Monday, January 31, 2022

महर्षि वेदव्यास का आश्रम और गणेश-व्यास स्तुतिडा. राधे श्याम द्विवेदी (भागवत प्रसंग 9 )


व्यास गुफा में व्यास पोथी
भारत और चीन की सीमा के पास उत्तराखंड (uttarakhand) के माणा गांव (mana) में बदरीनाथ से लगभग 3 क‌िलोमीटर की दूरी पर पौराणिक बद्री बन में व्यास पोथी नाम की जगह है। यहां पर श्री मद भागवत पुराण के रचनाकार महर्षि वेद व्यास जी की गुफा मौजूद है। व्यास गुफा को बाहर से देखकर ऐसा लगता है, मानो कई ग्रंथ एक दूसरे के ऊपर रखे हुए हैं। इसलिए इसे व्यास पोथी भी कहते हैं। 
भगवान गणेश थे भागवत लेखक :-
भगवान शिव और माता पार्वती के पुत्र गणेश जी मंगलकर्ता और ज्ञान एवं बुद्घि के देवता माने जाते हैं। ऐसे में जब भी कोई शुभ काम किया जाता है, उससे पहले भगवान गणेश का स्मरण किया जाता है। वेद व्यास जी ने जब श्री मद भागवत पुराण की रचना करने की सोची तो सभी देवी देवताओं की क्षमताओं का अध्ययन किया लेकिन वे संतुष्ट नहीं हुए। तब उन्हें भगवान गणेश जी का ध्यान आया। महर्षि वेद व्यास ने गणेशजी से संपर्क किया और महाकाव्य लिखने का आग्रह किया। भगवान गणेश जी ने वेद व्यास जी के आग्रह को स्वीकार कर लिया लेकिन एक शर्त उनके सम्मुख रख दी। शर्त के अनुसार काव्य का आरंभ करने के बाद एक भी क्षण कथा कहते हुए रूकना नहीं है। क्योंकि ऐसा होेने पर गणेश ने कहा कि वे वहीं लेखन कार्य को रोक देंगे। गणेश जी की बात को महर्षि वेद व्यास ने स्वीकार कर लिया, लेकिन उन्होनें भी एक शर्त गणेशजी के सामने रख दी। महर्षि वेद व्यास जी ने कहा कि बिना अर्थ समझे वे कुछ नहीं लिखेंगे। इसका अर्थ ये था कि गणेश जी को प्रत्येक वचन को समझने के बाद ही लिखना होेगा। इससे कथा का स्वमेव परिष्कार भी होता रहा। गणेश जी ने महर्षि वेद व्यास की इस शर्त को स्वीकार कर लिया। इसके बाद श्री मद भागवत पुराण की रचना आरंभ हुई। कहा जाता है कि श्री मद भागवत पुराण लेखन कार्य पूर्ण होने में तीन वर्ष का समय लगा। इन तीन वर्षों में गणेश जी ने एक बार भी महर्षि वेद व्यास जी को एक पल के लिए भी नहीं रोका। वहीं महर्षि ने भी अपनी शर्त पूरी की। इस तरह से श्री मद भागवत पुराण कथा पूर्ण हुआ।
लेखनकला के देव गणेशजी की पूजा व गणेश गुफा में लेखन:-
गणपति जी सिर्फ रिद्धि-सिद्धि के दाता ही नहीं बल्कि लेखन कला के देव भी हैं। इसलिए अगर हम लेखन कौशल में आगे बढ़ना चाहते हैं तो गणेश जी की पूजा करनी चाहिए। भगवान गणपति ने ही पौराणिक कथाओं को लोगों तक पहुंचाने के लिए महर्षि वेदव्यास के कहने पर श्री मद भागवत को सरल भाषा में लिपिबद्ध किया था। व्यास गुफा के नजदीक ही गणेश गुफा भी है। मान्यता है कि यह वही गुफा है, जहां पर महर्षि वेद व्यास जी ने श्री मद भागवत पुराण को बोला था और भगवान गणेश ने उसे लिखा था। हिमालय की सघन बदरी बन की वादियों के बीच स्थित इस गुफा में वेद व्यास जी जैसा-जैसा बोलते गए, भगवान गणेश उसे लिखते रहे। इस तरह पवित्र महाकाव्य की रचना हुई। श्रद्धालुओं का मानना है कि आज भी वेद व्यास जी और भगवान गणेश इस गुफा में मौजूद हैं। गणेश गुफा में भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित है। 
          दोनों ही विद्वान जन एक साथ आमने-सामने बैठकर अपनी भूमिका निभाने में लग गए और कथा लिपिबद्ध होने लगी। महर्षि व्यास ने बहुत अधिक गति से बोलना शुरू किया और उसी गति से भगवान गणेश ने महाकाव्य को लिखना जारी रखा। वहीं ऋषि भी समझ गए कि गजानन की त्वरित बुद्धि और लगन का कोई मुकाबला नहीं है। मान्यता है कि इस महाकाव्य को पूरा होने में तकरीबन तीन साल का वक्त लगा था। इस दौरान गणेश जी ने एक बार भी ऋषि को एक क्षण के लिए भी बोलने से नहीं रोका, वहीं महर्षि ने भी शर्त पूरी की। महर्षि वेद व्यास ने वेदों को सरल भाषा में लिखा था, जिससे सामान्य जन भी वेदों का अध्ययन कर सकें। उन्होंने 18 पुराणों की भी रचना की थी। 
गुफा की छत पहाड़ की है। इसकी परिक्रमा पहाड़ से ही की जाती है। व्यास गुफा में व्यास जी का मंदिर बना हुआ है। मंदिर में व्यास जी के साथ उनके पुत्र शुकदेव जी और वल्लभाचार्य की प्रतिमा है। इनके अलावा भगवान विष्णु की एक प्राचीन प्रतिमा भी यहां स्थापित है। 
         इस गुफा में प्रवेश करने पर शांति और आत्मिक सुख की असीम अनुभूति होती है। इस स्थान के एक तरफ भगवान विष्णु का निवास स्थान बद्रीनाथ धाम है जबकि दूसरी तरफ ज्ञान की देवी सरस्वती का नदी रूप में उद्गम स्थल है।अन्य मान्यता के अनुसार पांडव इसी गांव से होकर स्वर्ग गए थे, लेकिन ठंड की वजह से चारों पांडव और द्रौपदी गल गयी सिर्फ युधिष्ठिर घर्म और सत्य का पालन करने के कारण ठंड को झेल पाये और सशरीर स्वर्ग पहुंच सके।
महर्षि वेदव्यास जी की स्तुति:-
प्राचीन ग्रंथों के अनुसार महर्षि वेदव्यास स्वयं ईश्वर के स्वरूप थे। निम्न श्लोकों से इसकी पुष्टि होती है । महर्षि वेदव्यास जी की स्तुति इस प्रकार की गई है --
      नमोऽस्तु ते व्यास विशालबुद्धे फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्रः।
       येन त्वया भारततैलपूर्णः प्रज्ज्वालितो ज्ञानमयप्रदीपः।।
( अर्थात् - जिन्होंने महाभारत रूपी ज्ञान के दीप को प्रज्वलित किया ऐसे विशाल बुद्धि वाले महर्षि वेदव्यास को मेरा नमस्कार है।)
      व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे।
     नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नम:।।
( अर्थात् - व्यास विष्णु के रूप है तथा विष्णु ही व्यास है ऐसे वसिष्ठ-मुनि के वंशज का मैं नमन करता हूँ। वसिष्ठ के पुत्र थे 'शक्ति'; शक्ति के पुत्र पराशर, और पराशर के पुत्र व्यास जी का मै नमन करता हूं।)
भगवान श्री कृष्ण स्वयं श्री गीता जी में कहते हैं 
‘मुनीनामप्यहं व्यास:’। 
मुनियों में वेदव्यास मैं हूं।
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमं। 
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जय मुदीरयेत।।
जयति पराशरस्सु: सत्यवती हृदयनन्दनो व्यास:। यस्यऽऽस्यकमलगलितं वाङ्गमयममृंत जगत्पिवति।।
सत्यवती के हृदय नंदन पराशर के पुत्र श्री व्यास जी की जय हो। जिनके मुख कमल से निकले अमृत का पान सारा संसार करता है।
इसी प्रकार बाद में हिन्दी के महान संत तुलसी दास जी द्वारा गुरु वंदना किया गया है---
बंदऊं गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू।।
 सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जनमनमंजु मुकुर मलहरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥
श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियं होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥  
 उघरहिं बिमल बिलोचन हीके। मिटहिं दोष दुखभव रजनी के॥
सूझहिं रामचरित मनिमानिक। गुपुतप्रगट जहंजोजेहि खानिक।
 बंदउं गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान।। 6।।
गुरुपदरज मृदुमंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिंकरि बिमलबिबेक बिलोचन। बरनउंरामचरित भवमोचन।।





Saturday, January 29, 2022

कृष्णद्वैपायन वेदव्यास और सत्यवती डा. राधे श्याम द्विवेदी। (भगवत प्रसंग 8)

   

प्राचीन काल में सुधन्वा नाम के एक राजा थे। वे एक दिन आखेट के लिये वन गये। उनके जाने के बाद ही उनकी पत्नी रजस्वला हो गई। उसने इस समाचार को अपनी शिकारी पक्षी के माध्यम से राजा के पास भिजवाया। वहां प्राकृतिक सुंदरता से आविर्भूत होकर तथा रानी का सन्देश पाकर  महाराज सुधन्वा ने एक दोने में अपना वीर्य निकाल कर पक्षी को दे दिया। पक्षी उस दोने को राजा की पत्नी के पास पहुँचाने आकाश में उड़ चला। मार्ग में उस शिकारी पक्षी को एक दूसरी शिकारी पक्षी मांस का टुकड़ा समझकर युद्ध होने लगा। युद्ध के दौरान वह दोना पक्षी के पंजे से छूट कर यमुना में जा गिरा। यमुना में ब्रह्मा के शाप से मछली बनी एक अप्सरा रहती थी। मछली रूपी अप्सरा दोने में बहते हुये वीर्य को निगल गई तथा उसके प्रभाव से वह गर्भवती हो गई।

        गर्भ पूर्ण होने पर एक निषाद ने उस मछली को अपने जाल में फँसा लिया। निषाद ने जब मछली को चीरा तो उसके पेट से एक बालक तथा एक बालिका निकली। निषाद उन शिशुओं को लेकर महाराज सुधन्वा के पास गया। महाराज सुधन्वा के पुत्र न होने के कारण उन्होंने बालक को अपने पास रख लिया जिसका नाम मत्स्यराज रखा और बाद में वह राजा विराट नाम से प्रसिद्ध हुआ। बालिका निषाद के पास ही रह गई और उसका नाम काली,मत्स्यगंधा रखा गया क्योंकि उसके अंगों से मछली की गंध निकलती थी। उस कन्या को सत्यवती के नाम से भी जाना जाता है।
           बड़ी होने पर सत्यवती नाव खेने का कार्य करने लगी एक बार पराशर मुनि को उसकी नाव पर बैठ कर यमुना पार करना पड़ा। पराशर मुनि सत्यवती रूप-सौन्दर्य पर आसक्त हो गये और बोले, "देवि! मैं तुम्हारे साथ सहवास करना चाहता हूँ।" सत्यवती ने कहा, "मुनिवर ! आप ब्रह्मज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या। हमारा सहवास सम्भव नहीं है।"
          काफी अनुनय विनय पर सत्यवती ने पराशर के प्रस्ताव को स्वीकार तो किया लेकिन तीन शर्तें रखीं, पहली शर्त की- दोनों को प्रेम संबंधों में लीन होते हुए कोई ना देखे तो पराशर ने अपनी दिव्य शक्ति से चारों ओर एक गहरा कोहरा उत्पन्न किया. दूसरी शर्त यह कि प्रसूति होने पर भी सत्यवती कुमारी ही रहे और तीसरी यह कि सत्यवती के शरीर से मछली की गंध हमेशा के लिए खत्म हो जाए. पराशर ने सभी शर्तों को स्वीकारा व मछली की गंध को सुगन्धित पुष्पों में बदल डाला।
             पराशर मुनि बोले, "बालिके! तुम चिन्ता मत करो। प्रसूति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी।" इतना कह कर उन्होंने अपने योगबल से चारों ओर घने कुहरे का जाल रच दिया और सत्यवती के साथ भोग किया। तत्पश्चात् उसे आशीर्वाद देते हुये कहा, तुम्हारे शरीर से जो मछली की गंध निकलती है वह सुगन्ध में परिवर्तित हो जायेगी।" इस प्रकार धीवर कन्या मत्स्यगंधा से पराशर ऋषि का गंदर्भ विवाह हुआ था। समय आने पर एक द्वीप पर सत्यवती गर्भ से वेद वेदांगों में पारंगत वेदव्यास नामक पुत्र एक पुत्र हुआ। जन्म होते ही वह बालक बड़ा हो गया और अपनी माता से बोला, “माता! तू जब कभी भी विपत्ति में मुझे स्मरण करेगी, मैं उपस्थित हो जाऊंगा.” यह कहकर वह बालक तपस्या करने के लिए द्वैपायन द्वीप चला गया.
         तपस्या के दौरान द्वैपायन द्वीप में सत्यवती के पुत्र का रंग काला हो गया और इसीलिए उन्हें कृष्ण द्वैपायन भी कहा जाने लगा. इसी पुत्र ने आगे चलकर महान ग्रंथों व वेदों का वर्णन किया है। महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास महाभारत ग्रंथ के रचयिता थे। उनके द्वारा रची गई श्रीमद्भागवत भी उनके महान ग्रंथ महाभारत का ही हिस्सा है. महाभारत ग्रंथ का लेखन भगवान् गणेश ने महर्षि वेदव्यास से सुन सुनकर किया था। वेदव्यास महाभारत के रचयिता ही नहीं, बल्कि उन घटनाओं के साक्षी भी रहे हैं, जो क्रमानुसार घटित हुई हैं।
         कालक्रम से इसी सत्‍यवति का असली विवाह चन्द्रवंशीय राजा शान्‍तनु से हुआ। जिस विवाह को देवव्रत भीष्‍म पितामह ने आजीवन ब्रह्मचर्य कीप्रतिज्ञा कर महान त्‍याग करके सम्‍पन्‍न करवाया था। जब शान्‍तनु पुत्र विचित्रवीर्य का देहांत हो गया और कोई राज्‍याधिकारी न रहा तब सत्‍यवति ने व्‍यास जी का स्‍मरण किया था। ब्यास जी के ही योगबल से धृतराष्‍ट्र, पांडु और विदुर का जन्‍म हुआ।
        अपने आश्रम से हस्तिनापुर की समस्त गतिविधियों की सूचना उन तक तो पहुंचती थी। वे उन घटनाओं पर अपना परामर्श भी देते थे। जब-जब अंतर्द्वंद्व और संकट की स्थिति आती थी, माता सत्यवती उनसे विचार-विमर्श के लिए कभी आश्रम पहुंचती, तो कभी हस्तिनापुर के राजभवन में आमंत्रित करती थी। ब्रह्म ऋषि व्‍यास जी परम ब्रह्म और अपर ब्रह्म के ज्ञाता कवि (त्रिकालदर्शी) सत्‍यव्रत परायण तथा परम पवित्र हैं। इनकी बनाई हुई महाभारत संहिता सब शास्‍त्रों के अनुकूल वेदार्थों से भूषित तथा चारों वेदों के भावों से संयुक्‍त है।













