श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, सप्तदशो अध्याय
डा. राधे श्याम द्विवेदी
🌷जय श्री कृष्ण जय श्री राधे। 🌷
मेरे प्रिय मित्रों! जय श्री कृष्ण,जय श्री राधे। जय श्री परम वन्दनीय अकारण करूणा वरूनालय भक्तवान्छा कल्पतरू श्री कृष्ण चन्द्र जी के चरणों में बरम्बार प्रणाम है। आप सभी सौभाग्य शाली मित्रों को भी मेरा सादर प्रणाम है । आप सभी पर परमात्मा की अत्यन्त कृपा है कि आप परमात्मा की रसोमय लीला का रसास्वादन कर पा रहे हैं I पिछले अध्याय में राजा परीक्षित के राज्य में कलियुग ने प्रवेश करने और धर्म व पृथ्वी संवाद का प्रसंग पढ़ा है। इस अध्याय में महाराज परीक्षित द्वारा कलियुग का दमन का वृतांत है।
पांडवों के शरीर त्यागने के बाद अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित राजा हुए । परीक्षित बहुत ही धर्मात्मा और प्रजा स्नेही थे । वे सदा ही ब्राह्मणो की सलाह के अनुसार राज्य का कार्यभार चलाते । एक समय उनको सूचना मिली कि उनके राज्य में कलियुग ने प्रवेश कर लिया है । तब राजा परीक्षित ने कलियुग को अपने राज्य से निकलने के लिए दिग्विजय करने का निश्चय किया । अपनी सेना को साथ लेकर राजा परीक्षित उसी समय दिग्विजय करने के लिए चल पडे ।
राजा ने बहुत से राजाओं को परास्त करके उनको अपने अधीन कर लिया । एक दिन राजा ने अपने शिविर के समीप दराजा परीक्षित् ने देखा कि एक राजवेषधारी शूद्र हाथ में डंडा लिये हुए है और गाय-बैलके एक जोड़े को इस तरह पीटता जा रहा है, जैसे उनका कोई स्वामी ही न हो ।
वह श्वेत रंगका बैल एक पैर से खड़ा काँप रहा था तथा शूद्र की ताड़ना से पीड़ित और भयभीत होकर मूत्र-त्याग कर रहा था । धर्मोपयोगी दूध, घी आदि हविष्य पदार्थों को देने वाली वह गाय भी बार-बार शूद्रके पैरों की ठोकरें खाकर अत्यन्त दीन हो रही थी । एक तो वह स्वयं ही दुबली-पतली थी, दूसरे उसका बछड़ा भी उसके पास नहीं था। उसे भूख लगी हुई थी और उसकी आँखोंसे आँसू बहते जा रहे थे ।
स्वर्ण जटित रथ पर चढ़े हुए राजा परीक्षित् ने अपना धनुष चढ़ाकर मेघ के समान गम्भीर वाणी से उस राजवेषधारी पुरुष को ललकारा । अरे! तू कौन है, जो बलवान् होकर भी मेरे राज्य के इन दुर्बल प्राणियों को बलपूर्वक मार रहा है? तूने नट की भाँति वेष तो राजा का-सा बना रखा है, परन्तु कर्म से तू शूद्र जान पड़ता है । हमारे दादा अर्जुन के साथ भगवान् श्रीकृष्ण के परमधाम पधार जाने पर इस प्रकार निर्जन स्थान में निरपराधों पर प्रहार करने वाला तू अपराधी है, अतः वधके योग्य है ।
राजा परीक्षित ने धर्म से पूछा ,कमल नाल के समान आप का श्वेतवर्ण है । तीन पैर न होने पर भी आप एक ही पैर से चलते-फिरते हैं । यह देखकर मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है। बतलाइये, आप क्या बैल के रूप में कोई देवता हैं? अभी यह भूमण्डल कुरुवंशी नरपतियों के बाहुबल से सुरक्षित है। इसमें आपके सिवा और किसी भी प्राणी की आँखों से शोक के आँसू बहते मैंने नहीं देखे ।
