Sunday, May 26, 2024

सूर्य वंशी राजा विजय (राम के पूर्वज 19) आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी


अयोध्या के सूर्यवंशी राजा हरिशचंद्र के पुत्र का नाम रोहित था। रोहित के पुत्र को हरित के नाम से जाना जाता था, और हरित का पुत्र चम्पा था। चम्पा का पुत्र सुदेव था। उसका पुत्र विजय था।चम्प से सुदेव और उसका पुत्र विजय हुआ। इसी राजा के कार्यकाल में आदि कवि बाल्मीकि द्वारा रामायण की रचना की गई थी। रामायण के रचनाकार प्रचेता पुत्र महर्षि वाल्मीकि को आदि कवि भी कहा जाता है। वो इस कारण कि काव्य का जैसा प्रस्फुटन रामायण में देखने को मिला, वैसा उससे पहले कभी देखने को नहीं मिला था। इसी कारण रामायण को पहला महाकाव्य कहा जाता है। 
इसी समय महर्षि भारद्वाज भी हुए थे। तमसा-तट पर क्रौंचवध के समय भारद्वाज महर्षि वाल्मीकि के साथ थे, वाल्मीकि रामायण के अनुसार भारद्वाज महर्षि वाल्मीकि के शिष्य थे। ऋषि भारद्वाज सर्वाधिक आयु प्राप्त करने वाले ऋषियों में से एक थे। राजा विजय एक कमजोर शासक था । इनकी सूची में नाम तो मिलता है पर ज्यादा गतिविधियां नही मिलता है।
ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार -- 
विनय और सुदेव चैम्प के दो पुत्र थे। सुदेव सभी क्षत्रियों के विजेता थे। इसलिए, उन्हें विजय के रूप में याद किया जाता है । वह कोसल का एक राजा था। ब्रह्माण्ड पुराण के अध्याय 73 में कहा गया है कि कोसल के इस राजा विजया ने परशुराम का सामना किया और पराजित हुआ था ।
       एक कोई विजय राजा ने वाराणसी शहर पर शासन किया। विजय ने खांडवी शहर को नष्ट कर दिया और वहां खांडव वन उग आया। बाद में उसने जंगल इंद्र को दे दिया। इस वंश का सबसे शक्तिशाली राजा उपरीचर था (कालिका पुराण, अध्याय 92)।
       विजय (विजय) धुंधु के दो बेटों में से एक को संदर्भित करता है जो रोहित का पुत्र था , 10 वीं शताब्दी के सौरपुराण के वंशानुचरित खंड के अनुसार : शैव धर्म को दर्शाने वाले विभिन्न उपपुराणों में से एक रहा । - तदनुसार, धुंधुमारी के तीन बेटे थे दृढ़ाश्व और अन्य। दृढ़ाश्व का पुत्र हरिश्चंद्र था और रोहिता हरिश्चंद्र का पुत्र था। धुंधु रोहिताश्व का पुत्र था। धुंधु के दो बेटे थे- सुदेव और विजय थे । कुरुका का जन्म विजय से हुआ था। विजय राजा अणु राजा सौवीर के समकालीन था जिन्होंने सौवीर साम्राज्य की स्थापना किया था।
        इस राजा के बारे में बहुत ही कम संदर्भ मिलता है।जिस किसी सज्जन को और जानकारी हो वह इस ब्लॉग के लेखक को उपलब्ध कराने की कृपा करे जिससे आने वाले दिनों में लोगों को अधूरी से पूरी जानकारी उपलब्ध कराया जा सके।

                     आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी 

लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।) 

Saturday, May 25, 2024

राजा चक्षु या राजा सुदेव (राम के पूर्वज 18) आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी


अयोध्या के सूर्यवंशी राजा हरिशचंद्र के पुत्र का नाम रोहित था। रोहित के पुत्र को हरित के नाम से जाना जाता था, और हरित का पुत्र चम्पा था, जिसने चम्पापुरी नामक एक नगर का निर्माण किया था। चम्पा का पुत्र सुदेव था। इसे ही चक्षु भी कहा गया है। चक्षु  का अर्थ प्रकाश या रोशनी होता है । इसे कांति या तेज रूप वाला भी कह सकते हैं। चक्षु का अर्थ - अंतर्दृष्टि , विद्वान , ज्ञानरूपी नेत्र और ज्ञानदृष्टि रखने वाला व्यक्ति भी माना जा सकता है।
ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार 
कैंचु या चैम्प के दो पुत्र थे विनय और सुदेव । सुदेव सभी क्षत्रियों के विजेता थे। इसलिए, उन्हें विजय के रूप में याद किया जाता है ।  
इस राजा के बारे में बहुत ही कम संदर्भ मिलता है।जिस किसी सज्जन को और जानकारी हो वह इस ब्लॉग के लेखक को उपलब्ध कराने की कृपा करे जिससे आने वाले दिनों में लोगों को अधूरी से पूरी जानकारी उपलब्ध कराया जा सके।

लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।) 

Friday, May 24, 2024

मतदाताओं की कठिन परीक्षा की घड़ी आ गई

जेठ मास के तपते दिन की तरह जिले का सियासी पारा थर्मामीटर तोड़कर बाहर आने को बेताब है। जिले की सियासत की नई पटकथा लिखने के लिए 19 लाख मतदाता तैयार होकर सुबह होने के इंतजार में हैं। कई वजहों से इस चुनाव में आम लोगों की दिलचस्पी कुछ ज्यादा ही देखी जा रही है। इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि मतदान प्रतिशत पिछली बार से ज्यादा रहेगा। इस चुनाव में सबसे खास बात यह देखी गई कि मतदाता के पास ज्यादा विकल्प नहीं है । वर्ग विशेष के बटते मत से किसी भी पक्ष की बाजी पलट सकती है।
        जमीन से जुड़े सभी दल दो भागों में बटकर लड़ाई को और भी जटिल बना दिया था। यहां सीधे अपनाने या नकारने का ही ऑप्शन था। सबके मंच पर चौंकाने वाले चेहरों की भरमार रही। परिणाम पर इसका असर क्या होगा यह तो भविष्य के गर्भ में है। मतदाता पूरी तरह दो खेमों में बंट चुका है। इधर या उधर। सारा दारोमदार मतदान पर टिका है। जो वोट डलवाने में चूका,बाजी उसके हाथ से सरक जायेगी। एक वोट की कीमत दो के बराबर है। 
        स्थानीय रिश्तों की कठिन परीक्षा से गुजर रही दलीय राजनीति किस दिशा में जायेगी,इसकी पूरी पटकथा अगले कुछ घंटों में लिख दी जाएगी। आम जनता से विनम्र निवेदन है कि हृदय की आवाज सुनकर वोट देने जरूर जाएं। ताकि अगली सरकार में अपनी भागीदारी का एहसास बना रहे। मतदान करने जरूर जाएं।
       लोकसभा के अपने क्षेत्र से अपने प्रतिनिधि सासद को अवश्य चुनें। यह सामान्य चुनाव नहीं है यह आपके परिवार समाज राष्ट्र और अस्मिता को बनाए रखने या विदेशियों के प्रभाव से खुद को समाप्त होने के बीच अपनी और भविष्य की रक्षा करने का सुनहरा अवसर भी है। विदेशी प्रभाव का अंधानुकरण और सनातन मूल्यों की रक्षा करने का विकल्प भी है। निहत्थे कार सेवकों पर गोलियां चलाने और अपने संस्कृति और धर्म की रक्षा के लिए आत्मोत्सर्ग का अवसर चयन का अवसर भी है।500 साल तक अपने आराध्य श्री राम जी की मुक्ति का जश्न भी है।काल्पनिक और मनुवादी कहकर गाली खाने के प्रतिकार का अवसर भी है। अवसर की सामान्य और जाति काबिलाई आरक्षण से मुक्ति का अवसर भी है। विश्व गुरु बनने सम्मान पाने अथवा पाकिस्तान चीन का पिछलग्गू बनने की भुक्ति मुक्ति का अवसर भी है। अपनी अर्थ व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने या कटोरा लेकर भीख मांगने की चुनौती भी है। पढ़े लिखे अनुभवी राजनीति विषारद के अनुभवों को आत्मसात करने या खानदानी युवराजों से मुक्ति भुक्ती के तलाश का सुअवसर भी है। भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए सत्तानाशीनों से परिवारियों से मुक्ति का अवसर भी है। सर्व धर्म समभाव या तुष्टिकरण को चुनने की चुनौती भी है।और भी बहुत कुछ पाने या खोने का अवसर भी है। जितना भी उद्धृत किया जा रहा है उससे कई गुना छिपा रहस्य जानने समझने की ललक भी है।

भारतीय लोकसभा चुनाव का इतिहास :-

भारत के गणतंत्र बनने के बाद 1950 में उत्तर प्रदेश की स्थापना हुई। यह संयुक्त प्रांत का उत्तराधिकारी है , जिसे 1935 में आगरा और अवध के संयुक्त प्रांतों का नाम बदलकर स्थापित किया गया था, जो बदले में 1902 में उत्तर-पश्चिमी प्रांतों और अवध प्रांत से स्थापित हुआ था ।
बस्ती सन् 1801 में बस्ती तहसील मुख्यालय बना और उसके बाद 1865 में जिला मुख्यालय के रूप में स्थापित हुआ।
     भारत में पहले चुनावों का आयोजन एक कठिन कार्य था और इसे पूरा होने में लगभग चार महीने लगे: 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 तक। हालांकि उस समय भारत में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी थी, फिर भी विपक्षी दलों के लिए भी चुनावों में भाग लेने के लिए अनुकूल माहौल बनाया गया था। विपक्षी दलों की सूची में जनसंघ और सीपीआई शामिल थे।

         1951 52 प्रथम लोक सभा क्षेत्र में गोरखपुर गोंडा बस्ती की जनता को चार सीटों पर मतदान करने का अवसर मिला था। तीन क्षेत्रों से चार सांसद चुने गए थे। इनमें पहली सीट गोंडा ईस्ट-बस्ती वेस्ट, दूसरी सीट बस्ती नार्थ और तीसरी सीट बस्ती सेंट्रल कम गोरखपुर वेस्ट थी। तीसरी क्षेत्र बस्ती सेंट्रल से दो सांसदों का चुनाव हुआ था। इन चारो सीटों पर बस्ती के लोगों ने मतदान किया था, बाद में इनका परिसीमन हो गया था। चारो सीटों पर कांग्रेस उम्मीदवारों का बोलबाला था।
लोकसभा क्षेत्र 56 गोंडा ईस्ट कम बस्ती वेस्ट से पांच उम्मीदवार मैदान में उतरे थे। तीन 37 हजार 344 वोटों में से 117305 वोट पड़े थे। 34.77 प्रतिशत वोटों में 58.41 प्रतिशत वोट हासिल कर कांग्रेस के केशव देव मालवीय को जीत मिली। हिन्दू महासंघ के विश्वनाथ प्रसाद अग्रवाल 24.94 प्रतिशत वोट पाकर दूसरे स्थान पर रहे।

बस्ती उत्तरी क्षेत्र से एक सांसद का चुनाव हुआ था। पहले चुनाव में जिला पंचायत अध्यक्ष रहे कांग्रेस के उदयशंकर दुबे को जीत मिली। कुल 374224 वोटरों में से 46.14 प्रतिशत ने मतदान किया। 172752 वोटों में से सर्वाधिक 74.28 प्रतिशत वोट उदयशंकर दुबे को मिले। उनके निकटतम प्रतिद्वंदी अंबिका प्रताप नारायण को महज 22802 वोट मिले थे। पहले चुनाव में सबसे अधिक मतों के अंतर से जीत का बना रिकॉर्ड आज तक कायम है।
पहली 1951 52 बार में (बस्ती-गोरखपुर) लोकसभा के तीन सीटों पर चार सदस्य चुने गए थे।
1951 52 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राम शंकर लाल चुने गए थे।
गोंडा जिला (पूर्व) सह बस्ती जिला (पश्चिम) केशो देव मालवीय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के चुने गए थे।
बस्ती जिला (उत्तर) उदय शंकर दुबे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से सांसद चुने गए थे। बस्ती जिला मध्य (पूर्व) सह गोरखपुर जिला (पश्चिम) सोहन लाल धुसिया भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से सांसद चुने गए थे।


2024: में भाजपा के श्री हरीश द्विवेदी को पुनःनिर्वाचित होने  की संभावना मुझे ज्यादा लग रही है। पिछले चुनावों के परिणाम  इस प्रकार रहे हैं --


Thursday, May 23, 2024

रोहिताश्व की कहानी ( राम के पूर्वज 15) डा. राधे श्याम द्विवेदी

सत्यवादी राजा हरिशचंद के पुत्र का नाम रोहित (रोहिताश्व) था। राजा हरिशचंद सौ रानियों के बावजूद निस्संतान था। उसने वरुण देवता की उपासना की कि अगर मुझे पुत्र प्राप्ति हो तो पहला पुत्र आपको समर्पित करूंगा। उसे एक पुत्र की प्राप्ति हो गई, जिसका नाम रोहित रखा गया। लेकिन राजा ने जैसे ही पुत्र को सदेह देखा, उसकी नीयत में खोट आ गया। वह किसी न किसी बहाने रोहित को वरुण देवता को सौंपने की बात टालता रहा। पिता कहीं उसे सचमुच वरुण देव को नहीं अर्पित कर दें, इस डर से रोहित जंगल में भाग गया और हरिश्चन्द्र ने अपना प्रण पूरा नहीं किया, इसलिए वरुण ने उसे जालोदर रोग का शाप दे दिया और वह बीमार हो गया।

भाग्यवश जंगल में इधर-उधर घूमते रोहित को एक स्त्री एक गरीब ब्राह्मण अजीगर्त के पास ले आयी। उससे रोहित ने अपनी कहानी कही। अजीगर्त के तीन बेटे थे - शुन:पुच्छ, शुन:लांगूल और शुन:शेप। शुन:शेप मंझला पुत्र था और बचपन से ही बहुत समझदार और विवेकवान था। अजीगर्त ने लालच में आकर रोहित से कहा कि सौ गायों के बदले वह अपने एक पुत्र को बेचने को तैयार है। उस पुत्र को वह अपने बदले वरुण देवता को सौंप कर अपनी जान बचा सकता है। दूसरी ओर शुन:शेप ने सोचा, छोटा भाई मां का लाड़ला है, बड़ा भाई पिता का लाड़ला है, यदि मैं चला जाऊं तो दोनों में से किसी को कोई अफसोस नहीं होगा। इसलिए वह खुद ही रोहित के साथ जाने को तैयार हो गया। वरुण देव भी कोई कम लोभी नहीं थे। वे यह सोच कर प्रसन्न हो गए कि मुझे अपने अनुष्ठान के लिए क्षत्रिय बालक के बदले ब्राह्मण बालक मिल रहा है जो श्रेष्ठतर है। यज्ञ में नर बलि की तैयारी शुरू हुई, चार पुरोहितों को बुलाया गया। अब शुन:शेप को बलि स्तंभ से बांधना था। लेकिन इसके लिए उन चारों में से कोई तैयार नहीं हुआ, क्योंकि शुन:शेप ब्राह्मण था। तब अजीगर्त और सौ गायों के बदले खुद ही अपने बच्चे को यज्ञ स्तंभ से बांधने को तैयार हो गया। इसके बाद शुन:शेप को बलि देने की बारी आई। लेकिन पुरोहितों ने फिर मना कर दिया। ब्राह्मण की हत्या कौन करे? तब अजीगर्त और एक सौ गायों के बदले अपने बेटे को काटने के लिए भी तैयार हो गया। जब शुन:शेप ने देखा कि अब मुझे बचाने वाला कोई नहीं है, तो उसने ऊषा देवता का स्तवन शुरू किया। प्रत्येक ऋचा के साथ शुन:शेप का एक-एक बंधन टूटता गया और अंतिम ऋचा के साथ न केवल शुन:शेप मुक्त हो गया, बल्कि राजा हरिश्चंद भी रोग के श्राप से मुक्त हो गए। इसी के साथ बालक शुन:शेप, ऋषि शुन:शेप बन गया, क्योंकि वह उसके लिए रूपांतरण की घड़ी थी।