Friday, January 28, 2022

ऋषि पराशर (भगवत प्रसंग ,7) डा. राधे श्याम द्विवेदी

 वशिष्‍ठ जी सच्‍चे अर्थों में ब्रह्मज्ञानी और ब्रह्मर्षि थे। इनकी आयु भी वेद एवं पुराणों आदि के आधार पर अनन्‍त हुआ करती थी। कई विद्वानों के अनुसार वशिष्‍ठ उपाधि हुआ करती थी। शक्ति इन्‍हीं महर्षि वशिष्‍ठ के महामनस्‍वी पुत्र थे जो अपने सौ भाइयों में ज्‍येष्‍ठ व श्रेष्‍ठ मुनि थे। वर्तमान समय में शक्ति पुत्र पाराशर का आश्रम उत्तरप्रदेश के फतेहपुर जिले के गंगाकिनारे बैगाओं नामक ग्राम में स्थित है।
ऋषि पराशर की प्रेयसी का जन्म और जीवन यात्रा भी विचित्र :-
चेदिराज नामक परिचर वसु एक बार मृगया के लिए निकला, तो सुगंधित पवन, सुंदर वातावरण आदि से प्रभावित राजा को अपनी पत्नी याद आयी और उसका वीर्य-स्खलन हुआ। उसे अपनी पत्नी तक पहुँचाने की, राजा ने एक श्येन पक्षी से प्रार्थना की। श्येन जब उसे ले जा रहा था, उसे मांसपिंड समझ कर मार्ग में एक दूसरा श्येन पक्षी हड़पने लगा। तब वह वीर्य कालिन्दी के जल में जा गिरा, जिसे ब्रह्मा के शापवश मछली के रूप में कालिन्दी में रहती आ रही अद्रिका नामक अप्सरा ने निगल लिया। फलतः उस मछली के गर्भ से एक पुत्री और एक पुत्र का जन्म हुआ। इसे जब एक निषाद ने चीरा तो दो दिव्य बालक और बालिका पाए।वह उसे अपने राजा के पास ले गया। जहां बालक को राजा अपने पास रख लिए और कन्या उस धीवर निषाद को पालने के लिए वापस कर दिया।पुत्र का नाम मत्स्यराज पड़ा, जो बाद में विराट राजा बना। पुत्री का नाम काली रखा गया और वह एक धीवर के यहाँ पालित हुई। पालक निषाद पिता ने उसका नाम मत्स्यगंधा रखा गया क्योंकि उसके अंगों से मछली की गंध निकलती थी।
        उस कन्या को सत्यवती के नाम से भी जाना जाता है। बड़ी होने पर वह नाव खेने का कार्य करने लगी थी। एक बार पराशर मुनि को उसकी नाव पर बैठ कर यमुना पार करना पड़ा था। पराशर मुनि सत्यवती रूप-सौन्दर्य पर आसक्त हो गये और बोले, "देवि! मैं तुम्हारे साथ सहवास करना चाहता हूँ।" सत्यवती ने कहा, "मुनिवर! आप ब्रह्मज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या। हमारा सहवास सम्भव नहीं है।" तब पराशर मुनि बोले, "बालिके! तुम चिन्ता मत करो। प्रसूति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी।" इसे कोई ना देख सकेगा। इतना कह कर उन्होंने अपने योग बल से चारों ओर घने कुहरे का जाल रच दिया । उसे आशीर्वाद देते हुये कहा, तुम्हारे शरीर से जो मछली की गंध निकलती है वह सुगन्ध में परिवर्तित हो जायेगी।" इसलिए उसका नाम सुगंधा पड़ा।
           कुछ संदर्भों में इसे ऋषि कन्या भी कहा गया है। पराशर जी का विवाह सुमन्‍तु ऋषि की कन्‍या सत्‍यवति से हुआ था। सत्‍व सत्‍य एवं सदगुण सम्‍पन्‍न होने के कारण सत्‍यवती के नाम से प्रसिद्ध हुई। वेद व्‍यास जी का जन्म माता सत्‍यवति के गर्भ से हुआ। इनको कानीन भी कहते हैं। नारी की कन्‍या अवस्‍था में विवाह से पहले जो पुत्र पैदा होता है वह कानीन कहलाता है। जैसे व्‍यास, कर्ण, शिवी और अष्‍टक आदि।
         पराशर के अनुग्रह एवं आशीर्वाद से काली का कौमार रह गया। पराशर के आशीष से काली सुवास से युक्त सत्यवती हुई। सत्यवती को योजनगंधा होने का वरदान दिया। यही बालक आगे चलकर आठवें महाभारत कालीन वशिष्ठ के पौत्र और शक्ति के पुत्र का पराशर ऋषि के रुप में प्रसिद्ध हुए।
          यही सत्यवती कालांतर में हस्तिनापुर नरेश शांतनु की पत्नी हुई, जिसके गर्भ से चित्रांगद एवं विचित्रवीर्य का जन्म हुआ। विचित्रवीर्य ने काशीराज - पुत्री अंबिका तथा अंबालिका को ब्याहा, पर वह निस्संतान मर गया। तब सत्यवती के आग्रह पर अंबिका तथा अंबालिका के साथ व्यास का नियोग हुआ और फलस्वरूप पांडु एवं धृतराष्ट्र का जन्म हुआ। पराशर-पुत्र व्यास वेदों का विभाजन करके वेदव्यास कहलाये। महाभारत एवं पुराणों के रचयिता होने का श्रेय भी व्यास को दिया जाता है।
12वर्ष तक मां के गर्भ में रहा बालक पराशर :-
     अयोध्या के राजा सैदास जिन्हे कलमाश भी कहा गया है , द्वारा शक्ति और वशिष्ठ मुनि के और पुत्रों के भक्षण के कारण पुत्रों की मृत्यु पर अधीर होकर वसिष्ठ आत्म हत्या के कई प्रयास भी किये थे। उनके पीछे उनकी पुत्रवधू भी चल रही थी। एक बार महषि वसिष्ठ अपने आश्रम लौट रहे थे तो उन्हे लगा कि मानो कोई उनके पीछे वेद पाठ करता चल रहा है।
             पुत्रवधू के गर्भ गर्भस्थ में पराशर शिशु वेद मंत्रों का उच्चारण कर रहा था। वसिष्ठ बोले कौन है ? तो आवाज आई मैं आपकी पुत्र-वधु शक्ति की पत्नी अदृश्यन्ती हूं । इसे सुनकर वशिष्ठजी में आशा संचार हुआ और वे मृत्यु का इरादा त्यागकर अपने भावी उस उत्ताधिकारी को पालने के लिए पुनः धर्म पूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करने लगे थे। वशिष्‍ठ जी को इनके गर्भस्‍थ बालक के मुख से वेदाध्‍ययन करने के शब्‍द सुनाई दिए थे। इतना ही नहीं पराशर जी ने बारह वर्षों तक अपनी माता के गर्भ में वेद काअभ्यास भी किया था। इनका जन्‍म इनके पिता शक्ति मुनि की मृत्‍यू के बाद हुआ था।पराशर का शब्दिक अर्थ होता है- ‘प्राण बचाने वाला।’ चूंकि उन्होंने अपने पितामह वसिष्ठ के प्राण बचाए थे, इसलिए वे पराशर कहलाए।
      पराशर एक मन्त्रद्रष्टा ऋषि, शास्त्रवेत्ता, ब्रह्मज्ञानी एवं स्मृतिकार है।उन्होंने वेद के १. ऋक् २. यजु ३. साम एवं ४. अथर्वण ये चार भाग किये तथा उनकी शाखाओं को बढ़ाया। तत्पश्चात अठारह पुराण बनाये, क्योंकि कलियुग के प्रवेश से सांसारिक जीवों की बुद्धि नष्ट हो गयी थी। उन्होंने वेद की रीतियाँ युक्ति पूर्वक पुराणों में इस प्रकार मिला दी, जिससे लोग प्रसन्न हो। 
पराशर स्मृति :-
पराशर स्मृति एक धर्मसंहिता है, जिसमें युगानुरूप धर्मनिष्ठा पर बल दिया गया है। कहते हैं कि, एक बार ऋषियों ने कलियुग योग्य धर्मों को समझाने की व्यास से प्रार्थना की। व्यासजी ने अपने पिता पराशर से इसके संबंध में पूछना उचित समझा। अतः वे मुनियों को लेकर बदरिकाश्रम में पराशर के पास गये। पराशर ने समझाया कि कलियुग में लोगों की शारीरिक शक्ति कम होती है, इसलिए तपस्या, ज्ञान-संपादन, यज्ञ आदि सहज साध्य नहीं हैं। इसलिए कलिकाल में दान रूप धर्म की महत्ता है।
 पराशर ने आयुर्वेद एवं ज्योतिष पर भी अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। येे महर्षि वसिष्ठ के पौत्र, गोत्रप्रवर्तक, वैदिक सूक्तों के द्रष्टा और ग्रंथकार भी हैं। पराशर शर-शय्या पर पड़े भीष्म से मिलने गये थे। परीक्षित् के गोलोक गमन के समय उपस्थित कई ऋषि-मुनियों में वे भी थे। वे छब्बीसवें द्वापर के व्यास थे। जनमेजय के सर्पयज्ञ में भी उपस्थित थे।      
वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था परक ज्ञान:-
कृष्ण द्वैपायन व्यास जी जब कुछ मुनियों को बदरिकाश्रम (बद्रीनाथ तीर्थ)में स्थित अपने पिता पराशर के पास ले गए थे तब पराशर ने उन्हें वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था परक ज्ञान दिया था।
भगवान शिव का छब्बीसवाँ सहिष्णु" नामक अवतार ग्रहण कर लिया तथा १. उलूक २. विद्युत ३. सम्बल तथा ४. अश्वलायन ये चार शिष्य उत्पन्न किये तथा उन्हें योग का ज्ञान सिखाया तथा उन्होंने योग को प्रकट किया।उस योग को संसारी जीवों ने बड़े यत्न से सीखा। फिर उन्होंने वेद एवं पुराणों से अच्छे धर्म एवं मत्त प्रकट किए। शिवजी के ये चार शिष्य आश्रम जानने वाले, योगाभ्यासी तथा निष्पाप हुए। 
















Thursday, January 27, 2022

शक्ति वसिष्ठ और राजा सौदास/कल्मषपाद (भागवत प्रसंग 6)डा. राधे श्याम द्विवेदी

  भगवान राम का जन्म 5114 ईसा पूर्व 10 जनवरी को दिन के 12.05 पर हुआ था। भगवान राम के पूर्वजों की वंशावली इस प्रकार मिलती है।
            1. मनु 2. इक्ष्वाकु 3. शशाद 4. ककुत्स्थ 5. अनेनस 6. पृथु 7. विश्वगाश्व आर्द्र 8. युवनाश्च 9. श्रावत्स 10. वृहदश्व 11. कुवलयाश्व 12. दृढ़ाश्व 13. प्रमोद 14. हर्यश्रव 15. निकुम्भ 16. संहताश्व 17. कृशाश्व 18. प्रसेनजित 19. युवनाश्च 20. मान्धातु 21. पुरुकुत्स 22. त्रसदस्यु 23. सम्भूत 24. अनरण्य 25. पृषदश्व 26. हर्यश्रव 27. वसुमनस 28. तृधन्वन 29. त्रैयारुण 30. त्रिशंकु 31. हरिश्चन्द्र 32. रोहित 33. हरित 34.चंचु 35. विजय 36. रुरुक 37. वृक 38. बाहु 39. सगर 40. असमज्जस 41. अंशुमन 42. दिलीप 43. भगीरथ 44. श्रुत 45. श्रुत 46. नाभाग 47. अम्बरीष 48. सिंधुदीप 49. अयतायुस 50. ऋतुपर्ण 51. सर्वकाम 52. सुदास 53. सौदास/ कल्माषपाद 54. अश्मक 55. मूलक 56. शतरथ 57. वृद्धशर्मन 58. विश्वसह 59. दिलीप 2 60. दीर्घबाहु 61. रघु 62. अज 63. दशरथ 64. रामचन्द्र।
       भगवान के पूर्वजों में मनु के 53वें और इक्ष्वाकु के 52वें पीढ़ी में सौदास नामक राजा हुए थे। ईक्ष्वाकु वंशी राजा सौदास का उल्लेख अनेक हिन्दू पौराणिक ग्रंथों एवं महाभारत में हुआ है। विष्णु पुराण के अनुसार राजा सौदास इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न राजा ऋतुपर्ण का प्रपौत्र, राजा सर्वकाम का पौत्र तथा राजा सुदास का पुत्र था। सुदास का पुत्र होने के कारण इसे सौदास कहा जाता था।रामायण में सौदास के पिता सुदास का नाम रघु कहा गया है। कुछ ग्रंथों में कहा गया है कि कलमाशपाद का जन्म नाम मित्रसाह था, लेकिन उन्हें उनके संरक्षक सौदास से जाना जाता था। विष्णु पुराण पर एक टिप्पणीकार का कहना है कि मित्र-साह (शाब्दिक रूप से, "जो एक मित्र को मना करता है") एक विशेषण है जिसे राजा ऋषि शक्ति वशिष्ठ के शाप से प्राप्त करता है । राजा अपने मित्र ( मित्र )शक्ति वशिष्ठ के श्राप के प्रतिशोध से ( साह ) को रोकता है , हालांकि उसके पास ऐसा करने की शक्ति है। 
       कुल पुरोहित महर्षि वसिष्ठ के आशीर्वाद से राजा सुदास और सौदास ने अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लिया था। एक बार राजा सुदास अरण्य में आखेट खेलने गया। वहाँ राजा सौदास ने दो भयंकर राक्षसों को देखा। उनमें से एक राक्षस को राजा सौदास ने मार दिया किंतु दूसरा राक्षस भयभीत होकर अदृश्य हो गया तथा उसने राजा सौदास को फिर कभी मारने का निश्चय किया। राजा सुदास भी अरण्य से अपनी राजधानी अयोध्या लौट आया और अपने गुरु महर्षि वशिष्ठ को अश्वमेध यज्ञ में आमंत्रित करता है । कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ की आज्ञा से राजा सौदास ने एक यज्ञ आरम्भ किया। यज्ञ पूर्ण होने के बाद राजा एवं रानी ने गुरु महर्षि वसिष्ठ सहित समस्त ब्राह्मणों को भोजन करवाया। जिस मायावी राक्षस ने राजा सुदास को फिर कभी मारने का निश्चय किया था। उसे इस यज्ञ के बारे में ज्ञात हो गया और वह अपने साथी दैत्य की मृत्यु का बदला लेने के लिए वेश बदल कर राजा सौदास के महल में आया। राक्षस के वेश में धोखा खाकर कलमाशपाद अपनी रानी के साथ महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में जाता है और उसे मांस भेंट करता है। उस दैत्य ने अवसर पाकर शक्ति वसिष्ठ के भोजन में नरमांस मिला दिया। रानी दमयंती ने अत्यंत श्रद्धा से वह भोजन कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ को परोसा। वर्जित भेंट देखकर ऋषि अपमानित महसूस करते हैं । उन्होंने राजा को श्राप दिया- ‘हे सौदास! तूने मुझे खाने के लिए नरमांस दिया है, इसलिए तू राक्षस हो जा और यही भोजन कर।’
        इस पर राजा सौदास कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ पर क्रुद्ध हुआ और बोला- ‘आपने बिना सोचे-समझे हमें निरपराधी होते हुए भी इतना भयानक श्राप दिया है, अतः मैं भी आपको श्राप दूंगा।’
राजा ने कुलगुरु को श्राप देने के लिए अपने हाथ में जल लिया तो रानी मदयंती राजा के पैरों में गिर पड़ी और प्रार्थना करने लगी- ‘कुलगुरु को श्राप देना उचित नहीं है।’
       इस पर राजा सौदास ने अपने हाथ का जल अपने पैरों पर गिरा दिया। इस जल के स्पर्श से राजा सौदास के पैर काले हो गए तथा तभी से राजा को कल्मषपाद कहा जाने लगा। शाप के प्रभाव से राजा उसी क्षण राक्षस बन गया।
          उसी समय महर्षि वसिष्ठजी को राक्षस द्वारा भोजन में नरमांस मिलाए जाने की बात ज्ञात हुई और उन्होंने कल्मषपाद राक्षस बने राजा सौदास से कहा- ‘मेरे शाप का प्रभाव बारह वर्ष तक रहेगा। जब आप श्राप के प्रभाव से मुक्त हो जाएंगे, तब आपको श्राप काल की घटनाएं स्मरण नहीं रहेंगी।’
        राक्षस कल्पषपाद अपनी राजधानी छोड़कर जंगलों में चला गया और प्राणियों को मार कर खाने लगा। एक बार कल्पषपाद अरण्य में एक संकरे पथ पर जा रहा था। उसी संकरे पथ पर सामने से महर्षि वसिष्ठ का पुत्र शक्ति आ रहा था। इस बात पर दोनों में बहस छिड़ गई कि कौन किसके लिए मार्ग छोड़ेगा!
        महर्षि वसिष्ठ का पुत्र शक्ति ऋषि वेश में था, इसलिए वह चाहता था कि राजा अपने गुरुपुत्र के सम्मान में मार्ग छोड़े। जबकि राजा चाहता था कि ऋषिपुत्र एक चक्रवर्ती सम्राट के लिए मार्ग छोड़े। जब गुरुपुत्र ने राजा के लिए मार्ग नहीं छोड़ा तो कल्मषपाद गुरुपुत्र को रस्सी के कोड़े से मारने लगा। बदले में, ऋषि राजा को 16 साल तक जंगल में भटकने का श्राप देते हैं।
         संयोगवश महर्षि विश्वामित्र भी वहाँ आ निकले। उन्होंने एक वृक्ष के पीछे खड़े होकर यह समस्त दृश्य देखा। उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी महर्षि वसिष्ठ के पुत्र शक्ति को संत्रास देने के लिए किंकर नामक एक राक्षस की सृष्टि की तथा उसे राजा कल्पषपाद के शरीर में प्रवेश करा दिया। इस कारण कल्मषपाद ने और भी भयंकर रूप धारण कर लिया। उन नृपश्रेष्‍ठ ने कुछ ही दिनों बाद उस शक्ति मुनि को अपने सामने देखकर कहा-। चूंकि तुमने मुझे यह सर्वथा अयोग्‍य शाप दिया है, अत: अब मैं तुम्‍हीं से मनुष्‍यों का भक्षण आरम्‍भ करुंगा। यों कहकर राजा ने तत्‍काल ही शक्ति के प्राण ले लिये और जैसे बाघ अपनी रुचि के अनुकूल पशु को चबा जाता है, उसी प्रकार वे भी शक्ति को खा गये। शक्ति को मारा गया देख विश्वामित्र बार-बार वसिष्ठ के पुत्रों पर ही आक्रमण करने के लिये उसे राक्षस को प्रेरित करते थे। जैसे क्रोध में भरा हुआ सिंह छोटे मृगों को खा जाता है।
     विश्वामित्र राजा की मदद से अपने दुश्मन के परिवार को नष्ट करने की साजिश रचते हैं। राक्षस के प्रभाव में , राजा एक ब्राह्मण को मानव मांस परोसता है, जो शक्ति के श्राप को प्रभाव में डालता है। राजा नरभक्षी राक्षस में बदल जाता है ।   
          एक बार राक्षस कल्मषपाद ने एक ब्राह्मण युगल को रति के क्षणों में देखा। कल्मषपाद ने ब्राह्मण को मार दिया। इस पर ब्राह्मण-पत्नी ने दुःखी होकर कहा- ‘तू जब भी अपनी पत्नी के पास जाएगा, तू भी इसी तरह मर जाएगा, जिस तरह तूने आज मेरे पति को मारा है।’
          एक बार राक्षस कल्मषपाद अरण्य में घूमता हुआ ऋषि वसिष्ठ के आश्रम में जा पहुंचा। वहाँ उसने वसिष्ठ के पुत्रों को यज्ञ करते हुए देखा तो कल्मषपाद वसिष्ठ के पुत्रों को खा गया। महर्षि वसिष्ठ ने अपने पुत्रों के शोक में अपने शरीर का अंत करने का निश्चय किया तथा उन्होंने पर्वत से गिरकर, समुद्र में डूबकर, अग्नि में जलकर देहत्याग करने का निश्चय किया किंतु देवताओं ने उन्हें मरने नहीं दिया। इस पर महर्षि वसिष्ठ अपना शरीर लताओं से बांधकर एक तेज प्रवाहयुक्त नदी में कूद गए। यहाँ भी देवताओं ने उन्हें लताओं के पाश से मुक्त कर दिया। ऋषि बच गए तथा उसी दिन से उस नदी का नाम ‘विपाशा’ हो गया जिसे अब हम ‘व्यास’ नदी कहते हैं।
         जब महर्षि विपाशा में जीवित बच बए तो उन्होंने एक अन्य नदी में कूदकर प्राण त्यागने का निश्चय किया। जैसे ही ऋषि वसिष्ठ ने नदी में प्रवेश किया, नदी सौ धाराओं में बंट गई और महर्षि स्वतः उससे बाहर निकल गए। उस दिन से उस नदी का नाम ‘शतुद्रि’ हो गया जिसे अब हम ‘सतलुज’ के नाम से जानते हैं।
         एक बार महर्षि वसिष्ठ अपनी पुत्रवधु अदृश्यंति के साथ अरण्य में काष्ठ एकत्रित कर रहे थे। तब महर्षि को क्षीण स्वर में वेदमंत्र सुनाई दिए। इस पर महर्षि ने अपनी पुत्रवधु से पूछा- ‘ये वेदमंत्र कौन बोल रहा है।’
       इस पर अदृश्यंति ने कहा- ‘विगत 12 वर्षों से मेरे गर्भ में आपके पुत्र शक्ति का पुत्र वेदघोष कर रहा है।’
        जब महर्षि को ज्ञात हुआ कि मेरे कुल का सम्पूर्ण विनाश नहीं हुआ है तो महर्षि ने देह-त्याग करने का निश्चय छोड़ दिया। कुछ समय पश्चात् अदृश्यंति के गर्भ से पराशर ऋषि ने जन्म लिया। पराशर का शब्दिक अर्थ होता है- ‘प्राण बचाने वाला।’ चूंकि उन्होंने अपने पितामह वसिष्ठ के प्राण बचाए थे, इसलिए वे पराशर कहलाए।
        इस तरह लगभग 12 वर्ष होने को आए। एक दिन राक्षस कल्मषपाद ने महर्षि वसिष्ठ को अरण्य में संचरण करते हुए देखा। वह महर्षि को खा जाने के लिए उन पर झपटा। महर्षि ने दया करके उसे शाप-मुक्त कर दिया। राजा शापमुक्त होकर अपने स्वरूप में स्थित हुआ तथा पुनः अपनी राजधानी अयोध्या में लौट आया। 
         जब राजा सौदास को राज्य करते हुए बहुत दिन बीत गए तो उसे चिंता हुई कि उसका कोई पुत्र नहीं है। ब्राह्मणी के शाप के कारण राजा अपनी रानी से पुत्र उत्पन्न नहीं कर सकता था। श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार जब लम्बे समय तक राजा सौदास को पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई तो महर्षि वसिष्ठ ने राजा सौदास के अनुराध पर रानी मदयंती को मंत्रों के बल पर गर्भाधान कराया। इससे रानी मदयंती गर्भवती हो गई किंतु सात वर्ष तक बालक गर्भ से बाहर नहीं आया। इस पर वसिष्ठ ने रानी के गर्भ पर ‘अश्म’ अर्थात् पत्थर से प्रहार किया जिससे रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। उस बालक का नाम ‘अश्मक’ हुआ। उसे वीरसह अथवा मित्रसह भी कहते थे। राजा सौदास के बाद यही अश्मक अयोध्या का राजा हुआ। अश्मक के पुत्र का नाम मूलक था। उसके पुत्र का नाम शतरथ था।उसके पुत्र का नाम वृद्धशर्मन था। उसके पुत्र का नाम नाम विश्वसह था। उसके पुत्र का नाम दिलीप था। उसके पुत्र का नाम दीर्घबाहु था। उसके पुत्र का नाम रघु था। उसके पुत्र का नाम अज था। उसके पुत्र का नाम दशरथ था। उसके पुत्र का नाम रामचन्द्र लक्ष्मण भरत और शत्रुघ्न था। कुछ नाम भिन्नता के साथ रामायण और पुराण में वाशिष्ठ वंश के ऋषियों की गतिविधियों की जानकारी मिलती है।




