Friday, September 12, 2025

पुनपुन गया बिहार का प्रथम प्रवेश पिण्ड तर्पण स्थल✍️आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी


पुनपुन नदी गंगा की एक सहायक नदी है। यह झारखंड के पलामू जिले से निकलती है और झारखंड और बिहार के चतरा , गया ,औरंगाबाद, जहानाबाद और पटना जिलों से होकर बहती है । पटना में पुनपुन नदी के नाम पर ही पुनपुन नाम का एक स्थान है। फतुहा  बिहार राज्य के पटना ज़िले का एक उपनगर है। यहाँ पुनपुन नदी का गंगा नदी से संगमस्थल  बनाकर गंगा में बिलीन हो जाती है।

ब्रह्मा के आशीर्वाद में उत्पत्ति;- 

गरुड़ पुराण में कहा गया है कि प्राचीन काल में कीकट (मगध) राज्य (वर्तमान झारखंड) के दक्षिणी भाग के पलामू वन में सनक, सनंदन, सनातन, कपिल और पंचशिख ऋषि घोर तपस्या कर रहे थे। तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा प्रकट हुए। ऋषियों ने ब्रह्मा के चरण धोने के लिए जल की खोज की। जब उन्हें जल नहीं मिला तो ऋषियों ने अपना पसीना एकत्र किया। जब उस पसीने को कमंडल में रखा जाता तो कमंडल उल्टा हो जाता। इस प्रकार कमंडल के बार-बार घूमने से अनायास ही ब्रह्मा के मुख से पुनपुना शब्द निकल पड़ा। इसके बाद वहां से जल की एक अविरल धारा निकल पड़ी। इस कारण ऋषियों ने उसका नाम पुनपुना रखा, जो अब पुनपुन नाम से प्रसिद्ध है। 

आदि गंगा के रूप में मान्य :- 

 ब्रह्मदेव ने सप्त ऋषियों को आशीर्वाद देते हुए कहा था कि जो कोई भी इस नदी के तट पर पिंडदान करेगा, उसके पूर्वज स्वर्ग जाएंगे। जिससे इसे आदि गंगा कहा जाने लगा। ब्रह्माजी ने कहा था - 

''पुनपुना नदी सर्वषु पुण्या, 

सदावह स्वच्छ जला शुभ प्रदा।'' 

तभी से पितृ पक्ष के दौरान पुनपुन नदी के तट पर पहला पिंडदान करने की परंपरा सदियों से चली आ रही है।

मोक्ष का प्रथम द्वार :- 

कहा जाता है कि भगवान राम एक बार अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए माता जानकी के साथ इसी पुनपुन नदी घाट पर आए थे। उन्होंने सबसे पहले यहीं पिंडदान किया था। इसके बाद उन्होंने गया जाकर पूर्ण पिंडदान किया, जिसके कारण इसे मोक्ष का प्रथम द्वार माना जाता है।

गया से पहले  पिंडदान जरूरी:- 

गया से पहले यहां पिंडदान करना जरूरी है। मान्यता के अनुसार अंतरराष्ट्रीय धार्मिक नगरी गया में पितरों का श्राद्ध तर्पण और पिंडदान करने से पहले पुनपुन नदी में पिंडदान करना जरूरी होता है। गया में पिंडदान पुनपुन नदी में पिंडदान करने के बाद ही पूर्ण माना जाता है।जिसके कारण इसे मोक्ष दायिनी का प्रथम द्वार माना जाता है। 

गया और वाराणसी जैसी सुविधाए नहीं 

पुनपुन नदी के घाटों पर कहीं और उपलब्ध नहीं हैं। घाट पर आसानी दे दी उतरा नहीं जा सकता। मांगने वाले भिखारी श्रद्धालुओं के पूजन विधान में बाधा पहुंचाते हैं। पुलिस ये किसी सुरक्षा की व्यवस्था नहीं है। घाट कच्चा है ,जहांउतरने पर दुर्घटना होने की संभावना बनी रहती है। मंत्रोच्चारण करने वाले भी पूर्ण रूप से दक्ष नहीं हैं।

पुरोहितों ने गोदावरी सरोवर को विकल्प बनाया :- 

बाहर से लोग सीधे गया आते हैं। गया में, जब श्रद्धालु स्थानीय पंडितों और पुरोहितों से पुनपुन नदी में पहला पिंडदान करने की बात करते हैं, तो वे अतिरिक्त अनुष्ठानों के माध्यम से गोदावरी सरोवर में उनका पहला पिंडदान करवाते हैं,। वे गया के गोदावरी तालाब में स्नान कर पिंडदान कर सकते हैं, जिससे पुनपुन श्राद्ध जैसा ही फल मिलता है।इस सरोवर में पिंडदान करना पुनपुन जितना ही फलदायी है।

नहीं दिखता पर्यटन विभाग का प्रयास

पर्यटन विभाग ने भी पुनपुन नदी घाट को अंतरराष्ट्रीय पिंडदान स्थल के रूप में घोषित किया है और प्रत्येक साल भव्य पितृपक्ष मेले का आयोजन किया जाता है।

जहां पर देश के कोने-कोने से श्रद्धालु यहां आकर अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पहले पिंड का तर्पण करते हैं।उसके बाद गया जाकर फल्गु नदी तट पर पिंडदान का पूरा विधि-विधान संपन्न कराते हैं। 

          आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी 

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। लेखक इस समय पितृ तर्पण चारों धाम की यात्रा पर है।)

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काशी के पिशाचमोचन के पिण्डदान- तर्पण से प्रेतात्मा भी मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं ✍️आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी

मोक्ष की नगरी काशी:- 

यहां भगवान शंकर, ब्रह्म और कृष्ण के ताप्‍तिक रूप में मानकर तर्पण और श्राद का कार्य किया जाता है। काशी को मोक्ष की नगरी कही जाती है। यहीं से भगवान शिव ने सृष्टि रचना का प्रारम्भ किया था । यहां जो इंसान अंतिम सांस लेता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है इसीलिए कई लोग अपने अंतिम समय में काशी में ही आकर बस जाते हैं। मोक्ष नगरी काशी में चेतगंज थाने के पास पिशाच मोचन कुंड स्थित है।

गंगावतरण से पहले का तीर्थ :- 

इस कुंड की महत्ता गरुड़ पुराण में भी बताया गया है। काशी खंड की मान्यता के अनुसार पिशाच मोचन मोक्ष तीर्थ स्थल की उत्पत्ति गंगा के धरती पर आने से भी पहले से है। मान्यता है कि हजार साल पुराने इस कुंड किनारे बैठ कर अपने पितरों जिनकी आत्माए असंतुष्ट हैं उनके लिए यहा पितृ पक्ष में आकर कर्म कांडी ब्राम्हण से पूजा करवाने से मृतक को प्रेत योनियों से मुक्ति मिल जाती है।इसके लिए पेड़ पर सिक्का रखवाया जाता है ताकि पितरों का सभी उधार चुकता हो जाए और पितर सभी बाधाओं से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सकें और यजमान भी पितृ ऋण से मुक्ति पा सके। प्रेत बधाएं तीन तरीके की होती हैं। इनमें सात्विक, राजस, तामस शामिल हैं। इन तीनों बाधाओं से पितरों को मुक्ति दिलवाने के लिए काला, लाल और सफेद झंडे लगाए जाते हैं। 

त्रिपिंडी श्राद्ध का विधान:- 

ऐसी मान्यता है कि यहां त्रिपिंडी श्राद्ध करने से पितरों को प्रेत बाधा और अकाल मृत्यु से मरने के बाद व्याधियों से मुक्ति मिल जाती है। इसलिये पितृ पक्ष के दिनों पिशाच मोचन कुंड पर लोगों की भारी भीड़ उमड़ती है। श्राद्ध की इस विधि और पिशाच मोचन तीर्थस्थली का वर्णन गरुण पुराण में भी मिलता है।

बहुत व्यवस्थित व्यवस्था :- 

वाराणसी प्रशासन ने कुंड के चारों तरफ पक्का पूजन तर्पण स्थल बना रखा है जो विशाल जन समूह को शास्त्रीय विधि से तर्पण को सुगम बनाता है। अयोध्या के भरत कुंड की गया वेदी और कुण्ड में भी इस तरह की व्यवस्था होनी चाहिए। भारत में सिर्फ पिशाच मोचन कुंड पर ही त्रिपिंडी श्राद्ध होता है, जो पितरों को प्रेत बाधा और अकाल मृत्यु की बाधाओं से मुक्ति दिलाता है। मान्यता के अनुसार यहां कुंड़ के पास एक पीपल का पेड़ है जिसको लेकर मान्यता है कि इस पर अतृप्त आत्माओं को बैठाया जाता है। 

शिवगण कपर्दि द्वारा निर्मित तीर्थ:- 

काशी खंड के अनुसार पिशाच कुंड को मूल रूप से “विमल तीर्थ / विमलोदक तीर्थ” के नाम से जाना जाता है। कपर्दि नामक एक शिव गण ने एक जल निकाय- “विमल तीर्थ” बनाया था और इस स्थान पर शिव की पूजा की थी, जिससे कपर्दीश्वर महादेव अस्तित्व में आए। समय के साथ, यह स्थान तपस्या के लिए एक स्थान के रूप में प्रसिद्ध हो गया। भगवान कपर्दीश्वर महादेव को समर्पित एक प्राचीन मंदिर, खोपड़ियों से सुसज्जित द्वार और ब्रह्म को समर्पित विभिन्न छोटे मंदिरों के साथ एक जलाशय का शांत वातावरण, अपने पूर्वजों के लिए प्रार्थना के समय में स्वागत करता है, जो निषिद्ध अवस्था से मुक्ति की प्रतीक्षा कर रहे हैं ताकि वे काशी के हृदय में प्रवेश करके मोक्ष प्राप्त कर सकें - भगवान विश्वनाथ का सिद्धि क्षेत्र।

कपर्दीश्वर की पूजा से प्रेत योनि से मुक्ति:- 

एक बार एक पाशुपत ऋषि विमल तीर्थ के तट पर ध्यान कर रहे थे, अचानक एक पिशाच जो एक ब्राह्मण था, और अपने पिछले जन्म के कर्मों के कारण पिशाच (भूत) योनि को प्राप्त कर गया था। पहले तो उसने ऋषि वाल्मीकि को डराने की कोशिश की लेकिन बहुत प्रयास के बाद, उसने ऋषि को प्रणाम किया और उनसे मुक्ति का उपाय मांगी। ऋषि वाल्मीकि ने उसे तालाब में स्नान करने और भगवान कपर्दीश्वर की पूजा करने के लिए कहा। इस प्रकार उस पिशाच को पिशाच योनि से मुक्ति मिली तब से पिशाच मोचन तीर्थ बिहार के गया के अतिरिक्त पिंडदान और त्रिपिंडी श्राद्ध के लिए एक प्रसिद्ध स्थान बन गया। 

पितृ लोक से जुड़ा यह क्षेत्र :- 

हिंदू मान्यताओं के अनुसार किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी आत्मा पितृलोक में निवास करती है – स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का क्षेत्र, जो यम "मृत्यु के देवता" द्वारा शासित है। पूर्वजों की तीन पीढ़ियाँ पितृलोक में रहती हैं और पितृ पक्ष (अश्विनका कृष्ण पक्ष) के दौरान पृथ्वी का दौरा करती हैं ताकि उन्हें अपने वंश से जल, तर्पण मिल सके। अगर उन्हें यह मिल जाता है, तो उन्हें मुक्ति मिल जाती है लेकिन अगर उन्हें तर्पण नहीं मिलता है, तो उन्हें पुनर्जन्म की सजा मिलती है। जब अगली पीढ़ी का व्यक्ति मर जाता है, तो पहली पीढ़ी स्वर्ग चली जाती है और कर्म और उपरोक्त कारण के आधार पर मोक्ष/पुनर्जन्म प्राप्त करती है। इसीलिए सह्रद कर्मकांड पूर्वजों की केवल तीन पीढ़ियों के लिए किया जाता है। 

पितृ दोष निवारण का सिद्ध क्षेत्र :- 

यदि पितरों की परेशान आत्माएं पितृलोक में खुश नहीं हैं तो उनका प्रभाव पृथ्वी पर उनके प्रियजनों पर पड़ता है। पितृ दोष से मुक्ति पाने के लिए अनुष्ठानों की एक श्रृंखला में भगवान ब्रह्मा, भगवान विष्णु और भगवान शिव की पूजा शामिल है, जिन्हें क्रमशः सफेद, पीले और काले कपड़े के मिट्टी के पानी के बर्तन- कलश द्वारा दर्शाया जाता है ताकि वे पूर्वजों को मुक्ति दे सकें। 

पितृपक्ष के महीने में विशेष आयोजन:- 

पितृपक्ष के महीने में पिशाच कुंड इन अनुष्ठानों के लिए एक प्रमुख स्थान बन जाता है और दुनिया भर से लोग अपने प्रियजनों को मुक्ति दिलाने के लिए इस स्थान पर आते हैं। कुंड के आस-पास का पूरा इलाका सफेद / गेरुवा कपड़े पहने और मुंडा सिर वाले लोगों की भारी भीड़ को देखता है जो ब्राह्मणों के मार्गदर्शन में पूजा करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि गया के बाद पिशाच मोचन ही एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ ऐसी पूजा की जा सकती है जो पूर्वजों के लिए मोक्ष का द्वार खोलती है। गरुण पुराण में भी इस तीर्थ की महिमा का उल्लेख है। इस जगह से जुड़ी किंवदंती के कारण यह जगह बहुत ही अजीबोगरीब माहौल देती है। इस जगह पर एक पीपल का पेड़ है, जिस पर अनगिनत कीलें लगी हुई हैं, कुछ पर सिक्के लगे हुए हैं और कई लोगों की तस्वीरें हैं, जिनकी शायद असामयिक मृत्यु हुई हो। 