       राजा हरिश्चंद द्वारा गायब किए गए पुत्र रोहित्श्व को बन बन भटकना पड़ा था। इसे इंद्र ने ब्राहमण का वेश धारण कर चरैवेति का उपदेश देकर पांच साल तक भटकाते रहे। इस अवसर पर पर्यटन और ज्ञान विज्ञान का बहुत ही उपयोगी और ऐतरेय ब्राह्मण का दुर्लभ उपदेश भी देते रहे।

             रोहित को लेकर वरुण देवता को यज्ञ करना था, जिसको जानने पर रोहित वन को चला गया । वर्षोपरांत उसने घर लौटना चाहा तो मार्ग में ब्राह्ण भेषधारी इंद्र उसे मिल गये । ब्राह्मण के विचारों से प्रेरित होकर वापस पर्यटन पर चला गया । दूसरे वर्ष के समाप्त होते-होते जब वह घर लौटने लगा तो ब्राह्मण रूप में इंद्र उसे फिर मिल गए । ब्राह्मण ने उसे पुनः “चरैवेति” का उपदेश देते हुए पर्यटन करते रहने की सलाह दी।
पुष्पिण्यौ चरतो जङ्घे भूष्णुरात्मा फलग्रहिः ।
शेरेऽस्य सर्वे पाप्मानः श्रमेण प्रपथे हतश्चरैवेति ॥
(ऐतरेय ब्राह्मण, अध्याय 3, खण्ड 3)
अर्थ – निरंतर चलने वाले की जंघाएं पुष्पित होती हैं, अर्थात उस वृक्ष की शाखाओं-उपशाखाओं की भांति होती है जिन पर सुगंधित एवं फलीभूत होने वाले फूल लगते हैं, और जिसका शरीर बढ़ते हुए वृक्ष की भांति फलों से पूरित होता है, अर्थात वह भी फलग्रहण करता है । प्रकृष्ट मार्गों पर श्रम के साथ चलते हुए उसके समस्त पाप नष्ट होकर सो जाते हैं, अर्थात निष्प्रभावी हो जाते हैं।अतः तुम चलते ही रहो (विचरण ही करते रहो, चर एव)। 
      सायण भाष्य के अनुसार विचरणशील व्यक्ति की जांघों के श्रम के फलस्वरूप मनुष्य को विभिन्न स्थानों पर भांति-भाति के भोज्य पदार्थ प्राप्त होते हैं जिनसे उसका शरीर वृद्धि एवं आरोग्य पाता है । प्रकृष्ट मार्ग के अर्थ श्रेष्ठ स्थानों यथा ,तीर्थस्थल मंदिर, महात्माओं- ज्ञानियों के आश्रम-आवास से लिया गया है । इन स्थानों पर प्रवास या उनके दर्शन से उसे पुण्यलाभ होता है अर्थात उसके पाप क्षीण होकर निष्प्रभावी हो जाते हैं ।
             राजपुत्र रोहित ने ब्राह्मण की बातों को मान लिया और वह घर लौटने का विचार त्यागकर पुनः देशाटन पर निकल गया । घूमते-फिरते तीसरा वर्ष बीतने को हुआ तो उसने वापस घर लौटने का मन बनाया । इस बार भी इन्द्र देव ब्राह्मण भेष में उसे मार्ग में दर्शन देते है । वे उसे पुनः “चरैवेति” का उपदेश देते हैं । वे कहते हैं –
आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः ।
शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगश्चरैवेति ॥
(ऐतरेय ब्राह्मण, अध्याय 3, खण्ड 3)
अर्थ – जो मनुष्य बैठा रहता है, उसका सौभाग्य (भग) भी रुका रहता है । जो उठ खड़ा होता है उसका सौभाग्य भी उसी प्रकार उठता है । जो पड़ा या लेटा रहता है उसका सौभाग्य भी सो जाता है । और जो विचरण में लगता है उसका सौभाग्य भी चलने लगता है । इसलिए तुम विचरण ही करते रहो (चर एव)।
सौभाग्य से तात्पर्य धन-संपदा, सुख-समृद्धि से है । जो व्यक्ति निक्रिय बैठा रहता है, जो उद्यमशील नहीं होता, उसका ऐश्वर्य बढ़ नहीं पाता है । जो उद्यम हेतु उठ खड़ा होता है उसका सौभाग्य भी आगे बढ़ने के लिए उद्यत होता है । जो आलसी होता है, सोया रहता है, निश्चिंत पड़ा रहता है, उसका ऐश्वर्य नष्ट होने लगता है, उसकी समुचित देखभाल नहीं हो पाती । उसके विपरीत जो कर्मठ होता है, उद्यम में लगा रहता है, जो ऐश्वर्य- वृद्धि हेतु विभिन्न कार्यों को संपन्न करने के लिए भ्रमण करता है, यहां-वहां जाता है उसके सौभाग्य की भी वृद्धि होती है, धन- धान्य, संपदा, आगे बढ़ते हैं ।
           पर्यटन में लगे रोहित का एक और वर्ष बीत गया और वह घर लौटने लगा । पिछली बारों की तरह इस बार भी उसे मार्ग में ब्राह्मण-रूपी इंद्र मिल गए, जिन्होंने उसे “चरैवेति” कहते हुए पुनः भ्रमण करते रहने की सनाह दी । रोहित उनके बचनों का सम्मान करते हुए फिर से पर्यटन में निकल गया ।
          इस प्रकार रोहित चार वर्षों तक यत्रतत्र भ्रमण करता रहा । चौथे वर्ष के अंत पर जब वह घर लौटने को उद्यत हुआ तो मार्ग में उसे ब्राह्मण भेष में इंन्द्रदेव पुनः मिल गए । उन्होंने हर बार की तरह “चरैवेति” का उपदेश दिया और कहा –
कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठस्त्रेता भवति कृतं संपाद्यते चरंश्चरैवेति ॥
(ऐतरेय ब्राह्मण, अध्याय 3, खण्ड 3)
अर्थ – शयन की अवस्था कलियुग के समान है, जगकर सचेत होना द्वापर के समान है, उठ खड़ा होना त्रेता सदृश है और उद्यम में संलग्न एवं चलनशील होना कृतयुग (सत्ययुग) के समान है । अतः तुम चलते ही रहो (चर एव) ।
         इस श्लोक में मनुष्य की चार अवस्थाओं की तुलना चार युगों से क्रमशः की गई है । ये अवस्थाएं हैं (1) मनुष्य के निद्रामग्न एवं निष्क्रिय होने की अवस्था, (2) जागृति किंतु आलस्य में पड़े रहने की अवस्था, (3) आलस्य त्याग उठ खड़ा होकर कार्य के लिए उद्यत होने की अवस्था, और (4) कार्य-संपादन में लगते हुए चलायमान होना । 
        ब्राह्मण रूपी इन्द्र रोहित को समझाते हैं कि जैसे युगों में सत्ययुग उच्चतम कोटि का कहा जाता है वैसे ही उक्त चौथी अवस्था श्रेष्ठतम स्तर की कही जाएगी । उस युग में समाज सुव्यस्थित होता था और सामाजिक मूल्यों का सर्वत्र सम्मान था । उसके विपरीत कलियुग सबसे घटिया युग कहा गया है क्योंकि इस युग में समाज में स्वार्थपरता सर्वाधिक रहती है और परंपराओं का ह्रास देखने में आता है । उपर्युक्त पहली अवस्था इसी कलियुग के समान निम्न कोटि की होती है ।
          उक्त प्रकार से संचरण में लगे रोहित के पांच वर्ष व्यतीत हो गये । कथा के अनुसार ब्राह्मण भेषधारी इन्द्र ने अंतिम (पांचवीं) बार फिर से रोहित को संबोधित करते हुए “चरैवेति” के महत्व का बखान किया । तदनुसार पुनः भ्रमण पर निकले रोहित को अजीगर्त नामक एक निर्धन ब्राह्मण के दर्शन हुए । उक्त वाह्मण से उसने उनके पुत्र, शुनःशेप, को खरीद लिया ताकि वह बालक वरुणदेव के लिए संपन्न किए जाने वाले यज्ञ में स्वयं के बदले इस्तेमाल कर सके ।
        ये पर्यटन करने वाले कोई सामान्य बालक नहीं थे। इच्छाकु वंशी महान सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के इकलौते पुत्र रोहिताश्व अर्थात राजा रोहित जी थे।जिसने वर्तमान बिहार में रोहितपुर बसाया था। 
        इनका बनवाया हुआ ऐतिहासिक रोहतासगढ़ किला तो विश्वप्रसिद्ध है। यह राजा हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिताश्व से जुड़ा है। यह वही रोहिताश्व थे, जिन्हें राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा लेते समय मृत्यु दे दी गई थी और पुनर्जीवित कर दिया गया था। अयोध्या के राजा द्वारा वहां से सैकड़ों किलोमीटर दूर गढ़ की स्थापना के पीछे एक कहानी जुड़ी है, जो बहुत कम ही लोग जानते हैं।
कहानी यह है कि अपने जीवनकाल में रोहिताश्व ने एक आदिवासी कन्या से विवाह कर लिया था। फिर इसी गढ़ में उनके वंशजों ने सदियों तक शासन किया। पर मुस्लिम आक्रमणों के बाद उनके हाथ से यह गढ़ निकल गया। आदिवासी कन्या से हुए रोहिताश्व के वंशज आज भी जीवित हैं पर अब इस गढ़ पर उनका राज नहीं है। वे अब जंगलों की खाक छान रहे हैं।


Wednesday, May 22, 2024

सूर्यवंशी राजा चम्प ने चंपा नगर बिहार को बसाया था ( राम के पूर्वज 17) आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी

                         एक प्राचीन पेंटिंग

         राजा हरिशचंद्र का पुत्र रोहिताश्व था इसका पुत्र हरित था।हरित से चम्प नामक पुत्र हुआ। उसी ने बिहार के भागलपुर जिले में चम्पा नगर बसायी थी। चंपा नगर एक समृद्ध नगर और व्यापार का केंद्र भी था। चंपा के व्यापारी दूर दराज क्षेत्रों में समुद्र मार्ग से व्यापार के लिये भी प्रसिद्ध थे। यह अपने पूर्वज की अपेक्षा एक कमजोर शासक थे। वंश वृक्ष में इनकी सूची तो मिलती है पर ज्यादा गतिविधियां नही मिलती है। हरिशचंद्र अयोध्या से शासन किए तो रोहिताश्व रोहतास से और चंप अंग देश के चम्पा नगर से। इस प्रकार अयोध्या गौड़ होती गई और सूर्य वंश का बाह्य विस्तार होने लगा था।

       राजा चम्प  को चंचू, धुन्धु हारीत चन्य तथा कैनकू आदि नामों से भी जाना जाता रहा है। पार्जीटर ने चन्चु को धुन्धु हारीत एवं चन्य आदि नामों से समीकृत किया है।
ब्रह्मांड पुराण के अनुसार - कैनकू का उल्लेख हरिता के पुत्र के रूप में किया गया है। सतयुग की समाप्ति के बाद यह त्रेता युग का प्रथम शासक था।

                                    जैन मंदिर

महाकाव्यों और पुराणों में संरक्षित एक पृथक परंपरा के अनुसार, मनु के महान पोते, अनु की संतान ने पूर्व में अनावा राज्य की स्थापना की थी| इसके बाद यह राज्य राजा बलि के पांच बेटों में विभाजित किया गया जिसे अंग, बंग, कलिंग, पुंडिया और सुधा के रूप में जाना जाता है| अंग के राजाओ में जिनके बारे में कुछ सन्दर्भ है, लोमोपाडा, अयोध्या के राजा दशरथ के समकालीन एवं उनके मित्र थे| उनका महान पोता चंपा था, जिसके नाम पर ही अंग की राजधानी चंपा के नाम से जानी गयी| चंपा के पूर्व अंग की राजधानी मालिनी के नाम से जनि जाती थी| अंग और मगध का पहला उल्लेख अथर्ववेद संहिता में वैदिक साहित्य में मिलता है| बौध धर्म-ग्रंथों में उत्तरी भारत के विभिन्न राज्यों के बीच अंग का उल्लेख किया गया है|
बीते समय में भागलपुर भारत के दस बेहतरीन शहरों में से एक था। आज का भागलपुर सिल्‍क नगरी के रूप में भी जाना जाता है। इसका इतिहास काफी पुराना है। भागलपुर को (ईसा पूर्व 5वीं सदी) चंपावती के नाम से जाना जाता था। यह वह काल था जब गंगा के मैदानी क्षेत्रों में भारतीय सम्राटों का वर्चस्‍व बढ़ता जा रहा था। अंग 16 महाजनपदों में से एक था जिसकी राजधानी चंपावती थी। अंग महाजनपद को पुराने समय में मलिनी, चम्‍पापुरी, चम्‍पा मलिनी, कला मलिनी आदि आदि के नाम से जाना जाता था।
       अथर्ववेद में अंग महाजनपद को अपवित्र माना जाता है, जबकि कर्ण पर्व में अंग को एक ऐसे प्रदेश के रूप में जाना जाता था जहां पत्‍नी और बच्‍चों को बेचा जाता है। वहीं दूसरी ओर महाभारत में अंग (चम्‍पा) को एक तीर्थस्‍थल के रूप में पेश किया गया है। इस ग्रंथ के अनुसार अंग राजवंश का संस्‍थापक राजकुमार अंग थे। जबकि रामयाण के अनुसार यह वह स्‍थान है जहां कामदेव ने अपने अंग को काटा था।

        अंग प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक था। इसका सर्वप्रथम उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है। बौद्ध ग्रंथो में अंग और वंग को प्रथम आर्यों की संज्ञा दी गई है। महा भारत के साक्ष्यों के अनुसार आधुनिक भागलपुर,बिहार और बंगाल के क्षेत्र अंग प्रदेश के क्षेत्र थे। इस प्रदेश की राजधानी चम्पापुरी थी।  यह जनपद मगध के अंतर्गत था। प्रारंभ में इस जनपद के राजाओं ने ब्रह्मदत्त के सहयोग से मगध के कुछ राजाओं को पराजित भी किया था किंतु कालांतर में इनकी शक्ति क्षीण हो गई और इन्हें मगध से पराजित होना पड़ा। महाभारत काल में यह कर्ण का राज्य था। इसका प्राचीन नाम मालिनी था। इसके प्रमुख नगर चम्पा (बंदरगाह), अश्वपुर थे।

