Wednesday, March 30, 2022

राजा हरिश्चंद्र के कमजोर वंशज(राम के पूर्वज 16) डा. राधे श्याम द्विवेदी

राजा हरिश्चंद्र अयोध्या के प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा थे जो सत्यव्रत के पुत्र थे। ये अपनी सत्यनिष्ठा के लिए अद्वितीय हैं और इसके लिए इन्हें उनकी रानी तारा (शैव्या) अनेक कष्ट सहने पड़े। रोहिताश्व राजा हरिश्चंद्र के पुत्र थे। इनके एक प्रेमिका रही जिसके लिए उन्होंने अयोध्या से बहुत दूर रोहतास में एक नगर बसाया था।अपने जीवनकाल में रोहिताश्व ने एक आदिवासी कन्या से विवाह कर लिया था। फिर इसी गढ़ में उनके वंशजों ने सदियों तक शासन किया। पर मुस्लिम आक्रमणों के बाद उनके हाथ से यह गढ़ निकल गया। आदिवासी कन्या से हुए रोहिताश्व के वंशज आज भी जीवित हैं पर अब इस गढ़ पर उनका राज नहीं है। वे अब जंगलों की खाक छान रहे हैं।
         रोहित (रोहिताश्व) का पुत्र हरित था।हरित से चम्प हुआ। उसी ने चम्पापुरी बसायी। चम्प से सुदेव और उसका पुत्र विजय हुआ। विजय का पुत्र भरूरक था। भरूरुक का पुत्र वृक था। वृक का पुत्र बाहुक था।ये सब निहायत कमजोर शासक थे। इनकी सूची तो मिलती है पर ज्यादा गतिविधियां नही मिलती है।
          शत्रुओं ने बाहुक से राज्य छीन लिया, तब वह अपनी पत्नी के साथ वन में चला गया। वन में जाने पर बुढ़ापे के कारण जब बाहुक की मृत्यु हो गयी, तब उसकी पत्नी भी उसके साथ सती होने को उद्यत हुई। परन्तु महर्षि और्व को यह मालूम था कि इसे गर्भ है। इसलिये उन्होंने उसे सती होने से रोक दिया। जब उसकी सौतों को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने उसे भोजन के साथ गर (विष) दे दिया। परन्तु गर्भ पर उस विष का कोई प्रभाव नहीं पड़ा; बल्कि उस विष को लिये हुए ही एक बालक का जन्म हुआ, जो गर के साथ पैदा होने के कारण ‘सगर’ कहलाया। सगर बड़े यशस्वी राजा हुए।

एपेक्स डायग्नोस्टिक कैली रोड बस्ती

      बस्ती की स्वास्थ्य देखभाल में भाग लेने वाले एक चिकित्सा प्रतिष्ठान के रूप में, एपेक्स डायग्नोस्टिक्स निदान के क्षेत्र में अपने निवासियों को संबंधित सहायता प्रदान करता है।
कोई भी प्रमुख उपचार दिए जाने से पहले, एक विश्वसनीय निदान की आवश्यकता होती है। एपेक्स डायग्नोस्टिक्स आपके शरीर की स्थिति को सत्यापित करने में आपकी मदद कर सकता है चाहे वह नियमित निरीक्षण के लिए हो या आपकी बीमारी के महत्वपूर्ण विवरण का पता लगाने के लिए। फिर, लक्षणों और समग्र इतिहास के आधार पर, विशेष नैदानिक ​​प्रक्रियाएं आवश्यक हो सकती हैं। उदाहरण के लिए, शरीर की आंतरिक प्रक्रियाओं के बेहतर विश्लेषण के लिए प्रयोगशाला निदान की आवश्यकता होती है जो अन्यथा आंखों से छिपी होती हैं। मोबाइल नंबर +919005199098पर कॉल करके आप अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
आप निम्न स्थान पर इस स्थान पर स्वम विजिट कर सकते हैं-
एपेक्स डायग्नोस्टिक कैली रोड बस्ती। मोबाइल नंबर +919005199098
जामडीह,  कैली रोड बस्ती।
डा.सौरभ द्विवेदी ऑर्थोपेडिक सर्जन :एक परिचय :-
डा. सौरभ द्विवेदी ऑर्थोपेडिक ट्रामा और ज्वाइंट रिप्लेसमेंट के सर्जन हैं। उन्होने एम .एस.ऑर्थोपेडिक एस.एन. मेडिकल कॉलेज आगरा से किया है। वह वर्तमान में ओपेक कैली हॉस्पिटल ए.एस.एम.सी. बस्ती में ऑर्थोपेडिक के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। 
डा.सौरभ द्विवेदी बस्ती मंडल के सबसे युवा ऑर्थोपेडिक सर्जन हैं जो जटिल से जटिल केसों का निदान करके अपनी अलग पहचान बनाए हुए हैं। नोवा हॉस्पिटल और ट्रामा सेंटर में कम से कम पैसे में उत्तम से उत्तम सेवाओं के लिए डा. सौरभ द्विवेदी जाने पहचाने जाते हैं।
डा.सौरभ द्विवेदी ऑर्थोपेडिक सर्जन के विचार :
"डा.तनु मिश्रा M D रेडियोलॉजी आरएमएल अस्पताल लखनऊ,जो हमारी धर्म पत्नी और बस्ती की प्रथम महिला M.D. रेडियोलॉजी हैं के द्वारा बस्ती का प्रथम 5D अल्ट्रासाउंड सेंटर Apex Diagnostics/ एपेक्स डायग्नोस्टिक कैली रोड बस्ती मे खुला है। डा. तनु मिश्रा एक मेधावी युवा रेडियोलॉजिस्ट है जो एमबीबीएस और एमडी परीक्षाओं में सर्वाधिक अंक लाकर महामहिम राज्यपाल उत्तर प्रदेश द्वारा गोल्ड मेडल अर्जित कर चुकी हैं। वह अपने रेडियो डाइग्नेसिस परीक्षण में बहुत छोटी और जटिल बिमारियों के निदान में अपना परामर्श प्रदान करती हैं।
अन्य सुविधा -
1) 5D ,4D,3D अल्ट्रासाउंड (सभी प्रकार के अल्ट्रासाउंड )
 2) मल्टी स्लाइस एडवांस्ड सीटी स्कैन (सभी प्रकार के सीटी स्कैन)
3) पैथोलॉजी
4)ECG,EEG/ इसीजी ईईजी
5) Intervention Procedure /इंटरवेंशन प्रोसीजर
नोट :-
सभी जांचे खुद डा.तनु मिश्रा M D रेडियोलॉजी द्वारा अपनेे सहयोगियों के साथ मिलकर करेंगी। 
क्या है ये 5डी अल्ट्रासाउंड-
इससे गर्भस्थ शिशु की दिल की धमनियों, रक्त संचार के साथ सभी अंगों को देख सकते हैं। यह गर्भस्थ शिशु की जन्मजात विकृति की जांच और इलाज में कारगर है। 5डी अल्ट्रासाउंड की मदद से गर्भस्थ शिशु के दिल की धमनियों और रक्त के संचार को देख सकते हैं। इसी तरह से गर्भस्थ शिशु के दिमाग से जुड़ी समस्याओं का पता लगाया जा सकता है। ब्रेन स्ट्रॉक की आशंका, सिर में पानी भरने का पता चल सकता है। नाभि एवं पेट की सतह में विकार, गुर्दे, हाथ-पैरों की विषमताओं को देखा जा सकता है!


Tuesday, March 29, 2022

चरैवेति चरैवेति"- चलते रहो, चलते रहो," एक प्रेरक अंतर प्रसंग डा. राधे श्याम द्विवेदी

"चरैवेति चरैवेति चरैवेति, शक्त शक्ता: अत्येति।
अंतर्ज्योति अंतरेण न,अमित विक्रम अभिजायते।।
अतीव सुंदर अभ्यसि, अम्भुरूहं अति शोभते।
शुचौः शान्त आनंद अविरल,आत्मयोगात् प्रवाहिते।।"
( अर्थ - चलते रहो, विचरण करो, बढ़ते रहो। यही मजबूत और सक्षम बनने का मंत्र है। आंतरिक लक्ष्य एवं प्रेरणा के बिना असीमित बल प्रकट नहीं होता है। जैसे कमल का फूल पानी पर खिला हुआ अत्यंत सुंदर दिखता है। उसी प्रकार पवित्र, शांत एवं सतत् आनंद आंतरिक शक्ति के जल में ही अविरल रूप से प्रवाहित हो सकता है।)
           इन्द्र द्वारा दिए गए “चरैवेति” के उपदेश में उद्यमशीलता का संदेश है। "चरैवेति चरैवेति” का अर्थ है, चलते रहो, चलते रहो, ज्ञान प्राप्त होगा या अनुभव से ही सही ज्ञान प्राप्त होता है।
“चरैवेति” श्लोकों की व्याख्या ऐतरेय ब्राह्मण ग्रंथ के सायण-भाष्य पर आधारित है । एतरेय ब्राह्मण ऋग्वेद की ऋचाओं पर आधारित वैदिक कर्मकांडों से संबंधित ग्रंथ है ।
इस ग्रंथ के पांच श्लोक बहुत ही उत्कृष्ट हैं।इसकी जानकारी हर सनातनी को होना ही चाहिए।प्रसंग तब का है जब बहुत मिन्नतें करने पर राजा हरिशचंद को रोहित नामक पुत्र हुआ जिसे राजा बरूण देव को देने के लिए वचन बद्ध थे पर मोह और ममता बस उसे जंगल में छिपवा दिया था।ये महत्त्व पूर्ण श्लोक निम्न हैं।
नानाश्रान्ताय श्रीरस्तीति रोहित शुश्रुम ।
पापो नृषद्वरो जन इन्द्र इच्चरतः सखा चरैवेति ॥1।।
अर्थ – हे रोहित, परिश्रम से थकने वाले व्यक्ति को भांति-भांति की श्री यानी वैभव/संपदा प्राप्त होती हैं ऐसा हमने ज्ञानी जनों से सुना है । एक ही स्थान पर निष्क्रिय बैठे रहने वाले विद्वान व्यक्ति तक को लोग तुच्छ मानते हैं । विचरण में लगे जन का इन्द्र यानी ईश्वर साथी होता है । अतः तुम चलते ही रहो (विचरण ही करते रहो, चर एव) ।
पुष्पिण्यौ चरतो जङ्घे भूष्णुरात्मा फलग्रहिः ।
शेरेऽस्य सर्वे पाप्मानः श्रमेण प्रपथे हतश्चरैवेति ॥2।।
अर्थ – निरंतर चलने वाले की जंघाएं पुष्पित होती हैं, अर्थात उस वृक्ष की शाखाओं-उपशाखाओं की भांति होती है जिन पर सुगंधित एवं फलीभूत होने वाले फूल लगते हैं, और जिसका शरीर बढ़ते हुए वृक्ष की भांति फलों से पूरित होता है, अर्थात वह भी फलग्रहण करता है । प्रकृष्ट मार्गों पर श्रम के साथ चलते हुए उसके समस्त पाप नष्ट होकर सो जाते हैं, अर्थात निष्प्रभावी हो जाते हैं।अतः तुम चलते ही रहो (विचरण ही करते रहो, चर एव)।
आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः ।
शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगश्चरैवेति ॥3।।
अर्थ – जो मनुष्य बैठा रहता है, उसका सौभाग्य (भग) भी रुका रहता है । जो उठ खड़ा होता है उसका सौभाग्य भी उसी प्रकार उठता है । जो पड़ा या लेटा रहता है उसका सौभाग्य भी सो जाता है । और जो विचरण में लगता है उसका सौभाग्य भी चलने लगता है । इसलिए तुम विचरण ही करते रहो (चर एव) ।
कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठस्त्रेता भवति कृतं संपाद्यते चरंश्चरैवेति ॥ 4।।
अर्थ – शयन की अवस्था कलियुग के समान है, जगकर सचेत होना द्वापर के समान है, उठ खड़ा होना त्रेता सदृश है और उद्यम में संलग्न एवं चलनशील होना कृतयुग (सत्ययुग) के समान है । अतः तुम चलते ही रहो (चर एव) ।
         इस श्लोक में मनुष्य की चार अवस्थाओं की तुलना चार युगों से क्रमशः की गई है । ये अवस्थाएं हैं (1) मनुष्य के निद्रामग्न एवं निष्क्रिय होने की अवस्था, (2) जागृति किंतु आलस्य में पड़े रहने की अवस्था, (3) आलस्य त्याग उठ खड़ा होकर कार्य के लिए उद्यत होने की अवस्था, और (4) कार्य- संपादन में लगते हुए चलायमान होना । 
चरन् वै मधु विन्दति चरन् स्वादुमुदुम्बरम् ।
सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरंश्चरैवेति ॥ 5 ।।
अर्थ – इतस्ततः भ्रमण करते हुए मनुष्य को मधु (शहद) प्राप्त होता है, उसे उदुम्बर (गूलर, अंजीर) सरीखे सुस्वादु फल मिलते हैं । सूर्य की श्रेष्ठता को तो देखो जो विचरणरत रहते हुए आलस्य नहीं करता है । उसी प्रकार तुम भी चलते रहो (चर एव) ।

