Thursday, June 19, 2025

बस्ती के मुंडेरवा के कल्प-वृक्ष की कहानी आचार्य डा. राधेश्याम द्विवेदी

स्वर्ग का विशेष वृक्ष :

कल्प-वृक्ष का अर्थ पुराणानुसार स्वर्ग का एक वृक्ष विशेष है जिसकी छाया में पहुँचते ही सब कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। वेद और पुराणों में इसका उल्लेख मिलता है। यह स्वर्ग का एक विशेष वृक्ष है। यह माना जाता है कि इस वृक्ष के नीचे बैठकर व्यक्ति जो भी इच्छा करता है, वह पूर्ण हो जाती है, क्योंकि इस वृक्ष में अपार सकारात्मक ऊर्जा होती है। लाक्षणिक अर्थ में ऐसा व्यक्ति जो दूसरों की बहुत उदारतापूर्वक सहायता करता हो उसे भी कल्प-वृक्ष माना जाता है। यह एक प्रकार का वृक्ष जो बहुत अधिक ऊँचा, घेरदार और दीर्घजीवी होता है। जो लगभग 70 फुट ऊंचा होता है और इसके तने का व्यास 35 फुट तक हो सकता है। 150 फुट तक इसके तने का घेरा नापा गया है। वृक्षों और जड़ी-बूटियों के जानकारों के मुताबिक यह एक बेहद मोटे तने वाला फलदायी वृक्ष है जिसकी टहनी लंबी होती है और पत्ते भी लंबे होते हैं। दरअसल, यह वृक्ष पीपल के वृक्ष की तरह फैलता है और इसके पत्ते कुछ-कुछ आम के पत्तों की तरह होते हैं। इसका फल नारियल की तरह होता है, जो वृक्ष की पतली टहनी के सहारे नीचे लटकता रहता है। इसका तना देखने में बरगद के वृक्ष जैसा दिखाई देता है। इसका फूल कमल के फूल में रखी किसी छोटी- सी गेंद में निकले असंख्य रुओं की तरह होता है। कल्पवृक्ष का फल आम, नारियल और बिल्ला का जोड़ है अर्थात यह कच्चा रहने पर आम और बिल्व तथा पकने पर नारियल जैसा दिखाई देता है लेकिन यह पूर्णत: जब सूख जाता है तो सूखे खजूर जैसा नजर आता है।

औषधीय गुण :- 

यह एक परोपकारी मेडिस्नल-प्लांट है अर्थात दवा देने वाला वृक्ष है। इसमें संतरे से 6 गुना ज्यादा विटामिन 'सी' होता है। गाय के दूध से दोगुना कैल्शियम होता है और इसके अलावा सभी तरह के विटामिन पाए जाते हैं। इसकी पत्ती को धो-धाकर सूखी या पानी में उबालकर खाया जा सकता है। पेड़ की छाल, फल और फूल का उपयोग औषधि तैयार करने के लिए किया जाता है।  इसके पत्ते एंटी-ऑक्सीडेंट होते हैं। यह कब्ज और एसिडिटी में सबसे कारगर है। इसके पत्तों में एलर्जी, दमा, मलेरिया को समाप्त करने की शक्ति है। गुर्दे के रोगियों के लिए भी इसकी पत्तियों व फूलों का रस लाभदायक सिद्ध हुआ है। इसके बीजों का तेल हृदय रोगियों के लिए लाभकारी होता है। इसके तेल में एचडीएल (हाईडेंसिटी कोलेस्ट्रॉल) होता है। इसके फलों में भरपूर रेशा (फाइबर) होता है। मानव जीवन के लिए जरूरी सभी पोषक तत्व इसमें मौजूद रहते हैं। पुष्टिकर तत्वों से भरपूर इसकी पत्तियों से शरबत बनाया जाता है और इसके फल से मिठाइयां भी बनाई जाती हैं।

पर्यावरण के लिए मुफीद : - 

यह वृक्ष जहां भी बहुतायत में पाया जाता है, वहां सूखा नहीं पड़ता। यह रोगाणुओं का डटकर मुकाबला करता है। इस वृक्ष की खासियत यह है कि कीट-पतंगों को यह अपने पास फटकने नहीं देता और दूर-दूर तक वायु के प्रदूषण को समाप्त कर देता है। इस मामले में इसमें तुलसी जैसे गुण हैं।

पानी का पर्याप्त भंडारण :- 

पानी के भंडारण के लिए इसे काम में लिया जा सकता है, क्योंकि यह अंदर से (वयस्क पेड़) खोखला हो जाता है, लेकिन मजबूत रहता है जिसमें 1 लाख लीटर से ज्यादा पानी के भंडारण की क्षमता होती है। इसकी छाल से रंगरेज की रंजक (डाई) भी बनाई जा सकती है। चीजों को सान्द्र (Solid) बनाने के लिए भी इस वृक्ष का इस्तेमाल किया जाता है।

भारत में कहां कहां स्थित:- 

औषध गुणों के कारण कल्पवृक्ष की पूजा की जाती है। भारत में रांची, अल्मोड़ा, काशी, नर्मदा किनारे, कर्नाटक आदि कुछ महत्वपूर्ण स्थानों पर ही यह वृक्ष पाया जाता है। पद्मपुराण के अनुसार परिजात ही कल्पवृक्ष है। यह वृक्ष उत्तरप्रदेश के बाराबंकी के बोरोलिया में आज भी विद्यमान है। कार्बन डेटिंग से वैज्ञानिकों ने इसकी उम्र 5,000 वर्ष से भी अधिक की बताई है। समाचारों के अनुसार ग्वालियर के पास कोलारस में भी एक कल्पवृक्ष है जिसकी आयु 2,000 वर्ष से अधिक की बताई जाती है।ऐसा ही एक वृक्ष राजस्थान में अजमेर के पास मांगलियावास में है और दूसरा पुट्टपर्थी के सत्य साईं बाबा के आश्रम में मौजूद है। कुशीनगर के सेवारही विकास खण्ड के सुमही संग्राम में भी एक पेड़ देखा गया है।

दुर्वाषा ऋषि का शाप:-

एक बार की बात है शिवजी के दर्शनों के लिए दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ कैलाश जा रहे थे। मार्ग में उन्हें देवराज इन्द्र मिले। इन्द्र ने दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्यों को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। तब दुर्वासा ने इन्द्र को आशीर्वाद देकर विष्णु भगवान का पारिजात पुष्प प्रदान किया। इन्द्रासन के गर्व में चूर इन्द्र ने उस पुष्प को अपने ऐरावत हाथी के मस्तक पर रख दिया। उस पुष्प का स्पर्श होते ही ऐरावत सहसा विष्णु भगवान के समान तेजस्वी हो गया। उसने इन्द्र का परित्याग कर दिया और उस दिव्य पुष्प को कुचलते हुए वन की ओर चला गया। इन्द्र द्वारा भगवान विष्णु के पुष्प का तिरस्कार होते देखकर दुर्वाषा ऋषि के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने देवराज इन्द्र को ‘श्री’ (लक्ष्मी) से हीन हो जाने का शाप दे दिया। दुर्वासा मुनि के शाप के फलस्वरूप लक्ष्मी उसी क्षण स्वर्गलोक को छोड़कर अदृश्य हो गईं। लक्ष्मी के चले जाने से इन्द्र आदि देवता निर्बल और श्रीहीन हो गए। उनका वैभव लुप्त हो गया। इन्द्र को बलहीन जानकर दैत्यों ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और देवगण को पराजित करके स्वर्ग के राज्य पर अपनी परचम फहरा दिया। तब इन्द्र देवगुरु बृहस्पति और अन्य देवताओं के साथ ब्रह्माजी की सभा में उपस्थित हुए। तब ब्रह्माजी बोले-‘देवेन्द्र ! भगवान विष्णु के भोगरूपी पुष्प का अपमान करने के कारण रुष्ट होकर भगवती लक्ष्मी तुम्हारे पास से चली गयी हैं। उन्हें पुनः प्रसन्न करने के लिए तुम भगवान नारायण की कृपा-दृष्टि प्राप्त करो। उनके आशीर्वाद से तुम्हें खोया वैभव पुनः मिल जाएगा।’’ 

शाप मुक्ति का उपाय:- 

इस प्रकार ब्रह्माजी ने इन्द्र को आस्वस्त किया और उन्हें लेकर भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे। वहाँ परब्रह्म भगवान विष्णु भगवती लक्ष्मी के साथ विराजमान थे। देवगण भगवान विष्णु की स्तुति करते हुए बोले,- ‘‘भगवान् ! आपके श्रीचरणों में हमारा बारम्बार प्रणाम। भगवान् ! हम सब जिस उद्देश्य से आपकी शरण में आए हैं, कृपा करके आप उसे पूरा कीजिए। दुर्वाषा ऋषि के शाप के कारण माता लक्ष्मी हमसे रूठ गई हैं और दैत्यों ने हमें पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया है। अब हम आपकी शरण में हैं, हमारी रक्षा कीजिए।’’ भगवान विष्णु त्रिकालदर्शी हैं। वे पल भर में ही देवताओं के मन की बात जान गए। तब वे देवगण से बोले—‘‘देवगण ! मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें, क्योंकि केवल यही तुम्हारे कल्याण का उपाय है। दैत्यों पर इस समय काल की विशेष कृपा है इसलिए जब तक तुम्हारे उत्कर्ष और दैत्यों के पतन का समय नहीं आता, तब तक तुम उनसे संधि कर लो। क्षीरसागर के गर्भ में अनेक दिव्य पदार्थों के साथ-साथ अमृत भी छिपा है। उसे पीने वाले के सामने मृत्यु भी पराजित हो जाती है। इसके लिए तुम्हें समुद्र मंथन करना होगा। यह कार्य अत्यंत दुष्कर है, अतः इस कार्य में दैत्यों से सहायता लो। कूटनीति भी यही कहती है किआवश्यकता पड़ने पर शत्रुओं को भी मित्र बना लेना चाहिए। तत्पश्चात अमृत पीकर अमर हो जाओ। तब दुष्ट दैत्य भी तुम्हारा अहित नहीं कर सकेंगे। देवगण ! वे जो शर्त रखें, उसे स्वीकार कर लें। यह बात याद रखें कि शांति से सभी कार्य बन जाते हैं, क्रोध करने से कुछ नहीं होता।’’ भगवान विष्णु के परामर्श के अनुसार इन्द्रादि देवगण दैत्यराज बलि के पास संधि का प्रस्ताव लेकर गए और उन्हें अमृत के बारे में बताकर समुद्र मंथन के लिए तैयार कर लिया। 

समुद्र मंथन की कथा:-

इसी समय मेघ के समान गम्भीर स्वर में आकाशवाणी हुई- 'देवताओ और दैत्यो! तुम क्षीर समुद्र का मन्थन करो। इस कार्य में तुम्हारे बल की वृद्धि होगी, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। मन्दराचल को मथानी और वासुकी नाग को रस्सी बनाओ, फिर देवता और दैत्य मिलकर मन्थन आरम्भ करो।' यह आकाशवाणी सुनकर सहस्त्रों दैत्य और देवता समुद्र-मन्थन के लिये उद्यत हो सुवर्ण के सदृश कान्तिमान् मन्दराचल के समीप गये। वह पर्वत सीधा, गोलाकार, बहुत मोटा और अत्यन्त प्रकाशमान था। अनेक प्रकार के रत्न उसकी शोभा बढ़ा रहे थे । चन्दन, पारिजात, नागकेशर, जायफल और चम्पा आदि भाँति-भाँति के वृक्षों से वह हरा-भरा दिखायी देता था। पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन के 14 रत्नों में से एक कल्पवृ‍क्ष की भी उत्पत्ति हुई थी। समुद्र मंथन से प्राप्त यह वृक्ष देवराज इन्द्र को दे दिया गया था और इन्द्र ने इसकी स्थापना ‘सुरकानन वन’ (हिमालय के उत्तर में) में कर दी थी। माना जाता है कि धरती के किसी न किसी कोने में आज भी कल्पवृक्ष कहीं न कहीं जरूर होगा। हो सकता है कि यह हिमालय के किसी दुर्गभ स्थान पर मिले। 

चौदह रत्नों में एक प्रमुख रत्न :-

समुद्र मंथन की मिथकीय घटना के बाद जो चौदह रत्नों : श्री, मणि, रम्भा, वारुणी, अमिय, शंख, गजराज,धेनु, धनुष, शशि, कल्पतरु, धन्वन्तरि, विष और बज्र की प्राप्ति हुई हैं। 

