राधा रानी के शुक के रूप में भगवान शुकदेव :-
शुकदेव जी पूर्व यानी पहले जन्म में राधा रानी जी के निकुंज के शुक (तोता) थे| निकुंज में गोपिओं के साथ प्रभु क्रीडा करते और शुकदेव जी सारा दिन राधा-राधा कहते कहते बीतता था। यह देख एक दिन राधा जी ने हाथ उठाकर तोते को अपनी ओर बुलाया | तोता आकर राधा जी के चरणों कि वंदना करता था।
वह उसे उठाकर अपने हाथ में ले लेती और तोता फिर श्री राधे राधे बोलने लगता था | तब राधा जी ने कहा, “अब तू राधा राधा नहीं, कृष्ण कृष्ण बोला कर ” |
शुकदेव जी ऐसा ही करने लगे। इन्हें देखकर दूसरे तोता भी कृष्ण-कृष्ण बोलने लगे। राधा की सखी सहेलियों पर भी कृष्ण नाम का असर होने लगा। पूरा नगर कृष्णमय हो गया, कोई राधा का नाम नहीं लेता था।
आगे चलकर एक बार राधा जी कृष्ण से मिलती है और राधा जी ने उनसे कहीं कि यह तोता कितना मधुर बोलता है ? वह उसे प्रभु के हाथ में दे दिया | इस प्रकार राधा जी ने ब्रह्म के साथ उस तोते का प्रत्यक्ष दर्शन और मिलन कराया |
गुरु और पति का नाम लेना वर्जित :-
पूर्व जन्म में शुकदेव जी के सद्गुरु श्री राधा जी हैं । सद्गुरु होने के कारण शुकदेव जी भागवत में राधा जी अर्थात अपने सदगुरु का नाम नहीं लिया | जिस प्रकार यदि पत्नी अपने पति का नाम ले, तो उसकी आयु घटती है, उसी प्रकार सद्गुरु को मन में स्मरण कर ‘सद्गुरु कि जय” कहना चाहिए, नाम लेकर मर्यादा भंग नहीं करनी चाहिए | ऐसा शास्त्रों में वर्णन आता है | आज के जमाने में पत्नियां इस रहस्य से अनजान हैं। उन्हें इस प्रकार की सीख अपने बुजुर्गों से लेनी चाहिए।
एक दिन कृष्ण उदास भाव से राधा से मिलने जा रहे थे। राधा कृष्ण की प्रतीक्षा कर रही थी। तभी नारद जी बीच में आ गए। कृष्ण के उदास चेहरे को देखकर नारद जी ने पूछा कि प्रभु आप उदास क्यों है?
कृष्ण कहने लगे कि राधा ने सभी को कृष्ण नाम रटना सिखा दिया है। कोई राधा नहीं कहता, जबकि मुझे राधा नाम सुनकर प्रसन्नता होती है। कृष्ण के ऐसे वचन सुनकर राधा की आंखें भर आईं। महल लौटकर राधा ने शुकदेव जी से कहा कि अब से आप राधा-राधा ही जपा कीजिए। उस समय से ही राधा का नाम पहले आता है फिर कृष्ण का। यानी राधा कृष्ण के संयुक्त नाम लेने की परम्परा पड़ी।
श्रीमद्भागवत में राधा नाम नहीं है:-
अगर भागवत कथा में शुकदेव जी राधा नाम लेते तो कथा पूरी नही हो पाती।राधा रानी शुकदेव जी की सतगुरु है । अगर वह अपने गुरुदेव का नाम लेते थे तो समाधि में चले जाते। परीक्षित के जीवन के केवल 7 ही दिन बचे हुए थे। इसलिए भागवत में उन्होंने राधा नाम को गुप्त रूप से लिया है। आज हम और आप कहीं भी जाकर देख लें।वृन्दावन, बरसाने में सभी राधे राधे ही रटते है। यही कारण है की हमारे कृष्ण जी को श्री राधा रानी का नाम अत्यंत प्रिय है।
एक बार तुलसीदास जी जब वृन्दावन गए थे तो हैरान रह गए थे की यहाँ सभी लोग राधे-राधे जपते है। इसलिए कलयुग में श्री राधा जी का नाम सर्वोपरि है। राधा कृष्ण की तरह सीता का नाम भी राम से पहले लिया जाता है।असल में राम और कृष्ण दोनों ही एक हैं और राधा एवं सीता भी एक हैं। यह हमेशा नित्य और शाश्वत हैं।
यही लक्ष्मी और नारायण रूप से संसार का पालन करते हैं। नारायण लक्ष्मी से अगाध प्रेम करते हैं। यह हमेशा अपने हृदय में बसने वाली राधा का नाम सुनना चाहते हैं। इसलिए ही कृष्ण नाम से पहले राधा नाम लिया जाता है।