प्रमुख आकर्षण :- 

मुख्य मंदिर परिसर एक कुंड के किनारे स्थित है, विशाल वृक्षों हरियाली युक्त शांत वातावरण इसकी दिव्यता को दर्शाती है।कपरदीश्वर महादेव के साथ-साथ कपरदी विनायक (मंदिर पंच कोशी यात्रा के अंतर्गत भी आता है) के दर्शन किया जा सकता है। मंदिर के ठीक बगल में भगवान हनुमान और विष्णु के साथ ब्रह्म की एक छोटी सी जटिल मूर्ति की पूजा की जाती है। पास ही वाल्मीकि टीला पर पिशाचेश्वर महादेव और ऋषि वाल्मीकि का मंदिर है। कुंड के आसपास के क्षेत्र में पंडा/ब्राह्मण द्वारा संचालित कई छोटे मंदिर हैं, जिनके अपने-अपने ईष्टदेव हैं। पास में एक अखाड़ा है, यह एक शांतिपूर्ण परिसर है जिसमें छोटे मंदिर और चित्रकूट रामलीला के लिए समर्पित स्थान हैं, जिसे मेघा भगत “गोस्वामी तुलसीदास के शिष्य” द्वारा शुरू किया गया था।


लेखक परिचय:-


(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। लेखक इस समय पितृ तर्पण चारों धाम की यात्रा पर है।)

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Thursday, September 11, 2025

राम ने किया था अपने पिता का तर्पण कहा जाता है मिनी गया ✍️आचार्य डा राधे श्याम द्विवेदी


अयोध्या के पास भरतकुंड भगवान राम के भाई भरत की तपोभूमि है जहां राम ने पिता दशरथ का श्राद्ध किया था। पितृपक्ष में यह स्थल मिनी गया कहलाता है जहां पिंडदान गया के समान फलदायी होती है। आज भी यहां श्राद्ध करने का महत्व है और दूर-दूर से लोग अपनों को तारने आते हैं।
अयोध्या से करीब 16 किलोमीटर दूर नंदीग्राम में भगवान राम के अनुज भरत की तपोभूमि भरतकुंड है तो दूसरी ओर यही वह स्थल भी है, जहां वनवास से लौटने के बाद भगवान राम ने अपने पिता दशरथ का श्राद्ध किया था इसीलिए पितृपक्ष में पूरे देश से यहां श्रद्धालु आते हैं।

यह भी मान्यता है कि भगवान विष्णु के दाहिने पैर का चिह्न भरतकुंड स्थित गया वेदी पर है तो बाएं पांव का गया जी में। इसीलिए भरतकुंड में पिंडदान गया तीर्थ के समान फलदायी माना गया है।

मान्यता है कि भगवान राम के वनवास के दौरान भरतजी ने उनकी खड़ाऊं रख कर यहीं 14 वर्ष तक तप किया था। भगवान के राज्याभिषेक के लिए भरत जी 27 तीर्थों का जल लेकर आए थे, जिसे आधा चित्रकूट के एक कुएं में डाला था तथा शेष भरतकुंड स्थित कूप में।

भरतकुंड में यह कुआं आज भी है। कूप के निकट ही शताब्दियों पुराना वट वृक्ष भी है। कूप का जल और वट वृक्ष की छाया लोगों को न सिर्फ सुखद प्रतीत होती है, बल्कि असीम शांति से भी भर देती है।
त्रेता में भगवान राम के पिता का श्राद्ध करने के बाद स्थापित हुई परंपरा का सदियों बाद भी श्रद्धालु पालन कर रहे हैं। पितृपक्ष में पूरे देश से लोग अपनों को तारने के लिए एकत्र होते हैं। जिन लोगों को गया में भी श्राद्ध करना होता है वे भी पहले ही यहां आते हैं।

भारत के प्रमुख पिण्ड तर्पण स्थल✍️आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी


पितरों का महत्व और श्राद्ध की परंपरा

धर्मग्रंथों में साफ लिखा है कि मनुष्य का शरीर पंचतत्व में विलीन हो जाता है, पर आत्मा अमर रहती है। महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्म पितामह ने बताया है कि पितृ दोष से मुक्ति और पितरों की शांति के लिए श्राद्ध व पिंडदान करना जरूरी है। यही वजह है कि आज भी यह माना जाता है कि अगर पितरों की आत्मा तृप्त है, तो परिवार में सुख-समृद्धि और शांति बनी रहती है।

मोक्ष भूमि गया

वैसे तो देश में 55 से ज्यादा ऐसी जगहें हैं जहां पिंडदान किया जाता है, लेकिन बिहार के गया में इसका खास महत्व है। यही वह जगह है जहां परंपरा, कथा और आस्था तीनों एक साथ मिलते हैं। यही वजह है कि आज भी कोई बेटा या बेटी जब अपने पितरों की आत्मा की शांति चाहता है, तो पहला ख्याल गया का ही आता है।

गया की धरती पर कदम रखना एक हिन्दू के लिए बड़े पुण्य का काम है । कहा जाता है कि खुद भगवान विष्णु यहां पितृ देव के रूप में विराजमान हैं। यही कारण है कि गया का नाम आते ही लोगों की श्रद्धा और भी बढ़ जाती है।इतना ही नहीं पितृपक्ष में भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर आश्विन अमावस्या तक देशभर से लाखों लोग यहां आते हैं।मान्यता है कि इन दिनों गया में पिंडदान करने से पितरों को मोक्ष मिलता है और परिवार पर से पितृ दोष दूर होता है।

गया धाम की कहानी:- 

प्राचीन काल में गयासुर नाम के एक राक्षस ने कठिन तप किया और ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके उनसे एक वरदान मांगा कि उसका शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाये । उसको देखने मात्र से ही लोगों के पाप कट जाएं और उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति हो । गयासुर को मिले उस वरदान ने सृष्टि का संतुलन बिगाड़ दिया । लोग बिना किसी डर के पाप कार्यों में लिप्त होने लगे, क्योंकि उसके बाद गयासुर के दर्शन मात्र से ही उनके सारे पाप दूर हो जाते थे और उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती थी । स्वर्ग और नर्क का सन्तुलन बिगड़ने पर देवताओं ने भगवान विष्णु से मदद माँगी । तब भगवान विष्णु की सलाह से देवताओं ने गयासुर से यज्ञ करने हेतु पवित्र जमीन की मांग की । गयासुर की नजर में उसके शरीर से पवित्र कुछ नही था, इसलिए वह भूमि पर लेट गया और बोला कि आप लोग मेरे शरीर पर ही यज्ञ कर लीजिये । गयासुर का शरीर पाँच कोस जमीन पर फ़ैल गया । गयासुर के समर्पण से प्रसन्न होकर विष्णु भगवान ने वरदान दिया कि अब से यह स्‍थान जहां तुम्हारे शरीर पर यज्ञ हुआ है वह गया के नाम से जाना जाएगा । यहां श्राद्ध करने वाले को पुण्य और पिंडदान प्राप्त करने वाले को मुक्ति मिल जाएगी ।

ब्रह्माजी ने व्यासजी को बताया कि गया नामक असुर ने कठोर तपस्या से देवताओं और मनुष्यों को कष्ट दिया था। परेशान देवगण विष्णु जी के पास गए, जिन्होंने वध का आश्वासन दिया। शिवजी की पूजा के लिए क्षीरसागर से कमल लाते समय, विष्णुमाया से मोहित गया । असुर कीकट देश में शयन करने लगा। उसी समय श्री विष्णु ने अपनी गदा से उसका वध कर देवों और मनुष्यों का कल्याण किया। भगवान विष्णु ने इसके बाद घोषणा की कि उसकी देह अब पुण्यक्षेत्र के रूप में पूजनीय होगी। यहां किए गए यज्ञ, श्राद्ध और पिंडदान से भक्त स्वर्ग-ब्रह्मलोक की प्राप्ति करेंगे।

भारत के पिण्ड तर्पण के प्रमुख केन्द्र 

प्राचीन में गया के पंचकोश में 365 वेदियां थीं, परंतु कालांतर में इनकी संख्या कम होती गई और आज यहां 45 वेदियां हैं जहां पिंडदान किया जाता है। पूरे विश्व में गया ही एक ऐसा स्थान है, जहां सात गोत्रों में 121 पीढि़यों का पिंडदान और तर्पण होता है। यहां पिंडदान में माता, पिता, पितामह, प्रपितामह, प्रमाता, वृद्ध प्रमाता, प्रमातामह, मातामही, प्रमातामही, वृद्ध प्रमातामही, पिताकुल, माताकुल, श्वसुर कुल, गुरुकुल, सेवक के नाम से किया जाता है। गया श्राद्ध का जिक्र कर्म पुराण, नारदीय पुराण, गरुड़ पुराण, वाल्मीकि रामायण, भागवत पुराण, महाभारत सहित कई धर्मग्रंथों में मिलता है।

1.विष्णुपद मंदिर:

गयासुर का पूरा शरीर ही आज का गया तीर्थ है। उसकी पीठ पर बने विष्णु भगवान के पैरों के निशान के ऊपर बनवाया गया भव्य मंदिर विष्णुपद मन्दिर के नाम से जाना जाता है।दंतकथाओं में कहा गया है कि गयासुर नामक दैत्य का बध करते समय भगवान विष्णु के पद चिह्न यहां पड़े थे। यह मंदिर 30 मीटर ऊंचा है जिसमें आठ खंभे हैं। इन खंभों पर चांदी की परतें चढ़ाई हुई है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु के 40 सेंटीमीटर लंबे पांव के निशान  आज भी देखे जा सकते हैं। यह मन्दिर हिन्दू मान्यताओं में भगवान विष्णु के सबसे पवित्र मंदिरों में से एक है । गया के पास ही स्थित पाथेरकट्टी पहाड़ी से लायी गई ग्रेनाइट की चट्टानों से इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होल्कर ने 18वी शताब्दी में इस मन्दिर का निर्माण राजस्थान से ख़ास तौर से बुलाये गये लगभग 1200 शिल्पकारों से करवाया । मंदिर के निर्माण में लगभग 12 वर्ष लगे ।मन्दिर के अंदर गर्भगृह में एक बेसाल्ट की चट्टान के उपर भगवान विष्णु के पैर के निशान आज भी मौजूद हैं, जिसको धर्मशिला के नाम से जाना जाता है ।प्रांगण के अंदर अन्य मंदिर भी स्थित हैं। एक भगवान नरसिम्हा को समर्पित है और दूसरा फाल्ग्विस्वर के रूप में भगवान शिव को समर्पित है।

2.फल्गु निरंजना नदी :- 

फल्गु नदी के तट पर स्थित यह स्थान पितरों के मोक्ष के लिए सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है. जिस फल्गु नदी को मोक्षदायिनी गंगा से भी पवित्र माना गया, वह गया धाम में अपने अस्तित्व के लिए ही जूझती मिली । सीता के श्राप ने फल्गु को अंतः सलीला (सतह के नीचे से बहने वाली) बना दिया, लेकिन फिर उसी फल्गु को गंगा से भी पवित्र माना गया। यही फल्गु नदी बोधगया में निरंजना के नाम से जानी गयी । 

3.प्रेत शिला मंदिर :- 

प्रेतशिला गया शहर से लगभग 8 किमी उत्तर-पश्चिम दिशा में स्थित है। यह हिंदूओं का एक पवित्र स्थान हैं, जहां वे पिंड दान (दिवंगत आत्माओं की शांति के लिए एक धार्मिक अनुष्ठान) करते हैं। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है और लोगों का मानना है कि इस स्थान पर पिंडदान करने के बाद आत्मा को मोक्ष मिलता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, यहां की पड़ाही पर मृत्यु के देवता भगवान यम को समर्पित एक मंदिर है। मंदिर का निर्माण शुरू में इंदौर की रानी अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया था लेकिन इसका कई बार जीर्णोद्धार किया गया। आप मंदिर के पास रामकुंड नामक एक तालाब देख सकते हैं, ऐसा माना जाता है कि भगवान राम ने एक बार इसमें स्नान किया था।

यह गया शहर के उत्तर-पश्चिम में स्थित एक पर्वत है जिसके ऊपर प्रेतशिला वेदी है। यह स्थान गया शहर से लगभग 10 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम दिशा में स्थित है। पहुंचने के लिए 676 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं, लेकिन जो लोग चढ़ नहीं पाते हैं, वे डोली का सहारा लेते हैं। मान्यता है कि यहाँ पिंडदान करने से पितरों को मोक्ष मिलता है और वे प्रेत योनि से मुक्त होते हैं, खासकर अकाल मृत्यु वाले लोगों की आत्माओं को मुक्ति मिलती है। 

4.अक्षय वट गया :- 

पितृपक्ष के अंतिम दिन या यूं कहा जाए कि गया के माड़नपुर स्थित अक्षयवट स्थित पिंडवेदी पर श्राद्धकर्म कर पंडित द्वारा दिए गए सुफल के बाद ही श्राद्धकर्म को पूर्ण या सफल माना जाता है।यह परंपरा त्रेता युग से ही चली आ रही है। श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान की नगरी गया से थोड़ी दूर स्थित माढ़नपुर स्थित अक्षयवट के बारे में कहा जाता है कि इसे खुद भगवान ब्रह्मा ने स्वर्ग से लाकर रोपा था। इसके बाद मां सीता के आशीर्वाद से अक्षयवट की महिमा विख्यात हो गई। सीता जी द्वारा पिण्ड दान करने पर पंडा, फल्गु नदी, गाय और केतकी फूल ने झूठ बोल दिया परंतु अक्षयवट ने सत्यवादिता का परिचय देते हुए माता की लाज रख ली।अक्षयवट के निकट भोजन करने का भी अपना अलग महत्व है। अक्षयवट के पास पूर्वजों को दिए गए भोजन का फल कभी समाप्त नहीं होता। 

5.सीता कुण्ड गया :- 

सीताकुंड विष्णुपद मंदिर के ठीक विपरीत दिशा में स्थित है। सांस्कृतिक दृष्टि से इस कुंड का विशेष महत्व है। इस कुंड को लेकर ऐसा कहा जाता है कि 14 वर्ष के लिए वनवास जाते समय सीता माता ने इसी कुंड में स्नान किया था। इसी वजह से इस कुंड का नाम सीता कुंड पड़ा।

