Thursday, August 31, 2017

शिव कृपा पाने के लिए उपाय डा. राधेश्याम द्विवेदी

शिव हिन्दू धर्म के प्रमुख देवताओं में से हैं। वे त्रिदेवों में एक देव हैं। इन्हें देवों के देव भी कहते हैं। इन्हें महादेव, भोलेनाथ, शंकर, महेश, रुद्र, नीलकंठ के नाम से भी जाना जाता है। तंत्र साधना में इन्हे ‘भैरव’ के नाम से भी जाना जाता है।  वेद में इनका नाम रुद्र है। यह व्यक्ति की चेतना के अन्तर्यामी हैं। इनकी अर्धाङ्गिनी (शक्ति) का नाम पार्वती है। शि-व का मतलब है -वह जो है ही नहीं । जो है ही नहीं, वह सिर्फ सो सकता है। इसलिए शिव को हमेशा ही डार्क बताया गया है। शिव सो रहे हैं और शक्ति उन्हें देखने आती हैं। वह उन्हें जगाने आई हैं क्योंकि वह उनके साथ नृत्य करना चाहती हैं, उनके साथ खेलना चाहती हैं और उन्हें रिझाना चाहती हैं। शुरू में वह नहीं जागते, लेकिन थोड़ी देर में उठ जाते हैं। मान लीजिए कि कोई गहरी नींद में है और आप उसे उठाते हैं तो उसे थोड़ा गुस्सा तो आएगा ही, बेशक उठाने वाला कितना ही सुंदर क्यों न हो। अत: शिव भी गुस्से में गरजे और तेजी से उठकर खड़े हो गए। उनके ऐसा करने के कारण ही उनका पहला रूप और पहला नाम रुद्र पड़ गया। रुद्र शब्द का अर्थ होता है – दहाडऩे वाला, गरजने वाला।
भगवान शिव साकार और निराकार दोनों ही रुपों में हर सांसारिक पीड़ा का शमन करने वाले माने गए हैं। शिव भक्ति में यही भाव और श्रद्धा मन को शांत और संतुलित कर व्यवहार के दोषों से भी दूर रखती है। जिससे सुखद परिणाम जल्द मिलते हैं। इस सृष्टि का निर्माण भगवान शिव की इच्छा मात्र से ही हुआ है। अत: इनकी भक्ति करने वाले व्यक्ति को संसार की सभी वस्तुएं प्राप्त हो सकती हैं। शिवपुराण के अनुसार, नियमित रूप से शिवलिंग का पूजन करने वाले व्यक्ति के जीवन में दुखों का सामना करने की शक्ति प्राप्त होती है।
शिवलिंग के समक्ष दीपक लगाना :- पुराने समय से ही कई ऐसी परंपराएं प्रचलित हैं, जिनका पालन करने पर व्यक्ति को सभी सुखों की प्राप्ति होती है। इन प्रथाओं का पालन न करने पर कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। शुभ फलों की प्राप्ति के लिए एक परंपरा है कि प्रतिदिन रात्रि के समय शिवलिंग के समक्ष दीपक लगाना चाहिए। शाम के समय शिव मंदिर में दीपक लगाने वाले व्यक्ति को अपार धन-संपत्ति एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती हैं। अत: नियमित रूप से रात्रि के समय किसी भी शिवलिंग के समक्ष दीपक लगाना चाहिए। दीपक लगाते समय ऊँ नम: शिवाय मंत्र का जप करना चाहिए। शिवजी के पूजन से श्रद्धालुओं की धन संबंधी समस्याएं भी दूर हो जाती हैं। शास्त्रों में एक अन्य सटीक उपाय बताया गया है जिसे नियमित रूप से अपनाने वाले व्यक्ति अपार धन-संपत्ति प्राप्त हो सकती है। इस उपाय के साथ ही प्रतिदिन सुबह के समय शिवलिंग पर जल, दूध, चावल आदि पूजन सामग्री अर्पित करना चाहिए।