भगवान शुकदेव की दूसरे जन्म की पृष्ठभूमि:-
समस्त संसार में आर्यवर्त एक पवित्र धरा है । स्वर्ग लोक के देवता भी इस धरा पर जन्म लेने के लिए लालायित रहते हैं । समय-समय पर अनेक दिव्य विभूतियों ने इस धरा पर जन्म लिया और पवित्र किया है । इसी भारत भूमि पर द्वापर और कलियुग के संधि के समय में एक दिव्य विभूति महात्मा शुकदेव जी ने जन्म लिया था और अपनी दिव्य वाणी के द्वारा पवित्र ग्रंथ श्रीमद्भागवत महापुराण को प्रकट किया था ।
भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त भगवान शुकदेव जी की जन्म की कथा अत्यंत दिव्य है, इस कथा का श्रवण और पाठन मात्र से व्यक्ति के समस्त कष्टों का नाश होता है और प्रभु के प्रति भक्ति का भाव जागृत होता है ।
ईश्वर इच्छा से एक बार माता पार्वती के गुरु वामदेव जी कैलाश पधारे । उन्होंने भोलेनाथ के दर्शन किए और उनकी चरण वंदना की । देवी पार्वती ने उनका अत्यंत आदर सत्कार किया । कैलाश से प्रस्थान करते हुए उन्होंने देवी पार्वती को कंहा कि आप भोलेनाथ के अवश्य पूछे कि वह नरमुंडो की माला क्यों धारण करते हैं ?
उनके जाने के उपरांत देवी पार्वती ने महादेव से वह प्रश्न किया । उस समय महादेव ने देवी पार्वती के प्रश्न को टाल दिया परंतु उनके अनेक बार आग्रह करने पर महादेव बोले, हे पार्वती, यह आप ही के नरमुंडो की माला है जिसे मैं धारण करता हू । हे पार्वती, समय के प्रभाव से आप बार - बार जन्म लेती हो और मृत्यु को प्राप्त करती हो और फिर मैं आपके ही मुंड की माला बना कर उसे धारण करता हू ।
तब देवी पार्वती ने महादेव से हंसकर प्रश्न किया कि हे प्रभु आपने ऐसा कौन सा कार्य किया हुआ है जिससे आप मृत्यु को प्राप्त नहीं होते ?
महादेव बोले, मैंने परम दिव्य अमृतमयी अमर कथा का रसपान किया हुआ है और इसी के प्रभाव से मैं अमर हूं ।
देवी पार्वती बोली हे प्रभु, मैं आपके मुखारविंद से उस परम दिव्य अमृत कथा को सुनने की इच्छा रखती हूं ।
महादेव बोले हे देवी, जिस कथा को सुनने मात्र से ही प्राणी अमर हो जाता है उसे सुनाने के लिए किसी विशेष स्थान की आवश्यकता है अतः मैं शीघ्र ही आपके समक्ष उस दिव्य कथा का वर्णन करूंगा।
अमर कथा का वर्णन:-
देवी पार्वती को दिव्य कथा का वर्णन करने के लिए महादेव ने पर्वतों से गिरी हुई एक प्राकृतिक गुफा को निश्चित किया । जिसकी ओर प्रस्थान करते हुए महादेव ने नंदी, चंद्रमा, गंगा जी, और वासुकी को विभिन्न स्थानों पर छोड़ दिया और देवी पार्वती के साथ गुफा मे पहुंचे ।
महादेव बोले हैं देवी, इस दिव्य कथा का वर्णन करते हुए मैं समाधि की अवस्था में चला जाऊंगा अतः आप बीच - बीच में हुंकार भरती रहना और यह भी सुनिश्चित कर लेना कि आपके और मेरे अतिरिक्त इस स्थान पर कोई अन्य प्राणी ना हो ।
देवी पार्वती ने सभी पशु - पक्षियों और जीव-जंतुओं को वहां से भगा दिया परंतु उन्होंने उस गुफा में उपस्थित एक तोते के विकृत अंडे पर कोई ध्यान नहीं दिया । इसके अतिरिक्त वहां कबूतरों का एक जोड़ा भी था जिसका देवी पार्वती को आभास नहीं हुआ ।
