Monday, November 14, 2022

ज्ञानी भक्त और पितरों के रूप में पूज्य होने के बावजूद कौवे को समाज में उचित स्थान नहीं

कौवे को समाज में उचित स्थान नहीं  
आचार्य (डा.) राधे श्याम द्विवेदी 
चतुर चालाक पक्षी:-
कौआ काले रंग का एक पक्षी है , जो कर्ण कर्कश ध्वनि 'काँव-काँव' करता है। उसे बहुत उद्दंड, धूर्त तथा चालाक पक्षी माना जाता है। बिगड़ रहे पर्यावरण की मार कौओं पर भी पड़ी है। कौओं का दिमाग लगभग उसी तरीके से काम करता है, जैसे चिम्पैन्जी और मानव का। ये लोगों की नज़र में अछूत हैं, पर इतने चतुर-चालाक होते हैं कि चेहरा देखकर ही जान लेते हैं कि कौन खुराफाती और कौन दोस्त हो सकता है। अपनी याददाश्त के बल पर कौवे अपने लिए सुरक्षित रखे गए भोजन के बारे में भी याद रखते हैं, जिसको भूख लगने पर वे प्रयोग कर लेते हैं। कौवों को अपने यहाँ मुंडेर पर बैठकर काँव-काँव करने वाले कौवे को संदेश-वाहक भी माना जाता है। कौवे का सिर पर बैठना बुरा माना जाता है और इसको टोने के रूप में प्रचारित किया जाता है। 
 भुसुंडी उत्तम कोटि के ज्ञानी भक्त:-
योग वशिष्ठ में काक भुसुंडी की चर्चा है, रामायण में भी सीता के पांव पर जयंत द्वारा कौवे के रूप में चोंच मारने का प्रसंग आया है। भगवान शंकर के मुख से निकली श्रीराम की यह पवित्र कथा 'अध्यात्म रामायण' के नाम से विख्यात है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में लिखा है कि काकभुशुण्डि परमज्ञानी रामभक्त हैं। पूर्व के एक कल्प में कलियुग का समय चल रहा था। उसी समय काकभुशुण्डि जी का प्रथम जन्म अयोध्या पुरी में एक शूद्र के घर में हुआ। उस जन्म में वे भगवान शिव के भक्त थे किन्तु अभिमान पूर्वक अन्य देवताओं की निन्दा करते रहते थे। 
एक बार अयोध्या में अकाल पड़ जाने पर वे उज्जैन चले गये। वहाँ वे एक दयालु ब्राह्मण की सेवा करते हुये उन्हीं के साथ रहने लगे। वह ब्राह्मण भगवान शंकर के बहुत बड़े भक्त थे किन्तु भगवान विष्णु की निन्दा कभी नहीं करते थे। उन्होंने उस शूद्र को शिव जी का मन्त्र दिया था। मन्त्र पाकर उस शूद्र का अभिमान और भी बढ़ गया। वह अन्य द्विजों से ईर्ष्या और भगवान विष्णु से द्रोह करने लगा था। उसके इस व्यवहार से उनके गुरु अत्यन्त दुःखी होकर उसे श्री राम की भक्ति का उपदेश दिया करते थे।
एक बार उस शूद्र ने भगवान शंकर के मन्दिर में अपने गुरु, (अर्थात् जिस ब्राह्मण के साथ वह रहता था) , का अपमान कर दिया। इस पर भगवान शंकर ने आकाशवाणी करके उसे शाप दे दिया -- "रे पापी! तूने गुरु का निरादर किया है इसलिए तू सर्प की अधम योनि में चला जा और सर्प योनि के बाद तुझे 1000 बार अनेक योनि में जन्म लेना पड़े।" गुरु बड़े दयालु थे इसलिये उन्होंने शिव जी की स्तुति करके अपने शिष्य के लिये क्षमा प्रार्थना की। 