अब आप शाक ने करें। इस शुद्र से भयभीत होने की आवश्यकता नही है । गोमाता! मैं दुष्टों को दण्ड देने वाला हूँ ,अब आप रोयें नहीं । आपका कल्याण हो । देवि। जिस राजा के राज्य में दुष्ठों के उपद्रवसे सारी प्रजा त्रस्त रहती है । उस मतवाले राजा की कीर्ति, आयु, ऐश्वर्य और परलोक नष्ट हो जाते हैं ।
राजाओं का परम धर्म यही है कि वे दुखियों का दुःख दूर करें । यह महादुष्ट और प्राणियों को पीड़ित करने वाला है। अतः मैं अभी इसे मार डालूँगा । सुरभिनन्दन! आप तो चार पैर वाले जीव है। आपके तीन पैर किसने काट डाले? श्रीकृष्णा के अनुयायी राजाओं के राज्य में कभी कोई भी आप की तरह दुःखी न हो ।
वृषभ! आपका कल्याण हो। बताइये, आप जैसे निरपराध साधुओं का अंग-भंग करके किस दुष्ट ने पाण्डवों की कीर्ति में कलंक लगाया है । जो किसी निरपराध प्राणी को सताता है, उसे चाहे वह कहीं भी रहे, मेरा भय अवश्य होगा । दुष्टों का दमन करने से साधुओं का कल्याण ही होता है । जो उद्दण्ड व्यक्ति निरपराध प्राणियों को दुःख देता है, वह चाहे साक्षात् देवता ही क्यों न हो, मैं उसकी बाजूबंद से विभूषित भुजा को काट डालूँगा । बिन आपत्ति काल के मर्यादा का उल्लंघन करने वालों को शास्त्रानुसार दण्ड देते हुए अपने धर्में में स्थित लोगों का पालन करना राजाओं का परम धर्म है ।
बैल के रूप में स्थित धर्म ने कहा-राजन्! आप महाराज पाण्डुके वंशज हैं। आप का इस प्रकार दुःखियोंको आश्वासन देना आप के योग्य ही है; क्योंकि आपके पूर्वजोंके श्रेष्ठ गुणोंने भगवान् श्रीकृष्ण को उनका सारथि और दूत आदि बना दिया था । हे नरेन्द्र ! शास्त्र के विभिन्न वचनों से मोहित होने के कारण हम उस पुरुष को नहीं जानते, जिससे क्लेशों के कारण उत्पन्न होते हैं ।
जो लोग किसी भी प्रकार के द्वैत को स्वीकार नहीं करते, वे अपने-आप को ही अपने दुःखका कारण बतलाते हैं। कोई प्रारब्ध को कारण बतलाते हैं, तो कोई कर्म को। कुछ लोग स्वभाव को, तो कुछ लोग ईश्वर को दुःखका कारण मानते हैं । किन्हीं- किन्हीं का ऐसा भी निश्चय है कि दुःख का कारण न तो तर्क के द्वारा जाना जा सकता है और न वाणीके द्वारा बतलाया जा सकता है। राजर्षे! अब इनमें कौन-सा मत ठीक है, यह आप अपनी बुद्धि से ही विचार लीजिये ।
धर्म का यह प्रवचन सुनकर सम्राट् परीक्षित् बहुत प्रसन्न हुए, उनका खेद मिट गया। उन्होंने शान्त चित्त होकर धर्म से कहा ।
परीक्षित् ने कहा-धर्मका तत्त्व जानने वाले वृषभदेव! आप धर्म का उपदेश कर रहे हैं। अवश्य ही आप वृषभ के रूपमें स्वयं धर्म हैं। आपने अपने को दुःख देने वाले का नाम इसलिये नहीं बताया है क्यों कि , अधर्म करने वाले को जो नरकादि प्राप्त होते हैं, वे ही चुगली करने वाले को भी मिलते हैं । धर्मदेव! सत्ययुग में आपके चार चरण थे-तप, पवित्रता, दया और सत्य। इस समय अधर्म के अंश गर्व, आसक्ति और मद से तीन चरण नष्ट हो चुके हैं ।
अब आपका चौथा चरण केवल ‘सत्य’ ही बच रहा है। उसी के बलपर आप जी रहे हैं। असत्य से पुष्ट हुआ यह अधर्म रूप कलियुग उसे भी ग्रास कर लेना चाहता है । ये गौ माता साक्षात् पृथ्वी हैं। भगवान ने इनका भारी बोझ उतार दिया था और ये उनके राशि राशि सौन्दर्य बिखेरने वाले चरण चिह्नों से सर्वत्र उत्सव मयी हो गयी थीं अब ये उनसे बिछुड़ गयी हैं । वे साध्वी अभागिनी के समान नेत्रों में जल भरकर यह चिन्ता कर रही हैं कि अब राजा का स्वांग बनाकर ब्राह्मण द्रोही शूद्र मुझे भोगेंगे ।