          एक मान्यता के अनुसार अंग के राजा ब्रह्मदत्त ने मगध के राजा भट्टिया को हराया था| लेकिन उत्तरार्ध में बिम्बिसार (545 ई. पूर्व) ने अपने पिता की हार का बदला लिया और अंग को अपने कब्जे में ले लिया| कहा जाता है की मगध के अगले राजा अजातशत्रु ने अपनी राजधानी को चंपा में स्थानांतरित कर दिया| सम्राट अशोक की माँ सुभाद्रंगी, चंपा के एक गरीब ब्राह्मण लड़की थी, जो शादी में बिन्दुसार को दी गयी थी| अंग नन्द, मौर् ( 324- 185 ई.पूर्व), सुगास(185- 75ई .पूर्व) और कनवास(75- 30ई.पूर्व) तक मगध साम्राज्य का हिस्सा बना रहा| कनवास के शासन के दौरान कलिंग के राजा खारवेल ने मगध और अंग पर आक्रमण किया| अगले कुछ शताब्दियों का इतिहास चन्द्रगुप्त प्रथम 320 ईस्वी) के राज्याभिषेक तक सीमित नहीं है बल्कि यह अस्पष्ट है| अंग महान गुप्त राज्य क्षेत्र का भी हिस्सा था| लेकिन गुप्त शासन के कमजोर होने पर गौड़ राजा शशांक ने 602 ईस्वी में इस क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया और अपनी मृत्यु 625 ईस्वी तक प्रभाव कायम रखा| शशांक के मृत्यु के उपरांत यह क्षेत्र हर्ष के प्रभाव में आया| उसने मगध के राजा के रूप में माधव गुप्त को स्थापित किया| उनके बेटे आदित्यसेना ने मंदार हिल में एक शिलालेख छोड़ा है जो उनके द्वारा नरसिंह या नरहरि मंदिर के स्थापना का संकेत देता है| ह्वेनसांग अपनी यात्रा के दौरान चंपा नगर का दौरा किया| उन्होंने यात्रा विवरणी में चंपा का वर्णन किया है|

चम्पा प्राचीन अंग की राजधानी:-

यह गंगा और चंपा के संगम पर बसी थी। प्राचीन काल में इस नगर के कई नाम थे- चंपानगर, चंपावती, चंपापुरी, चंपा और चंपामालिनी। पहले यह नगर 'मालिनी' के नाम से प्रसिद्ध था किंतु बाद में लेमपाद के प्राचीन राजा चंप के नाम पर इसका नाम चंपा अथवा चंपावती पड़ गया। यहाँ पर चंपक वृक्षों की बहुलता का भी संबंध इसके नामकरण के साथ जोड़ा जाता है। चंपा नगर का समीकरण भागलपुर के समीप आधुनिक चंपानगर और चंपापुर नाम के गाँवों से किया जाता है किंतु संभवत: प्राचीन नगर मुंगेर की पश्चिमी सीमा पर स्थित था।

                           जैन सिद्ध क्षेत्र

          कहा जाता है, इस नगर को महागोविन्द ने बसाया था। उस युग के सांस्कृतिक जीवन में चंपा का महत्वपूर्ण स्थान था। बुद्ध, महावीर और गोशाल कई बार चंपा आए थे। 12वें तीर्थकर वासुपूज्य का जन्म और मोक्ष दोनों ही चंपा में हुआ था। यह जैन धर्म का उल्लेखनीय केंद्र और तीर्थ था। दशवैकालिक सूत्र की रचना यहीं हुई थी। नगर के समीप रानी गग्गरा द्वारा बनवाई गई एक पोक्खरणी थी जो यात्री और साधु संन्यासियों के विश्रामस्थल के रूप में प्रसिद्ध थी और जहाँ का वातावरण दार्शनिक बाद विवादों से मुखरित रहता था। अजातशत्रु के लिय कहा गया है कि उसने चंपा को अपनी राजधानी बनाया। दिव्यावदान के अनुसार विंदुसार ने चंपा की एक ब्राह्मण कन्या से विवाह किया था जिसकी संतान सम्राट् अशोक थे। चंपा समृद्ध नगर और व्यापार का केंद्र भी था। चंपा के व्यापारी समुद्रमार्ग से व्यापार के लिये भी प्रसिद्ध थे।

पुरातात्विक साक्ष्यों का खजाना:-

प्राचीन काल में अंग देश के नाम से विख्यात भागलपुर के चम्पानगर में असीम पुरातात्विक संभावनाएं  हैं।चम्पा के पुरातात्विक अवशेष बिहार में प्राप्त अब तक के धरोहरों की तुलना में काफी उत्कृष्ट हैं।दीवार दो हजार साल पुरानी शुंग-कुषाण काल की मिली है। 6ठी शताब्दी में अंग प्राचीन भारत के सोलह महाजनपदों में एक था। यह काफी शक्तिशाली था। अंग की राजधानी चम्पा की गिनती दुनिया के बड़े शहरों में होती थी। चम्पा में एक विशाल किले का अवशेष मिले हैं। यहां एक दीवार भी मिली है, इसका निचला स्तर 2000 साल पुराना शुंग-कुषाण काल का प्रतीत होता है। सीटीएस के बाहर किले के उत्तरी भाग में भी पुरानी दीवार मिली है। उन्होंने कहा कि यहां उन्हें एनबीपीडब्लयू के कुछ टुकड़े मिले हैं, जिनका काल छठी शताब्दी रहा होगा।

एक प्रचलित बंदरगाह भी रहा :-

बंदरगाह के स्वरूप भी मिले हैं, और अध्ययन की जरूरत
चौधरी ने बताया, उन्हें प्राचीन बंदरगाह के स्वरूप मिले हैं। इस पर अध्ययन की जरूरत है। चम्पा के पूर्व की खुदाइयों में प्राप्त मातृ देवियों की प्रतिमाओं की पूजन की परम्परा ई. पू 1500 के पहले से है।

चम्पा नदी का अस्तित्व खतरे में:-

अंग प्रदेश की ऐतिहासिक चंपा नदी का अस्तित्व खतरे में है. ये नदी अब नाले में तब्दील हो गई है. चंपा नदी को अब सरकार भूल चुकी है. जिस चंपा नदी की चर्चा महाभारत व पुराणों में हुई वह चम्पा नदी अब नाले में तब्दील हो चुकी है. बताया जाता है कि अंग प्रदेश के राजा सूर्यपुत्र कर्ण चंपा नदी में स्नान कर सूर्य को जल अर्पण करते थे. सती बिहुला विषहरी चंपा नदी के रास्ते स्वर्ग से अपने पति के प्राण लेने गयी थी. वहीं हर्षवर्धन के शासनकाल में चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत आये थे तो चंपा नदी व आसपास की समृद्धि से प्रभावित हुए थे।

पुनर्जीवित किया गया चम्पा नदी :-

चंपा नदी अंग प्रदेश की सभ्यता, संस्कृति, संस्कार और ऐतिहासिक विरासत रही है। इसके बिना भागलपुर शहर की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। चंपा नदी की धारा वापस लाने के लिए इसके विभिन्न जलस्रोतों को पुनर्जीवित करना होगा। नदी मार्ग से अतिक्रमण हटाना होगा। यह शासन प्रशासन के साथ-साथ जन सहयोग से ही संभव हो पाएगा। आज से 50-60 वर्ष पूर्व जब चंपा नदी कलकल करते बहती थी तो इसके पोषक क्षेत्र के लोग खुशहाल थे। भूगर्भ में पर्याप्त पानी था। 1970 के दौर तक चंपा नदी अपने मूल रूप में प्रवाहित होती थी। उस समय यह नदी समुद्र तल से 40 मीटर ऊंचाई पर भागलपुर में बहती थी, जो उत्तर-पूर्व दिशा में चंपानगर के पास गंगा में मिलती थी। मुहाने पर समुद्र तल से इसकी ऊंचाई महज 15 मीटर से भी कम रह गई थी। नदी के पुनर्जीवन के लिए उद्गम स्थल से ड्रोन सर्वेक्षण करना होगा, ताकि इसके वास्तविक स्वरूप का आकलन हो सके। फिर इसके चैनल से गाद हटाकर इसकी जलधारा को गति देनी होगी। नदी के आसपास के जलाशयों एवं तालाबों की सूची तैयार कर उसे समृद्ध करना होगा, ताकि चंपा नदी पर सिंचाई का अतिरिक्त दबाव नहीं पड़ सके।

कतरनी और जर्दालु नदियों से चंपा नदी को मिला वरदान 

चंपा नदी अंग प्रदेश की सभ्यता, संस्कृति, संस्कार और ऐतिहासिक विरासत रही है। इसके बिना भागलपुर शहर की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। यह नदी कभी भागलपुर की जीवन रेखा हुआ करती थी। दुख होता है, जब चंपा नदी को नाला से संबोधित किया जाता है, जबकि इसी नदी के पानी का शोधन कर शहर में जलापूर्ति होती है। चंपा नदी में पश्चिम और दक्षिण से गंगा, चीर, चानन और बडुआ नदियों के पानी का समावेश होता था। कतरनी चावल और जर्दालु आम की खुशबू इसी के निक्षेपण से मिला वरदान है। इस नदी में पहले जहाज चला करते थे। कोलकाता जाने का जल मार्ग चंपा से होकर ही गुजरता था। हर्षवर्द्धन के शासन काल में चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत आए थे। वे चंपा नदी के आसपास की समृद्धि से खासा प्रभावित हुए थे। ईंट से निर्मित 24 फीट ऊंची चंपा की दीवार और चार सुरक्षा मीनार का उन्होंने अपनी किताब में जिक्र किया है। नदी के किनारे सभी धर्मों के मंदिर, मजार और चर्च आज भी अवस्थित हैं। चंपा की धारा से होकर ही सती बिहुला अपने मृत पति बाला के जीवन को वापस लाने के लिए स्वर्गलोक पहुंची थीं। दानवीर कर्ण चंपा नदी में प्रत्येक दिन स्नान के बाद सूर्य को अघ्र्य देते थे।

                     आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी 

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।) ।

Monday, May 20, 2024

दुर्गा कवच एक परम सिद्ध रक्षा कवच आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी


       दुर्गा कवच बेहद प्रभावशाली श्लोकों से मिलकर बना है। इसका एक-एक शब्द प्रभावशाली है क्योंकि उसमें विभिन्न प्रकार की ऊर्जाएं निहित हैं। इस कवच को सुनने और पढ़ने से अकाल मृत्यु टलती है और अचानक आने वाले संकटों से रक्षा होती है। इसे सिर्फ सुनने मात्र से ही शरीर के चारो तरफ सुरक्षा का घेरा बन जाता है ।

जप की विधि :

दुर्गा कवच में देवी के भिन्न-भिन्न नामों का वर्णन है।
यह कवच सुरक्षा प्रदान करने के साथ-साथ व्यक्ति की आत्मा को भी बुरे कर्मों से मुक्त करता है।इस कवच को सुनने मात्र से ही शरीर के चारों तरफ सुरक्षा का एक घेरा बन जाता है।
         मार्कंडेय पुराण में दुर्गा कवच का जिक्र मिलता है। जिसमें इसके महत्व के बारे में भी बताया गया है। इसे दुर्गा सप्तशती का हिस्सा माना जाता है। ऐसा वर्णन मिलता है कि इसे ब्रह्मा जी ने ऋषि मार्कंडेय को सुनाया था। इसमें देवी पार्वती के 9 अलग-अलग रूपों के बारे में ब्रह्मा जी ने बताया है। यदि आप देवी दुर्गा का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहते हैं तो इस कवच का पाठ अवश्य करें।

कब और कैसे करें कवच का पाठ:- 

वैसे तो इस कवच के पाठ का सबसे अच्छा समय साल में दो बार आने वाली चैत्र और शारदीय नवरात्रि के 9 दिन हैं लेकिन अगर आप संकट में हैं या भय आपको सता रहा है तो इस कवच का पाठ आप कभी भी सुबह के वक्त कर सकते हैं।

दुर्गा कवच के फायदे :- 

मंत्रों में नकारात्मक ऊर्जाओं को खत्म करने की ताकत होती है। मंत्रों के हर शब्द और अक्षर ब्रह्मांड की फ्रीक्वेंसी के साथ जुड़कर मंत्र जाप करने वाले को फायदा पहुंचाते हैं। दुर्गा कवच भी इसी प्रकार काम करता है। ऐसा माना जाता है कि इस पूरे कवच में आने वाले हर एक शब्द में अलग-अलग ऊर्जाएं समाहित होती हैं और जैसे-जैसे आप इस कवच का पाठ करते हैं ये ऊर्जाएं आपके शरीर के चारों तरफ एक सुरक्षा घेरा बना देती हैं। संकट के वक्त इस कवच के जाप से चमत्कारी परिणाम देखने को मिलते हैं।
         अगर आप पूरे परिवार की सुरक्षा चाहते हैं तो नवरात्रि के 9 दिन इसका प्रतिदन जाप करें और आखिरी दिन अनुष्ठान जरूर करें। इस अनुष्ठान में हवन जरूर करवाएं और इस हवन के शुरू होने पर संकल्प लें कि मां दुर्गा आपकी और आपके परिवार की रक्षा करें।

देवी दुर्गा कवच का पाठ हिंदी में प्रस्तुत है...