गुरु के द्वारा क्षमा याचना करने पर भगवान शंकर ने आकाशवाणी करके कहा, "हे ब्राह्मण! मेरा शाप व्यर्थ नहीं जायेगा। इस शूद्र को 1000 बार जन्म अवश्य ही लेना पड़ेगा किन्तु जन्मने और मरने में जो दुःसह दुःख होता है वह इसे नहीं होगा और किसी भी जन्म में इसका ज्ञान नहीं मिटेगा। इसे अपने प्रत्येक जन्म का स्मरण बना रहेगा जगत् में इसे कुछ भी दुर्लभ न होगा । इसकी सर्वत्र अबाध गति होगी ।मेरी कृपा से इसे भगवान श्री राम के चरणों के प्रति भक्ति भी प्राप्त होगी।" इसके पश्चात् उस शूद्र ने विन्ध्याचल में जाकर सर्प योनि प्राप्त किया। कुछ काल बीतने पर उसने उस शरीर को बिना किसी कष्ट के त्याग दिया । वह जो भी शरीर धारण करता था उसे बिना कष्ट के सुखपूर्वक त्याग देता था, जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र को त्याग कर नया वस्त्र पहन लेता है। प्रत्येक जन्म की याद उसे बनी रहती थी। श्री रामचन्द्र जी के प्रति भक्ति भी उसमें उत्पन्न हो गई। 
लोमश ऋषि के शाप से कौवे का स्वरूप मिला :-
अन्तिम शरीर उसने ब्राह्मण का पाया। ब्राह्मण हो जाने पर ज्ञानप्राप्ति के लिये वह लोमश ऋषि के पास गया। जब लोमश ऋषि उसे ज्ञान देते थे तो वह उनसे अनेक प्रकार के तर्क-कुतर्क करता था। उसके इस व्यवहार से कुपित होकर लोमश ऋषि ने उसे शाप दे दिया कि जा तू चाण्डाल पक्षी (कौआ) हो जा। वह तत्काल कौआ बनकर उड़ गया। शाप देने के पश्चात् लोमश ऋषि को अपने इस शाप पर पश्चाताप हुआ और उन्होंने उस कौए को वापस बुला कर राममन्त्र दिया तथा इच्छा मृत्यु का वरदान भी दिया। कौए का शरीर पाने के बाद ही राममन्त्र मिलने के कारण उस शरीर से उन्हें प्रेम हो गया और वे कौए के रूप में ही रहने लगे तथा काकभुशुण्डि के नाम से विख्यात हुए। लोमश ऋषि के शाप के चलते काकभुशुण्डि कौवा बन गए थे। लोमश ऋषि ने शाप से मु‍क्त होने के लिए उन्हें राम मंत्र और इच्छामृत्यु का वरदान दिया। कौवे के रूप में ही उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन व्यतीत किया।
गरुण का भ्रम कागभुशुण्डि द्वारा दूर हुआ था:-
रावण के पुत्र मेघनाथ ने राम से युद्ध करते हुये जब राम को नागपाश से बाँध दिया था। देवर्षि नारद के कहने पर गरूड़, जो कि नागभक्षी थे, ने नागपाश के समस्त नागों को प्रताड़ित कर राम को नागपाश के बंधन से छुड़ाया था। राम के इस तरह नागपाश में बँध जाने पर राम के परमब्रह्म होने पर गरुड़ को सन्देह हो गया। गरुड़ का सन्देह दूर करने के लिये देवर्षि नारद उन्हें ब्रह्मा जी के पास भेजा। ब्रह्मा जी ने उनसे कहा कि तुम्हारा सन्देह भगवान शंकर दूर कर सकते हैं। भगवान शंकर ने भी गरुड़ को उनका सन्देह मिटाने के लिये काकभुशुण्डि जी के पास भेज दिया। अन्त में काकभुशुण्डि जी ने राम के चरित्र की पवित्र कथा उत्तराखंड के काक भुसुंडी ताल की घाटी में सुना कर गरुड़ के सन्देह को दूर दिया था।