Monday, March 28, 2022

सत्यवादी हरिशचंद की कहानी ( राम के पूर्वज 14) डा. राधे श्याम द्विवेदी

राजा हरिश्चंद्र अयोध्या के प्रसिद्ध इक्ष्वाकु सूर्यवंशी क्षत्रिय राजा थे जो त्रिशंकु के पुत्र थे। ये अपनी सत्यनिष्ठा के लिए अद्वितीय थे और इसके लिए इन्हें अनेक कष्ट सहने पड़े। अयोध्या के राजा हरीशचंद्र बहुत ही सत्यवादी और धर्मपरायण राजा थे। उनकी पत्नी का नाम तारामती था। उन्होंने गुरु वशिष्ठ को अपना राज गुरु बनाया और सत्य न्याय के साथ राज्य किया। उन्होंने 99 यज्ञ किए और सौवे यज्ञ की कामना की। तभी देवता और ऋषियों ने इनकी परीक्षा लेने की योजना बनाई और इसके कर्ण धार ऋषि विश्वामित्र को बनाया। ऋषि विश्वामित्र द्वारा राजा हरीशचंद्र के धर्म की परीक्षा लेने के लिए स्वप्न में उनसे दान में उनका संपूर्ण राज्य मांग लिया गया था।
राजा हरीशचंद्र भी अपने वचनों के पालन के लिए विश्वामित्र को संपूर्ण राज्य सौंप दिया था। दान में राज्य मांगने के बाद भी विश्वामित्र ने उनका पीछा नहीं छोड़ा । उन्होंने स्वपन में अपने राज्य को विश्वामित्र को दान कर दिया! सुबह दरबार में सच में ऋषि खड़े थे और दान के बाद की दक्षिणा मांग रहे थे!
 राज्य पहले ही दान कर चुके थे ।
         महाराजा हरिश्चन्द्र सोचने लगे. विश्वामित्र की बात में सच्चाई थी किन्तु उन्हें दक्षिणा देना भी आवश्यक था. वे यह सोच ही रहे थे कि विश्वामित्र बोल पड़े- तुम हमारा समय व्यर्थ ही नष्ट कर रहे हो. तुम्हे यदि दक्षिणा नहीं देनी है तो साफ – साफ कह दो, मैं दक्षिणा नहीं दे सकता. दान देकर दक्षिणा देने में आनाकानी करते हो. मैं तुम्हे शाप दे दूंगा.
       हरिश्चन्द्र विश्वामित्र की बातें सुनकर दुखी हो गये. वे अधर्म से डरते थे. वे बोले- भगवन ! मैं ऐसा कैसे कर सकता हूँ ? आप जैसे महर्षि को दान देकर दक्षिणा कैसे रोकी जा सकती है ? राजमहल कोष सब आपका हो गया. आप मुझे थोडा समय दीजिये ताकि मैं आपकी दक्षिणा का प्रबंध कर सकूँ.
        विश्वामित्र ने समय तो दे दिया किन्तु चेतावनी भी दी कि यदि समय पर दक्षिणा न मिली तो वे शाप देकर भस्म कर देंगे. राजा को भस्म होने का भय तो नहीं था किन्तु समय से दक्षिणा न चुका पाने पर अपने अपयश का भय अवश्य था.उनके पास अब एक मात्र उपाय था कि वे स्वयं को बेचकर दक्षिणा चुका दे. उन दिनों मनुष्यों को पशुओ की भांति बेचा – ख़रीदा जाता था. राजा ने स्वयं को काशी में बेचने का निश्चय किया. वे अपना राज्य विश्वामित्र को सौंप कर अपनी पत्नी व पुत्र को लेकर काशी चले आये.
       काशी में राजा हरिश्चन्द्र ने कई स्थलों पर स्वयं को बेचने का प्रयत्न किया पर सफलता न मिली. सायं काल तक राजा को शमशान घाट के मालिक डोम ने ख़रीदा. राजा अपनी रानी व पुत्र से अलग हो गये. रानी तारामती को एक साहूकार के यहाँ घरेलु काम – काज करने को मिला और राजा को मरघट की रखवाली का काम. इस प्रकार राजा ने प्राप्त धन से विश्वामित्र की दक्षिणा चुका दी.
       तारामती जो पहले महारानी थी, जिसके पास सैकड़ो दास दासियाँ थी, अब बर्तन माजने और चौका लगाने का कम करने लगी. स्वर्ण सिंहासन पर बैठने वाले राजा हरिश्चन्द्र शमशान पर पहरा देने लगे. जो लोग शव जलाने मरघट पर आते थे, उनसे कर वसूलने का कार्य राजा को दिया गया. अपने मालिक की डांट – फटकार सहते हुए भी नियम व ईमानदारी से अपना कार्य करते रहे. उन्होंने अपने कार्य में कभी भी कोई त्रुटी नहीं होने दी.
        इधर रानी के साथ एक ह्रदय विदारक घटना घटी. उनके साथ पुत्र रोहिताश्व भी रहता था. एक दिन खेलते – खेलते उसे सांप ने डंस लिया. उसकी मृत्यु हो गयी. वह यह भी नहीं जानती थी कि उसके पति कहाँ रहते है. पहले से ही विपत्ति झेलती हुई तारामती पर यह दुःख वज्र की भांति आ गिरा. उनके पास कफ़न तक के लिए पैसे नहीं थे. वह रोटी – बिलखती किसी प्रकार अपने पुत्र के शव को गोद में उठा कर अंतिम संस्कार के लिए शमशान ले गयी |
        रात का समय था. सारा श्मशान सन्नाटे में डूबा था. एक दो शव जल रहे थे. इसी समय पुत्र का शव लिए रानी भी शमशान पर पहुंची. हरिश्चन्द्र ने तारामती से श्मशान का कर माँगा. उनके अनुनय – विनय करने पर तथा उनकी बातो से वे रानी तथा अपने पुत्र को पहचान गये, किन्तु उन्होंने नियमो में ढील नहीं दी. उन्होंने अपने मालिक की आज्ञा के विरुद्ध कुछ भी नहीं किया.
महाराजा हरिश्चन्द्र और तारामती
उन्होंने तारामती से कहा- शमशान का कर तो तुम्हे देना ही होगा. उससे कोई मुक्त नहीं हो सकता. अगर मैं किसी को छोड़ दूँ तो यह अपने मालिक के प्रति विश्वासघात होगा.
उन्होंने तारामती से कहा- अगर तुम्हारे पास और कुछ नहीं है तो अपनी साड़ी का आधा भाग फाड़ कर दे दो, मैं उसे ही कर में ले लूँगा. तारामती विवश थी. उसने ज्यो ही साड़ी को फाड़ना आरम्भ किया, आकाश में गंभीर गर्जना हुई. विश्वामित्र प्रकट हो गये. उन्होंने रोहिताश्व को भी जीवित कर दिया.
विश्वामित्र ने हरिश्चन्द्र को आशीर्वाद देते हुए कहा- तुम्हारी परीक्षा हो रही थी कि तुम किस सीमा तक सत्य एवं धर्म का पालन कर सकते हो. यह कहते हुए विश्वामित्र ने उन्हें उनका राज्य ज्यो का त्यों लौटा दिया.
        महाराज हरिश्चन्द्र ने स्वयं को बेचकर भी सत्यव्रत का पालन किया. यह सत्य एवं धर्म के पालन का एक बेमिसाल उदाहरण है. आज भी महाराजा हरिश्चन्द्र का नाम श्रद्धा और आदर के साथ लिया जाता है.
       राजा हरीशचंद्र ने अपनी पत्नी, बच्चों सहित स्वयं को बेचने का निश्चय किया और वे काशी चले गए, जहां पत्नी व बच्चों को एक ब्राह्मण को बेचा व स्वयं को चांडाल के यहां बेचकर मुनि की दक्षिणा पूरी की। राजा हरिश्चन्द्र ने सत्य के मार्ग पर चलने के लिये अपनी पत्नी और पुत्र के साथ खुद को बेच दिया था। कहा जाता है- 
       चन्द्र टरै सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार, 
      पै दृढ श्री हरिश्चन्द्र का टरै न सत्य विचार।
      राजा हरिश्चंद्र की पत्नी का नाम तारा था और पुत्र का नाम रोहिताश था। इन्होंने अपने दानी स्वभाव के कारण महर्षि विश्वामित्र जी को अपने सम्पूर्ण राज्य को दान कर दिया था, लेकिन दान के बाद की दक्षिणा के लिये साठ भर सोने में खुद तीनो प्राणी बिके थे और अपनी मर्यादा को निभाया था।
        इसी दौरान हरीशचंद्र श्मशान में कर वसूली का काम करने लगे थे। इसी बीच पुत्र रोहित की सर्पदंश से मौत हो जाती है। पत्नी श्मशान पहुंचती है, जहां कर चुकाने के लिए उसके पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं रहती। तारा अपने पुत्र को शमशान में अन्तिम क्रिया के लिये ले गयी। वहाँ पर राजा खुद एक डोम के यहाँ नौकरी कर रहे थे और शमशान का कर लेकर उस डोम को देते थे। उन्होने रानी को भी कर के लिये आदेश दिया, तभी रानी तारा ने अपनी साडी को फाड़कर कर चुकाना चाहा, उसी समय आकाशवाणी हुयी और राजा की ली जाने वाली दान वाली परीक्षा तथा कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदारी की जीत बतायी गयीं। इन सब कष्टों और परीक्षाओं के पीछे शनिदेव का प्रकोप माना जाता है।
       हरीशचंद्र अपने धर्म पालन करते हुए कर की मांग करते हैं। इस विषम परिस्थिति में भी राजा का धर्म-पथ नहीं डगमगाया। विश्वामित्र अपनी अंतिम चाल चलते हुए हरीशचंद्र की पत्नी को डायन का आरोप लगाकर उसे मरवाने के लिए हरीशचंद्र को काम सौंपते हैं।
        इस पर हरीशचंद्र आंखों पर पट्टी बांधकर जैसे ही वार करते हैं, स्वयं सत्यदेव प्रकट होकर उसे बचाते हैं। वहीं विश्वामित्र भी हरीशचंद्र के सत्य पालन धर्म से प्रसन्न होकर सारा साम्राज्य वापस कर देते हैं। हरीशचंद्र के शासन में जनता सभी प्रकार से सुखी और शांतिपूर्ण थी। 
       ये बहुत दिनों तक पुत्रहीन रहे पर अंत में अपने कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ के उपदेश से इन्होंने वरुणदेव की उपासना की तो इस शर्त पर पुत्र जन्मा कि उसे राजा हरिश्चंद्र यज्ञ में बलि दे दें। पुत्र का नाम रोहिताश्व रखा गया और जब राजा ने वरुण के कई बार आने पर भी अपनी प्रतिज्ञा पूरी न की तो उन्होंने राजा हरिश्चंद्र को जलोदर रोग होने का श्राप दे दिया।
      रोग से छुटकारा पाने और वरुणदेव को फिर प्रसन्न करने के लिए राजा महर्षि वशिष्ठ जी के पास पहुँचे। इधर इंद्र देव ने रोहिताश्व को वन में भगा दिया। राजा ने महर्षि वशिष्ठ जी की सम्मति से अजीगर्त नामक एक दरिद्र ब्राह्मण के बालक शुन:शेप को खरीदकर यज्ञ की तैयारी की। परंतु बलि देने के समय शमिता ने कहा कि मैं पशु की बलि देता हूँ, मनुष्य की नहीं। जब शमिता चला गया तो महर्षि विश्वामित्र ने आकर शुन:शेप को एक मंत्र बतलाया और उसे जपने के लिए कहा। इस मंत्र का जप कने पर वरुणदेव स्वयं प्रकट हुए और बोले - हरिश्चंद्र, तुम्हारा यज्ञ पूरा हो गया। इस ब्राह्मण कुमार को छोड़ दो। तुम्हें मैं जलोदर से भी मुक्त करता हूँ।
         यज्ञ की समाप्ति सुनकर रोहिताश भी वन से लौट आया और शुन:शेप महर्षि विश्वामित्र का पुत्र बन गया। महर्षि विश्वामित्र के कोप से हरिश्चंद्र तथा उनकी रानी शैव्या को अनेक कष्ट उठाने पड़े। उन्हें काशी जाकर श्वपच के हाथ बिकना पड़ा, पर अंत में रोहिताश की असमय मृत्यु से देवगण द्रवित होकर पुष्पवर्षा करते हैं और राजकुमार जीवित हो उठता है। महर्षि विश्वामित्र के कहने पर अपना सब कुछ दान देने के पश्चात दक्षिणा देने हेतु पहले अपने पत्नी को पांच सौ स्वर्ण मुद्रा व पुत्र रोहिताश को सौ स्वर्ण मुद्रा मे बेचने के पश्चात स्वयं को भी पांच सौ स्वर्ण मुद्रा में बेच दिया था। तब ग्यारह सौ स्वर्ण मुद्रा एकत्रित किए थे।
       अंत में भगवान शिव ब्रह्मा इन्द्र और सभी ऋषियों के दर्शन किए और शिव प्रेरणा से नारायण दर्शन हेतु अपने पुत्र रोहित को राज्य भार देकर तपस्या के लिए चले गए। नारायण ने उनको दर्शन देकर अट्ठारहवें मन्वन्तर में इन्द्र के पद का वरदान दिया।

Sunday, March 27, 2022

राजा सत्यव्रत "त्रिशंकु" की कहानी ( राम के पूर्वज 13) डा. राधे श्याम द्विवेदी

सत्यव्रत बने त्रिशंकु
राजा त्रिबंधन के पुत्र परम प्रतापी राजा सत्यव्रत त्रिशंकु इक्ष्वाकु वंश में एक राजा हुए। यह सदा सत्य बोलते थे और अपने गुरु वशिष्ठ के परम भक्त थे।अपने अंतिम समय अर्थात चौथेपन में वन जाकर तपस्या करने की परम्परा को इन्होंने तोड़ा, इनकी अंतिम इच्छा इस पंच तत्व के शरीर के साथ स्वर्ग जाने की थी! इसके लिए उन्होंने गुरु वशिष्ठ से यज्ञ द्वारा या तप द्वारा कैसे भी पहुंचाने की प्रार्थना की! परंतु यह ईश्वर की प्रकृति के विपरीत बताकर गुरु वशिष्ठ ने मना कर दिया।
      अतः उन्होंने अपने गुरु का अपमान करके उनको राजगुरु पद से हटा दिया और ऋषि विश्वामित्र के पास गए। चूंकि उस समय ऋषि विश्वामित्र का एक मात्र कार्य किसी भी प्रकार किसी भी विषय में गुरु वशिष्ठ से दुश्मनी कर रहे थे! बार बार हजारों साल तपस्या कर रहे थे परन्तु राजर्षी से ब्रह्मऋषि नहीं बन पा रहे थे! अतः उन्होंने सत्यव्रत को शरीर के साथ स्वर्ग भेजने के लिए अपने तपोबल का प्रयोग किया! ऋषि विश्वामित्र ने उन्हें सशरीर स्वर्ग भेजा था।
          देवराज इन्द्र ने उसे स्वर्ग से वापस पृथ्वी की ओर धकेल दिया। नीचे गिरते हुये त्रिशंकु को ऋषि विश्वामित्र ने बीच में ही लटका कर उसके लिये स्वर्ग का निर्माण किया तथा वह अपने स्वर्ग के साथ आज भी वास्तविक स्वर्ग और पृथ्वी के बीच लटका हुआ है। इसी कारण से निराधार लटकने का भाव प्रदर्शित करने के लिये उनके लिए त्रिशंकु शब्द का प्रयोग होने लगा है।
देवराज इन्द्र राजा त्रिशंकु को स्वर्ग में प्रवेश करने से रोकते हुए
राजा त्रिशंकु की कहानी का वर्णन वाल्मीकि रामायण के बाल काण्ड में है।
           सूर्य वंश के राजा पृथु के पुत्र सत्यव्रत के रूप में जन्मे राजा त्रिशंकु राम के पूर्वज हैं। राजा सत्यव्रत जब वृद्ध होने लगे तो उन्हे राज-पाट त्याग कर अपने पुत्र हरिश्चंद्र को अयोध्या का राजा घोषित कर दिया। राजा सत्यव्रत एक धार्मिक पुरुष थे इसलिए उनकी आत्मा स्वर्ग के योग्य थी परंतु उनकी इच्छा स-शरीर स्वर्ग जाने की थी। इस इच्छा की पूर्ति के लिए उन्होने अपने गुरु ऋषि वशिष्ठ को आवश्यक यज्ञ करने की प्रार्थना की। ऋषि वशिष्ठ ने यज्ञ करने से यह समझते हुये मना कर दिया कि स-शरीर स्वर्ग प्रवेश प्रकृति के नियम के विरुद्ध है। सत्यव्रत अपनी ज़िद पर अड़े रहे और इच्छा की पूर्ति के लिए ऋषि वशिष्ठ के ज्येष्ठ पुत्र शक्ति को अवाश्यक यज्ञ करने के लिए धन एवं प्रसिद्धि का लालच दिया। सत्यव्रत के इस दुस्साहस ने शक्ति को क्रोधित कर दिया और शक्ति ने सत्यव्रत को त्रिशंकु होने का श्राप दे दिया। त्रिशंकु को राज्य छोड़ कर वन भटकने के लिए मजबूर होना पड़ा।
           वन में भटकते हुये त्रिशंकु की भेंट ऋषि विश्वामित्र से हुई जिनसे उसने अपनी परेशानी बताई। ऋषि विश्वामित्र, जो ऋषि वशिष्ठ से प्रतिद्वंद्ता रखते थे, त्रिशंकु की प्रार्थना स्वीकार कर ली एवं उसे स-शरीर स्वर्ग पहुंचाने के लिए आवश्यक यज्ञ शुरू कर दिया। यज्ञ के प्रभाव से त्रिशंकु स्वर्ग की ओर उठने लगे। इस अप्राकृतिक घटना से स्वर्ग में खलबली मच गयी।
 भगवान इन्द्र के नेतृत्व में देवताओं ने त्रिशंकु को स्वर्ग प्रवेश करने से रोक दिया एवं उसे वापस पृथ्वी की ओर फेंक दिया। इस बात से क्रोधित ऋषि विश्वामित्र ने अपनी शक्तियों का प्रयोग कर के त्रिशंकु का गिरना रोक दिया जिससे त्रिशंकु बीच में लटक गए।
          लटके त्रिशंकु ने विश्वामित्र से सहायता की प्रार्थना की। विश्वामित्र ने अपनी शक्तियों का प्रयोग कर बीच में ही एक नया स्वर्ग बना दिया और त्रिशंकु को श्राप से मुक्त करते हुये इस नए स्वर्ग में भेज दिया। त्रिशंकु, जो वापस सत्यव्रत बन गया था, को नए स्वर्ग का इन्द्र बनाने के लिए विश्वामित्र ने तपस्या प्रारम्भ की। इस तपस्या से चिंतित देवताओं ने विश्वामित्र को समझाया कि उन्होने स-शरीर स्वर्ग प्रवेश की अप्राकृतिक घटना को रोकने के लिए त्रिशंकु के स्वर्ग प्रवेश से रोका था। विश्वामित्र देवताओं के तर्क से सहमत हुये परंतु अब उनके सामने अपने वचन को पूरा करने कि दुविधा थी। विश्वामित्र ने देवताओं से समझौता किया कि वो अपनी तपस्या रोक देंगे और देवता सत्यव्रत को नए स्वर्ग में रहने देंगे, एवं सत्यव्रत इन्द्र की आज्ञा की अवहेलना नहीं करेगा।
          यह त्रिशंकु की कहानी है जो पृथ्वी एवं स्वर्ग के मध्य अपने लटके हुये स्वर्ग में है। भारत में त्रिशंकु शब्द का प्रयोग ऐसी ही परिस्थितियों के लिए किया जाता है।
          उधर इन्द्र ने स्वर्ग से उनको धक्का देकर नीचे गिरा दिया! परन्तु विश्वामित्र के तप के प्रभाव से वह नीचे भी नहीं आ सके और बीच में लटक गए अतः उनका ही नाम त्रिशंकु पडा।

पुरुकुस्त से त्रिबंधन तक की कहानी ( राम के पूर्वज 12) डा. राधे श्याम द्विवेदी

इच्छाकु वंशीय मुचुकुंद के पुत्र पुरुकुस्त हुये। पुरुकुस्त के पुत्र त्रयद्वासयु हुए। त्रयद्वासयु के पुत्र अनरण्य हुए। इन तीनों राजाओं का केवल नामोल्लेख ही मिलता है। विशेष विवरण नहीं मिलता है। 
राजा अनरण्य एक प्रभावशाली राजा
पौराणिक कथाओं के अनुसार, रावण एक बार इक्ष्वाकु वंश के राजा अनरण्य के पास पहुंचा और युद्ध करने या फिर पराजय स्वीकार करने के लिए ललकारा। राजा अनरण्य पराजय स्वीकार न करके रावण से युद्ध किए। वे रावण को हरा नहीं सके। इस दौरान अनरण्य लहूलुहान हो गए। अनरण्य को लहुलुहान देखकर रावण इक्ष्वाकु वंश का उपहास करने लगा। उपहास देखकर अनरण्य कुपित होकर रावण को श्राप दे दिया कि यही वंश एक दिन तुम्हारा वध करेगा। ये कहकर वह राजा स्वर्ग सिधार गए। बता दें कि मनु वंश के राजा अनरण्य 28वें राजा थे। जबकि इक्ष्वाकु वंश के 22वें राजा थे। राम के पुत्र
महाराज कुश की देखरेख में कसौटी के 84 खम्बों पर भव्य श्रीराम मंदिर निर्मित किया गया था। चैत्र शुक्ल नवमी पर मंदिर में भगवान राम की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा की गई थी. इस मंदिर में कसौटी के जिन 84 खम्भों को लगाया गया था, इनकी चर्चा आज तक किसी न किसी रूप में चल रही है. लोमस रामायण में वर्णित बालकांड के अनुसार यह खम्भे श्रीराम के पूर्वज महाराजा अनरण्य के आदेश पर विश्व प्रसिद्ध शिल्पी विश्वकर्मा के द्वारा गढ़े गए थे।
राजा अनरण्य का रावण को शाप की पूरी कहानी
रावण ने अपने आक्रमण जारी रखे। सब पर आक्रमण करते हुए रावण अयोध्या पहुंचा। जहाँ उसका सामना अयोध्या के तत्कालीन राजा अनरण्य के साथ हुआ। राजा अनरण्य ने रावण को वापस चले जाने के लिए कहा लेकिन रावण ने तो युद्ध करने की ठानी थी। इक्ष्वाकु वंश में जन्मे महान राजा थे। अनेक राजा महाराजाओं को पराजित करता हुआ दशग्रीव रावण इक्ष्वाकु वंश के राजा अनरण्य के पास पहुँचा जो अयोध्या पर राज्य करते थे। उसने उन्हें भी द्वन्द युद्ध करने अथवा पराजय स्वीकार करने के लिये ललकारा। दोनों में भीषण युद्ध हुआ किन्तु ब्रह्माजी के वरदान के कारण रावण उनसे पराजित न हो सका। जब अनरण्य का शरीर बुरी तरह से क्षत-विक्षत हो गया तो रावण इक्ष्वाकु वंश का अपमान और उपहास करने लगा।जब युद्ध अंतिम समय में पहुँच गया और राजा अनरण्य अपनी मृत्यु के पास थे। तब रावण ने उनसे कहा कि आमोद-प्रमोद में लीन होने के कारण तूने मेरी महिमा नहीं सुनी।इससे कुपित होकर अनरण्य ने उसे शाप दिया कि तूने अपने व्यंगपूर्ण शब्दों से इक्ष्वाकु वंश का अपमान किया है,अतः यदि मैंने दान दिया हो, होम किया हो तो मैं तुझे शाप देता हूँ कि महाराज इक्ष्वाकु के इसी वंश में जब विष्णु स्वयं अवतार लेंगे तो वही तुम्हारा वध करेंगे। यह कह कर राजा स्वर्ग सिधार गये। कालांतर में त्रेता युग में इसी महान इक्ष्वाकु वंश में स्वयं श्रीमन् नारायण अयोध्या नरेश दशरथ के घर प्रभु श्री राम के रूप में जन्मे और उन्होंने ही दशानन रावण, उसके सम्पूर्ण कुल और पूरी राक्षस जाती का वध किया।
             अनरण्य के पुत्र हर्यश्व थे। हर्यश्व के पुत्र अरुण हुए। अरुण के पुत्र राजा त्रिबंधन हुए। इन तीन राजाओं का भी केवल नामोल्लेख ही मिलता है विशेष विवरण नही मिलता है।इस पीआर शोध और खोज की जरूरत है।