इस पाठ से शरीर के समस्त अंगों की रक्षा होती है, यह पाठ महामारी से बचाव की शक्ति देता है,यह पाठ सम्पूर्ण आरोग्य का शुभ वरदान देता है...यह अत्यंत गोपनीय पाठ है इसे पूरी पवित्रता से किया जाना चाहिए। देवी दुर्गा कवच का पाठ गुप्त नवरात्रि में चमत्कारी लाभ होता है।
 
 विनियोग:- 

ॐ अस्य श्री चंडी कवचस्य ब्रह्मा ऋषि:, अनुष्टुप छन्द:, चामुण्डा देवता, अंगन्यासोक्तमातरो बीजम, दिग्बंधदेवता स्त्त्वम, श्री जगदम्बा प्रीत्यर्थे सप्तशती पाठांगतवेन जपे विनियोग:। 
ॐ नमश्चण्डिकायै।

मार्कण्डेय उवाच॥

ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्।
 यन्न कस्य चिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥1॥

मार्कण्डेय जी ने कहा -- हे पितामह! जो इस संसार में परम गोपनीय तथा मनुष्यों की सब प्रकार से रक्षा करने वाला है और जो अब तक आपने दूसरे किसी के सामने प्रकट नहीं किया हो, ऐसा कोई साधन मुझे बताइए।
 
॥ब्रह्मोवाच॥

अस्ति गुह्यतमं विप्रा सर्वभूतोपकारकम्।
दिव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्वा महामुने॥2॥

ब्रह्मन्! ऐसा साधन तो एक देवी का कवच ही है, जो गोपनीय से भी परम गोपनीय, पवित्र तथा सम्पूर्ण प्राणियों का उपकार करनेवाला है। महामुने! उसे श्रवण करो।
 
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥3॥

प्रथम नाम शैलपुत्री है, दूसरी मूर्तिका नाम ब्रह्मचारिणी है। तीसरा स्वरूप चन्द्रघण्टा के नामसे प्रसिद्ध है। चौथी मूर्ति को कूष्माण्डा कहते हैं।
 
पचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥4॥

पाँचवीं दुर्गा का नाम स्कन्दमाता है। देवी के छठे रूप को कात्यायनी कहते हैं। सातवाँ कालरात्रि और आठवाँ स्वरूप महागौरी के नाम से प्रसिद्ध है।
 
नवमं सिद्धिदात्री च नव दुर्गाः प्रकीर्तिताः।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥5॥

नवीं दुर्गा का नाम सिद्धिदात्री है। ये सब नाम सर्वज्ञ महात्मा वेदभगवान् के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं। ये सब नाम सर्वज्ञ महात्मा वेदभगवान् के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं।
 
अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥6॥

जो मनुष्य अग्नि में जल रहा हो, रणभूमि में शत्रुओं से घिर गया हो, विषम संकट में फँस गया हो तथा इस प्रकार भय से आतुर होकर जो भगवती दुर्गा की शरण में प्राप्त हुए हों, उनका कभी कोई अमंगल नहीं होता।
 
न तेषां जायते किंचिदशुभं रणसंकटे।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न ही॥7॥

युद्ध समय संकट में पड़ने पर भी उनके ऊपर कोई विपत्ति नहीं दिखाई देती। उनके शोक, दु:ख और भय की प्राप्ति नहीं होती।
 
यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥8॥

जिन्होंने भक्तिपूर्वक देवी का स्मरण किया है, उनका निश्चय ही अभ्युदय होता है। देवेश्वरि! जो तुम्हारा चिन्तन करते हैं, उनकी तुम नि:सन्देह रक्षा करती हो।
 
प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना।
ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना॥9॥

चामुण्डादेवी प्रेत पर आरूढ़ होती हैं। वाराही भैंसे पर सवारी करती हैं। ऐन्द्री का वाहन ऐरावत हाथी है। वैष्णवी देवी गरुड़ पर ही आसन जमाती हैं।
 
माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना।
लक्ष्मी: पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥10॥

माहेश्वरी वृषभ पर आरूढ़ होती हैं। कौमारी का मयूर है। भगवान् विष्णु की प्रियतमा लक्ष्मीदेवी कमल के आसन पर विराजमान हैं,और हाथों में कमल धारण किये हुए हैं।
 
श्वेतरूपधारा देवी ईश्वरी वृषवाहना।
ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता॥ 11॥

वृषभ पर आरूढ़ ईश्वरी देवी ने श्वेत रूप धारण कर रखा है। ब्राह्मी देवी हंस पर बैठी हुई हैं और सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित हैं।
 
इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः।
नानाभरणशोभाढया नानारत्नोपशोभिता:॥ 12॥

इस प्रकार ये सभी माताएँ सब प्रकार की योग शक्तियों से सम्पन्न हैं। इनके सिवा और भी बहुत-सी देवियाँ हैं, जो अनेक प्रकार के आभूषणों की शोभा से युक्त तथा नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित हैं।
 
दृश्यन्ते रथमारूढा देव्याः क्रोधसमाकुला:। 
शंखम चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्॥13॥
खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च। 
कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्॥ 14॥
दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च।
 धारयन्त्यायुद्धानीथं देवानां च हिताय वै॥ 15॥
 
ये सम्पूर्ण देवियाँ क्रोध में भरी हुई हैं और भक्तों की रक्षा के लिए रथ पर बैठी दिखाई देती हैं। ये शंख, चक्र, गदा, शक्ति, हल और मूसल, खेटक और तोमर, परशु तथा पाश, कुन्त औ त्रिशूल एवं उत्तम शार्ङ्गधनुष आदि अस्त्र-शस्त्र अपने हाथ में धारण करती हैं। दैत्यों के शरीर का नाश करना,भक्तों को अभयदान देना और देवताओं का कल्याण करना यही उनके शस्त्र-धारण का उद्देश्य है।
 
नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि॥16॥
 
महान् रौद्ररूप, अत्यन्त घोर पराक्रम, महान् बल और महान् उत्साह वाली देवी तुम महान् भय का नाश करने वाली हो,तुम्हें नमस्कार है
 
त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि।
 प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्रि आग्नेय्यामग्निदेवता॥ 17॥
दक्षिणेऽवतु वाराही नैऋत्यां खड्गधारिणी। 
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥ 18॥
 
तुम्हारी और देखना भी कठिन है। शत्रुओं का भय बढ़ाने वाली जगदम्बिक मेरी रक्षा करो। पूर्व दिशा में ऐन्द्री इन्द्रशक्ति)मेरी रक्षा करे। अग्निकोण में अग्निशक्ति,दक्षिण दिशा में वाराही तथा नैर्ऋत्यकोण में खड्गधारिणी मेरी रक्षा करे। पश्चिम दिशा में वारुणी और वायव्यकोण में मृग पर सवारी करने वाली देवी मेरी रक्षा करे।
 
उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी।
ऊर्ध्वं ब्रह्माणी में रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा॥ 19॥
 
उत्तर दिशा में कौमारी और ईशानकोण में शूलधारिणी देवी रक्षा करे। ब्रह्माणि!तुम ऊपर की ओर से मेरी रक्षा करो और वैष्णवी देवी नीचे की ओर से मेरी रक्षा करे।
 
एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहाना।
जाया मे चाग्रतः पातु: विजया पातु पृष्ठतः॥ 20॥
 
इसी प्रकार शव को अपना वाहन बनानेवाली चामुण्डा देवी दसों दिशाओं में मेरी रक्षा करे। जया आगे से और विजया पीछे की ओर से मेरी रक्षा करे।
 
अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता।
शिखामुद्योतिनि रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥21॥
 
वामभाग में अजिता और दक्षिण भाग में अपराजिता रक्षा करे। उद्योतिनी शिखा की रक्षा करे। उमा मेरे मस्तक पर विराजमान होकर रक्षा करे।
 
मालाधारी ललाटे च भ्रुवो रक्षेद् यशस्विनी।
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके॥ 22॥
 
ललाट में मालाधरी रक्षा करे और यशस्विनी देवी मेरी भौंहों का संरक्षण करे। भौंहों के मध्य भाग में त्रिनेत्रा और नथुनों की यमघण्टा देवी रक्षा करे।
 
शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी।
कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शङ्करी ॥ 23॥
 
ललाट में मालाधरी रक्षा करे और यशस्विनी देवी मेरी भौंहों का संरक्षण करे। भौंहों के मध्य भाग में त्रिनेत्रा और नथुनों की यमघण्टा देवी रक्षा करे।
 
नासिकायां सुगन्‍धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका।
अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती॥ 24॥
 
नासिका में सुगन्धा और ऊपर के ओंठ में चर्चिका देवी रक्षा करे। नीचे के ओंठ में अमृतकला तथा जिह्वा में सरस्वती रक्षा करे।
 
दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका।
घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके॥ 25॥
 
कौमारी दाँतों की और चण्डिका कण्ठप्रदेश की रक्षा करे। चित्रघण्टा गले की घाँटी और महामाया तालु में रहकर रक्षा करे।
 
कामाक्षी चिबुकं रक्षेद्‍ वाचं मे सर्वमंगला।
ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धारी॥ 26॥
 
कामाक्षी ठोढी की और सर्वमंगला मेरी वाणी की रक्षा करे। भद्रकाली ग्रीवा में और धनुर्धरी पृष्ठवंश (मेरुदण्ड)में रहकर रक्षा करे।
 
नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी।
स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेद्‍ बाहू मे वज्रधारिणी॥27॥

 
कण्ठ के बाहरी भाग में नीलग्रीवा और कण्ठ की नली में नलकूबरी रक्षा करे। दोनों कंधों में खड्गिनी और मेरी दोनों भुजाओं की वज्रधारिणी रक्षा करे।
 
हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चान्गुलीषु च।
नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी॥28॥
 
दोनों हाथों में दण्डिनी और उँगलियों में अम्बिका रक्षा करे। शूलेश्वरी नखों की रक्षा करे। कुलेश्वरी कुक्षि पेट)में रहकर रक्षा करे।
 
स्तनौ रक्षेन्‍महादेवी मनः शोकविनाशिनी।
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥ 29॥
 
महादेवी दोनों स्तनों की और शोकविनाशिनी देवी मन की रक्षा करे। ललिता देवी हृदय में और शूलधारिणी उदर में रहकर रक्षा करे।
 
नाभौ च कामिनी रक्षेद्‍ गुह्यं गुह्येश्वरी तथा।
 पूतना कामिका मेढ्रं गुहे महिषवाहिनी॥30॥
कट्यां भगवतीं रक्षेज्जानूनी विन्ध्यवासिनी। 
जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी॥31॥
 
नाभि में कामिनी और गुह्यभाग की गुह्येश्वरी रक्षा करे। पूतना और कामिका लिङ्ग की और महिषवाहिनी गुदा की रक्षा करे। भगवती कटि भाग में और विन्ध्यवासिनी घुटनों की रक्षा करे। सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाली महाबला देवी दोनों पिण्डलियों की रक्षा करे।
 
गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी।
पादाङ्गुलीषु श्रीरक्षेत्पादाध:स्तलवासिनी॥32॥
 
नारसिंही दोनों घुट्ठियों की और तैजसी देवी दोनों चरणों के पृष्ठभाग की रक्षा करे। श्रीदेवी पैरों की उँगलियों में और तलवासिनी पैरों के तलुओं में रहकर रक्षा करे।
 
नखान् दंष्ट्रा कराली च केशांशचैवोर्ध्वकेशिनी।
रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा॥33॥
 
अपनी दाढों के कारण भयंकर दिखायी देनेवाली दंष्ट्राकराली देवी नखों की और ऊर्ध्वकेशिनी देवी केशों की रक्षा करे। रोमावलियों के छिद्रों में कौबेरी और त्वचा की वागीश्वरी देवी रक्षा करे।
 
रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती।
 अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी॥ 34 ॥
पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा। 
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसन्धिषु॥35 ॥
 
पार्वती देवी रक्त, मज्जा, वसा, माँस, हड्डी और मेद की रक्षा करे। आँतों की कालरात्रि और पित्त की मुकुटेश्वरी रक्षा करे। मूलाधार आदि कमल-कोशों में पद्मावती देवी और कफ में चूड़ामणि देवी स्थित होकर रक्षा करे। नख के तेज की ज्वालामुखी रक्षा करे। जिसका किसी भी अस्त्र से भेदन नहीं हो सकता, वह अभेद्या देवी शरीर की समस्त संधियों में रहकर रक्षा करे।
 
शुक्रं ब्रह्माणी मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा।
अहङ्कारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥36॥
 
ब्रह्माणी!आप मेरे वीर्य की रक्षा करें। छत्रेश्वरी छाया की तथा धर्मधारिणी देवी मेरे अहंकार,मन और बुद्धि की रक्षा करे।
 
प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्।
वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥37॥
 
हाथ में वज्र धारण करने वाली वज्रहस्ता देवी मेरे प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान वायु की रक्षा करे। कल्याण से शोभित होने वाली भगवती कल्याण शोभना मेरे प्राण की रक्षा करे।
 
रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी।
सत्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥38॥
 
रस, रूप, गन्ध, शब्द और स्पर्श इन विषयों का अनुभव करते समय योगिनी देवी रक्षा करे तथा सत्त्वगुण,रजोगुण और तमोगुण की रक्षा सदा नारायणी देवी करे।
 
आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी।
यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥39॥
 
वाराही आयु की रक्षा करे। वैष्णवी धर्म की रक्षा करे तथा चक्रिणी चक्र धारण करने वाली)देवी यश,कीर्ति,लक्ष्मी,धन तथा विद्या की रक्षा करे।
 
गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके।
पुत्रान्‌ रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी॥40॥
 
इन्द्राणि! आप मेरे गोत्र की रक्षा करें। चण्डिके! तुम मेरे पशुओं की रक्षा करो। महालक्ष्मी पुत्रों की रक्षा करे और भैरवी पत्नी की रक्षा करे।
 
पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा।
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता॥ 41॥
 
मेरे पथ की सुपथा तथा मार्ग की क्षेमकरी रक्षा करे। राजा के दरबार में महालक्ष्मी रक्षा करे तथा सब ओर व्याप्त रहने वाली विजया देवी सम्पूर्ण भयों से मेरी रक्षा करे।
 
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु।
तत्सर्वं रक्ष मे देवी जयन्ती पापनाशिनी॥ 42॥
 
देवी! जो स्थान कवच में नहीं कहा गया है, रक्षा से रहित है,वह सब तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हो;क्योंकि तुम विजयशालिनी और पापनाशिनी हो।
 
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु।
 तत्सर्वं रक्ष मे देवी जयन्ती पापनाशिनी॥43॥
पदमेकं न गच्छेतु यदिच्छेच्छुभमात्मनः। 
कवचेनावृतो नित्यं यात्र यत्रैव गच्छति॥44॥
तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सर्वकामिकः।
 यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम्।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्॥
 
यदि अपने शरीर का भला चाहे तो मनुष्य बिना कवच के कहीं एक पग भी न जाए। कवच का पाठ करके ही यात्रा करे। कवच के द्वारा सब ओर से सुरक्षित मनुष्य जहाँ-जहाँ भी जाता है,वहाँ-वहाँ उसे धन-लाभ होता है तथा सम्पूर्ण कामनाओं की सिद्धि करने वाली विजय की प्राप्ति होती है। वह जिस-जिस अभीष्ट वस्तु का चिन्तन करता है, उस-उसको निश्चय ही प्राप्त कर लेता है। वह पुरुष इस पृथ्वी पर तुलना रहित महान् ऐश्वर्य का भागी होता है।
 
निर्भयो जायते मर्त्यः सङ्ग्रमेष्वपराजितः।
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान्॥45॥
 
कवच से सुरक्षित मनुष्य निर्भय हो जाता है। युद्ध में उसकी पराजय नहीं होती तथा वह तीनों लोकों में पूजनीय होता है।
 
इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम्।
 य: पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः॥46॥
दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः। 
जीवेद् वर्षशतं साग्रामपमृत्युविवर्जितः॥47॥
 
देवी का यह कवच देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। जो प्रतिदिन नियमपूर्वक तीनों संध्याओं के समय श्रद्धा के साथ इसका पाठ करता है,उसे दैवी कला प्राप्त होती है। तथा वह तीनों लोकों में कहीं भी पराजित नहीं होता। इतना ही नहीं, वह अपमृत्यु रहित हो, सौ से भी अधिक वर्षों तक जीवित रहता है।
 
नश्यन्ति टयाधय: सर्वे लूताविस्फोटकादयः। 
स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्॥ 48॥
अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले। 
भूचराः खेचराशचैव जलजाश्चोपदेशिकाः॥49॥
सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा।
 अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबला॥ 50॥
ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसा:। 
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः॥ 51॥
नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते। मानोन्नतिर्भावेद्राज्यं तेजोवृद्धिकरं परम्॥ 52॥
 