महादेव दिव्य कथा का वर्णन कर रहे थे और देवी पार्वती बीच- बीच में हुंकार भरकर कथा का श्रवण कर रही थी । अमर कथा के प्रभाव से तोते के उस विकृत अंडे में प्राण शक्ति का संचार होने लगा था ।
अमर कथा के प्रभाव से द्वितीय जन्म के शुक का जन्म :-
ईश्वर इच्छा से कथा सुनते हुए देवी पार्वती को नींद आ गई और उनके स्थान पर वहां उपस्थित नवजात शुक हुंकार भरने लगा । जब कथा समाप्त करने के उपरांत महादेव अपनी समाधि से उठे तो उन्होंने देखा कि देवी पार्वती के स्थान पर एक शुक हुंकारे भर रहा है तो वह अत्यंत क्रोधित हो गए । उस शुक का वध करने के लिए महादेव उसके पीछे दौड़े ।
नियति के अनुसार महादेव के भय से वह शुक उड़ता हुआ महर्षि वेदव्यास जी के आश्रम में पहुंचा । व्यास की पत्नी पिंजल किंजल या पिंगला है . वह ऋषि जाबालि की बेटी थी . उनका दो और नाम अरणी व देवी वीटिका भी मिलता है। उस समय महर्षि वेदव्यास अपनी पत्नी को उनके द्वारा रचित की गई दिव्य पुस्तक श्रीमद्भागवत महापुराण का वर्णन कर रहे थे । उस दिव्य कथा को सुनकर देवी वीटिका अत्यंत विस्मित हो रही थी उसी समय महादेव से बचते हुए वह शुक सूक्ष्म रूप धारण कर देवी के मुंह में चला गया ।
जब महादेवजी, उस शुक के पीछे - पीछे महर्षि के आश्रम में पहुंचे तो वेदव्यास जी ने महादेव को दंडवत प्रणाम किया और उन्हें आश्रम में हिंसा ना करने की प्रार्थना की । वेदव्यास की प्रार्थना से भगवान शिव प्रसन्न हो गए उन्होंने उस शुक के वध करने का विचार त्याग दिया और उन्हें वरदान मांगने को कहां ।
शुकदेव जी का जन्म का वरदान
वेदव्यास जी बोले प्रभु, "मैं आपकी कृपा से श्रीमद्भागवत महापुराण के लेखक का कार्य पूर्ण कर चुका हूं परंतु उस दिव्य कथा का वर्णन करने के लिए मुझे एक योग्य वक्ता की आवश्यकता है ।"
महादेव बोले, "देवी वीटिका के गर्भ मे पल रहा यह शुक ही तुम्हारे पुत्र के रूप मे जन्म लेगा और संसार मे भागवत का प्रचार करेगा ।"
वह शुक, देवी वीटिका के गर्भ मे पलने लगा । वह अमर कथा का श्रवण कर अमर हो चुका था और बाहर आकर सांसारिक मोह - माया के बंधन मे बंधना नहीं चाहता था इसलिए नौ महीने की अवधि समाप्त होने के उपरांत भी वह गर्भ से बाहर नहीं आया । उस दिव्य शुक के गर्भ मे होने के उपरांत भी उसकी माता को शारीरिक कष्ट नहीं होता था । वह सूक्ष्म रूप मे ही उस गर्भ मे बारह वर्ष तक रहा ।
बारह वर्षों के उपरांत भी जब वेदव्यास जी ने उसे बाहर आने की प्रार्थना की तो उसने कहा कि अगर श्री कृष्ण उसे गर्भ मे दर्शन दे और यह वरदान दे की संसार की मोह - माया का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, तभी वह गर्भ से बाहर आएगा । वेदव्यास जी के आग्रह पर श्री कृष्ण ने उस बालक को गर्भ में दर्शन दिए और सांसारिक मोह - माया से मुक्त रहने का आशिर्वाद दिया ।
बारह वर्ष तक गर्भ के बाहर ही नहीं निकले। जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर इन्हें आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, तभी ये गर्भ से बाहर निकले ।गर्भ से बाहर आते ही वह बारह वर्ष के किशोर बालक मे परिवर्तित हो गया ।वेदव्यास जी ने उस बालक का नाम शुकदेव रखा । शुकदेव जी ने गर्भ मे ही वेदव्यास जी से शास्त्रों की शिक्षा ग्रहण की थी। गर्भ में ही इन्हें वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि का सम्यक ज्ञान हो गया था।