Tuesday, January 25, 2022

स्वामी एकरसानन्द सरस्वती की अध्यात्म साधना डा. राधेश्याम द्विवेदी

 


स्वामी एकरसानन्द सरस्वती एक महान सन्त थे। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन मानवता के लिए समर्पित किया है। उनका जन्म 29 अगस्त 1866 को राजस्थान के जोधपुर जिले के भूरियाना गांव के एक ब्राहमण परिवार में पंडित राधा कृष्ण और उनकी पत्नी पालूबाई के घर हुआ था। बचपन में उनका मूल नाम नारायण दास था। वह बचपन से ही विनम्र दया आदर आदि गुणों से युक्त थे। उन्होंने ऊपरी हिमालय की घाटियों स्थित बदरी नाथ धाम जाकर गहन ध्यान का अभ्यास किया , तत्पश्चात वे काशी प्रस्थान कर गये। वहां उनकी भेंट उनके गुरु स्वामी गणेशानन्द जी से हुई। उन्होंने नारायण दास को अपना शिष्य बनाया और दीक्षा के बाद उनका नया नाम एकरसानन्द रखा। काशी में बेदों की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे विभिन्न धार्मिक स्थानों जैसे मथुरा, बृन्दाबन, हरिद्वार ऋषिकेष आदि स्थानों की यात्रा कीं मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ पहुंचने पर वहां के राजा ने उनका अत्यन्त आदर भाव से स्वागत किया था।

दैवी सम्पदा मण्डल की स्थापना:-

स्वामी एकरसानन्द सरस्वती ने श्रीमद् भगवत गीता के 16वें अध्याय में वर्णित दैवी सम्पति पर आधारित ’’सर्वभूतहितो रताः’’ के सिद्धान्तों पर 1914 ई. में दैवी सम्पदा मण्डल की स्थापना मैनपुरी के पंजाबी बाग में किया । यह संगठन जाति सम्प्रदाय तथा धर्म का भेदभाव किए बिना , समस्त मनुष्य जाति में निर्भीकता, अंतःकरण की शुद्धता, आध्यात्मिक ज्ञान हेतु निरन्तर ध्यान और योगाभ्यास , दानशीलता, इन्द्रियों पर नियंत्रण, अहिंसा, सत्यवादी होने, त्याग, शान्ति, दया, अनाशक्ति, कोमलता,विनयशीलता ,क्षमा और घौर्य आदि गुणों को बढ़ावा देने के प्रति समर्पित है।

दस उपदेश

स्वामी एकरसानन्द सरस्वती के अनुयायी उनके दस उपदेश का शव्दशः पालन करतेे हैं। ये उपदेश प्रेम, सहानुभूति तथा ईश्वर के प्रति समर्पण भाव का संदेश देते हैं। उनके द्वारा बनाये गये दस उपदेश इस प्रकार है -

पहला               संसार को स्वप्नवत जानों।

दूसरा               अति साहस रखो।

तीसरा              अखण्ड प्रफुल्लित रहो दुख में भीं।

चैथा                 परमात्मा का स्मरण करो, जितना बन सके।

पांचवां              किसी को दुख मत दो, बने तो सुख दो।

छठा                 सभी पर अति प्रेम करो।

सातवां              नूतन बालवत स्वभाव रखो।

 आठवां             मर्यादानुसार चलो।

 नौवां                 अखण्ड पुरुषार्थ करो, गंगा प्रवाहवत, आलसी मत बनों।

 दसवां               जिसमें तुमको नीचा देखना पड़े एसा काम मत करो।

व्यवहार जगत में उपरोक्त दसो सूत्र मनुष्यों के चारित्रिक  भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए बहुत आवश्यक हैं। इनमें से यदि एक मात्र दसवें सूत्र को भली भांति अपना लिया जाये तो फिर व्यक्ति का कल्याण सुनिश्चित है।

स्वामी एकरसानन्द सरस्वती की अध्यात्मिक गतिविधियां

स्वामी एकरसानन्द सरस्वती के अनुयायी उनके सत्कर्मों को आगे बढ़ा रहे हैं। उनके अनुयायी विभिन्न संस्थाओं से जुड़े हैं। जैसे स्वामी एकरसानन्द सरस्वती आश्रम, स्वामी एकरसानन्द सरस्वती संस्कृत महावियालय, श्री एकरासनन्द आदर्श इन्टर कालेज ,श्री एकरसानन्द धर्मार्थ आयुर्वेदिक अस्पताल, श्री एकरसानन्द गोशाला आदि। स्वामी एकरसानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित दैवी सम्पदा मण्डल  मानव जाति की सेवा में कार्यरत रहा है।दैवी सम्पदा के सभी संस्थान जन कल्याण की दिशा में कार्यरत हैं। और सम्मेलनों, ध्यान व योग शिक्षण शिविरों , सत्संगों,प्रवचनों तथा समागमों के आयोजनों के माध्यम से लोगों में संयम,, उत्तम आचरण और अध्यात्म को प्रोत्साहित कर रहे हैं। मैनपुरी के पंजाबी कालोनी में दैवा सम्पदा मण्डल, आश्रम तथा संस्कृत महाविद्यालय संचालित हो रहा है। जन हित के तमाम कार्य करने के कारण शासन प्रशासन में इस आश्रम का विशेष महत्व है। 9 सितम्बर 1938 को स्वामी एकरसानन्द सरस्वती जी का निधन हो गया है। उनके सम्मान में भारत सरकार के डाक तार विभाग ने 500 पेसे का डाक टिकट जारी किया है।

स्वामी हरिहरानन्द को राज्यमंत्री का दर्जा         

मैनपुरी के दैवी सम्पदा मण्डल के और एकरसानन्द आश्रम के महामण्डलेश्वर स्वामी हरिहरानन्द जी महराज को 4 अक्तूबर 2018 को मध्य प्रदेश सरकार ने राज्य मंत्री का दर्जा प्रदान कर रखा है। इस संस्था के माध्यम से गरीबों और आदिवासियों के जीवन उत्थान और गौ संरक्षण के लिए काम करने वाले महामण्डलेश्वर को मध्य प्रदेश की सरकार ने नर्मदा के किनारे के क्षेत्रों में पौधारोपण, जल संरक्षण व स्वच्छता के विषयों पर जन जागरुकता अभियान चलाने की गठित कमेटी का सदस्य बनाया गया है। स्वामी हरिहरानन्द जी का आश्रम विभिन्न सामाजिक गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध है। मैनपुरी शहर से सटे संसारपुर में आश्रम की ओर से बृहद गोशाला बनवायी जा रही है।

मियागंज कन्नौज की धर्मनिष्ठा: स्वामी एकरसानंद सरस्वती के तीन विशिष्ट शिष्य:-

कन्नौज के पूर्वी इलाके में स्थित मियागंज एक ऐसा ग्राम है जिसे अब ऋषि नगर के नाम से जानते हैं। वहां तीन महान संतों का जन्म हुआ जिन्होंने पूरे देश में ख्याति अर्जित की है। स्वामी सुखदेवानन्द, स्वामी नारदानंद और स्वामी भजनानंद जी हैं। स्वामी सुखदेवानन्द का गृहस्थ नाम प्रयाग नरायन था और स्वामी भजनानंद का नाम लङैते लाल था। बाबूराम स्वामी नारदानंद के नाम से विख्यात हुए। लङैते लाल की मिठाई की दुकान थी। तीनों स्वामी एकरसानंद सरस्वती के दर्शन करने गए और वहीं पर उन्हें गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया। उसी समय सवामी विचारानंद और समतानंद भी उसी गाँव मे हुए और इसे संयोग ही कहा जायेगा कि पहले से ही विरक्त भाव मे चल रहे इन तीनो विभूतियों की पत्नियों ने एक एक कर संसार को छोड़ दिया और अपने पति को परमार्थ गमन के लिए मुक्त कर दिया।  बाबूराम पांडेय स्वामी नारदानंद सरस्वती के नाम से विख्यात हुए। लङैते लाल स्वामी भजनानंद के नाम से विख्यात हुए और प्रयाग नरायन स्वामी सुखदेवानंद के नाम से विख्यात हुए। तीनो ने एक साथ सन्यास ग्रहण किया।

1.नारदानंद सरस्वती द्वारा नौमिषारण्य में अध्यात्म विद्यापीठ केंद्र की स्थापना:-

यहां स्वामी श्रीनारदनंदजी महाराज का आश्रम तथा एक ब्रह्मचर्याश्रम है, जहां ब्रह्मचारी प्राचीन पद्धति से शिक्षा प्राप्त करते हैं। आश्रम में साधक लोग साधना की दृष्टि से रहते हैं। धारणा है कि कलियुग में समस्त तीर्थ नैमिष क्षेत्र में ही निवास करते हैं। नैमिषारण्य भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख केंद्र है, जिसे जगदाचार्य स्वामी नारदानंद सरस्वती जी ने यथासंभव संवारने का प्रयास किया था। स्वामी नारदानंद सरस्वती ने नैमिष में आश्रम बनाया जो आज अपने विशाल रूप में है। स्वामी नारदानंद सादगी के प्रतीक थे। स्वामी नारदानंद जी का जन्म कन्नौज के पास मिश्रागंज में ब्राह्मण कुल में हुआ था। वह दो भाई-बहन थे। उनकी विवाह भी हुआ था। बाद में एकरसानंद से प्रभावित होकर घरबार छोड़कर समाज हित में अपने को लगा दिया था। उनकी कई वर्षो की तपस्या व आशीर्वाद से लाखों भक्तों का कल्याण हुआ। उन्होंने  देश-विदेश में 286 आश्रमों का संचालन किया और नैमिषारण्य को अपनी तपस्थली बनाकर वहां चारों आश्रमों का संचालन किया। ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व सन्यास वर्ण की अलग-अलग व्यवस्था की। इनका जन्म मास अगहन की शुक्लपक्ष सप्तमी को हुआ था। महाराज जी के सानिध्य में लाखों भक्तों का कल्याण हुआ और बहुत से विरक्त संत व आचार्यो की फौज तैयार कर जनसेवा में जीवन लगा दिया। उन्होंने बताया कि समस्त 286 आश्रमों पर वानप्रस्थ ब्रहमचारी को पूजा व देखरेख के लिए नियुक्त किया।
          स्वामी नारदानंद पहले स्वामी एकरसानंद सरस्वती जी महाराज फिर पंडित मदन मोहन मालवीय के संपर्क में आये और उनकी सम्मति से वर्णाश्रम खोलने की योजना बनाई। स्वामी नारदानंद ने उत्तर भारत में जनमानस को धर्म और आध्यात्म के प्रति प्रेरित किया। भारत भक्त समाज की स्थापना पर सन 1959 में स्वामी जी मे यह आह्वान किया। आओ उठो आज परमात्मा की स्वकर्तव्य द्वारा पूजा की शुभ बेला है। मातृभूमि की पुकार है। नैमिष व्यासपीठ की स्थापना की जो आज भी मिसाल वट वृक्ष की भांति विद्यमान है।