महारथी परीक्षित् ने इस प्रकार धर्म और पृथ्वी को सान्त्वना दी। फिर उन्होंने अधर्म के कारण रूप कलियुग को मारने के लिये तीक्ष्ण तलवार उठायी । कलियुग डर गया कि ये तो अब मुझे मार ही डालना चाहते हैं ।अत: झटपट उसने अपने राज वस्त्र उतार डाले और भय विह्नल होकर उनके चरणों में अपना सिर रख दिया ।
परीक्षित् बड़े यशस्वी, दीनवत्सल और शरणागत रक्षक थे। उन्होंने जब कलियुग को अपने पैरों पर पड़े देखा तो कृपा करके उसको मारा नहीं । अपितु हँसते हुए, उससे कहा ,परीक्षित् बोले-जब तू हाथ जोड़ कर शरण आ गया, तब अर्जुन के यशस्वी वंशमें उत्पन्न हुए किसी भी वीर से तुझे कोई भय नहीं है । परन्तु तू अधर्म का सहायक है, इसलिये तुझे मेरे राज्यमें बिलकुल नहीं रहना चाहिये । तेरे राजाओं के शरीर में रहने से ही लोभ, झूठ, चोरी, दुष्टता, स्वधर्म त्याग, दरिद्रता, कपट, कलह, दम्भ और दूसरे पापों की बढ़ती हो रही है । अतः अधर्मके साथी! इस ब्रह्मावर्त में तू एक क्षण के लिये भी न ठहरना; क्योंकि यह धर्म और सत्य का निवास स्थान है । इस क्षेत्रमें यज्ञविधि के जानने वाले महात्मा यज्ञों के द्वारा यज्ञपुरुष भगवान की आराधना करते रहते हैं ।
इस देशमें भगवान् श्रीहरि यज्ञोंके रूप में निवास करते हैं, यज्ञोंके द्वारा उनकी पूजा होती है और वे यज्ञ करनेवालों का कल्याण करते हैं । वे सर्वात्म भगवान् वायुकी भाँति समस्त चराचर जीवोंके भीतर और बाहर एकरस स्थित रहते हुए उनकी कामनाओंको पूर्ण करते रहते हैं ।
परीक्षित् की यह आज्ञा सुनकर कलियुग घबरा गया । यमराज के समान मारनेके लिये उद्यत, हाथमें तलवार लिये हुए परीक्षित् से वह बोला । कलि ने कहा-सार्वभौम! आप की आज्ञा से जहाँ कहीं भी मैं रहने का विचार करता हूँ, वहीं देखता हूँ कि आप धनुष पर बाण चढ़ाये खड़े हैं । धार्मिक शिरोमणे! आप मुझे वह स्थान बतलाइये, जहाँ मैं आपकी आज्ञा का पालन करता हुआ स्थिर होकर रह सकूँ ।
कलियुग की प्रार्थना स्वीकार करके राजा परीक्षित् ने उसे चार स्थान दिये-द्यूत, मद्यपान, स्त्री-संग और हिंसा। इन स्थानों में क्रमश: असत्य, मद, आसक्ति और निर्दयता-ये चार प्रकारके अधर्म निवास करते हैं । कलियुग ने और भी स्थान माँगे । तब समर्थ परीक्षत् ने उसे रहनेके लिये एक और स्थान-सुवर्ण’ (धन) दिया । इस प्रकार कलियुग के पाँच स्थान हो गये झूठ, मद, काम, वैर और रजोगुण ।
परीक्षित् के दिये हुए इन्हीं पाँच स्थानों में अधर्म का मूल कारण कलि उनकी आज्ञाओं का पालन करता हुआ निवास करने लगा । इसलिये आत्म कल्याण कामी पुरुष को इन पाँचों स्थानों का सेवन कभी नहीं करना चाहिये । धार्मिक राजा, प्रजावर्ग के लौकिक नेता और गुरुओं को तो बड़ी सावधानी से इनका त्याग करना चाहिये ।
राजा परीक्षित् ने इसके बाद वृषभ रूप धर्म के तीनों चरण- तपस्या, शौच और दया जोड़ दिये और आश्वासन देकर पृथ्वीका संवर्धन किया । इस तरह राजा परीक्षित ने कलियुग का दमन किया और अपने जीवन काल तक कलियुग के प्रभाव को सीमित रखा ।
।। इति सप्तदशो अध्याय।।
No comments:
Post a Comment