मकरी, चेचक और कोढ़ आदि उसकी सम्पूर्ण व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं। कनेर,भाँग,अफीम,धतूरे आदि का स्थावर विष,साँप और बिच्छू आदि के काटने से चढ़ा हुआ जङ्गम विष तथा अहिफेन और तेल के संयोग आदि से बनने वाला कृत्रिम विष-ये सभी प्रकार के विष दूर हो जाते हैं,उनका कोई असर नहीं होता।
इस पृथ्वी पर मारण-मोहन आदि जितने आभिचारिक प्रयोग होते हैं तथा इस प्रकार के मन्त्र-यन्त्र होते हैं, वे सब इस कवच को हृदय में धारण कर लेने पर उस मनुष्य को देखते ही नष्ट हो जाते हैं। ये ही नहीं,पृथ्वी पर विचरने वाले ग्राम देवता,आकाशचारी देव विशेष,जल के सम्बन्ध से प्रकट होने वाले गण,उपदेश मात्र से सिद्ध होने वाले निम्नकोटि के देवता,अपने जन्म से साथ प्रकट होने वाले देवता, कुल देवता, माला (कण्ठमाला आदि), डाकिनी, शाकिनी, अन्तरिक्ष में विचरण करनेवाली अत्यन्त बलवती भयानक डाकिनियाँ,ग्रह, भूत, पिशाच, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, ब्रह्मराक्षस, बेताल, कूष्माण्ड और भैरव आदि अनिष्टकारक देवता भी हृदय में कवच धारण किए रहने पर उस मनुष्य को देखते ही भाग जाते हैं। कवचधारी पुरुष को राजा से सम्मान वृद्धि प्राप्ति होती है। यह कवच मनुष्य के तेज की वृद्धि करने वाला और उत्तम है।
 
नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते। 
मानोन्नतिर्भावेद्राज्यं तेजोवृद्धिकरं परम्॥ 53॥
यशसा वद्धते सोऽपी कीर्तिमण्डितभूतले। 
जपेत्सप्तशतीं चणण्डीं कृत्वा तु कवचं पूरा॥ 54॥
यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम्। 
तावत्तिष्ठति मेदिनयां सन्ततिः पुत्रपौत्रिकी॥
 
कवच का पाठ करने वाला पुरुष अपनी कीर्ति से विभूषित भूतल पर अपने सुयश से साथ-साथ वृद्धि को प्राप्त होता है। जो पहले कवच का पाठ करके उसके बाद सप्तशती चण्डी का पाठ करता है, उसकी जब तक वन, पर्वत और काननों सहित यह पृथ्वी टिकी रहती है, तब तक यहाँ पुत्र-पौत्र आदि संतान परम्परा बनी रहती है।
 
देहान्ते परमं स्थानं यात्सुरैरपि दुर्लभम्।
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः॥55॥

लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते ॥ॐ॥ ॥ 56॥
 
देह का अन्त होने पर वह पुरुष भगवती महामाया के प्रसाद से नित्य परमपद को प्राप्त होता है, जो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। वह सुन्दर दिव्य रूप धारण करता और कल्याण शिव के साथ आनन्द का भागी होता है।

        ।। इति देव्या: कवचं सम्पूर्णम् ।

           ।।ॐ नमः चंडीकाय।।

लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।) 

Saturday, May 18, 2024

चित्रकूट धाम के आसपास के प्रमुख चित्र विचित्र तीर्थस्थल आचार्य डॉ. राधे श्याम द्विवेदी


चित्रकूट उतर मध्य भारत का एक बेहद खूबसूरत शहर है। जो उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच विंध्य पर्वत और घने जंगलों से घिरा हुआ है। इस जगह पर लोग आध्यात्मिक ऊर्जा के साथ-साथ शांति की तलाश में आते हैं। त्रेता युग में भगवान श्री रामचंद्र जी के वन जाते समय 12 साल यहां बिताए थे। उन्हें वापस लाने और राज्य अभिषेक के लिए श्री भरतलाल जी सपरिबार यहां पधारे थे। उस समय उन्होंने पांच दिनों में संपूर्ण चित्रकूट धाम के विभिन्न तीर्थों के दर्शन किए थे। तब से पंच दिवसीय श्री चित्रकूट धाम की यात्रा प्रचलित हुई। इस संदर्भ में श्री रामचरितमानस अयोध्याकांड का निम्नलिखित दोहा प्रमाण है-
देखे थल तीरथ सकल भरत पाँच दिन माझ।
कहत सुनत हरि हर सुजसु गयउ दिवसु भइ साँझ।।

प्रमुख तीर्थस्थल :- 

श्री चित्रकूट धाम तीर्थ क्षेत्र के प्रमुख तीर्थस्थल निम्न लिखित है - 

(1) श्री रामघाट-

 मां मंदाकिनी के पावन तट पर अनेक घाटों में सर्व प्रमुख श्री रामघाट का वर्णन आता है। यहीं पर भगवान श्री राम जी ने अपने पूज्य पिता महाराज दशरथ का श्राद्ध कर्म संपन्न किया था इसी घाट पर संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी को मौनी अमावस्या के पावन पर्व पर भगवान श्री राम जी के बाल स्वरूप के दर्शन हुए थे इस संबंध में एक दोहा प्रचलित है- 
        चित्रकूट के घाट पर, भई संतन की भीर।
         तुलसीदास चंदन घिसे, तिलक देत रघुवीर।।
 रामघाट में डुबकी लगाने से व्यक्ति को सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है। रामघाट पर भगवा वस्त्र में संतों द्वारा अगरबत्ती की सुगंध और पवित्र मंत्रों का भजन आत्मा को शांत और स्पर्श करता है। यहां शाम तक इस जगह की सुंदरता का आनंद नौका विहार से ले सकते हैं और सुंदर दीयों की रोशनी, घंटी की आवाज़ और पवित्र मंत्रों के साथ आरती में भाग ले सकते हैं।यहीं पर गोस्वामी तुलसीदास जी की प्रतिमा के निकट नित्य सायंकाल मां गंगा की भव्य आरती का आयोजन होता है।

(2)मत्तगजेंद्र शिव मंदिर-

श्री चित्रकूट धाम में यह शिव मंदिर सर्वाधिक प्राचीन एवं सुप्रसिद्ध मंदिर है। ऐसी मान्यता है कि यहां भगवान शिव के पार्थिव लिंग की स्थापना स्वयं सृष्टि रचयिता ब्रह्मा जी के द्वारा की गई थी। ऐसा भी माना जाता है कि भगवान मत्तगजेंद्र शिवजी श्री चित्रकूट धाम के तीर्थ देवता है। भगवान श्री राम जी ने उन्हीं की अनुमति से चित्रकूट में निवास किया।

(3) श्री राघव प्रयाग घाट-

 श्री चित्रकूट धाम में निर्मोही अखाड़ा के निकट मां मंदाकिनी मां पयस्विनी और गुप्त रूप से मां सरयू का पावन संगम होता है। जिसे श्री राघव प्रयाग घाट के नाम से जाना जाता है। तीर्थराज प्रयाग स्वयं पवित्र होने के लिए प्रत्येक 12 वर्ष के उपरांत काक वेश में यहां आते हैं और स्नान करके हंस बनकर यहां से जाते हैं।

(4)जानकीकुंड-

श्री कामदगिरि प्रमुख द्वार से लगभग 1.5 किलोमीटर दूर जानकीकुंड नाम की बस्ती है जो चित्रकूट सतना राजमार्ग पर स्थित है। यहां पर एक प्रसिद्ध श्री राम जानकी मंदिर है तथा उसी के समीप लगभग 85 सीढ़ी नीचे उतरने पर मां मंदाकिनी के तट पर सुप्रसिद्ध जानकीकुंड तीर्थ स्थित है। ऐसी मान्यता है कि इस कुंड में मां जानकी (सीता माता) नित्य स्नान करती थी। इसीलिए इसका नाम जानकी कुंड पड़ा। यहां पर मां जानकी जी के पावन चरण चिन्ह के दर्शन होते हैं ।

(5) स्फटिक शिला-

जानकीकुंड से लगभग 2 किलोमीटर दक्षिण में मां मंदाकिनी के सुरम्य तट पर सघन वृक्षों से आच्छादित परम रमणीय स्फटिक शिला नामक तीर्थ है। यहां पर आज भी एक विशाल शिला पर भगवान श्री राम जी के चरण चिन्ह अंकित हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार देवराज इंद्र के पुत्र जयंत ने कौवे के भेष में मां सीता जी पर अपनी चोंच का प्रहार किया था। जो भगवान श्री राम जी के द्वारा दंडित हुआ। 

(6)अत्रि-अनुसुइया आश्रम-

श्री चित्रकूट धाम में स्थित अपने दीर्घकालिक आवास को त्यागने के उपरांत भगवान श्री सीताराम लक्ष्मण जी महर्षि अत्रि मुनि के आश्रम गए। महर्षि अत्रि और माता अनुसुइया ने भगवान श्री रामचंद्र जी को अपने पुत्र की भांति अपनाया। माता अनुसुइया ने मां जानकी जी को यहीं पर स्त्री धर्म की शिक्षा दी है। मां मंदाकिनी गंगा का मूल स्रोत अत्रि अनुसुइया आश्रम ही माना जाता है। मां मंदाकिनी गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने वाली परम सती माता अनुसुइया जी ही हैं। जिन्होंने अपने सतीत्व धर्म के बल पर भगवान की तीनों प्रधान विभूतियों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) को अपने पुत्र बनाकर झूला झुला दिया। अनुसूया की कहानी के अनुसार जब उन्होंने पवित्र त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर पर कुछ विशेष जल छिड़का और इससे उनके अवतार हुए। आज भी यहां के लोकगीतों में गाया जाता है कि- 
माता अनुसुइया ने डाल दियो पालना।
झूल रहे तीनों देव बन कर के लालना।।

(7)अम्बरीष आश्रम (अमरावती)-

महर्षि अत्रि के आश्रम से विदा होकर भगवान श्री राम जी ने एक तापस आश्रम में पहुँचकर रात्रि विश्राम किया। उस अमरावती नामक आश्रम में भगवान श्री राम जी के पूर्वज राजर्षि अम्बरीष ने घोर तपस्या की थी। घने जंगलों के बीच स्थित इस आश्रम की प्राकृतिक छटा अत्यंत रमणीय है। कुछ वर्ष पूर्व श्री स्वामी जी के नाम से विख्यात एक महान संत ने दीर्घ काल तक यहां तप साधना की है। इसी तीर्थ के निकट भगवान श्री राम जी ने विराध नामक असुर का वध किया था। उस स्थान को विराध कुंड के नाम से जाना जाता है।

(8) सरभंग आश्रम-

श्री वाल्मीकि रामायण के अनुसार विराध कुंड से डेढ़ योजन (लगभग 5 किलोमीटर) की दूरी पर महामुनि सरभंग का निवास स्थान है। महर्षि सरभंग एक बार ब्रह्मलोक की यात्रा के लिए जा रहे थे कि अचानक उन्हें भगवान श्री राम जी के आगमन का समाचार प्राप्त हुआ। जिसे सुनकर उन्होंने ब्रह्मलोक जाना स्थगित कर दिया । श्री रामचरितमानस में महर्षि सरभंग का प्रसंग अत्यंत कारुणिक एवं मर्मस्पर्शी है। महर्षि सरभंग जी ने भगवान श्री रामचंद्र जी से कहा कि जिन नेत्रों से मैंने आपके दर्शन कर लिए हैं उनसे अब इस संसार को नहीं देखना है। इसलिए आप थोड़ी देर और ठहर जाइए। मैं योग अग्नि में स्थित होकर अपने प्राणों को आपके चरणों में समर्पित कर देना चाहता हूं। महर्षि सरभंग जी की भक्ति एवं तपोशक्ति अनन्य थी। इस तीर्थ में एक पवित्र जल स्रोत भी है।इस तीर्थ में एक बार स्नान कर लेने मात्र से सौ बार गंगा स्नान का फल प्राप्त होता है। जिसके संबंध में कहा जाता है कि- 
          सौ बार गंगा, एक बार सरभंगा। 

(9) सुतीक्ष्ण आश्रम-

महर्षि सुतीक्ष्ण परम तेजस्वी महर्षि अगत्स्य के शिष्य थे। उनके आगाध प्रेम की स्थिति को देखकर भगवान श्री राम जी बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें मनचाहा वरदान प्रदान किया। गुरु शिष्य परंपरा में सुतीक्ष्ण जी ऐसे अनूठे साधक थे। जिन्होंने अपने गुरुदेव को भगवान श्री राम जी के दर्शन गुरु दक्षिणा के रूप में करवाये। वर्तमान में सुतीक्ष्ण आश्रम सरभंग आश्रम से 7 किलोमीटर की दूरी पर है। सरभंग आश्रम से सुतीक्ष्ण आश्रम मार्ग पर यहां से 2 किलोमीटर पहले सिद्धा पहाड़ नामक एक पर्वत है जिसे अस्थि समूह के नाम से भी जाना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि राक्षसों ने ऋषि-मुनियों को मारकर उनका आहार कर लिया था और उनके कंकाल का एक पूरा पहाड़ बना दिया था। चित्रकूट क्षेत्र में ऋषि मुनियों की ऐसी दुर्दशा देखकर भगवान श्री राम जी के नेत्रों मे अश्रुविंदु छलक आए और उन्होंने प्रतिज्ञा की कि मैं इस पृथ्वी से असुर समूह का समूल नाश कर दूंगा।

(10) अघमर्षण कुंड धारकुंडी आश्रम-

महाभारत के अनुसार अघमर्षण कुंड वह स्थान है जहां पर एक यक्ष ने धर्मराज युधिष्ठिर से धर्म संबंधी अनेक प्रश्न पूछे थे। यह प्रसंग यक्ष-युधिष्ठिर संवाद के नाम से जाना जाता है। यहां पर स्नान करने से सभी प्रकार के पापों का नाश होता है। यह तीर्थ धार कुंडी नामक स्थान में स्थित है। धारकुंडी में एक जल स्रोत की धारा एक कुंड में गिरती है। यह दृश्य बड़ा ही मनोहारी है। 

( 11) गुप्त गोदावरी-

विंध्य पर्वत श्रंखला के रमणीक अंचल में स्थित प्रकृति द्वारा निर्मित गुप्त गोदावरी की गुफाएं नैसर्गिक कला-कौशल का अत्यन्त दुर्लभ नमूना हैं। यहां पर दर्शन करके ऐसा लगता है कि जैसे प्रकृति रूपी चित्रकार ने अपनी जादुई तूलिका से कल्पना लोक का एक सर्वश्रेष्ठ चित्र बनाया है। यहां पर दो गुफाओं में से एक शुष्क है और दूसरी में जल प्रवाहित होता है। शुष्क गुफा में सीता कुंड, धनुष कुंड, सुईया माता और श्री राम दरबार के दर्शन होते हैं। दूसरी जल प्रवाह वाली गुफा के द्वार पर पंचमुखी शिवलिंग के दिव्य दर्शन हैं। गुफा के अंदर प्रवेश करने पर शेषनाग के फण, दूध धारा एवं श्री राम तथा लक्ष्मण कुंड आदि के दर्शन करके तीर्थयात्री अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। कहा जाता है कि भगवान राम और लक्ष्मण ने एक बार अपनी गुप्त बैठकें की थीं, जो कि गुफा में मौजूद सिंहासन जैसी संरचनाओं द्वारा स्पष्ट रूप से मान्य है। यहां पर विभिन्न कुंडों में प्राप्त जल स्रोत गुप्त रूप से पवित्र गोदावरी नदी के प्रकट होने का प्रमाण देते हैं। इन गुफाओं के दर्शन करके श्रीरामचरितमानस का वह दोहा स्मृति पटल पर अंकित हो जाता है कि - 
प्रथमहिं देवन्ह गिरि गुहा राखेउ रुचिर बनाइ। 
राम कृपानिधि कुछ दिन बास करहिंगे आइ।। 