शिव पूजन की सामान्य विधि:-जिस दिन शिव पूजन करना चाहते हैं, उस दिन सुबह स्नान आदि नित्य कर्मों से निवृत्त होकर पवित्र हो जाएं। इसके बाद घर के मंदिर में ही या किसी शिव मंदिर जाएं। मंदिर पहुंचकर भगवान शिव के साथ माता पार्वती और नंदी को गंगाजल या पवित्र जल अर्पित करें।जल अर्पित करने के बाद शिवलिंग पर चंदन, चावल, बिल्वपत्र, आंकड़े के फूल और धतूरा चढ़ाएं। पूजा में शिवजी को घी, शक्कर या मिठाई का भोग लगाएं। इसके बाद धूप, दीप से आरती करें।
परेशानियों को दूर करने की प्रार्थना :-  
मंत्र 1: “मन्दारमालांकलितालकायै कपालमालांकितशेखराय।
दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नम: शिवायै च नम: शिवाय।।“
मंत्र 2: “ऊँ नम: शिवाय”।
शिवलिंग के माध्यम से पूजा :-
शिवलिंग पर ये 10 चीजें चढ़ाने से दरिद्रता दूर होगी।नियमित रूप से किए गए पूजन कर्म से भगवान बहुत ही जल्द प्रसन्न होते हैं। भगवान की प्रसन्नता से सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो सकती हैं, दरिद्रता से मुक्ति मिल सकती है। सभी देवी-देवताओं में शिवजी का विशेष स्थान है। शिवपुराण के अनुसार इस संपूर्ण सृष्टि की रचना शिवजी की इच्छा से ही ब्रह्माजी ने की है। महादेव की पूजा से सभी देवी-देवता प्रसन्न होते हैं और कुंडली के ग्रह दोष शांत हो जाते हैं। 
शिवलिंग पर चढ़ाएं ये 10 चीजें:- शिव कृपा पाने के लिए शिवलिंग पर ये 10 चीजें चढ़ाएं- जल, शहद, दूध, दही, घी, ईत्र , चंदन, केशर, चंदन, भांग (विजया औषधि)इन सभी चीजों को एक साथ मिलाकर या एक-एक चीज से शिवजी को स्नान करवा सकते हैं। शिवपुराण में बताया गया है कि इन चीजों से शिवलिंग को स्नान कराने पर सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो सकती हैं। स्नान करवाते समय ऊँ नम: शिवाय मंत्र का जप करना चाहिए।
मिलने वाले फल:-
1. मंत्रों का उच्चारण करते हुए शिवलिंग पर जल चढ़ाने से हमारा स्वभाव शांत होता है। आचरण स्नेहमय होता है।
2. शहद चढ़ाने से हमारी वाणी में मिठास आती है।
3. दूध अर्पित करने से उत्तम स्वास्थ्य मिलता है।
4. दही चढ़ाने से हमारा स्वभाव गंभीर होता है।
5. शिवलिंग पर घी अर्पित करने से हमारी शक्ति बढ़ती है।
6. ईत्र से स्नान करवाने से विचार पवित्र होते हैं।
7. शिवजी को चंदन चढ़ाने से हमारा व्यक्तित्व आकर्षक होता है। समाज में मान-सम्मान प्राप्त होता है।
8. केशर अर्पित करने से हमें सौम्यता प्राप्त होती है।
9. भांग चढ़ाने से हमारे विकार और बुराइयां दूर होती हैं।
10. शकर चढ़ाने से सुख और समृद्धि बढ़ती है।



Wednesday, August 30, 2017

अधर में - डा. राधेश्याम द्विवेदी

 वो पार हो गये मुझे अधर में छोड़ गये।
कोई नाविक आके मुझे सहारा देगा ?
मैंने तो सामरथ से उनकी सेवा की।
उनकी छोटी से छोटी इच्छा पूरा की ।।
वे धर्म भूलकर अपना हमें फंसा वैठे।
कुछ परलोक गये घर अपने जा बैठे।।
कुछ आज हमारे आसपास भी रहते हैं।
अपने को पाकसाफ बन कर रहते हैं।।
हम दोष नहीं दे केवल यही सोचते हैं।
उनके कर्मों के फल को आज भोगतें है।।
आज मेरी तन्हाई उनसे पूछ रही ?