राजा मुचकुन्द की कहानी (राम के पूर्वज- 11) डा. राधे श्याम द्विवेदी

मान्धाता की पत्नी का नाम बिंदुमती था और जो एक ऋषि कन्या थी। त्रेता युग में महाराजा मान्धाता के तीन पुत्र हुए, अमरीष, पुरू और मुचुकुन्द। विष्णु पुराण में श्रीकृष्ण लीला में इनकी कथा का उल्लेख मिलता है। राजा मुचकुंद इच्छवाकु वंश के राजा थे जिनकी वीरता की चर्चा स्वर्ग में भी होती थी। मुचुकुंद सूर्यवंश के बड़े प्रतापी राजा हुए! जिन्होंने स्वर्ग से लेकर प्रथ्वी से पाताल तक असुरों को बार बार हराया। एक बार असुरों ने देवलोक पर आक्रमण कर दिया और देवताओं को पराजित करने लगे तो देवराज इंद्र ने इनसे सहायता मांगी।युद्ध नीति में निपुण होने से देवासुर संग्राम में इंद्र ने महाराज मुचुकुन्द को अपना सेनापति बनाया।
 इन्द्र की बात से दु्ःखी हुए राजा मुचकुंद 
राज मुचकुंद ने अपने बल और पराक्रम से असुरों को पराजित कर दिया। देवराज इंद्र ने प्रसन्न होकर इन्हें वरदान मांगने के लिए कहा। इन्होंने कहा कि, मुझे बस अपने परिवार के पास पृथ्वी पर जाने की आज्ञा दे दीजिए क्योंकि मुझे किसी और चीज की इच्छा नहीं है। तब देवराज इंद्र ने ऐसी बात कही जिससे राजा मुचकुंद बहुत दुखी हो गए।
अब राजा मुचकुंद को नींद आने लगी
देवराज ने कहा कि पृथ्वी पर अब तुम्हारा कोई जीवित नहीं रहा, सभी मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं। क्योंकि आप एक साल से स्वर्ग में हैं और इतने में पृथ्वी पर एक युग के बराबर समय गुजर चुका है। इस बात से दुखी होकर राजा मुचकुंद ने कहा कि मेरा मन बहुत दुखी हो गया है और अब मैं सोना चाहता हूं। इसलिए हे देवराज मुझे वरदान दीजिए कि मैं गहरी नींद में सो सकूं और कोई मुझे नींद से नहीं जगाए।युद्ध में विजय श्री मिलने के बाद महाराज मुचुकुन्द ने विश्राम की इच्छा प्रकट की। देवताओं ने वरदान दिया कि जो तुम्हारे विश्राम में अवरोध डालेगा, वह तुम्हारी नेत्र ज्योति से वहीं भस्म हो जायेगा।
राजा गुफा में जाकर गहरी नींद में सो गए
देवराज इंद्र ने राजा से कहा कि आप कहीं गुप्त स्थान पर जाकर सो जाइए। जो भी आपको नींद से जगाएगा आपकी दृष्टि पड़ते ही वह जलकर भस्म जाएगा। राजा मुचकुंद एक गुफा में जाकर सो गए। यह गुफा आज उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले में स्थित है ऐसा माना जाता है।
कृष्ण समझकर कालयवन ने राजा मुचकुंद को जगाया
राजा मुचकुंद त्रेतायुग से सोते-सोते द्वापर युग में आ गए और उन्हें इसका पता ही नहीं चला। जब यूनान के राजा कालयवन ने मथुरा पर आक्रमण किया तब श्रीकृष्ण कालयवन को बहलाकर उस गुफा में ले गए जहां राजा मुचकुंद सो रहे थे। कालयवन ने कृष्ण समझकर गलती से राजा मुचकुंद को जगा दिया और भस्म हो गया।
शिव का वरदान को काटने के लिए यह लीला रची गई
कृष्ण को इसलिए कालयवन के साथ ऐसी लीली करनी पड़ी
दरअसल कालयवन को भगवान शिव का वरदान मिला था कि वह किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारा जा सकता था और वह युद्ध में उसे कोई हरा नहीं सकता। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण को यह लीला करनी पड़ी और इसी लीला में रणभूमि से भागने के कारण उनका एक नाम रणछोड़ हुआ।
सोते सोते युग बीता
कालयवन के भस्म हो जाने पर श्रीकृष्ण ने राजा मुचुकुन्द को बताया कि सोते-सोते युग बीत गए हैं और अब आपको मुक्ति के लिए तप करना चाहिए। श्रीकृष्ण की आज्ञा से राजा मुचुकुन्द तप करने चले गए और इन्हें मोक्ष मिल गया।
देवताओं से वरदान लेकर महाराज मुचुकुन्द श्यामा अंचल पर्वत (जहाँ अब मौनी सिद्ध बाबा की गुफा है) की एक गुफा में आकर सो गयें। इधर जब जरासंध ने कृष्ण से बदला लेने के लिए मथुरा पर 18वीं बार चढ़ाई की तो कालयवन भी युद्ध में जरासंध का सहयोगी बनकर आया। कालयवन महर्षि गार्ग्य का पुत्र व म्लेक्ष्छ देश का राजा था। वह कंस का भी परम मित्र था। भगवान शंकर से उसे युद्ध में अजय का वरदान भी मिला था। भगवान शंकर के वरदान को पूरा करने के लिए भगवान कृष्ण रण क्षेत्र छोड़कर भागे। तभी कृष्ण को रणछोड़ भी कहा जाता है। कृष्ण को भागता देख कालयवन ने उनका पीछा किया। मथुरा से करीब सवासौ किमी दूर तक आकर श्यामाश्‍चल पर्वत की गुफा में आ गये जहाँ मुचुकुन्द महाराज जी सो रहे थे। कृष्ण ने अपनी पीताम्बरी मुचुकुन्द जी के ऊपर डाल दी और खुद एक चट्टान के पीछे छिप गये। कालयवन भी पीछा करते करते उसी गुफा मे आ गया। दंभ मे भरे कालयवन ने सो रहे मुचुकुन्द जी को कृष्ण समझकर ललकारा। मुचुकुन्द जी जागे और उनकी नेत्र की ज्वाला से कालयवन वहीं भस्म हो गया।
भगवान कृष्ण ने मुचुकुन्द जी को विष्णुरूप के दर्शन दिये। 
मुचुकुन्द जी दर्शनों से अभिभूत होकर बोले - हे भगवान! तापत्रय से अभिभूत होकर सर्वदा इस संसार चक्र में भ्रमण करते हुए मुझे कभी शांति नहीं मिली। देवलोक का बुलावा आया तो वहाँ भी देवताओं को मेरी सहायता की आवश्कता हुई। स्वर्ग लोक में भी शांति प्राप्त नही हुई। अब मै आपका ही अभिलाषी हूँ, श्री कृष्ण के आदेश से महाराज मुचुकुन्द जी ने पाँच कुण्डीय यज्ञ किया। यज्ञ की पूर्णाहुति ऋषि पंचमी के दिन हुई। यज्ञ में सभी देवी-दवताओ व तीर्थों को बुलाया गया। इसी दिन भगवान कृष्ण से आज्ञा लेकर महाराज मुचुकुन्द गंधमादन पर्वत पर तपस्या के लिए प्रस्थान कर गये। वह यज्ञ स्थल आज पवित्र सरोवर के रूप में हमें इस पौराणिक कथा का बखान कर रहा है।


सम्राट मान्धाता राजा की कथा (राम के पूर्वज- 10) डा. राधे श्याम द्विवेदी

पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार भारत के सम्राटों में प्रथम सम्राट मान्धाता प्रसिद्ध है। उसे पुराणों में चक्रवर्ती सम्राट कहा गया है। उसने पड़ोस के अनेक राज्यों को जीतकर दिग्विजय किया। सम्राट मान्धाता के सम्बन्ध में पौराणिक अनुश्रुति में कहा गया है कि सूर्य जहां से उगता है और जहां अस्त होता है, वह सम्पूर्ण प्रदेश मान्धाता के शासन में था। जिन आर्य राज्यों को जीतकर मान्धाता ने अपने अधीन किया उनमें पौरव, आनव, द्रुहयु और हैह्य राज्यों के नाम विशेष रूप से उल्लेख पूर्ण हैं। मान्धाता को चक्रवर्ती और सम्राट बताने तथा उसकी विजयों के बारे में आर्य राज्यों को जीतना कारण बताया गया है, जिससे निष्कर्ष निकलता है वह स्वयं भी आर्य था। चूंकि भारत का इतिहास आर्यों से ही आरम्भ होता है, इसलिए भारत की सभ्यता का ज्ञान आर्यों के भारत आगमन से ही प्रकाश में आता है इसलिए कहा जा सकता है कि सम्राट मान्धाता का काल 5,000 वर्ष पूर्व रहा है। मान्धाता बड़े प्रतापी राजा हुए। उसने पड़ोस के अन्य आर्य राज्यों को जीतकर दिग्विजय किया।
सम्राट मान्धाता द्वारा विजित राज्य 
जिन राज्यों में सम्राट मान्धाता ने दिग्विजय की उसमें प्रमुख नाम है-पौरव, आनव, दुहयु और हैह्य। ये अपने समय के बड़े राज्य थे। जिन्हें जीतकर मान्धाता ने अपने आधीन किया। इनके अलावा अन्य स्थानों पर अपने राज्य का विस्तार किया।
सम्राट मान्धाता की विजयों के परिणाम अन्य राज्यों का फैलाव-राजा अनु और राजा दक्ष्यु जिन पर सम्राट मान्धाता ने विजय प्राप्त की थी। वो अयोध्या के पश्चिम से शुरू करके सरस्वती नदी के प्रदेशों पर शासन करते थे। सम्राट मान्धाता से पराजित होने के बाद वो और अधिक पश्चिम की ओर चले गए जिसकी वजह से राज्य विस्तार हुआ। राजा द्रहयु ने पराजित होने के बाद उत्तर-पश्चिमी पंजाब में (रावलपिण्डी से भी आगे) जाकर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। मनु लोगों से हारने के बाद पराजित राजाओं ने पंजाब में-मौधेय, केकय, शिवि, मद्र, अम्बष्ठ और सौवीर राज्य स्थापित किए। सम्राट मान्धाता से परास्त होने के बाद आनव (ऐल वंश की एक शाखा के लोग) ने पंजाब की ओर जाकर कई राज्य स्थापित किये। आनवों की एक शाखा सुदूर-पूर्व की ओर गयी। उनका नेता तितिक्षु था। इसने पूर्व की ओर जाकर वर्तमान समय के बिहार में अपना राज्य स्थापित किया। 
विजित राजाओं को मारा नहीं
चक्रवर्ती सम्राट मान्धाता ने अनेकानेक राज्यों पर दिग्विजय की। परन्तु पराजित राजा तथा उसके वंश के लोगों का वध नहीं किया। उनकी अधीनता मात्र से या तो सन्तुष्ट हो गए या फिर उनको सपरिवार, सकुटुम्ब राज्य से निकालकर अपना राज्य स्थापित किया। सम्राट मान्धाता के काल में पौरव वंश, कान्यकुब्ज वंश और ऐल वंश शक्तिशाली राजवंश के रूप में विकसित हुए। 
अयोध्या नरेश मानधाता से रावण का युद्ध
रावण की युद्ध करने की लालसा अभी ख़त्म न हुयी थी। इसलिए वो एक बार फिर से अयोध्या जा पहुंचा। इस बार उसका सामना अयोध्या नरेश मानधाता से हुआ। इस युद्ध में एक फिर कड़ी टक्कर हुयी। अंत में महाराज मानधाता ने रावण को मारने के लिए शिव जी द्वारा दिए गए पशुपात को हाथ में लिया। तब रावण को बचाने के लिए उसके दादा पुलस्त्य मुनि और गालव मुनि ने आकर रावण को धिक्कारा। जिससे रावण को बहुत ग्लानी हुयी। तब पुलस्त्य मुनि ने महाराज मानधाता और रावण की मैत्री करवाई।

राजा आर्द से मान्धात्रि तक की रोचक कथा (राम के पूर्वज-9) डा. राधे श्याम द्विवेदी

इच्छाकु बंश में राजा सुमति की 55वी पीढ़ी आर्द नामक राजा हुए जिन्होंने अहिंसा और डर छोड़कर असुरों से युद्ध किया! इस युद्ध में राजा ने जिस हिरणाकश्यप को न दिन में मरू न रात में न अस्त्र से न शस्त्र से न देवता न दानव न पशु न पक्षी से मरू ऐसे वरदानी असुर को नाकों चने चबाने पर विवश कर दिया। सारे असुर आर्तनाद करते हुए भाग खड़े हुये जब भी युद्ध होता था। राजा हजारों घोड़ों के वेग से तेज बान चलाते थे ! युद्ध में हिरणाकश्यप के हांथ उठाने से पूर्व हांथो को छेदकर रथ में ही पिरो देते थे!
राजकुमार /राजा युवनाश्व 
हिरणाकश्यप युवनाश्व से एक भी युद्ध नहीं जीत पाया, फिर से ब्रह्मा जी ने नर संहार रुकवाते हुए कश्यप ऋषि और सप्त ऋषियों के मध्य संधि कराई गई ।अब अयोध्या से अवध प्रदेश बन गया अर्थात अयोध्या का लगभग सारा भू भाग पुनः अयोध्या के कब्जे में आ गया। यह अयोध्या सरयू नदी के तट अब भी एक तीर्थ में विद्यमान है। इसको बसाने का श्रेय राजा युवनाश्व को है। राजा युवनाश्व के कोई पुत्र नहीं था। पुत्र प्राप्ति के लिए उन्होंने यज्ञ किया। 
युवनाश्व का पुत्र मांधात्री 
युवनाश्व के पुत्र मांधात्री अयोध्या के एक प्रसिद्ध राजा थे। वह इक्ष्वाकु से उन्नीस पीढ़ियों के बाद सिंहासन पर बैठे। अपने पिता की बाईं पसली से उनके जन्म का लेखा जोखा उनकी रानी के लिए पवित्र यज्ञीय पानी पीने के परिणामस्वरूप, और इंद्र के राजकुमार के जन्म के समय इंद्र द्वारा कही गई बातों के कारण उनके नाम को स्पष्ट रूप से बताने के लिए मंधात्री कहलाए।कहा जाता है कि मंधात्री ने भारत का आधा सिंहासन प्राप्त किया था और एक दिन में पूरी पृथ्वी पर विजय प्राप्त की थी, पुराणों के अनुसार मंधत्री एक महान चक्रवर्ती और सम्राट थे। उन्हें विष्णु का पांचवा अवतार (अवतार) माना जाता था। वह एक महान बलिदानकर्ता थे और कहा जाता है कि उन्होंने राजस्थान में सौ अश्वमेध यज्ञ किए थे। 
राजा को गर्भ धारण करना पड़ा
एक दिन यज्ञ मंडप में ही राजा मांधात्री को नींद आ गई। कुछ काल बाद बड़े जोर की प्यास लगी, किन्तु पानी कहीं नहीं मिला। लाचार हो राजा ने मंडप में ही रखा हुआ अभिमन्त्रित जल पी लिया और फिर सो गए। सवेरे पुरोहित ब्राह्मणों ने पूछताछ की कि मंडप में रखा हुआ अभिमंत्रित जल का क्या हुआ ? राजा ने बताया, जोर की प्यास लगी थी, वह पानी मैं पी गया। पुरोहितों ने कहा महाराज बड़ा अनर्थ किया आपने। वह जल अभिमन्त्रित था। उसमें गर्भ की शक्ति थी। वह जल रानी के लिए था। अब आपके ही गर्भ रहेगा। आपके ही पेट से सन्तान उत्पन्न होगी। राजा बहुत घबराए, किन्तु उपाय ही क्या था ? समय आने पर राजा ने गर्भ धारण किया। अन्त में राजा का पेट चीरा गया और उसमें से मान्धाता का जन्म हुआ। राजा को इतना कष्ट हुआ कि उनके प्राण पखेरू उड़ गये। युवनाश्व के पुत्र मानधात्री को महान प्रतापी राजा मान्धाता हुए।