गरुण पुराण में कौवा पितर के रूप में पूज्य:- 
भारत में श्राद्ध, तर्पण के जरिए पितरों को संतुष्ट किया जाता है। श्राद्ध पक्ष में नियम है कि इसमें पितरों के नाम से जल और अन्न का दान किया जाता है और उनकी नियमित कौएं को भी अन्न जल दिया जाता है। श्राद्ध के समय लोग अपने पूर्वजों को याद करके यज्ञ करते हैं और कौए को अन्न जल अर्पित करते हैं। कौए को यम का प्रतीक माना जाता है। गरुण पुराण के अनुसार, अगर कौआ श्राद्ध को भोजन ग्रहण कर लें तो पितरों की आत्मा को शांति मिलती है। साथ ही ऐसा होने से यम भी खुश होते हैं और उनका संदेश उनके पितरों तक पहुंचाते है।
यम ने कौवे को वरदान दिया था तुमको दिया गया भोजन पूर्वजों की आत्मा को शांति देगा। पितृ पक्ष में ब्राह्मणों को भोजन कराने के साथ साथ कौवे को भोजन करना भी बेहद जरूरी होता है। कहा जाता है कि इस दौरान पितर कौवे के रूप में भी हमारे पास आते हैं।
श्राद्ध में कौए का महत्त्व :-
भारत में हिन्दू धर्म में श्राद्ध अनुष्ठान पूरा करने के लिए कौए तलाशने से कम मिलते हैं। श्राद्ध पक्ष के समय कौओं का विशेष महत्त्व है और कौए के विकल्प के रूप में लोग बंदर, गाय और अन्य पक्षियों को भोजन का अंश देकर श्राद्ध अनुष्ठान पूरा करते हैं। प्रत्येक श्राद्ध के दौरान पितरों को खाना खिलाने के तौर पर सबसे पहले कौओं को खाना खिलाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि व्यक्ति मर कर सबसे पहले कौए का जन्म लेता है। मान्यता है कि कौओं को खाना खिलाने से पितरों को खाना मिलता है। जो व्यक्ति श्राद्ध कर्म कर रहा है, वह एक थाली में सारा खाना परोसकर अपने घर की छत पर जाता है और ज़ोर-ज़ोर से कोबस 'कोबस' कहते हुए कौओं को आवाज़ देता है। थोडी देर बाद जब कोई कौआ आ जाता है तो उसको वह खाना परोसा जाता है। पास में पानी से भरा पात्र भी रखा जाता है। जब कौआ घर की छत पर खाना खाने के लिए आता है तो यह माना जाता है कि जिस पूर्वज का श्राद्ध किया गया है, वह प्रसन्न है और खाना खाने आ गया है। कौए की देरी व आकर खाना न खाने पर माना जाता है कि वह पितर नाराज़ है और फिर उसको राजी करने के उपाय किए जाते हैं। इस दौरान हाथ जोड़कर किसी भी ग़लती के लिए माफ़ी माँग ली जाती है और फिर कौए को खाना खाने के लिए कहा जाता है। जब तक कौआ खाना नहीं खाता, व्यक्ति के मन को प्रसन्नता नहीं मिलती। 
जयंत के भ्रम का निवारण:-
इंद्र के पुत्र जयंत जो राजा दशरथ का मंत्री भी था,के मन में एक बार राम की शक्ति परखने का विचार आ गया क्योंकि उसकी दृष्टि सीता पर मोहित हो चुकी थी। वनवास के समय जब चित्रकूट में एक दिन राम अपनी कुटिया में सीता के केशों पर फूलों की वेणी सजा रहे थे तो जयंत कौए का रूप धारण कर वहां पहुंच गया । ईर्ष्यावश उससे यह सुंदर दृश्य देखा ना गया और वह सीता के पाँव पर अपनी चोंच से गंभीर चोट मार कर भाग गया ।