सीता कुंड, गया में स्थित एक पवित्र जलस्रोत है, जो माता सीता की तपस्या और पवित्रता से जुड़ा हुआ है।  यह स्थल धार्मिक आस्था का केंद्र है और यहाँ मकर संक्रांति व रामनवमी जैसे पर्वों पर विशेष स्नान का महत्व माना जाता है। कुंड के पास एक छोटा मंदिर भी स्थित है, जहाँ श्रद्धालु पूजा-अर्चना करते हैं।सीता कुंड का जल आज भी साफ़ और निर्मल बना हुआ है, जिसे आस्था के साथ पिया और संग्रहित किया जाता है। आसपास का प्राकृतिक वातावरण इसे और अधिक आध्यात्मिक बनाता है। 

6.धर्मारण्य वेदी, गया:- 

निरंजना के तट पर स्थित पीपल के वृक्ष के नीचे भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी ।धर्मारण्य पिंडवेदी है, यहां श्राद्ध करने से विभिन्न बाधाओं से मुक्ति मिलती है, पितरों को प्रेतयोनि से मुक्ति मिलती है. चाहे किसी की आत्मा भटक रही हो, या किसी का परिवार विभिन्न रोगों से ग्रसित हो या फिर संतान ना हो, शादी ना हो रही हो, या फिर अन्य कोई भी बाधा हो, अगर लोग यहां पिंडदान करते हैं तो उन्हें उक्त बाधाओं से मुक्ति मिलती है, साथ ही पितरों का उद्धार होता है. इस वेदी पर श्राद्ध कर्मकांड करने से पितरों को ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है. महाभारत काल में स्वयं युधिष्ठिर ने भी अपने पितरों की आत्मा की शांति के लिए यहां पिंडदान किया था. इसलिए इस पिंडवेदी का बहुत ही महत्व है. यह स्थान पर पिंडदान व तर्पण करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है इसलिए इस पवित्र स्थान को मोक्ष स्थली भी कहा जाता है। माना जाता है कि यहां ब्रह्मा, विष्णु और महेश के अलावा सभी देवी-देवता विराजमान हैं। गया का महत्व इसी से पता चलता है कि यहां फल्गु नदी के तट पर राजा दशरथ की आत्मा की शांति और मोक्ष के लिए श्राद्ध कर्म और पिंडदान किया गया था। वायु पुराण, गरुड़ पुराण और विष्णु पुराण में भी गया शहर का वर्णन किया गया है।

कालांतर से चली आ रही तर्पण व पिंडदान की प्रक्रिया पावन भूमि गया के आसपास स्थित पिंडवेदियों पर आज भी जारी है। स्कंद पुराण के अनुसार, महाभारत के युद्ध के दौरान मारे गए लोगों की आत्मा की शांति और पश्चाताप के लिए धर्मराज युधिष्ठिर ने धर्मारण्य पिंडवेदी पर पिंडदान किया था। हिंदू संस्कारों में पंचतीर्थ वेदी में धर्मारण्य वेदी की गणना की जाती है। माना जाता है कि धर्मारण्य पिंडवेदी पर पिंडदान और त्रिपिंडी श्राद्ध का विशेष महत्व है। यहां किए गए पिंडदान व त्रिपिंडी श्राद्ध से प्रेतबाधा से मुक्ति मिलती है और सभी पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।

7.बोधगया :- 

मुख्य शहर से थोड़ी दूर पर स्थित बोधगया में पीपल के पेड़ (जिसे बाद में बोधि वृक्ष का नाम मिला) के नीचे भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई । पुराने शहर के पास बहती फल्गु नदी के किनारे हर साल पितृपक्ष के 15 दिनों में लाखों लोग गया तीर्थ की धरती पर अपने पितरों का पिंडदान, श्राद्ध और तर्पण करके उनके मोक्ष की कामना करते हैं । पितृपक्ष के परे भी यह सिलसिला साल भर चलता ही रहता है । ज्ञान और मोक्ष के इसी संगम ने गया को मुक्तिधाम बना दिया । यह बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए ज्ञान का सागर है और हिन्दू धर्म को मानने वालों के लिए मोक्ष का द्वार है ।गया तीर्थ में पिंडदान के लिए सिर्फ फल्गु नदी का किनारा ही नहीं है, बल्कि ऐसी कई सारी वेदियाँ हैं, जहाँ पिंडदान और श्राद्ध के कार्यक्रम विधिपूर्वक संपन्न होते हैं । 

8.मंगला गौरी मंदिर गया:- 

मंगला गौरी मंदिर 15वीं सदी में बना है। यह देवी सती को समर्पित 52 महाशक्तिपीठों में गिना जाता है, जहां देवी सती के शरीर के अंग गिरे थे। यह मंदिर पहाड़ी पर विराजमान है। मंगला गौरी मंदिर बिहार के गया जिले में, भस्मकूट पर्वत पर स्थित एक प्रमुख शक्ति पीठ है, जहाँ सती माता का वक्षस्थल गिरा था और यह 18 महाशक्ति पीठों में से एक माना जाता है. यह मंदिर दया की देवी माता मंगला गौरी को समर्पित है।

9.राम शिला पहाड़ी गया :- 

रामशिला पहाड़ी बिहार के गया जिले में स्थित एक प्राचीन और पवित्र स्थल है, जहां भगवान राम से जुड़ी मान्यताएं हैं और यह धार्मिक पर्यटन का एक महत्वपूर्ण केंद्र है. यह पहाड़ी अपने मनमोहक नजारों और हरियाली के लिए भी जानी जाती है, जो इसे एक लोकप्रिय स्थल बनाती है।

10.प्रयागराज,संगम तट:- 

प्रयागराज, उत्तर प्रदेश: तीर्थों के राजा प्रयागराज में गंगा, यमुना और पौराणिक सरस्वती के संगम पर पिंडदान करने से पितरों को सारे पापों से मुक्ति मिलती है और उन्‍हें स्‍वर्ग में स्‍थान मिलता है।

11. उज्‍जैन, मध्‍यप्रदेश: - 

महाकाल की नगरी उज्‍जैन में लोग काल सर्प दोष और पितृ दोष निवारण की पूजा करने के लिए देश-दुनिया से आते हैं. क्षिप्रा नदी के तट पर पूर्वजों के लिए पिंडदान करने से उनकी आत्‍मा को शांति मिलती है. मान्‍यता है कि उज्‍जैन में क्षिप्रा नदी के किनारे पिंडदान कराने का फल गयाजी में पिंडदान कराने जितना ही मिलता है।

12. द्वारका, गुजरात:- भगवान कृष्ण की नगरी द्वारका में भी गोमती नदी के तट पर पिंडदान किया जाता है।कृष्‍ण भक्‍त यहां विशेष रूप से आते हैं।

13. पुरी, ओडिशा:-महानदी और भार्गवी नदी के संगम तट पर स्थित यह पवित्र स्थान पितरों को पुण्य और शांति प्रदान करता है। जगन्नाथ मंदिर के लिए प्रसिद्ध पुरी में भी समुद्र तट पर पिंडदान कराया जाता है। मान्‍यता है कि 'स्वर्गद्वार' नामक स्थान पर पिंडदान करने से पितरों को सीधे स्वर्ग में प्रवेश मिलता है।

14.पिशाच मोचन कुंड, काशी:- 

काशी में स्थित पवित्र पिशाच मोचन कुंड में पितरों को सभी बंधनों से मुक्त करने की विशेष शक्ति मानी जाती है। प्राचीन कथाओं के अनुसार, इस स्थान का नाम इसलिए पड़ा क्योंकि एक परेशान आत्मा यहाँ स्नान करने के बाद शांत हो गई थी। गरुड़ पुराण में वर्णन है कि इस कुंड को स्वयं भगवान विष्णु ने आशीर्वाद दिया था। जब परिवार इस पवित्र स्थान पर पिंडदान और तर्पण करते हैं, तो माना जाता है कि पितरों को तत्काल संतुष्टि और मुक्ति प्राप्त होती है। कुंड के चारों ओर प्राचीन पीपल के पेड़ हैं, जहाँ ऐसा कहा जाता है कि पितरों की आत्माएँ अपने वंशजों द्वारा याद किए जाने की प्रतीक्षा करती हैं। विश्वास है कि यहाँ अनुष्ठान करने के बाद भक्तों को पारिवारिक समस्याओं और आर्थिक कठिनाइयों से राहत मिलती है। गंगा जल से मिश्रित इस कुंड का पानी पितृ दोष को दूर करने और पारिवारिक जीवन में शांति लाने के लिए अत्यंत शक्तिशाली माना जाता है।

15.बद्रीनाथ (उत्तराखंड):

यहां अलकनंदा नदी के तट पर स्थित ब्रह्मकपाल क्षेत्र में पिंडदान करने से बैकुंठ लोक की प्राप्ति होती है. 

16.हर की पौड़ी,हरिद्वार (उत्तराखंड):

हरिद्वार, उत्तराखंड: हरिद्वार में हर की पौड़ी पर पिंडदान करने से पितरों की आत्मा को शांति मिलती है.

पिंडदान के लिए उत्तराखंड के हरिद्वार को शुभ माना गया है। कहते हैं कि हरिद्वार में पिंडदान करने से ज्‍यदा फल मिलता है। खासतौर से जिनके पितृ प्रेत योनि में भटक रहे हैं, उनके लिए हरिद्वार में श्राद्ध करना फलदायी है। मान्‍यता है कि हरिद्वार में गंगा नदी में पितरों का तर्पण करने से पितरों की आत्‍मा को शांति मिलती है। 

17.नारायणी शिला, हरिद्वार:- 

भगवान विष्णु के श्रीविग्रह के तीन महत्वपूर्ण अंग तीन अलग-अलग तीर्थों में स्थित हैं। चरण बिहार के गया में विष्णुपाद मंदिर में, शीर्ष भाग उत्तराखंड के बदरीनाथ धाम के ब्रह्मकपाल पर और कंठ से नाभि तक का हिस्सा हरिद्वार की नारायणी शिला में है। इसी कारण इस स्थान को हृदय स्थल कहा जाता है।गंगा तट पर स्थित इस शिला के दर्शन मात्र से व्यक्ति के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और यहां किया गया पिंडदान व श्राद्ध पितृों को मोक्ष प्रदान करता है।

शास्‍त्र कहते हैं कि हरिद्वार में भगवान विष्‍णु का स्‍थान है। यहां जो भी भक्ति भाव से अपने पितरों के लिए मनोकामना करता है, वह सीधे भगवान विष्णु तक पहुंच जाती है। इसलिए इस जगह का वर्णन पुराणों, धार्मिक ग्रंथों में भी किया गया  है।शास्‍त्र कहते हैं कि हरिद्वार में भगवान विष्‍णु का स्‍थान है। यहां जो भी भक्ति भाव से अपने पितरों के लिए मनोकामना करता है, वह सीधे भगवान विष्णु तक पहुंच जाती है। इसलिए इस जगह का वर्णन पुराणों, धार्मिक ग्रंथों में भी किया गया है।

18.कुशावर्त घाट -

हरिद्वार में पिंडदान करना है, तो कुशावर्त घाट अच्‍छी जगह है। ज्‍यादातर लोग यहीं पिंडदान करते हैं।

19.पुष्कर (राजस्थान):

ब्रह्म सरोवर पर श्राद्ध कर्म करने के लिए यह प्रसिद्ध है. 

20.नासिक (महाराष्ट्र):

गोदावरी नदी के तट पर त्रयंबकेश्वर के पास श्राद्ध करने से पितरों को मुक्ति मिलती है. 

21.कुरुक्षेत्र (हरियाणा):

पितरों के मोक्ष के लिए कुरुक्षेत्र में भी पिंडदान का विधान है. 

22.द्वारिका (गुजरात):

पिण्डारक नामक तीर्थ क्षेत्र में श्राद्ध करने से पितरों को मुक्ति मिलती है. 

23.लक्ष्मण बाण कुंड (कर्नाटक):

यह रामायण काल से जुड़ा स्थान है, जहां भगवान राम ने अपने पिता दशरथ का पिंडदान किया था. 