दस चमत्कारिक वस्तुओं में भी शुमार:- 

प्राचीनकाल में ऐसी वस्तुएं थीं जिनके बल पर देवता या मनुष्य असीम शक्ति और चमत्कारों से परिपूर्ण हो जाते थे। उन वस्तुओं के बगैर व्यक्ति खुद को असहाय मानता था। कहते हैं कि ऐसी वस्तुएं आज भी किसी स्थान विशेष पर सुरक्षित रखी हुई हैं। आओ जानते हैं उन्हीं में से 10 चमत्कारिक वस्तुओं के बारे में। हो सकता है कि आप ढूंढें या तपस्या करें तो आपको भी ये वस्तुएं मिल जाएं।

कल्पवृक्ष की मान्यता:- 

वेद और पुराणों में कल्पवृक्ष का उल्लेख मिलता है। कल्पवृक्ष स्वर्ग का एक विशेष वृक्ष है। पौराणिक धर्मग्रंथों और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह माना जाता है कि इस वृक्ष के नीचे बैठकर व्यक्ति जो भी इच्छा करता है, वह पूर्ण हो जाती है।पुराणों में इस वृक्ष के संबंध में कई तरह की कथाएं प्रचलित हैं। इसके अलावा कुछ विद्वान मानते हैं कि पारिजात के वृक्ष को ही कल्पवृक्ष कहा जाता है। पद्मपुराण के अनुसार पारिजात ही कल्पतरु है, जबकि कुछ का मानना है यह सही नहीं है। पुराण तो बहुत बाद में लिखे गए। दरअसल, कल्पवृक्ष को कल्पवृक्ष इसलिए कहा जाता है कि इसकी उम्र एक कल्प बताई गई है। एक कल्प 14 मन्वंतर का होता है और एक मन्वंतर लगभग 30,84,48,000 वर्ष का होता है। इसका मतलब कल्प वृक्ष प्रलय काल में भी जिंदा रहता है।पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन के 14 रत्नों में से एक कल्प वृ‍क्ष की भी उत्पत्ति हुई थी। समुद्र मंथन से प्राप्त यह वृक्ष देवराज इन्द्र को दे दिया गया था और इन्द्र ने इसकी स्थापना ‘सुरकानन वन’ (हिमालय के उत्तर में) में कर दी थी। माना जाता है कि धरती के किसी न किसी कोने में आज भी कल्पवृक्ष कहीं न कहीं जरूर होगा। हो सकता है कि यह हिमालय के किसी दुर्गभ स्थान पर मिले। हिन्दु ग्रंथो एवं पुराणो की एक कथानुसार जब देवताओं एवं दानवों के बीच शेषनाग को लेकर समुद्र का मंथन किया गया था। तब समुद्र मंथन के दौरान अनेको प्रकार के ऐसे सजीव एवं निर्जीव सामान निकले। इस मंथन में सबसे अधिक चर्चित में कामधेनू गाय एवं कल्पवृक्ष का जिक्र होता है। कल्पवृक्ष को कल्पतरु भी कहा जाता है। मानवीय एवं संस्कारिक जीवन में इस दिव्य पेड़ मिथकीय प्राणी किन्नारा या किन्नारी भी कहा गया है। इस पेड़ को स्वर्ग में अप्सरा और देवता द्वारा संरक्षित किया गया है।

      एक अन्य कथानुसार ऋषि दुर्वासा ने भी कल्प वृक्ष के नीचे जप एवं तप किया था। कल्पवृक्ष के देवताओं के राजा इंद्र के यहां पर होने के पीछे की कहानी भी समुद्र मंथन से जुड़ी है। बताया जाता है कि मंथन के बाद देवराज इन्द्र इस पेड़ को अपने साथ स्वर्ग ले गए थे। वैसे कल्पवृक्ष को संस्कृत में मनसारा भी कहा जाता है जिसका एक शाही प्रतीक के रूप में उल्लेख किया गया है। कल्पवृक्ष को बेशकीमती सोना और कीमती पत्थरों को प्रदान करने वाला वृक्ष भी कहते है। कल्पवृक्ष को संरक्षित पेड़ के रूप में गिना जाता है। उत्तराचंल में इस पेड़ के चारों ओर एक तार जाल स्थापित करके के अलावा इसकी सुरक्षा की जवाबदेही सशस्त्र बलों के पास है। वैसे कहा तो यहां तक जाता है कि कल्पवृक्ष का पेड़ अद्वितीय गुण धारक है। यह अपने आप में एक एकल पत्ती कभी नहीं हारता, यह सदाबहार है और सुप्रीम देवत्व विष्णु के लिए जगत गुरू आदि शंकराचार्य के गहरे बैठा भक्ति निकलती होने के लिए कहा है. कल्पवृक्ष कई आध्यात्मिक, धार्मिक और पर्यावरणीय मूल्यों में शामिल है। यह पृथ्वी पर एक दिव्य पेड़ के रूप में जाना जाता है। हिमालय वाहिनी के लिए सभी को एक मिशन की तरह तीर्थयात्रियों में कल्पवृक्ष का पौधा लगाने के लिए जन आंदोलन का आयोजन होता है, मिशन हरिद्वार से शुरू कर दिया। दक्ष द्वीप कनखल में दुनिया का पहला कल्पवृक्ष को रोपित किया गया। वैसे आमतौर पर कल्पवृक्ष का रोपण नहीं होता लेकिन अब हरिद्वार तीर्थ द्वारा इसके रोपण का कार्य पूरा किया जा रहा है। इस मिशन में श्री विजय पाल बघेल के कन्वेयर यह इच्छा अधिक से अधिक पौधे रोपण, एक पवित्र वृक्ष के रूप में दुनिया भर के आध्यात्मिक और लुप्तप्राय है।

प्राचीन कल्पवृक्ष होने की पुष्टि:- 

कल्पवृक्ष के इतिहास में 8 सदी में पावन मंदिर, जावा, इंडोनेशिया में कल्पवृक्ष जिसे कल्पतरु कल्प पदुरमा, और कल्प पदपा के रूप में जाना जाता है का जिक्र मिलता है। कहा तो यहां तक जाता है कि भारत में प्राचिन कल्पवृक्ष सिर्फ दो स्थानो पर ही है। उड़ीसा राज्य के जगन्नाथ पुरी धाम एवं ज्योर्तिमठ बद्रीनाथ धाम में आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा रोपित किया गया हुआ है। एक पौराणिक के अनुसार अतृप्त इच्छाओं को पूरा करने वाला यह दिव्य पेड़ नेशनल हाइवे 69 पर भोपाल - नागपुर के बीच होशंगाबाद जिले के केसला थाना क्षेत्र में मौजूद है। थाना परिसर क्षेत्र के इस विचित्र पेड़ के कल्पवृक्ष होने का पूरा मामला उस समय प्रकाश में आया जब वन विभाग की रिर्सच टीम यहां पर आई और उसने इसके कल्पवृक्ष होने की पुष्टि की। सभी इच्छाओं को पूरा करने वाला यह कल्पवृक्ष का पूरा पौराणिक इतिहास का पुलिस केसला और वहां पर मौजूद स्टाफ को भले ही न हो लेकिन जब भी कोई जानकार व्यक्ति यहां पर आता है तो पुलिस कल्पवृक्ष को लेकर पुराणो की कथाओं को ध्यान पूर्वक सुनना पसंद करते है। केसला (होशंगाबाद): नर्मदाचंल एंव ताप्तीचंल के बीच स्थित एक छोटे से गांव में वृक्ष को कल्पवृक्ष घोषित कर दिया है। कहा जाता है कि कल्पवृक्ष की तरह अजमेर(राजस्थान) में दो श्रद्धेय (पुरुष और महिला) पेड़ है कि 800 साल से अधिक पुराने हैं। वैसे अब इन्हे भी कल्पवृक्ष के रूप में जाना जाता है, इन पेड़ों में अमावस्या के एक दिन तथा श्रवण मास के हिंदू महीने में पूजा की जाती है। पद्म पुराण के अनुसार, इस पेड़ को परिजात का पेड़ भी कहा जाता है। प्राचीन शहतूत के पेड़ को कल्पवृक्ष के रूप में स्थानीय लोगो द्वारा जाना जाता है। 

उत्तर प्रदेश के मुंडेरवा शुगर मिल बस्ती में होने की पुष्टि:- 

मुंडेरवा चीनी मिल में एक प्रसिद्ध वृक्ष है जिसे कल्प वृक्ष या पारिजात कहा जाता है। यह वृक्ष राष्ट्रीय वानस्पतिक अनुसंधान केंद्र, लखनऊ द्वारा प्रमाणित है कि यह एडनसोनिया डिजिटाटा है, जिसे पारिजात या कल्प वृक्ष भी कहा जाता है। 

कल्प वृक्ष की पहचान :- 

मुंडेरवा चीनी मिल में स्थित इस वृक्ष को पहले एक आम वृक्ष माना जाता था, लेकिन बाद में स्थानीय लोगों की पहल के माध्यम से राष्ट्रीय वानस्पतिक अनुसंधान केंद्र, लखनऊ द्वारा जांच की गई।जांच में पाया गया कि यह वृक्ष वास्तव में एडनसोनिया डिजिटाटा है, जिसे पारिजात या कल्प वृक्ष भी कहा जाता है।  राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान लखनऊ (एनबीआरआई) ने इसे कल्पवृक्ष घोषित कर दिया है। जांच के बाद कार्यकारी निदेशक डीके उप्रेती ने बताया कि यह वृक्ष करीब साठ वर्ष पुराना है। इसका वैज्ञानिक नाम ‘एडेन सोनिया डिजिडाटा’ है। मूल रूप से यह अफ्रीकी महाद्वीप के रेगिस्तानी क्षेत्र में पाया जाता है। भारत में प्राकृतिक रूप से यह वृक्ष कहीं नहीं पाया जाता। इसे तत्कालीन चीनी मिल के चीफ केमिस्ट ने यहां लगाया था।

      आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी 

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।

 मोबाइल नंबर +91 8630778321; 

वॉर्ड्सऐप नम्बर+919412300183)


















Wednesday, June 18, 2025

विश्व का पवित्रतम रामेश्वरम युगल ज्योतिर्लिंग//आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी

दक्षिण भारत में 12 में से सिर्फ 2 ज्योर्तिलिंग हैं श्रीशैलम मल्लिकार्जुन शिवलिंग और रामनाथस्वामी ज्योतिर्लिंग। श्रीशैलम ज्योतिर्लिंग, आंध्र प्रदेश के कुरनूल ज़िले में है। यह मंदिर भगवान शिव और पार्वती को समर्पित है। यह शैव और शक्ति दोनों हिंदू संप्रदायों के लिए महत्वपूर्ण है। यहाँ शिव की आराधना मल्लिकार्जुन नाम से की जाती है।
भारत की पवित्र धरती पर कई ऐसे स्थान हैं जो आध्यात्मिक और पौराणिक महत्व से जुड़े हुए हैं। इन्हीं में से एक है तमिलनाडु का रामेश्वरम, जो भारत के दक्षिणी भाग में स्थित एक प्रमुख राज्य है, जहाँ हिंदू धर्म का प्रभाव बहुत गहरा है। यहाँ की लगभग 88% जनसंख्या हिंदू धर्म को मानती है, और यह राज्य भारतीय हिंदू धर्म की सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर का महत्वपूर्ण हिस्सा है। तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले में स्थित रामेश्वरम मंदिर हिंदू धर्म के सबसे पवित्र स्थानों में से एक है। रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग, भगवान शिव को समर्पित एक मंदिर है। यह हिंदू धर्म के चार धामों में से एक है।
तमिलनाडु के रामेश्वरम् में है रामनाथस्वामी ज्योर्तिलिंग, जिसे श्रीराम ने समुद्र के बालू की रेत से बनाया था।इसे इस लिंक के जरिए और आसानी से समझा जा सकता है- 
https://www.youtube.com/live/E8nT5AtHTZk?si=rsUMq6v0xDPavl1C
कहा जाता है कि इस शिवलिंग का निर्माण उस समय हुआ था, जब श्रीराम लंका के राजा रावण से युद्ध करने की तैयारी कर रहे थे। तब भगवान शिव का आशीर्वाद पाने के लिए श्रीराम ने इस शिवलिंग का निर्माण कर उस पर जल चढ़ाया था। यह न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि इसकी बनावट, पौराणिक महत्व और प्राकृतिक सौंदर्य इसे अद्वितीय बनाते हैं।  यह मंदिर भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है और पूरी दुनिया में अपनी खास पहचान रखता है। हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी के बीच स्थित यह मंदिर धार्मिक आस्था, वास्तुकला और पौराणिक कथाओं का अद्भुत संगम है।
इस लिंक से इसे और सुरुचिपूर्ण रुप से जाना जा सकता है - 
https://www.facebook.com/share/v/12K5WoJStWR/
रामेश्वरम मंदिर की पौराणिक कथा:- 
भगवान राम जब 14 साल का वनवास खत्म करके और लंका पति रावण का वध करके मां सीता के साथ लौटे, तब ऋषि-मुनियों ने उनसे कहा कि उन पर ब्राह्मण हत्या का पाप लगा है। रावण ब्राह्मण कुल से था, इसलिए भगवान राम को ब्रह्महत्या का पाप लगा। इसलिए उन्हें ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए शिवलिंग की स्थापना करने की सलाह दी गई। ऐसे में भगवान राम ने शिवलिंग लाने के लिए हनुमान जी को कैलाश पर्वत भेजा, लेकिन हनुमान जी को आने में देर हो गई। इस बीच माता सीता ने समुद्र तट पर रेत से शिवलिंग बना दिया। बाद में हनुमान जी द्वारा लाए गए शिवलिंग को भी वहीं स्थापित किया गया। माता सीता द्वार बनाए लिंग को ‘रामलिंग’ और हनुमान जी द्वारा लाए गए लिंग को ‘विश्वलिंग’ कहा जाता है। उसके बाद भगवान राम ने रामेश्वरम के पास स्नान करके शिवलिंग की विधिवत पूजा की और अपने पापों से मुक्ति पाई। 
          हनुमदीश्वर शिव लिंग 
कैलाश पर्वत से शिवलिंग लेकर जब हनुमान जी वापस लौटे तब तक शिवलिंग स्थापना का मुहूर्त बीत चुका था और भगवान राम माता सीता के साथ मिलकर वहां पर एक बालू के शिवलिंग की स्थापना कर चुके थे. यह सब देखकर हनुमान जी दुखी होकर रामजी के चरणों में गिर गए तब रामजी ने उन्हें कहा कि अगर तुम इस शिवलिंग को उखाड़ दो तो मैं यहां तुम्हारे द्वारा लाया शिवलिंग स्थापित कर दूंगा. हनुमान जी के बहुत प्रयास करने के बाद भी वह शिवलिंग को उखाड़ नहीं पाए और थोड़ी दूर जाकर गिर पड़े। तब रामजी ने कहा कि यह मेरे और सीता के द्वारा स्थापित किया गया शिवलिंग है, इसे हटाया नही जा सकता है. यह समझाने के बाद रामजी ने हनुमान जी द्वारा लाए शिवलिंग को वहीं थोड़ी दूर पर स्थापित कर दिया और उस स्थान का नाम हनुमदीश्वर रखा गया था. यह गढ़कालिका से कालभैरव मार्ग पर जाने वाले ओखलेश्वर घाट पर श्री हनुमंतेश्वर महादेव का मंदिर विद्यमान है। हनुमान जी द्वारा लाए गए लिंग को हनुमदीश्वर शिवलिंग भी कहा जाता है। यह शिवलिंग काले पाषाण से बना है. मान्यता है कि हनुमान जी ने इसे स्थापित किया था. कहा जाता है कि इस शिवलिंग के दर्शन करने से रामेश्वरम के दर्शन जितना पुण्य मिलता है।आज भी रामेश्वरम मंदिर में ये दोनों युगल शिवलिंग विराजमान हैं। इसकी विधिवत विधान से पूजा अर्चना किया जा रहा है।
विशाल आकार और अद्भुत वास्तुकला:- 
रामेश्वरम मंदिर द्रविड़ वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। 15 एकड़ में फैला यह मंदिर एक बड़ी दीवार से घिरा हुआ है। मंदिर का प्रवेश द्वार भव्य और आकर्षक है। यहां के गलियारे और मूर्तियां इसे दुनिया के सबसे सुंदर मंदिरों में से एक बनाते हैं। यह मंदिर करीब 1000 फुट लंबा और 650 फुट चौड़ा है। इसका प्रवेश द्वार 40 मीटर ऊंचा है। मंदिर की दीवारें और गलियारे द्रविड़ शैली की वास्तुकला का बेहतरीन उदाहरण हैं। बता दें कि इस मंदिर को बनाने के लिए पत्थरों को श्रीलंका से नाव के जरिए लाया गया था।
दुनिया का सबसे लंबा गलियारा :- 
रामेश्वरम मंदिर का गलियारा विश्व प्रसिद्ध है। यह उत्तर से दक्षिण 197 मीटर और पूर्व से पश्चिम 133 मीटर लंबा है। यहां तीन गलियारे हैं, जिनमें से एक गलियारा 12वीं सदी का माना जाता है। इस विशाल मंदिर को इस लिंक से भी अच्छी तरह से समझा जा सकता है - 
https://www.facebook.com/share/r/16cqkqnkA6/

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।









रामेश्वरम का रामसेतु धनुषकोडी औरअरिचल मुनई // आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी

अनेक नाम :- 
रामसेतु को आज कई नामों से जाना जाता है। जैसे नल सेतु, सेतु बांध और एडम ब्रिज। इसे नल सेतू इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह पुल बनाने का विचार वानर सेना के एक सदस्‍य नल ने ही अन्‍य सदस्‍यों को दिया था। इसलिए नल को रामसेतु का इंजीनियर भी कहते हैं।
इस पुल का नाम एडम्स ब्रिज इसलिए रखा गया है क्योंकि बाइबिल और कुरान के अनुसार, एडम ने ईडन गार्डन से निकाले जाने के बाद श्रीलंका से भारत तक पुल पार किया था। एडम्स ब्रिज का नाम कुछ प्राचीन इस्लामी ग्रंथों में भी आया है। राम सेतु भारत के पंबन द्वीप और श्रीलंका के मन्नार द्वीप के बीच चूना पत्थर की एक विशाल श्रृंखला है। मद्रास विश्वविद्यालय और अन्ना विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, राम सेतु ब्रिज का निर्माण 18,400 साल पहले हुआ था। 
अवस्थिति :- 
रामसेतु तमिलनाडु के दक्षिण-पूर्वी तट से दूर पंबन द्वीप, जिसे रामेश्वरम द्वीप के नाम से भी जाना जाता है, श्रीलंका के उत्तर पश्चिमी तट पर मन्नार द्वीप के बीच चूना पत्थर की एक श्रृंखला मार्ग है।
    इस रूट को इस लिंक से आसानी से समझा जा सकता है - 
https://www.facebook.com/share/r/1BuFQCAvDn/
       रामायण में इस बात का साफ तौर पर जिक्र है कि भगवान राम और उनकी सेना ने अपनी पत्नी सीता को बचाने लंका तक पहुंचने के लिए उस पुल का निर्माण करवाया था। भौगोलिक प्रमाणों से यह पता चलता है कि किसी समय यह सेतु भारत तथा श्रीलंका को भू मार्ग से आपस में जोड़ता था। हिन्दू पुराणों की मान्यताओं के अनुसार इस सेतु का निर्माण अयोध्या के राजा श्रीराम की सेना के दो सैनिक जो की वानर थे, जिनका वर्णन प्रमुखतः नल-नील नाम से रामायण में मिलता है, द्वारा किये गया था।
विस्तार :- 
धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक, रामसेतु 100 योजन अर्थात करीब 1200 किलोमीटर थी। साइंस से जुड़े लोगों के मुताबिक, रामसेतु 35 से 48 किलोमीटर लंबा था तथा  यह मन्नार की खाड़ी (दक्षिण पश्चिम) को पाक जलडमरू मध्य (उत्तर पूर्व) से अलग करता है। कुछ रेतीले तट शुष्क हैं तथा इस क्षेत्र में समुद्र बहुत उथला है, कुछ स्थानों पर केवल 3 फुट से 30 फुट (1मीटर से 10 मीटर) जो नौगमन को मुश्किल बनाता है। रामायण (5000 ईसा पूर्व) का समय और पुल का कार्बन एनालिसिस का तालमेल एकदम सटीक बैठता है। हालांकि, आज भी ऐसा कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है जो यह बताता है कि पुल मानव निर्मित है।यह सेतु तब पांच दिनों में ही बन गया था। इसकी लंबाई 100 योजन व चौड़ाई 10 योजन थी। इसे बनाने में रामायण काल में श्री राम नाम के साथ, उच्च तकनीक का प्रयोग किया गया था। रामसेतु के पत्थर करीब 7000 साल पुराने हैं।
        15 वीं शताब्दी तक, पुल पर चलकर जा सकते थे।  गहराई तीन फीट से लेकर 30 फीट तक है। कई वैज्ञानिक रिपोर्टों के अनुसार, राम सेतु 1480 तक पूरी तरह से समुद्र तल से ऊपर था, लेकिन यहाँ एक चक्रवात आने से यह क्षतिग्रस्त हो गया था। 1480 तक पुल पूरी तरह से समुद्र तल से ऊपर था। हालांकि, प्राकृतिक आपदाओं ने पुल को समुद्र में पूरी तरह से डुबो दिया। इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि रामसेतु प्राकृतिक चूना पत्थर के शोल से बना एक पुल है। मन्दिर के अभिलेखों के अनुसार रामसेतु पूरी तरह से सागर के जल से ऊपर स्थित था, जब तक कि इसे 1480 ई० में एक चक्रवात ने तोड़ नहीं दिया। इस सेतु का उल्लेख सबसे पहले वाल्मीकि द्वारा रचित प्राचीन भारतीय संस्कृत महाकाव्य रामायण में किया गया था, जिसमें राम ने अपनी वानर (वानर) सेना के लिए लंका तक पहुंचने और रक्ष राजा, रावण से अपनी पत्नी सीता को छुड़ाने के लिए इसका निर्माण कराया था। राम सेतु के बारे में हम वाल्मिकी रामायण में बताते हैं। भगवान राम ने अपनी सेना के साथ राम सेतु पार किया और अपनी अपहृत पत्नी सीता को राक्षस राजा रावण से पार कराया। इसके बाद भगवान राम ने अपने धनुष और बाण से पुल को तोड़ दिया।
साहित्य में अनेक उल्लेख :- 
पूरे भारत, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्व एशिया के कई देशों में हर साल दशहरे पर और राम के जीवन पर आधारित सभी तरह के नृत्य-नाटकों में सेतु बंधन का वर्णन किया जाता है। राम के बनाए इस पुल का वर्णन रामायण में तो है ही, महाभारत में भी श्री राम के नल सेतु का उल्लेख आया है। कालीदास की रघुवंश में सेतु का वर्णन है। अनेक पुराणों में भी श्रीरामसेतु का विवरण आता है। एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका मे राम सेतु कहा गया है। नासा और भारतीय सेटेलाइट से लिए गए चित्रों में धनुषकोडि से जाफना तक जो एक पतली सी द्वीपों की रेखा दिखती है, उसे ही आज रामसेतु के नाम से जाना जाता है। 
राम सेतु ब्रिज के पत्थर 
तैरने के पौराणिक कारण :- 
राम सेतु का पत्थर आखिर पानी में कैसे तैरता है ये पहेली आज तक कोई भी वैज्ञानिक नहीं सुलझा पाया है. कोई इसे भगवान राम का चमत्कार कहता है तो कोई इसके पीछे साइंटिफिक कारण बताता है. मगर आज तक सही वजह नहीं पता चल पाई है. इस पर कई वैज्ञानिकों ने भी खोज की है. रामसेतु का पत्थर दुनियाभर में प्रसिद्ध है। इस पुल को बनाने के लिए भगवान राम ने एक विशेष तरह के पत्थर का इस्तेमाल किया था, जिसे अग्निकुंड शिला कहा जाता है. नल-नील, भगवान विश्वकर्मा के वानर पुत्र थे।ये बचपन में बहुत शरारती थे। ये ऋषियों की पूजा सामग्री पानी में फेंक देते थे। परेशान ऋषियों ने नल-नील को श्राप दिया कि अब वे जो भी चीज़ पानी में फेंकेंगे वह डूबेगी नहीं। इस श्राप की वजह से इन दोनों के स्पर्श से पत्थर पानी पर तैरने लगे थेफलत : इनके द्वारा रामसेतु का निर्माण हो पाया। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान वरुण के आशीर्वाद और उन पत्थरों पर भगवान राम के नाम लिखे होने के कारण पत्थर पानी में नहीं डूबते हैं।राम ने हनुमान कोकोड भगवान धनुर्धर और श्रीलंका को जोड़ने वाला पुल बनाने का ऑर्डर दिया था। हनुमान राम के दिव्य वानर दोस्त थे और एक हिंदू देवता थे। जैसा कि कोई उम्मीद कर सकता है, हनुमान और उनकी वानर सेना ने पुल का निर्माण किया। हनुमान, बाली और सुग्रीव ने सेना का संचालन किया।कहते हैं ये पत्थर कभी पानी में डूबा नहीं है और ये पुल आज भी बना हुआ है. इस पुल को देखने के लिए दूर-दूर से सैलानी आते हैं और इस पत्थर का रहस्य जानना चाहते हैं. लेकिन इस रहस्य को कोई जान नहीं पाया है. सभी लोग इसको भगवान राम की महिमा कहते हैं. ये भगवान राम द्वारा बनाया गया पुल है.
वैज्ञानिक विश्लेषण :- 
पौराणिक प्रमाणों से इतर कई वैज्ञानिकों ने तैरते पत्थरों के पीछे विज्ञान के कुछ पहलुओं को उजागर किया है। वे कहते हैं कि राम सेतु ज्वालामुखियों के तैरते हुए पत्थर से बना है।
       गूगल अर्थ पर श्रीलंका और रामेश्वरम को जोड़ने वाले रामसेतु को गौर से देखने पर दोनों के बीच 50 किलोमीटर के रास्ते पर समुंद्र बेहद उथला दीखता है। यानी एक समय ऐसा भी रहा होगा जब श्रीलंका और रामेश्वरम के मध्य एक नॉर्मल रास्ता हुआ करता होगा जो धीरे-धीरे समुद्र में विलीन हो गया। 15 वी सदी तक लोग वहां से पैदल ही पार कर जाते थे। ये सेतू अगर किसी नदी पर बना होता तब उस पुल की वास्तविकता को सही तरीके से समझा जा सकता था।
         उथले समुंद्र में जहां का तापमान लगभग 20 डिग्री या उससे अधिक हो, प्रवालों द्वारा कैल्सियम कार्बोनेट का उत्सर्जन होता है, जो झालरदार या चट्टानी रुप भी ले लेते हैं जिसे कोरल रीफ कहा जाता है। यह भारत में अंडमान- निकोबार लक्षद्वीप और मन्नार की खाड़ी में स्थित दीखता है। उनके अनुसार राम सेतु में जो पत्थर दिखाई दे रहे हैं वो कोरल रीफ भी हो सकते हैं।
     राम सेतु के पत्थरों के बारे में कहा जाता है कि ये प्यूमिस स्टोन या अग्निकुंड शिला थे।ये पत्थर ज्वालामुखी के लावा से बने होते हैं और इनमें कई छेद होते हैं। इन छिद्रों की वजह से ये पत्थर हल्के होते हैं और पानी में तैरते रहते हैं। वैज्ञानिकों ने इसका अध्ययन किया और बाद में बताया कि रामसेतु के पत्थर अंदर से खोखले होते हैं। इसके अंदर छोटे-छोटे छेद होते हैं।पत्थरों का वजन कम होने से इन पर पानी की ओर लगने वाला फोर्स इन्हें डूबने से रोक लेता है।
      पानी में तैरने वाले ये पत्थर चूना पत्थर की श्रेणी के हैं। ज्वालामुखी के लावा से बने ये स्टोन अंदर से खोखले होते हैं। इनमें बारीक-बारीक छेद भी होते हैं। वजन कम होने और हवा भरी होने की वजह ये पानी में तैरते रहते हैं। वैज्ञानिक इसका नाम प्यूमिस स्टोन बताते हैं। प्यूमिस स्टोन वह पत्थर है जो पानी में नहीं डूबता। यह एक आग्नेय चट्टान है।यह ज्वालामुखी के विस्फोट के दौरान बनती है। यह पानी में नहीं डूबता क्योंकि इसका घनत्व कम होता है। इसमें कई छोटे-छोटे छिद्र होते हैं। इसमें हवा की छोटी-छोटी जेबें होती हैं। वैज्ञानिकों की मानें तो ये पुल चूना पत्थर, ज्वालामुखी से निकली चट्टानों और कोरल रीफ से बना हुआ है। इसी वजह से पानी के जहाज इस रास्ते से कभी नहीं गुजरते हैं। इन जहाजों को श्रीलंका का चक्कर लगाना पड़ता है। जब ज्वालामुखी का लावा ज़मीन के ऊपर तेज़ी से ठंडा होता है, तो लावा की ऊपरी सतह पर बुलबुले निकलते हैं। जब लावा ठंडा होने लगता है, तो इन बुलबुलों के कारण उनमें गुहाएं (cavity) बन जाती हैं। यही हवा उस पत्थर को इतना हल्का कर देती है कि वह पानी में तैरने लगता है। इसी क्रिया से प्यूमिस स्टोन बनता है।
       कर्नाटक तमिलनाडु और केरल की सीमा पर नीलगिरी की पहाड़ियों में ज्वाला मुखी के विस्फोट बहुत हुए हैं। यहां से रामेश्वरम की दूरी 477 किमी है। भूविज्ञान में इन चट्टानों की पुरातनता अजोइक काल यानी 3000 से 500 मिलियन वर्ष पूर्व माना गया है।
      रामायण के पात्र बालि सुग्रीव की राजधानी किष्किंधा नगरी थी। किष्किंधा नगरी कर्नाटक के हम्पी के आसपास बसी थी। हम्पी कभी विजयनगर साम्राज्य की राजधानी थी। किष्किंधा की चट्टानें बहुत मशहूर हैं। हो सकता है ये वहीं से लाई गई हों। सतह पर पहुँचने के बाद, यह अंततः ज्वालामुखी के गड्ढे के शिखर बिंदु से फट जाता है। जब यह पृथ्वी की सतह के नीचे होता है तो इसे मैग्मा के रूप में जाना जाता है और जब इसे सतह पर लाया जाता है तो राख के रूप में फट जाता है। हर विस्फोट के परिणाम स्वरूप ज्वालामुखी के मुहाने पर चट्टानों, लावा और राख की दीवार बन जाती है।
भारत में अनेक जगहें जहां ये देखे जा सकते हैं:- 
रामसेतु/एडम ब्रिज में ये पत्थर भौतिक रूप में तो देखे जा सकते हैं। रामसेतु पत्थर रामेश्वरम के पंचमुखी हनुमान मंदिर, रामेश्वरम में राम सेतु के पास कोथंडारामस्वामी  विभीषण मन्दिर के पास समुद्र तट भी मैने इसे देखा है।इसके अलावा भारत के अनेक स्थलों पर भी इसे देखा जा सकता है।
जयपुर के खजाना महल संभवत देश का पहला ऐसा म्यूजियम है, जहां पर एक साथ 7 राम सेतु पत्थर के दर्शन करने का अनुभव लोगों को होता है। 
पटना में भी  गंगा नदी में तैरता एक पत्थर मिला। इस पत्थर पर भगवान श्रीराम का नाम लिखा है। अब इसे देख कुछ लोग हैरान हैं तो कुछ श्रद्धा से इसे निहारने पहुंच रहे हैं। यह खास पत्थर आलमगंज थाना अन्तर्गत राजा घाट के पास मिला है।इसे लेकर स्थानीय लोगों ने कहा कि पानी में तैरते पत्थर का वजन लगभग 12 किलो ग्राम है। पत्थर को घाट स्थित शिव मंदिर के समीप रखा गया है।स्थानीय लोग इसके लिए मंदिर की स्थापना की तैयारी में जुट गए हैं।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में स्थित जैतु साव में रामसेतु का एक पत्थर रखा है। बताया जा रहा है कि 140 साल पहले इस पत्थर को रामेश्वरम से लाया गया था। यह पत्थर पानी में तैरता है। इस पत्थर के दर्शन के लिए लोगों का भारी जमावड़ा लगा रहता है।
राम अयोध्या धाम आश्रम निकट नीम करोली बाबा आश्रम परिक्रमा मार्ग वृन्दावन मथुरा में भी राम सेतु का पत्थर आम श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ सुलभ है।
पंचमुखी हनुमान मंदिर सुंदरगढ़,उड़ीसा में भी तैरते पत्थर के प्रमाण देखे जा सकते हैं।
भारत के संसद में सांसद श्री कार्तिक शर्मा के प्रश्न का उत्तर देते हुए तत्कालिन मंत्री श्री जितेंद्र सिंह ने इसका सटीक और स्पष्ट कहा कि रामसेतु को स्पष्ट रूप से रामसेतु भले न कह सके लेकिन जो संरचना लगातार समुद्र में मिले हैं वे राम केअस्तित्व और रामसेतु के प्रमाण जरूर हैं । राम सेतु कासच इस लिंक से और स्पष्ट रूप समझाया गया है।
https://www.facebook.com/share/r/16HwBuk3B5/