‘सीता चरण चोंच हतिभागा। मूढ़ मंद मति कारन कागा।।
चला रूधिर रघुनायक जाना।सीक धनुष सायक संधाना’।।
जयंत का दु:स्साहस और सीता की पीड़ा देखकर राम का रक्त खौल गया । उन्होंने तुरंत कुशा यानी घास का बाण बनाकर जयंत पर छोड़ दिया । जयंत भागा…भागा । शरण के लिए उसने अपने पिता इंद्र समेत सभी देवी-देवताओं की देहरी पर माथा टेका पर उसे किसी ने शरण न दी । देते भी क्यों ? वह राम का अपराधी जो था। किसी अन्य देवता का अपराध करने पर उसे क्षमादान मिल भी सकता था, किंतु यहां उसने एक असाधारण व्यक्ति का अपराध किया था जो अपनी मर्यादा,कर्तव्य-परायणता, वीरता, साहस, धर्म,अधर्म पर विवेक,अविवेक के उचित बोध से समस्त लोकों में देव तुल्य हो गया था। तब नारद जी ने जयंत को सलाह दी कि जिनका बाण काल बनकर तुम्हारा पीछा कर रहा है उन्हीं की शरण में जाओ । जयंत राम के चरणों में गिर पड़ा । श्री राम ने अपने बाण से उसकी आंखों पर वार कर दिया और कौए की आंख फूट गई। कौवे को जब इसका पछतावा हुआ तो उसने श्रीराम से क्षमा मांगी तब भगवान राम ने आशीर्वाद स्वरुप कहा जो कौवे को भोजन कराएगा वह अन्न उसके पितरों को तृप्त करेगा।यह कौवा कोई और नहीं इंद्र के पुत्र जयंत थे। भी कौवा प्रिय नहीं :- 
इतनी महत्ता होने के बावजूद आम जन मानस में कौवे के प्रति सम्मान का भाव नही देखा जाता है। काला रूप, कर्कस आवाज और अवांछित स्थल पर विष्टा त्यागने के कारण लोग उसे पास रुकने नहीं देते और तुरन्त दूर भगाने के लिए प्रयास करने लगते हैं।हमारे समाज में पूज्य और उपयोगी जनों को भी सम्मान नहीं मिलता है।लोग मीठी बातों में आकर अवांछित जनों के चक्कर में फंस कर अपना और समाज का नुकसान कर देते हैं।पूज्य विद्वत जन इस दंस को झेलने के लिए मजबूर हो जाते हैं। समाज में पसरी इस समस्या का सम्यक निदान किया जाना चाहिए।


Thursday, November 10, 2022

अयोध्या का कल्पवास -- आचार्य डा.राधे श्याम द्विवेदी

          राम करणामृतम १/६३-६५ में अयोध्यावास की लालसा का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है।यह अयोध्या दर्शन गीताप्रैस के पृष्ट 111 से उद्धित किया गया है। (मोबाइल टाइपिंग के पूर्ण शुद्धता नही आ पाती है।)

कदा वा साकेते विमल सरयू पुनीत पुलिने
समासीन: श्रीमदरघुपतिपदाबजे हृदि भजन।
अये राम स्वामिन जनक तनया बल्लभ विभो
प्रसीदेति क्रोशन्नीमिषमिव नेष्यामि दिवसान।।

कदा वा साकेते तरुणतुलसीकाननतले
निविष्टस्तम पश्यन्नविहतविशालोर्द्ध तिलकम।
अये सीतानाथ स्मृतजनपते दानवजयिन 
प्रसीदेति क्रोशन्नीमिषमिव नेष्यामि दिवसान।।

कदा वा साकेते मणिखचितसिंहासनतले
समासीनम रामम जनकतनयालिंगिततनुम।
अये सीताराम त्रुटितहरधनवन रघुपते
प्रसीदेति क्रोशन्नीमिषमिव नेष्यामि दिवसान।।
कार्तिक मास की महत्ता:-