सुमति-हिरणाकश्यप की लड़ाईऔर संधि (राम के पूर्वज -8) डा. राधे श्याम द्विवेदी


इच्छाकु वंशीय काकुतस्य के पुत्र का नाम सुमति हुआ। यह राजा अहिंसा को परम धर्म मानते थे और युद्ध से विमुख थे । वे सभी प्राणियों में ईश्वर को देखते थे, परिणाम स्वरूप ब्रह्माजी के वरदान से घमंड में चूर असुर राजा हिरणयाकश्यप ने इनके बहुत से भू भाग पर कब्जा कर लिया। इनको संधि में अयोध्या नगरी के अलावा सारे इनके राज्य पर कब्जा कर लिया । 
हिरण्यकशिपु एक दैत्य था जिसकी कथा पुराणों में आती है। उसका वध नृसिंह अवतारी विष्णु द्वारा किया गया। यह "हिरण्यकरण वन" नामक स्थान का राजा था৷ हिरण्याक्ष उसका छोटा भाई था जिसका वध वाराह रूपी भगवान विष्णु ने किया था। हिरण्यकश्यप के चार पुत्र थे जिनके नाम हैं प्रह्लाद , अनुहलाद , सहलाद और हलाद जिनमें प्रह्लाद सबसे बड़ा और हलाद सबसे छोटा था। उसकी पत्नी का नाम कयाधु और उसकी छोटी बहन का नाम होलिका था। हिरण्यकशिपु के अग्रजों के नाम वज्रांग , अरुण और हयग्रीव थे। हयग्रीव का वध मत्स्य रूपी भगवान विष्णु ने और अरुण का वध भ्रामरी रूपी माता पार्वती ने किया था।
     नृसिंह रूपी भगवान विष्णु द्वारा हिरण्यकशिपु का वध
विष्णुपुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार सतयुग के अन्त में महर्षि कश्यप और उनकी पत्नी दिति के दो पुत्र उत्पन्न हुए- हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष। दिति के बड़े पुत्र हिरण्यकशिपु ने कठिन तपस्या द्वारा ब्रह्मा को प्रसन्न करके यह वरदान प्राप्त कर लिया कि न वह किसी मनुष्य द्वारा मारा जा सकेगा न पशु द्वारा, न दिन में मारा जा सकेगा न रात में, न घर के अंदर न बाहर, न किसी अस्त्र के प्रहार से और न किसी शस्त्र के प्रहार से उसक प्राणों को कोई डर रहेगा। इस वरदान ने उसे अहंकारी बना दिया और वह अपने को अमर समझने लगा। उसने इंद्र का राज्य छीन लिया और तीनों लोकों को प्रताड़ित करने लगा। वह चाहता था कि सब लोग उसे ही भगवान मानें और उसकी पूजा करें। उसने अपने राज्य में विष्णु की पूजा को वर्जित कर दिया।हिरण्यकशिपु के चार पुत्र थे उनके नाम थे प्रह्लाद , अनुहल्लाद , संहलाद और हल्लद थे। हिरण्यकशिपु का सबसे बड़ा पुत्र प्रह्लाद, भगवान विष्णु का उपासक था और यातना एवं प्रताड़ना के बावजूद वह विष्णु की पूजा करता रहा। क्रोधित होकर हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से कहा कि वह अपनी गोद में प्रह्लाद को लेकर प्रज्ज्वलित अग्नि में चली जाय क्योंकि होलिका को वरदान था कि वह अग्नि में नहीं जलेगी। जब होलिका ने प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश किया तो प्रह्लाद का बाल भी बाँका न हुआ पर होलिका जलकर राख हो गई। अंतिम प्रयास में हिरण्यकशिपु ने लोहे के एक खंभे को गर्म कर लाल कर दिया तथा प्रह्लाद को उसे गले लगाने को कहा। एक बार फिर भगवान विष्णु प्रह्लाद को उबारने आए। वे खंभे से नरसिंह के रूप में प्रकट हुए तथा हिरण्यकशिपु को महल के प्रवेशद्वार की चौखट पर, जो न घर का बाहर था न भीतर, गोधूलि बेला में, जब न दिन था न रात, आधा मनुष्य, आधा पशु जो न नर था न पशु ऐसे नरसिंह के रूप में अपने लंबे तेज़ नाखूनों से जो न अस्त्र थे न शस्त्र और उसका पेट चीर कर उसे मार डाला। इस प्रकार हिरण्यकशिपु अनेक वरदानों के बावजूद अपने दुष्कर्मों के कारण भयानक अंत को प्राप्त हुआ।
पूर्व जन्म की कथा 
ऐसा कहा जाता है कि हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष भगवान विष्णु के द्वारपाल दो भाई थे उनके नाम हैं जय और विजय । एक बार ब्रह्मा जी के मानस पुत्र और भगवान विष्णु के प्रथम अवतार चार कुमार भगवान विष्णु के दर्शन करने बैकुण्ठ आए। जय और विजय ने उन्हें रोक दिया जिससे क्रोधित होकर चार कुमारों ने उन्हें श्राप दिया कि "हे मूर्खों भगवान विष्णु के साथ रहने का तुम में अभिमान हो गया है हम तुम्हें श्राप देते हैं कि तुम तीन जन्म असुर जाति में रहोगे"। भगवान विष्णु ने सनाकादि ऋषियों से कहा कि "ये तीन जन्म असुर जाति में रहेगे और मुझसे वैर रखते हुए भी मेरे ध्यान में लीन रहेगे मेरे द्वारा इनका सन्हार होने पर ये दोनों इस धाम में पुनः आ जाएंगे।‌ इस श्राप के फल स्वरूप जय विजय सतयुग , त्रेता युग और द्वापर युग में असुर जाति में जन्मे।
सत युग
सतयुग में जय हिरण्यकशिपु और विजय हिरण्याक्ष के रूप में धरती पर पैदा हुए। उस जन्म में इनके पिता महर्षि कश्यप और माता दिति थे। हिरण्याक्ष का वध भगवान विष्णु ने वराह के रूप में और हिरण्यकशिपु का वध नरसिंह रूप में किया।
त्रेता युग
त्रेतायुग में जय रावण और विजय कुंभकर्ण के रूप में धरती पर पैदा हुए। उस जन्म में इनके पिता महर्षि विश्रवा और माता कैकसी थे। उस जन्म में इन दोनों का वध भगवान विष्णु ने राम रूप में किया था।
द्वापर युग
द्वापर युग में जय का जन्म शिशुपाल के रूप में और विजय का जन्म दंतवक्र के रूप में हुआ था। उस जन्म में जय भगवान विष्णु के फुफरे भाई के रूप में पैदा हुआ। जय के उस जन्म के पिता राजा दंभघोष और माता सुतसुभा थे और विजय की माता का नाम श्रुतदेवा और पिता का नाम वृद्धशर्मा था।
हरदोई असुरों की राजधानी रही
असुर राजा हिरणयाकश्यप आर्यो को कब्जे में रखने के लिए अयोध्या के नजदीक ही आज की हरदोई को अपनी राजधानी बनाया। जिससे वह आर्यो को नारायण की उपासना नहीं करने देता था। यहां तक कि अपने राज्य में नारायण के सबसे प्रिय नाम राम की वजह से “र” अक्षर पर पाबंदी लगा दी थी । जिसके कारण प्रजा या कोई भी बात करने ने “र” अक्षर का प्रयोग नहीं करता था जिसका प्रमाण आज भी हरदोई (मतलब हरि की दुश्मन) नगरी में “र” अक्षर आज तक बोलचाल से बाहर है। हरदोई के अधिकांश इलाके मै हद्दी, मिच्च,उद्द, बद्द, अढयी, आदि शब्द बोले जाते हैं। हर्दी सर्दी मिर्च उरद, अरहर नहीं बोलते हैं। उस समय वैदिक कालीन संस्कृत ग्रंथो को जलाए गए थे ताकि हरि जी या रामजी का गौरव घट सकें! इसके बाद की सैकड़ों पीढ़ी का नाम ग्रंथो में नहीं मिलता है, क्योंकि इतिहास हमेशा जीतने वालो के होते है वह चाहे छल से जीते हो । हिरणाकश्यप ने मानवों आर्यो के इतिहास नहीं रहने दिए और सत्ययुग की यहां 54 पीढ़ी के नाम नहीं आए है! वह सिर्फ अयोध्या के छोटे से नगर के राजा रहे और हिरणाकश्यप के आधीन उसको कर देते थे।

राजा विशाल की कहानी (राम के पूर्वज - 7) डा. राधे श्याम द्विवेदी

इक्ष्वाकु के पुत्रो में बड़ा पुत्र विशाल था जो अयोध्या का राजा बना। जिसके नाम से वैशाली ग्राम बसा था। प्रतीत होता है कि अयोध्या से पूरब यह क्षेत्र अवध का ही भाग था जो बाद में प्रथम गणराज्य का गौरव पाया । वैशाली का नामाकरण महाभारत काल एक राजा ईक्ष्वाकु वंशीय राजा विशाल के नाम पर हुआ है। विष्णु पुराण में इस क्षेत्र पर राज करने वाले 34 राजाओं का उल्लेख है, जिसमें प्रथम नमनदेष्टि तथा अंतिम सुमति या प्रमाति थे। इस राजवंश में 24 राजा हुए।(वैशाली के लिच्छवी गणराज्य) राजा सुमति अयोध्या नरेश भगवान राम के पिता राजा दशरथ के समकालीन थे। ईसा पूर्व सातवीं सदी के उत्तरी और मध्य भारत में विकसित हुए 16 महाजनपदों में वैशाली का स्थान अति महत्त्वपूर्ण था। नेपाल की तराई से लेकर गंगा के बीच फैली भूमि पर वज्जियों तथा लिच्‍छवियों के संघ (अष्टकुल) द्वारा गणतांत्रिक शासन व्यवस्था की शुरुआत की गयी थी। लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व में यहाँ का शासक जनता के प्रतिनिधियों द्वारा चुना जाने लगा और गणतंत्र की स्थापना हुई। विश्‍व को सर्वप्रथम गणतंत्र का ज्ञान करानेवाला स्‍थान वैशाली ही है। आज वैश्विक स्‍तर पर जिस लोकशाही को अपनाया जा रहा है, वह यहाँ के लिच्छवी शासकों की ही देन है। प्राचीन वैशाली नगर अति समृद्ध एवं सुरक्षित नगर था जो एक-दूसरे से कुछ अन्तर पर बनी हुई तीन दीवारों से घिरा था। प्राचीन ग्रन्थों में वर्णन मिलता है कि नगर की किलेबन्दी यथासम्भव इन तीनों कोटि की दीवारों से की जाए ताकि शत्रु के लिए नगर के भीतर पहुँचना असम्भव हो सके। चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार पूरे नगर का घेरा 14 मील के लगभग था। 
(आगे के दर्जनों राजाओं के केवल नामोल्लेख मिलते हैं। विस्तृत विवरण नहीं मिलते। )
इस भाग पर शोध की महती आवश्कता है।
विशाल के पुत्र का नाम हेमचंद्र हुआ!
हेमचंद्र के पुत्र सुचंद्र हुए!
सूचंद्र के पुत्र ध्रूमाश्व हुए!
सरजन्य या सरनजय
ध्रूमाष्व के पुत्र महान राजा सरजन्य हुए!
सरनजय भी इन्हीं का नाम था! क्योंकि इन्होंने देवासुर संग्राम में अपने बाणों से असुरों की पूरी सेना को ढक दिया था जिसमें तिल के बराबर भी प्रकाश जाने की जगह नहीं बची थी और असुर युद्ध में पराजित हो गए थे इसीलिए ब्रह्माजी ने इनका नाम स्रनजय नाम दिया था।
सरजन्य के पुत्र सहदेव हुए। यह सदाचारी और दानवीर होने के साथ बड़े सहनशील और महान पराक्रमी थे।
सहदेव के पुत्र कुशाश्व था
कुशाश्व के पुत्र का नाम सोमदत्त हुआ
सोमदत्त के पुत्र काकुतस्य था! 
बाल्मीकि रामायण के सप्तचत्वारिंशः सर्गः में इस प्रकार वर्णन मिलता है।
पूर्वकाल में इक्ष्वाकु के, पुत्र विशाल नामके थे।
अम्बुलषा के गर्भ से जन्मे, विशाला पुरी बसायी जिसने।।

हेमचन्द्र थे उनके पुत्र, प्रपौत्र थे वीर सुचन्द्र।
सुचन्द्र के पुत्र धूमाश्व, धूमाश्व के थे सृंजय।।

सहदेव सृंजय के बेटे, कुशाश्व थे सहदेव के।
सोमदत्त कुशाश्व के पुत्र, काकुत्स्थ थे सोमदत्त के।।

काकुत्स्थ के महातेजस्वी, सुमति नाम के पुत्र हुए हैं।
परम कांतिवान वीर वे, इस समय यहाँ बसते हैं।।

सभी नरेश हुए धार्मिक, महा प्रसाद से इक्ष्वाकु के।
आज रात हम यहीं रुकेंगे, कल चलकर मिथिला पहुंचेंगे।।

विश्वामित्र को आया जान, आये वहाँ पर सुमति राजा।
बन्धु बांधवों, संग पुरोहित, हाथ जोड़कर की थी पूजा।।

धन्य हुआ मैं, आये आप, बड़ा आपका अनुग्रह मुझपर।
दर्शन दिए आपने हमको, मुझसे नहीं है कोई बढ़कर।।