धनुषकोडी (धनुष का नोंक):- 
धनुषकोडी का मतलब होता है, 'धनुष की नोक'. यह भारत के तमिलनाडु राज्य के रामनाथपुरम ज़िले में स्थित एक अभूतपूर्व नगर है। धनुषकोडी, रामेश्वरम द्वीप के दक्षिण-पूर्वी कोने में है। सूरज, रेत और पानी समुद्र तट पर सबसे बेहतरीन अनुभव जो यात्रियों को आकर्षित करते हैं, वे यहीं धनुषकोडी में हैं। नीले समुद्र की विशालता और गहराई देखने लायक है; और तट पर अंतहीन आकर्षण का अनुभव करना भी उतना ही आसान है। धनुषकोडी में समुद्र तट का एक विशाल विस्तार है। यह श्रीलंका से लगभग 15 किलोमीटर दूर , मदुरै अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा से लगभग 191 किमी दूर,रामेश्वरम स्टेशन से लगभग 24 किमी दूर तथा रामेश्वरम बस स्टैंड से लगभग 13 किमी दूर पर स्थित है। यहां से अरिचल मुनई (आखिरी भारतीय स्थल) लगभग 5 किमी रह जाता है। 15 किलोमीटर तक फैला धनुषकोडी बीच ऐसा बीच है, जहां अक्सर ऊंची लहरें उठती हैं। इस क्षेत्र में कई प्रवासी पक्षी जैसे गल्स और फ्लेमिंगो भी देखे जा सकते हैं, जो इस इलाके के प्राकृतिक आनंद को और बढ़ा देते हैं। 
      रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित यह एक भुतहा शहर बन गया है।। इसी स्थान के पास से सेतुबंध भी है। धनुषकोडी शहर पंबन द्वीप के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। यह रामेश्वरम के मुख्य शहर से 20 किमी दूर स्थित एक स्थान है, जहां से राम सेतु का दर्शन किया जा सकता है। इस जगह तक पहुँचने के लिए मुख्य भूमि से पंबन द्वीप को पार किया जाता है। ऐसा करने का सबसे अच्छा तरीका पहले प्रसिद्ध पंबन ब्रिज के माध्यम से ट्रेन द्वारा था। अब तो सड़क मार्ग से ही जाया जाता है। यहीं से धनुषकोडी की यात्रा शुरू होती है, जहाँ से कई मछली पकड़ने वाले गाँव गुजरते हैं, साथ ही दोनों तरफ पाक जलडमरूमध्य के मनमोहक दृश्य भी दिखाई देते हैं। पाक जलडमरूमध्य भारत और श्रीलंका के बीच फैला हुआ है।
     एक तरफ बंगाल की खाड़ी और दूसरी तरफ हिंद महासागर से घिरा धनुषकोडी कभी व्यापारियों और तीर्थयात्रियों दोनों के लिए एक महत्वपूर्ण बंदरगाह के रूप में कार्य करता था। धनुषकोडी और श्रीलंका (तब सीलोन के रूप में जाना जाता था) के एक शहर तलाईमन्नार के बीच नौका सेवाएं उपलब्ध थीं। ये नौकाएं माल और यात्रियों दोनों को समुद्र के पार एक देश से दूसरे देश में ले जाती थीं। धनुषकोडी शहर में सभी प्रकार की सुविधाएं थीं जिनकी एक यात्री को आवश्यकता होती है जैसे - होटल, धर्मशालाएं, और तीर्थयात्रियों, यात्रियों और व्यापारियों की सेवा करने वाली कपड़ा दुकानें आदि।  श्रीलंका इस शहर से सिर्फ 31 किमी की दूरी पर स्थित है। लेकिन ये सभी चीजें अब इतिहास बन चुकी हैं।
     एक ऊबड़-खाबड़ सवारी के बाद, जो केवल 4x4 वाहनों पर ही संभव है, रास्ते में कुछ बड़े रेतीले इलाकों की बदौलत, धनुषकोडी का 'भूत शहर' दिखाई देता है। बहुत समय पहले, खासकर ब्रिटिश राज के दौरान, धनुषकोडी एक छोटा लेकिन समृद्ध शहर था। इसमें वह सब कुछ था जो एक भरे-पूरे शहर में होने की उम्मीद किया जाता है यथा- रेलवे स्टेशन, एक चर्च, एक मंदिर, एक डाकघर और घर और अन्य घरेलू बस्तुएं देखी जा सकती थीं।
1964 का विनाशकारी तूफान:- 
22 दिसंबर 1964 की रात कोकोडी और रामातारम् में एक बड़ा तूफान आया। हवा की गति 280 किलोमीटर प्रति घंटा थी और ज्वार की लहरें 23 फीट ऊपर उठ रही थी। पंबन-धनुषकोडी ट्रेन में मीटर ब्जॉइस लाइन पर सवार सभी 115 यात्री मारे गए। पूरे शहर में अलग-अलग जांच की गई और करीब 1,800 लोगों की जान चली गई। बाद में सरकार ने धनुकोड़ी को एक परित्यक्त शहर घोषित कर दिया।
      तूफान के बाद रेल की पटारियां क्षतिग्रस्‍त हो गईं और कालांतर में, बालू के टीलों से ढ़क गईं और इस प्रकार विलुप्‍त हो गई। भगवान राम से संबंधित यहां कई मंदिर हैं। यह पूरा 15 किमी का रास्‍ता सुनसान और रहस्‍यमय है! पर्यटन इस क्षेत्र में उभर रहा है। भारतीय नौसेना ने भी अग्रगामी पर्यवेक्षण चौकी की स्‍थापना समुद्र की रक्षा के लिए की है और यात्रियों की सुरक्षा के लिए पुलिस की उपस्‍थिति महत्‍वपूर्ण है। धनुषकोडी में हम भारतीय महासागर के गहरे और उथले पानी को बंगाल की खाड़ी के छिछले और शांत पानी से मिलते हुए देख सकते हैं।
भुतहा शहर:- 
अरिचल मुनई (आखिरी भारतीय स्थल)से लगभग 5 किलोमीटर पश्चिम में धनुष्कोडी के बिखरे हुए अवशेष हैं।1964 के रामेश्वरम चक्रवात में धनुषकोडी नगर ध्वस्त हो गया था। इस चक्रवात में अनुमानित 1,800 लोगों की मौत हो गई थी. मद्रास सरकार ने धनुषकोडी को एक भूतहा शहर घोषित कर दिया था।
परित्यक्त रेलवे स्टेशन :- 
सड़क के उत्तरी किनारे पर एक परित्यक्त रेलवे स्टेशन है। स्टेशन का कुछ भी नहीं बचा है, जिसका मूल रूप से अंतरराष्ट्रीय कनेक्शन था, सिवाय तीन ऊंचे मेहराबों के।
परित्यक्त चर्च :- 
धनुष्कोडी में सबसे लोकप्रिय आकर्षण बिना छत वाला परित्यक्त चर्च है। लंबे समय से परित्यक्त चैपल के दोनों ओर अस्थायी दुकानें थीं जो सीप से संबंधित सामान बेचती थीं। चर्च के बचे हुए हिस्से में केवल सामने का दरवाज़ा, कुछ मेहराब और वेदी का एक टुकड़ा है।  
        वर्तमान में, औसनत, करीब 500 तीर्थयात्री प्रतिदिन धनुषकोडी आते हैं और त्‍योहार और पूर्णिमा के दिनों में यह संख्‍या हजारों में हो जाती है, जैसे नए निश्‍चित दूरी तक नियमित रूप से बस की सुविधा रामेश्वरम से कोढ़ान्‍डा राम कोविल ( रामेश्वरम मंदिर) होते हुए उपलब्ध है और कई तीर्थयात्री को, जो धनुषकोडी में पूर्जा अर्चना करना चाहते हैं, उन्हें निजी वाहनों पर निर्भर होना पड़ता है जो यात्रियों की संख्‍या के आधार पर 50 से 100 रूपयों तक का शुल्‍क लेते हैं। संपूर्ण देश से रामेश्‍वरम जाने वाले तीर्थयात्रियों की मांग के अनुसार, 2003 में, दक्षिण रेलवे ने रेल मंत्रालय को रामेश्‍वरम से धनुषकोडी के लिए 16 किमी के रेलवे लाइन को बिछाने का प्रोजेक्‍ट रिपोर्ट भेजा है। यह धरातल पर अब तक नहीं आ सका है। धनुषकोडी ही भारत और श्रीलंका के बीच केवल स्‍थलीय सीमा है जो जलसन्धि में बालू के टीले पर सिर्फ 50 गज की लंबाई में विश्‍व के लघुतम स्‍थानों में से एक है। 
      धनुषकोडी और सिलोन के थलइ मन्‍नार के बीच यात्रियों और सामान को समुद्र के पार ढ़ोने के लिए कई साप्‍ताहिक फेरी सेवाएं थीं। इन तीर्थयात्रियों और यात्रियों की आवश्‍यकताओं की पूर्ति के लिए वहां होटल, कपड़ों की दुकानें और धर्मशालाएं थी। 
धनुषकोडी के लिए रेल लाइन:- जो तब रामेश्‍वरम नहीं जाती थी और जो 1964 के चक्रवात में नष्‍ट हो गई, सीधे मंडपम से धनुषकोडी जाती थी। उन दिनों धनुषकोडी में रेलवे स्‍टेशन, एक लघु रेलवे अस्‍पताल, एक पोस्‍ट ऑफिस और कुछ सरकारी विभाग जैसे मत्‍स्‍य पालन आदि थे। यह इस द्वीप पर जनवरी 1897में तब तक था, जब स्‍वामी विवेकानंद सितंबर 1893 में यूएसए में आयोजित धर्म संसद में भाग लने के लेकर पश्‍चिम की विजय यात्रा के बाद अपने चरण कोलंबो से आकर इस भारतीय भूमि पर रखे।
     हाल ही में, केंद्र सरकार ने राम सेतु ब्रिज की संरचना का स्टडी करने और राम सेतु की आयु और इसके बनने की प्रक्रिया जानने के लिए पानी के अंदर खोज और शोध करने की मंजूरी दी है। यह अध्ययन यह समझने में भी मदद करेगा कि क्या यह संरचना रामायण काल जितनी पुरानी है। साथ ही, राम सेतु ब्रिज को राष्ट्रीय स्मारक बनाने की मांग की जा रही है, हालांकि यह मामला विचाराधीन है। इसके साथ ही यह जानना और दिलचस्प हो जाता है कि क्या भारतीय पौराणिक कथाओं को आधुनिक समय की संरचनाओं से लिंक करने की संभावनाएं हैं। इसे इस लिंक से और आसानी से समझा जा सकता है - 
https://www.instagram.com/reel/CyYQw7HP1nR/?igsh=YzljYTk1ODg3Zg==
अरिचल मुनई :- 
अरिचल मुनई वह बिंदु है जहां हिंद महासागर बंगाल की खाड़ी से मिलता है और इस स्थान को धनुषकोडी से देखा जा सकता है।एक तरह से, अरिचल मुनई भारतीय महाद्वीप के अंत का प्रतीक है। मन्नार की खाड़ी और बंगाल की खाड़ी यहीं मिलती हैं।अरिचल मुनई पॉइंट का इतिहास काफी पुराना है. मान्यता है कि यह स्थान भगवान शिव और माता पार्वती के निवास स्थान था। श्रीलंका का बंदरगाह शहर तलाईमन्नार, पाक जलडमरूमध्य से मात्र 35 किलोमीटर दूर है। शीर्ष पर अशोकन प्रतीक वाला एक स्तंभ टर्मिनस को चिह्नित करता है। यह भारत और श्रीलंका के बीच एकमात्र स्थलीय सीमा है। यह हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी के पानी का मिलन स्थल है। हिंदू मान्यताओं के मुताबिक, विभीषण के कहने पर श्री राम ने अपने धनुष के एक सिरे से सेतु को तोड़ दिया था। इसे इस लिंक से और अच्छी तरह से समझा जा सकता है  https://mindiafilms.com/arichal-munai-ram-setu-viewpoint-tamil-nadu-experience-india/
लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।

Monday, June 16, 2025

सम्राट मान्धाता राजा की कथा (राम के पूर्वज- 10) #आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी


इक्ष्वाकु वंश के राजा युवानाश्व
राजा युवनाश्व की पुत्र प्राप्ति की चिंता के बारे में भृगुनंदन महर्षि च्वयन को पता था। इसलिए उन्होंने उनकी इच्छा पूरी करने के लिए एक कलश में अभिमंत्रित सिद्ध जल रखा था। यह जल रानी के लिए था ताकि वह इसे पीकर इंद्र के बराबर पराक्रमी संतान को जन्म दें। लेकिन जंगल में विचरण करते हुए राजा को भयंकर प्यास लगी। वह सूखे गले से व्याकुल हो उठे और पानी की तलाश में इधर-उधर भटकने लगे। उन्हें तभी एक आश्रम दिखा और वह वहां रखे कलश का जल पी गए। अगली सुबह जब महर्षि च्वयन ने खाली कलश देखा तो उन्होंने अपने शिष्यों से पता लगाने के लिए कहा कि कलश का जल कहां गया। तब राजा युवनाश्व ने बताया कि उन्होंने प्यास से विवश होकर कलश का जल पी लिया। यह जानकर महर्षि ने राजन से कहा कि आपने गलत किया। यह आपकी पत्नी के लिए था, ताकि वह महापराक्रमी पुत्र को जन्म दे सके। इस जल को कठोर तपस्या के बाद सिद्ध किया गया था। महर्षि ने कहा कि वह अब इसका प्रभाव नहीं टाल सकते हैं। यह विधि का विधान ही होगा कि आपने यह जल पीया। अब आपके गर्भ से पुत्र का जन्म होगा और आपको प्रसव पीड़ा सहनी होगी।
इंद्र की वजह से मांधाता नाम मिला
इसके बाद करीब 100 वर्षों का समय बीता और राजा युवनाश्व की बायीं कोख फाड़कर महाप्रतापी बालक का जन्म हुआ। जिसे देखने के लिए इंद्र समेत देवता आए। तब देवताओं ने इंद्र से पूछा कि यह बालक क्या पीयेगा, इस पर उन्होंने बालक के मुंह में उंगली डालकर कहा, माम् अयं धाता यानी कि यह मुझे ही पीयेगा, इसके बाद देवताओं ने इस बालक का नाम मांधाता रखा। इंद्र की उंगली का रसास्वादन करने के बाद बालक 13 बित्ता बढ़ गया। उस बालक को सभी वेद, धनुर्वेद और दिव्यास्त्रों की शिक्षा-दीक्षा दी गई। बालक को अभेद्य कवच, आजगव धनुष और सींग से बने बाणों से सुसज्जित किया गया। यही बालक आगे चलकर इक्ष्वाकु वंश का महाप्रतापी राजा मांधाता कहलाया। 
वह भगवान राम के पूर्वज थे और इतने बलशाली थे कि एक दिन में ही तीनों लोकों को जीत लिया था। उन्होंने रावण को धूल चटाई थी और देवराज इंद्र को ललकारा था। लेकिन इंद्र ने अपना सिंहासन बचाने के लिए उन्हें अपने जाल में फंसा के मरवा डाला। ऐसे महापराक्रमी राजा का नाम मांधाता था। 
पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार भारत के सम्राटों में प्रथम सम्राट मान्धाता प्रसिद्ध है। उसे पुराणों में चक्रवर्ती सम्राट कहा गया है। उसने पड़ोस के अनेक राज्यों को जीतकर दिग्विजय किया। राजा मांधाता के बारे में महाभारत, भागवत पुराण और वाल्मीकि रामायण में प्रसंग मिलते हैं। मांधाता के जन्म की कथा भी बड़ी रोचक है। वह अपनी मां की जगह, पिता युवानाश्व की कोख से जन्मे थे। दरअसल इक्ष्वाकु वंश के राजा युवनाश्व भी बड़े साहसी और धार्मिक थे। उन्होंने एक हजार अश्वमेघ यज्ञ संपन्न कराए थे। वह ब्राह्मणों को दान देते थे। इसके अलावा कई श्रेष्ठ यज्ञ करवाते थे।
सम्राट मान्धाता के सम्बन्ध में पौराणिक अनुश्रुति में कहा गया है कि सूर्य जहां से उगता है और जहां अस्त होता है, वह सम्पूर्ण प्रदेश मान्धाता के शासन में था। जिन आर्य राज्यों को जीतकर मान्धाता ने अपने अधीन किया उनमें पौरव, आनव, द्रुहयु और हैह्य राज्यों के नाम विशेष रूप से उल्लेख पूर्ण हैं। मान्धाता को चक्रवर्ती और सम्राट बताने तथा उसकी विजयों के बारे में आर्य राज्यों को जीतना कारण बताया गया है, जिससे निष्कर्ष निकलता है वह स्वयं भी आर्य था। चूंकि भारत का इतिहास आर्यों से ही आरम्भ होता है, इसलिए भारत की सभ्यता का ज्ञान आर्यों के भारत आगमन से ही प्रकाश में आता है इसलिए कहा जा सकता है कि सम्राट मान्धाता का काल 5,000 वर्ष पूर्व रहा है। मान्धाता बड़े प्रतापी राजा हुए। उसने पड़ोस के अन्य आर्य राज्यों को जीतकर दिग्विजय किया।
        मांधाता, एक ऐसे राजा जिनसे राक्षस तो क्या इंद्र भी थरथर कांपते थे, उनका युद्ध कौशल ऐसा था कि उनके साहस के आगे एक-एक करके सभी यातो नतमस्तक हो गए या उन्हें मुंह की खानी पड़ी। एक दौर ऐसा भी आया जब राजा मांधाता ने समस्त पृथ्वी पर अपना शासन स्थापित करके इंद्र लोक की ओर रुख करने का विचार किया, तभी देवराज इंद्र ने अपनी सत्ता को बचाने के लिए पिता के गर्भ से पैदा हुए इस महापराक्रमी राजा को धोखे से मरवा दिया। लेकिन राजा मांधाता जब तक जीवित रहे, तब तक उनकी बुद्धिमत्ता, पराक्रम और धर्मपरायणता अद्वितीय रही। खास बात यह कि राजा मांधाता श्रीराम के पूर्वज थे और उन्होंने एक ही दिन में तीनों लोकों को जीत लिया था। 
सम्राट मान्धाता द्वारा विजित राज्य :- 
जिन राज्यों में सम्राट मान्धाता ने दिग्विजय की उसमें प्रमुख नाम है-पौरव, आनव, दुहयु और हैह्य। ये अपने समय के बड़े राज्य थे। जिन्हें जीतकर मान्धाता ने अपने आधीन किया। इनके अलावा अन्य स्थानों पर अपने राज्य का विस्तार किया। सम्राट मान्धाता की विजयों के परिणाम अन्य राज्यों का फैलाव-राजा अनु और राजा दक्ष्यु जिन पर सम्राट मान्धाता ने विजय प्राप्त की थी। वो अयोध्या के पश्चिम से शुरू करके सरस्वती नदी के प्रदेशों पर शासन करते थे। सम्राट मान्धाता से पराजित होने के बाद वो और अधिक पश्चिम की ओर चले गए जिसकी वजह से राज्य विस्तार हुआ। राजा द्रहयु ने पराजित होने के बाद उत्तर-पश्चिमी पंजाब में (रावलपिण्डी से भी आगे) जाकर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। मनु लोगों से हारने के बाद पराजित राजाओं ने पंजाब में-मौधेय, केकय, शिवि, मद्र, अम्बष्ठ और सौवीर राज्य स्थापित किए। सम्राट मान्धाता से परास्त होने के बाद आनव (ऐल वंश की एक शाखा के लोग) ने पंजाब की ओर जाकर कई राज्य स्थापित किये। आनवों की एक शाखा सुदूर-पूर्व की ओर गयी। उनका नेता तितिक्षु था। इसने पूर्व की ओर जाकर वर्तमान समय के बिहार में अपना राज्य स्थापित किया। 
विजित राजाओं को मारा नहीं:- 
चक्रवर्ती सम्राट मान्धाता ने अनेकानेक राज्यों पर दिग्विजय की। परन्तु पराजित राजा तथा उसके वंश के लोगों का वध नहीं किया। उनकी अधीनता मात्र से या तो सन्तुष्ट हो गए या फिर उनको सपरिवार, सकुटुम्ब राज्य से निकालकर अपना राज्य स्थापित किया। सम्राट मान्धाता के काल में पौरव वंश, कान्यकुब्ज वंश और ऐल वंश शक्तिशाली राजवंश के रूप में विकसित हुए। 
अयोध्या नरेश मानधाता से रावण का युद्ध
रावण की युद्ध करने की लालसा अभी ख़त्म न हुयी थी। इसलिए वो एक बार फिर से अयोध्या जा पहुंचा। इस बार उसका सामना अयोध्या नरेश मानधाता से हुआ। इस युद्ध में एक फिर कड़ी टक्कर हुयी। अंत में महाराज मानधाता ने रावण को मारने के लिए शिव जी द्वारा दिए गए पशुपात को हाथ में लिया। तब रावण को बचाने के लिए उसके दादा पुलस्त्य मुनि और गालव मुनि ने आकर रावण को धिक्कारा। जिससे रावण को बहुत ग्लानी हुयी। तब पुलस्त्य मुनि ने महाराज मानधाता और रावण की मैत्री करवाई।
तीनों लोकों पर था राजा मांधाता का राज
राजा मांधाता का राज तीनों लोकों तक था। समस्त पृथ्वी पर उनका शासन चलता था। पृथ्वी के सारे रत्न उनके पास थे। सब कुछ हासिल करने के बाद भी वह धर्म के रास्ते पर चलते थे। ब्राह्मणों को दान देना, हवन यज्ञ करवाना, प्रजा की रक्षा करना ये उनके दैनिक काम थे। उन्होंने इंद्र का आधा सिंहासन भी प्राप्त कर लिया था। एक दौर ऐसा भी आया जब 12 वर्षों तक बारिश नहीं हुई तब अपनी प्रजा की रक्षा के लिए मांधाता ने महामेघ के समान गरजते हुए बारिश कराई थी। मांधाता के प्रताप के आगे सभी राक्षस खौफ खाते थे।
रावण को अकेले ही परास्त कर दिया
रामायण में जिक्र आता है कि एक बार राजा मांधाता ने रावण की पूरी सेना को अकेले ही परास्त कर दिया था। तब रावण ने आवेश में आकर उन पर रौद्रास्त्र चलाया था जिसे उन्होंने आग्नेयास्त्र से निष्क्रिय कर दिया था। इससे रावण और क्रोधित हो गया और उसने गंधर्व अस्त्र उनकी ओर भेजा था, राजा मांधाता ने ब्रह्मास्त्र के इस्तेमाल से उसे काट दिया। इसके बाद रावण ने आगबबूला होकर पाशुपतास्त्र का आह्वान किया तब इस भयंकर अस्त्र से पृथ्वी पर संकट पैदा हो जाता इसलिए गालव और पुलस्त्य ऋषि ने आकर युद्धविराम करवाया।
इंद्र के जाल में फंस गए राजा मांधाता
रामायण में कथा आती है कि राजा मांधाता ने सारी पृथ्वी पर नियंत्रण हासिल करने के बाद स्वर्ग की ओर चढ़ाई करने की योजना बनाई। इसके बारे में देवराज इंद्र को पता चला तो वह चिंतित हो उठे। तब उन्होंने राजा मांधाता से बचने के लिए एक चाल चली। वह राजा मांधाता के पास पहुंचे और उनसे कहा कि तुम देवलोक पर शासन करने की तैयारी कर रहे हो लेकिन पहले पृथ्वी लोक पर तो पूरी तरह राज स्थापित कर लो। तब राजा मांधाता ने पूछा पूरी पृथ्वी मेरे अधीन है, ऐसी कोई जगह नहीं जहां मेरी आज्ञा नहीं मानी जाती हो। तब मधु दैत्य का पुत्र लवणासुर किसी की नहीं सुनता है। राजा मांधाता इंद्र के जाल में फंस गए, क्योंकि इंद्र को पता था कि लवणासुर के पास भगवान शिव का अमोघ शूल है जिसके प्रहार से कोई नहीं बच सकता है। राजा मांधाता लवणासुर को ललकारने पहुंच गए। उन्होंने लवणासुर को युद्धक्षेत्र में घायल कर दिया। तब अपनी जान पर संकट आता देख उसने राजा मांधाता पर अमोघ शूल चला दिया। इसने राजा मांधाता और उनकी सेना को राख कर दिया। और इंद्र अपनी इस चाल से देवलोक का सिंहासन बचाने में कामयाब रहे।


राजा आर्द से मान्धात्रि/मान्धाता तक की कथा (राम के पूर्वज-9)#आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी

इच्छाकु बंश में राजा सुमति की 55वी पीढ़ी आर्द नामक राजा हुए जिन्होंने अहिंसा और डर छोड़कर असुरों से युद्ध किया! इस युद्ध में राजा ने जिस हिरणा कश्यप को न दिन में मरू न रात में न अस्त्र से न शस्त्र से न देवता न दानव न पशु न पक्षी से मरू ऐसे वरदानी असुर को नाकों चने चबाने पर विवश कर दिया। सारे असुर आर्तनाद करते हुए भाग खड़े हुये जब भी युद्ध होता था। राजा हजारों घोड़ों के वेग से तेज बान चलाते थे ! युद्ध में हिरणाकश्यप के हांथ उठाने से पूर्व हांथो को छेदकर रथ में ही पिरो देते थे!
राजकुमार /राजा युवनाश्व 
राजा युवनाश्व की कहानी भारतीय पौराणिक कथाओं में एक अनोखी और रोचक कथा है, जो भागवत पुराण और अन्य पुराणों में वर्णित है। यह कहानी न केवल उनके जीवन के अनोखे प्रसंगों को दर्शाती है, बल्कि धर्म, कर्तव्य, और चमत्कारों से भरी है। हिरणाकश्यप युवनाश्व से एक भी युद्ध नहीं जीत पाया, फिर से ब्रह्मा जी ने नर संहार रुकवाते हुए कश्यप ऋषि और सप्त ऋषियों के मध्य संधि कराई गई ।अब अयोध्या से अवध प्रदेश बन गया अर्थात अयोध्या का लगभग सारा भू भाग पुनः अयोध्या के कब्जे में आ गया। यह अयोध्या सरयू नदी के तट अब भी एक तीर्थ में विद्यमान है। इसको बसाने का श्रेय राजा युवनाश्व को है। राजा युवनाश्व के कोई पुत्र नहीं था। पुत्र प्राप्ति के लिए उन्होंने यज्ञ किया। 
युवनाश्व का पुत्र मांधात्री 
युवनाश्व के पुत्र मांधात्री अयोध्या के एक प्रसिद्ध राजा थे। वह इक्ष्वाकु से उन्नीस पीढ़ियों के बाद सिंहासन पर बैठे। अपने पिता की बाईं पसली से उनके जन्म का लेखा जोखा उनकी रानी के लिए पवित्र यज्ञीय पानी पीने के परिणामस्वरूप, और इंद्र के राजकुमार के जन्म के समय इंद्र द्वारा कही गई बातों के कारण उनके नाम को स्पष्ट रूप से बताने के लिए मंधात्री कहलाए।कहा जाता है कि मंधात्री ने भारत का आधा सिंहासन प्राप्त किया था और एक दिन में पूरी पृथ्वी पर विजय प्राप्त की थी, पुराणों के अनुसार मंधत्री एक महान चक्रवर्ती और सम्राट थे। उन्हें विष्णु का पांचवा अवतार (अवतार) माना जाता था। वह एक महान बलिदानकर्ता थे और कहा जाता है कि उन्होंने राजस्थान में सौ अश्वमेध यज्ञ किए थे। 
राजा को गर्भ धारण करना पड़ा:- 
एक दिन यज्ञ मंडप में ही राजा मांधात्री को नींद आ गई। कुछ काल बाद बड़े जोर की प्यास लगी, किन्तु पानी कहीं नहीं मिला। लाचार हो राजा ने मंडप में ही रखा हुआ अभिमन्त्रित जल पी लिया और फिर सो गए। सवेरे पुरोहित ब्राह्मणों ने पूछताछ की कि मंडप में रखा हुआ अभिमंत्रित जल का क्या हुआ ? राजा ने बताया, जोर की प्यास लगी थी, वह पानी मैं पी गया। पुरोहितों ने कहा महाराज बड़ा अनर्थ किया आपने। वह जल अभिमन्त्रित था। उसमें गर्भ की शक्ति थी। वह जल रानी के लिए था। अब आपके ही गर्भ रहेगा। आपके ही पेट से सन्तान उत्पन्न होगी। राजा बहुत घबराए, किन्तु उपाय ही क्या था ? समय आने पर राजा ने गर्भ धारण किया। अन्त में राजा का पेट चीरा गया और उसमें से मान्धाता का जन्म हुआ। राजा को इतना कष्ट हुआ कि उनके प्राण पखेरू उड़ गये। युवनाश्व के पुत्र मानधात्री को महान प्रतापी राजा मान्धाता हुए।
राजा युवनाश्व का परिचय,
संतान प्राप्ति का यज्ञ और चमत्कार:- 
युवनाश्व, इक्ष्वाकु वंश के एक प्रतापी राजा थे, जो अपनी प्रजा के लिए समर्पित और धर्मनिष्ठ शासक थे। उनकी सबसे बड़ी चिंता थी कि उनके कोई संतान नहीं थी, जिसके कारण वे उत्तराधिकारी के लिए चिंतित रहते थे। संतान प्राप्ति के लिए उन्होंने अपने गुरुओं और ऋषियों से सलाह ली। युवनाश्व ने संतान प्राप्ति के लिए एक विशेष यज्ञ का आयोजन किया, जिसका संचालन महान ऋषियों ने किया। यज्ञ के अंत में, ऋषियों ने एक पवित्र जल का कलश तैयार किया, जिसमें दिव्य शक्ति थी। इस जल को युवनाश्व की रानी को पीना था, ताकि वह गर्भवती हो सके। यह कलश यज्ञशाला में रखा गया था, और रानियों को इसे अगले दिन ग्रहण करना था।
       एक रात युवनाश्व को बहुत प्यास लगी। वह यज्ञशाला में पहुंचे और बिना कुछ सोचे-समझे उस पवित्र कलश का जल पी लिया, जो उनकी रानी के लिए रखा गया था। यह एक अनजाने में हुआ कार्य था, लेकिन इसके परिणाम चमत्कारी थे।
युवनाश्व का गर्भवती होना:- 
पवित्र जल की शक्ति इतनी प्रबल थी कि युवनाश्व स्वयं गर्भवती हो गए, जो कि एक असाधारण और अभूतपूर्व घटना थी। जब ऋषियों को इस बात का पता चला, तो वे भी आश्चर्यचकित हुए। समय आने पर, युवनाश्व के उदर से एक सुंदर और स्वस्थ पुत्र का जन्म हुआ। यह जन्म किसी चमत्कार से कम नहीं था। इस पुत्र का नाम मान्धाता रखा गया, जो आगे चलकर एक महान और यशस्वी राजा बने।
मान्धाता का शासन और युवनाश्व का अंत:- 
मान्धाता ने अपने पिता युवनाश्व के बाद इक्ष्वाकु वंश की गौरवशाली परंपरा को आगे बढ़ाया। वे अपनी बुद्धिमत्ता, शौर्य, और धर्मनिष्ठा के लिए प्रसिद्ध हुए। कहा जाता है कि मान्धाता ने पृथ्वी के बड़े हिस्से पर शासन किया और उनके नाम पर ही पृथ्वी को "मान्धात्री" कहा गया।
       युवनाश्व ने अपने पुत्र को राजगद्दी सौंपने के बाद तपस्या और आध्यात्मिक जीवन की ओर ध्यान दिया। उनकी यह अनोखी कहानी हमें यह सिखाती है कि ईश्वरीय शक्ति और नियति के सामने मानव की योजनाएं बदल सकती हैं, और चमत्कार किसी भी रूप में हो सकते हैं।
कहानी का नैतिक और महत्व:- 
युवनाश्व की कहानी हमें यह सिखाती है कि
नियति अप्रत्याशित हो सकती है। युवनाश्व ने कभी नहीं सोचा था कि वे स्वयं गर्भवती होंगे, लेकिन यह ईश्वरीय इच्छा थी। विश्वास और धर्म का महत्व: युवनाश्व ने हर परिस्थिति में धर्म और कर्तव्य का पालन किया।