24.भरत कुंड

भरत कुंड, जिसे नंदीग्राम भी कहा जाता है, अयोध्या के पास स्थित एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थान है। मान्यता है कि यहां पिंडदान करने से आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति होती है, इसलिए हजारों लोग हर दिन पिंडदान के लिए यहां पहुंचते हैं। इसे गया बेदी भी कहा जाता है।

25.सरयू नदी 

अयोध्या पवित्र सरयू नदी के तट पर स्थित है, और नदी के किनारे भी पिंडदान के अनुष्ठान किए जाते हैं।

यहां लोग नदी में डुबकी लगाते हैं और फिर ब्राह्मणों की देखरेख में अपने पूर्वजों के लिए पिंडदान व हवन का अनुष्ठान करते हैं।

      आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी 

Wednesday, September 10, 2025

पिताजी स्मृति शेष श्री शोभाराम दूबे की पावन स्मृति में सादर नमन

मेरे बाबूजी का नाम शोभाराम दूबे है , जिन्हें हम बचपन से “बाबूजी” ही कहकर पुकारा करते थे। इनका जन्म 15 जून 1929 ई. को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिला के हर्रैया तहसील के कप्तानगंज विकास खण्ड के दुबौली दूबे नामक गांव मे एक कुलीन परिवार में हुआ था। घर का माहौल अनुकूल नहीं था। परिवार का पालन पोषण तथा शिक्षा के लिए बाबूजी को उनके पिताजी पंडित मोहन प्यारे जी लखनऊ लेकर चले गये थे। उन्होने 1945 में लखनऊ के क्वींस ऐग्लो संस्कृत हाई स्कूल से हाई स्कूल की परीक्षा उस समय ‘प्रथम श्रेणी’ से अंग्रेजी, गणित, इतिहास एवं प्रारम्भिक नागरिकशास्त्र आदि अनिवार्य विषयों तथा हिन्दी और संस्कृत एच्छिक विषयों से उत्तीर्ण की है। इन्टरमीडिएट परीक्षा 1947 में कामर्स से द्वितीय श्रेणी में अंग्रेजी, बुक कीपिंग एण्ड एकाउन्टेंसी, विजनेस मेथेड करेसपाण्डेंस, इलेमेन्टरी एकोनामिक्स एण्ड कामर्सियल ज्याग्रफी तथा स्टेनो- टाइपिंग विषयों से उत्तीर्ण किया था। 

सरकारी सेवा में:- 

बाबूजी सहकारिता विभाग में सरकारी सेवा में लिपिक पद पर नियुक्ति पाये थे। बाद में बाबूजी ने विभागीय परीक्षा देकर लिपिक पद से आडीटर के पद पर अपनी नियुक्ति पा लिये थे। अब बाबूजी का कार्य का दायरा बदल गया और अपने विभाग के नामी गिरामी अधिकारियों में बाबूजी का नाम हो गया था। बाबूजी अपने सिद्धान्त के बहुत ही पक्के थें उन्होने अनेक विभागीय अनियमितताओं को उजागर किया था इसका कोपभाजन भी उन्हें बनना पड़ा था। उस समय उत्तराखण्ड उत्तरप्रदेश का ही भाग था। बाबूजी को टेहरी गढ़वाल और पौड़ी गढ़वाल भी जाना पड़ा था। वैसे वे अधिकांशतः पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही अपनी सेवाये दियें हैं। बस्ती तो वे कभी रहे नहीं परन्तु गोण्डा, गोरखपुर, देवरिया, बलिया, आजमगढ, बहराइच, गाजीपुर, जौनपुर तथा फैजाबाद आदि स्थानों पर एक से ज्यादा बार अपना कार्यकाल बिताया है। बाबूजी का आडीटर के बाद सीनियर आडीटर के पद पर प्रोन्नति पा गये थे। सीनियर आडीटर के जिम्मे जिले की पूरी जिम्मेदारी होती थी। बाद में यह पद जिला लेखा परीक्षाधिकारी के रुप में राजपत्रित हो गया। कभी- कभी बाबूजी को दो- दो जिलों का प्रभार भी देखना पड़ता था। जब कोई अधिकारी अवकाश पर जाता था तो पास पड़ोस के अधिकारी के पास उस जिले का अतिरिक्त प्रभार भी संभालना पड़ता था। 1975  में बाबूजी ने अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद से बी. ए. की उपधि प्राप्त की थी।
परिवहन निगम में प्रतिनियुक्ति पर:- 

विभाग में अच्छी छवि होने के कारण बाबूजी को प्रतिनियुक्ति पर उ. प्र. राज्य परिवहन में भी कार्य करने का अवसर मिला था। ये क्षेत्रीय प्रबन्धक के कार्यालय में बैठते थे और उस मण्डल के आने वाले सभी जिला स्तरीय कार्यालयों के लेखा का सम्पे्रेक्षण करते थे। उनकी नियुक्ति कानपुर के केन्द्रीय कार्यशाला में 23.12.1982 को हुआ था। यहां से वे औराई तथा इटावा के कार्यालयों के मामले भी देखा करते थे। अपनी सेवा का शेष समय बाबूजी ने राज्य परिवहन में पूरा किया था। 1985 में वह कानपुर से गोरखपुर कार्यालय में सम्बद्ध हो गये थे। यहां से वे आजमगढ़ के कार्यालय के मामले भी देखा करते थे। गोरखपुर कार्यालय से वे 30.06.1987 में सेवामुक्त हुए थे। बाबूजी अपने पैतृक जन्मभूमि पर कम तथा अपने ससुराल वाले जगह पर ज्यादा रहने लगे थे। वे बाहर भी अकेले रहते थे। माता जी को बहुत कम अपने पास रख पाते थे क्योकि घर पर नानाजी भी तो अकेले थे। मेरे भाई साहब को बाबूजी के पास फैजाबाद, बहराइच, गाजीपुर तथा जौनपुर में रहकर पढ़ने का मौका मिल गया था। मुझे उनका सानिघ्य बाहर नहीं मिल पाया तथा उनके साथ समय विताने का अवसर कम मिल पाया था। 17 जनवरी 2011 में वह महान आत्मा हमेशा हमेशा के लिए हमसे दूर होकर परम तत्व में बिलीन हो गया। उनकी प्रेरणा व स्मृतियां आज भी मेरे व मेरे परिवार को सम्बल प्रदान करती है। 

     मेरे डाक्टर बेटे मेजर (डा.)अभिषेक द्विवेदी, रेडियोलॉजिस्ट, एसोसिएट प्रोफेसर, आगरा , डा.सौरभ द्विवेदी अस्थि रोग विशेषज्ञ और डा दीपिका चौबे/ द्विवेदी बहू डा. तनु मिश्रा/ द्विवेदी रेडियोलॉजिस्ट, एसोसिएट प्रोफेसर ने मुझे घर की जिम्मेदारियों से मुक्त कर पिता जी स्मृति शेष श्री शोभाराम द्विवेदी माता प्राणपति द्विवेदी और नाना जी स्मृति शेष श्री रामदेव पाण्डेय की आत्म शांति और मोक्ष के लिए तैयार और प्रेरित किया फल स्वरूप मै गया जी,तथा अन्य पावन तीर्थ की यात्रा में भरत वेदी, भदरसा फैजाबाद में पिंडदान और पितृ तर्पण कर नई पीढ़ी से अपने बुजुर्गों और पूर्वजों को स्मरण करने का निवेदन करता हूँ।


Tuesday, September 9, 2025

दिलकुशा महल अब साकेत सदन कहा जाएगा ✍️आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी

अयोध्या के चौदह कोसी परिक्रमा मार्ग के किनारे धारा रोड स्थित दिलकुशा महल को साकेत सदन नाम देते हुए पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जा रहा है। इस स्मारक ने विभिन्न समयों में अपनी अलग अलग पहचान बनाई है । जो अवध की राजधानी,अफीम कोठी ,सेंट्रल ब्यूरो ऑफ़ नारकोटिक्स,और स्वतंत्रता आन्दोदन से जुड़े आख्यान को अपने अंचल में समेटे हुए है।  लगभग 275 साल इस पुराने स्मारक को भिन्न भिन्न समय में अनेक नामों से जाना पहचाना जाने लगा है।

मिट्टी के बंगले से बसा था ये शहर :- 

उन्होंने यहाँ घाघरा के किनारे मिट्टी का एक कच्चा घर बनाया, लोगों ने उसे बंगला कहना शुरू कर दिया। इस तरह वह 'कच्चा बंगला' के नाम से मशहूर हो गया। यही इलाक़ा बाद में समय के साथ बढ़ते- बढ़ते फ़ैज़ाबाद बस गया।

दिलकुशा कोठी का निर्माण :- 

सरयू नदी के तट पर स्थित अयोध्या, जिसे पहले फैजाबाद के नाम से जाना जाता था, ये अवध के नवाबों से भी जुड़ा हुआ है। अवध के तीसरे नवाब शुजा-उद-दौला, जो 1754 से 1775 तक नवाब थे, ने बक्सर की लड़ाई में अंग्रेजों द्वारा पराजित होने के बाद 1752 के आसपास यहां दिलकुशा कोठी का निर्माण किया था। 1752 में अवध के दूसरे नवाब सफ़दरजंग की मृत्यु हो गई।उनके बाद उनके बेटे शुजाउद्दौला अवध के तीसरे नवाब वज़ीर बने थे। शुजाउद्दौला का परिवार दिलकुशा की पहली मंज़िल पर रहता था। पिछले दो नवाबों के उलट, शुजाउद्दौला ने फ़ैज़ाबाद में काफ़ी समय बिताया। उन्हीं के दौर में कच्चे बंगले में और निर्माण हुआ और यह दिलकुशा बंगला बन गया।

4.5 एकड़ में फैला यह स्मारक :- 

दिलकुशा महल, जो दर्शाता है वह अपनी हार के बाद भी वे इस क्षेत्र को नियंत्रित कर रहे थे, उनकी मृत्यु तक यह उसका निवास था। 4.5 एकड़ में मुगल शैली की वास्तुकला में निर्मित, इसकी दीवारों को लाखोरी ईंटों और मिट्टी का इस्तेमाल करके बनाया गया था। संरचना के अधिकांश हिस्से खंडहर हैं। दिलकुशा कोठी, पैलेस कॉम्पलेक्स के स्ट्रक्चर का हिस्सा थी। दरअसल, शुजाउद्दौला के दरबार में फ़्रेंच सलाहकार थे। इनमें से एक थे कर्नल एंटॉन पुलियर। उन्होंने ही शुजाउद्दौला को कई इमारतों को बनाने की सलाह दी थी। उनकी सलाह पर ही दिलकुशा कोठी को भी सजाया-संवारा गया था।

शुजाउद्दौला,परिवार और सुरक्षा सैनिक से भरा था ये महल:- 

इस दो-मंज़िला इमारत की हर मंज़िल पर क़रीब 10 कमरे थे। कोठी की पहली मंज़िल पर नवाब शुजाउद्दौला और उनका परिवार रहता था, जबकि निचली मंज़िल पर उनका दरबार था, जहाँसे वह रियासत से जुड़े फ़ैसले करते थे। शुजाउद्दौला के सैनिक भी दिलकुशा के परिसर में रहते थे।कोठी के चारों तरफ़ सैकड़ों बैरक बने थे। जिनमें सैनिक रहते थे। वहीं, प्रशासनिक कामों में लगे कर्मियों के रहने के लिए कोठी के बाहरी इलाक़े को रिहायशी इलाक़े में विकसित कर दिया गया था। वहाँ पुरानी सब्ज़ी मंडी,टकसाल, दिल्ली दरवाज़ा, रकाबगंज, हंसु कटरा जैसी जगहें बन गई थीं।

दिलकुशा कोठी बना अफ़ीम का गोदाम:- 

बीच में एक समय ऐसा भी आया जब दिलकुशा को 'अफ़ीम कोठी' का तमगा दिया गया। पी सी सरकार बताते हैं कि ब्रिटानियों से लड़ाई के बाद दिलकुशा कोठी पर अंग्रेज़ों का क़ब्ज़ा हो गया।

    1870 के आसपास अंग्रेज़ों ने इस कोठी को अफ़ीम का गोदाम बना दिया।अफ़ीम अधिकारी तैनात कर दिए गए।तब से इसे 'अफ़ीम कोठी' कहा जाने लगा।

नारकोटिक्स विभाग के अधीन:- 

आज़ादी के बाद भारत सरकार के सेंट्रल ब्यूरो ऑफ़ नारकोटिक्स ने दिलकुशा कोठी को अपने अधिकार में ले लिया। अफ़ीम की तस्करी रोकने के लिए इसके परिसर में सुपरिंटेंडेंट ऑफ़िस खोल दिया गया। नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो द्वारा दवाओं के निर्माण के लिए ड्रग लाइसेंस जारी करने के लिए इसके एक हिस्से का इस्तेमाल शुरू करने के बाद महल को अब अफीम कोठी के नाम से जाना जाता है। नारकोटिक्स डिपार्टमेंट ने क़रीब 17 साल पहले अपना यह दफ़्तर बंद कर दिया। उसके बाद भी 'दिलकुशा' नारकोटिक्स डिपार्टमेंट के पास ही रही।

1857 की आज़ादी में इसकी भूमिका:- 

1857 में भारत की आज़ादी की पहली लड़ाई में दिलकुशा कोठी की भी भूमिका रही है। लड़ाई के दौरान स्वतंत्रता सेनानियों को इसी कोठी ने छिपने के लिए जगह दी।आज़ादी के बाद भी दिलकुशा काफ़ी ठीक हालत में थी। यह इमारत भारतीय इतिहास के कई हिस्सों को समेटे हुए थी।

खराब रखरखाव :- 

देखभाल के अभाव में दिलकुशा की हालत ख़राब होती गई। छज्जा पूरी तरह ढह चुका था। दीवारें भी जर्जर स्थिति में पहुँच चुकी थीं और कभी भी जमींदोज़ हो सकती थीं।

दिलकुशा कोठी से साकेत सदन का सफ़र:- 

सबसे पहले हम साकेत नाम पर एक दृष्टि डाल रहे हैं ।अयोध्या के 12 नाम मिलते हैं। पहला मुख्य नाम अयोध्या का अयोध्या ही है। जिसका मतलब है जिससे युद्ध न लड़ा जाए। अथर्ववेद में अयोध्या को अपराजित होने का वर्णन किया गया है। अयोध्या का दूसरा प्रमुख नाम साकेत है। यह नाम अयोध्या जैसा बहुत लोकप्रिय हुआ है। इसका तीसरा नाम कौशलपुर है,जो कि कौशल जनपद से लिया गया है। इस शब्द का प्रयोग वाल्मीकि ने किया है। कौशल का अर्थ है जहां साथ-साथ घर बने होते हैं। अयोध्या का चौथा नाम धर्मपुर है, जिसका वर्णन रामायण में मिलता है। क्योंकि, यह धर्म की नगरी है, ऐसे में यह धर्मपुर भी कही जाती है। अयोध्या के पांचवें नाम की कौसल है, जो कि कौशल शब्द से बना है। इसका छठे नामकौशलपुरी है, जो कि कौशलपुर से बना है। सातवें नाम कौशलानंदनी के नाम से भी जानी जाती है। अयोध्या के आठवें नाम की रामनगरी के नाम से भी जानी जाती है। अयोध्या के नौंवे नाम की  उत्तर कौशल के नाम से भी जानी जाती है। क्योंकि, उत्तर कौशल के राजा दशरथ थे, जबकि दक्षिण कौशल की रानी कौशल्या थीं।अयोध्या के 10वें नाम  इसे 'पूर्व देश' के नाम से भी जाना जाता है। अयोध्या का 11वां नाम रघुवरपुर है, जिसका उल्लेख हनुमान चालीसा में किया गया है।अयोध्या का 12वां नाम अवधपुरी है। इसका अर्थ है, जिसका वध नहीं, वह अवध है। इस नाम का वर्णन तुलसीदास ने भी किया है। 