भगवान विष्‍णु का प्रिय कार्तिक मास का इस बार 10 अक्‍टूबर से लगा था । आश्विन मास की पूर्णिमा तिथि के बाद से कार्तिक मास का आरंभ माना जाता है। इस बार शरद पूर्णिमा 9 अक्‍टूबर को था। उसके अगले दिन से यानी कि 10 अक्‍टूबर से कार्तिक मास प्रारंभ हो गया था।
शरद पूर्णिमा पर्व से शुरुवात : -
शास्त्रीय मान्यता है कि शरद पूर्णिमा के पर्व पर चन्द्र किरणों से अमृत की वर्षा होती है। इसी अमृत मिश्रित खीर प्रसाद के सेवन से नाना प्रकार की शारीरिक व्याधियों का शमन हो जाता है। सामान्यतया इसी तिथि से शरद ऋतु का भी आगमन हो जाता है। इसी समय में स्वाति नक्षत्र में गिरने वाली ओस की बूदें सीप के मुंह में जाकर बहुमूल्य मोती का स्वरुप धारण करती हैं। इन्हीं मान्यताओं को लेकर सभी मंदिरों में आश्विन शुक्ल पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा महोत्सव का भी आयोजन मठ-मंदिरों में होता है। इस अवसर पर भगवान के चल विग्रह को खुले आसमान के नीचे मंदिर के आंगन में प्रतिष्ठित कर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है और खीर का विशेष भोग लगाकर श्रद्धालुओं में प्रसाद का वितरण किया जाता है।
कल्पवास एक साधना है:-
कल्पवास एक प्रकार की साधना है, जो पूरे कार्तिक मास के दौरान पवित्र नदियों के तट पर की जाती है। भविष्य पुराण में वर्णित है कि कार्तिक का व्रत आश्विन की पूर्णिमा को शुरू कर कार्तिक की पूर्णिमा को पूरा किया जाता है। स्कन्ध पुराण के अनुसार कार्तिक मास समस्त मासों में सर्वश्रेष्ठ है। कहा जाता है कि इस मास में तीर्थ नगरियों में प्रवाहमान पवित्र नदियों के पावन सलिल में सूर्योदय के पूर्व स्नान करने और तुलसी दल के साथ भगवान विष्णु की आराधना करने का विशेष फल प्राप्त होता है। कार्तिक मास की शुरुआत से ही अयोध्या में कल्पवासी श्रद्धालुओं का जमावड़ा शुरू हो जाता है। इस दौरान रामनगरी में बड़ी संख्या में श्रद्धालु कल्पवास के लिए आते हैं। अयोध्या के विभिन्न मंदिरों ,आश्रमों , होटलों, धर्मशालाओं व गुरु स्थानों पर रुक कर कार्तिक कल्पवास करते हैं। कार्तिक पूर्णिमा तक चलने वाले इस अनुष्ठान के दौरान श्रद्धालुगण तीर्थ नगरी में आकर पूर्ण नियम और संयम के साथ प्रवास करते हैं और दैनिक पूजा-पाठ के साथ रामकथा- भागवत प्रवचनों के श्रवण के साथ विविध धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन कर पुण्य लाभ अर्जित करते हैं।
कार्तिक सर्वोत्तम मास :-