यह न्याय नहीं जो उन्होने हम पर सौपी है।।
कुछ राजधर्म का वे भी निर्वहन किये होते।
मैं भी अपनों में जा सदकर्म किये होते।।
पर आज मुफलिसी में अतीत की वे यादें।
बरबस आ ही जाते  नहीं बिसरते हैं।।
 ship in ocean के लिए चित्र परिणाम

भारत में स्वयंभू बाबाओं की मनमानी -- डा.राधेश्याम द्विवेदी


कौन संत होता है:- अपने लिए कोई भी सांसारिक इच्छा रखने वाले तथा परोपकार में अपना जीवन बिताने वाले को ही संत कहते हैं। सांसारिक हित करने की इच्छा समाप्त होकर जब परहित की इच्छा प्रबल हो जाती है, तब व्यक्ति ही 'संत' कहलाने का अधिकारी बनता है। भतर्हरि कहते हैं- संत: स्वयं परहिते विहिताभियोगा:
अत: संत स्वयं ही अपने को पराये हित में लगाये रखते हैं ।अर्थात संत सदा परोपकारी होते हैं। वृहन्नारदीयपुराण में भी संतों के लक्षण बताए गए हैं। इसके अनुसार, जो सब प्राणियों का हित करते हैं, जिनके मन में ईष्र्या और द्वेष नहीं है, जो जितेंद्रिय, निष्काम और शांत हैं। जो मन-वचन-कर्म से पूर्णरूपेण पवित्र हैं। जो किसी को पीड़ा नहीं पहुंचाते। जो प्रतिग्रह नहीं लेते। जो परनिंदा नहीं करते। जो सबके हित की बात करते हैं। जो शत्रु-मित्र में समदर्शी हैं, सत्यवादी हैं, सेवा करने को तत्पर रहते हैं। प्रदर्शन और आडंबर से दूर रहते हैं। जिनमें संग्रह के बजाय दान की वृत्ति है। जो मर्यादा का पालन करते हैं। जो सदाचारी और जीवन्मुक्त हैं। जो संतोषी और दयालु हैं। वे ही संत हैं।
आधुनिक संत मार्केटिंग में महारथ प्राप्त :- एक बार सम्राट अकबर ने संत कुंभनदास को दर्शन के लिए आगरा के पास फतेहपुर सीकरी में अपने दरबार में बुलाया। कुंभनदास ने पहले दरबार में जाने से मना कर दिया। लेकिन तमाम अनुरोधों के बाद वह सीकरी गए। अकबर ने उनका स्वागत-सत्कार किया लेकिन संत ने सम्राट से कुछ भी लेने से मना कर दिया। कुंभनदास जब दरबार से लौटे तो उन्होंने एक पद लिखा-
संतन को कहा सीकरी सो काम।
आवत जात पनहिया टूटी, बिसर गयो हरिनाम।
अब तो संतों-महंतों को सीकरी से ही काम हो गया है। लोग संत और सन्यासी के रूप में पूजे जा रहे हैं जिनका संत या सन्यासी भाव से कोई सम्बन्ध नहीं है। हमारी राजसत्ता भी ऐसे पाखंडियों को ही प्रश्रय दे रही है। राजसत्ता को भी संत साधको और वास्तविक सन्यासियों की सुधि नहीं है। वह उन्हें ही महत्व देती है जिनके पास मतावलम्बियों की संख्यात्मक वोट शक्ति हो। ऐसे पाखंडियो को हमारी राजसत्ता ने अब सत्ता का हिस्सा भी बनाना शुरू कर दिया तो सन्यासी की कौन सुने ? रामरहीम , रामपाल , आशाराम , नित्यानंद ,भीमनद , जयगुरुदेव और न जाने कितने, ऐसे संत सामने आ चुके जो वास्तव में कभी संत थे ही नहीं राजसत्ता ने उन्हें संत का दर्जा देकर खूब सम्मानित किया। इनमे से कोई भी संत की पहली ही शर्त पूरी नहीं करता। इनमे से कोई द्विज