वैवस्वत मनु से इच्छाकु तक की कहानी (राम के पूर्वज - 6 ) डा. राधे श्याम द्विवेदी


विवस्वान के पुत्र थे वैवस्वत हुए थे। राजा सूर्य स्वयंभू मनु से अत्यधिक प्रभावित थे! इसलिए उन्होंने अपने पुत्र का नाम वैवस्वत मनु रखा, राजा सूर्य और राजा वैवस्वत मनु दोनों को ही भगवान नारायण के महान भक्तो में गिना जाता है! जिनको नारायण के साक्षात दर्शन हुए थे।पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार भारत का पहला आर्य राजा मनु था। मनु को मानववंश का प्रथम पुरुष भी कहा जाता है। मनु का पूरा नाम वैवस्वत मनु के रूप में सामने आता है। अनुश्रुति के अनुसार मनु से पूर्व इस देश की अराजक दशा थी। अराजक दशा से परेशान होकर लोगों ने मनु को अपना राजा चुना और उसके आदेशों का पालन स्वीकार किया। मनु हर ओर से निश्चित होकर राज्य व्यवस्था में अपना सारा समय लगाने लगे। प्रजा ने पैदावार का छठा हिस्सा स्वेच्छा से राजा को देना स्वीकार किया। मनु के प्रथम राजा बनने के बाद उसकी संतानों के राज्य को मानववंश का राज्य कहा गया। वैवस्वत मनु के 10 पुत्र इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम (नाभाग), अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध पैदा हुए. हिन्दू धर्म के अनुसार मनु संसार के प्रथम पुरुष थे। उनके साथ प्रथम स्त्री थी शतरूपा। ये पृथ्वी के उत्पन्न होने के बाद प्रथम पुरुष के रूप में सामने आने पर स्वयं-भू कहलाए। 
          हिन्दू धर्म में स्वयंभू मनु के कुल में आगे चलकर स्वयंभू मनु सहित क्रमशः 14 मनु हुए। महाभारत में 8 मनुओं का उल्लेख मिलता है। श्वेतवराह कल्प में 14 मनुओं का उल्लेख है। इन चौदह मनुओं को जैन धर्म में कुलकर कहा गया है। चौदह मनुओं के नाम इस प्रकार हैं- 
1.स्वयंभू मनु, 2. स्रोचिष मनु, 3. यौत्तमी मनु, 4. तामस मनु, 5. रैवत मनु, 6. चाक्षुष मनु, 7. श्राद्धदेव मनु, 8. सावर्णि मनु, 9. दक्ष सावर्णि मनु, 10. ब्रह्म सावर्णि मनु, 11. धर्म सावर्णि मनु, 12. रुद्र सावर्णि मनु, 13. देव सावर्णि मनु, 14. इंद्र सावर्णि मनु।
        सावर्णि मनु के बारे में वर्णन मिलता है कि इनका आविर्भाव विक्रमी संवत् प्रारम्भ होने से 5680 वर्ष पूर्व हुआ था। कामायनी में मनु-जयशंकर प्रसाद’ का महाकाव्य कामायनी है। कामायनी के मनु के सम्बन्ध में कहा जाता है कि प्रलय आने से पृथ्वी बाढ़ग्रस्त हो गयी थी। कामायनी की शुरूआत इन पंक्तियों से होती है- 
हिमगिरी के उतुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांव।
एक पुरुष देख रहा था, भीगे नयनों से प्रलय प्रवाह ॥ 
       शतपथ ब्राह्मण में मनु को श्रद्धादेव कहकर सम्बोधित किया गया है। श्रीमद् भागवत में उन्हें वैवस्व मनु और श्रद्धा (स्त्री पत्नी) से सृष्टि का प्रारम्भ माना गया है। उन्हीं मनु ने मनुस्मृति नामक ग्रंथ की रचना की, जो मूलरूप से उपलब्ध नहीं है।
मानव वंश का विस्तार 
मनु, आर्यों के पहला राजा बने। पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार मनु की संतानों में सबसे बड़ी सन्तान आगे चलकर इक्ष्वाकु कहलायी। इक्ष्वाकु मध्य देश के राजा बने। उनकी राजधानी अयोध्या थी। इक्ष्वाकु द्वारा जो राजवंश चला, उसे भारतीय इतिहास में सूर्यवंश नाम से जाना गया। 
       मनु के एक अन्य पुत्र को नेदिष्ट के नाम से जाना गया। उसे पूर्व की ओर तिरहुत का राज्य मिला। इस वंश में आगे चलकर राजा विशाल हुआ। इसने वैशाली नाम की नगरी बसाई। बौद्ध-युग में इस नगरी को बहुत प्रसिद्धि मिली। यह लिच्छवि नाम के प्रसिद्ध क्षत्रियों की राजधानी बनी। इस नगरी के अवशेष उत्तरी बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बसाढ़ नामक ग्राम में पाए गए हैं। 
         मनु के एक अन्य पुत्र कारुष ने कारुष राज्य की स्थापना की, जो उस समय के बघेल खण्ड क्षेत्र में विद्यमान था। मनु पुत्र शांति ने दक्षिण में आधुनिक गुजरात की ओर अपने राज्य की स्थापना की। शर्याति के एक पुत्र का नाम आनर्त था। वह प्रतापी राजा हुआ। इसी के नाम पर आनर्त देश का नाम पड़ा। आनर्त देश की राजधानी कुश स्थली या द्वारिका थी। इस तरह मनु के चारों पुत्र-इक्ष्वाकु, नेदिष्ट, शर्याति और कारुष चार बड़े और शक्तिशाली राज्यों के संस्थापक हुए। मनु के अन्य चार पुत्रों ने भी राज्य स्थापित किए, मगर वे अधिक प्रसिद्ध नहीं हुए। 
इक्ष्वाकु वंश की शुरुवात
पौराणिक परंपरा के अनुसार इक्ष्वाकु, विवस्वान् (सूर्य) के पुत्र वैवस्वत मनु के पुत्र थे। पौराणिक कथा इक्ष्वाकु को अमैथुनी सृष्टि द्वारा मनु की छींक से उत्पन्न बताती है। वे सूर्यवंशी राजाओं में पहले माने जाते हैं। वैवस्वत मनु के दस पुत्र में से एक प्रमुख का नाम था इक्ष्वाकु था। इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इक्ष्वाकु कुल की स्थापना की। ये महान प्रतापी राजा हुए,जिनका गुणगान देवता तक करते है इसीलिए सूर्य वंश के साथ इस वंश को इक्कश्वाकु वंश भी कहा जाता है।सूर्यवंश के संस्थापक इक्ष्वाकु के भी अनेक पुत्र थे। उन्होंने अपने पृथक राज्य स्थापित किए। उसका बड़ा बेटा विपक्षि अयोध्या की राजगद्दी पर बैठा।
         इक्ष्वाकु की पत्नी का नाम अलंबुषा था और वह हिरणाकश्यप की बहन होलिका और मदुरा के राजा अल्मबुष की पुत्री थी, देवासुर संग्राम में जब असुरों ने देवताओं की पुत्री से हिरणाकश्यप का विवाह कर दिया वह युद्ध महराज सूर्य की सहायता के बावजूद देवता हार गए थे, जब देवताओं की तपस्या से और हिर्णनक्ष्य द्वारा सूर्य देव को नीचा दिखाने के लिए प्रथ्वी की धुरी पकड़ ली गई! जिससे दिन रात होने बंद हो गए धरती पर त्राहि त्राहि हुई तब नारायण ने वाराह रूप में उसका वध किया, उसी समय हिरणाकश्यप की सेना का युद्ध इक्ष्वाकु से हुआ और दैत्य युद्ध हार गए और संधि में अल्मबुषा का विवाह इक्ष्वाकु से हुआ था। उनके १०० पुत्र बताए जाते हैं । इनमें से पचास ने उत्तरापथ में और पचास ने दक्षिणापथ में राज्य किया। इक्ष्वाकु के एक पुत्र कुक्षि हुए फिर कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि की एक अलग पारिवारिक श्रृंखला और पूरी वंशावली मिलती है।
      ककुत्स्थ, विकुक्षि के पुत्र जो इक्ष्वाकु के पौत्र और वैवस्वत मनु के प्रपौत्र थे। देवासुर संग्राम में इन्होंने वृषरूपधारी इंद्र के कुकुद् अर्थात्‌ डील (कूबड़) पर सवार होकर राक्षसों को पराजित किया था। इसी कारण वे 'ककुत्स्थ' कहलाए। इनके पुत्र अनेना और पौत्र पृथु हुए। कूर्म तथा मत्स्य पुराणों में इनके एक पुत्र का नाम सुयोधन भी दिया है।
       साधारणत: बहुवचनांतक इक्ष्वाकुओं का तात्पर्य इक्ष्वाकु से उत्पन्न सूर्यवंशी राजाओं से होता है, परंतु प्राचीन साहित्य में उससे एक इक्ष्वाकु जाति का भी बोध होता है। इक्ष्वाकु का नाम, केवल एक बार, ऋग्वेद में भी प्रयुक्त हुआ है जिसे मैक्समूलर ने राजा की नहीं, बल्कि जातिवाचक संज्ञा माना है। इक्ष्वाकुओं की जाति जनपद में उत्तरी भागीरथी की घाटी में संभवत: कभी बसी थी। कुछ विद्वानों के मत से उत्तर पश्चिम के जनपदों में भी उनका संबंध था। सूर्यवंश की शुद्ध अशुद्ध सभी प्रकार की वंशावलियाँ देश के अनेक राजकुलों में प्रचलित हैं। उनमें वैयक्तिक राजाओं के नाम अथवा स्थान में चाहे जितने भेद हों, उनका आदि राजा इक्ष्वाकु ही है। इससे कुछ अजब नहीं, जो वह सुदूर पूर्वकाल में कोई ऐतिहासिक व्यक्ति रहे हों। इक्ष्वाकु वंश की परंपरा धीरे-धीरे आगे बढ़ती गई, जिसमें हरिश्चन्द्र रोहित, वृष, बाहु और सगर पैदा हुए.।
चंद्रवंशी क्षत्रिय
चंद्रदेव का चन्द्र वंश भी सूर्य वंश में से ही निकला।इक्ष्वाकु के पुत्रो में दो पुत्र प्रतापी हुए जिनमें से बड़ा पुत्र विशाल और छोटा पुत्र आर्द या चन्द्र हुआ इनका नाम चंद्रदेव के नाम पर रखा गया था। इनके वंशज चंद्रवंशी क्षत्रिय कहे गए है अर्थात चन्द्र वंश भी सूर्य वंश में से ही निकला है।
निमि की मिथिला
इक्ष्वाकु के छोटे पुत्र निमि ने अयोध्या और वैशाली के बीच एक अन्य राज्य की स्थापना की, जिसकी राजधानी मिथिला थी। आगे चलकर इसी वंश के राजा जनक हुए। जिनकी पुत्री सीता थी। राजा जनक और सीता जी इसी कुल की शोभा बढ़ाई थी।


 

Thursday, March 24, 2022

देवासुर संग्राम में अनिंद्य सुंदरी और मोहनी अवतार डा. राधे श्याम द्विवेदी


           देवताओं और दैत्यों के संघर्ष की गाथाओं से भारतीय ग्रन्थ भरे पड़े हैं। एक प्रचलित कथा के अनुसार ब्रह्मा के मानसपुत्र महर्षि कश्यप ने प्रजापति दक्ष की तेरह कन्याओं से विवाह किया था, उनमें से दिति और अदिति विशेष थीं। वाल्मीकि रामायण के एक प्रसंग में ऋषि विश्वामित्र का सुन्दर आख्यान है — “सत्ययुग में दिति के पुत्र दैत्य बड़े बलवान थे; और अदिति के पुत्र बड़े धर्मात्मा देवता हुए।”
          कश्यप की अन्य पत्नियों—दनु से दानव, अरिष्ट से गन्धर्व, सुरसा से सर्प, काष्ठा से यक्ष एवं रक्ष, सुरभि से गोवंश, विनिता से अरुण और गरुड़ (पक्षीराज) इत्यादि के उद्भव की कथाएँ भी प्रचलित हैं। दैत्यवंश हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यपु प्रभृति शक्तिशाली राजाओं से सुसज्जित है; महादानवीर राजा बलि भी इसी वंशावली से हैं। नारायण का वामन अवतार इन्हीं के आसपास अवतरित होने की कथा है। अदिति के पुत्रों में विष्णु, शक्र, अर्यमा, धाता, त्वष्टा, विवस्वान इत्यादि थे। कुल मिलाकर निचोड़ यह है कि दैत्य और देव आपस में भाई हुए। इस कथा से पूर्व इनमें आपसी संघर्ष के उल्लेख नहीं मिलते। आपस में भाई-चारा और विमर्श के प्रमाण अवश्य हैं।
           एक दिन दैत्यों और देवताओं को अमर और नीरोग होने का विचार आया। दोनों में गंभीर चिंतन हुआ। निष्कर्ष निकला कि क्षीरसागर का मंथन किया जाए, हो सकता है कि उसमें से अमृतमयी रस प्राप्त हो। निर्णय हुआ, वासुकि नाग (क्रोधवशा- कश्यप की संतान) को रस्सी और मन्दराचल पर्वत को मथनी बनाकर क्षीरसागर का मंथन प्रारम्भ हुआ। एक हज़ार साल तक मंथन चला। बहुसंख्यक मुँह वाले वासुकि लगातार घर्षण के कारण मुख से विष उगलते हुए, मन्दराचल को लगातार डसने लगे। इस कारण वहाँ भयंकर धुएँ के साथ हलाहल नामक विष ऊपर उठा। श्रीहरि के कहने पर शिव ने उन सबके कल्याणार्थ अग्रपूजा के रूप में विष को ग्रहण किया।
           मंथन पुनः आरम्भ हुआ, लेकिन निरंतर घर्षण के कारण मथनी बना मन्दराचल पाताल में घुस गया। तब श्रीहरि ने कच्छप रूप धारण करके उसे अपनी पीठ पर रखा, और विश्वात्मा केशव स्वयं भी मंथन करने लगे।
           पुनः एक हजार साल के मंथन के बाद उस क्षीरसागर से एक आयुर्वेदमय पुरुष प्रकट हुआ। उनका नाम धन्वन्तरि था, उनके एक हाथ में दंड और कमंडल था। धन्वन्तरि उत्पत्ति की इस कथा की पुष्टि प्राचीन आयुर्वेद ग्रन्थ भी करते हैं। वहाँ कथन है — ‘धन्वन्तरि के हाथ में अमृतकलश था, उसे विष्णु को देने के पश्चात उन्होंने अपने योग्य आदेश की प्रार्थना की। तब विष्णु ने उन्हें मृत्युलोक में जाकर आयुर्वेद की स्थापना का आदेश दिया।’
          एक अन्य कथा के अनुसार कालांतर में इन्होंने पृथ्वी पर पुण्यक्षेत्र काशी की स्थापना की। इन्हें काशीराज दिवोदास धन्वन्तरि के साथ जोड़कर देखा जाता है। धन्वन्तरि सम्प्रदाय (इंडियन स्कूल ऑफ़ सर्जरी) का श्रेय भी इन्हें प्राप्त है। आचार्य सुश्रुत इसी परम्परा से निकले हैं। आयुर्वेद में शल्य चिकित्सकों को धन्वन्तरि उपाधि देने का यही अभिप्राय है।
             धन्वन्तरि के पीछे जल (अप्) से सुन्दर स्त्रियाँ प्रकट हुईं। उन्हें साधरणा कहकर सबने उनका परित्याग कर दिया। इसके बाद उनका क्या हुआ, कथा में उल्लेख नहीं। परन्तु अप् (जल) से प्रकट होने के कारण इन्हें अप्सराएँ कहा गया।
तदोपरांत क्षीरसागर से वरुण की कन्या प्रकट हुई। वह अत्यंत अभिमानिनी सुरा की देवी थी। प्रकट होते ही वह अपने वरणयोग्य पुरुष खोजने लगी। दैत्यों ने उस अभिमानिनी सुरा को स्वीकार नहीं किया, लेकिन अदिति के पुत्रों ने उस सुरा सुन्दरी को ग्रहण कर लिया। सुरा को ग्रहण करने वाले सुर कहलाए; इसका परित्याग करने वालों को असुर कहा गया।
' अनिन्द्य सुन्दरी’ क्यो
हमारे समक्ष प्रश्न यह है कि महर्षि वाल्मीकि ने सुरा को ‘जगृहुस्तामनिन्दिताम्’ अर्थात ‘अनिन्द्य सुन्दरी’ क्यूँ कहा होगा? आयुर्वेदीय चरकसंहिता में मदात्यय चिकित्सा नामक अध्याय है। इसमें सुरा के प्रकार सहित उसके औषधीय गुणों-अवगुणों की विस्तृत चर्चा की गयी है। एक लम्बे विमर्श के अंत में एक श्लोक है — 
             "यत्रैकः स्मृतिविभ्रंशः तत्र सर्वमसाधुवत् ।
                इत्येवं मद्य दोषज्ञा मद्यं गर्हन्ति यत्नतः।।”
—अर्थात, वर्तमान परिस्थितियों की स्मृति नष्ट होने के प्रभाव-वश मनुष्य का आचरण अप्रशंसनीय हो जाता है। जो लोग मद्य के इस प्रभाव से परिचित हैं, वे प्रयत्नपूर्वक मद्य को स्वयं से दूर रखते हैं। कहने का तात्पर्य केवल इतना कि औषधीय गुणों से परिपूर्ण होने पर भी आयुर्वेद में मद्य-सेवन का अनुमोदन नहीं किया गया है – निन्दित ही माना।
             अस्तु, इसके पश्चात क्षीरसागर से उच्चैःश्रवा अश्व, बहुमूल्य मणि कौस्तुभ और अमृत प्रकट हुआ। अब यदि रामायण में उल्लिखित कथा को आधार मानें तो क्षीरसागर मंथन से आयुर्वेदीय पुरुष के प्राकट्य पर उनके हाथ में अन्य प्रचलित कथाओं में उद्धृत अमृतकलश नहीं था। इस विरोधाभास के क्या कारण होंगे, विचारणीय रहेगा।
जो भी हो, अमृत के लिए दिति और अदिति के पुत्रों में घमासान हुआ। सुरा के आवेश में अदिति के पुत्र अपेक्षाकृत बलशाली दैत्यों पर भारी पड़े। पिटे हुए असुरों ने रक्षों को साथ मिलाया और सुरों पर फिर आक्रमण किया। उन्मत्त देवताओं ने घोर संग्राम में असुरों और राक्षसों का विनाश किया। दिति के पुत्रों की विशेष हानि हुई।
              इसी बीच विष्णु ने मोहिनी माया के सहयोग से अमृत का अपहरण कर लिया। बचे-खुचे असुर जो विष्णु से अमृत छीनने आए, उन्हें विष्णु ने मसल डाला। दैत्यवध पश्चात इंद्र को त्रिलोकी का राज्य प्राप्त हुआ। दिति अपने पुत्रों के शोक में संतप्त थी। अमरता प्राप्त करने के उद्योग में भाईयों में दरार पड़ चुकी थी। इस विवाद ने एक लम्बे संघर्ष का सूत्रपात कर दिया।
             प्राचीन कथाएँ अनेकार्थी हैं। प्रत्येक सन्दर्भ में अनेक शिक्षाएँ निहित हैं। इस कथा के आधार पर कहा जा सकता है कि हम वर्तमान परिस्थितियों से असंतुष्ट होकर जब अतिमहत्वकांक्षा में कुछ अभूतपूर्व प्राप्त करने का प्रयास करते हैं तो बहुत कुछ दांव पर लगता है। दैत्यों ने जब अपनी हार पर मंथन किया होगा तो हो सकता है कि उन्होंने सुरा को देवताओं की अदम्य शक्ति का कारक जाना, तत्पश्चात सुरा संधान का प्रयास किया हो। परन्तु ‘अनिन्द्य सुंदरी’ केवल क्षीरसागर से उत्पन्न सुरा थी, वैकल्पिक सुरा की निंदा आयुर्वेद में की गई है। कुछ भी हो, दैत्य थे बड़े उद्योगी। संकल्पना और संधान करने की उनकी महारत विशेष कही जा सकती है।
    मोहिनी (मोह और वासना की देवी) हिन्दू भगवान विष्णु का एकमात्र स्त्री अवतार है। इसमें उन्हें ऐसे स्त्री रूप में दिखाया गया है जो सभी को मोहित कर ले। उसके प्रेम में वशीभूत होकर कोई भी सब भूल जाता है, इस अवतार का उल्लेख महाभारत में भी आता है। समुद्र मंथन के समय जब देवताओं व असुरों को सागर से अमृत मिल चुका था, तब देवताओं को यह डर था कि असुर कहीं अमृत पीकर अमर न हो जायें। तब वे भगवान विष्णु के पास गये व प्रार्थना की कि ऐसा होने से रोकें। तब भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लेकर अमृत देवताओं को पिलाया व असुरों को मोहित कर अमर होने से रोका।
         मोहिनी अवतार में भगवान श्री विष्णु जी नर से नारी बनकर सारे संसार की, राक्षसों से रक्षा की थीं।अगर भगवान विष्णु जी मोहिनी रूप में नहीं आते तो मानव जाति इस दुनिया से लुप्त हो गये होते।
मोहिनी अवतार और भस्मासुर 
भस्मासुर पौराणिक कथाओं में ऐसा दैत्य था जिसने भगवान शिव से वरदान माँगा था कि वो जिसके सिर पर हाथ रखेगा, वह भस्म हो जाएगा। कथा के अनुसार भस्मासुर ने इस शक्ति का गलत प्रयोग शुरू किया और स्वयं शिव जी को भस्म करने चला। शिव जी ने विष्णु जी से सहायता माँगी। विष्णु जी ने एक सुन्दर स्त्री का रूप धारण किया, भस्मासुर को आकर्षित किया और नृत्य के लिए प्रेरित किया। नृत्य करते समय भस्मासुर विष्णु जी की ही तरह नृत्य करने लगा और उचित मौका देखकर विष्णु जी ने अपने सिर पर हाथ रखा, जिसकी नकल शक्ति और काम के नशे में चूर भस्मासुर ने भी की। भस्मासुर अपने ही वरदान से भस्म हो गया।
             समुद्र मन्थन के दौरान अंतिम रत्न अमृत कलश लेकर भगवान विष्णु धनवंतरी रूप में प्रकट हुए। असुर भगवान धन्वंतरि से अमृत कलश लेकर भाग गए तो धन्वंतरि एक सुन्दर नारी के रूप मेंप्रकट हुए जो बहुत सुन्दर थी उस नारी का नाम मोहिनी रखा गया। मोहिनी ने असुरों से अमृत लिया और देवताओं के पास गईं। उन्होंने असुरों को अपनी ओर मोहित कर लिया और देवताओं को अमृत पिलाने लगीं। मोहिनी रूपी विष्णु की चाल स्वरभानु नाम का दानव समझ गया और वह देवता का भेस लेकर अमृत पीने चला गया। मोहिनी को जब ये बात पता चली तो उन्होंने स्वरभानु का सिर सुदर्शन चक्र से काट दिया किंतु तब तक उसके गले से अमृत की घूंट नीचे चली गई और वह अमर हो गया और राहु के नाम से उसका सिर और केतु के नाम से उसका धड़ प्रसिद्ध हुआ।