कार्तिक मास सभी मासों में श्रेष्ठ व सर्वोत्तम फलदायक माना गया है। व्रत, स्नान व दीपदान के लिए सरयू तट पर सुबह-शाम कल्पवासी श्रद्धालुओं की भीड़ शुरू होने जाती है। कार्तिक मास त्योहारों का माह कहा जाता है। ऋतु परिवर्तन की दृष्टि से कार्तिक का महीना समशितोष्ण होता है। अर्जुन को गीता का ज्ञान देते समय भगवान कृष्ण ने स्वयं को महीनों में कार्तिक बताया था। इस महीने में व्रत त्योहारों की संख्या भी अधिक होती है। चातुर्मास का सबसे प्रमुख मास होता है कार्तिक मास। इस मास में गंगा यमुना सरयू आदि पवित्र नदियों में स्‍नान, दीप दान, यज्ञ और अनुष्‍ठान परम फल देने वाले माने गए हैं। इसे करने से कष्‍ट दूर होने के साथ पुण्‍य की प्राप्ति होती है और ग्रह दशा भी सुधरती है। शरद पूर्णिमा से प्रारंभ होकर करवा चौथ, धनतेरस, वीआईपी अयोध्या   दीपोत्सव,हनुमान जयंती ,दीपावली ,भैया दूज , छठ पूजा,अक्षय नवमी चौदह कोसी परिक्रमा ,देवोत्थान एकादशी पंच कोसी परिक्रमा, तुलसी शालिग्राम विवाह, कार्तिक पूर्णिमा तक शायद ही कोई दिन हो जिस दिन का विशेष महत्व न हो। इसी दौरान मंत्रार्थ मंडप में अंतर्राष्ट्रीय राम महायज्ञ का एक भव्य आयोजन और संत सम्मेलन 5 से 14 अक्टूबर के मध्य आयोजित हुआ था।
देवोत्‍थान एकादशी :-
कार्तिक मास की ही देवोत्‍थान एकादशी पर भगवान विष्‍णु चार महीने की निद्रा के बाद जागृत होते हैं। इस महीने में भगवान विष्‍णु के साथ तुलसी पूजन का विशेष महत्‍व माना गया है। इसी महीने में तुलसी और शालिग्राम का विवाह आयोजित होता है। 
तुलसी का विशेष पूजन :-
कार्तिक मास भगवान विष्‍णु की पूजा के लिए सबसे खास माना गया है। इस मास में तुलसी पत्र के अलावा आंवले के वृक्ष के पूजन का भी खास महात्म्य है। इसलिए इस महीने में विष्‍णुप्रिया तुलसी की पूजा करना भी बहुत अच्‍छा माना जाता है। इस पूरे महीने में तुलसी के पौधे के नीचे घी का दीपक जलाने की परंपरा है। ऐसा करने से धन लाभ होता है और घर में मां लक्ष्‍मी का वास होता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन शालिग्राम और तुलसी का विवाह करवाया जाता है।
आंवले का पूजन :-
कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को श्रद्धालु जन आंवले के पूजन के साथ वृक्ष के नीचे ही भोजन का निर्माण कर प्रसाद भी ग्रहण करते हैं। कार्तिक महात्म्य की कथा के अनुसार भगवान के दस अवतारों में प्रथम मत्स्यावतार इसी मास में हुआ था। पौराणिक मान्‍यताओं के अनुसार इस महीने में श्रीहरि मत्‍स्‍य अवतार में रहते हैं, इसलिए इस महीने में भूलकर भी मछली या फिर अन्‍य प्रकार की तामसिक चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए। इसी मास में भगवान श्रीहरि योग निद्रा से जागृत होते हैं और मंत्रों की शक्ति का हरण करने वाले शंखासुर का वध करके मंत्रों की रक्षा करते हैं और देवताओं को सुरक्षित करते हैं।
कार्तिक माह के दान :-
कलयुग में दान को सभी पापों से मुक्ति का सबसे बड़ा माध्यम माना गया है. पौराणिक मान्यता के अनुसार कार्तिक मास में कुछ चीजों का दान करने पर व्यक्ति को अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है. कार्तिक मास में तुलसी, अन्न, आंवले का पौधा, गोदान आदि का बहुत ज्यादा महत्व है।
