
विचारानंद और समतानंद भी उसी गाँव मे हुए और इसे संयोग ही कहा जायेगा कि पहले से
ही विरक्त भाव मे चल रहे इन तीनो विभूतियों की पत्नियों ने एक एक कर संसार को छोड़
दिया और अपने पति को परमार्थ गमन के लिए मुक्त कर दिया। बाबूराम पांडेय स्वामी नारदानंद सरस्वती के नाम
से विख्यात हुए। लङैते लाल स्वामी भजनानंद के नाम से विख्यात हुए और प्रयाग नरायन
स्वामी सुखदेवानंद के नाम से विख्यात हुए। तीनो ने एक साथ सन्यास ग्रहण किया।
1.नारदानंद सरस्वती द्वारा
नौमिषारण्य में अध्यात्म विद्यापीठ केंद्र की स्थापना:-
यहां स्वामी श्रीनारदनंदजी महाराज का
आश्रम तथा एक ब्रह्मचर्याश्रम है, जहां
ब्रह्मचारी प्राचीन पद्धति से शिक्षा प्राप्त करते हैं। आश्रम में साधक लोग साधना
की दृष्टि से रहते हैं। धारणा है कि कलियुग में समस्त तीर्थ नैमिष क्षेत्र में ही
निवास करते हैं। नैमिषारण्य भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख केंद्र है, जिसे जगदाचार्य स्वामी नारदानंद सरस्वती जी ने यथासंभव संवारने का प्रयास
किया था। स्वामी नारदानंद सरस्वती ने नैमिष में आश्रम बनाया जो आज अपने विशाल रूप
में है। स्वामी नारदानंद सादगी के प्रतीक थे। स्वामी नारदानंद जी का जन्म कन्नौज के पास मिश्रागंज में
ब्राह्मण कुल में हुआ था। वह दो भाई-बहन थे। उनकी विवाह भी हुआ था। बाद में
एकरसानंद से प्रभावित होकर घरबार छोड़कर समाज हित में अपने को लगा दिया था। उनकी कई
वर्षो की तपस्या व आशीर्वाद से लाखों भक्तों का कल्याण हुआ। उन्होंने देश-विदेश में 286
आश्रमों का संचालन किया और नैमिषारण्य को अपनी तपस्थली बनाकर वहां
चारों आश्रमों का संचालन किया। ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व सन्यास वर्ण की अलग-अलग व्यवस्था की। इनका जन्म मास अगहन की
शुक्लपक्ष सप्तमी को हुआ था। महाराज जी के सानिध्य में लाखों भक्तों का कल्याण हुआ
और बहुत से विरक्त संत व आचार्यो की फौज तैयार कर जनसेवा में जीवन लगा दिया।
उन्होंने बताया कि समस्त 286 आश्रमों पर वानप्रस्थ ब्रहमचारी
को पूजा व देखरेख के लिए नियुक्त किया।
स्वामी नारदानंद पहले स्वामी एकरसानंद सरस्वती जी महाराज फिर पंडित
मदन मोहन मालवीय के संपर्क में आये और उनकी सम्मति से वर्णाश्रम खोलने की योजना
बनाई। स्वामी नारदानंद ने उत्तर भारत में जनमानस को धर्म और आध्यात्म के प्रति
प्रेरित किया। भारत भक्त समाज की स्थापना पर सन 1959 में
स्वामी जी मे यह आह्वान किया। आओ उठो आज परमात्मा की स्वकर्तव्य द्वारा पूजा की
शुभ बेला है। मातृभूमि की पुकार है। नैमिष व्यासपीठ की स्थापना की जो आज भी मिसाल
वट वृक्ष की भांति विद्यमान है।
2. स्वामी सुखदेवानंद
द्वारा परमार्थ निकेतन ऋषिकेश की स्थपना
कन्नौज जिले के मियांगंज ग्राम में
ब्राह्मण परिवार म जन्में प्रयाग नरायन स्वामी सुखदेवानंद के नाम से विख्यात हुए।
इनका जन्म 1901 ई. में हुआ था। वे
परमार्थ निकेतन आश्रम लक्ष्मण झूला ऋषिकेश के संस्थापकऔर श्री दैवी संपदा महामंडल
के नायक व प्रमुख रहे। परमार्थ निकेतन भारत देश के उत्तराखंड राज्य में ऋषिकेश में
स्थित एक आश्रम है। यह हिमालय की गोद में गंगा के किनारे स्थित है। इसकी स्थापना 1942 में सन्त सुकदेवानन्द जी महाराज (1901-1965) ने की
थी।परमार्थ निकेतन स्वामी सुकदेवानंद ट्रस्ट का मुख्यालय भी है जो बिना लाभ वाला धार्मिक आध्यात्मिक संगठन धर्म