2. स्वामी सुखदेवानंद द्वारा परमार्थ निकेतन ऋषिकेश की स्थपना

कन्नौज जिले के मियांगंज ग्राम में ब्राह्मण परिवार म जन्में प्रयाग नरायन स्वामी सुखदेवानंद के नाम से विख्यात हुए। इनका जन्म 1901 ई. में हुआ था। वे परमार्थ निकेतन आश्रम लक्ष्मण झूला ऋषिकेश के संस्थापकऔर श्री दैवी संपदा महामंडल के नायक व प्रमुख रहे। परमार्थ निकेतन भारत देश के उत्तराखंड राज्य में ऋषिकेश में स्थित एक आश्रम है। यह हिमालय की गोद में गंगा के किनारे स्थित है। इसकी स्थापना 1942 में सन्त सुकदेवानन्द जी महाराज (1901-1965) ने की थी।परमार्थ निकेतन स्वामी सुकदेवानंद ट्रस्ट का मुख्यालय भी है जो  बिना लाभ वाला धार्मिक आध्यात्मिक संगठन धर्म अध्यात्म और संस्कृति के लिए समर्पित है। 1965 में स्वामी जी ने अपनी पंचभौतिक शरीर छोड़कर परम तत्व में विलीन हो गए थे। सन् 1986 स्वामी चिदानन्द सरस्वती इसके अध्यक्ष एवं आध्यात्मिक मुखिया हैं।

परमार्थ निकेतन आश्रम के संस्थापक, श्री दैवी संपद महामंडल के नायक व प्रख्यात संत महामंडलेश्वर स्वामी सुखदेवानंद सरस्वती महाराज थे। गंगा नदी की तरफ से परमार्थ निकेतन का दृश्य बहुत ही मन भावन है। परमार्थ निकेतन स्वर्गाश्रम ऋषिकेश का सबसे बड़ा आश्रम है। इसमें 1000 से भी अधिक कक्ष हैं। आश्रम में प्रतिदिन प्रभात की सामूहिक पूजा, योग एवं ध्यान, सत्संग, व्याख्यान, कीर्तन, सूर्यास्त के समय गंगा-आरती आदि होते हैं। इसके अलावा प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद चिकित्सा एवं आयुर्वेद प्रशिक्षण आदि भी दिए जाते हैं। आश्रम में भगवान शिव की 14 फुट ऊँची प्रतिमा स्थापित है। आश्रम के प्रांगण में कल्पवृक्ष भी है जिसे हिमालय वाहिनी के विजयपाल बघेल ने रोपा था। स्वामी सुखदेवानंद सरस्वती जैसे महापुरुषों के संदेशों को आचरण में उतारना चाहिए। परमार्थ निकेतन किसी धार्मिक जातीय या राष्ट्रीय भेदभाव के बिना सभी श्रद्धालुओं के लिए खुला है। पिछले 25 वर्षों से साध्वी भगवती परमार्थ निकेतन में यहां निवास करते हुए सदाचार की शिक्षा दे रही हैं।

स्वामी सुखदेवानंद जी ने पचास-साठ के दशक में मेक इंडिया का नारा दिया था। जिसमें भारतीयों से स्वदेशी निर्माण की व्यापक अवधारणा थी। स्वामी सुखदेवानंद ट्रस्ट के चेयरमैन महामंडलेश्वर स्वामी असंगानंद सरस्वती अध्यक्ष हैं। 1964 में स्वामी सुखदेवानंद सरस्वती द्वारा स्थापित एस.एस. पी. जी  कॉलेज कला, विज्ञान, वाणिज्य, शिक्षा और कंप्यूटर विज्ञान के संकायों में स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम चलाता है।

3.महामंडलेश्वर स्वामी भजनानंद

महामंडलेश्वर स्वामी भजनानंद का बचपन का नाम लड़ौत लाल था। वह भी मियां गंज कन्नौज के ब्राह्मण परिवार से थे। चैछी कक्षा पास कर वह व्यापार मिठाई की दुकान संभालने लगे। उनकी मुलाकात मियां गंज कन्नौज के प्रयाग नारायण से हुई जो बाद में स्वामी सुकदेवानंद बने।इनके एक और दोस्त बाबू राम थे जो बाद में स्वामी नारदा नंद बने। इन तीनों का मन भौतिक सुख सुविधाओं में नहीं लगा तो ये लोग स्वामी एकरसानंद सरस्वती के शिष्य बन गए।इसी बीच लड़ौत लाल की पत्नी का देहान्त हो गया तो वहघर त्याग दिए। वह सत्संग साधना में जीवन व्यतीत करने लगे। इन्हें दीक्षा संस्कार देने के पूर्व ही स्वामी एकरसानंद सरस्वती जी का देहान्त हो गया था। इसलिए वह अपने गुरु भाई स्वामी शतानंद से सन्यास की दीक्षा ले ली। अब इनका नाम भजनानंद हो गया

1947 में स्वामी सुकदेवानंद और स्वामी भजनानंद ने ऋषि केश में स्वर्गाआश्रम में परमार्थ निकेतन की स्थापना किए। 1965 में स्वामी सुकदेवानंद की मृत्यु हो गई तो भजनानंद महा मंडलेश्वर पद पर आसीन हुए। उन्होंने जनता की सेवा करने के लिए इंटर कॉलेज, औषधालय और संस्कृत विद्यालय की स्थापना की।

इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वामी एकरसानन्द जी का अध्यात्म बृक्ष आज उत्तर भारत के विशाल क्षेत्र में अपनी छाया से आहलादित कर रहा है। उनके तीन प्रमुख शिष्यों के अतिरिक्त इन केन्द्रो से दीक्षित अनेक सन्त जन अध्यात्म की ज्योति प्रज्वलित कर रहे है।

 

 

 

 

Monday, January 24, 2022

महर्षि वशिष्ठ की नंदिनी (भगवत प्रसंग 5)। डा. राधे श्याम द्विवेदी

महर्षि वशिष्ठ की नंदिनी (भगवत प्रसंग 5) 
डा. राधे श्याम द्विवेदी
           हिन्दू धर्म में गाय सबसे पवित्र पशु माना जाता है।प्रारंभिक युग में गाय की केवल एक ही नस्ल थी । आज से लगभग 9500 वर्ष पूर्व गुरु वशिष्ठ ने ही गाय के कुल को बढ़ाया था । गाय के विस्तार के बाद उनकी 8 नस्ल हो गई थी । जिनके नाम कामधेनु , नंदनी , देवनी , भौमा और कपिला इत्यादि थे। कामधेनु गाय के लिए गुरु वशिष्ठ से महर्षि विश्वामित्र और कई अन्य राजाओं के कई बार युद्ध भी हुए , लेकिन गुरु वशिष्ठ ने कामधेनु गाय की नस्लों को किसी को भी नहीं दिया । कामधेनु गाय के लिए युद्ध में गुरु वशिष्ठ के 100 पुत्र भी मारे गए थे । आज हम कामधेनु गाय की बछिया ( बछड़ी ) जिसका नाम नंदनी था के बारे में चर्चा करेंगे कि किस तरह राजा कौशिक ‌( जो बाद में महर्षि विश्वामित्र के नाम से जाने गए ) और ब्रह्म ऋषि वशिष्ठ के बीच कामधेनु गाय की बछिया ( बछड़ी ) के लिए भयंकर युद्ध हुआ ? पौराणिक कथाओं के अनुसार महर्षि वशिष्ठ के पास नंदनी नाम की एक कामधेनु गाय की बछिया थी । 
            प्राचीन काल में एक महान राजा गाधि हुए थे, उनके पुत्र थे राजा कौशिक। वह अपने पिता के समान ही प्रतापी थे, उनके यश की कीर्ति चारो दिशा में फैली हुई थी। यही आगे चलकर विश्वामित्र के नाम से प्रसिद्ध हुए। एक बार राजा कौशिक अपनी एक अक्षौहिणी सेना लेकर वन विहार को निकले थे । वन में अधिक वक्त हो जाने की वजह से उनकी सेना का भूख - प्यास से बुरा हाल हो रहा था । अपनी सेना की यह हालत देखकर राजा कौशिक वन में ही किसी ऋषि का आश्रम ढूॅंढने लगे । कुछ देर अपनी सेना के साथ आगे बढ़ने पर उनकी दृष्टि एक आश्रम पर पड़ी । वह ब्रह्म ऋषि वशिष्ठ का आश्रम था । मार्ग में महर्षि वशिष्ठ का आश्रम देख उनका आशीर्वाद लेने के लिए उनके आश्रम पहुँचे। राजा कौशिक अपनी ‌सेना सहित महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में प्रवेश किया और उन्होंने गुरु वशिष्ठ को प्रणाम किया । 
राजा को अपने आश्रम में आया देख महर्षि वशिष्ठ बड़े प्रसन्नता से स्वागत किया था।
         राजा कौशिक और उनकी सेना की हालत देखकर महर्षि वशिष्ठ ने राजा कौशिक से कहा - राजन ! आप और आपकी सेना भूख और प्यास से बेहाल प्रतीत हो रहे हैं । वशिष्ठ ने उनसे कहा कि वे कुछ दिन अपनी सेना के साथ उनका आथित्य ग्रहण करें।
             ये सुनकर विश्वामित्र ने कहा- ‘हे महर्षि! मैं तो यहाँ केवल आपके दर्शनों के लिए आया था। मैं आपको कष्ट नहीं देना चाहता। आप किस प्रकार मेरी एक अक्षौहिणी खान पान की व्यवस्था करेंगे?'
        तब महर्षि वशिष्ठ ने कहा- ‘राजन! आप चिंता ना करें। मेरे पास गौमाता कामधेनु की पुत्री नंदिनी है जो सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाली है। मैं आपके और आपकी सेना के लिए भोजन और जल का प्रबंध करता हूॅं । 
       इसके बाद गुरु वशिष्ठ नंदनी गाय के पास गए और माता नंदनी से हाथ जोड़कर राजा कौशिक और उनकी सेना के लिए स्वादिष्ट भोजन और दूध की व्यवस्था करने को कहा । माता नंदनी एक मां की भांति अपने बच्चों की हर इच्छा का पालन करती थी । उन्होंने गुरु वशिष्ठ की भी इच्छा का पालन किया । कुछ ही क्षण में तरह- तरह के स्वादिष्ट पकवान और दूध के साथ- साथ दूध से बनी मिठाइयां प्रकट हो गई । गुरु वशिष्ठ ने राजा कौशिक और उनकी सेना को भरपेट भोजन कराया । 
         राजा कौशिक ने गुरू वशिष्ठ से इतने स्वादिष्ट भोजन का प्रबंध उन्होंने ‌इतनी जल्दी कैसे कर लिया इसका रहस्य पूछा । गुरु वशिष्ठ ने राजा कौशिक को नंदनी गाय के बारे में बताया और कहा कि यह गाय मुझे देवराज इन्द्र से प्राप्त ‌हुआ था और इसी नंदनी गाय से मै अपने आश्रम के सभी ऋषि मुनियों और अपने आश्रम में आए सभी अतिथियों का स्वागत सत्कार करता हूॅं । 
      तब कौशिक जी ने सोचा कि ऐसी गाय की अधिक आवश्यकता तो उन्हें है। यही सोच कर विश्वामित्र ने महर्षि वशिष्ठ से नंदिनी गाय देने का आग्रह किया। नंदिनी महर्षि वसिष्ठ जी के आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु महत्त्वपूर्ण साधन थी, अत: इन्होंने उसे देने में असमर्थता व्यक्त कर महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें नंदनी को देने से इंकार कर दिया।
          राजा कौशिक ने महर्षि वशिष्ठ से पुनः याचना की कि इस नंदनी गाय के बदले में मैं आपको 100 गाय दूंगा । आप इस गाय को मुझे सौंप दे । लेकिन गुरु वशिष्ठ ने कहा कि यदि आप मुझे इस गाय के बदले में अपना संपूर्ण राजपाट भी देने को तैयार हो तब भी मैं इस गाय को आपको नहीं सौंप सकता । 
           ब्रह्म ऋषि वशिष्ठ के इंकार से राजा कौशिक क्रोधित हो गए और जबरदस्ती नंदनी गाय को पकड़ने के लिए आगे बढ़े । राजा कौशिक और उनके पुत्रों के नंदनी गाय के निकट पहुंचने से पहले ही ब्रह्म ऋषि वशिष्ठ ने राजा कौशिक के एक पुत्र को छोड़कर शेष सभी पुत्रों को अपने तप के तेज से जलाकर भस्म कर दिया । यह देखकर राजा कौशिक की सेना नंदनी गाय को पकड़ने के लिए बढ़ी । उसी क्षण नंदनी गाय के शरीर से असंख्य सैनिक निकल कर राजा कौशिक की सेना का संहार करने लगे । इस तरह राजा कौशिक और गुरु वशिष्ठ की सेना के मध्य भयंकर युद्ध हुआ । राजा कौशिक अपने पुत्रों को खोकर बहुत दुखी हो गए। उनकी विशाल सेना का भी नाश हो गया था ।     
            वसिष्ठ विश्वामित्रके बीच के संघर्ष की कथाएं सुविदित हैं। महर्षि वशिष्ठ ने राजा कौशिक की एक अक्षौहिणी सेना को परास्त कर दिया।
       एक ब्राह्मण से हारकर विश्वामित्र घोर शोक में घिर गए और तब उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से प्रतिशोध लेने की ठानी। उन्होंने अपने एक पुत्र को राज-पाठ सौंपा और तपस्या करने हिमालय की ओर प्रस्थान कर गए। द्वेष-भावना से प्रेरित होकर विश्वामित्र ने भगवान शंकर की तपस्या की और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके उन्होंने महर्षि वसिष्ठ पर पुन: आक्रमण कर दिया।
      दिव्यास्त्र प्राप्त कर वे प्रतिशोध लेने महर्षि वशिष्ठ के आश्रम पहुँचे और महर्षि वशिष्ठ को युद्ध के लिए ललकारा। उन्होंने एक एक कर महर्षि वशिष्ठ पर व्यवयास्त्र, आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, पर्वतास्त्र, पर्जन्यास्त्र, गंधर्वास्त्र, मोहनास्त्र इत्यादि सारे दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया। किन्तु महर्षि वशिष्ठ ने उन सभी दिव्यास्त्रों को बीच में ही रोक दिया।
          अंत में कोई और उपाय ना देखकर विश्वामित्र ने महर्षि वशिष्ठ पर ‘ब्रह्मास्त्र‘ का प्रयोग किया। जवाब में वशिष्ठ ने महाविनाशकारी ‘ब्रह्माण्ड अस्त्र’ (ब्रह्माण्ड अस्त्र ब्रह्मास्त्र से 5 गुणा अधिक शक्तिशाली माना जाता है) को प्रकट किया जो विश्वामित्र के ब्रह्मास्त्र को काट दिया। 
        'घिक बलम क्षत्रिय बलम ब्रह्म तेजो बलम बलम।'
       विश्वामित्र को बार बार पराजित करने पर भी महर्षि वशिष्ठ ने उनका वध नहीं किया। इससे और भी अपमानित होकर विश्वामित्र वहां से चले गए।
            विश्वामित्र के मन में ये विचार आया कि मैं छिपकर वशिष्ठ पर ब्रह्मास्त्र का प्रहार करूँगा जिससे उनकी मृत्यु हो जाएगी। जब वो नहीं रहेंगे तो सारा जगत मुझे ही ‘ब्रह्मर्षि’ मानेगा। ये कुत्सित विचार लेकर विश्वामित्र वशिष्ठ के आश्रम पहुंचे।
     वशिष्ठ की पत्नी देवी अरुंधति कह रही थी- ‘हे स्वामी! आज की चाँदनी रात कितनी सुहानी है। इस जगत में इसके अतिरिक्त ऐसा प्रकाश और कहाँ प्राप्त हो सकता है?’ तब महर्षि वशिष्ठ ने कहा- ‘प्रिये! निश्चय ही ये शीतलता और प्रकाश अद्भुत है किन्तु इससे भी अधिक शीतलता और प्रकाश राजर्षि विश्वामित्र के तप में है।’
      वसिष्ठ कह रहे थे, ‘अहा, ऐसा पूर्णिमा के चन्द्रमा समान निर्मल तप तो कठोर तपस्वी विश्वामित्र के अतिरिक्त भला किस का हो सकता है? उनके जैसा इस समय दूसरा कोई तपस्वी नहीं।’      
         एकांत में शत्रु की प्रशंसा करने वाले महापुरुष के प्रति द्वेष रखने के कारण विश्वामित्र को पश्चाताप हुआ। शस्त्र हाथ से फेंक कर वे वसिष्ठ के चरणों में गिर पड़े। वसिष्ठ ने विश्वामित्र को हृदय से लगा कर ‘महर्षि’ कहकर उनका स्वागत किया। अपने प्रति महर्षि वशिष्ठ का ये कोमल भाव देख कर विश्वामित्र इस ग्लानि को लेकर एक बार फिर घोर तपस्या में लीन हो गए। अंततः अपने पिता ब्रह्मा की आज्ञा से स्वयं वशिष्ठ वहाँ आये और उन्होंने विश्वामित्र को ‘ब्रह्मर्षि’ कहकर सम्बोधित किया।
           इस प्रकार दोनों के बीच शत्रुता का अंत हुआ महर्षि वशिष्ठ के पास कामधेनु गाय और नंदिनी नाम की बेटी थी. ये दोनों ही मायावी थी। कामधेनु और नंदिनी उन्हें सब कुछ दे सकती थी।ऋषि वशिष्ठ शांति प्रिय, महान और परमज्ञानी थे। विश्वामित्र ने इनके 100 पुत्रों को मार दिया था, फिर भी इन्होंने विश्वामित्र को माफ कर दिया। 
         महर्षि वशिष्ठ, योगवशिष्ठ रामायण, वशिष्ठ धर्मसूत्र, वशिष्ठ संहिता और वशिष्ठ पुराण आदि के जनक हैं। बौद्ध धर्म में भी जिन 10 महान ऋषियों का वर्णन है, उनमे से एक महर्षि वशिष्ठ हैं। स्वयं श्री आदिशंकराचार्य ने महर्षि वशिष्ठ को वेदांत के आदि ऋषियों में प्रथम स्थान प्रदान किया है। मान्यता अनुसार- वशिष्ठ त्रेतायुग के अंत मे ब्रम्हा लोक चले गए थे।आकाश में चमकते सात तारों के समूह में पंक्ति के एक स्थान पर वशिष्ठ और अरुंधती को स्थित माना जाता है।