नहीं है। ये सभी गैर ब्राह्मण, यानी अद्विज है और ये कथित बाबा ही देवदासी रखते है, जिसके लिए ब्राह्मण आज तक बदनाम हो रहे है। संत के नाम पर जितने लोगो को आज की राजसत्ता ने प्रश्रय दिया है उनमे से अधिकाँश सन्यासी के किसी गुण धर्म से जुड़े नहीं हैं। एक ब्राह्मण संत करपात्री जी महाराज ने राजनीति में कुछ शुद्धिकरण का प्रयास किया था , राजनीतिक पार्टी भी बनायीं , चुनाव भी जीते , लेकिन कभी अपने लिए न तो कोई महल बनाया और न ही ऐश्वर्य का सामन जुटाया। अंजुरी की भिक्षा से ही जीवन गुजार दिया। यह शाश्वत सत्य है की एक ब्राह्मण जब बाबा बनता है, तो वह शंकराचार्य होता है, धन की लालसा नही होती ,
किसी का बलात्कार नही करता। कलयुग में इन पाखंडी बाबाओं का ही बोलबाला है। राष्ट्र हित और धर्म के प्रति इनकी कोई निष्ठा नहीं है। यह सिर्फ अपनी दुकान चलाते हैं और कुछ हमारे अपने ही मूर्ख भाई इनके भक्त बनकर ढोंगी बाबाओ और इनके नाम को बढावा देते हैं। जय गुरुदेव(यादव), गुरमीत राम रहीम(जाट), रामपाल(जाट) , राधे मां(खत्री), आशाराम(सिंधी), नित्यानंद (द्रविण) जैसे गैर ब्राह्मणों ने सनातन परंपरा को कलंकित किया है। इससे भारत की विश्व गुरु की साख को धक्का लगा है। विश्व के अनेक देश भारत की खिल्ली उड़ा रहे है । बाबाओ ने किया देश का बेडा गर्क और ब्राम्हण तो जबरदस्ती बदनाम हो रहे है।
आधुनिक काल  के  अनेक  संत, उपदेशक तथा  तथाकथित  जगतगुरु , महामंडलेश्वर ,पीठाधीश्वर , ज्योतिषाचार्य आदि , जो चौबीस घंटे टी. वी. पर छाये रहते हैं , के विचारों , उपदेशों तथा पूजा पद्धितियों में तो और भी बिखराव है सब अपने अपने प्रकार से धर्म कि व्याख्या कर रहे हैं   धर्म का व्यवसाय खूब फल फूल रहा है कतिपय अपवादों को छोड़कर इन सब प्रमुख धर्माचार्यों  के ईश्वर के सम्बन्ध  में केवल विचारों तथा मान्यताओं में पर्याप्त मतभेद है वरन उनकी  वेश भूषा में भी विविधता के साथ पाखंड  झलकता है हर एक का अपना ड्रेस कोड है कोई श्वेवतवस्त्रधारी है तो कोई केसरिया , भगवा , कोई नीला तो कोई पीला , कोई रेशमी स्टाइलिस्ट रंग का चोला , कोई सूती राम नमी दुपट्टाकोई केशधारी तो कोई सफाचट , किसी के मस्तक पर  मात्र  चन्दन कि बिंदी  तो किसी का पूरा मस्तक तथा भुजाएं चन्दन कि विभिन्न आकृतियों से अलंकृत रहते हैं कुछ धर्माचार्य तथा  तथाकथित धार्मिक गुरु आम जनता को तरह -तरह के चमत्कार दिखाकर आम जनता को मुर्ख बनाते रहते हैं आज के अधिकांश धर्माचार्य  वायुयान सेअपनी पूरी टीम तथा आर्केस्ट्रा  के साथ उपदेश देने के लिए निकलते हैं। इनका अपना प्रेस है, अपनी पुस्तकें  हैं ,अपने भजन के कैसेट हैं, जिसका व्ययसाय भी साथ-साथ चलता रहता है इनके पास करोडो कि संपत्ति है अतः इनके बैठने के सिंघासन भी सोने चांदी  के बने होते हैं। उन पर मखमली गद्दे पड़े होते