Sunday, June 15, 2025

पिताजी की 97वीं जयंती पर सादर स्मरण और श्रद्धांजलि

मेरे बाबूजी का नाम शोभाराम दूबे है , जिन्हें हम बचपन से “बाबूजी” ही कहकर पुकारा करते थे। इनका जन्म 15 जून 1929 ई. को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिला के हर्रैया तहसील के कप्तानगंज विकास खण्ड के दुबौली दूबे नामक गांव मे एक कुलीन परिवार में हुआ था। घर का माहौल अनुकूल नहीं था। परिवार का पालन पोषण तथा शिक्षा के लिए बाबूजी को उनके पिताजी पंडित मोहन प्यारे जी लखनऊ लेकर चले गये थे। उन्होने 1945 में लखनऊ के क्वींस ऐग्लो संस्कृत हाई स्कूल से हाई स्कूल की परीक्षा उस समय ‘प्रथम श्रेणी’ से अंग्रेजी, गणित, इतिहास एवं प्रारम्भिक नागरिकशास्त्र आदि अनिवार्य विषयों तथा हिन्दी और संस्कृत एच्छिक विषयों से उत्तीर्ण की है। इन्टरमीडिएट परीक्षा 1947 में कामर्स से द्वितीय श्रेणी में अंग्रेजी, बुक कीपिंग एण्ड एकाउन्टेंसी, विजनेस मेथेड करेसपाण्डेंस, इलेमेन्टरी एकोनामिक्स एण्ड कामर्सियल ज्याग्रफी तथा स्टेनो- टाइपिंग विषयों से उत्तीर्ण किया था। 

सरकारी सेवा में:- 

बाबूजी सहकारिता विभाग में सरकारी सेवा में लिपिक पद पर नियुक्ति पाये थे। बाद में बाबूजी ने विभागीय परीक्षा देकर लिपिक पद से आडीटर के पद पर अपनी नियुक्ति पा लिये थे। अब बाबूजी का कार्य का दायरा बदल गया और अपने विभाग के नामी गिरामी अधिकारियों में बाबूजी का नाम हो गया था। बाबूजी अपने सिद्धान्त के बहुत ही पक्के थें उन्होने अनेक विभागीय अनियमितताओं को उजागर किया था इसका कोपभाजन भी उन्हें बनना पड़ा था। उस समय उत्तराखण्ड उत्तरप्रदेश का ही भाग था। बाबूजी को टेहरी गढ़वाल और पौड़ी गढ़वाल भी जाना पड़ा था। वैसे वे अधिकांशतः पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही अपनी सेवाये दियें हैं। बस्ती तो वे कभी रहे नहीं परन्तु गोण्डा, गोरखपुर, देवरिया, बलिया, आजमगढ, बहराइच, गाजीपुर, जौनपुर तथा फैजाबाद आदि स्थानों पर एक से ज्यादा बार अपना कार्यकाल बिताया है। बाबूजी का आडीटर के बाद सीनियर आडीटर के पद पर प्रोन्नति पा गये थे। सीनियर आडीटर के जिम्मे जिले की पूरी जिम्मेदारी होती थी। बाद में यह पद जिला लेखा परीक्षाधिकारी के रुप में राजपत्रित हो गया। कभी- कभी बाबूजी को दो- दो जिलों का प्रभार भी देखना पड़ता था। जब कोई अधिकारी अवकाश पर जाता था तो पास पड़ोस के अधिकारी के पास उस जिले का अतिरिक्त प्रभार भी संभालना पड़ता था। 1975  में बाबूजी ने अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद से बी. ए. की उपधि प्राप्त की थी।

परिवहन निगम में प्रतिनियुक्ति पर:- 

विभाग में अच्छी छवि होने के कारण बाबूजी को प्रतिनियुक्ति पर उ. प्र. राज्य परिवहन में भी कार्य करने का अवसर मिला था। ये क्षेत्रीय प्रबन्धक के कार्यालय में बैठते थे और उस मण्डल के आने वाले सभी जिला स्तरीय कार्यालयों के लेखा का सम्पे्रेक्षण करते थे। उनकी नियुक्ति कानपुर के केन्द्रीय कार्यशाला में 23.12.1982 को हुआ था। यहां से वे औराई तथा इटावा के कार्यालयों के मामले भी देखा करते थे। अपनी सेवा का शेष समय बाबूजी ने राज्य परिवहन में पूरा किया था। 1985 में वह कानपुर से गोरखपुर कार्यालय में सम्बद्ध हो गये थे। यहां से वे आजमगढ़ के कार्यालय के मामले भी देखा करते थे। गोरखपुर कार्यालय से वे 30.06.1987 में सेवामुक्त हुए थे। बाबूजी अपने पैतृक जन्मभूमि पर कम तथा अपने ससुराल वाले जगह पर ज्यादा रहने लगे थे। वे बाहर भी अकेले रहते थे। माता जी को बहुत कम अपने पास रख पाते थे क्योकि घर पर नानाजी भी तो अकेले थे। मेरे भाई साहब को बाबूजी के पास फैजाबाद, बहराइच, गाजीपुर तथा जौनपुर में रहकर पढ़ने का मौका मिल गया था। मुझे उनका सानिघ्य बाहर नहीं मिल पाया तथा उनके साथ समय विताने का अवसर कम मिल पाया था। हमें जब भी अपने पढ़ाई तथा बच्चे के पढ़ाई से समय मिलता मैं उनके आवास यानी अपने ननिहाल स्वयं, पत्नी तथा बच्चे के साथ अवश्य जाता रहा और वह बहुत ही प्रसन्न होते थे ।मैंने सोचा था कि जब मैं अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हूंगा तो बाबूजी के साथ समय बिताउगां। उनके सुख दुख में भागी बनूंगा। पर ईश्वर ने एसा करने नहीं दिया। हमें थोड़े-थोड़े समय के लिए उनके साथ रहने का अवसर ही मिल पाया। इस बात का मुझे बहुत मलाल रहा है। 

अंतिम विदाई:- 

17 जनवरी 2011 में वह महान आत्मा हमेशा हमेशा के लिए हमसे दूर होकर परम तत्व में बिलीन हो गया। उनकी प्रेरणा व स्मृतियां आज भी मेरे व मेरे परिवार को सम्बल प्रदान करती है। जब मैं इस स्थिति में हुआ कि मेरे बच्चे अकेले मेरे देखरेख में रहने के लिए उपयुक्त हो गये तो मैं अपनी पत्नी को अपनी मांजी की सेवा के लिए घर पर कर दिया और अपने जिन्दगी के आखिरी के लगभग 8 साल मुझे अकेले बाहर गुजारना पड़ा है। मेरी सेवा के कुछ ही दिन बचे हुए थे। अकेले रहते-रहते पुराने लोगों की यादें बहुत आती रहती थी। अतीत की स्मृतियों में बार-बार जाना ही पड़ता है। उनकी पावन स्मृति को शत शत नमन और श्रद्धांजलि।

   