साकेत नाम पर एक दृष्टि :- 

अयोध्या का दूसरा नाम साकेत है। साकेत' शब्द का अर्थ 'स्वर्गीय निवास' या 'दिव्य क्षेत्र' से जुड़ा है, यह संस्कृत के 'साकेत' शब्द से लिया गया है।  संस्कृत में 'अखंड, संपूर्ण या परिपूर्ण', को साकेत कहा गया है। यह पारंपरिक रूप से भगवान राम के निवास से जुड़ा हुआ है। जहाँ मुक्त आत्माएँ निवास करती हैं। इस प्राचीन नगर है का उल्लेख विभिन्न संस्कृत ग्रंथों और बौद्ध साहित्य में मिलता है। साकेत को अयोध्या नाम इसलिए दिया गया क्योंकि बिना किसी युद्ध के लाखों बौद्ध भिक्षुओं का अस्तित्व मिटाकर बड़ी ही आसानी से परिवर्तित कर दिया गया था।

       साकेत बुद्ध को अत्यंत प्रिय था इसलिए बुद्ध को सुकिति भी कहा जाता है । पारंपरिक बौद्ध साहित्य में इसे साकेत कहा गया है। बुद्ध के समय में साकेत भारत के छह महान नगरों में से एक था। अयोध्या को ऐतिहासिक रूप से साकेत नाम तब तक जाना जाता था, जब तक कि स्कंदगुप्त ने इसका नाम बदलकर अयोध्या नहीं कर दिया। 

     कालिदास ने अपनी रचना रघुवंश में अयोध्या नगरी का वर्णन साकेत नाम से किया गया है। इसका अर्थ है, जिसमें संपूर्ण ज्ञान हो, उस नगरी का नाम साकेत है। साकेत शब्द का प्रयोग हिंदू महाकाव्यों में वैकुंठ के निवास के लिए भी किया जा सकता है , जहाँ मुक्त आत्माएँ निवास करती हैं। इसका अर्थ शक्तिशाली और अजेय होता है। साकेत का उल्लेख पंतजलि, कालिदास आदि ने भी किया है। हिंदी के महान कवि मैथिली शरण गुप्त द्वारा रचित साकेत (1932), एक प्रसिद्ध हिंदी महाकाव्य , रामचरितमानस का आधुनिक संस्करण है , जिसमें एक आदर्श हिंदू समाज और राम को एक आदर्श पुरुष के रूप में वर्णित किया गया है। अयोध्या का प्रमुख शिक्षण संस्थान “कामता प्रसाद सुन्दर लाल साकेत महा विद्यालय”  न केवल अयोध्या अपितु पूरे मण्डल और अन्य पड़ोसी जिलों में शिक्षा की ज्योति जला रखा है। अयोध्या में दर्जनों मन्दिर और संस्थाएं भी साकेत नाम को किसी न रूप में अंगीकार कर लिया है।

प्रदेश सरकार बनवा रही है साकेत सदन :

साकेत सदन परिसर में 1756 से 1775 ई. के मध्य निर्मित ऐतिहासिक भवनों का जीर्णोद्धार उनके निर्माण के समय प्रयोग की गई सामग्री से ही किया जा रहा है ,जिसमें संपूर्ण कार्य चूना सुर्खी शीशा मेथी उड़द की दाल गोंद/गुग्गुल बेलगिरी पाउडर आदि पदार्थों व निर्माण सामग्री को मिला कर बनाए गये मसाले से किया जा रहा है। पूर्ण होने पर प्राचीनता को समेटे इनभवनों की भव्यता दिखाई देगी। साकेत सदन प्रोजेक्ट की लागत लगभग 17 करोड़ रुपये है। यह प्रोजेक्ट 6 जून 2023 को शुरू हुआ था। इसका 60 फ़ीसदी काम पूरा हो चुका है। इस प्रोजेक्ट कीज़िम्मेदारी उत्तर प्रदेश प्रोजेक्ट कॉर्पोरेशन लिमिटेड को मिली है। साकेत सदन में अवध या शुजाउद्दौला से जुड़े किसी भी किस्से या निशानी का ज़िक्र नहीं होगा।साकेत सदन बनवाने का मक़सद पूरी तरह अलग है। इसे अलग-अलग हिंदू तीर्थों के संग्रहालय के तौर पर विकसित किया जा रहा है, जहाँ हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ प्रदर्शित होंगी।उत्तर प्रदेश सरकार इसकी जगह अब 'साकेत सदन' बनवा रही है। इसका 60 फ़ीसदी काम पूरा भी हो चुका है।उत्तर प्रदेश सरकार ने दिलकुशा को हिंदू तीर्थयात्रियों के लिए एक संग्रहालय में तब्दील करने का फ़ैसला किया है। यहाँ हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी होंगी।

     इतिहास में कई त्रासदियाँ झेल चुकी दिलकुशा कोठी का अब नाम भी शायद मिट जाएगा.साकेत सदन अपने हिस्से का इतिहास बनाने के लिए जल्द ही बनकर तैयार हो जाएगा।

ओपन एयरथियेटर, म्यूजियम- कांप्लेक्स और रेस्टोरेंट की सुविधा :- 

साकेत सदन में स्थित मुख्य भवन में रेस्टोरेंट विकसित किया जा रहा है। यहां आगंतुकों के लिए मनोरंजन के लिए ओपन एयर थियेटर व म्यूजियम कांप्लेक्स भी बनाया जाएगा, जिसमें ऐतिहासिक वस्तुओं एवं साहित्यों को संजोया जाएगा। साकेत सदन में इंटरप्रिटेशन वाल, इंट्रेंस प्लाजा के साथ ही परिसर में लैंड स्केपिंग कर आकर्षक फूल-पौधे व कोवल स्टोन के पाथ-वे सहित कई कार्य किया जाना है। भवनों का आकर्षक मुखौटा पर रोशनी भी जगमग किया जाएगा।

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।(वॉट्सप नं.+919412300183)


Monday, September 8, 2025

फैजाबाद नवाबी समय की निशानियां ✍️आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी

पतित पावनी माँ सरयू नदी रूप में अवतरित होकर सदियोँ से मानव कल्याण करती आ रही है। अयोध्या बहुत समय तक कौसल राज्य की राजधानी हुआ करती थी। महाकाव्य रामायण के अनुसार राम का जन्म यहीं हुआ था। संतों का कहना है कि धर्म की पुरानी किताबों में भी इस शहर का नाम अयोध्या ही मिलता है । फैजाबाद एक ऐसा शहर रहा है, जो कई बार बनता बिगड़ता रहा है, कभी इसने अपना चरमोत्कर्ष देखा है तो कभी उपेक्षाएं भी झेली हैं। शायर सैय्यद शमीम अहमद शमीम ने  फैजाबाद शहर के लिए लिखा है– 

सभ्यताओं का इसे शीशमहल कहते हैं। कुछ ऐसे हैं जो जन्नत का बदल कहते हैं।”

अनेक नाम:- 

अयोध्या के कई ऐतिहासिक और पौराणिक नाम मिलते हैं, जिनमें अयोध्या, पूर्वदेश,साकेत, कोसल, कोसलपुर, कौशलानंदनी, उत्तर कोसल,धर्मपुर, अवधपुरी, रघुवरपुर, रामनगरी, और उत्तमपुरी और आदि बारह नाम प्रमुख हैं। ये सभी नाम शहर के प्राचीन इतिहास और सांस्कृतिक महत्व को दर्शाते हैं। इसका उल्लेख बौद्ध और जैन ग्रंथों के साथ-साथ हिंदू धर्म ग्रंथों में भी मिलता है।

फ़ैज़ = फ़ायदा से बना फैजाबाद नाम:- 

अयोध्यापुरी में फ़ैज़ाबाद शहर की स्थापना अवध के पहले नबाव सआदत अली खान ने 1730 में अपनी राजधानी बनाकर की थी और अयोध्या का नाम बदलकर फ़ैज़ाबाद कर दिया  था। यह ऐसी जगह है, जहाँ से सबको फ़ैज़ (फ़ैज़ का मतलब फ़ायदा) हो रहा है। इस तरह इस जगह का नाम फ़ैज़ से फ़ैज़ाबाद हो गया। ऐसी जगह, जहाँ सबको आराम और फ़ायदा मिल रहा था, सबकी ख़्वाहिशें पूरी हो रही हो उसे फैजाबाद कहा गया है।

फ़ैज़ाबाद से रहा नवाबों का रिश्ता :- 

उस दौर में दिल्ली पर मुग़ल बादशाहों का शासन था। मुग़ल शासक अलग-अलग रियासतों की ज़िम्मेदारी सूबेदारों को सौंपते थे। ये सूबेदार ही रियासत से जुड़े फ़ैसले लेते थे। इसी क्रम में साल 1722 ई. में अवध रियासत की ज़िम्मेदारी सआदत ख़ान को सौंपी गई थी। इन सूबेदारों को नवाब कहा जाता है। इनका ओहदा नवाब वज़ीर का था, जो प्रधानमंत्री के बराबर का पद होता था । अवध के सबसे पहले नवाब वज़ीर को दिल्ली दरबार से सआदत ख़ान को 'बुरहान-उल-मुल्क' का ख़िताब मिला था। उनका असली नाम मीर मोहम्मद अमीन था। वे 1722 से 1739 तक नवाब वज़ीर रहे, मगर उन्होंने यहाँ ज़्यादा समय नहीं बिताया था। उस समय लड़ाइयों का दौर रहा था। सआदत ख़ान एक लड़ाके थे। वे ज़्यादातर समय जंग के मैदान में ही रहते थे। शुरू में वे सरयू के तट पर तम्बू में दरबार लगाना शुरू किया था।बाद में जरूरत के मुताबिक यहां कई भवनों का निर्माण शुरू किया गया था।

              कलकत्ता फोर्ट

फैजाबाद सैन्य मुख्यालय बना :- 

नवाब सफदरजंग ने 1739-54 में इसे अपना सैन्य मुख्यालय यहां बनाया।इसके बाद शुजाउद्दौला ने फैजाबाद में किले का निर्माण कराया था। यह वह दौर था जब यह शहर अपनी बुलंदियों पर था।लखनऊ से इसकी दूरी सिर्फ130 किमी थी, लेकिन इसे छोटा कोलकाता भी कहा जाता था क्योंकि नवाब उधर से होते हुए यहां आए थे और अपनी तहजीब और रंग ढंग भी लेते आए थे।

सफ़दरजंग ने डाली थी आधुनिक फ़ैज़ाबाद की नींव :- 

1739 में सआदत ख़ान की मौत के बाद उनके दामाद, जो उनके भांजे भी थे, दूसरे नवाब वज़ीर बने।उनका असली नाम मिर्ज़ा मोहम्मद मुक़ीम था।'सफ़दरजंग' नाम उन्हें दिल्ली दरबार से ख़िताब में मिला था। सफ़दरजंग ने भी अवध में बहुत कम समय बिताया था, क्योंकि उन पर कई और ज़िम्मेदारियाँ भी थीं।मोहम्मद मुक़ीम ज़्यादातर समय बाहर रहते थे। फिर भी उन्होंने फ़ैज़ाबाद में बहुत-सी इमारतों की नींव रखी थी। यह भी कह सकते हैं कि आधुनिक फ़ैज़ाबाद की नींव उनके काल में ही पड़ी।

शुजाउद्दौला ने किया था फ़ैज़ाबाद का विकास:- 

शुजाउद्दौला का समय एक तरह से फैजाबाद के लिए स्वर्णकाल कहा जा सकता है। उस दौरान फैजाबाद ने जो समृद्धि हासिल की वैसी दोबारा नहीं कर सका। फ़ैज़ाबाद में विकास का ज़्यादातर काम शुजाउद्दौला के काल में ही हुआ था। बड़े-बड़े बगीचे, महल और ऐतिहासिक स्थल, जो अब ख़त्म हो चुके हैं, ये सब उनके ही दौर में बने थे। उन्होंने इसे व्यापार का केंद्र बना दिया था। उस दौर में यहां कई इमारतों का निर्माण हुआ जिनकी निशानियां आज भी मौजूद हैं।

सुजा-उद्-दौला के उत्तराधिकारी असफ-उद-दौला ने लखनऊ को अपनी राजधानी बनाई। उपर्युक्त नवाबों के शासन काल के दौरान फैजाबाद में कई स्मारकीय भवन बनाए गए, जिनमें से गुलाबबाड़ी, बहू वेगम का मकबरा, बनीखानम की कब्र और हाजी इकबाल की कब्र आदि निशानियां भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के केन्द्रीय संरक्षित स्मारक है।


     -:फैजाबाद की प्रमुख निशानियां :- 

दिलकुशा कोठी :- 

अवध के तीसरे नवाब शुजा-उद-दौला, जो 1754 से 1775 तक नवाब थे, ने बक्सर की लड़ाई में अंग्रेजों द्वारा पराजित होने के बाद 1752 के आसपास यहां दिलकुशा कोठी का निर्माण किया था।

                दिलकुशा बंगला

1752 में अवध के दूसरे नवाब सफ़दरजंग की मृत्यु हो गई।उनके बाद उनके बेटे शुजाउद्दौला अवध के तीसरे नवाब वज़ीर बने थे। शुजाउद्दौला का परिवार दिलकुशा की पहली मंज़िल पर रहता था। पिछले दो नवाबों के उलट, शुजाउद्दौला ने फ़ैज़ाबाद में काफ़ी समय बिताया था । उन्हीं के दौर में कच्चे बंगले के रूप में इसका निर्माण हुआ और यह दिलकुशा बंगला बन गया।

इस दो-मंज़िला इमारत की हर मंज़िल पर क़रीब 10 कमरे थे। कोठी की पहली मंज़िल पर नवाब शुजाउद्दौला और उनका परिवार रहता था, जबकि निचली मंज़िल पर उनके दरबार के लोग रहते थे , जहाँ से वे रियासत से जुड़े फ़ैसले करते थे।