जन्म लेते ही शुकदेवजी अपने माता पिता और श्रीकृष्ण को प्रणाम करके वन में तपस्या के लिए चले गए। ऐसी उनकी संसार से विरक्त भावनाएं थी। परंतु वात्सल्य भाव से रोते हुए श्री व्यास जी भी उनके पीछे भागे।
मार्ग में एक जलाशय में कुछ कन्याएं स्नान कर रही थीं, उन्होंने जब शुकदेव जी महाराज को देखा तो अपनी अवस्था का ध्यान न रख कर शुकदेव जी का आशीर्वाद लिया। लेकिन जब शुकदेव के पीछे मोह में पड़े श्री व्यास वहां पहुंचे तो सारी कन्याएं छुप गयीं। ऐसी सांसारिक विरक्ति से शुकदेव जी महाराज ने तप प्रारम्भ किया।
महर्षि वेदव्यास ने अपने पुत्र को बुलाने के अनेक प्रयास किए परंतु वह सब प्रयास व्यर्थ सिद्ध हुए । फिर महर्षि वेदव्यास ने अपने शिष्यों को बुलाया और उन्हें भगवान श्री कृष्ण के साकार रूप से संबंधित आधा श्लोक रटाकर शुकदेव के पास भेजा ।
वन में वेदव्यास जी के शिष्यों के मुख से भगवान श्री कृष्ण के साकार रूप का वर्णन सुनकर शुकदेव जी अत्यंत प्रभावित हुए । उन्होंने उन शिष्यों से उस श्लोक की अगली पंक्ति सुनाने का आग्रह किया परंतु उन्हें श्लोक की अगली पंक्ति का ज्ञान नहीं था । वह बोले, अगर आपको श्लोक की अगली पंक्ति के बारे में जानना है तो आप हमारे गुरु वेदव्यास जी के पास जाकर पूछिए ।
शुकदेव जी ने तत्काल ही तपस्या करना छोड़ दिया और अपने पिता वेदव्यास जी के पास पहुंचे ।भगवान वेदव्यास
के सम्मुख अध्यापन की समस्या थी। उन्होंने अपने ध्यान बल से देखा तो उन्हें ज्ञात हुआ कि श्री शुकदेव के अन्त: स्थल में पहिले से ही श्रीमद्भागवत के संस्कार विद्यमान हैं। क्योंकि पूर्व जन्म में जब वो तोते के गले हुए अंडे के रूप में कैलाश पर्वत पर पड़े हुए थे तब भगवान शंकर के मुख से श्रीमद्भागवत की कथा सुनकर ये जीवित हो गए थे और पार्वती के सो जाने पर भी ऊं ऊं का उच्चारण करते हुए स्वीकृति वचन देते रहे थे।
भगवान वेदव्यास जी ने उन्हें श्रीं कृष्ण के साकार रूप से संबंधित अनेक श्लोकों का ज्ञान दिया । परमात्मा के साकार रूप का वर्णन सुनकर शुकदेव का मन अति प्रफुल्लित हो गया उन्होंने अपने पिता से और श्लोक सुनाने का आग्रह किया । वेदव्यास जी ने उनके समक्ष श्रीमद्भागवत महापुराण के सभी 18000 श्लोकों का वर्णन किया । शुकदेव जी ने भागवत पढ़ना अपनी दिनचर्या बना लिया और उसे कंठस्थ कर लिया ।
श्रीमद्भागवत महापुराण का प्राकट्य :-
नियति ने अपना कार्य कर दिया था । महाराज परीक्षित अपने पुत्र का राज्याभिषेक कर गंगा नदी के तट पर आमरण अनशन का व्रत लेकर बैठ चुके थे । महर्षि शुकदेव का जन्म श्रीमद्भागवत को संसार के समक्ष प्रकट करने के लिए हुआ था । जब शुकदेव जी को ज्ञात हुआ की परीक्षित एक ऋषि के श्राप के कारण आमरण अनशन का व्रत लेकर बैठ गए है तो वे भी उनके दर्शन के लिए पहुंचे ।
महाराज परीक्षित और शुकदेव जी भगवान कृष्ण के परम भक्त थे । श्रीं कृष्ण ने इन दोनों को गर्भ में ही अपने चतुर्भुज स्वरूप के दर्शन दिए थे अतः ये दोनों ही माया से परे थे । संसार के कल्याण के लिए महाराज परीक्षित ने शुकदेव से प्रश्न किया की किस प्रकार एक पापी मनुष्य भी सात दिनों के भीतर सांसारिक भव - बंधन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है?