(12) माण्डव्य आश्रम (मड़फा) -

गुप्त गोदावरी से 5 किलोमीटर उत्तर पश्चिम में एक पहाड़ी के समतल शिखर पर स्थित माण्डव्य ऋषि का अति प्राचीन आश्रम मड़फा के नाम से विख्यात है। यह तीर्थ नैसर्गिक सुषमा का एक अनूठा केंद्र है। इस पर्वत में अनेक गुफाएं, झरने तथा पापमोचन नामक पवित्र सरोवर है। विभिन्न जनश्रुतियों से प्रमाणित होता है कि भगवान श्री राम जी ने यहां कुछ काल तक रुक कर विश्राम किया था। पौराणिक तथ्यों से ज्ञात होता है कि माण्डव्य ऋषि परम तपस्वी एवं उच्च कोटि के अध्यात्मिक विभूति थे। 
 
(13)अगत्स्य आश्रम (सारंग)-

यह तीर्थ सुरम्य पर्वत शिखरों, प्राकृतिक जल-स्रोतों एवं प्रकृति की मनोहारी छटा का एक अनुपम स्थान है। ऐसी मान्यता है कि महर्षि अगत्स्य ने यहां पर दीर्घकाल तक तप किया एवं उनके प्रिय शिष्य महर्षि सुतीक्ष्ण ने यहीं पर उन्हें भगवान श्री राम जी के दर्शन कराए। ऐसी लोक मान्यता है कि सारंग पर्वत के अंदर बनी हुई गुफा में वे धनुष बाण छुपाकर रखे गए थे जिनके द्वारा बाद में रावण का वध किया गया। दृष्टव्य है कि भगवान श्री विष्णु के धनुष का नाम सारंग ( शार्ङ्ग ) है। संभवत इसी कारण से इस तीर्थ का नाम भी सारंग पड़ा। यहाँ पर रामकुंड, लक्ष्मण कुंड, रामशिला (राम बैठका) एवं सीता रसोई जैसे तीर्थ स्थल आज भी विद्यमान हैं।

(14) वनदेवी (मां जानकी जी का चरण चिन्ह)-

श्री कामतानाथ भगवान के मंदिर से हनुमान धारा जाते हुए नयागांव और श्री हनुमान धारा के ठीक मध्य में मां वनदेवी का मंदिर आता है। जहाँ चित्रकूट वन की अधिष्ठात्री देवी मां वनदेवी की प्रतिमा विद्यमान है। समीप ही एक मंदिर में मां जानकी जी का चरण चिन्ह के दर्शन होते हैं। चित्रकूट क्षेत्र में मिलने वाले भगवान सीताराम जी के चरण चिन्हों में यह चिन्ह सबसे ज्यादा स्पष्ट हैं। यहां पर दर्शन करते हुए श्री रामचरितमानस के अयोध्या कांड की वह चौपाई स्मरण हो जाती है-
बनदेबीं बनदेव उदारा ।
करिहहिं सास ससुर सम सारा।। 

(15 ) हनुमान धारा -

लोक मान्यता है कि लंका दहन के पश्चात श्री हनुमान जी के शरीर में अत्यधिक जलन की अनुभूति हुई। इस दाह जनित पीड़ा के निवारण के लिए हनुमान जी ने अपने प्रभु श्री राम जी से निवेदन किया। तब भगवान श्री राम जी ने श्री चित्रकूट धाम के संकर्षण पर्वत पर स्थित इस हनुमंत तीर्थ में कुछ समय निवास करके तप करने की आज्ञा प्रदान की। साथ ही साथ वहां पर्वत शिखर में अपने वाण का प्रहार करके एक जलधारा प्रकट की। जो श्री हनुमंत लाल जी के श्रीविग्रह के वाम स्कंध पर प्रवाहित होती है।
         एक कुंड में भगवान हनुमान के देवता पर गिरने वाले पानी की एक धारा है । प्राचीन काल में इस तीर्थ तक पहुंचने के लिए भूतल से लगभग 365 सीढ़ियाँ हुआ करती थी। यहीं पर सीढ़ियों के प्रारंभिक स्थल के दाहिनी ओर एक बावड़ी (विशाल कूप) भी स्थित है। अब से करीब 35-40 साल पहले एक नवीन जलधारा प्रकट हुई जहां पर श्री पंचमुखी हनुमान जी की दिव्य प्रतिमा विराजमान है। प्राचीन काल की निर्मित सीढ़ियां बहुत ऊंची और असुविधा पूर्ण थी। कालांतर सुविधा पूर्ण सीढ़ियों का निर्माण किया गया। अभी कुछ समय पूर्व ही यहां तक पहुंचने के लिए उड़न खटोला सेवा (रोप-वे) प्रारंभ हो चुकी है।

(16 ) सीता रसोई (जमदग्नि तीर्थ)-

संकर्षण पर्वत के समतल शिखर पर श्री हनुमत् धारा तीर्थ से लगभग 60 सीढ़ियाँ ऊपर यह मनोहर स्थान स्थित है। ऐसा कहा जाता है कि इस तीर्थ में मां जानकी जी ने चित्रकूट स्थित ऋषि-मुनियों को भोजन कराया था। यहां पर मंदिर के गर्भ गृह में भगवान श्री सीता राम लक्ष्मण जी की प्रतिमाएं विराजमान हैं तथा पास में ही चूल्हा और बेलन आदि रसोई के उपकरण प्रतिष्ठित है जोकि मां जानकी जी की अतिथि सेवा का आज भी प्रत्यक्ष प्रमाण है। ऐसा भी माना जाता है कि इसी तीर्थ में श्री जमदग्नि ऋषि ने दीर्घ काल तक अपनी तप साधना संपन्न की।

(17) देवाङ्गना तीर्थ-

श्री हनुमान धारा तीर्थ से लगभग 1 किलोमीटर पूर्व संकर्षण पर्वत के अंचल में ही यह तीर्थ स्थल सुशोभित है। यहां का पर्वतीय दृश्य तथा जलप्रपात अत्यंत मनोरम हैं। ऐसा माना जाता है कि भगवान श्री राम जी के वनवास काल में उनके दर्शनों के लिए न केवल चित्रकूट तीर्थ स्थित ऋषि-मुनि एवं वनवासी कोल भील ही पधारे थे बल्कि स्वर्ग लोक की अप्सराएं (देवाङ्गनाएं) भी भगवत दर्शन के लिए श्री चित्रकूट धाम पधारीं और इसी स्थान पर उन्होंने भगवान श्री राम जी के दर्शन प्राप्त किए। यहां निर्जन वन अंचल में स्थित एक मंदिर में एक नारी मूर्ति के दर्शन होते हैं जो देवराज इंद्र की पुत्र-वधू एवं देव कुमार जयंत की पत्नी जयंती (देवाङ्गना) की मूर्ति है उसने यहां दीर्घकाल तक तप किया था। यह तीर्थ श्री चित्रकूट धाम के निर्माणाधीन हवाई-अड्डे के निकट ही स्थित है।

(18) कोटि तीर्थ-

देवाङ्गना तीर्थ स्थल से 1 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में पूर्वोक्त संकर्षण पर्वत पर ही कोटि तीर्थ नामक एक तीर्थ स्थल विद्यमान है। इस तीर्थ में भी एक झरना निरंतर निर्झरित होता रहता है एवं समीप ही एक प्राकृतिक जल-स्रोत भी है। प्राचीन चित्रकूट माहात्म्य के अनुसार इस तीर्थ में स्नान करने से करोड़ों अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। ऐसा माना जाता है कि यहां पर समस्त तीर्थों ने अपने आधिदैविक स्वरूप में उपस्थित होकर भगवान श्री राम जी के दर्शन प्राप्त किए। इसलिए इस तीर्थ को कोटि तीर्थ कहा जाता है।यहां पर श्री हनुमान जी की एक दिव्य प्रतिमा प्रतिष्ठित है जोकि अत्यंत सिद्धिदात्री बताई जाती है। 

(19) बाँकेसिद्ध तीर्थ-

कोटि तीर्थ से 1 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में पूर्वोक्त संकर्षण पर्वत पर ही बांके सिद्ध नाम का एक अत्यंत मनोरम तीर्थ स्थल स्थित है। संस्कृत भाषा के शब्द वाक् सिद्धि का अपभ्रंश रूप ही बांकेसिद्ध कहलाता है जिसका अर्थ है वाणी की सिद्धि। यहां पर तप करके अगणित साधु-संतों ने वाणी की सिद्धि प्राप्त की। महासती मां अनुसुइया के अनुज भगवान कपिल मुनि ने भी यहां पर सुदीर्घ काल तक तप किया। यह स्थल अपने प्राकृतिक सौंदर्य, देव निर्मित अद्भुत कंदरा तथा निर्मल जलप्रपात के लिए प्रसिद्ध है। यहां पर भगवान शिव की एक प्राचीन दिव्य मूर्ति विराजमान है। 

(20) श्री रामशैया तीर्थ-

श्री कामदगिरि प्रदक्षिणा प्रमुख द्वार से भरतकूप के सीधे रास्ते में खोही गांव से लगभग 2 किलोमीटर आगे श्री रामशैया तीर्थ विद्यमान है। एक अज्ञात पहाड़ी के अंचल में हरे भरे खेतों के मध्य एक विशाल पाषाण शिला एक ऊंचे चबूतरे पर स्थित है। जिस पर भगवान श्री सीताराम जी के विश्राम के चिन्ह अंकित हैं। उस शिला पर भगवान श्री राम जी के धनुष-बाण और जटाओं के निशान, श्री भरत लाल जी के द्वारा प्रणाम करने के निशान तथा भगवान श्री सीताराम जी के श्री विग्रह के निशान आज भी स्पष्ट दृष्टिगत होते हैं जिनके दर्शन करके श्रद्धालु तीर्थ यात्रियों के मन में सहसा ही एक भाव आता है कि मेरे प्रभु ने लोक कल्याण के लिए कितने कष्ट सहे। ऐसे परम उदार परमात्मा को भूल जाने वाला जीव वास्तव में ही बड़ा अभागा है।

(21) अनादि तीर्थ भरतकूप-

यह परम पवित्र अनादि तीर्थ स्थल भरतकूप नामक बस्ती से लगभग 2 किलोमीटर दूर विंध्य-पर्वतश्रंखला के द्रोणाचल नामक पर्वत की तलहटी में स्थित है। श्री रामचरितमानस के अनुसार भरत जी जब अपने प्रभु श्री राम जी को मनाने के लिए श्री अवध धाम से श्री चित्रकूट धाम पधारे तब वह अपने साथ समस्त तीर्थों का जल अपने प्रभु भगवान श्री राम जी के अभिषेक के लिए लाए थे किंतु जब प्रभु श्री राम जी ने उनके अयोध्या लौटने की प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया और स्वयं उन्हें 14 वर्ष तक अपने प्रतिनिधि के रूप में अयोध्या साम्राज्य का राज्य-भार संभालने के लिए राजी कर लिया। तब उस जल को आगामी 14 वर्षों तक संभाल कर रखने की आवश्यकता हुई। उस समय महर्षि अत्रि जी ने श्री भरत लाल जी को वह संपूर्ण तीर्थों का जल इसी कूप में स्थापित करने के लिए निर्देश दिया। इस प्रकार इस पवित्र तीर्थ के जल में सभी तीर्थों का पवित्र जल सन्निहित है।तभी से यह कूप भरत जी के नाम पर भरतकूप कहलाया। यह तीर्थ एक विशाल वटवृक्ष एवं एक मंडप के द्वारा आच्छादित है। यहां पर स्थित मंदिर में भगवान श्री राम दरबार के साथ श्री भरत लाल एवं राज महिषी देवी मांडवी की प्रतिमाएं भी विशेष रूप से प्रतिष्ठित हैं। इस तीर्थ के संदर्भ में श्री रामचरितमानस के अयोध्या कांड के एक दोहे में विशेष संकेत रूप से कहा गया है- 

अत्रि कहेउ तब भरत सन सैल समीप सुकूप। 
राखिअ तीरथ तोय तहँ पावन अमिय अनूप।।

( 22) भरत मिलाप मंदिर :- 

भगवान राम को जिस समय वनवास मिल उस दौरान चार भाइयों के मिलन स्थल के रूप में इस जगह को जाता है, भरत मिलाप मंदिर चित्रकूट का एक बहुत ही बड़ा और महत्वपूर्ण मंदिर है। कामदगिरि की परिक्रमा के साथ स्थित, इस मंदिर की यात्रा यहाँ अवश्य करनी चाहिए। यहां भगवान राम और उनके परिवार के पैरों के निशान भी देखे जा सकते हैं।

(23) सूर्य कुंड-

झांसी-प्रयागराज राजमार्ग पर श्री चित्रकूट धाम के निकट प्रसिद्ध बेड़ी पुलिया स्थान से 5 किलोमीटर पूर्व उत्तर दिशा में मां मंदाकिनी के नाभि क्षेत्र में स्थित अथाह जल राशि वाला एक प्राकृतिक जलकुंड ही सूर्य कुंड के नाम से जाना जाता है। कुंड के समीप ही भगवान श्री राम जानकी मंदिर स्थित है जिसे साधु कुलभूषण श्री फलाहारी बाबा जी ने स्थापित कराया था। ऐसा माना जाता है कि जब भगवान श्री रामचंद्र जी अपने वनवास काल में श्री चित्रकूट धाम पधारे उस समय समस्त देवता उनके शुभ दर्शन के लिए उपस्थित हुए। भगवान श्री राम जी के कुल-पुरुष श्री सूर्य नारायण भगवान भी उस काल में श्री राम जी के दर्शन के लिए पधारे थे। आधुनिक काल में भी पूज्य संत देवरहवा बाबा, अनुसुइया आश्रम के श्री परमहंस जी महाराज एवं पूज्य फलाहारी बाबा जैसे संतो ने दीर्घकाल तक यहाँ पर तपस्या की है।

(24) कामदगिरि पर्वत :–

कामदगिरी एक जंगली पहाड़ी है। इसे चित्रकूट का दिल कहा जाता है। इसकी परिक्रमा के 5 किलोमीटर के रास्ते पर कई मंदिर हैं, जिनमें से एक सबसे प्रसिद्ध भरत मिलाप मंदिर है, जहाँ भरत भगवान राम से मिले और उन्हें अपने राज्य में वापस आने के लिए राजी किया।कामदगिरि चित्रकूट धाम का मुख्य पवित्र स्थान है। संस्कृत शब्द ‘कामदगिरि’ का अर्थ ऐसा पर्वत है, जो सभी इच्छाओं और कामनाओं को पूरा करता है। इस गिरि को रामगिरि और चित्रकूट पर्वत भी कहा जाता है । कहा जाता है कि पर्वतराज सुमेरू के शिखर कहे जाने वाले चित्रकूट गिरि को कामदगिरि होने का वरदान भगवान राम ने दिया था। तभी से विश्व के इस अलौकिक पर्वत के दर्शन मात्र से आस्थावानों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। यह स्थान अपने वनवास काल के दौरान भगवान राम, माता सीता और लक्ष्मण जी का निवास स्थल रहा है। तुलसी दास जी ने लिखा है - 
" कामद भे गिरि रामप्रसादा।
   अवलोकत अप हरत विषादा'।