पृथु के वंशज व देवासुर संग्राम की कहानी( राम के पूर्वज - 5) डा. राधे श्याम द्विवेदी

राजा पृथ के बैकुंठ जाने के बाद अनके पुत्र विजितश्व ने लंबे समय तक राज किया. उनके वंश में ही राजा बर्हिषत हुए जिनका विवाह सागर की पुत्री शतद्रुति से हुआ. शतद्रुति इतनी रूपवती थीं कि उनके रूप पर सभी देवता मोहित थे. विवाह के फेरों के समय तो स्वयं अग्निदेव भी उन पर मोहित हो गए थे. बर्हिषत और शतद्रुति के दस पुत्र हुए जो प्रचेता कहलाये. पिता की आज्ञा से प्रचेता सागर के भीतर ही तप करने चले गए. प्रचेताओं को भगवान शिव के दर्शन हुए. उनसे दीक्षा लेकर प्रचेताओं ने तप आरंभ किया. बर्हिषत एक के बाद एक यज्ञ करते जा रहे थे. एक दिन नारद ने राजा को समझाया कि यज्ञ आदि करने के बाद भी आप कर्म बंधन से मुक्त होने की बजाय उसमें और बंधते जा रहे हैं. इससे मोक्ष प्राप्त नहीं होगा. जिन पशुओं की तुम यज्ञों में बलि कर रहे हो वे सब प्रतिशोध के लिए इंतज़ार कर रहे हैं. नारदजी ने बर्हिषत को पुरंजन की कथा सुनाई जिससे उनकी आंखें खुलीं.
 मनु के पुत्र बीर ने प्रजापति कर्दम की कन्या काम्या से विवाह किया था तथा दो पुत्र (1) प्रियव्रत तथा (2) उत्तानपाद और तीन पुत्री (1) प्रसूति और (2) आकूति ( 3) देवहूति नाम की संतानों को जन्म दिया था। देवहूति नामक कन्या का पाणिग्रहण महान ऋषि कर्दम के साथ हुआ । 
कर्दम ऋषि की उत्पत्ति सृष्टि की रचना के समय ब्रह्मा जी की छाया से हुई थी। ब्रह्मा जी ने उन्हें प्रजा में वृद्धि करने की आज्ञा दी। उनके आदेश का पालन करने के लिये कर्दम ऋषि ने स्वयंभुव मनु के द्वितीय कन्या देवहूति से विवाह कर नौ कन्याओं तथा एक पुत्र की उत्पत्ति की। कन्याओं के नाम कला, अनुसुइया, श्रद्धा, हविर्भू, गति, क्रिया, ख्याति, अरुन्धती और शान्ति थे तथा पुत्र का नाम कपिल था। कपिल के रूप में देवहूति के गर्भ से स्वयं भगवान विष्णु अवतरित हुये थे।
भगवान कपिल
आदिदेव के घर सांख्य शास्त्र के रचयिता जो तत्व ज्ञान में भगवान के समान है और जिनका नाम कपिल भगवान कहा जाता है , अवतरित हुए।संख्या शास्त्र या गणित की रचना महान ऋषि जो ज्ञान में ईश्वर के समान थे भगवान कपिल ने की थी। गणित या सांख्य शास्त्र की रचना प्रथम मन्वन्तर के द्वितीय चरण महर्षि कपिल ने की थी। महान ऋषि आदिदेव के घर सांख्य शास्त्र के रचयिता महान ऋषि भगवान कपिल हुए और कला नामक पुत्री हुई। हरियाणा के कैथल जिले का कस्बा कलायत महाभारतकालीन ऐतिहासिक व धार्मिक नगर है। भागवत पुराण में वर्णन है कि कपिलमुनि भगवान विष्णु के छठे अवतार हैं। कपिलमुनि की माता का नाम देवहूति व पिता का नाम कर्दम ऋषि था। देवहूति ब्रह्मा जी की पुत्री थीं। कलायत के इसी स्थान पर कपिलमुनि ने तपस्या की थी और अपनी मां देवहूति को बाल्यावस्था में सांख्य-शास्त्र का ज्ञान दिया था। अलबत्ता यहां से 12 कि.मी. की दूरी पर वह स्थान है जहां पर कपिलमुनि ने जन्म लिया था। उनकी मां मनु व शतरूपा की पुत्री थी। शास्त्र ग्रंथ बताते हैं कि जब प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की तो उन्होंने अपने शरीर के आधे हिस्से से नारी का निर्माण किया। इन्हें मनु तथा शतरूपा कहा गया। इनका आश्रम कलायत से 15 किमी. की दूरी पर था जिसे आज देववन कहते हैं। देवहूति के पति थे ऋषि कर्दम। वे यहीं आसपास कैलरम नामक स्थान पर तप करते थे। कपिल मुनि अपने माता-पिता की दसवीं संतान थे। उनसे पहले उनकी नौ बहनें थीं। इसी कलायत में कपिल मुनि महाराज ने जब सांख्य शास्त्र की रचना की थी तब बाल्यावस्था में ही कपिल मुनि महाराज ने अपनी माता को सृष्टि व प्रकृति के चौबीस तत्वों का ज्ञान प्रदान किया था। कहते हैं कि सांख्य दर्शन के माध्यम से जो तत्व ज्ञान मुनि महाराज ने अपनी माता देवहूति के सामने रखा था वही श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता के उपदेश के रूप में सुनाया था। कपिलमुनि का श्रीमद्भगवत गीता में वर्णन इस प्रकार से है - 
अक्षत्थ: अश्रृत्थ: सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारद:। 
गन्धर्वाणां चित्ररथ: सिद्धानां कपिलो मुनि:॥ 
अर्थात् भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को बता रहे हैं कि हे अर्जुन जितने भी वृक्ष हैं उनमें सबसे उत्तम वृक्ष पीपल का है और वो मैं हूं, देवों में नारद मैं हूं, सिद्धों में कपिल मैं हूं, ये मेरे ही अवतार हैं। मुनि महाराज ने माता को बताया था कि मनुष्य का शरीर देवताओं की भांति ही होता है, किंतु उसका ज्ञानी होना अत्यावश्यक है। ज्ञानवान पुरुष देवताओं से भी अच्छे होते हैं। भक्ति, योग, यज्ञ, तीर्थ, दान और व्रत आदि को सभी धर्मों से श्रेष्ठ समझना चाहिए। जब तक सांसारिक तृष्णा नहीं छूटती, तब तक भक्ति योग की प्राप्ति कठिन है। भक्ति व ज्ञान ईश्वर की कृपा से ही संभव हैं। कपिलमुनि अत्यंत उत्कृष्ट कोटि के विचारक व अथाह ज्ञानवान थे। उन्हें ब्रह्मïड के सृष्टि विकास संबंधी सिद्धांत का आदि प्रवर्तक माना जाता है। उन्होंने ब्रह्मïड की उत्पत्ति तथा निष्क्रिय ऊर्जा की अवधारणा को स्पष्टता दी। वे षष्ठितंत्र ग्रंथ के रचयिता थे। इनका जन्म पांच हजार साल पहले हुआ था। इस कथा को तो प्राय: सभी लोग जानते हैं कि वे महान तपस्वी-साधक थे। उनकी समाधि स्थिति को भंग करने पर मुनि महाराज ने सगर राजा के साठ हजार पुत्रों को भस्म कर दिया था। उनके उपाय बताने पर ही उनके उद्धार के लिए, अंशुमान, दिलीप और भागीरथ ने हजारों वर्ष तप किया जिससे गंगा धरती पर अवतरित हुई और सगर पुत्रों का उद्धार समुद्र तट पर हुआ। उनके ध्यान स्थल सागर के तट पर कपिल महाराज का मंदिर शोभित है तथा पास ही एक अति सुंदर तीर्थ स्थल है। भारत के कोने-कोने से आकर श्रद्धालु कपिल तीर्थ में स्नान करके संसार की प्रत्येक मनोकामना पूर्ण करते हैं। प्रत्येक पूर्णिमा को यहां विशेष मेला लगता है। 
महर्षि कश्यप
कला का विवाह महर्षि मरीचि के साथ हुआ जिससे उनके 12 पुत्र हुए जिसमे तीसरे नंबर के पुत्र महर्षि कश्यप हुए जिनकी 13 कन्याओं से विवाह हुए। उनकी दो पत्नी सगी बहन थी! जिसमे एक का नाम दिती और दूसरी का अदिति था।महर्षि कश्यप और दिती से राक्षस, असुर, दैत्य पैदा हुए।महर्षि कश्यप और अदिति से देवता, आर्य ऋषि हुए। 
विवश्वान
ऋषि कश्यप और अदिति के सबसे छोटे पुत्र का नाम सूर्यदेव के नाम पर विवश्वान सूर्य रखा गया। सूर्य ने आर्यावर्त में अयोध्या नामक सुंदर नगरी बसाई जो सरयू नदी के किनारे और आर्यावर्त के बिल्कुल बीचोबीच में थी, वहां से वह पूरे आर्यावर्त के प्राणियों को कंट्रोल कर सकते थे। और इसी नगरी को अपनी राजधानी बनाया। विवश्वान्न सूर्य का विवाह भक्त ध्रुव के पुत्र राजा प्रियव्रत के पौत्र की पुत्री संज्ञा और अश्विनी से हुआ।
वैवस्वत मनु
सूर्य और संज्ञा के पुत्र वैवस्वत मनु हुआ! इन्हीं राजा सूर्य के नाम पर इस वंश वेल का नाम सूर्य वंश पड़ा, न कि सूर्यदेव का वंश। परन्तु हां राजा विवश्वान्न असली नाम सूर्य के समान तेज, बल बुद्धि, और गति की वजह से उनका नाम सूर्य पड़ा था और यह नाम उनके दादाजी महर्षि मरीचि ने दिया था।
इंद्र देवराज
सूर्य के सबसे बड़े भाई इन्द्र हुए जिनको स्वर्ग के देवताओं का राजा बनाया गया। इसका अर्थ यह है कि जो भी इन्द्र के पद पर बैठेगा वह देवताओ का ही रिश्तेदार होगा! भाई, चाचा या भतीजा, यही वजह थी कि जब भी देव और असुर लड़ते थे ! देवता हमेशा इन्द्र की सहायता करते थे !क्योकि इन्द्र सगे भाई थे असुर सौतेले ! कश्यप और अदिति के 12 पुत्र में से 10 पुत्र स्वर्ग से लेकर प्रथ्वी के विभिन्न स्थानों के राजा हुए! उनके दो पुत्रों ने ब्राह्मण धर्म अपनाया जिसमे से एक त्रिपाठी हुए! उनके वंशज आज भी त्रिपाठी या तिवारी हैं।
ऋषि सांडिल्य
कश्यप अदिति के चौथे नंबर के पुत्र ऋषि सांडिल्य हुए! उन्होंने वेदों का ज्ञान अर्जित किया और ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ब्रह्म को जानने वाले ब्रह्म को पाने वाले हुए जिनके वंशज सांडिल्य गोत्र वाले है।
                              समुद्र मंथन
देव और असुर संग्राम 
कश्यप और दिती से पैदा हुए पहले पुत्र हिरण्याक्ष और दूसरे का नाम हिरणाकश्यप हुआ। इनको आर्यावर्त के दक्षिण का राजा बनाया गया! परन्तु उसने तपस्या से वरदान में इतनी शक्ति प्राप्त कर लिया था जिससे उसने आगे चलकर सौतेले भाई लोगो की जमीन राज्य छीन लिए और यहां से शुरू हुई दानव और देवो के युद्ध। अयोध्या के राजा लोग हमेशा स्वर्ग के राजा इन्द्र की सहायता और असुरो से युद्ध इसीलिए करते थे क्योंकि इन्द्र उनका सगा भाई ,चाचा, दादा था और असुर सौतेले। यही से देवासुर संग्राम शुरू हुआ। 

Wednesday, March 23, 2022

ध्रुववंशज( ध्रुव से पृथु तक) की कहानी ( राम के पूर्वज - 4 ) डा. राधे श्याम द्विवेदी