कार्तिक मास में दीपदान :-
कार्तिक मास में तमाम तरह के दान के साथ व्यक्ति को विशेष रूप से दीपदान करना चाहिए. मान्यता है कि यदि कार्तिक मास में यमुना अथवा किसी पवित्र नदी, तुलसी, या देवस्थान पर श्रद्धा के साथ दान करने का बहुत ज्यादा महत्व है. मान्यता है कि यदि पूरे मास कोई व्यक्ति दीपदान करता है तो उसकी बड़ी से बड़ी कामना पूरी होती है। दीपदान की यह पूजा शरद पूर्णिमा से प्रारंभ होकर कार्तिक पूर्णिमा तक की जाती है।
तुलसी को घी का दीपक :-
कार्तिक के महीने में पूरे 30 दिन तुलसी के नीचे घी का दीपक जरूर जलाना चाहिए। अगर हम लगातार इतने दिन दीपक जलाने में असमर्थ हैं तो देवोत्‍थान एकादशी से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक कम से कम 5 दिन दीपक जरूर जलाना चाहिए। तुलसी के पूजा करने पर मां लक्ष्‍मी के साथ-साथ कुबेरजी की विशेष कृपा भी प्राप्‍त होती है।
कार्तिक के महीने में भगवान विष्‍णु का स्‍मरण करते हुए शाम के वक्‍त पूजा के स्‍थान में तिल के तेल का दीपक जलाकर रखें। पौराणिक मान्‍यताओं के अनुसार भगवान विष्‍णु ने स्‍वयं कुबेरजी से कहा के कार्तिक मास में जो मेरी उपासना करे उसे कभी धन की कमी मत होने देना।
साधना के विकल्प:-
स्नान, दीपदान, तुलसी के पौधों को लगाना और सींचना, पृथ्वी पर शयन, ब्रह्मचर्य का पालन, भगवान विष्णु के नामों का संकीर्तन व पुराणों का श्रवण, इन सब नियमों का कार्तिक मास में निष्काम भाव से पालन करने वाले श्रेष्ठकर हैं। पीपल के रूप में साक्षात् भगवान विष्णु विराजमान होते हैं, इसलिए कार्तिक में उसका पूजा जाना चाहिए।
प्रभु की कृपा और आत्मीयजनों के आग्रह से इस बार इस अलौकिक साधना का अवसर और करीब से देखने का अवसर इस स्तंभकार को मिल सका है, इसमें बहुत ही आत्मिक सुख का अनुभव रहा। 
वर्ष 2022 में कार्तिक मास के तीज-त्योहार इस बार इस प्रकार रहे -
9 अक्टूबर 2022 -- शरद पूर्णिमा।
10 अक्टूबर 2022 कल्पवास का श्री गणेश
13 अक्टूबर 2022 – करवा चौथ व्रत
15 अक्टूबर 2022 – स्कंद षष्ठी व्रत
17 अक्टूबर 2022 – तुला संक्रांति, अहोई अष्टमी
21 अक्टूबर 2022 – रंभा एकादशी व्रत
22 अक्टूबर 2022 – धनतेरस, धनवंतरि जयंती, प्रदोष व्रत
23 अक्टूबर 2022-- अयोध्या दीपोत्सव
24 अक्टूबर 2022 – दीपावली, नरक चतुर्दशी
25 अक्टूबर 2022 – कार्तिक अमावस्या, सूर्य ग्रहण
26 अक्टूबर 2022 – भाई दूज, अन्नकूट, गोवर्धन पूजा, यम द्वितीया, चित्रगुप्त पूजा
30 अक्टूबर 2022 – छठ पूजा
2 अक्टूबर 2022--अक्षय नवमी,14 कोसी परिक्रमा 
4 नवंबर 2022 – देवउठनी एकादशी पंच कोसी परिक्रमा 
5 नवंबर 2022 – प्रदोष व्रत,तुलसी विवाह
8 नवंबर 2022 – कार्तिक पूर्णिमा, चंद्र ग्रहण,देव दीपावली
9 नवंबर 2022 – चंद्र ग्रहण के उपरांत स्नान दानादि।