Saturday, June 14, 2025

नव विवाहित दंपतियों में हत्या की बढ़ती घटनाएं # डा. राधे श्याम द्विवेदी

लड़कियाँ के कुछ खास गुण 
लड़कियाँ प्राकृतिक रूप से सहनशील होती हैं। वे किसी भी परिस्थिति में जल्दी अनुकूल हो जाती हैं। उन्हें अनुकूल होने में समय नहीं लगता । वे परिस्थिति के अनुसार क्या और कब बोलना चाहिए ये भी अच्छे से जानती हैं। वे खुद कोसजने संवरने में बहुत आगे होती हैं। वे भली भांति जानती हैं जो भी संसाधन उपलब्ध हो उसमें बेहतर कैसे दिखना है।
        आधुनिक शिक्षा, माता पिता द्वारा उन्हें स्वावलंबी बनाना और किशोरावस्था में उन पर पैनी निगाह ना रखना तथा माता पिता द्वारा उन्हें भोला मासूम ही समझना ही ऐसे घटनाओं को पनपने का अनुकूल माहौल प्रदान करता है। इनको सार्वजनिक दंड भी नहीं मिलता इससे समाज में इनके गलत इरादों के प्रति सबक का संदेश भी नहीं जा पाता है। कुछ लड़कियां भाववेश में आकर गलत कदम उठा लेती हैं, बाद में पश्चाताप भी करती हैं लेकिन अपनी जिंदगी के साथ समाज में जहर घोल ही जाती हैं। कुछ का अंजाम भी बुरा होता है और वे दुनिया की जलीलत न सह पाने के कारण अपनी जीवन लीला भी समाप्त कर देती हैं। महिला आयोग, सामाजिक सुधार विभाग और न्यायपालिका को इस विषय पर और मुखरित होना चाहिए।
आचार्य चाणक्य की नीति  
आचार्य चाणक्य भारत के प्राचीनतम और सबसे बुद्धिमान नीतिशास्त्रियों में से एक माने जाते हैं। उन्होंने जीवन के हर पहलू को बहुत ध्यान और गहराई से समझा और बताया कि इंसान की आदतें उसका आने वाला समय तय करती हैं। उनके मुताबिक, एक महिला पूरे घर की जान होती है, वो चाहे तो अपने परिवार को खुशहाल बना सकती है और अगर उसके बर्ताव में गड़बड़ हो, तो वही घर परेशानी से भर सकता है। चाणक्य नीति में ऐसी महिलाओं के बारे में बताया गया है, जिनकी कुछ बुरी आदतें परिवार की शांति, इज्जत और तरक्की को धीरे-धीरे खत्म कर देती हैं। ये बातें किसी को नीचा दिखाने के लिए नहीं, बल्कि लोगों को सच्चाई समझाने और सुधार की ओर ले जाने के लिए कही गई हैं।आज के समय में भी इन बातों का मतलब उतना ही जरूरी है जितना पुराने जमाने में था।
गलत आदतों से घर श्मशान बन जाता है :- 
एक समझदार और सुलझी हुई महिला पूरे परिवार को खुश और मजबूत बना सकती है. लेकिन अगर उसमें गलत आदतें आ जाएं, तो वही महिला घर को बिगाड़ भी सकती है। चाणक्य नीति आज भी यही सिखाती है कि सच्चा सुख, प्यार, सम्मान और पैसा तभी टिक सकता है जब घर की महिला संतुलन और समझदारी से काम ले।
अपने पैसे या सुंदरता का घमंड करना:- जो महिला अपनी सुंदरता, पैसे या परिवार की शोहरत पर घमंड करती है, धीरे-धीरे अकेली रह जाती है। घमंड से कोई किसी की इज्जत नहीं करता। जब घर में प्यार की जगह अहंकार आ जाता है, तो रिश्ते टूटने लगते हैं। चाणक्य ने कहा है कि घमंड करने वाली औरत अपने ही हाथों से अपना घर बर्बाद कर सकती है।
पति की कमाई को कम समझना:- 
अगर कोई महिला अपने पति की कमाई से खुश नहीं रहती, उसे ताने देती है या दूसरों से तुलना करती है, तो इससे पति का मन टूट जाता है।वो दुखी हो जाता है और रिश्तों में खटास आने लगती है। चाणक्य कहते हैं कि ऐसी स्त्री अपने ही घर की नींव को हिला देती है। धीरे-धीरे परिवार में तनाव और पैसों की तंगी बढ़ जाती है।
शादी, हनीमून और मर्डर का त्रिकोण:- 
जिस तरह से नव विवाहित दंपतियों की हत्या की घटनाएं सुनने को मिल रही हैं यह बहुत ही शर्मनाक है और इस बात पर विचार करना उतना ही आवश्यक है कि समाज किस दिशा में जा रहा है और हम अपने बच्चों को क्या संस्कार दे रहे हैं। अभी हाल ही में कुछ चरित्र बहुत ही सुर्खियों में रहे कुछ के नाम इस प्रकार है - 
1- मुस्कान रस्तोगी
2- निकिता सिंघानिया और
3- सोनम रघुवंशी आदि आदि।
       इंदौर में राजा और सोनम की अरेंज मैरिज हुई थी। शादी के चंद दिन बाद हनीमून पर निकला ये कपल कामाख्या मंदिर के दर्शन की बात कहकर मेघालय जा पहुंचा। लेकिन 12 दिन बाद पहाड़ियों में राजा की लाश मिली और सोनम गायब थी। लेकिन जब हकीकत सामने आई तो यह मामला महज कोई हादसा नहीं, बल्कि एक सोची-समझी साजिश और मर्डर का निकला. जिसमें सुपारी किलर भी हायर किए गए थे।
शादी का रिश्ता विश्वास और एक दूसरे के आत्मसात से बनता है:- 
शादी जैसे पवित्र रिश्ते में विश्वास सबसे बड़ा स्तंभ होता है। जब इस रिश्ते में हत्या जैसी घटनाएं सामने आती हैं, तो सामाजिक विश्वास और मूल्यों पर आघात पहुंचता है।विवाह केवल दो व्यक्तियों का नहीं, दो परिवारों का भी बंधन होता है। जब ऐसा कोई अपराध होता है, तो दोनों परिवार मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक रूप से टूट जाते हैं।
नकारात्मक दृष्टिकोण:- 
ऐसी घटनाएं समाज में नवविवाहित दंपतियों को लेकर एक नकारात्मक दृष्टिकोण विकसित कर सकती हैं। विशेषकर महिलाओं को लेकर शंका और अविश्वास बढ़ सकता है, जो उचित नहीं है।
 नव विवाहिता को अनुकूल माहौल मिले :- 
नारियां आज भी देवी स्वरूपा है, उन्हें अनुकूल बनना, बनाया जाना और रखना चाहिए। तलाक भी इतनी आसानी से नहीं मिलना चाहिए। जब पति का परिवार सब तरह से अनुकूल बना लेता है तो बहू को,उसके माता पिता को भी अनुकूल बनाने में सहयोग और प्रेरणा देना ही चाहिए। लड़की के पसन्द के अनुरूप ही शादी का रिश्ता फाइनल करनाचाहिए। इसे अपने मान- सम्मान में बाधा ना मानकर अनुकूल सद्प्रेरणा देनी चाहिए। कॉन्वेंट और भौतिक शिक्षा के साथ संस्कार कथा ,कीर्तन और बड़े बुजुर्गों के निगाहबान में ही रहना चाहिए। तलाक तो अंतिम विकल्प होना चाहिए । हत्या और अप्राकृतिक कृत्य तो कभी भी नहीं होना चाहिए।

लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।


अहमदाबाद विमान दुर्घटना के कुछ चमत्कारिक प्रमाण मिले #आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी

मलवे में तब्दील हुआ एयर इंडिया का विमान

गुजरात के अहमदाबाद में 12 जून की सुबह एक भीषण विमान हादसा हुआ, जिसने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। अहमदाबाद से लंदन जा रही एक इंटरनेशनल फ्लाइट टेक-ऑफ के कुछ ही मिनटों बाद तकनीकी खराबी के चलते क्रैश हो गई। इस दर्दनाक हादसे में विमान में सवार सभी 241 यात्रियों की मौके पर ही मौत हो गई। हादसा इतना भयावह था कि घटनास्थल पर सिर्फ मलबा, राख और जले हुए हिस्से ही नजर आ रहे थे। यात्रियों के शवों को पहचानना भी मुश्किल हो गया है।इस दुखद और विनाशकारी घटना में जानमाल का भारी नुकसान हुआ।हादसा इतना बड़ा था कि प्लेन के क्रैश होने से सड़क पर भारी मात्रा में मलबा गिरा हुआ, जिसे हटाने का काम जारी है।

तीन दैवी चमत्कार की घटना घटित:- 

इस मलबे से एक व्यक्ति का जीवित बच निकलना, श्रीमद्भगवत गीता का सबूत निकलना और भगवान श्रीकृष्ण के लड्डू गोपाल स्परूप की मूर्ति भी सही सलामत सुरक्षित निकलना किसी चमत्कार से कम नहीं है। गीता और लड्डू गोपाल दोनों  वस्तुएं विमान में सवार जयश्री पटेल नाम की महिला के हैंडबैग में थीं। जयश्री पटेल इन दोनों को अपने साथ लंदन ले जा रही थीं।

1.लड्डू गोपाल की मूर्ति मिलना चमत्कार

अहमदाबाद में एयर इंडिया का प्लेन क्रैश हादसे के बाद भगवान श्रीकृष्ण के लड्डू गोपाल स्परूप की मूर्ति मिली है। यह किसी चमत्कार से कम नहीं है। सोशल मीडिया पर एक वीडियो सामने आया है, जिसमें लड्डू गोपाल की मूर्ति दिखाई जा रही है। मृतक जयश्री अरवल्ली जिले के मोडासा स्थित खंभीसर गांव की रहने वाली थी। 3 महीने पहले ही उसकी शादी आकाश से हुई थी।अब वह अपनी पति के पास रहने लंदन जा रही थी, लेकिन रास्ते में हादसे का शिकार हो गई और उसके दो सामान बिना किसी नुकसान के बच निकले।

2.बिना जली मिली भगवत गीता की पुस्तक:- 

बीते दिन भगवत गीता मिलने का वीडियो भी सामने आया था।इतनी भयंकर आग लगने के बाद भी पुस्तक को कुछ नहीं हुआ और सभी पेज सुरक्षित हैं। गीता के कवर का कुछ पार्ट जला है, शुरुआत के कुछ पन्ने पर जलने के निशान हैं, लेकिन अंदर के सभी पेज सुरक्षित हैं. साथ ही पुस्तक पर बनी देवी-देवताओं की तस्वीरें भी सुरक्षित रहीं हैं।

भगवद्गीता स्वयं श्री कृष्ण का स्वरूप होता है:- 

भगवद्गीता को भगवान श्री कृष्ण का स्वरूप माना जाता है। यह महाभारत के भीष्मपर्व का हिस्सा है और इसमें भगवान कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध के दौरान उपदेश दिए थे, जो भगवद्गीता के रूप में प्रसिद्ध हैं। इस ग्रंथ में, कृष्ण को न केवल एक महान योद्धा और मार्गदर्शक के रूप में दिखाया गया है, बल्कि उन्हें परमेश्वर, या भगवान के रूप में भी दर्शाया गया है। उन्हें 'पुरुषोत्तम' या 'परमात्मा' कहा गया है, जो प्रकृति और पुरुष से परे हैं। 

भगवद्गीता में श्री कृष्ण को स्वयं भगवान का स्वरूप माना गया है। जिसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए स्वयं को "परम पुरुषोत्तम" बताते हैं। इसके कई श्लोकों में श्रीकृष्ण के दिव्य स्वरूप और उनकी सर्वव्यापी प्रकृति का वर्णन है।वास्तव में भागवत गीता कोई साधारण ग्रंथ नहीं, भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं कहा है कि यह मेरा ही स्वरूप है। मैं ही परम तत्व हूं, मेरे अतिरिक्त इस संसार में कोई दूसरा नहीं है। उदाहरण के लिए, अध्याय 10, श्लोक 20 में श्री कृष्ण कहते हैं:- 

अहम् आत्त्मा गुडाकेश

सर्वभूताशयस्थितः। 

अहं आदिश् च मध्यं च 

भूतानां अन्त एव च॥ 

(अर्थ: हे अर्जुन! मैं ही सब भूतों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ, मैं ही सब भूतों का आदि, मध्य और अंत हूँ।)

यह श्लोक बताता है कि श्री कृष्ण न केवल सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हैं, बल्कि वे ही सृष्टि के आरम्भ, मध्य और अंत में भी विद्यमान हैं। यह उनकी सर्वव्यापी प्रकृति और भगवान के रूप में उनकी स्थिति को दर्शाता है। गीता में, में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध के मैदान में उपदेश दिए, जो कर्म, ज्ञान, भक्ति और मोक्ष जैसे विषयों पर केंद्रित कर्म योग, ज्ञान योग और भक्ति योग का उपदेश है। गीता को ज्ञान का भंडार माना जाता है, जो जीवन के हर पहलू पर प्रकाश डालता है। यह चरित्र निर्माण का शास्त्र है, जो मनुष्य को सही मार्ग पर चलने और श्रेष्ठ कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने चार प्रकार के भक्तों का वर्णन किया है और भक्ति का मार्ग भी बताया है। गीता के अध्याय 11 में, कृष्ण अपना विराट रूप, या विश्वरूप, अर्जुन को दिखाते हैं, जिसमें वे ब्रह्मांड और सभी प्राणियों को अपने भीतर समाहित करते हुए दिखाई देते हैं। भगवद्गीता का सार यह है कि कृष्ण स्वयं परम सत्य हैं और उनका अनुसरण करने से व्यक्ति जीवन के दुखों से पार पा सकता है। इसलिए, भगवद्गीता को कृष्ण का स्वरूप माना जाता है क्योंकि इसमें कृष्ण को भगवान के रूप में प्रस्तुत किया गया है और उनके उपदेशों का पालन करके, व्यक्ति आध्यात्मिक ज्ञान और मुक्ति प्राप्त कर सकता है। 

3. 242 यात्री में से बचकर निकला एक युवक :- 

विमान में सीट नंबर-11ए पर ब्रिटिश नागरिक विश्वाश कुमार रमेश बैठे थे।वह जिंदा बचकर बाहर निकल गए। ये किसी चमत्कार से कम नहीं था। अभी उनका अस्पताल में इलाज चल रहा है। रमेश ने कहा कि हादसे के समय जोरदार धमाका हुआ, चारों तरफ आग ही आग थी। मैं जिंदा हूं ये किसी करिश्मे से कम नहीं है।


       आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी 

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।