उत्कल और वत्सर का शासन 
ध्रुव जी त्रिलोक्य पार कर सप्त ऋषियों मण्डल से भी ऊपर पहुंच गए । उनके दो पुत्र उत्कल और वत्सर को राजपाट देने की बारी आई । उत्कल पागलो की तरह व्यवहार करता था। उसे राजपाट और भौतिक सुख से कोई मतलब न था । वह तो गूंगा और बहरा समझा जाता था ,न कुछ बोलता न कहता । अतः ध्रुव की पत्नी भ्रमि के छोटे पुत्र वत्सर को राजा बना दिया गया।
वत्सर  राजा
वत्सर की पत्नी का नाम था स्वार्थी ,उससे पुष्पार्ण, तिग्मिकेतु इष ,ऊर्ज वसु और जय नामक छः पुत्र हुए। पुष्पार्ण के प्रभा और दोषा नाम की दो पत्नियां थी। प्रभा के प्रातः ,मध्यान्ह ,और सायं तीन पुत्र हुए। दोषा के प्रदोष ,निशीथ और व्युष्ट नामक तीन पुत्र हुए। व्युष्ट ने अपनी पत्नी पुष्करिणीसे सर्वतेजा नाम के पुत्र को जन्म दिया। सर्वतेजा की पत्नी आकूति से चक्षु नाम के पुत्र का जन्म हुआ। 
चाक्षुस छठवां मन्वन्तर :-
चक्षु से ही चाक्षुस मन्वन्तर हुआ। यह छठवां मन्वन्तर [युग] हुआ। चक्षु मनु की पत्नी नड्वला से पुरु , कुत्स ,त्रित धुम्न , सत्यवान, ऋत व्रत , अग्निष्टोम , अतिरात्रि , प्रधुम्न ,शिबि ,और उल्मूक नामक 12 सत्वगुणी बालक हुए। इनमे से उल्मूक को अपनी पत्नी पुष्करणी से अंग , सुमना , ख्याति , क्रत ,अंगिरा और गय नामक पुत्र उत्पन्न हुए । 
राजा अंग:-
इनमे अंग की पत्नी सुनीथा थी। एक बार राजा अंग यज्ञ करवा रहे थे तब देवता उनसे खुश न थे और वे यज्ञ के भोग को वे ग्रहण नहीं कर रहे थे तब उन्होंने ब्राह्मणो से पूछा की हमारे यज्ञ का भोग देवता ग्रहण क्यों नहीं कर रहे है ?
ब्राह्मणो ने उत्तर दिया कि आपके पिछले जन्मो के कर्मो के कारण आपका यज्ञ सफल नहीं हो रहा है और इसी कारण आपके कोई पुत्र नहीं है । आप पुत्र की कामना से यज्ञ करे । तब अंग ने पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ किया। यज्ञ के प्रसाद को उन्होंने अपनी पत्नी सुनीथा को खिलाया। सुनीथा के पिता मृत्यु के देवता थे ,सुनीथा से वेन नामक पुत्र हुआ । 
राजा वेन:-
राजा वेन क्रूर और अत्याचारी हुआ । वेन के नाना मृत्यु के देवता थे अतः वेन पर उनके ही गुण दिखते थे। वेन से दुखी होकर उनके पिता अंग वेन को छोड़कर एक दिन जंगल चले गए। राजा अंग के जंगल चले जाने के बाद कोई राजा न हुआ यह देखकर ऋषि भृगु ने वेन को ही राजा बना दिया। वेन के अत्याचार बढ़ने लगे और वह प्रत्येक दिन निर्दोष जीवो की हत्या करता और उन्हें बिना अपराध के ही दंड देता । उसने घोषणा करवा दी सभी मेरी ही पूजा करें। राजा से बड़ा कोई नहीं है ।प्रजा वेन से दुखी रहने लगी । तब ऋषि मुनियो ने वेन को समझया किन्तु वेन ने कहा कि तुम लोग मूर्ख हो मेरे ही तुम लोग खाते हो अतः तुम सब मेरी ही जय जय करो । क्योकि राजा से बड़ा कुछ नहीं होता है ।
      जो व्यक्ति भगवान् को ही न माने ऐसे क्रूर व्यक्ति का पृथ्वी पर जीने से क्या लाभ ? ऐसा कहकर मुनियो ने कहा कि मारो-मारो और वेन को मार डाला गया । जब वेन की अन्तयेष्टि अंतिम क्रिया हो रही थी तब मुनियो और मंत्रियो ने कहा की बिना राजा के रहना कठिन होता है। चोर आदि आतितायियों से अब रक्षा कैसे होगी।
ऋषियों और मुनियो ने  वेन की जांघ का मंथन किया तो उससे एक बोना,  कौआ के सामान काला ,चपटी नाक वाला ,जिसके छोटे छोटे हाथ थे ,टांगे छोटी थी और जबड़ा बड़ा था नेत्र लाल थे उसने जन्म लेते ही बड़ी नम्रता और दीनता से पूछा कि क्या करूँ ?तब ऋषियों ने कहा की निषीद निषीद [बैठ जा बैठ जा ]उसने जन्मते ही राजा वेन के पाप और उनके गुणों को अपने ऊपर ले लिया । यह निषाद कहलाया। निषाद वंश के वंशधर इसी बोने के स्वभाव के हुए। हिंसा ,लूटमार और पापकर्म करते है और गांव में न रहकर पर्वतो और पहाड़ों पर ही रहते है।
      फिर ऋषि और मुनियों ने वेन की भुजा [हाथ ] का मंथन किया और उससे एक पुरुष और एक स्त्री हुई यह जोड़ा [युग्म] एक विष्णु और दूसरा लक्ष्मी था।  यह पुरुष ही पृथु हुआ और स्त्री का नाम हुआ अर्चि। पृथु राजा हुए और अर्चि उनकी पत्नी हुई।
राजा 'पृथु' थे विष्णु भगवान् के अंशावतार:-
पृथु राजा वेन के पुत्र थे। भूमण्डल पर सर्वप्रथम सर्वांगीण रूप से राजशासन स्थापित करने के कारण उन्हें पृथ्वी का प्रथम राजा माना गया है। साधुशीलवान् अंग के दुष्ट पुत्र वेन को तंग आकर ऋषियों ने हुंकार-ध्वनि से मार डाला था। तब अराजकता के निवारण हेतु निःसन्तान मरे वेन की भुजाओं का मन्थन किया गया जिससे स्त्री-पुरुष का एक जोड़ा प्रकट हुआ। पुरुष का नाम 'पृथु' रखा गया तथा स्त्री का नाम 'अर्चि'। वे दोनों पति-पत्नी हुए। पृथु को भगवान् विष्णु तथा अर्चि को लक्ष्मी का अंशावतार माना गया है।
       राजाओं में सबसे पहला राजा हुआ सम्राट  पृथु। सभी ऋषि मुनि पुरोहित प्रजा पृथु की स्तुति करने लगी ,राजा पृथु की हाथ की रेखाएं विष्णु भगवान की ही रेखाएं थी और हाथ में कमल का चिन्ह बना हुआ था। जिनके हाथो में चक्र का चिन्ह होता है वह विष्णु का ही चिन्ह होता है। वेदपाठी ब्रह्मणो ने पृथु का सत्कार सम्मान किया पर्वत ,नदी, वृक्षो समुद्र , गाय, पक्षी ,सर्प सभी ने पृथु का स्वागत किया। और उन्होंने राजा पृथु का अभिषेक का आयोजन किया और उन्हें पृथ्वी का सम्राट घोषित किया गया। 
        पृथु प्रजा से मिले प्रजा बहुत दुखी थी सूखकर हड्डियों का ढांचा हो गई थी प्रजा भूख से मर रही थी ,प्रजा से जब पूछा गया तो उसने बताया की पृथ्वी से कुछ पैदा ही नहीं हो रहा है तब राजा पृथु पृथ्वी पर नाराज हुए [जो गाय का रूप रख कर राजा से मिलने आयी थी ] और उससे कहा की तुमने अपने पेट में सब कुछ छिपाकर रख लिया है उसे बहार निकालो नहीं तो हम तुम्हे अभी  एक बाण से ही घायल कर देंगे। जब उन्हें मालूम हुआ कि पृथ्वी माता ने अन्न, औषधि आदि को अपने उदर में छिपा लिया है तो वे धनुष बाण लेकर पृथ्वी मारने के लिए दौड़ पड़े। 
       पृथ ने कहा, “स्त्री पर हाथ उठाना अवश्य ही अनुचित है; लेकिन जो पालनकर्ता अन्य प्राणियों के साथ निर्दयता का व्यवहार करता है, उसे दंड अवश्य ही देना चाहिए।”
       पृथ्वी ने जब देखा कि अब उसकी रक्षा कोई नहीं कर सकता तो वह राजा पृथु की शरण में ही आई जीवनदान की याचना करती हुई वह बोली, “मुझे मारकर अपनी प्रजा को जल पर कैसे रखेंगे?” 
     पृथ्वी ने राजा को नमस्कार करके कहा, “मेरा दोहन करके आप सबकुछ प्राप्त करें। आपको मेरे योग्य बछड़ा और दोहन-पात्र का प्रबंध करना पड़ेगा। मेरी संपूर्ण संपदा को दुराचारी चोर लूट रहे थे, अतः मैंने यह सामग्री अपने गर्भ में सुरक्षित रखी है। मुझे आप समतल बना दीजिए।” राजा पृथु संतुष्ट हुए।
      उन्होंने मनु को बछड़ा बनाया एवं स्वयं अपने हाथों से पृथ्वी का दोहन करके अपार धन धान्य प्राप्त किया। फिर देवताओं तथा महर्षियों को भी पृथ्वी के योग्य बछड़ा बनाकर विभिन्न वनस्पति, अमृत, सुवर्ण आदि इच्छित वस्तुएँ प्राप्त की। पृथ्वी के दोहन से विपुल संपत्ति एवं धन-धान्य पाकर राजा पृथु अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने पृथ्वी को अपनी कन्या के रूप में स्वीकार किया। पृथ्वी को समतल बनाकर पृथु ने स्वयं पिता की भाँति से के कल्याण एवं पालन-पोषण का कर्तव्य पूरा किया।
      पृथ्वी बोली राजन आप आध्यात्मिक ,अधिभूत ,अधिदेव सम्बन्धी सभी बातो को जानते हो ,आपने ही इस सृष्टि की रचना की है और आप साक्षात विष्णु ही हो आपने पहले भी मेरी रक्षा की थी और आप धराधर कहलाये थे आप पृथ्वी का  उपभोग करो और जैसे बछड़ा अपनी माँ का दूध निकल कर पीता है तुम भी मेरी नदियों पेड़ पौधो और पहाड़ो ,वन का उपयोग करो। राजन ! पहले के लोग नियम और बिना धर्म के एवं वैदिक नियमो का पालन न करने के कारण मेरा सब कुछ पापी दुरात्मा लोग मेरा शोषण करते थे । इसलिए सभी खनिज और बीज मैंने अपने पेट में छुपा लिए थे। 
         फिर पृथ्वी ने वृहस्पति ऋषि को बछड़ा बनाकर वेद रुपी अमृत दिया। कपिल ऋषि को बछड़ा बनाकर अणिमा आदि अष्ट सिद्धियां ,और आकाश गमन का ज्ञान दिया ,देवताओ को बछड़ा बनाकर अमृत और ओषधयों का ज्ञान दिया इसी तरह गंधर्व , अप्सराओ ,यक्ष राक्षसो को उनके हित के अनुसार सब दिया। 
           महाराज पृथु ने ही पृथ्वी को समतल किया जिससे वह उपज के योग्य हो पायी। महाराज पृथु से पहले इस पृथ्वी पर पुर-ग्रामादि का विभाजन नहीं था; लोग अपनी सुविधा के अनुसार बेखटके जहाँ-तहाँ बस जाते थे। महाराज पृथु अत्यन्त लोकहितकारी थे।
      राजा पृथु ने तीर की नोक से  पृथ्वी के सभी पहाड़ो को काटकर पृथ्वी को समतल कर दिया और उसे रहने योग्य बना दिया । इससे पहले पृथ्वी पर ग्राम और विभाग नहीं थे किन्तु अब प्रजा के लिए घर बनाने पड़े। और फिर पृथ्वी से  से प्रसन्न  होकर राजा पृथु ने पृथ्वी को अपनी कन्या मान लिया।
सौ अश्वमेध यज्ञ के कर्ता:-
राजा पृथु ने 99 अश्वमेध यज्ञ किए स्वयं भगवान् यज्ञेश्वर उन यज्ञों में आए साथ ही सब देवता भी आए। पृथु के इस उत्कर्ष को देखकर इंद्र को ईष्या हुई उनको संदेह हुआ कि कहीं राजा पृथु इंद्रपद न प्राप्त कर लें। सौवें यज्ञ के समय इन्द्र ने अनेक वेश धारण कर अनेक बार घोड़ा चुराया, उन्होंने सौवें यज्ञ का घोड़ा चुरा लिया जब इंद्र घोड़ा लेकर आकाश मार्ग से भाग रहे थे तो अत्रि ऋषि ने उन्हें देख लिया। उन्होंने राजा को बताया और इंद्र को पकड़ने के लिए कहा। राजा ने अपने पुत्र को आदेश दिया
        पृथुकुमार ने भागते हुए इंद्र का पीछा किया इंद्र ने वेश बदल रखा था। पृथु के पुत्र ने जब देखा कि भागनेवाला जटाजूट एवं भस्म लगाए हुए है तो उसे धार्मिक व्यक्ति समझकर बाण चलाना उपयुक्त नहीं समझा। वह लौट आया और अत्रि मुनि ने उसे पुन: पकड़ने के लिए भेजा फिर से पीछा करते पृथुकुमार को देखकर इंद्र घोड़े को वहीं छोड़कर अंतर्भान हो गए। 
      पृथुकुमार अश्य को लेकर यज्ञशाला में आए। सभी ने उनके पराक्रम की स्तुति की। अश्व को पशुशाला में बाँध दिया गया। इंद्र ने छिपकर पुनः अश्व को चुरा लिया। अत्रि ऋषि ने यह देखा तो पृथुकुमार से कहा पृथुकुमार ने इंद्र को बाग चला तो लक्ष्य बनाया तो इंद्र ने अश्व को छोड़ दिया और भाग गया। इंद्र के इस षडयंत्र का पता पृथु को उन्हें बहुत क्रोध आया।
        ऋषियों ने राजा को शांत किया और कहा, आप व्रती हैं, यज्ञपशु के अतिरिक्त आप किसीका भी वध नहीं कर सकते। लेकिन हम मंत्र द्वारा इंद्र ही हवनकुंड में भस्म किए देते हैं।” यह कहकर ऋत्विजों ने मंत्र से इंद्र का आह्वान किया। वे आहुति डालना ही चाहते थे कि ब्रह्मा वहाँ प्रकट हुए। उन्होंने सबको रोक दिया। जब पृथु परेशान हो गये तो ब्रह्माजी ने राजा पृथु से कहा- आपको लगता है, 100 यज्ञ पूरे होने से भगवान के दर्शन होंगे, अगर होते तो इंद्र को भी भगवद दर्शन हो जाते। वो तो 100 यज्ञ करके ही इंद्र बना है। बल्कि वो तो 100 यज्ञ करने के बाद भी चोरी कर रहा है। ब्रह्मा जी ने आगे कहा- देखो राजन! भगवान प्रेम से मिलते हैं। 100 यज्ञ करो या 1000 यज्ञ करो जब तक प्रेम नहीं होगा भगवान नहीं मिलेंगे। महाराज पृथु को बात समझ में आयी। उन्होंने अंतिम यज्ञ का संकल्प बीच में ही छोड़ दिया।
          उन्होंने राजा पृथु से कहा, “तुम और इंद्र दोनों ही परमात्मा के अंश हो। तुम तो मोक्ष के अभिलाषी हो। इन यज्ञों की क्या आवश्यकता है? तुम्हारा यह सौवाँ यज्ञ पूर्ण नहीं हुआ है, इसकी चिंता मत करो। यज्ञ को रोक दो इंद्र के पाखंड से जो अधर्म उत्पन्न हो रहा है, उसका नाश करो।”
      भगवान् विष्णु स्वयं इंद्र को साथ लेकर पृथु की यज्ञशाला में प्रकट हुए। उन्होंने पृथु से कहा, “मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। यज्ञ में विघ्न डालनेवाले इस इंद्र को तुम क्षमा कर दो। राजा का धर्म प्रजा की रक्षा करना है। तुम तत्त्वज्ञानी हो। भगवत्प्रेमी शत्रु को भी समभाव से देखते हैं। तुम मेरे परमभक्त हो। तुम्हारी जो इच्छा हो, वह वर माँग लो।”
      राजा पृथु भगवान् के प्रिय वचनों से प्रसन्न थे। इंद्र लज्जित होकर राजा पृथु के चरणों में गिर पड़े। पृथु ने उन्हें उठाकर गले से लगा लिया। राजा पृथु ने सोचा- माँगना ही अच्छा है। माँगूगा तब तक दर्शन तो होते रहेंगे अन्यथा भगवान चले जायेंगे।
       पृथु कहते हैं- भगवन! एक वरदान इस लोक के लिए दीजिए और एक वरदान बैकुण्ठ के लिये दे दीजिए। इस लोक के लिए तो 10,000 कान दे दीजिये।
         भगवान ने कहा- 10,000 कान क्यों चाहते हो?
          राजा पृथु ने कहा- भगवन! दो कानों से आपकी कथा सुनता हूँ तो तृप्ति नहीं होती। 10,000 कान होंगे तो सब कानों से आपकी कथा सुनूँगा और खूब आनंद का अनुभव करूँगा।
           भगवान ने प्रसन्न होते हुये कहा- मैं तुम्हें इन्हीं कानों में 10,000 कान की ताकत दे देता हूँ और बैकुण्ठ के लिये क्या चाहियें?
       पृथु जी बोलते हैं- जब मैं बैकुण्ठ में रहूँगा, तो रोज मुझे आपके चरणों की सेवा मिल जाये।
       भगवान ने कहा- तुम्हारे जैसे प्रेमी को मैं चरण सेवा के लिये क्यों मना करूँगा?
       भगवान् श्रीहरि ने कहा, ” हे राजन्! तुम्हारी अविचल भक्ति से मैं अभिभूत हूँ। तुम धर्म से प्रजा का पालन करो।” राजा पृथु ने पूजा करके उनका चरणोदक सिर पर चढ़ा लिया। 
एक दिन की बात है महाराज पृथु के बगीचे में सनकादि ऋषि लोग प्रकट हो गए। राजा पृथु ने सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार से अपने उद्धार का उपाय पूछा। उन्होंने कहा- आप तो भगवद दर्शन कर चुके हैं फिर भी आप पूछना चाहते हैं तो हम कहते हैं यदि चार बातें जीवन में हो तो मनुष्य का कल्याण होता है-
1.सर्वहित का भाव 2.धार्मिक जीवन 3.भगवान के प्रति प्रेम व श्रद्धा 4. सदगुरु कृपा।
       राजा पृथु की अवस्था जब ढलने लगी तो उन्होंने अपने पुत्र को राज्य का भार सौंपकर पत्नी अर्चि के साथ वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश किया वे कठोर तपस्या करने जंगल में चले गये । अंत में तप के प्रभाव से भगवान में चित्त स्थिर करके उन्होंने देह का त्याग कर दिया। उनकी पतिव्रता पत्नी महारानी अर्चि पति के साथ ही अग्नि में भस्म हो गई। दोनों को परमधाम प्राप्त हुआ।