महर्षि वशिष्ठ के प्रसिद्ध मंदिर और आश्रम( भगवत प्रसंग - 4)


महर्षि वशिष्ठ के प्रसिद्ध मंदिर और आश्रम( भगवत प्रसंग - 4)
आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी
वसिष्ठ के छः मुख्य आश्रम थे।वशिष्ठ आश्रम/ गुफा ऋषिकेश (उत्तराखंड), वशिष्ठ आश्रम (गुवाहाटी), वशिष्ठ आश्रम गोमुख, वशिष्ठ आश्रम माउंट आबू (राजस्थान) में स्थित है।
1.
मनाली हिमाचल प्रदेश :-
 पहला हिमाचल प्रदेश के मनाली से करीब चार किलोमीटर दूर लेह राजमार्ग पर स्थित है वशिष्ठ नाम का है। महर्षि वशिष्ठ मंदिर हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले के वशिष्ठ गांव में है। इस गांव का नाम महर्षि वशिष्ठ के नाम पर ही रखा गया है। यह गांव अपने दामन में पौराणिक स्मृतियां छुपाये हुए है। महर्षि वशिष्ठ ने इसी स्थान पर बैठकर तपस्या किये थे । कालान्तर में यह स्थल उन्हीं के नाम से जाना जाने लगा। ऋषि का यहां भव्य प्राचीन मन्दिर बना है। वशिष्ठ पहुंच कर ऐसा लगता है मानो सौन्दर्य, धर्म, पर्यटन, परम्पराएं, आधुनिकता, ग्रामीण शैली व उपभोक्तावादी चमक-दमक आपस में एक हो रहे हैं।
ऋषि वशिष्ठ मंदिर मनाली
वशिष्ठ गांव की यात्रा के दौरान आप ऋषि वशिष्ठ मंदिर का दीदार भी कर सकते हैं। यहां भगवान राम और ऋषि विशिष्ठ के दो मंदिर हैं। माना जाता है कि यह वही स्थान है, जहां पर ऋषि वशिष्ठ ने तप किया था। वशिष्ठ मंदिर 4000 साल से अधिक पुराना है। मंदिर के अंदर धोती पहने ऋषि की एक काले पत्थर की मूर्ति स्थित है। वशिष्ठ मंदिर को लकड़ी पर उत्कृष्ट और सुंदर नक्काशी से सजाया गया है इसके अलावा मंदिर का इंटीरियर अद्रभूत पेंटिंग के साथ अलंकृत हैं। इस स्थान पर प्राचीन देवालय और बावड़ी के कुछ अवशेष भी आपको आकर्षित करते हैं। यह मध्य युगीन मंदिरों की स्थापत्य कला की विशेषताओं का लिये हुए हैं। यहाँ स्थित देवालय भी अवलोकनीय है। यह निर्माण ‘काठकुणी’ शैली का परिचायक है। इस देशज शैली में बिना गारे की शुष्क चिनाई और देवदार की धरणियों का प्रयोग हुआ है। अतीत में इस क्षेत्र के वन देवतरू (देवदार) से भरे पड़े थे। अत: देवालय एवं स्थानीय लोगों के आवास गृहों में देवदार का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है। यहां पर एक अन्य मंदिर भी स्थित है जिसको राम मंदिर के रूप में जाना जाता है। इस मंदिर के अंदर राम, सीता और लक्ष्मण की मूर्तियां स्थापित हैं।
           मंदिर परिसर में गर्म पानी का प्राकृतिक स्त्रोत भी है। दर्शन से पहले श्रद्धालु यहां स्नान करते हैं। गर्म पानी में ठंड में भी यहां श्रद्धालु नहाते हैं। प्राकृतिक स्त्रोत को लेकर लोगों की मान्यता है कि इसमें नहाने से चर्म रोगों की समस्या दूर हो जाती है।
  2.
माउंट आबू राजस्थान :-
 महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में उन्होंने अपने भाइयों लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के साथ पढ़ाई की थी। भगवान श्रीराम से जुड़े कई प्रमाण यहां आज भी मौजूद हैं। यहां पहुंचने के लिए 450 सीढ़ियों से नीचे उतरना होता है, यहां साढ़े पांच हजार साल पुराना मंदिर है। इस स्थान की ऊंचाई समुद्रतल से 1206 मीटर यानी 3970 फीट है। भगवान राम के यहां आने के कई सबूत मौजूद हैं। अर्धकाशी कहलाने वाली इस नगरी में भगवान राम की पाठशाला है। इसके साथ ही उनकी लीला से जुड़े कई अन्य स्थल भी हैं।
              महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में प्राचीन रामकुंड स्थित है। इस रामकुंड का वर्णन स्कंद पुराण में भी आता है। यहां भगवान राम रोज सुबह स्नान किया करते थे। बाद में यह रामकुंड के नाम से जाना जाता है। इस कुंड के बारे में खास बात ये है कि इसका पानी लोग आज भी पीते हैं। रामकुंड के पानी के बारे में ये माना जाता है कि ये कई रोगों से मुक्ति दिलाने वाला और मानसिक शांति देने वाला है। रामकुंड का जल विदेशी भी ले जाते हैं। स्थानीय लोगों की इस कुंड और उसके जल के प्रति गहरी आस्था है। लोग इसे भगवान राम का प्रसाद मानते हैं। रामकुंड का पानी कभी भी खराब नहीं होता है, इसलिए जो श्रद्धालु यहां आते हैं वे इसके जल को आदर के साथ अपने साथ जरूर ले जाते हैं और गंगा जल की तरह इसे पूजा में रखते हैं।
गोमुख वशिष्ठ आश्रम
पूर्व में आश्रम के लिए दुर्गम पहाड़ों के मध्य से पैदल, घोड़े, खच्चरों के जरिए आवागमन होता था। १५८९ ईस्वी में दुर्गम पहाड़ों को काटकर २५०५ सीढिय़ां बनाईं गई, उसी दौरान आश्रम के समीप जलस्रोत पर ऋषि की गो कामधेनू की पुत्री नंदिनी की याद में गोमुख बनाया जिससे इसका नाम गोमुख वशिष्ठ आश्रम पड़ा।
         माउंटआबू का गौमुख और वशिष्ठ आश्रम देश ही नहीं विश्व में अपना अलग स्थान रखता है। यह आज भी शिक्षा का केंद्र है, जहां देश-विदेश से बच्चे यहां पढ़ने आते हैं। श्रीराम के बाद यहां आज भी शिक्षा का बहुत अच्छा माहौल है। भगवान श्रीराम के लिए रामचरित मानस में तुलसीदासजी ने लिखा है- गुरु गृह गये पढ़न रघुराई, अल्पकाल विद्या सब पाई, मतलब भगवान श्रीराम ने बहुत कम समय में सभी विद्याएं सीख ली थीं। आज भी यह स्थान और यहां शिक्षा का वातावरण होना गौरव की बात है। राजस्थान के पुष्कर में यज्ञ कराकर उन्होने अनेक क्षत्रियों की उत्पत्ति किया था। 
3.
अयोध्या आश्रम:-
हिमाचल स्थित आश्रम से वे कोशल राज्य में आये थे जहां उन्होंने अपना एक आश्रम और बनाया था। वे ईक्ष्वाकु वंश के राजगुरु बने थे। ऋग्वेद के 7 वें अध्याय में ये बताया गया है कि सर्वप्रथम महर्षि वशिष्ठ ने अपना आश्रम सिंधु नदी के किनारे बसाया था। बाद में इन्होने गंगा और सरयू के किनारे भी अपने आश्रम की स्थापना की।ऋषि वशिष्ठ ने सरयू नदी के किनारे गुरुकुल की स्थापना की थी। जहां पर हजारों राजकुमार और अन्य सामान्य छात्र गुरु वशिष्ठ से शिक्षा प्राप्त करते थे। यही पर राम, लक्षमण, भरत और शत्रुघ्न ने भी शिक्षा अर्जित किया था।
अयोध्या के थाना राम जन्मभूमि से कुछ दूरी पर स्थित इस प्राचीन मंदिर का महत्व अद्भुत है । रामायण अनुसार अयोध्या में 40 एकड़ की ज़मीन पर महर्षि वशिष्ठ का आश्रम था। जो आज के समय में सिर्फ एक चौथाई हिस्सा ही रह गया है। आश्रम में एक कुआँ है जहां से सरयु नदी निकलती है।
          एक समय अयोध्या में सूखा पड़ गया. राजा इक्ष्वाकू ने महर्षि वशिष्ठ से कहा कि आप ही इसका कुछ उपाय निकालिए. तब महर्षि वशिष्ठ ने विशेष यज्ञ किया और यज्ञ के संपन्न होते ही सरयू नदी आश्रम के कुएँ से बहने लगी. आज के समय में सरयू नदी को वाशिष्ठी और इक्श्वाकी के नाम से भी जाना जाता है.
ऐसा कहा जाता है की आश्रम के अन्दर का कुआँ नदी से जुड़ा हुआ है. जो यात्री तीर्थ यात्रा के लिए जाते है वे यहाँ पर इस कुएँ को देखने के लिए भी आते है. महर्षि वशिष्ठ के इस आश्रम को एक संपन्न तीर्थ स्थल माना जाता है.
 पौराणिक मान्यता के अनुसार यह कहा जाता है की मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने अपने तीनों भाइयों के साथ गुरु वशिष्ठ से इस स्थान पर शिक्षा ग्रहण की थी इसी कारण इस प्राचीन मंदिर में वर्ष के 12 महीने श्रद्धालुओं की भीड़ जमा रहती है । वहीं गुरु पूर्णिमा के मौके पर इस प्राचीन मंदिर में
एक विशाल मेले का आयोजन भी किया जाता है जिस में शामिल होने देश के कोने कोने से भक्त श्रद्धालु अयोध्या पहुंचते हैं । ऐसी पौराणिक मान्यता है कि इस स्थान पर स्थापित गुरु वशिष्ट की प्रतिमा का दर्शन पूजन करने से व्यक्ति को ज्ञान और विद्या की प्राप्ति होती है । वहीँ इस मंदिर परिसर में मौजूद पवित्र कुंड के जल से स्नान और आचमन करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है जिसके चलते बड़ी संख्या में भक्त और श्रद्धालु इस प्राचीन मंदिर में दर्शन करने के साथ इस कुण्ड के जल को प्रसाद केरूप में ग्रहण करते हैं ।
        प्रसिद्ध वशिष्ठ कुंड मंदिर में गुरु वशिष्ठ के आश्रय में शिक्षा ग्रहण करते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम भाई लक्ष्मण भरत और शत्रुघ्न की सुंदर प्रतिमा बेहद मनोहारी है और भगवान की प्रतिमा का दर्शन करने के लिए बड़ी संख्या में लोग इस मंदिर परिसर में आते हैं। इस मंदिर में एक खास बात यह भी है इस संगमरमर से बने इस विशाल मंदिर के पिछले हिस्से में उन सभी गुरुओं की प्रतिमा स्थापित है जिन से मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने शिक्षा और दीक्षा ली थी इसके अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमा भी श्रद्धालुओं के विशेष आकर्षण का केंद्र है । हर वर्ष गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु वशिष्ट के इस आश्रम पर एक वृहद मेले का आयोजन होता है जिस में शामिल होने के लिए दूर-दूर से लोग अयोध्या पहुंचते हैं । 
           श्री वशिष्ठ कुंड के विषय मे यह भी पौराणिक मान्यता है कि यह मान्यता है कि भगवान तथा पार्वती जी को श्री वसिष्ठ कुंड के बारे में बताया कि समस्त पापो को नाश करने वाला सुंदर वसिष्ठ कुंड जहाँ पर श्री अरुंधती के साथ तप तपस्वी श्री वशिष्ठ जी कामधेनु की सेवा और सत्कार करते हैं श्री वामदेव जी भी यही वास करते हैं इसी कारण वसिष्ठ कुंड में विधि विधान से स्नान और अन्न वस्त्र दान करके श्री वसिष्ठ जी और श्री वामदेव, अरुंधती की पूजा करनी चाहिये इसकुंड में शास्त्र सम्मत स्नान करने के मनुष्य वशिष्ठ जी के तरह प्रखर ज्ञानवान तथा शक्तिवान होता है। यहाँ पर भगवान विष्णु का पूजन से समस्त पापो का नाश होने से आत्मा शुद्ध होती हैं तथा श्री विष्णु लोक में स्थान मिलता है। यहाँ वर्ष में एक बार भादौ शुक्ल पंचमी एवं आषाढ़ी पूर्णिमा में ये सभी धार्मिक अनुष्ठान को करना शुभ होता है।
4.
गुवाहाटी असम:-
असम के गुवाहाटी में महर्षि वशिष्ठ को समर्पित एक भव्य मंदिर 
वशिष्ठ मंदिर भारत के असम राज्य में गुवाहाटी नगर के दिसपुर उपनगर में स्थित एक हिन्दू मंदिर और आश्रम है। यह आश्रम गुवाहाटी शहर से दक्षिण में असम-मेघालय सीमा के करीब स्थित है और गुवाहाटी का एक प्रमुख पर्यटक आकर्षण है।
 मान्यता है कि इस शिव को समर्पित मंदिर की स्थापना वैदिक काल में महऋषि वशिष्ठ ने करी थी और यहाँ उनका आश्रम था। यह मेघालय की सीमा के समीप है। यहाँ से कई जलधाराएँ आती हैं जिनके किनारे यह मंदिर व आश्रम स्थित है और जो यहाँ से आगे वशिष्ठ नदी और बाहिनी नदी के रूप में नगर की ओर बहती हैं। 
5.
वशिष्ठ गुफा शिवपुरी:-
उत्तराखंड के ऋषिकेश से लगभग 18 किलोमीटर दूर शिवपुरी गंगा के किनारे वशिष्ठ गुफा है। इसे स्थानीय निवासी वशिष्ठ का शीतकालीन निवास मानते हैं। यह गुफा ध्यान के लिये एक प्रमुख स्थान है और यह गूलर के पेड़ो के बीच स्थित है।नज़दीक ही अरुंधति गुफा और शिव मंदिर है। जिसमे भगवान शिव की कई प्राचीन मूर्तियाँ स्थापित हैं।.
6.
अरट्टुपुझा मंदिर केरल,:-
चेरपू दक्षिण भारत में केरल राज्य में त्रिशूर जिले में स्थित अरट्टुपुझा मंदिर के मुख्य देवता भी महर्षि वशिष्ठ ही हैं।
किंवदंतियों के अनुसार, इस मंदिर की प्राचीनता 3000 साल पहले की है। देवमाला मंदिर सबसे प्राचीन और प्रसिद्ध वार्षिक की मेजबानी कर दिया गया है। ऐसा माना जाता है कि अरत्तुपुझा मंदिर के देवता हैं।

उत्तर प्रदेश दिवस के अवसर पर उत्तर प्रदेश का सामान्य परिचय (यूपी 2)

उत्तर प्रदेश दिवस के अवसर पर 
उत्तर प्रदेश का सामान्य परिचय (यूपी 2)
प्रस्तुति डा. राधे श्याम द्विवेदी 
(पिछ्ले ब्लाग के आगे का भाग.....)