हैं। ऐसा लगता है कि ईश्वर को भी इन धर्माचार्यों ने अपने-अपने हिसाब से  बाँट लिया हो धर्म ठगी का व्ययसाय बन गया है। इन्होने संतो का नाम ही कलंकित कर डाला है आज के तथाकथित हिन्दू धर्माचार्य एवं उपदेशक अपने नाम के आगे महामंडलेश्वर धर्मनिष्ट तपोनिष्ट ,वेदमूर्ति जगतगुरु ,  युगद्रष्टा, विद्यावाचस्पति ,  भगवान श्री श्री 1008 स्वामी अदि लगाने में अपना गौरव समझते हैं एक समय था जब संत अपने नाम के अंत में 'दास जिसका अर्थ है सेवक लगते थे कबीरदास,  धरमदास चरणदास गरीबदास , मलूकदास तुलसीदास सूरदास रविदास आदि  इसी श्रेणी के संतो में हैं। इन्हें पैसे का कोई मोह था। अपने जीविकोपार्जन  के लिए श्रम करते थे।
धर्म का व्यवसायीकरण :- आसाराम पर एक नाबालिग लड़की का आरोप गलत या सही हो सकता है। लेकिन इस आरोप से करोड़ों लोगों का वह वर्ग ठगा महसूस कर रहा है, जो संतों को छल, बल, लालच, द्वेष, पाखंड, काम, क्रोध से दूर देखना चाहता है। आसाराम पर जमीन कब्जाने के दर्जनों आरोप हैं। धर्म का ऐसा व्यवसायी करण हो गया है कि बड़े-बड़े कारपोरेट घराने भी मात खा जाएं। बीच-बीच में स्वयंभू संतों पर लगने वाले आरोपों पर सफाई दी जाती है कि फलां व्यक्ति के लाखों भक्त है। इसलिए उनकी पवित्रता आचरण के बारे में बात की जाए। सवाल यह है कि क्या किसी भी धार्मिक संस्था व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह अपने लाखों समर्थकों की ताकत के बल पर कुछ भी करे और आम लोगों के बीच उसपर चर्चा तक होने दे। 
टीवी चैनलों का दुरुपयोग :-टीवी चैनलों में अच्छे गीतों और संगीत से माहौल बनाकर या इवेंट मैनेजमेंट विशेषज्ञों की देख रेख में धर्म और आध्यात्म की बात करनेवाले कुछ स्वयंभू बाबा और कथित चमत्कारी धर्म गुरु अपने अशोभनीय आचरण  से भोली-भाली धर्म परायण जनता की  पारंपरिक आस्था पर गहरी चोट पहुंचाते रहे  हैंदूसरी ओर उसी इलेक्ट्रानिक मीडिया की सक्रियता के कारण इन्हें पाखंडी समझते लोगों, विशेषकर युवा पीढ़ी का  धर्म से ही विश्वास उठता जा रहा है जो समाज के लिए चिंता की बात है धर्मों से जुड़े ऐसे लोग जो इस व्यवसाय में पहले से जुड़े थे धर्म विशेष का पूरे विश्व में प्रचार करते थे और इनका भीड़ पर नियंत्रण भी था पर वे संस्था या धर्म का प्रचार करते थेअब ऐसे बाबा अपने को ब्रांड की तरह प्रचारित करते हैं,समाचारों में बने रहने के लिए राजनैतिक टिप्पणी करते हैं और कई तो स्वयं राजनीति में उतर भी चुके हैं इसलिए सभी बातों को समझकर अपने परिजनों को ऐसे बाबाओं और धर्म के सेल्स रिप्रेजेंटेटिव्स से सावधान करने की ज़रूरत है इसमें जो सच्चे लोग हैं उनकी भी साख या प्रतिष्ठा दाँव पर लगी हैबड़ी बात है कि इन्हें साधु, संत, धर्मगुरु या ऐसे नामों से महिमामंडित करना भी बंद किया जाना चाहिए क्योंकि ये उन पवित्र शब्दों को कलंकित करते हैं।