 (25)गणेश बाग -

कर्वी-देवांगना मार्ग पर सिर्फ 11 किमी की दूरी पर स्थित, गणेशबाग एक वास्तुशिल्प रूप से सुंदर मंदिर, सात मंजिला बावली और एक महल के खंडहर के साथ एक जगह है। पूरे परिसर का निर्माण पेशवा विनायक राव ने ग्रीष्मकालीन विश्राम के रूप में किया था और इसे स्थानीय रूप से मिनी-खजुराहो के रूप में भी जाना जाता है।

( 26) श्री तुलसी जन्म कुटीर (तुलसी मंदिर) -

प्रायः शांत प्रवाह में प्रवहमान मां कालिंदी (श्री यमुना जी) के दक्षिण तट पर स्थित राजापुर गांव में संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज का परम पुनीत जन्म स्थल (तुलसी मंदिर) स्थित है। मंदिर में भगवान श्री सीताराम दरबार, गोस्वामी तुलसीदास जी की यमुना जी से प्रकट स्वयंभू श्याम पाषाण प्रतिमा, उनकी चरण पादुका एवं यमुना जी से प्राप्त स्वयंभू शिवलिंग जी के दर्शन प्राप्त होते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी के द्वारा सेवित श्री नरसिंह स्वरूप भगवान शालिग्राम जी का विग्रह विशेष रुप से दर्शनीय है। निकट ही एक अन्य मंदिर में उन्हीं की हस्तलिखित श्रीरामचरितमानस की प्रति का अयोध्या कांड संरक्षित है। 

(27) संकट मोचन हनुमान मंदिर(राजापुर)-

श्री हनुमंत लाल जी के द्वारा स्वपनादेश के अनुसार गोस्वामी तुलसीदास जी अपनी जन्मभूमि राजापुर में किसी शिला पर चंदन से श्री हनुमंत लाल जी की आकृति बनाकर उसका नित्य पूजन किया करते थे। जिसके लिए वह प्रतिदिन पूजन के प्रारंभ में आवाहन तथा पूजन के समापन अवसर पर विसर्जन अनिवार्य रूप से करते थे किंतु एक दिन संयोगवश पूजन करने के उपरांत वे विसर्जन करना भूल गए। बाद में जब वे आकृति मिटाने लगे तो वह नहीं मिटी। तब उन्हें इस बात का बोध हुआ कि इस शिला पर आज से श्री हनुमान जी की स्थाई प्रतिष्ठा हो चुकी है। तब से वे उसी शिला पर श्री हनुमान जी का नित्य पूजन करने लगे। यह एक सिद्ध हनुमत तीर्थ है।

( 28) हनुमत् तीर्थ नांदी तौरा-

यह दिव्य हनुमत् तीर्थ श्री चित्रकूट धाम ( कर्वी)- राजापुर मार्ग के मध्य में स्थित पहाड़ी गांव से लगभग 5 किलोमीटर दूर नांदी तौरा गांव में स्थित है। इस तीर्थ में श्री हनुमंत लाल जी की अति प्राचीन एवं स्वयंभू पूर्वाभिमुखी प्रतिमा प्रतिष्ठित है। ऐसा कहा जाता है कि उपरोक्त हनुमत् विग्रह का श्री चरण पाताल गामी है। ब्रिटिश काल में किसी अंग्रेज अधिकारी के द्वारा मूर्ति स्थल की खुदाई करवाने पर भी हनुमान जी के गड़े हुए पैर का ओर-छोर नहीं प्राप्त हो सका। यह एक सिद्ध हनुमत् पीठ है। इस तीर्थ के प्रति संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी की अगाध श्रद्धा थी। 

(29)कालिंजर किला - 

कालिंजर उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में स्थित एक प्राचीन किला है। चंदेल राजाओं द्वारा बनाए गए आठ प्रसिद्ध किलों में से एक होने के नाते, यह खजुराहो के विश्व धरोहर स्थल के पास विंध्य पर्वत श्रृंखला पर स्थित है। शक्तिशाली किला 1203 फीट की ऊंचाई तक जाता है और बुंदेलखंड के मैदानों को देखता है। कालिंजर को इसका नाम कलंजर शब्द से मिला है जो भगवान शिव का प्रतिनिधित्व करता है
 जिन्होंने इस स्थान पर विश्राम किया और समय की बाधा को नष्ट कर दिया। मान्यता है कि यहां भगवान शिव हमेशा विराजमान रहते हैं । किले में भगवान शिव, भगवान विष्णु, शक्ति, भैरव, भगवान गणेश और भैरवी की पत्थर की छवियों के साथ-साथ पक्षियों, मिथुन, अप्सराओं और जानवरों की पत्थर की नक्काशी भी देखी जा सकती है। यहां मौजूद कुछ दर्शनीय स्थलों में सीता सेज शामिल है जो एक पत्थर के बिस्तर और तकिया के साथ एक छोटी सी गुफा है जिसका उपयोग एक समय साधुओं द्वारा किया जाता था, गजंतक शिव की छवि भी चट्टान की सतह पर उकेरी गई मांडूक भैरों के रूप में प्रसिद्ध है और कोटि तीर्थ जो विशाल जल भण्डार है। नीलकंठ मंदिर, जिसका निर्माण परमारदिदेव ने करवाया था।
 लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।) 


Friday, May 17, 2024

हरित राजा भी और महर्षि भी(राम के पूर्वज 16) आचार्य डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

 

31 मार्च 2022 को पूर्व प्रकाशित सम्प्रति संशोधित 
 हरिता जिसे हरिता , हरितास्य , हरित और हरितसा 
 के नाम से भी जाना जाता है ,च्यवन ऋषि के पुत्र और सूर्यवंश वंश के एक प्राचीन राजकुमार थे, जिन्हें अपने मातृ पक्ष, हरिता गोत्र से क्षत्रिय वंश के पूर्वज के रूप में जाना जाता था । वह भगवान विष्णु के 7वें अवतार राम के पूर्वज थे ।

        हरिता  सूर्यवंशी राजा हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिताश्व का पुत्र था । उन्हें यौवनाश्व का पुत्र और सूर्यवंश वंश के राजा अंबरीष का पोता बताया भी बतलाया जाता  है। कहा जाता है कि हरित ने अयोध्‍या नगरी पर राज किया लेकिन उनके के नाम पर प्रायः पौराणिक साक्ष्यों में परस्पर मतभेद है।  वह सतयुग के अंतिम चरण के शासक थे। हरिशचंद्र अयोध्या के राजा थे। रोहिताश्व बनारस से विहार रोहतास से शासन चलाया था। जबकि अयोध्या इसके पुत्र हरित के पास रहा।

हरितासा गोत्र के प्रवर :-

एक सर्वविदित तथ्य है कि हरितास गोत्र से संबंधित ब्राह्मण राजा हरिता के वंशज हैं जो राम के पूर्वज थे और सूर्यवंश से संबंधित क्षत्रिय थे। ऐसी कहानियाँ हैं जो बताती हैं कि कैसे राजा हरिता ने तपस्या की और श्रीमन नारायण से वरदान प्राप्त किया और अपनी तपस्या के आधार पर ब्राह्मण होने का दर्जा प्राप्त किया और अब से उनके सभी वंशज ब्राह्मण बन गए। लिंग पुराण जैसे कुछ पुराणों में ऐसे संदर्भ हैं जो दावा करते हैं कि इस वंश के ब्राह्मणों में भी क्षत्रियों के गुण हैं और इन ब्राह्मणों को ऋषि अंगिरस द्वारा अनुकूलित या सिखाया गया है। हरिथासा गोत्र के लिए दो प्रवरों का उपयोग किया जाता है।
    ऋषि मूलतः मन्त्रद्रष्टा अर्थात मन्त्रद्रष्टा होता है। कम इस्तेमाल किये जाने वाले प्रवर में हरिता को ऋषि के रूप में शामिल किया गया है। हरिता को अपनी तपस्या पूरी होने के बाद ही ऋषि का दर्जा मिल सकता था। और इसलिए यह मान लेना तर्कसंगत होगा कि हरिता की तपस्या पूरी होने के बाद उसके जन्मे पुत्रों के सभी वंशजों में हरिता को प्रवर में एक ऋषि के रूप में शामिल किया गया होगा। लेकिन फिर भी ऐसे पुत्र हो सकते थे जो हरिथाके तपस्या करने से पहले ही पैदा हो गए थे। चूँकि कहानियों में उल्लेख है कि भगवान विष्णु ने वरदान दिया था कि हरिता के सभी वंशज ब्राह्मण बन जाएंगे, उनकी तपस्या से पहले क्षत्रिय के रूप में पैदा हुए हरिता के पुत्रों को ऋषि अंगिरस द्वारा अनुकूलित किया गया होगा और उन्होंने ब्राह्मण धर्म का पालन किया होगा। दिलचस्प बात यह है कि लिंग पुराण में क्षत्रियों के गुण रखने वाले अंगिरस हरिता के बारे में भी विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। चूँकि प्राचीन काल से हम जानते हैं कि राजा का पुत्र राजा बनेगा और ब्राह्मण का पुत्र ब्राह्मण बनेगा। यदि हरिता ने वास्तव में अपनी तपस्या के आधार पर ब्राह्मण का दर्जा प्राप्त किया है, तो तपस्या पूरी होने के बाद उसके पैदा हुए सभी पुत्र और उनके वंशज क्षत्रियों के गुणों के बिना ब्राह्मण होने चाहिए। यदि हम इसके बारे में सोचें, तो दोहरे गुण होने की संभावना तब अधिक होती है जब कोई व्यक्ति क्षत्रिय के रूप में पैदा हुआ था, लेकिन अंततः उसने ब्राह्मण धर्म अपना लिया (किसी भी कारण से - इस मामले में विष्णु के वरदान के कारण) जो अन्य पर लागू होता प्रतीत होता है हरिता के पुत्र जो संभवतः उसके तपस्या करने से पहले पैदा हुए थे।

राजकाज छोड़ तप में लीन :- 

ऐसा माना जाता है कि हरिता ने अपने पापों के प्रतीकात्मक प्रायश्चित के रूप में अपना राज्य छोड़ दिया था। श्रीपेरुम्बुदूर के स्थल पुराण के अनुसार, तपस्या पूरी करने के बाद , उनके वंशजों और उन्हें नारायण द्वारा ब्राह्मण का दर्जा दिया गया था ।
      हालांकि एक ब्राह्मण वंश, यह गोत्र सूर्यवंश वंश के क्षत्रिय राजकुमार का वंशज है जो पौराणिक राजा मंधात्री के परपोते थे । मंधात्री का वध लवनासुर ने किया था जिसे बाद में राम के भाई शत्रुघ्न ने मार डाला था । यह प्राचीन भारत के सबसे प्रमुख और प्रसिद्ध वंशों में से एक है, जिसने राम और उनके तीन भाइयों को जन्म दिया।
        राजवंश के पहले उल्लेखनीय राजा इक्ष्वाकु थे । सौर रेखा से अन्य ब्राह्मण गोत्र वटुला, शतामर्षण , कुत्सा, भद्रयान हैं। इनमें से कुत्सा और शतामर्षण भी हरिता गोत्र की तरह राजा मान्धाता के वंशज हैं और उनके प्रवरों के हिस्से के रूप में या तो मंधात्री या उनके पुत्र (अंबरीश / पुरुकुत्सा) हैं। पुराणों , हिंदू पौराणिक ग्रंथों की एक श्रृंखला, इस राजवंश की कहानी दस्तावेज़। हरिता इक्ष्वाकु से इक्कीस पीढ़ियों तक अलग हो गई थी। आज तक, कई क्षत्रिय सूर्यवंशी वंश से वंशज होने का दावा करते हैं, ताकि वे राजघराने के अपने दावों को प्रमाणित कर सकें।
        यह विष्णु पुराण में हिंदू परंपरा में दर्ज है :
    अम्बरीषस्य मंधातुस तनयस्य युवनस्वाह पुत्रो भुत तस्माद हरितो यतो नगिरासो हरिताः । "अंबरीश का पुत्र, मंधात्री का पुत्र युवनाश्व था , उससे हरिता उत्पन्न हुई, जिससे हरिता अंगिरास वंशज हुए।
        लिंग पुराण में  इस प्रकार दर्शाया गया है :
हरितो युवनस्वास्य हरिता यत आत्मजः एते ह्य अंगिराः पक्षे क्षत्रोपेट द्विजतायः । "युवानस्वा का पुत्र हरित था, जिसके हरिताश पुत्र थे"। "वे दो बार पैदा हुए पुरुषों के अंगिरस के पक्ष में थे, क्षत्रिय वंश के ब्राह्मण।"
       वायु पुराण में इस प्रकार दर्शाया गया है :
        "वे हरिताश / अंगिरस के पुत्र थे, क्षत्रिय जाति के दो बार पैदा हुए पुरुष (ब्राह्मण या ऋषि अंगिरस द्वारा उठाए गए हरिता के पुत्र थे।
       तदनुसार, लिंग पुराण और वायु पुराण दोनों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि हरिता गोत्र वाले ब्राह्मण इक्ष्वाकु वंश के हैं और अंगिरस के प्रशिक्षण और तपो शक्ति और भगवान आदि केशव के आशीर्वाद के कारण ब्राह्मण गुण प्राप्त हुए, और दो बार पैदा हुए। स्वामी रामानुज और उनके प्राथमिक शिष्य श्री कूरथज़्वान हरिता गोत्र के थे।

क्षत्रिय से ब्राह्मण का दर्जा मिला :-

श्रीपेरंबुदूर के स्थल पुराण (मंदिर की पवित्रता का क्षेत्रीय विवरण) के अनुसार , हरिता एक बार शिकार अभियान पर निकले थे, जब उन्होंने एक बाघ को गाय पर हमला करते हुए देखा। गाय को बचाने के लिए उसने बाघ को मार डाला, लेकिन गाय भी मारी गई। जब वह अपने कृत्य पर शोक व्यक्त कर रहा था, तब एक दिव्य आवाज ने उसे श्रीपेरंबदूर जाने, मंदिर के तालाब में स्नान करने और नारायण से क्षमा प्रार्थना करने के लिए कहा , जो उसे उसके पापों से मुक्त कर देंगे। राजा ने इस निर्देश का पालन किया, जिसके बाद नारायण उनके सामने प्रकट हुए और उन्हें उनके पापों से मुक्त कर दिया। ऐसा कहा जाता है कि देवता ने यह भी घोषणा की थी कि भले ही राजा इतने वर्षों तक क्षत्रिय रहे, उनके आशीर्वाद के कारण, वह और उनके वंशज अब ब्राह्मण का दर्जा प्राप्त करेंगे।