सैनिकों के लिए कैंटोनमेंट एरिया :- 

शुजाउद्दौला के सैनिक भी दिलकुशा के परिसर में रहते थे।कोठी के चारों तरफ़ सैकड़ों बैरक बने थे, जिनमें सैनिक रहते थे। इसी स्थल को पहले अंग्रेजों और बाद में भारतीय सेना ने अपना कैंटोनमेंट क्षेत्र बनाया था। प्रशासनिक कामों में लगे कर्मियों के रहने के लिए कोठी के बाहरी इलाक़े को रिहायशी इलाक़े में विकसित कर दिया गया था। वहाँ पुरानी सब्ज़ी मंडी, टकसाल, दिल्ली दरवाज़ा, रकाब- गंज, हंसु कटरा जैसी जगहें बनाई गई थीं।

एएसआई द्वारा संरक्षित स्मारक:- 

आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया (एएसआई) की मॉन्यूमेंट्स की सूची में उस समय फ़ैज़ाबाद की 57 जगहें थीं, इनमें बाग, क़िले, मक़बरे जैसी जगहें हैं, लेकिन इनमें से कुछ ही को संरक्षित करके रखा गया है। वर्तमान में संरक्षित स्मारकों की ये संख्या घट कर आठ रह गई हैं ।

फैजाबाद (अब अयोध्या) जिले के केंद्रीय संरक्षित स्मारकों की सूची में पांच ऐतिहासिक नबाबी और तीन अयोध्या पौराणिक टीले : मणि पर्वत,कुबेर पर्वत और सुग्रीव पर्वत के अयोध्या के धर्म स्थल असंरक्षित प्रकिया में हैं। इसके अलावा अन्यानेक गैर संरक्षित स्मारक भी अपना खास मुकाम बनाए रखे हैं।

1.बेनी खानम का मकबरा फैजाबाद 

बनी खानम का मकबरा नवाबी काल का एक महत्वपूर्ण स्मारक है। बनी खानम नवाब नजम-उद्-दौला की पत्नी थीं। यह मकबरा बनी खानम के गुलाम अल्मस अली खां ने बनवाया था। इस इमारत का निर्माण १८ वीं सदी के उत्तरार्द्ध में किया गया। इस मकबरे का भूतल आयाताकार है जिस पर निर्मित वर्गाकार कक्ष के मध्य में कब्र स्थित है। गुम्बद पूर्णतया गुलाब बाड़ी शैली में बना है। इसके निर्माण में लखौरी ईंटो और गचकारी का प्रयोग किया गया है, परन्तु फर्श का निर्माण पत्थरों से किया गया है। फैजाबाद के रेतिया स्थित आकाशवाणी के पास बनीखानम का मकबरा ऐतिहासिक धरोहर व पुरातत्व संरक्षित है। वक्फ बनी खानम मकबरा, 1359 फसली के अभिलेख में भी दर्ज है। 

2.गुलाब बाड़ीऔर शुजाउद्दौला का मकबरा फैजाबाद:- 

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा संरक्षित एकमात्र विरासत गुलाब बारी (गुलाबों का बगीचा) है, जो विभिन्न प्रकार के फूलों और एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल के लिए जाना जाता है। गुलाबबाड़ी नवाबी वास्तुशैली का सुन्दर नमूना है। इस चारबाग शैली में निर्मित बगीचे को सफदर जंग ने बनवाया था। नवाब के शासनकाल के दौरान महत्वपूर्ण धार्मिक कार्यों की मेजबानी के लिए गुलाब बारी काइस्तेमाल किया जाता था। वास्तुकला की इस्लामी शैली में निर्मित, भव्य मकबरा यूपी में सबसे अच्छी तरह से डिजाइन किए गए स्मारकों में से एक है।गुलाब बाड़ी में दो बाहरी प्रांगण एवं एक मुख्य प्रांगण है। बाहरी प्रांगण में प्रवेश के लिए मेहराबदार दो सुन्दर दरवाजे हैं। दूसरे प्रांगण में प्रवेश हेतु भी भव्य प्रवेश द्वार है। मुख्य द्वार के उत्तर ओर बाहरी दीवार से लगी एक मस्जिद तथा उसके दक्षिण की तरफ एक दो मंजिला इमारत है जिसे बनाने का ध्येय अज्ञात है। यह संभवतः इमामबाड़ा है। बगीचे के चारों ओर पानी की नालियां हैं। मकबरा त्रितलीय है जिस पर गुम्बद निर्मित है। प्रथम तल एक बड़ा वर्गाकार चबूतरा है , जिस पर एक बड़ा वर्गाकार केन्द्रीय कक्ष है । जिसके चारों ओर छोटे वर्गाकार और आयताकार कक्ष और स्तम्भ युक्त बरामदे हैं। कब्र केन्द्रीय कक्ष में स्थित है। यह ऊँची छत से युक्त छोटा वर्गाकार केन्द्रीय भाग है जिसके ऊपर गोलाकार गुम्बद के साथ वातायन बने हैं।

प्रवेश द्वार पर राष्ट्रीय प्रतीक के साथ एक बड़ा स्तंभ है। कहा जाता है कि यह देश का अकेला ऐसा मकबरा है, जहां पर भारत सरकार ने अशोक स्तंभ लगवाया था। इसके साथ एक सुव्यवस्थित पैदल मार्ग, जिसके दोनों ओर लहराते नारियल के पेड़ लगे हैं, जो एक प्राचीन धनुषाकार प्रवेश द्वार की ओर जाता है। बगीचे में एक सुंदर मस्जिद और एक छोटा सा प्रहरीदुर्ग भी है जो इसके ठीक बगल में खड़ा है। मकबरे के धनुषाकार मार्ग से घूमने पर एक आकर्षक अनुभव होता है।

यह विशाल बगीचा शुजाउद्दौला और उनके परिवार की कब्रों को घेरे पूरे क्षेत्र में फैला है। इस बगीचे को सन् 1775 में स्थापित किया गया था और इसमें कई प्रजातियों के गुलाब पाये जाते हैं। गुलाब के पौधों को बड़ी सतर्कता के साथ लगाया गया है और पूरे बगीचे को पारलौकिक दृश्य प्रदान करता है। इसी परिसर में एक इमामबाड़ा या इमाम की कब्र भी स्थित है जो स्वंय में एक आकर्षण है।

बागवानी करती है आकर्षित

गुलाब बाड़ी परिसर की खूबसूरती में यहां की बागवानी चार चांद लाती है। इमारत के चारों तरफ गुलाबों की बागवानी की गई है, जिसमें बेहद खूबसूरत अनेक प्रकार के गुलाब के पौधे लगाए गए हैं।इस बाग में लाल, गुलाबी, पीले, सफेद रंग के गुलाब खिलते हैं। जब यहां गुलाब के फूल खिलते हैं तो वह यहां आने वाले हर पर्यटक का दिल जीत लेते हैं।

शुजा-उद्-दौला का मकबरा:- 

1775 ई० में जब नवाब शुजा-उद्-दौला की मृत्यु हुई तो उन्हे इसी मकबरे में दफनाया गया। इस मकबरे का निर्माण अनेक चरणों में किया गया। यह अच्छे अनुपात में निर्मित एक प्रभावशाली भवन है। इसमें प्रवेश करने के लिए दो बड़े वाह्य प्रवेशद्वार हैं और तीसरा द्वार मकबरे तक ले जाता है। यह लखौरी ईंटों से निर्मित है जिस पर चूने का प्लास्टर किया गया है।

3.बहू-बेगम का मकबरा फैजाबाद:

बहूबेगम का मकबरा मिनी ताजमहल के रूप में पहचाना जाता है। यह शुजाउद्दौला की रानी उन्मत्तुज़ोहरा बानो बेगम के लिए बनाया गया स्मारक है । बहू बेगम का मकबरा वर्ष 1816 में निर्मित किया गया था। बहू बेगम का मकबरा सफेद संगमरमर से बना है और 42 मीटर ऊँचा है। बहू बेगम के मकबरे के ऊपर से शहर का मनमोहक दृश्य दिखाई देता है। इसे पूरे अवध में अपनी तरह का सबसे बेहतरीन और अनोखा माना जाता है। मकबरा मुगल स्थापत्य कला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। इतिहास गवाह है कि सन् 1816 में इस मकबरे को ताजमहल की भव्यता के साथ बनाने का प्रयास किया गया था। चन्द्रमा की दूधिया रौशनी में सफेद संगमरमर अपनी चमक धारण कर लेता है और ऐसा लगता जैसे कि मकबरे को अमरत्व की चमक मिल जाती है।       

      उनमातुज्जोहरा बानो बेगम ने अपने जीवन-काल में ही इसकी तामीर शुरू करा दी थी लेकिन पूरा होने के पहले ही उनका इंतकाल हो गया है। उनके वजीर दराब अली खां ने इसे पूरा कराया था । मकबरे के  स्थापत्य शैली की शानदार विशेषता है कि भीषण गर्मी में भी यहां शीतलता का अनुभव होता है। उस वक्त इसके निर्माण में करीब 3 लाख रुपये की लागत आई थी। ऐतिहासिक धरोहर व पुरातत्व संरक्षित बहू बेगम का मकबरा भी वक्फ बोर्ड की सूची में शामिल है । बहू बेगम जो नवाब शुजा-उद्-दौला की पत्नी और नवाब आसफ-उद्-दौला की मां थी,की मृत्यु 1816 ई० में हुई थी।

यह मकबरा भी कई चरणों में बना। इसकी शुरुआत उनके सलाहकार द्वारा 1816 ई० में की गई। बाद में इसका निर्माण अन्य संरक्षकों ने किया। स्मारक में बाहरी प्रांगण और मुख्य प्रांगण है। बाहरी प्रांगण आकार में बड़ा और आयताकार है। इसमें प्रवेश के लिए एक भव्य मेहराबदार प्रवेशद्वार है, जिसमें कई कमरे बने हैं। द्वार के चारों तरफ दीवारों के सहारे आवास हेतु कमरे बने हैं। पूर्व दिशा में एक अन्य द्वार है तथा तीसरा द्वार दक्षिण में है जिससे होकर मुख्य प्रांगण में प्रवेश किया जा सकता है। यह वृहद चतुर्भुजाकार प्रांगण एक बाह्य दीवार से घिरा है जिसके कोनों पर अष्टकोणीय बुर्ज बने हैं। इसमें पूर्व और पश्चिम दिशा में दो छोटे मेहराबदार द्वितलीय मंडप बने हैं। मकबरे के भूतल पर बहुत बड़ा चबूतरा बना है। इसके मध्य में वर्गाकार कक्ष है, जिसके चारोंओर वर्गाकार औरआयताकार कक्षों की श्रृंखला और संकरे गलियारे बने हैं। इस तल का मध्य भाग पत्थरों से निर्मित बिना अलंकरण के है, लेकिन इसका बाहरी भाग ईंटो से बना और अलंकृत है। किनारों पर मेहराबदार इसका अष्टकोणीय मण्डप हैं। मकबरे की छत सुन्दर पुष्प वल्लरियों से अलंकृत है। यह मकबरा सम्भवतः नवाबी काल के सबसे सुन्दर मकबरों में से एक है। इस इमारत की देखरेख भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग करता है।

4.सदरजहाँ बेगम के हिजड़े हाजी इकबाल का मकबराः-

हाजी इकबाल के मकबरे का निर्माण एक ऊंचे चबूतरे पर बुर्जयुक्त चहारदीवारी के अन्दर किया गया है, जो इसे अन्य इमारतों से अलग किलानुमा बनाता है। यह एक अष्टकोणीय संरचना है, जिसका निर्माण लखौरी ईंटों एवं चूने के प्लास्टर से किया गया है। केन्द्रीय गुम्बद के चारों तरफ छोटे-छोटे अन्य गुम्बद भी बने हैं। इस परिसर के पश्चिम की ओर 18वीं सदी ई० में बनी एक मस्जिद भी स्थित है। हाजी इकबाल का मकबरा, मस्जिद और उन्हें घेरने वाला पूरा परिसर एक संरक्षित स्मारक है।

5.सूफी संत खातून 'बड़ी बुआ' की कब्र एवं यतीमखाना:- 

अयोध्या में महिला सूफी संतों के कुछ लोकप्रिय दरगाहों में से एक बड़ी बुआ की दरगाह है, इन्हें बड़ी बीबी, बड़ी बुआ और बड़ी किताब भी कहा जाता है जो शेख नसीरुद्दीन चिराग-ए दिल्ली की बहन है। बड़ी किताब को प्रसिद्ध सूफी संत खातून की कब्र कहा जाता है। बड़ी किताब बहुत अल्लाह वाली थी। हर तरह की इबादत करती थी । बादमें उसका नाम बहुत धूमिल हो गया और हिंदू-मुस्लिम सब उनके दर पर ज्ञान मन यादगार बने रहे। 

ना कोई आलिम रहेगा ना जालिम:- 

ये महिला संत देखने में भी खूबसूरत थीं।सुंदरता के कारण निकाह के कई प्रस्ताव मिलने के बावजूद, उन्होंने खुद को गरीबों की सेवा के लिए समर्पित कर दिया था। लोगों के मुताबिक, स्थानीय मौलवियों ने बीबी के निकाह से इंकार करने के कारण उन्हे बहुत परेशान किया था। कहते हैं पुरानी खूबसूरती पर फैजाबाद के शहर कोतवाल फिदा हो गए थे। कोतवाल, जो बीबी की ओर आकर्षित हुआ था, ने उन्हें एक दूत के माध्यम से निकाह का प्रस्ताव भेजा। जब उसने दूत से बात करने से मना कर दिया और सीधे कोतवाल से मिलने की जिद की तो वह उसके घर पहुंच गया। जब कोतवाल से पूछा कि वे उनसे शादी क्यों करना चाहते हैं, तो कोतवाल ने कहा कि उसे उसकी आँखों से प्यार है। किंवदंती है कि उसने अपनी आँखें बाहर निकालकर कोतवाल को सौंप दिया। इससे कोतवाल हैरान रह गया। बड़ी बुआ ने सावधान करते हुए कहा,  “याद रखो कि फैज़ाबाद में अब ना कोई आलिम रहेगा ना जालिम।” कहते उसी के बाद फैजाबाद से उजड़ाना शुरू हुआ और नवाब आसफुद्दौला फैजाबाद की जगह नोएडा को अपनी राजधानी बना लिया गया। यह महसूस करते हुए कि बीबी कोई साधारण महिला नहीं हैं, बल्कि खुदा की सच्ची भक्त हैं, कोतवाल साहब ने बड़ी बीबी के चरणों में गिर गए और दया की भीख माँगी।अजीबो-गरीब सी खामोशी पसरी नजर आई। फैजाबाद के चौक से खरीदकर किसी को फूल चढ़ाने के लिए लाया गया। फूल लेकर चले तो फूल प्रतिष्ठित होने से पहले ही मुरझा गए।