श्री शुकदेव ने उन्हें भगवान विष्णु और विशेषकर श्री कृष्ण की दिव्य लीलाओं का ज्ञान दिया । उनके द्वारा वर्णित की गई भगवान विष्णु की दिव्य लीलाओं और कथाओं का संग्रह श्रीमद्भागवत महापुराण के रूप मे संसार के समक्ष प्रकट हुआ ।
श्री शुकदेव के मुख से संसार के पालक श्री हरि की लीलाओ और कथाओं का वर्णन सुनकर महाराज परीक्षित के जन्म - जन्मांतर के पाप नष्ट हो गए, उन्हें संसार की नश्वरता का बोध हुआ और ज्ञान की प्राप्ति हुई । श्रीमद्भागवत की दिव्य कथा का वर्णन कर शुकदेव वहां से चले गए ।
देवताओं को श्रीमद्भागवत का ज्ञान देना :-
वेदव्यास ने उन्हें विद्याध्ययन के लिए देव गुरु वृहस्पति जी के पास भेजा । शुकदेव जी एक विलक्षण शिष्य थे उन्होंने शीघ्र ही विद्याध्ययन का कार्य संपूर्ण कर लिया । उन्होंने देवताओं को श्रीमद्भागवत और महाभारत की कथा का ज्ञान दिया । इसके उपरांत वह पुनः आश्रम में आ गए ।
शुकदेव जी का विवाह :-
शुकदेव जी की आयु विवाह योग्य थी परंतु वह विवाह के बंधन मे नहीं बंधना चाहते थे । उनके पिता ने उन्हें विवाह के लिए सहमत कराने के कई प्रयास किए परंतु वह ब्रह्मचर्य को ग्रहस्थ आश्रम से श्रेष्ठ समझते थे । शुकदेव जी गृहस्थाश्रम में प्रवेश लेना नहीं चाहते थे। व्यास जी ने उन्हें बहुत समझाया अंत में विदेहराज जनक जी के यहां धर्म की निष्ठा एवं मोक्ष का परम आशय पूछने के लिए मिथिला भेजा। राजा जनक ने अनेक प्रकार से परीक्षा लिया।उनकी कड़ी परीक्षा में उत्तीर्ण होकर उनसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया। उनमें पात्रता देखकर उन्हें गृहस्थाश्रम का महत्व बतलाते हुए विवाह करने का उपदेश दिया । महाराज जनक के प्रवंचनो और उदाहरणों से उन्हें ग्रहस्थ आश्रम की श्रेष्ठता का आभास हुआ ।
शुकदेव जी का विवाह देवी पीवरी से संपन्न हुआ । देवी पीवरी के पिता का नाम वहिषद था, वह स्वर्ग के सुकर लोक मे रहने वाले पितरों के राजा थे । पुराणों में शुकदेव के बारह पुत्रों और एक कन्या के जन्म का वर्णन मिलता है । उनके सभी पुत्र धर्म के मार्ग पर चलने वाले सिद्ध साधक थे ।
यद्यपि अमर कथा का पान करने से शुकदेव जी अमर थे परंतु वह मानव देह के बंधनों मे बंधना नहीं चाहते थे और उन्हें मानव देह की नश्वरता का पूर्ण ज्ञान था । उन्होंने मनुष्य जन्म के चारो ऋण, देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण, और मनुष्य ऋण से मुक्ति प्राप्त की और अपने पिता वेदव्यास जी की आज्ञा प्राप्त कर सुमेरु पर्वत गए । वहाँ उन्होंने ईश्वर के चरणों में ध्यान लगाकर अपने भौतिक शरीर का त्याग कर मोक्ष प्राप्त किया । कहते हैं कि शुकदेवजी अजर अमर हैं और वे समय-समय पर श्रेष्ठ पुरुषों को दर्शन देकर उन्हें अपने दिव्य उपदेशों के द्वारा कृतार्थ करते हैं। आज भी शुकदेव जी निराकार रूप में इस जगत मे विद्यमान है । उनके द्वारा वर्णित किया गया श्रीमद्भागवत महापुराण सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है । लोग इस दिव्य ग्रंथ का पाठन और श्रवण कर अपना जीवन सार्थक करते है ।जिस जगह शुकदेव जी महाराज ब्रह्मलीन हुए थे वर्तमान समय में वह जगह हरियाणा में कैथल के गाॅंव सजूमा में है।
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