उत्तर प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था:-
उत्तर प्रदेश में शिक्षा की एक पुरानी परम्परा रही है, हालांकि ऐतिहासिक रूप से यह मुख्य रूप से कुलीन वर्ग और धार्मिक विद्यालयों तक ही सीमित थी संस्कृत आधारित शिक्षा वैदिक से गुप्त काल तक शिक्षा का प्रमुख हिस्सा थी। जैसे-जैसे विभिन्न संस्कृतियों के लोग इस क्षेत्र में आये, वे अपने-अपने ज्ञान को साथ लाए, और क्षेत्र में पाली, फारसी और अरबी की विद्व्त्ता आयी, जो ब्रिटिश उपनिवेशवाद के उदय तक क्षेत्र में हिंदू-बौद्ध-मुस्लिम शिक्षा का मूल रही। देश के अन्य हिस्सों की ही तरह उत्तर प्रदेश में भी शिक्षा की वर्तमान स्कूल-टू-यूनिवर्सिटी प्रणाली की स्थापना और विकास का श्रेय विदेशी ईसाई मिशनरियों और ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन को जाता है। राज्य में विद्यालयों का प्रबंधन या तो सरकार द्वारा, या निजी ट्रस्टों द्वारा किया जाता है। सीबीएसई या आईसीएसई बोर्ड की परिषद से संबद्ध विद्यालयों को छोड़कर अधिकांश विद्यालयों में हिन्दी ही शिक्षा का माध्यम है।राज्य में १०+२+३ शिक्षा प्रणाली है, जिसके तहत माध्यमिक विद्यालय पूरा करने के बाद, छात्र आमतौर पर दो साल के लिए एक इण्टर कॉलेज या उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद अथवा किसी केंद्रीय बोर्ड से संबद्ध उच्च माध्यमिक विद्यालयों में दाखिला लेते हैं, जहाँ छात्र कला, वाणिज्य या विज्ञान - इन तीन धाराओं में से एक का चयन करते हैं। इण्टर कॉलेज तक की शिक्षा पूरी करने पर, छात्र सामान्य या व्यावसायिक डिग्री कार्यक्रमों में नामांकन कर सकते हैं। दिल्ली पब्लिक स्कूल (नोएडा), ला मार्टिनियर गर्ल्स कॉलेज (लखनऊ), और स्टेप बाय स्टेप स्कूल (नोएडा) समेत उत्तर प्रदेश के कई विद्यालयों को देश के सर्वश्रेष्ठ विद्यालयों में स्थान दिया गया है।
व्यवसायिक शिक्षा :-
लखनऊ में स्थित केन्द्रीय औषधि अनुसंधान संस्थान एक स्वायत्त बहुविषयक अनुसंधान संस्थान है।उत्तर प्रदेश में ४५ से अधिक विश्वविद्यालय हैं,जिसमें ५ केन्द्रीय विश्‍वविद्यालय, २८ राज्य विश्वविद्यालय, ८ मानित विश्वविद्यालय, वाराणसी और कानपुर में २ भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गोरखपुर और रायबरेली में २ अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, लखनऊ में १ भारतीय प्रबन्धन संस्थान, इलाहाबाद में १ राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, इलाहाबाद और लखनऊ में २ भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, लखनऊ में १ राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय और इनके अतिरिक्त कई पॉलिटेक्निक, इंजीनियरिंग कॉलेज और औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान शामिल हैं। राज्य में स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर,भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय) वाराणसी, भारतीय प्रबंध संस्थान, लखनऊ, मोतीलाल नेहरू राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान इलाहाबाद, भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, इलाहाबाद, भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, लखनऊ, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान, विश्वविद्यालय इंजीनियरिंग एवं प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर, किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय, डॉ राम मनोहर लोहिया राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय और हरकोर्ट बटलर प्राविधिक विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों को अपने-अपने क्षेत्रों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और अनुसंधान के लिए विश्व भर में जाना जाता है। ऐसे संस्थानों की उपस्थिति राज्य के छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करती है।
विशेष संस्थान:-
केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान की स्थापना भारतीय संस्कृति मंत्रालय द्वारा एक स्वायत्त संगठन के रूप में की गई थी। जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय केवल विकलांगों के लिए स्थापित विश्व भर में एकमात्र विश्वविद्यालय है।[119] १८८९ में स्थापित भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान पशुचिकित्सा और संबद्ध विधाओं के क्षेत्र में एक उन्नत अनुसंधान सुविधा है। बड़ी संख्या में भारतीय विद्वानों ने उत्तर प्रदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में शिक्षार्जन किया है। राज्य के भौगोलिक क्षेत्र में जन्म लेने, काम करने या अध्ययन करने वाले उल्लेखनीय विद्वानों में हरिवंश राय बच्चन, मोतीलाल नेहरू, हरीश चंद्र और इंदिरा गांधी शामिल हैं।
असीमित संभावनाओं वाला पर्यटन:-
अपनी समृद्ध और विविध स्थलाकृति, जीवंत संस्कृति, त्योहारों, स्मारकों एवं प्राचीन धार्मिक स्थलों व विहारों के कारण ७.१ करोड़ से अधिक घरेलू पर्यटकों के साथ उत्तर प्रदेश भारत के सभी राज्यों में घरेलू पर्यटकों के आगमन में प्रथम स्थान पर है।राज्य में तीन विश्व धरोहर स्थल भी हैं: ताजमहल, आगरा का किला और फतेहपुर सीकरी। उत्तर प्रदेश भारत में एक पसंदीदा पर्यटन स्थल है, मुख्यतः ताजमहल के कारण, जहाँ २०१८-१९ में लगभग ७९ लाख लोगों ने दौरा किया। यह पिछले वर्ष की तुलना में ६% अधिक था, जब यह संख्या ६४ लाख थी। स्मारक ने २०१८-१९ में टिकटों की बिक्री से लगभग ₹७८ करोड़ की कमाई की। पर्यटन उद्योग राज्य की अर्थव्यवस्था में एक प्रमुख योगदानकर्ता है, जो प्रतिवर्ष २१.६०% की दर से बढ़ रहा है।
समृद्धिशाली धार्मिक पर्यटन :-
धार्मिक पर्यटन भी उत्तर प्रदेश पर्यटन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, क्योंकि राज्य में कई हिन्दू मन्दिर हैं। हिन्दू धर्म के सात पवित्रतम नगरों (सप्त पुरियों) में से तीन (अयोध्या, मथुरा व वाराणसी) उत्तर प्रदेश में ही स्थित हैं। वाराणसी हिंदू और जैन धर्म के अनुयायियों के लिए एक प्रमुख धार्मिक केंद्र है। घरेलू पर्यटक यहाँ आमतौर पर धार्मिक उद्देश्यों के लिए आते हैं, जबकि विदेशी पर्यटक गंगा नदी के घाटों पर घूमने के लिए जाते हैं। वृंदावन को वैष्णव सम्प्रदाय का एक पवित्र स्थान माना जाता है। भगवान राम के जन्मस्थान के रूप में प्रसिद्ध अयोध्या महत्वपूर्ण तीर्थ स्थलों में से एक है। गंगा नदी के तट पर राज्य भर में असंख्य धार्मिक स्थल व घाट हैं, जहाँ समय-समय पर मेलों का आयोजन होता रहता है। त्रिवेणी संगम पर लगने वाले माघ मेले में भाग लेने के लिए लाखों लोग इलाहाबाद में एकत्रित होते हैं। यह उत्सव प्रत्येक १२वें वर्ष में बड़े पैमाने पर आयोजित किया जाता है, जब इसे कुम्भ मेला कहा जाता है, और तब १ करोड़ से अधिक हिन्दू तीर्थयात्री इसमें सम्मिलित होने इलाहाबाद आते हैं। गोरखपुर के गोरखनाथ मन्दिर में मकर संक्रान्ति के समय एक माह तक चलने वाला खिचड़ी मेला लगता है। विन्ध्याचल एक अन्य हिंदू तीर्थ स्थल है जहाँ विंध्यवासिनी देवी का मन्दिर स्थित है।
बौद्ध धर्म स्थल :-
उत्तर प्रदेश के बौद्ध आकर्षणों में कई स्तूप और मठ शामिल हैं। सारनाथ एक ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण नगर है, जहां गौतम बुद्ध ने ज्ञान-प्राप्ति के बाद अपना पहला उपदेश दिया था और कुशीनगर वह स्थल है, जहाँ उनकी मृत्यु हो गई थी; दोनों ही बौद्धों के लिए महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल हैं। इसके अतिरिक्त सारनाथ में स्थित अशोकस्तम्भ और अशोक का सिंहचतुर्मुख स्तम्भशीर्ष राष्ट्रीय महत्व की महत्वपूर्ण पुरातात्विक कलाकृतियाँ हैं। वाराणसी से ८० किमी की दूरी पर स्थित गाजीपुर ईस्ट इंडिया कंपनी के बंगाल प्रेसीडेंसी के गवर्नर लॉर्ड कॉर्नवालिस के १८वीं शताब्दी के मकबरे के लिए जाना जाता है, जिसका रखरखाव भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा किया जाता है। राज्य में एक राष्ट्रीय उद्यान तथा २५ वन्यजीव अभयारण्य हैं। ओखला पक्षी अभयारण्य को ३०० से अधिक पक्षी प्रजातियों के लिए एक आश्रय स्थल के रूप में जाना जाता है, जिनमें से १६० पक्षी प्रजातियां प्रवासी हैं, जो तिब्बत, यूरोप व साइबेरिया से यात्रा करती हैं। एटा जिले में स्थित पटना पक्षी अभयारण्य भी एक प्रमुख पर्यटक आकर्षण है।
उत्कृष्ट हिंदी साहित्य :-
हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में उत्तर प्रदेश का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। साहित्य और भारतीय रक्षा सेवायेँ, दो ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें उत्तर प्रदेश निवासी गर्व कर सकते हैं। गोस्वामी तुलसीदास, कबीरदास, सूरदास से लेकर भारतेंदु हरिश्चंद्र, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य राम चन्द्र शुक्ल, मुँशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानन्दन पन्त, मैथलीशरण गुप्त, सोहन लाल द्विवेदी, हरिवंशराय बच्चन, महादेवी वर्मा, राही मासूम रजा, अज्ञेय जैसे इतने महान कवि और लेखक हुए हैं उत्तर प्रदेश में कि पूरा पन्ना ही भर जाये। उर्दू साहित्य में भी बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान रहा है उत्तर प्रदेश का। फिराक़, जोश मलीहाबादी, अकबर इलाहाबादी, नज़ीर, वसीम बरेलवी, चकबस्त जैसे अनगिनत शायर उत्तर प्रदेश ही नहीं वरन देश की शान रहे हैं। हिंदी साहित्य का क्षेत्र बहुत ही व्यापक रहा है और लुगदी साहित्य भी यहाँ खूब पढ़ा जाता है।
स्मृद्धिशील संगीत :-
संगीत उत्तर प्रदेश के व्यक्ति के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह तीन प्रकार में बांटा जा सकता है
1- पारम्परिक संगीत एवं लोक संगीत : यह संगीत और गीत पारम्परिक मौकों शादी विवाह, होली, त्योहारों आदि समय पर गाया जाता है
2- शास्त्रीय संगीत : उत्तर प्रदेश में उत्कृष्ट गायन और वादन की परम्परा रही है।
3- हिन्दी फ़िल्मी संगीत एवं भोजपुरी पॉप संगीत : इस प्रकार का संगीत उत्तर प्रदेश में सबसे लोकप्रिय।
कथक कला :-
कथक उत्तर प्रदेश का एक परिष्कृत शास्त्रीय नृत्य है जो कि हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के साथ किया जाता है। कथक नाम 'कथा' शब्द से बना है, इस नृत्य में नर्तक किसी कहानी या संवाद को नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करता है। कथक नृत्य का प्रारम्भ 6-7 वीं शताब्दी में उत्तर भारत में हुआ था। प्राचीन समय में यह एक धार्मिक नृत्य हुआ करता था जिसमें नर्तक महाकाव्य गाते थे और अभिनय करते थे। 13 वी शताब्दी तक आते-आते कथक सौन्दर्यपरक हो गया तथा नृत्य में सूक्ष्म अभिनय एवं मुद्राओं पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा। कथक में सूक्ष्म मुद्राओं के साथ ठुमरी गायन पर तबले और पखावज के साथ ताल मिलाते हुए नृत्य किया जाता है। कथक नृत्य के प्रमुख कलाकार पन्डित बिरजू महाराज हैं। फरी नृत्य, जांघिया नृत्य, पंवरिया नृत्य, कहरवा, जोगिरा, निर्गुन, कजरी, सोहर, चइता गायन उत्तर प्रदेश की लोकसंस्कृतियाँ हैं। लोकरंग सांस्कृतिक समिति इन संस्कृतियों संवर्द्धन, संरक्षण के लिए कार्यरत है।
हस्त शिल्प कला:-
फिरोजाबाद की चूड़ियाँ, सहारनपुर का काष्ठ शिल्प, पिलखुवा की हैण्ड ब्लाक प्रिण्ट की चादरें, वाराणसी की साड़ियाँ तथा रेशम व ज़री का काम, लखनऊ का कपड़ों पर चिकन की कढ़ाई का काम, रामपुर का पैचवर्क, मुरादाबाद के पीतल के बर्तन औरंगाबाद का टेराकोटा, मेरठ की कैंची आदि। जौनपुर की बेनी साव की इमरती और मूली।
हिन्दी भाषा की जन्मस्थली :-
उत्तर प्रदेश भारत की राजकीय भाषा हिन्दी की जन्मस्थली है। शताब्दियों के दौरान हिन्दी के कई स्थानीय स्वरूप विकसित हुए हैं। साहित्यिक हिन्दी ने 19वीं शताब्दी तक खड़ी बोली का वर्तमान स्वरूप (हिन्दुस्तानी) धारण नहीं किया था। वाराणसी के भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (1850-1885 ई.) उन अग्रणी लेखकों में से थे, जिन्होंने हिन्दी के इस स्वरूप का इस्तेमाल साहित्यिक माध्यम के तौर पर किया था।
सांस्कृतिक जीवन :-
उत्तर प्रदेश हिन्दुओं की प्राचीन सभ्यता का उदगम स्थल है। वैदिक साहित्य मन्त्र, ब्राह्मण, श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रौं, आदि महाकाव्य-वाल्मीकि रामायण, और महाभारत (जिसमें श्रीमद् भगवद्गीता शामिल है) अष्टादश पुराणों के उल्लेखनीय हिस्सों का मूल यहाँ के कई आश्रमों में जीवन्त है। बौद्ध-हिन्दू काल (लगभग 600 ई. पू.-1200 ई.) के ग्रन्थों व वास्तुशिल्प ने भारतीय सांस्कृतिक विरासत में बड़ा योगदान दिया है। 1947 के बाद से भारत सरकार का चिह्न मौर्य सम्राट अशोक के द्वारा बनवाए गए चार सिंह युक्त स्तम्भ (वाराणसी के निकट सारनाथ में स्थित) पर आधारित है। वास्तुशिल्प, चित्रकारी, संगीत, नृत्यकला और दो भाषाएँ (हिन्दी व उर्दू) मुग़ल काल के दौरान यहाँ पर फली-फूली। इस काल के चित्रों में सामान्यतः धार्मिक व ऐतिहासिक ग्रन्थों का चित्रण है। यद्यपि साहित्य व संगीत का उल्लेख प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में किया गया है और माना जाता है कि गुप्त काल (लगभग 320-540) में संगीत समृद्ध हुआ। संगीत परम्परा का अधिकांश हिस्सा इस काल के दौरान उत्तर प्रदेश में विकसित हुआ। तानसेन व बैजू बावरा जैसे संगीतज्ञ मुग़ल शहंशाह अकबर के दरबार में थे, जो राज्य व समूचे देश में आज भी विख्यात हैं। भारतीय संगीत के दो सर्वाधिक प्रसिद्ध वाद्य सितार (वीणा परिवार का तंतु वाद्य) और तबले का विकास इसी काल के दौरान इस क्षेत्र में हुआ। 18वीं शताब्दी में उत्तर प्रदेश में वृन्दावन व मथुरा के मन्दिरों में भक्तिपूर्ण नृत्य के तौर पर विकसित शास्त्रीय नृत्य शैली कथक उत्तरी भारत की शास्त्रीय नृत्य शैलियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों के स्थानीय गीत व नृत्य भी हैं। सबसे प्रसिद्ध लोकगीत मौसमों पर आधारित हैं।
विविध पर्व और त्योहार :-
उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहाँ समय समय पर सभी धर्मों के त्योहार मनाये जाते हैं-
अयोध्या-रामनवमी मेला,राम विवाह,सावन झूला मेला, कार्तिक पूर्णिमा मेला लगता है। प्रयागराज में प्रत्येक बारहवें वर्ष में कुंभ मेला आयोजित किया जाता है। इसके अतिरिक्त प्रयागराज में प्रत्येक 6 साल बाद अर्द्ध कुंभ मेले का आयोजन भी किया जाता है। प्रयागराज में ही प्रत्येक वर्ष जनवरी माह में माघ मेला भी आयोजित किया जाता है, जहां बडी संख्या में लोग संगम में नहाते हैं। दीपावली पर चित्रकूट में दीपदान करने की विशेष मान्यता है। धनतेरस के दिन से शुरू होने वाले दीपमालिका मेले में शामिल होने के लिए देशभर से लाखों श्रद्धालु आते हैं और पवित्र मंदाकिनी नदी में डुबकी लगाते हैं। चित्रकूट भारत के सबसे प्राचीन तीर्थस्थलों में से एक है। यह स्थान जितना शांत है उतना ही आकर्षक भी। प्रकृति और ईश्वर की अनुपम रचना के सुंदर और एक से बढ़कर एक दृश्य यहां देखने मिलते हैं।
अन्य मेलों में मथुरा, वृन्दावन में अनेक पर्वों के मेले और झूला मेले लगते हैं, जिनमें प्रभु की प्रतिमाओं को सोने एवं चाँदी के झूलों में रखकर झुलाया जाता है। ये झूला मेले लगभग एक पखवाडे तक चलते हैं। कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर गंगा नदी में डुबकी लगाना पवित्र माना जाता है और इसके लिए गढ़मुक्तेश्वर, सोरों शूकरक्षेत्र का मार्गशीर्ष मेला, राजघाट, बिठूर, कानपुर, प्रयागराज, वाराणसी में बडी संख्या में लोग एकत्रित होते हैं।आगरा ज़िले के बटेश्वर कस्बे में पशुओं का प्रसिद्ध मेला लगता है। बाराबंकी ज़िले का देवा मेला मुस्लिम संत वारिस अली शाह के कारण काफ़ी प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त यहाँ हिन्दू तथा मुस्लिमों के सभी प्रमुख त्योहारों को पूरे राज्य में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
राष्ट्रीय रामायण मेला इलाहाबाद जिले में गंगा नदी के तट पर श्रृंगवेरपुर में कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी से पूर्णिमा तक हर वर्ष आयोजित किया जाता है। यह वही स्थान है जहाँ त्रेतायुग में निषाद राज ने प्रभु श्रीराम को वनवास जाते समय गंगा नदी पार कराई।