समाज और राज्य दोनों को इसमें मूक दर्शक ना बनकर इन्हें सही दिशा दिखाने के लिए मापदंड तय करना चाहिए। कृपा के नुस्खे शिष्य बनाने की होड़ लगी हुई है। टीवी पर कृपा के नुस्खे बताकर वसूली हो रही है। तीर्थ स्थल लूट के अड्डे बन गये हैं। शंकराचार्य से लेकर महामंडलेश्वर तक की उपाधियां खरीदी और बेची जा रही है। इन परिस्थितियों में यदि किसी संत पर व्यभिचार आश्रम बनाने के नाम पर लूट-खसोट के आरोप लग रहे हैं।
अपने को मिटा कर ही कोई साधु बन सकता है।अपना पिंडदान कर के ही कोई संन्यासी होता है। उसका अपना कोई परिवार नहीं होता। लेकिन अब कई महंत मठाधीश अपने-अपने आश्रमों करोड़ों रुपए की संपत्ति का उत्तराधिकारी अपने ही भाई-भतीजों को बना रहे हैं। डिग्रियों की तरह शंकराचार्यो, महामंडलेश्वरों, पीठाधीशों के पद बांटे जा रहे हैं। इन पदों को पाने के लिए उसी तरह की होड़ लगी हुई है, जैसे डिग्रियां पाने की रहती है। गत वर्ष रात के अंधेरे में राधे मां को महामंडलेश्वर उपाधि देने पर भारी विवाद पैदा हुआ था। पिछले दिनों इलाहाबाद महाकुंभ में सर्वाधिक विवादित संत नित्यानंद को एक अखाड़े ने महामंडलेश्वर की उपाधि दे दी थी। जिस किसी को मन आता है वह अपने आगे जगद्गुरु शंकराचार्य एक हजारआठ तक की उपाधियां लगा लेता है।
आश्रम अपराधियों के अड्डे :-अयोध्या हो या चित्रकूट या श्रीकृष्ण की लीला स्थली वृंदावन, वहां जमीनों विभिन्न आश्रमों पर कब्जे को लेकर कथित महात्माओं के बीच लड़ाई चल रही है। कुछ आश्रम तो अपराधियों के अड्डे बन चुके है।  पास-पड़ोस के राज्यों में अपराध करने के बाद अपराधी इन्हीं मठों, आश्रमों में शरण ले लेते हैं और फिर बाबाओं के बीच रहने लगते हैं। ऐसे आश्रमों से पवित्रता सन्मार्ग की आशा नहीं की जा सकती।जो भगवान राम इतने बड़े राज्य को लात मारकर वन चले गए थे, उन्हीं के भक्त कहला कर धन उगाहने, बड़े-बड़े आश्रम बनवाने, शिष्यों की संख्या बढ़ाने के लिए तिकड़म किए जा रहे हैं। जब जमीनों पर जबरन कब्जा कर आश्रम बनाए जाएंगे और उन आश्रमों में धन ऐश्वर्य का नंगा नाच होगा तो ऐसी जगहों पर संतई का वास नहीं हो सकता। संतई सिर्फ वेशभूषा नहीं बल्कि आचरण है। संत तुलसीदास ने कहा था कि-
संत सहहिं दुख परहित लागी। पर दुख हेतु असंत अभागी।
यानी संत दूसरों की भलाई के लिए दुख सहते हैं और असंत दूसरों को दुख देने के लिए। सिर्फ वेशभूषा के बल पर संत बने फिर रहे लोग अपने आचरण से मर्यादा तोड़ रहे हैं तो इसमें आश्चर्य कैसा। 