अध्यात्म और संस्कृति के लिए समर्पित है। 1965 में स्वामी जी
ने अपनी पंचभौतिक शरीर छोड़कर परम तत्व में विलीन हो गए थे। सन् 1986 स्वामी चिदानन्द सरस्वती इसके अध्यक्ष एवं आध्यात्मिक मुखिया हैं।
परमार्थ निकेतन
आश्रम के संस्थापक, श्री दैवी संपद
महामंडल के नायक व प्रख्यात संत महामंडलेश्वर स्वामी सुखदेवानंद सरस्वती महाराज
थे। गंगा नदी की तरफ से परमार्थ निकेतन का दृश्य बहुत ही मन भावन है। परमार्थ
निकेतन स्वर्गाश्रम ऋषिकेश का सबसे बड़ा आश्रम है। इसमें 1000
से भी अधिक कक्ष हैं। आश्रम में प्रतिदिन प्रभात की सामूहिक पूजा, योग एवं ध्यान, सत्संग, व्याख्यान,
कीर्तन, सूर्यास्त के समय गंगा-आरती आदि होते
हैं। इसके अलावा प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद चिकित्सा एवं
आयुर्वेद प्रशिक्षण आदि भी दिए जाते हैं। आश्रम में भगवान शिव की 14 फुट ऊँची प्रतिमा स्थापित है। आश्रम के प्रांगण में कल्पवृक्ष भी है जिसे
हिमालय वाहिनी के विजयपाल बघेल ने रोपा था। स्वामी सुखदेवानंद सरस्वती जैसे
महापुरुषों के संदेशों को आचरण में उतारना चाहिए। परमार्थ निकेतन किसी धार्मिक
जातीय या राष्ट्रीय भेदभाव के बिना सभी श्रद्धालुओं के लिए खुला है। पिछले 25 वर्षों से साध्वी भगवती परमार्थ निकेतन में यहां निवास करते हुए सदाचार
की शिक्षा दे रही हैं।
स्वामी सुखदेवानंद
जी ने पचास-साठ के दशक में मेक इंडिया का नारा दिया था। जिसमें भारतीयों से
स्वदेशी निर्माण की व्यापक अवधारणा थी। स्वामी सुखदेवानंद ट्रस्ट के चेयरमैन
महामंडलेश्वर स्वामी असंगानंद सरस्वती अध्यक्ष हैं। 1964 में स्वामी सुखदेवानंद सरस्वती द्वारा स्थापित एस.एस. पी. जी कॉलेज कला, विज्ञान,
वाणिज्य, शिक्षा और कंप्यूटर विज्ञान के
संकायों में स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम चलाता है।
3.महामंडलेश्वर स्वामी
भजनानंद
महामंडलेश्वर स्वामी भजनानंद का बचपन
का नाम लड़ौत लाल था। वह भी मियां गंज कन्नौज के ब्राह्मण परिवार से थे। चैछी कक्षा
पास कर वह व्यापार मिठाई की दुकान संभालने लगे। उनकी मुलाकात मियां गंज कन्नौज के
प्रयाग नारायण से हुई जो बाद में स्वामी सुकदेवानंद बने।इनके एक और दोस्त बाबू राम
थे जो बाद में स्वामी नारदा नंद बने। इन तीनों का मन भौतिक सुख सुविधाओं में नहीं
लगा तो ये लोग स्वामी एकरसानंद सरस्वती के शिष्य बन गए।इसी बीच लड़ौत लाल की पत्नी
का देहान्त हो गया तो वहघर त्याग दिए। वह सत्संग साधना में जीवन व्यतीत करने लगे।
इन्हें दीक्षा संस्कार देने के पूर्व ही स्वामी एकरसानंद सरस्वती जी का देहान्त हो
गया था। इसलिए वह अपने गुरु भाई स्वामी शतानंद से सन्यास की दीक्षा ले ली। अब इनका
नाम भजनानंद हो गया
1947 में स्वामी सुकदेवानंद और स्वामी भजनानंद ने ऋषि केश में स्वर्गाआश्रम
में परमार्थ निकेतन की स्थापना किए। 1965 में स्वामी
सुकदेवानंद की मृत्यु हो गई तो भजनानंद महा मंडलेश्वर पद पर आसीन हुए। उन्होंने
जनता की सेवा करने के लिए इंटर कॉलेज, औषधालय और संस्कृत
विद्यालय की स्थापना की।
इस प्रकार हम
देखते हैं कि स्वामी एकरसानन्द जी का अध्यात्म बृक्ष आज उत्तर भारत के विशाल
क्षेत्र में अपनी छाया से आहलादित कर रहा है। उनके तीन प्रमुख शिष्यों के अतिरिक्त
इन केन्द्रो से दीक्षित अनेक सन्त जन अध्यात्म की ज्योति प्रज्वलित कर रहे है।