Sunday, January 23, 2022

उत्तर प्रदेश दिवस के अवसर पर उत्तर प्रदेश का सामान्य परिचय (यूपी 1)

उत्तर प्रदेश दिवस के अवसर पर 
उत्तर प्रदेश का सामान्य परिचय (यूपी 1)
प्रस्तुति डा. राधे श्याम द्विवेदी
       उत्तर प्रदेश दिवस को यूपी दिवस भी कहा जाता है। 24जनवरी 1950 को यूनाइटेड प्राविंस से नाम हटाकर उत्तर प्रदेश दिवस किया गया है। मई 2017को यूपी के महामहिम राज्यपाल श्री राम नाइक ने इसे प्रशासनिक रूप मे मनाने की अनुशंसा दी है। उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्यपाल राम नाईक की पहल पर 2018 से 24 जनवरी को उत्तर प्रदेश दिवस मनाया जाता है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सोमवार को एक वीडियो संदेश जारी कर प्रदेश की जनता को सूबे के 73वें स्थापना दिवस पर बधाई दी है।

उत्तर प्रदेश भारत का सबसे बड़ा (जनसंख्या के आधार पर) राज्य है। लखनऊ प्रदेश प्रशासनिक राजधानी है और प्रयागराज न्यायिक राजधानी है। आगरा, अयोध्या, कानपुर, झाँसी, बरेली, मेरठ, वाराणसी, गोरखपुर, मथुरा, मुरादाबाद तथा आज़मगढ़ प्रदेश के अन्य महत्त्वपूर्ण शहर हैं। राज्य के उत्तर में उत्तराखण्ड तथा हिमाचल प्रदेश, पश्चिम में हरियाणा, दिल्ली तथा राजस्थान, दक्षिण में मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ और पूर्व में बिहार तथा झारखंड राज्य स्थित हैं। इनके अतिरिक्त राज्य की की पूर्वोत्तर दिशा में नेपाल देश है।9 नवम्बर 2000 में भारतीय संसद ने उत्तर प्रदेश के उत्तर पश्चिमी (मुख्यतः पहाड़ी) भाग से उत्तरांचल (वर्तमान में उत्तराखंड) राज्य का निर्माण किया। 
उत्तर प्रदेश की अवस्थिति :-
उत्तर प्रदेश भारत के उत्तर में स्थित है। यह राज्य उत्तर में नेपाल व उत्तराखण्ड, दक्षिण में मध्य प्रदेश, पश्चिम में हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान तथा पूर्व में बिहार तथा दक्षिण-पूर्व में झारखण्ड व छत्तीसगढ़ से घिरा हुआ है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ है। यह राज्य 2,38,566 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैला हुआ है। यहाँ का मुख्य न्यायालय प्रयागराज में है। कानपुर, झाँसी, बाँदा, हमीरपुर, चित्रकूट, जालौन, जौनपुर ,महोबा, ललितपुर, लखीमपुर खीरी, वाराणसी, गाजीपुर, प्रयागराज, मेरठ, गोरखपुर, नोएडा, मथुरा, मुरादाबाद, गाजियाबाद, अलीगढ़, सुल्तानपुर, अयोध्या, बरेली, बदायूँ, आज़मगढ़, मऊ, बलिया, मुज़फ़्फ़रनगर, सहारनपुर यहाँ के मुख्य नगर हैं।
इतिहास :-
उत्तर प्रदेश का ज्ञात इतिहास लगभग 4000 वर्ष पुराना है, जब आर्यों ने अपना पहला कदम इस जगह पर रखा। इस समय वैदिक सभ्यता का प्रारम्भ हुआ और उत्तर प्रदेश में इसका जन्म हुआ। आर्यों का फैलाव सिन्धु नदी और सतलुज के मैदानी भागों से यमुना और गंगा के मैदानी क्षेत्र की ओर हुआ। आर्यों ने दोआब (दो-आब, यमुना और गंगा का मैदानी भाग) और घाघरा नदी क्षेत्र को अपना घर बनाया। इन्हीं आर्यों के नाम पर भारत देश का नाम आर्यावर्त या भारतवर्ष (भारत आर्यों के एक प्रमुख राजा थे) पड़ा। समय के साथ आर्य भारत के दूरस्थ भागों में फ़ैल गये। संसार के प्राचीनतम नगरों में से एक माना जाने वाला वाराणसी नगर यहीं पर स्थित है। वाराणसी के पास स्थित सारनाथ का चौखण्डी स्तूप भगवान बुद्ध के प्रथम प्रवचन की याद दिलाता है। समय के साथ यह क्षेत्र छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया या फिर बड़े साम्राज्यों, गुप्त, मोर्य और कुषाण का हिस्सा बन गया। 7वीं शताब्दी से 11वी शताब्दी तक कन्नौज गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का प्रमुख केन्द्र था।
हिन्दू धर्म की प्रधानता:-
उत्तर प्रदेश हिन्दू धर्म का प्रमुख स्थल रहा। प्रयाग के कुम्भ का महत्त्व पुराणों में वर्णित है। त्रेतायुग में विष्णु अवतार श्री रामचन्द्र जी ने अयोध्या में (जो अभी अयोध्या जनपद में स्थित है) में जन्म लिया। राम भगवान का चौदह वर्ष के वनवास में प्रयाग, चित्रकूट, श्रंगवेरपुर आदि का महत्त्व है। भगवान कृष्णा का जन्म मथुरा में और पुराणों के अनुसार विष्णु के दसम अवतार का कलयुग में अवतरण भी उत्तर प्रदेश में ही वर्णित है। काशी (वाराणसी) में विश्वनाथ मन्दिर के शिवलिंग का सनातन धर्म विशेष महत्त्व रहा है। सनातन धर्म के प्रमुख ऋषि रामायण रचयिता महर्षि वाल्मीकि जी, रामचरित मानस रचयिता गोस्वामी तुलसीदास जी (जन्म - राजापुर चित्रकूट), महर्षि भरद्वाज जी।
बौद्ध धर्म खूब फला फूला:-
सातवीं शताब्दी ई॰पू॰ के अन्त से भारत और उत्तर प्रदेश का व्यवस्थित इतिहास आरम्भ होता है, जब उत्तरी भारत में 16 महाजनपद श्रेष्ठता की दौड़ में शामिल थे, इनमें से सात वर्तमान उत्तर प्रदेश की सीमा के अंतर्गत थे। बुद्ध ने अपना पहला उपदेश वाराणसी (बनारस) के निकट सारनाथ में दिया और एक ऐसे धर्म की नींव रखी, जो न केवल भारत में, बल्कि चीन व जापान जैसे सुदूर देशों तक भी फैला। कहा जाता है कि बुद्ध को कुशीनगर में परिनिर्वाण (शरीर से मुक्त होने पर आत्मा की मुक्ति) प्राप्त हुआ था, जो पूर्वी ज़िले कुशीनगर में स्थित है। पाँचवीं शताब्दी ई. पू. से छठी शताब्दी ई॰ तक उत्तर प्रदेश अपनी वर्तमान सीमा से बाहर केन्द्रित शक्तियों के नियंत्रण में रहा, पहले मगध, जो वर्तमान बिहार राज्य में स्थित था और बाद में उज्जैन, जो वर्तमान मध्य प्रदेश राज्य में स्थित है। इस राज्य पर शासन कर चुके इस काल के महान शासकों में चक्रवर्ती सम्राट महापद्मनंद और उसके बाद उनके पुत्र चक्रवर्ती सम्राट धनानंद जो नाई समाज से थे। सम्राट महापद्मानंद और धनानंद के समय मगध विश्व का सबसे अमीर और बड़ी सेना वाला साम्राज्य हुआ करता था।[चन्द्रगुप्त प्रथम ] (शासनकाल लगभग 330-380 ई॰) व अशोक (शासनकाल लगभग 268 या 265-238), जो मौर्य सम्राट थे और समुद्रगुप्त (लगभग 330-380 ई॰) और चन्द्रगुप्त द्वितीय हैं (लगभग 380-415 ई., जिन्हें कुछ विद्वान विक्रमादित्य मानते हैं)। एक अन्य प्रसिद्ध शासक हर्षवर्धन (शासनकाल 606-647) थे। जिन्होंने कान्यकुब्ज (आधुनिक कन्नौज के निकट) स्थित अपनी राजधानी से समूचे उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, पंजाब और राजस्थानके कुछ हिस्सों पर शासन किया। इस काल के दौरान बौद्ध संस्कृति, का उत्कर्ष हुआ। अशोक के शासनकाल के दौरान बौद्ध कला के स्थापत्य व वास्तुशिल्प प्रतीक अपने चरम पर पहुँचे।
गुप्त काल में हिंदू कला का भी अधिकतम विकास:-
 गुप्त काल (लगभग 320-550) के दौरान हिन्दू कला का भी अधिकतम विकास हुआ। लगभग 647 ई॰ में हर्ष की मृत्यु के बाद हिन्दूवाद के पुनरुत्थान के साथ ही बौद्ध धर्म का धीरे-धीरे पतन हो गया। इस पुनरुत्थान के प्रमुख रचयिता दक्षिण भारत में जन्मे शंकर थे, जो वाराणसी पहुँचे, उन्होंने उत्तर प्रदेश के मैदानों की यात्रा की और हिमालय में बद्रीनाथ में प्रसिद्ध मन्दिर की स्थापना की। इसे हिन्दू मतावलम्बी चौथा एवं अन्तिम मठ (हिन्दू संस्कृति का केन्द्र) मानते हैं।
मुस्लिम काल का दौर:-
इस क्षेत्र में हालाँकि 1000-1030 ई. तक मुसलमानों का आगमन हो चुका था, किन्तु उत्तरी भारत में 12वीं शताब्दी के अन्तिम दशक के बाद ही मुस्लिम शासन स्थापित हुआ, जब मुहम्मद ग़ोरी ने गहड़वालों (जिनका उत्तर प्रदेश पर शासन था) और अन्य प्रतिस्पर्धी वंशों को हराया था। लगभग 650 वर्षों तक अधिकांश भारत की तरह उत्तर प्रदेश पर भी किसी न किसी मुस्लिम वंश का शासन रहा, जिनका केन्द्र दिल्ली या उसके आसपास था। 1526 ई. में बाबर ने दिल्ली के सुलतान इब्राहीम लोदी को हराया और सर्वाधिक सफल मुस्लिम वंश, मुग़ल वंश की नींव रखी। इस साम्राज्य ने 350 वर्षों से भी अधिक समय तक उपमहाद्वीप पर शासन किया। इस साम्राज्य का महानतम काल अकबर (शासनकाल 1556-1605 ई.) से लेकर औरंगजेब आलमगीर (1707) का काल था, जिन्होंने आगरा के पास नई शाही राजधानी फ़तेहपुर सीकरी का निर्माण किया। उनके पोते शाहजहाँ (शासनकाल 1628-1658 ई.) ने आगरा में ताजमहल (अपनी बेगम की याद में बनवाया गया मकबरा, जो प्रसव के दौरान चल बसी थीं) बनवाया, जो विश्व के महानतम वास्तुशिल्पीय नमूनों में से एक है। शाहजहाँ ने आगरा व दिल्ली में भी वास्तुशिल्प की दृष्टि से कई महत्त्वपूर्ण इमारतें बनवाईं थीं।
सुलहकुल एक सर्व धर्म समभाव संस्कृति:-
उत्तर प्रदेश में केन्द्रित मुग़ल साम्राज्य ने एक नई मिश्रित संस्कृति के विकास को प्रोत्साहित किया। अकबर इसके प्रतिपादक थे, जिन्होंने बिना किसी भेदभाव के अपने दरबार में वास्तुशिल्प, साहित्य, चित्रकला और संगीत विशेषज्ञों को नियुक्त किया था। भारत के विभिन्न मत और इस्लाम के मेल ने कई नए मतों का विकास किया, जो भारत की विभिन्न जातियों के बीच साधारण सहमति प्रस्थापित करना चाहते थे। भक्ति आन्दोलन के संस्थापक रामानन्द (लगभग 1400-1470 ई॰) का प्रतिपादन था कि, किसी व्यक्ती की मुक्ति ‘लिंग’ या ‘जाति’ पर आश्रित नहीं होती। सभी धर्मों के बीच अनिवार्य एकता की शिक्षा देने वाले कबीर ने उत्तर प्रदेश में मौजूद धार्मिक असहिष्णुता के विरुद्ध अपनी लड़ाई केन्द्रित की। 18वीं शताब्दी में मुग़लों के पतन के साथ ही इस मिश्रित संस्कृति का केन्द्र दिल्ली से लखनऊ चला गया, जो अवध के नवाब के अन्तर्गत था और जहाँ साम्प्रदायिक सद्भाव के वातावरण में कला, साहित्य, संगीत और काव्य का उत्कर्ष हुआ।
ब्रिटिश काल :-
लगभग 75 वर्ष की अवधि में उत्तर प्रदेश के क्षेत्र का ईस्ट इण्डिया कम्पनी (ब्रिटिश व्यापारिक कम्पनी) ने धीरे-धीरे अधिग्रहण किया। विभिन्न उत्तर भारतीय वंशों 1775, 1798 और 1801 में नवाबों, 1803 में सिन्धिया और 1816 में गोरखों से छीने गए प्रदेशों को पहले बंगाल प्रेज़िडेन्सी के अन्तर्गत रखा गया, लेकिन 1833 में इन्हें अलग करके पश्चिमोत्तर प्रान्त (आरम्भ में आगरा प्रेज़िडेन्सी कहलाता था) गठित किया गया। 1856 ई. में कम्पनी ने अवध पर अधिकार कर लिया और आगरा एवं अवध संयुक्त प्रान्त (वर्तमान उत्तर प्रदेश की सीमा के समरूप) के नाम से इसे 1877 ई॰ में पश्चिमोत्तर प्रान्त में मिला लिया गया। 1902 ई॰ में इसका नाम बदलकर संयुक्त प्रान्त कर दिया गया। 24जनवरी 1950 ई. को यूनाइटेड प्रविंस (संयुक्त प्रान्त) से बदलकर उत्तर प्रदेश कर दिया गया है।
स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत :-
1857-1859 ई. के बीच ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध हुआ विद्रोह मुख्यत: पश्चिमोत्तर प्रान्त तक सीमित था। 10 मई 1857 ई. को मेरठ में सैनिकों के बीच भड़का विद्रोह कुछ ही महीनों में 25 से भी अधिक शहरों में फैल गया। 18 57 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण रही। उन्होंने अंग्रेजों से डटकर मुकाबला किया और ब्रिटिश सेना के छक्के छुड़ा दिए। 1858 ई॰ में विद्रोह के दमन के बाद पश्चिमोत्तर और शेष ब्रिटिश भारत का प्रशासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी से ब्रिटिश ताज को हस्तान्तरित कर दिया गया। 1880 ई. के उत्तरार्द्ध में भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के साथ संयुक्त प्रान्त स्वतन्त्रता आन्दोलन में अग्रणी रहा। प्रदेश ने भारत को मोतीलाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू और पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे महत्त्वपूर्ण राष्ट्रवादी राजनीतिक नेता दिए। 1922 में भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने के लिए किया गया महात्मा गांधी का असहयोग आन्दोलन पूरे संयुक्त प्रान्त में फैल गया, लेकिन चौरी चौरा गाँव (प्रान्त के पूर्वी भाग में) में हुई हिंसा के कारण महात्मा गांधी ने अस्थायी तौर पर आन्दोलन को रोक दिया। संयुक्त प्रान्त मुस्लिम लीग की राजनीति का भी केन्द्र रहा। ब्रिटिश काल के दौरान रेलवे, नहर और प्रान्त के भीतर ही संचार के साधनों का व्यापक विकास हुआ। अंग्रेज़ों ने यहाँ आधुनिक शिक्षा को भी बढ़ावा दिया और यहाँ पर लखनऊ विश्वविद्यालय (1921 में स्थापित) जैसे विश्वविद्यालय व कई महाविद्यालय स्थापित किए।
सन 1857 में अंग्रेजी फौज के भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह एक साल तक चला और अधिकतर उत्तर भारत में फ़ैल गया। इसे भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा गया। इस विद्रोह का प्रारम्भ मेरठ शहर में हुआ। इस का कारण अंग्रेजों द्वारा गाय और सुअर की चर्बी से युक्त कारतूस देना बताया गया। इस संग्राम का एक प्रमुख कारण डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति भी थी। यह लड़ाई मुख्यतः दिल्ली,लखनऊ,कानपुर,झाँसी और बरेली में लड़ी गयी। इस लड़ाई में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, अवध की बेगम हज़रत महल, बख्त खान, नाना साहेब, राजा बेनी माधव सिंह और अनेक देशभक्तों ने भाग लिया।