यतीम-ख़ाना ,मस्जिद और मदरसा :- 

उनकी याद में बीबी की कब्र के पास बना एक अनाथालय अनाथों को शरण देता है और उन्हें मुफ्त शिक्षा प्रदान करता है। इसके साथ ही साथ यहां मस्जिद और मदरसा भी बना हुआ है जिसमें गरीब यतीम को निःशुल्क शिक्षा दी जाती है।

    –: कई मोहल्ले बसाए गए थे:- 

1765 में उन्होंने चौक शब्जी मंडी और तिरपौलिया का निर्माण कराया और बाद में इसके दक्षिण में अंगूरीबाग और मोतीबाग, और शहर के पश्चिम में आसफबाग और बुलंदबाग का निर्माण कराया गया ।

पुरानी सब्ज़ी मंडी:- 

चौक पुरानी सब्जी मंडी की उत्तर प्रदेश सरकार और जिला प्रशासन की एक पुरानी शब्जी मण्डी रही है।इस मण्डी के शब्जी और फल की आपूर्ति सरकारी और गैर सरकारी सभी लोगों के लिए की जाती रही है। पुराने लोगों का कहना है कि जब शाही परिवार के लोग इस बाजार में प्रवेश करते हैं तो दुकानदार दुकान छोड़ देते थे। केवल लड़कियां और औरतें ही दुकान पर रहती हैं।

टकसाल चौराहा :- 

यह माता के मन्दिर के पास है। इस जगह के पास हैं: फैजाबाद शहर, धारा रोड चौराहा अयोध्या , रिकाबगंज चौराहा , श्री परशुराम चौराहा , फ़तेहगंज चौराहा आदि स्थित है। नबाब के समय में यहां सिक्के ढाले जाते थे।

दिल्ली दरवाज़ा :- 

पुराने समय में इसी दरवाजे से दिल्ली की तरफ कूच किया जाता था। अब वह दरवाजे वाली संरचना नहीं दिखाई पड़ती है। यह वार्ड घंटाघर चौक से भी सटा हुआ है, जो क्षेत्र में पर्यटकों के मध्य बहुत प्रसिद्द है।इस वार्ड में आने वाले मोहल्लों में दिल्ली दरवाजा, खुर्द महल, अंगूरी बाग़ कॉलोनी, दीवानी मिसल आंशिक सम्मिलित हैं। परिणाम स्वरूप  फैजाबाद नगर परिषद् के 29 / 38 वार्ड में से एक दिल्ली दरवाजा वार्ड भी अयोध्या नगर निगम का हिस्सा बन गयाहै। इस इलाके का परिसीमन उत्तर में विश्राम घाट से पालिका सीमा परिक्रमा रोड तक, दक्षिण में अंगूरीबाग चौराहा के सामने से गुदड़ी बाजार चौराहा तक, पूर्व में गुदड़ी बाजार चौराहा से विश्राम घाट तक, पश्चिम में अंगूरीबाग स्कूल के सामने से राज शिशु मन्दिर रोड से नाला पुलिया से शिवमन्दिर बाएं हिस्से तक फैला हुआ है।

रकाबगंज, चौराहा :- 

रिकाबगंज चौराहा के पास हैं: श्री परशुराम चौराहा , टकसाल चौराह , G.I.C. तिराहा अयोध्या , पुष्पराज चौराहा , नियावां चौराहा अयोध्या  आदि स्थित है।यह एक व्यवसायिक क्षेत्र के रूप में आज भी देखा जा सकता है।

हंसु कटरा:- 

गुदड़ी बाजार और सैन्य मन्दिर के मध्य नियावां मोहल्ले में यह कटरा स्थित है। इसके एक तरफ चौक शब्जी मंडी तो दूसरी ओर परिक्रमा मार्ग भी देखा जा सकता है।

चौक :- 

1765 में अवध के नवाब शुजाउद्दौला ने चौक के चारों तरफ प्रवेश द्वारों पर हेरिटेज गेट का निर्माण कराया था।अब योगी सरकार इन गेटों का कायाकल्प करवाने जा रही है। नवाबी दौर में इस द्वार को बनाने के लिए जिस पदार्थ का उपयोग किया गया था उसी पदार्थ का उपयोग यानी की चूना और सुर्खी से ही चारों गेटों का सुंदरीकरण किया जाएगा।

फैजाबाद में घंटाघर

घंटाघर का अर्थ है 'घड़ी का घर'। यह शहर के केंद्र में स्थित एक विशाल मीनार है। यह इमारत फैज़ाबाद का मुख्य बिंदु है क्योंकि शहर के भीतर की सभी दूरियाँ इसी मीनार से मापी जाती हैं। मुख्य चौक के नाम से भी जाना जाने वाला यह क्षेत्र सब्ज़ियों और मसालों का मुख्य बाज़ार भी है।

त्रिपोलिया शाही बाजार :- 

त्रिपोलिया नाम से मुगलकाल में चर्चित बाजार को वर्तमान में चौक के नाम से जाना जाता है । मुगल नवाब शुजाउद्दौला ने फ़ैज़ाबाद को अवध की राजधानी बनाने के बाद शहर के बीचोबीच एक शाही बाजार की स्थापना की। तीन तरफ ऊंची दीवारों से त्रिपोलिया बाजार से घिरा है। वर्तमान में यहां घंटाघर है। पुराने लोगों का कहना है कि जब शाही परिवार के लोग इस बाजार में प्रवेश करते हैं तो दुकानदार दुकान छोड़ देते थे। केवल लड़कियां और औरतें ही दुकान पर रहती हैं।

फैजाबाद संग्रहालय

फैजाबाद संग्रहालय, फैजाबाद के प्रमुख पर्यटक आकर्षणों में से एक है। इस संग्रहालय में ऐतिहासिक और पौराणिक वस्तुओं की एक विस्तृत श्रृंखला प्रदर्शित है। इस सुव्यवस्थित संग्रहालय में न केवल शहर के इतिहास और संस्कृति को देखने और समझने का अवसर मिलेगा, बल्कि सदियों पुराने फैजाबाद के लोगों के जीवन को भी समझने का अवसर मिलेगा। बर्तन, कटलरी, युद्ध के हथियार, चाँदी के बर्तन, रोज़मर्रा की चीज़ें और ऐसी ही कई चीज़ें यहाँ प्रदर्शित हैं। फैजाबाद के इतिहास को जानने के लिए यह ज़रूर देखने लायक जगहों में से एक है।

           -: बाग-बगीचे :- 

नवाबकालीन बाग-बगीचे लालबाग, अंगूरीबाग, आसफ बाग, मोतीबाग, जवाहिरबाग भले ही खत्म हो गए हों पर उनकी जगह बनी इमारतें शहर को खूबसूरत बना रही हैं।

लालबाग :- 

लालबाग को शुजाउद्दौला ने स्थापित कराया था। फैजाबाद में लालबाग वर्तमान में मकबरा है जो एक वास्तुशिल्प स्मारक है, जो उत्तर मुगल काल की वास्तुकला का उदाहरण है और यह लगभग 1801 ई में बना था। यह फैजाबाद के प्रमुख ऐतिहासिक स्थलों में से एक है। यह उत्तर मुगल काल की वास्तुकला शैली को दर्शाता है।यह छोटी छोटी मेहराबें और लटकते छज्जों से युक्त  हैं। यह मुगल स्थापत्य कला की जटिल डिजाइन और भव्य प्रवेश द्वार संरचनाओं को प्रदर्शित करता है।

अंगूरीबाग :- 

नियावां चौक रोड, अंगूरी बाग के पास यह इलाका लगता है । कभी अंगूर की बाग वाली इस भूमि में बाग तो उजड़ चुके हैं। अब आवासीय कालोनी बन कर रह गई है।

आसफ बाग :- 

यह अवध के नवाब आसफ-उद-दौला के समय से संबंधित है, जिन्होंने फैजाबाद में कई निर्माण कराए थे। यह संभावना है कि "आसफ बाग" आसफ-उद-दौला से जुड़ा कोई बगीचा, बाग या स्थापत्य संबंधी स्थल हो सकता है, क्योंकि वे फैजाबाद के प्रमुख नवाबों में से एक थे और उन्होंने लखनऊ राजधानी स्थानांतरित करने से पहले शहर में कई शानदार इमारतें बनवाई थीं। 

कंपनी गार्डन  : - 

सरयू नदी के किनारे गुप्तार घाट से सटे, कंपनी गार्डन, ब्रिटिश शासन के दौरान निर्मित एक वनस्पति उद्यान है। यह एक सुव्यवस्थित, विशाल उद्यान है जो हरियाली के बीच स्थित है। इसमें कई एकड़ में फैला एक बाग भी है। यहाँ से पौधे और पेड़ भी खरीदे जा सकते हैं। बक्सर के युद्ध के बाद नवाब शुजा-उद-दौला द्वारा निर्मित कलकत्ता किले के अवशेष भी पैदल दूरी पर हैं।

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।

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सम्राट मान्धाता राजा की कथा (राम के पूर्वज- 10) डा. राधे श्याम द्विवेदी

पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार भारत के सम्राटों में प्रथम सम्राट मान्धाता प्रसिद्ध है। उसे पुराणों में चक्रवर्ती सम्राट कहा गया है। उसने पड़ोस के अनेक राज्यों को जीतकर दिग्विजय किया। सम्राट मान्धाता के सम्बन्ध में पौराणिक अनुश्रुति में कहा गया है कि सूर्य जहां से उगता है और जहां अस्त होता है, वह सम्पूर्ण प्रदेश मान्धाता के शासन में था। जिन आर्य राज्यों को जीतकर मान्धाता ने अपने अधीन किया उनमें पौरव, आनव, द्रुहयु और हैह्य राज्यों के नाम विशेष रूप से उल्लेख पूर्ण हैं। मान्धाता को चक्रवर्ती और सम्राट बताने तथा उसकी विजयों के बारे में आर्य राज्यों को जीतना कारण बताया गया है, जिससे निष्कर्ष निकलता है वह स्वयं भी आर्य था। चूंकि भारत का इतिहास आर्यों से ही आरम्भ होता है, इसलिए भारत की सभ्यता का ज्ञान आर्यों के भारत आगमन से ही प्रकाश में आता है इसलिए कहा जा सकता है कि सम्राट मान्धाता का काल 5,000 वर्ष पूर्व रहा है। मान्धाता बड़े प्रतापी राजा हुए। उसने पड़ोस के अन्य आर्य राज्यों को जीतकर दिग्विजय किया।
सम्राट मान्धाता द्वारा विजित राज्य 
जिन राज्यों में सम्राट मान्धाता ने दिग्विजय की उसमें प्रमुख नाम है-पौरव, आनव, दुहयु और हैह्य। ये अपने समय के बड़े राज्य थे। जिन्हें जीतकर मान्धाता ने अपने आधीन किया। इनके अलावा अन्य स्थानों पर अपने राज्य का विस्तार किया।
सम्राट मान्धाता की विजयों के परिणाम अन्य राज्यों का फैलाव-राजा अनु और राजा दक्ष्यु जिन पर सम्राट मान्धाता ने विजय प्राप्त की थी। वो अयोध्या के पश्चिम से शुरू करके सरस्वती नदी के प्रदेशों पर शासन करते थे। सम्राट मान्धाता से पराजित होने के बाद वो और अधिक पश्चिम की ओर चले गए जिसकी वजह से राज्य विस्तार हुआ। राजा द्रहयु ने पराजित होने के बाद उत्तर-पश्चिमी पंजाब में (रावलपिण्डी से भी आगे) जाकर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। मनु लोगों से हारने के बाद पराजित राजाओं ने पंजाब में-मौधेय, केकय, शिवि, मद्र, अम्बष्ठ और सौवीर राज्य स्थापित किए। सम्राट मान्धाता से परास्त होने के बाद आनव (ऐल वंश की एक शाखा के लोग) ने पंजाब की ओर जाकर कई राज्य स्थापित किये। आनवों की एक शाखा सुदूर-पूर्व की ओर गयी। उनका नेता तितिक्षु था। इसने पूर्व की ओर जाकर वर्तमान समय के बिहार में अपना राज्य स्थापित किया। 
विजित राजाओं को मारा नहीं
चक्रवर्ती सम्राट मान्धाता ने अनेकानेक राज्यों पर दिग्विजय की। परन्तु पराजित राजा तथा उसके वंश के लोगों का वध नहीं किया। उनकी अधीनता मात्र से या तो सन्तुष्ट हो गए या फिर उनको सपरिवार, सकुटुम्ब राज्य से निकालकर अपना राज्य स्थापित किया। सम्राट मान्धाता के काल में पौरव वंश, कान्यकुब्ज वंश और ऐल वंश शक्तिशाली राजवंश के रूप में विकसित हुए। 
अयोध्या नरेश मानधाता से रावण का युद्ध
रावण की युद्ध करने की लालसा अभी ख़त्म न हुयी थी। इसलिए वो एक बार फिर से अयोध्या जा पहुंचा। इस बार उसका सामना अयोध्या नरेश मानधाता से हुआ। इस युद्ध में एक फिर कड़ी टक्कर हुयी। अंत में महाराज मानधाता ने रावण को मारने के लिए शिव जी द्वारा दिए गए पशुपात को हाथ में लिया। तब रावण को बचाने के लिए उसके दादा पुलस्त्य मुनि और गालव मुनि ने आकर रावण को धिक्कारा। जिससे रावण को बहुत ग्लानी हुयी। तब पुलस्त्य मुनि ने महाराज मानधाता और रावण की मैत्री करवाई।