हरीता के ब्राह्मण बनने की कहानी :-

    यह स्थलपुराण श्रीपेरंपुदुर मंदिर के मुदल (प्रथम) तीर्थकर (पुजारी) द्वारा सुनाया गया था ।
      एक बार हरित नाम का एक महान राजा रहता था; वह राजा अंबरीश के पोते थे , जो श्री राम के पूर्वज हैं।
       एक बार वह एक घने जंगल से गुजर रहा था जहाँ उसे एक गाय की कराह सुनाई देती है। वह उस दिशा में जाता है जहां आवाज आ रही थी। वह देखता है कि एक बाघ ने गाय को पकड़ लिया है और वह गाय को मारने ही वाला था।
       चूंकि वह क्षत्रिय और राजा है, इसलिए उसे लगता है कि कमजोरों की रक्षा करना उसका कर्तव्य है, और बाघ को मारने में कोई पाप नहीं है। उसका लक्ष्य बाघ है। इस बीच, बाघ भी सोचता है कि उसे कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे राजा को भी कष्ट हो और वह गाय को मार डाले और राजा हरिथा बाघ को मार डाले।
       चूंकि उसने गो हत्या (पवित्र गाय की मृत्यु) को होते हुए देखा है, इसलिए राजा गो हाथी दोष (पाप) से प्रभावित होता है । वह चिंतित हो जाता है, जब अचानक वह एक असरेरी (दिव्य आवाज) सुनता है जो उसे सत्यव्रत क्षेत्र में जाने और अनंत सरसु में स्नान करने और भगवान आदि केशव की पूजा करने के लिए कहता है , जिससे उसके पाप गायब हो जाएंगे।
      राजा हरिता अयोध्या वापस जाते हैं और वशिष्ठ महर्षि से परामर्श करते हैं , जो उन्हें श्रीपेरंपुदुर महाट्यम के बारे में बताते हैं और बताते हैं कि कैसे भूत गण (जो शिव लोक में भगवान शिव की सेवा करते हैं) ने वहां अपने साप (शाप) से छुटकारा पा लिया, और इसके लिए मार्ग भी जगह। राजा हरिथा तब राज्य चलाने के लिए वैकल्पिक व्यवस्था करता है और श्रीपेरम्पुदुर (चेन्नई, तमिलनाडु के पास) के लिए आगे बढ़ता है ।
        वह अनंत सरसु में स्नान करता है और भगवान आदि केशव से प्रार्थना करता है ; थोड़ी देर बाद दयालु भगवान हरित महाराज के सामने प्रकट होते हैं और उन्हें सभी मंत्रों का निर्देश देते हैं जो दोष से छुटकारा पाने में मदद करेंगे । उनका यह भी कहना है कि इतने वर्षों तक वे क्षत्रिय थे, उनके आशीर्वाद से अब वे ब्राह्मण बन गए हैं, और अब से उनके वंशज भी ब्राह्मण होंगे (आज भी उनके वंशज हरिता गोत्र के ब्राह्मण के रूप में जाने जाते हैं)। भगवान उन्हें सभी मंत्रों का उपदेशम भी देते हैं । हरिथा महाराजा आदि केशव मंदिर का पुनर्निर्माण करते हैं, और एक शुभ दिन पर मंदिर का अभिषेक करते हैं।

चाणक्य की तरह एक पहुंचे हुए महर्षि:-

हारीत एक ऋषि थे जिनकी मान्यता अत्यन्त प्राचीन धर्मसूत्रकार के रूप में है। बौधायन धर्मसूत्र, आपस्तम्ब धर्मसूत्र और वासिष्ठ धर्मसूत्रों में हारीत को बार–बार उद्धत किया गया है। हारीत के सर्वाधिक उद्धरण आपस्तम्ब धर्मसूत्र में प्राप्त होते हैं। तन्त्रवार्तिक में हारीत का उल्लेख गौतम, वशिष्ठ, शंख और लिखित के साथ है। परवर्ती धर्मशास्त्रियों ने तो हारीत के उद्धरण बार-बार दिये हैं।
धर्मशास्त्रीय निबन्धों में उपलब्ध हारीत के वचनों से ज्ञात होता है कि उन्होंने धर्मसूत्रों में वर्णित प्रायः सभी विषयों पर अपने विचार प्रकट किए थे। प्रायश्चित (दण्ड) के विषय में हारीत ऋषि के विचार देखिये-

यथावयो यथाकालं यथाप्राणञ्च ब्राह्मणे।
प्रायश्चितं प्रदातव्यं ब्राह्मणैर्धर्मपाठकैः।
येन शुद्धिमवाप्नोति न च प्राणैर्वियुज्यते।
आर्तिं वा महतीं याति न चैतद् व्रतमादिशेत् ॥

अर्थ - धर्मशास्त्रों के ज्ञाता ब्राह्मणों द्वारा पापी को उसकी आयु, समय और शारीरिक क्षमता को ध्यान में रखते हुए दण्ड (प्राय्श्चित) देना चाहिए। दण्ड ऐसा हो कि वह पापी का सुधार (शुद्धि) करे, ऐसा नहीं जो उसके प्राण ही ले ले। पापी या अपराधी के प्राणों को संकट में डालने वाला दण्ड देना उचित नहीं है।

गुहिल वंशी राजा कालभोज बप्पा रावल का गुरु थे हरीत :-

बप्पा रावल (या कालभोज) (शासन: 713-810) मेवाड़ राज्य में क्षत्रिय कुल के गुहिल राजवंश के संस्थापक और एक महापराक्रमी शासक थे। बप्पारावल का जन्म मेवाड़ के महाराजा गुहिल की मृत्यु के 191 वर्ष पश्चात 712 ई. में ईडर में हुआ। उनके पिता ईडर के शाषक महेंद्र द्वितीय थे।बप्पा रावल मेवाड़ के संस्थापक थे कुछ जगहों पर इनका नाम कालाभोज है ( गुहिल वंश संस्थापक- (राजा गुहादित्य )| इसी राजवंश में से सिसोदिया वंश का निकास माना जाता है, जिनमें आगे चल कर महान राजा राणा कुम्भा, राणा सांगा, महाराणा प्रताप हुए। सिसौदिया वंशी राजा कालभोज का ही दूसरा नाम बापा मानने में कुछ ऐतिहासिक असंगति नहीं होती। इसके प्रजासरंक्षण, देशरक्षण आदि कामों से प्रभावित होकर ही संभवत: जनता ने इसे बापा पदवी से विभूषित किया था। महाराणा कुंभा के समय में रचित एकलिंग महात्म्य में किसी प्राचीन ग्रंथ या प्रशस्ति के आधार पर बापा का समय संवत् 810 (सन् 753) ई. दिया है। दूसरे एकलिंग माहात्म्य से सिद्ध है कि यह बापा के राज्य त्याग का समय था। बप्पा रावल को रावल की उपाधि भील सरदारों ने दी थी । जब बप्पा रावल 3 वर्ष के थे तब वे और उनकी माता जी असहाय महसूस कर रहे थे , तब भील समुदाय ने उनदोनों की मदद कर सुरक्षित रखा,बप्पा रावल का बचपन भील जनजाति के बीच रहकर बिता और भील समुदाय ने अरबों के खिलाफ युद्ध में बप्पा रावल का सहयोग किया। यदि बप्पा रॉवल जी का राज्यकाल 30 साल का रखा जाए तो वह सन् 723 के लगभग गद्दी पर बैठे होगे। उससे पहले भी उसके वंश के कुछ प्रतापी राजा मेवाड़ में हो चुके थे, किंतु बापा का व्यक्तित्व उन सबसे बढ़कर था। चित्तौड़ का मजबूत दुर्ग उस समय तक मोरी वंश के राजाओं के हाथ में था।

बप्पा रावल और हारित ऋषि की कहानी

बप्पा रावल नागदा में उन ब्राह्मणों की गाय चराता था, उन गायों में एक गाय सुबह सबसे ज्यादा दूध देती थी व शाम को दूध नहीं देती थी तब ब्राह्मणों को बप्पा पर संदेह हुआ, तब बप्पा ने जंगल में गाय की वास्तविकता जानी चाहिए तो देखा कि वह गाय जंगल में एक गुफा में जाकर बेल पत्तों के ढेर पर अपने दूध की धार छोड़ रही थी, बप्पा ने पत्तों को हटाया तो वहां एक शिवलिंग था वही शिवलिंग के पास ही समाधि लगाए हुए एक योगी थे। बप्पा ने उस योगी हारित ऋषि की सेवा करनी प्रारंभ कर दी इस प्रकार उसे एकलिंग जी के दर्शन हुए वह उसको हारित ऋषि से आशीर्वाद प्राप्त हुआ।
         मुहणोत नैणसी के अनुसार – बप्पा अपने बचपन में हारित ऋषि की गाये चराता था। इस सेवा से प्रसन्न होकर हारित ऋषि ने राष्ट्रसेनी देवी की आराधना से बप्पा के लिए राज्य मांगा देवी ने ऐसा हो का वरदान दिया इसी तरह हारित ऋषि ने भगवान महादेव का ध्यान किया जिससे एकलिंगी का लिंक प्रकट हुआ हारित ने महादेव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की , जिससे प्रसन्न होकर हारित को वरदान मांगने को कहा। हारित ने महादेव से बप्पा के लिए मेवाड़ का राज्य मांगा।
      जब हरित ऋषि स्वर्ग को जा रहे थे तो उन्होंने बप्पा रावल को बुलाया लेकिन बप्पा रावल ने आने में देर कर दी बप्पा उङते हुए विमान के निकट पहुंचने के लिए 10 हाथ शरीर में बढ़ गए। हारित ने बप्पा को मेवाड़ का राज्य तो वरदान में दे ही दिया परंतु यह बप्पा को हमेशा के लिए अमर करना चाहते थे इसलिए उसने अपने मुंह का पान बप्पा को देना चाहा लेकिन मुंह में ना गिरकर बप्पा के पैरों में जा गिरा हारित ऋषि ने कहा कि यह पान तुम्हारे मुंह में गिरता तो तुम सदैव के लिए अमर हो जाते लेकिन फिर भी यह पान तुम्हारे पैरों में पड़ा है तो तुम्हारा अधिकार से मेवाड़ राज्य कभी नहीं हटेगा हारित ऋषि ने बप्पा को एक स्थान बताया जहां उस खजाना 15 करोड़ मुहरें मिलेगी और उस खजाना की सहायता से सैनिक व्यवस्था करके मेवाड़ राज्य विजीत कर लेने का आशीर्वाद दिया
       परंपरा से यह प्रसिद्ध है कि हारीत ऋषि की कृपा से बापा ने मानमोरी को मारकर इस दुर्ग को हस्तगत किया। टॉड को यहीं राजा मानका वि. सं. 770 (सन् 713 ई.) का एक शिलालेख मिला था जो सिद्ध करता है कि बापा और मानमोरी के समय में विशेष अंतर नहीं है। चित्तौड़ पर अधिकार करना कोई आसान काम न था। नागभट प्रथम ने अरबों को पश्चिमी राजस्थान और मालवे से मार भगाया। बापा ने यही कार्य मेवाड़ और उसके आसपास के प्रदेश के लिए किया। मौर्य (मोरी) शायद इसी अरब आक्रमण से जर्जर हो गए हों। बापा ने वह कार्य किया जो मोरी करने में असमर्थ थे और साथ ही चित्तौड़ पर भी अधिकार कर लिया। बापा रावल के मुस्लिम देशों पर विजय की अनेक दंतकथाएँ अरबों की पराजय की इस सच्ची घटना से उत्पन्न हुई होंगी।
         विश्व प्रसिद्ध महर्षि हरित राशि बप्पा रावल के गुरु थे। वे लकुलीश सम्प्रदाय के आचार्य और श्री एकलिंगनाथ जी के महान भक्त थे। बप्पा रावल को हारीत ऋषि के द्वारा महादेव जी के दर्शन होने की बात मशहूर है।एकलिंगजी का मन्दिर - उदयपुर के उत्तर में कैलाशपुरी में स्थित इस मन्दिर का निर्माण 734 ई. में बप्पा रावल ने करवाया | इसके निकट हारीत ऋषि का आश्रम है।

गोत्र :-
हरिता सगोत्र के ब्राह्मण अपने वंश को उसी राजकुमार से जोड़ते हैं। जबकि अधिकांश ब्राह्मण प्राचीन ऋषियों के वंशज होने का दावा करते हैं, हरिता सगोत्र के लोग ब्राह्मण अंगिरसा द्वारा प्रशिक्षित क्षत्रियों के वंशज होने का दावा करते हैं और इसलिए उनमें कुछ क्षत्रिय और कुछ ब्राह्मण गुण हैं। इसने लिंग पुराण के अनुसार , "क्षत्रियों के गुणों वाले ब्राह्मणों" का निर्माण किया। आज तक, कई राजघराने अपने राजघराने के दावे को साबित करने के लिए सूर्यवंश वंश के इस राजा के वंशज होने का दावा करते हैं। वे हरिता से वंश का दावा करते हैं, और विष्णु पुराण , वायु पुराण , लिंग पुराण जैसे हिंदू ग्रंथों से वैधता की तलाश करते हैं ।
        हरीता गौत्र (उपनाम) अरोरा खत्री समुदाय से भी जुड़ जाता हैं। महान ग्रंथों के अनुसार, हरीता (खत्री) सूर्यवंशी हैं और भगवान राम के वंशज भी हैं। हरीता क्षत्रिय वर्ग में आते हैं। अधिकांश हरीता गोत्र के लोग दोहरे विश्वास वाले हिंदू हैं। वे हिंदू और सिख दोनों धर्मों को मानते हैं। वे बहुत पढ़े-लिखे और अच्छे लोग हैं। वे भारत और दुनिया में एक प्रभावशाली समुदाय बनने में भी कामयाब रहे है।
       आज हरीता भारत के सभी क्षेत्रों में रहते हैं, लेकिन वे ज्यादातर पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में केंद्रित हैं। वे भारत और दुनिया में एक प्रभावशाली समुदाय बनने में कामयाब रहे है। हरीता लोग भले ही आधुनिक हों, लेकिन उनकी परंपराओं और मूल्यों के साथ उनका बहुत गहरा संबंध है। हरीता लोगों को अपनी भारतीय विरासत पर गर्व है और उन्होंने भारतीय संस्कृति में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। आज हरीता प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, वित्त, व्यवसाय, इंजीनियरिंग, शिक्षा, निर्माण, मनोरंजन और सशस्त्र बल आदि कई क्षेत्रों में अपना ध्वज फहरा रहे हैं।

पंजाबी संस्कृति की झलक :-

हरीता गोत्र के लोगों में मजबूत पंजाबी संस्कृति पाई जाती है। अद्वितीय, असाधारण, दुनिया भर में लोकप्रिय, पंजाबी संस्कृति वास्तव में जबरदस्त है। रंगीन कपड़े, ढोल, एवं भगड़ा अत्यंत ऊर्जावान और जीवन से भरपूर है। वे स्वादिष्ट भोजन, संगीत, नृत्य और आनंद के साथ त्योहारों को बड़े उत्साह के साथ मनाते है। पंजाबी खाना जायके और मसालों से भरपूर होता है। रोटी पर घी ज्यादा होना, खाने को और अधिक स्वादिष्ट बना देता है। लस्सी को स्वागत पेय के रूप में भी जाना जाता है। मक्के दी रोटी और सरसों दा साग पंजाबी संस्कृति का एक और पारंपरिक व्यंजन है। छोले भटूरे, राजमा चावल, पनीर टिक्का, अमृतसरी कुलचे, गाजर का हलवा, और भी कई तरह के खाने के व्यंजन हैं।




लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।)