यूनाइटेड प्रोविन्स ऑफ आगरा एण्ड अवध नाम मिला:-
सन 1902 में नार्थ वेस्ट प्रोविन्स का नाम बदल कर यूनाइटेड प्रोविन्स ऑफ आगरा एण्ड अवध कर दिया गया। साधारण बोलचाल की भाषा में इसे यूपी कहा गया। सन् 1920 में प्रदेश की राजधानी को प्रयागराज से लखनऊ कर दिया गया। प्रदेश का उच्च न्यायालय प्रयागराज ही बना रहा और लखनऊ में उच्च न्यायालय की एक न्यायपीठ स्थापित की गयी।
स्वतन्त्रता पश्चात का काल :-
1947 में संयुक्त प्रान्त नव स्वतन्त्र भारतीय गणराज्य की एक प्रशासनिक इकाई बना। दो साल बाद इसकी सीमा के अन्तर्गत स्थित, टिहरी गढ़वाल और रामपुर के स्वायत्त राज्यों को संयुक्त प्रान्त में शामिल कर लिया गया। 1950 में नए संविधान के लागू होने के साथ ही 24 जनवरी सन 1950 को इस संयुक्त प्रान्त का नाम उत्तर प्रदेश रखा गया और यह भारतीय संघ का राज्य बना। स्वतंत्रता के बाद से भारत में इस राज्य की प्रमुख भूमिका रही है। इसने देश को जवाहर लाल नेहरू और उनकी पुत्री इंदिरा गांधी सहित कई प्रधानमंत्री, सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक आचार्य नरेन्द्र देव, जैसे प्रमुख राष्ट्रीय विपक्षी (अल्पसंख्यक) दलों के नेता और भारतीय जनसंघ, बाद में भारतीय जनता पार्टी व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता दिए हैं। राज्य की राजनीति, हालाँकि विभाजनकारी रही है और कम ही मुख्यमंत्रियों ने पाँच वर्ष की अवधि पूरी की है। गोविंद वल्लभ पंत इस प्रदेश के प्रथम मुख्य मन्त्री बने। अक्टूबर १९६३ में सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश एवम भारत की प्रथम महिला मुख्य मन्त्री बनीं।
उत्तराखण्ड का गठन;-
सन २००० में पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र स्थित गढ़वाल और कुमाऊँ मण्डल को मिला कर एक नये राज्य उत्तरांचल का गठन किया गया जिसका नाम बाद में बदल कर 2007 में उत्तराखण्ड कर दिया गया है।
उत्तर प्रदेश से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण तथ्य :-
सम्भागोँ की संख्या- 18
जिलोँ की संख्या- 75
तहसीलोँ की संख्या- 351 (2020 में)
विश्वविद्यालयोँ की संख्या- ५५
विधानमण्डल- द्विसदनात्मक
विधान सभा सदस्योँ की संख्या- 403+1 (एंग्लोइँडियन) = 404
विधान परिषद सदस्योँ की संख्या- 99+1 (एंग्लोइँडियन) = 100
लोकसभा सदस्योँ की संख्या- 80
राज्यसभा सदस्योँ की संख्या- 31
उच्च न्यायालय- प्रयागराज (खण्डपीठ- लखनऊ)
भाषा- हिन्दी (उर्दू दूसरी राजभाषा 1989 से)
राजकीय पक्षी- सारस या क्रौँच
राजकीय पेड़- अशोक
राजकीय पुष्प- पलाश या टेंसू
राजकीय चिन्ह- एक वृत्त में 2 मछली एवँ तीर कमान 1938 से स्वीकृत
स्थापना दिवस- 1 नवंबर 1956हुआ। 
उत्तर प्रदेश का भूगोल 
उत्तर प्रदेश भारत के उत्तर पूर्वी भाग में स्थित है। प्रदेश के उत्तरी एवम पूर्वी भाग की तरफ़ पहाड़ तथा पश्चिमी एवम मध्य भाग में मैदान हैं। उत्तर प्रदेश को मुख्यतः तीन क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है।
उत्तर में हिमालय का - यह् क्षेत्र बहुत ही ऊँचा-नीचा और प्रतिकूल भू-भाग है। यह क्षेत्र अब उत्तरांचल के अन्तर्गत आता है। इस क्षेत्र की स्थलाकृति बदलाव युक्त है। समुद्र तल से इसकी ऊँचाई ३०० से ५००० मीटर तथा ढलान १५० से ६०० मीटर/किलोमीटर है।
मध्य में गंगा का मैदानी भाग - यह क्षेत्र अत्यन्त ही उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी का क्षेत्र है। इसकी स्थलाकृति सपाट है। इस क्षेत्र में अनेक तालाब, झीलें और नदियाँ हैं। इसका ढलान २ मीटर/किलोमीटर है।
दक्षिण का विन्ध्याचल क्षेत्र - यह एक पठारी क्षेत्र है, तथा इसकी स्थलाकृति पहाड़ों, मैंदानों और घाटियों से घिरी हुई है। इस क्षेत्र में पानी कम मात्रा में उप्लब्ध है।
यहाँ की जलवायु मुख्यतः उष्णदेशीय मानसून की है परन्तु समुद्र तल से ऊँचाई बदलने के साथ इसमें परिवर्तन होता है। उत्तर प्रदेश ८ राज्यों - उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, बिहार से घिरा राज्य है
भूगोलीय तत्व 
उत्तर प्रदेश के प्रमुख भूगोलीय तत्व इस प्रकार से हैं-
भूमि -
भू-आकृति - उत्तर प्रदेश को दो विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्रों, गंगा के मध्यवर्ती मैदान और दक्षिणी उच्चभूमि में बाँटा जा सकता है। उत्तर प्रदेश के कुल क्षेत्रफल का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा गंगा के मैदान में है। मैदान अधिकांशत: गंगा व उसकी सहायक नदियों के द्वारा लाए गए जलोढ़ अवसादों से बने हैं। इस क्षेत्र के अधिकांश हिस्सों में उतार-चढ़ाव नहीं है, यद्यपि मैदान बहुत उपजाऊ है, लेकिन इनकी ऊँचाई में कुछ भिन्नता है, जो पश्चिमोत्तर में 305 मीटर और सुदूर पूर्व में 58 मीटर है। गंगा के मैदान की दक्षिणी उच्चभूमि अत्यधिक विच्छेदित और विषम विंध्य पर्वतमाला का एक भाग है, जो सामान्यत: दक्षिण-पूर्व की ओर उठती चली जाती है। यहाँ ऊँचाई कहीं-कहीं ही 305 से अधिक होती है।
नदियाँ:-
उत्तर प्रदेश में अनेक नदियाँ है जिनमें गंगा, यमुना, बेतवा, केन, चम्बल, घाघरा, गोमती, सोन आदि मुख्य है। प्रदेश के विभिन्न भागों में प्रवाहित होने वाली इन नदियों के उदगम स्थान भी भिन्न-भिन्न है, अतः इनके उदगम स्थलों के आधार पर इन्हें निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है।
हिमालय पर्वत से निकलने वाली नदियाँ गंगा के मैदानी भाग से निकलने वाली नदियाँ दक्षिणी पठार से निकलने वाली नदियाँ हैं बेतवा, केन, चम्बल आदि प्रमुख हैं
झील:-
उत्तर प्रदेश में झीलों का अभाव है। यहाँ की अधिकांश झीलें कुमाऊँ क्षेत्र में हैं जो कि प्रमुखतः भूगर्भीय शक्तियों के द्वारा भूमि के धरातल में परिवर्तन हो जाने के परिणामस्वरूप निर्मित हुई हैं।
नहर:-
नहरों के वितरण एवं विस्तार की दृष्टि से उत्तर प्रदेश का अग्रणीय स्थान है। यहाँ की कुल सिंचित भूमि का लगभग 30 प्रतिशत भाग नहरों के द्वारा सिंचित होता है। यहाँ की नहरें भारत की प्राचीनतम नहरों में से एक हैं।
अपवाह:-
यह राज्य उत्तर में हिमालय और दक्षिण में विंध्य पर्वतमाला से उदगमित नदियों के द्वारा भली-भाँति अपवाहित है। गंगा एवं उसकी सहायक नदियों, यमुना नदी, रामगंगा नदी, गोमती नदी, घाघरा नदी और गंडक नदी को हिमालय के हिम से लगातार पानी मिलता रहता है। विंध्य श्रेणी से निकलने वाली चंबल नदी, बेतवा नदी और केन नदी यमुना नदी में मिलने से पहले राज्य के दक्षिण-पश्चिमी हिस्से में बहती है। विंध्य श्रेणी से ही निकलने वाली सोन नदी राज्य के दक्षिण-पूर्वी भाग में बहती है और राज्य की सीमा से बाहर बिहार में गंगा नदी से मिलती है।
मृदा:-
उत्तर प्रदेश के क्षेत्रफल का लगभग दो-तिहाई भाग गंगा तंत्र की धीमी गति से बहने वाली नदियों द्वारा लाई गई जलोढ़ मिट्टी की गहरी परत से ढंका है। अत्यधिक उपजाऊ यह जलोढ़ मिट्टी कहीं रेतीली है, तो कहीं चिकनी दोमट। राज्य के दक्षिणी भाग की मिट्टी सामान्यतया मिश्रित लाल और काली या लाल से लेकर पीली है। राज्य के पश्चिमोत्तर क्षेत्र में मृदा कंकरीली से लेकर उर्वर दोमट तक है, जो महीन रेत और ह्यूमस मिश्रित है, जिसके कारण कुछ क्षेत्रों में घने जंगल हैं।
जलवायु:-
उत्तर प्रदेश की जलवायु उष्णकटिबंधीय मानसूनी है। राज्य में औसत तापमान जनवरी में 12.50 से 17.50 से. रहता है, जबकि मई-जून में यह 27.50 से 32.50 से. के बीच रहता है। पूर्व से (1,000 मिमी से 2,000 मिमी) पश्चिम (610 मिमी से 1,000 मिमी) की ओर वर्षा कम होती जाती है। राज्य में लगभग 90 प्रतिशत वर्षा दक्षिण-पश्चिम मानसून के दौरान होती है, जो जून से सितम्बर तक होती है। वर्षा के इन चार महीनों में होने के कारण बाढ़ एक आवर्ती समस्या है, जिससे ख़ासकर राज्य के पूर्वी हिस्से में फ़सल, जनजीवन व सम्पत्ति को भारी नुक़सान पहुँचता है। मानसून की लगातार विफलता के परिणामस्वरूप सूखा पड़ता है व फ़सल का नुक़सान होता है।
वनस्पति एवं प्राणी जीवन:-
राज्य में वन मुख्यत: दक्षिणी उच्चभूमि पर केन्द्रित हैं, जो ज़्यादातर झाड़ीदार हैं। विविध स्थलाकृति एवं जलवायु के कारण इस क्षेत्र का प्राणी जीवन समृद्ध है। इस क्षेत्र में शेर, तेंदुआ, हाथी, जंगली सूअर, घड़ियाल के साथ-साथ कबूतर, फ़ाख्ता, जंगली बत्तख़, तीतर, मोर, कठफोड़वा, नीलकंठ और बटेर पाए जाते हैं। कई प्रजातियाँ, जैसे-गंगा के मैदान से सिंह और तराई क्षेत्र से गैंडे अब विलुप्त हो चुके हैं। वन्य जीवन के संरक्षण के लिए सरकार ने 'चन्द्रप्रभा वन्यजीव अभयारण्य' और 'दुधवा अभयारण्य' सहित कई अभयारण्य स्थापित किए हैं।
मण्डल, जनपद व नगर :-
उत्तर प्रदेश को प्रशसनिक कारणों से 75 जिलों में बाँटा गया है, जो कि निम्नलिखित 18 मण्डलों में समूहबद्ध हैं -
उत्तर प्रदेश के मण्डल
मण्डल जनपद मण्डल जनपद मण्डल जनपद
आगरा मण्डल 
आगरा
फ़िरोज़ाबाद
मैनपुरी
मथुरा
अलीगढ़ मण्डल 
अलीगढ़
एटा
हाथरस
कासगंज
प्रयागराज मण्डल 
प्रयागराज
फ़तेहपुर
कौशाम्बी
प्रतापगढ़
आज़मगढ़ मण्डल 
आज़मगढ़
बलिया
मऊ
बरेली मण्डल 
बदायूँ
बरेली
पीलीभीत
शाहजहाँपुर
बस्ती मण्डल 
बस्ती
संत कबीर नगर
सिद्धार्थनगर
चित्रकूट मण्डल 
बांदा
चित्रकूट
हमीरपुर
महोबा
देवीपाटन मण्डल 
बहराइच
बलरामपुर
गोंडा
श्रावस्ती
अयोध्या मण्डल 
अंबेडकर नगर
अमेठी
बाराबंकी
अयोध्या
सुल्तानपुर
गोरखपुर मण्डल 
देवरिया
गोरखपुर
कुशीनगर
महाराजगंज
झांसी मण्डल 
जालौन
झांसी
ललितपुर
कानपुर मण्डल 
औरैया
इटावा
फ़र्रूख़ाबाद
कन्नौज
कानपुर देहात
कानपुर नगर
लखनऊ मण्डल 
हरदोइ
लखीमपुर खेरी
लखनऊ
रायबरेली
सीतापुर
उन्नाव
मेरठ मण्डल 
बाग़पत
बुलन्दशहर
गौतम बुद्ध नगर
ग़ाज़ियाबाद
हापुड़
मेरठ
मिर्ज़ापुर मण्डल 
मिर्ज़ापुर
संत रविदास नगर जिला
सोनभद्र
मुरादाबाद मण्डल 
अमरोहा
बिजनौर
मुरादाबाद
रामपुर
सम्भल
सहारनपुर मण्डल 
मुज़फ़्फ़रनगर
शामली
सहारनपुर
वाराणसी मण्डल 
चंदौली
ग़ाज़ीपुर
जौनपुर
वाराणसी
उत्तर प्रदेश में अब जिलों की संख्या 75 तथा मण्डल 18 है।
भारत में सबसे अधिक जनसंख्या वाला प्रदेश, उत्तर प्रदेश है।
उत्‍तर प्रदेश से सर्वाधिक लोक सभा व राज्य सभा के सदस्‍य चुने जाते हैं। सीटों की संख्या लोक सभा में 80 और राज्य सभा में 31 है।
उत्‍तर प्रदेश देश का सबसे अधिक जिलों वाला प्रदेश है।
उत्‍तर प्रदेश में कुल 403 विधानसभा सीटें हैं।
उत्‍तर प्रदेश में स्थित प्रयागराज उच्‍च न्‍यायालय एशिया का सबसे बड़ा उच्‍च न्‍यायालय है।
उत्‍तर प्रदेश का सोनभद्र जिला, देश का एक मात्र ऐसा जिला है, जिसकी सीमाएँ चार प्रदेशों को छूती हैं।
आवासीन रचना :-
राज्य की 80 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। ग्रामीण आवासों की विशेषताएँ हैं- राज्य के पश्चिमी हिस्से में पाए जाने वाले घने बसे हुए गाँव, पूर्वी क्षेत्र में पाए जाने वाले छोटे गाँव और मध्य क्षेत्र में दोनों का समूह होता है, जिसकी छत फूस या मिट्टी के खपड़ों से बनी होती है। इन मकानों में हालाँकि आधुनिक जीवन की बहुत कम सुविधाएँ हैं, लेकिन शहरों के पास बसे कुछ गाँवों में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया स्पष्ट तौर पर दिखाई देती है। सीमेण्ट से बने घर, पक्की सड़कें, बिजली, रेडियो, टेलीविजन जैसी उपभोक्ता वस्तुएँ पारम्परिक ग्रामीण जीवन को बदल रही हैं। शहरी जनसंख्या का आधे से अधिक हिस्सा एक लाख से अधिक जनसंख्या वाले शहरों में रहता है। लखनऊ, वाराणसी (बनारस), आगरा, कानपुर, मेरठ, गोरखपुर, और प्रयागराज उत्तर प्रदेश के सात सबसे बड़े नगर हैं। कानपुर उत्तर प्रदेश के मध्य क्षेत्र में स्थित प्रमुख औद्योगिक शहर है। कानपुर के पूर्वोत्तर में 82 किलोमीटर की दूरी पर राज्य की राजधानी लखनऊ स्थित है। हिन्दुओं का सर्वाधिक पवित्र शहर अयोध्य (135 किलोमीटर)और वाराणसी विश्व के प्राचीनतम सतत आवासीय शहरों में से एक है। एक अन्य पवित्र शहर प्रयागराज गंगा, यमुना और पौराणिक सरस्वती नदी के संगम पर स्थित है। राज्य के दक्षिण-पश्चिमी हिस्से में स्थित 
आगरा में मुग़ल बादशाह शाहजहाँ द्वारा अपनी बेगम की याद में बनवाया गया मक़बरा ताजमहल स्थित है। यह भारत के प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों में से एक है।
टिप्पणी :-
शेष सूचनाएं अगले ब्लॉग उत्तर प्रदेश का सामान्य परिचय (यूपी 2 ) में दी जा रही है।