Friday, September 5, 2025

कलकत्ता किला अयोध्या✍️आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी

फैजाबाद शहर, पूर्वी भारत में उत्तर प्रदेश राज्य में, सरयू नदी के तट पर, लखनऊ से लगभग 130 किलोमीटर पूर्व में स्थित है। इस शहर की स्थापना बंगाल के नवाब अली वर्दी खान ने 1730 में की थी। फैजाबाद की नींव अवध के दूसरे नवाब सआदत खान ने रखी थी। उनके उत्तराधिकारी शुजा-उद-दौला ने इसे अवध की राजधानी बनाया। एक बस्ती के रूप में फैजाबाद लगभग 220 साल पहले विकसित हुआ। 6 नवंबर 2018 तक यह फैजाबाद जिले और फैजाबाद मंडल का मुख्यालय था, जब मुख्यमंत्री माननीय योगी आदित्यनाथ की अध्यक्षता में उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल ने फैजाबाद जिले का नाम बदलकर अयोध्या करने और जिले के प्रशासनिक मुख्यालय को अयोध्या शहर में स्थानांतरित करने को मंजूरी दी।

कलकत्ता किला’ का निर्माण:- 

अवध के दूसरे नवाब सफदरजंग (1739- 1754) ने इसे अपना सैन्य मुख्यालय बनाया। उनके उत्तराधिकारी अवध के तीसरे नवाब शुजाउद्दौला 1764 में बक्सर की ऐतिहासिक लड़ाई में अंग्रेजों से बुरी तरह हार गये और फर्रुखाबाद के अपने शुभचिन्तक नवाब अहमद खां बंगश के सुझाव पर उन्होंने फैजाबाद को अपने सूबे की राजधानी बनाया तो सरयू तट पर विशाल ‘कलकत्ता किला’ बनवाया था। इस किले को ‘छोटा कल्कत्ता’ भी कहते थे, जो सरयू नदी के किनारे मीरान घाट के पास स्थित है। यह नवाबों के दौर में अवध की पहली राजधानी थी। यह शहर में एक रहस्यमयी जगह है जिसे फोर्ट कलकत्ता कहा जाता है। 


अंग्रेजों पर निगाह रखने के लिए :- 

18वीं शताब्दी में, जब अवध पर नवाब शुजाउद्दौला का शासन था, तब अंग्रेजों और नवाबों के बीच लगातार संघर्ष चल रहे थे।1764 में बक्सर के युद्ध में नवाब शुजाउद्दौला को अंग्रेजों के हाथों हार का सामना करना पड़ा। इस हार के बाद अंग्रेजों ने अवध के मामलों में दखल देना शुरू कर दिया था। कहा जाता है कि जब नवाब ने अंग्रेजों के बढ़ते प्रभाव से बचने के लिए अपनी सेना को संगठित किया, तब उन्होंने फैजाबाद में एक गुप्त किला बनवाया। इस किले में बड़ी संख्या में बंगाली सैनिक तैनात थे, जो कलकत्ता से आए थे। इसीलिए स्थानीय लोग इसे "फोर्ट कलकत्ता" कहने लगे थे।

फोर्ट कलकत्ता का रहस्य:-

ऐसा कहा जाता है कि यह किला अंग्रेजों के खिलाफ एक गुप्त ठिकाने के रूप में प्रयुक्त होता था। स्थानीय किंवदंतियों के अनुसार, इस किले के अंदर गुप्त सुरंगें थीं, जो नवाब के महल तक जाती थीं। किले का इस्तेमाल नवाब के खजाने को सुरक्षित रखने के लिए भी किया जाता था। फैजाबाद के कुछ पुराने लोग अब भी इस जगह को नवाबी दौर की एक खास  विरासत मानते हैं।

         यह कहानी भारतीय इतिहास के उस दौर की याद दिलाती है जब नवाबों और अंग्रेजों के बीच सत्ता संघर्ष चल रहा था,  उस समय फोर्ट कलकत्ता राजनीतिक हलचल का एक अहम हिस्सा था। 

यहाँ के नवाबों ने अपने शासन काल में कई शानदार इमारतें बनवाई गई थीं।

     फ़ैज़ाबाद नवाबों की राजधानी हुआ करता था। क़िले का निर्माण इस बात का सूचक था कि युद्ध में हारने के बाद भी उनकी क्षेत्र पर पकड़ कम नहीं हुई थी।इतिहास के अनुसार नवाब और उनकी पत्नी अपनी मृत्यु तक इस क़िले में रहे थे। शुजाउद्दौला का निधन 1775 में 26 जनवरी को हुआ था। शुजाउद्दौला की पत्नी बहू बेगम, शुजाउद्दौला की मृत्यु के बाद भी फोर्ट कलकत्ता में ही रहीं। 

     कलकत्ता क़िले की वास्तुकला विशेष रूप से मुग़ल काल की शैली से प्रभावित है। बाद में अंग्रेजों ने इसका पुनर्निर्माण कराया। इस क़िले की दीवारें स्थानीय मिट्टी की बनी हुई हैं। हालाँकि, यह किला अब एक टीले से ज्यादा कुछ नहीं है, जिसकी भारतीय सेना की फायरिंग रेंज के पास होने के कारण पहुंच प्रतिबंधित कर दिया गया है।

      शुजा-उद-दौला के शासनकाल के दौरान, फैजाबाद शहर ऐसी कई इमारतों से सुसज्जित था। ये इमारतें वास्तुकला के मामले में बेहद समृद्ध थीं और आज भी राजाओं के साथ आई नवाबी संस्कृति की झलक दिखाती हैं। ऐसे कई स्मारक हैं जो आज भी फैजाबाद शहर को अपनी एक अलग पहचान देते हैं।

     फैजाबाद के स्मारक प्रमुख पर्यटक आकर्षण हैं। इन स्मारकों का भी उतना ही ऐतिहासिक महत्व है। कलकत्ता किला, फैजाबाद और फैजाबाद के कई अन्य स्मारक शुजा-उद-दौला और अन्य शासकों द्वारा अपने प्रियजनों के सम्मान में या अपने शासनकाल के दौरान घटित कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं के प्रतीक के रूप में बनवाए गए थे।

    फैजाबाद स्थित छोटा कलकत्ता किला, फैजाबाद के कई उल्लेखनीय स्मारकों में से एक है। फोर्ट कलकत्ता हर साल बड़ी संख्या में पर्यटकों को आकर्षित करता है। दूर-दूर से लोग फैजाबाद और उत्तर प्रदेश में स्थित इन खूबसूरत इमारतों को देखने आते हैं। 


लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।

(वॉट्सप नं.+919412300183)








 

Wednesday, September 3, 2025

वामन जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं


वामन अवतार, भगवान विष्णु का पाँचवाँ अवतार है, जो छोटे कद के ब्राह्मण बालक के रूप में प्रकट हुआ था. इस अवतार का उद्देश्य अहंकारी असुर राजा बलि को पराजित कर तीनों लोकों में संतुलन स्थापित करना था, जिसने देवताओं को पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया था. वामन देव ने राजा बलि से तीन पग भूमि दान में मांगी और अपने विराट रूप में दो पगों से पूरी पृथ्वी और स्वर्ग को नाप लिया, तीसरे पग के लिए बलि के सिर को भूमि के रूप में उपयोग किया और उसे पाताल लोक भेज दिया. आज भाद्रपद शुक्ल द्वादशी के दिन वामन जयंती वामन भगवान के अवतरण दिवस के रूप में मनायी जाती है। वामन देव का जन्म माता अदिति व कश्यप ऋषि के पुत्र के रूप में हुआ था। वामन देव की पूजा में आप श्री वामन स्तोत्र और वामन अवतार (हिन्दी) का पाठ कर सकते है। इससे आपके ऊपर भगवान विष्णु की कृपा भी बनी रहती है।

      🙏🙏श्री वामन स्तोत्र🙏🙏

अदितिरुवाच ।

नमस्ते देवदेवेश सर्वव्यापिञ्जनार्दन ।

सत्त्वादिगुणभेदेन लोकव्य़ापारकारणे ॥ 1 

नमस्ते बहुरूपाय अरूपाय नमो नमः ।

सर्वैकाद्भुतरूपाय निर्गुणाय गुणात्मने ॥ 2 

नमस्ते लोकनाथाय परमज्ञानरूपिणे ।

सद्भक्तजनवात्सल्यशीलिने मङ्गलात्मने ॥ 

यस्यावताररूपाणि ह्यर्चयन्ति मुनीश्वराः ।

तमादिपुरुषं देवं नमामीष्टार्थसिद्धये ॥ 4 ॥

यं न जानन्ति श्रुतयो यं न जायन्ति सूरयः ।

तं नमामि जगद्धेतुं मायिनं तममायिनम् ॥ 5

यस्य़ावलोकनं चित्रं मायोपद्रववारणं ।

जगद्रूपं जगत्पालं तं वन्दे पद्मजाधवम् ॥ 6 

यो देवस्त्यक्तसङ्गानां शान्तानां करुणार्णवः 

करोति ह्यात्मना सङ्गं तं वन्दे सङ्गवर्जितम् ॥

यत्पादाब्जजलक्लिन्नसेवारञ्जितमस्तकाः ।

अवापुः परमां सिद्धिं तं वन्दे सर्ववन्दितम् ॥

यज्ञेश्वरं यज्ञभुजं यज्ञकर्मसुनिष्ठितं ।

नमामि यज्ञफलदं यज्ञकर्मप्रभोदकम् ॥ 9 ॥

अजामिलोऽपि पापात्मा यन्नामोच्चारणादनु 

प्राप्तवान्परमं धाम तं वन्दे लोकसाक्षिणम् 

ब्रह्माद्या अपि ये देवा यन्मायापाशयन्त्रिताः 

न जानन्ति परं भावं तं वन्दे सर्वनायकम् ॥ 

हृत्पद्मनिलयोऽज्ञानां दूरस्थ इव भाति यः ।

प्रमाणातीतसद्भावं तं वन्दे ज्ञानसाक्षिणम् ॥

यन्मुखाद्ब्राह्मणो जातो बाहुभ्य़ः क्षत्रियोऽजनि ।
तथैव ऊरुतो वैश्याः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।

मनसश्चन्द्रमा जातो जातः सूर्यश्च चक्षुषः ।

मुखादिन्द्रश्चाऽग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥ 

त्वमिन्द्रः पवनः सोमस्त्वमीशानस्त्वमन्तकः 

त्वमग्निर्निरृतिश्चैव वरुणस्त्वं दिवाकरः ॥ 

देवाश्च स्थावराश्चैव पिशाचाश्चैव राक्षसाः ।

गिरयः सिद्धगन्धर्वा नद्यो भूमिश्च सागराः ॥ 

त्वमेव जगतामीशो यन्नामास्ति परात्परः ।

त्वद्रूपमखिलं तस्मात्पुत्रान्मे पाहि श्रीहरे ॥ 

इति स्तुत्वा देवधात्री देवं नत्वा पुनः पुनः ।

उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा हर्षाश्रुक्षालितस्तनी ॥

अनुग्राह्यास्मि देवेश हरे सर्वादिकारण ।

अकण्टकश्रियं देहि मत्सुतानां दिवौकसाम् 

अन्तर्यामिन् जगद्रूप सर्वभूत परेश्वर ।

तवाज्ञातं किमस्तीह किं मां मोहयसि प्रभो।।
        🙏 वामन का अवतार🙏

नन्हे रूप में आए प्रभु, वामन बनकर आए,
त्रिलोकी से भिक्षा माँगी, सबका मन हर लाए।

राजा बलि ने दान दिया, तीन कदम की भूमि,
वामन ने धरती, अम्बर, समूची ली धूमि।

एक पैर से भूमि ढंकी, दूजे से आकाश,
तीसरे ने तज दी राजा बलि की सारी आश।

प्रभु की लीला अपरंपार, कौन इसे समझ पाए,
वामन रूप में नारायण ने, जग का कल्याण कराए।

अधर्म पर विजय पाई, धर्म का मान बढ़ाया,
वामन अवतार ने फिर से, न्याय का दीप जलाया।

राजा बलि ने झुका मस्तक, समर्पण कर दिया,
प्रभु के चरणों में अपना, जीवन अर्पित किया।

वामन ने दिया आशीर्वाद, संतोष का वरदान,
पाताल में स्थान दिया, फिर किया सम्मान।

युगों-युगों तक गूँजेगी, वामन की ये गाथा,
धर्म पर चलने वालों को, मिलेगी सदैव राह।

छोटे रूप में आई शक्ति, महान थी उसकी माया,
वामन अवतार ने जग में, सत्य का पाठ पढ़ाया।

राजा बलि ने पाई थी, प्रभु की सच्ची प्रीति,
भक्ति के इस अद्भुत फल से, वो हुए अति रीति।

प्रभु ने किया संतुष्ट उन्हें, स्नेह दिया अपार,
वामन के इस अवतार ने, किया जगत उद्धार।

धन्य हुआ वो राज बलि, जिसने प्रभु पहचाना,
वामन रूप में विष्णु ने, सत्य धर्म को माना।

भक्ति की ये गाथा सुन, जन-जन ने समझा,
सच्चे मन से जो भी मांगे, प्रभु का द्वार न बंद हुआ।

प्रभु की महिमा गाते हैं, सब देव और मुनि,
वामन का रूप अद्वितीय, अचरज भरे सभी।

धन, वैभव और बल से, बड़ा नहीं इंसान,
जो झुके प्रभु चरणों में, वही है सच्चा महान।

राजा बलि की भक्ति ने, सबको राह दिखाई,
वामन अवतार ने फिर से, सच्चाई जग में लाई।

युगों-युगों तक यह कथा, अमर रहेगी सदा,
धर्म और भक्ति के पथ पर, चलेगा जो, वही बढ़ेगा।।