भक्त शिरोमणि ध्रुव की कहानी ( राम के पूर्वज -3 ) डा. राधे श्याम द्विवेदी

स्वायम्भुव मनु और शतरूपा के पुत्र उत्तानपाद मनु के बाद सिंहासन पर विराजमान हुए। उत्तानपाद अपने पिता मनु के समान ही न्यायप्रिय और प्रजा पालक राजा थे। उत्तानपाद की दो रानियां थी। बड़ी का नाम सुनीति और छोटी का नाम सुरुचि था। सुनीति को एक पुत्र ध्रुव और सुरुचि को भी एक पुत्र था जिसका नाम उत्तम था। ध्रुव बड़ा होने के कारण राजगद्दी का स्वाभाविक उत्तराधिकारी था पर सुरुचि अपने पुत्र उत्तम को पिता के बाद राजा बनते देखना चाहती थी। इस कारण वो ध्रुव और उसकी माँ सुनीति से ईर्ष्या करने लगी और धीरे धीरे उत्तानपाद को अपने मोहमाया के जाल में बांधने लगी। इस प्रकार सुरुचि ने ध्रुव और सुनीति को उत्तानपाद से दूर कर दिया। उत्तानपाद भी सुरुचि के रूप पर मोहित होकर अपने पारिवारिक कर्तव्यों से विमुख हो गए और सुनीति की उपेक्षा करने लगे।
सुरुचि द्वारा भक्त ध्रुव का अपमान
एक दिन बालक ध्रुव पिता से मिलने की जिद करने लगा, माता ने तिरस्कार के भय से और बालक के कोमल मन को ठेस ना लगे इसलिए ध्रुव को बहलाने लगी पर ध्रुव अपनी जिद पर अड़ा रहा। अंत में माता ने हारकर उसे पिता के पास जाने की आज्ञा दे दी। ध्रुव की अवस्था अभी मात्र 5 वर्ष की है पिता का सुख क्या होता है यह वह नहीं जानता। कई बार अपने मित्रों से चर्चा करें तो मित्र ने कहा ध्रुव मेरी मां कहती थी कि तुम्हारे पिता तो यहां के राजा हैं। तुम उनसे मिलना चाहोगे?.. तो चलो हम आज ही तुम्हें मिलाते हैं। अब बाल मंडली के साथ महाराज ध्रुव चल पड़े अपने पिता के दर्शन करने, महाराज उत्तानपाद सिंहासन में विराजमान हैं। बालकों ने प्रणाम किया तो ध्रुव ने भी नमस्कार कर लिया। ध्रुव जी को देखते ही महाराज बड़े आकर्षित हुए, बेटा तुम्हारा नाम क्या है?..
ध्रुव बोले- महाराज लोग मुझे ध्रुव कहते हैं।
अच्छा बेटा! तुम्हारे मां बाप कौन है?..
ध्रुव ने कहा- मेरी मां का नाम है सुनीति और मेरे पिता का नाम श्री उत्तानपाद है।
क्या...? क्या.. कहा तुमने?
तुम सुनीति के पुत्र हो।
ऐसा कहते हुए उत्तानपाद सिंहासन से उतरकर दौड़े और ध्रुव को गले से लगा लिया राजा की आंखों में पनीरे बहने लगे। राजा ने ध्रुव को लेकर सिंहासन में अपने साथ बैठा लिया, यह देख कर ध्रुव बड़े प्रसन्न हुए ध्रुव ने कहा-  राजा जी यह मेरा मित्र है। यह कहता था, कि आप मेरे पिता हैं। बोलो ना! क्या आप ही मेरे पिताजी हो?.. राजा ने कहा हां पुत्र मैं ही तुम्हारा पिता हूं।
पिता-पुत्र में वार्तालाप चल ही रहा था कि वहां पर सुरुचि अपने पुत्र उत्तम को साथ लिए आई। राजा ने कहा महारानी देखो तो आज कौन आया है!  रानी ने पूछा कौन है यह? 
यह हमारा बड़ा पुत्र ध्रुव है यह सुनते ही सुरुचि की आंखें फट गई अच्छा तो यह है मेरी सौत का बेटा और इसे इस सिंहासन पर बैठने का अधिकार किसने दिया। यह कहते ही कहते सुरुचि ध्रुव का हाथ पकड़ कर नीचे उतार दिया और सिंहासन पर उत्तम को बैठा दिया ध्रुव ने कहा मां मैं भी तो आपका पुत्र हूं यह भी तो मेरे पिता हैं फिर मुझे आपने इस सिंहासन से क्यों उतार दिया। उस सिंहासन पर इन पिता पर मेरा भी तो अधिकार है अच्छा तू मुझे अधिकार का पाठ सिखाएगा नादान बालक तेरी इतनी हिम्मत कि इस सिंहासन को अपना अधिकार बताएं ध्रुव जी ने हाथ जोड़कर कहा- माता मेरा अनुज मेरा भाई उत्तम जब महाराज की गोद में बैठ सकता है, सिंहासन पर बैठ सकता है तो मैं क्यों नहीं मुझ में भला कौन सी कमी है।
सुरुचि ने कहा- अच्छा तो तू उत्तम की बराबरी करेगा अपनी औकात देखी है, सिंहासन में बैठने के लिए राजा का पुत्र होना जरूरी नहीं, जितना मेरा पुत्र होना जरूरी है। तूने तो एक अभागन मां के गर्भ से जन्म लिया है पिता के साथ साथ मां का स्थान भी तो ऊंचा होना चाहिए। ध्रुवजी को यह शब्द बाण की तरह शुभ रहे थे, मेरी मां को यह अभागन कह रही है। क्रोध में आंखें लाल हो गई।
महाराज ध्रुवजी पूछने लगे! अच्छा इस सिंहासन पर मैं यदि बैठना चाहूं! तो मुझे क्या करना पड़ेगा?.  यह सुन सुरुचि हंसने लगी। अच्छा तो तू सिंघासन पर बैठना चाहता है। बेटा पहले तो तू तपस्या कर-
तपसाsराध्य पुरुषं तस्यैवानुग्रहेण मे।
गर्भे त्वं साधयात्मानं यदीच्छसि नृपासनम।।
महाराज के सिंहासन पर यदि बैठना चाहता है, तो जा... तपस्या कर! भगवान प्रकट हो तो उनसे वरदान मांगना। कि हे भगवान! मेरा जन्म सुरुचि के गर्भ से हो फिर इस शरीर को त्याग कर मुझसे जन्म लेना। तब तुम्हें इस सिंहासन पर बैठने का पूर्ण अधिकार मिलेगा सुरुचि के इन शब्दों से भक्त और भगवान दोनों का अपमान हुआ।
सुनीति द्वारा भक्त ध्रुव को उपदेश
अपनी विमाता का ऐसा कथन सुनकर ध्रुव कुपित होकर पिता को छोड़कर अपनी माता के महल को चल दिया। उस समय क्रोध से ध्रुव के होंठ कांप रहे थे और वो जोरों से सिसकियाँ ले रहा था। अपने पुत्र को इस प्रकार अत्यंत क्रोधित और खिन्न देखकर सुनीति ने ध्रुव को प्रेमपूर्वक अपनी गोद में बिठाकर पूछा – बेटा, तेरे क्रोध का क्या कारण है। किसने तेरा निरादर करके तेरे पिता का अपमान करने का साहस किया है। ये सुनकर ध्रुव ने अपनी माता को रोते हुए वह सब बात बताई जो उसकी विमाता ने पिता के सामने कही थी। अपने पुत्र से सारी बात सुनकर सुनीति अत्यंत दुखी होकर बोली –
” बेटा, सुरुचि ने ठीक ही कहा है, तू अवश्य ही मन्दभाग्य है जो मेरे गर्भ से जन्म लिया। पुण्यवानों से उसके विपक्षी भी ऐसी बात नहीं कह सकते। पूर्वजन्मों में तूने जो कुछ भी किया है उसे कौन दूर कर सकता है और जो नहीं किया है उसे तुझे कौन दिला सकता है। इसलिए तुझे अपनी विमाता की बातों को भूल जाना चाहिए। हे वत्स, पुण्यवानों को ही राजपद, घोड़े, हाथी आदि प्राप्त होते हैं, ऐसा जानकर तू शांत हो जा।यदि सुरुचि के वाक्यों से तुझे अत्यंत दुःख हुआ है तो सर्वफल दायी पुण्य के संग्रह करने का प्रयत्न कर। तू सुशील, पुण्यात्मा और समस्त प्राणियों का हितैषी बन क्योंकि जिस प्रकार नीची भूमि की ओर ढलकता हुआ जल अपने आप ही जलाशयों में एकत्र हो जाता है। उसी प्रकार सत्पात्र मनुष्य के पास समस्त सम्पत्तियाँ अपने आप ही आ जाती हैं। “
माता की बात सुनकर ध्रुव ने कहा – ” माँ, अब मैं वही प्रयत्न करूँगा जिससे सम्पूर्ण लोकों में आदरणीय सर्वश्रेष्ठ पद को प्राप्त कर सकूँ। अब मुझे पिता का सिंघासन नहीं चाहिए वह मेरे भाई उत्तम को ही मिले। मैं किसी दुसरे के दिए हुए पद का इक्षुक नहीं हूँ, मैं तो अपने पुरुषार्थ से ही उस परम पद को पाना चाहता हूँ जिसको पिताजी ने भी नहीं प्राप्त किया है। ”
ध्रुव का वन गमन
अपनी माता से इस प्रकार कहकर ध्रुव सुनीति के महल से निकल पड़ा और नगर से बाहर वन में पहुँचा। वहाँ ध्रुव ने पहले से ही आये हुए सात मुनीश्वरों ( सप्तर्षियों ) को मृग चर्म के आसन पर बैठे देखा। ध्रुव ने उन सबको प्रणाम करके उनका उचित अभिवादन किया और नम्रतापूर्वक कहा – ” हे महात्माओं, मैं सुनीति और राजा उत्तानपाद का पुत्र ध्रुव हूँ। मैं आत्मग्लानि के कारण आपके पास आया हूँ। “
यह सुनकर ऋषि बोले – ” राजकुमार, अभी तो तू सिर्फ चार-पाँच वर्ष का बालक जान पड़ता है।
तेरे चिंता का कोई कारण भी दिखाई नहीं देता है क्योंकि अभी तो तेरे पिता जीवित हैं फिर तेरी ग्लानि का क्या कारण है ? ”
तब ध्रुव ने ऋषियों को वह सब बात बताई जो सुरुचि ने उसे कहे थे। ये सुनकर ऋषिगण आपस में कहने लगे – ” अहो, क्षात्रतेज कैसा प्रबल है, जिससे इस नन्हे बालक के ह्रदय से भी अपनी विमाता के दुर्वचन नहीं टलते। “
ऋषि बोले – ” हे क्षत्रियकुमार, तूने जरूर कुछ निश्चय किया है, अगर तेरा मन करे तो वह हमें बता। हे तेजस्वी, हमें यह भी बता कि हम तेरी क्या सहायता करें। “
ध्रुव ने कहा – ” हे मुनिगण, मुझे न तो धन की इक्षा है और ना ही राज्य की। मैं तो केवल एक उसी स्थान को चाहता हूँ जिसको पहले किसी ने न भोगा हो।
हे मुनिश्रेष्ठ, आप लोग बस मुझे यह बता दें कि क्या करने से मुझे वह श्रेष्ठ स्थान प्राप्त हो सकता है। “
ध्रुव के इस प्रकार से पूछने पर सभी ऋषिगण एक एक करके ध्रुव को उपदेश देने लगे।
सप्तर्षियों द्वारा ध्रुव को उपदेश
मरीचि बोले – ” हे राजपुत्र, बिना नारायण की आराधना किये मनुष्य को वह श्रेष्ठ स्थान नहीं मिल सकता अतः तू उनकी ही आराधना कर। “
अत्रि बोले – ” जो परा प्रकृति से भी परे हैं वे परमपुरुष नारायण जिससे संतुष्ट होते हैं उसी को वह अक्षय पद प्राप्त होता है, यह मैं एकदम सच कहता हूँ। “
अंगिरा बोले – ” यदि तू अग्रस्थान का इक्षुक है तो जिस सर्वव्यापक नारायण से यह सारा जगत व्याप्त है, तू उसी नारायण की आराधना कर। “
पुलस्त्य बोले – ” जो परब्रह्म, परमधाम और परस्वरूप हैं उन नारायण की आराधना करने से मनुष्य अति दुर्लभ मोक्षपद को भी प्राप्त कर लेता है। “
पुलह बोले – ” हे सुव्रत, जिन जगत्पति की आराधना से इन्द्र ने इन्द्रपद प्राप्त किया है तू उन यज्ञपति भगवान विष्णु की आराधना कर। “
क्रतु बोले – ” जो परमपुरुष यज्ञपुरुष, यज्ञ और योगेश्वर हैं, उन जनार्दन के संतुष्ट होने पर कौन सी वस्तु दुर्लभ रह जाती है। “
वसिष्ठ बोले – ” हे वत्स, विष्णु भगवान की आराधना करने पर तू अपने मन से जो कुछ चाहेगा वही प्राप्त कर लेगा, फिर त्रिलोकी के श्रेष्ठ स्थान की तो बात ही क्या है। “
ध्रुव ने कहा – ” हे महर्षिगण, आपलोगों ने मुझे आराध्यदेव तो बता दिया। अब कृपा करके मुझे यह भी बता दीजिये कि मैं किस प्रकार उनकी आराधना करूँ। “
ऋषिगण बोले – ” हे राजकुमार, तू समस्त बाह्य विषयों से चित्त को हटा कर उस एकमात्र नारायण में अपने मन को लगा दे और एकाग्रचित्त होकर ‘ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ‘ इस मंत्र का निरंतर जाप करते हुए उनको प्रसन्न कर। “
ध्रुव की तपस्या
यह सब सुनकर ध्रुव उन ऋषियों को प्रणाम करके वहां से चल दिया और यमुना के तट पर अति पवित्र मधु नामक वन ( मधुवन ) में पहुँचा। जिस मधुवन में नित्य श्रीहरि का सानिध्य रहता है उसी सर्वपापहारी तीर्थ में ध्रुव कठोर तपस्या करने लगा। इस प्रकार दीर्घ काल तक कठिन तपस्या करने से ध्रुव के तपोबल से नदी, समुद्र और पर्वतों सहित समस्त भूमण्डल अत्यंत क्षुब्ध हो गए और उनके क्षुब्ध होने से देवताओं में खलबली मच गयी। तब देवताओं ने अत्यंत व्याकुल होकर इन्द्र के साथ परामर्श करके ध्रुव का ध्यान भंग करने का आयोजन किया। देवताओं ने माया से कभी हिंसक जंगली पशुओं के द्वारा तो कभी राक्षसों के द्वारा ध्रुव के मन में भय उत्पन्न करने की कोशिश की परन्तु विफल रहने पर ध्रुव की माता के रूप में भी उसका ध्यान भंग करने का प्रयत्न किया। ध्रुव एकाग्रचित्त होकर सिर्फ भगवान विष्णु के ध्यान में ही लगा रहा और किसी की ओर देखा तक नहीं। जब सब प्रकार के प्रयत्न विफल हो गए तब देवताओं को बड़ा भय हुआ और सब मिलकर श्रीहरि की शरण में गए।
देवता बोले – ” हे जनार्दन, हम उत्तानपाद के पुत्र की तपस्या से भयभीत होकर आपकी शरण में आये हैं। हम नहीं जानते कि वह इन्द्रपद चाहता है या उसे सूर्य, वरुण या चन्द्रमा के पद की अभिलाषा है। आप हमपर प्रसन्न होइए और उसे तप से निवृत्त कीजिये। “
श्री भगवान बोले – ” हे देवगण, उसे इन्द्र, सूर्य, वरूण, कुबेर आदि किसी पद की अभिलाषा नहीं है। आप सबलोग निश्चिंत होकर अपने स्थान को जाएँ। मैं तपस्या में लगे हुए उस बालक की इच्छा को पूर्ण करके उसे तपस्या से निवृत्त करूँगा। ”श्रीहरि के ऐसा कहने पर देवतागण उन्हें प्रणाम करके अपने स्थान को चले गए।
भगवान विष्णु द्वारा ध्रुव को वर प्रदान
भगवान विष्णु अपने भक्त ध्रुव की कठिन तपस्या से संतुष्ट होकर उसके सामने प्रकट हो गए। श्री भगवान बोले – ” हे उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव, तेरा कल्याण हो। मैं तेरी तपस्या से प्रसन्न होकर तुझे वर देने के लिए प्रकट हुआ हूँ। मैं तुझसे अति संतुष्ट हूँ अब तू अपनी इच्छानुसार वर माँग। “
भगवान विष्णु के ऐसे वचन सुनकर बालक ध्रुव ने आँखें खोलीं और ध्यानावस्था में देखे हुए भगवान को शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए साक्षात अपने सामने खड़े देखा। तब उसने भगवान को साष्टांग प्रणाम किया और सहसा रोमांचित तथा परम भयभीत होकर भगवान की स्तुति करने की इच्छा की। पर इनकी किस प्रकार स्तुति करूँ, ये सोचकर ध्रुव का मन व्याकुल हो गया।
ध्रुव ने कहा – ” भगवन, मैं आपकी स्तुति करना चाहता हूँ पर अपने अज्ञानवश कुछ कह नहीं पा रहा अतः आप मुझे इसके लिए बुद्धि प्रदान कीजिये। “तब भगवान विष्णु ने अपने शंख से ध्रुव का स्पर्श किया। इसके बाद क्षण मात्र में ध्रुव भगवान की उत्तम प्रकार से स्तुति करने लगा। जब ध्रुव की स्तुति समाप्त हुई तब भगवान बोले –
” हे ध्रुव, तुमको मेरा साक्षात् दर्शन हुआ है इससे निश्चित ही तेरी तपस्या सफल हो गयी है पर मेरा दर्शन तो कभी निष्फल नहीं होता इसलिए तुझे जिस वर की इक्षा हो वह मांग ले। “
ध्रुव बोला – ” हे भगवन, आपसे इस संसार में क्या छिपा हुआ है। मैं मेरी सौतेली माता के गर्वीले वचनों से आहत होकर आपकी तपस्या में प्रवृत्त हुआ हूँ जिन्होंने कहा था कि मैं अपने पिता के राजसिंहासन के योग्य नहीं हूँ।
अतः हे संसार को रचने वाले परमेश्वर, मैं आपकी कृपा से वह स्थान चाहता हूँ जो आजतक इस संसार में किसी को भी प्राप्त न हुआ हो। “
श्री भगवान बोले – ” वत्स, तूने अपने पूर्व जन्म में भी मुझे संतुष्ट किया था इसलिए तू जिस स्थान की इक्षा करता है वह तुझे अवश्य प्राप्त होगा। पूर्वजन्म में तू एक ब्राह्मण था और मुझमें निरंतर एकाग्रचित्त रहने वाला, माता पिता का सेवक तथा स्वधर्म का पालन करने वाला था। बाद में एक राजपुत्र से तेरी मित्रता हो गयी। उसके वैभव को देखकर तेरी इच्छा हुई कि ‘ मैं भी राजपुत्र होऊँ ‘ अतः हे ध्रुव, तुझको अपनी मनोवांछित इक्षा प्राप्त हुई ।
जिस स्वायम्भुव मनु के कुल में किसी को स्थान मिलना अति दुर्लभ है उन्हीं के घर में तूने उत्तानपाद के यहाँ जन्म लिया।
जिसने मुझे संतुष्ट किया है उसके लिए इस संसार में कुछ भी असंभव नहीं है। मेरी कृपा से तू निश्चय ही उस स्थान को प्राप्त करेगा जो त्रिलोकी में सबसे उत्कृष्ट है और समस्त ग्रहों और तारामंडल का आश्रय है।
मेरे प्रिय भक्त ध्रुव, मैं तुझे वह निश्चल ( ध्रुव ) स्थान देता हूँ जो सूर्य, चंद्र आदि ग्रहों, सभी नक्षत्रों और सप्तर्षियों से भी ऊपर है।
तेरी माता सुनीति भी वहाँ तेरे साथ निवास करेगी और जो लोग प्रातःकाल और संध्याकाल तेरा गुणगान करेंगे उन्हें महान पुण्य प्राप्त होगा। “धन्य है ध्रुव की माता सुनीति जिसने अपने हितकर वचनों से ध्रुव के साथ साथ स्वयं भी उस सर्वश्रेष्ठ स्थान को प्राप्त कर लिया। ध्रुव के नाम से ही उस दिव्य लोक को संसार में ध्रुव तारा के नाम से जाना जाता है। ध्रुव का मतलब होता है स्थिर, दृढ़, अपने स्थान से विचलित न होने वाला जिसे भक्त ध्रुव ने सत्य साबित कर दिया। भक्त ध्रुव की कहानी से हमें ये शिक्षा मिलती है कि जिसके मन में दृढ निश्चय और ह्रदय में आत्मविश्वास हो वह कठोर पुरुषार्थ के द्वारा इस संसार में असंभव को भी संभव कर सकता है।