अपनी तरह से विकास :- भारतीय संस्कृति और लोकतंत्र इसकी अनुमति प्रदान करता है कि हर कोई अपनी-अपनी तरह से अपना आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विकास करे, लेकिन ऐसा करते हुए कि किसी को भी देश के नियम-कानूनों की अनदेखी करने की छूट नहीं दी जा सकती। यह इसलिए, क्योंकि अक्सर हमारे नेता धर्मगुरुओं के अनुयायियों की बड़ी संख्या देखकर उनके प्रति अनावश्यक नरमी बरतते हैं। बाद में वे भस्मासुर सरीखे साबित होते हैं। भारत भूमि में ऐसे धर्मगुरुओं के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता और होना चाहिए जो देश के साथ-साथ धर्म की भी बदनामी कराते हों।
मनमानी पूजा पद्धतियां- पिछले 10-15 वर्षों में हिंदुत्व को लेकर व्यावसायिक संतों, ज्योतिषियों और धर्म के तथाकथित संगठनों और राजनीतिज्ञों ने हिंदू धर्म के लोगों को पूरी तरह से गफलत में डालने का जाने-अनजाने भरपूर प्रयास किया, जो आज भी जारी है। हिंदू धर्म की मनमानी व्याख्या और मनमाने नीति-नियमों के चलते खुद को व्यक्ति एक चौराहे पर खड़ा पाता है। समझ में नहीं आता कि धर जाऊँ या उधर।भ्रमित समाज लक्ष्यहीन हो जाता है। लक्ष्यहीन समाज में मनमाने तरीके से परम्परा का जन्म और विकास होता है, जोकि होता आया है। मनमाने मंदिर बनते हैं, मनमाने देवता जन्म लेते हैं और पूजे जाते हैं। मनमानी पूजा पद्धति, चालीसाएँ, प्रार्थनाएँ विकसित होती है। व्यक्ति पूजा का प्रचलन जोरों से पनपता है। भगवान को छोड़कर संत, कथावाचक या पोंगा पंडितों को पूजने का प्रचलन बढ़ता है।
धर्म का अपमान :- आए दिन धर्म का मजाक उड़ाया जाता है, मसलन कि किसी ने लिख दी लालू चालीसा, किसी ने बना दिया अमिताभ का मंदिर। रामलीला करते हैं और राम के साथ हनुमानजी का भी मजाक उड़ाया जाता है। राम के बारे में कुतर्क किया है, कृष्ण पर चुटकुले बनते हैं। दुर्गोत्सव के दौरान दुर्गा की मूर्ति के पीछे बैठकर शराब पी जाती हैं आदि अनेकों ऐसे उदाहरण है तो रोज देखने को मिलते हैं। भगवत गीता को पढ़ने के अपने नियम और समय हैं किंतु अब तो कथावाचक चौराहों पर हर माह भागवत कथा का आयोजन करते हैं। यज्ञ के महत्व को समझे बगैर वेद विरुद्ध यज्ञ किए जाते हैं और अब तमाम वह सारे उपक्रम नजर आने लगे हैं जिनका सनातन हिंदू धर्म से कोई वास्ता नहीं है।

 बाबाओं के चमचे : अनुयायी होना दूसरी आत्महत्या है।'- वेद ,रुद्राक्ष या को छोड़कर आज का युवा अपने-अपने बाबाओं के लॉकेट को गले में लटकाकर घुमते रहते हैं। उसे लटकाकर वे क्या घोषित करना चाहते हैं यह तो हम नहीं जानते। हो सकता है कि वे किसी कथित महान हस्ती से जुड़कर खुद को भी महान-बुद्धिमान घोषित करने की जुगत में हो। लेकिन कुछ युवा तो नौकरी या व्यावसायिक हितों के चलते उक्त संत या बाबाओं से जुड़ते हैं तो कुछ के जीवन में इतने दुख और भय हैं कि हाथ में चार-चार अँगूठी, गले में लॉकेट, ताबीज और जाने क्या-क्या। गुरु को भी पूजो, भगवान को भी पूजो और ज्योतिष जो कहे उसको भी, सब तरह के उपक्रम कर लो...धर्म के विरुद्ध जाकर भी कोई कार्य करना पड़े तो वह भी कर लो।
धर्म या जीवन पद्धति : हिन्दुत्व कोई धर्म नहीं, बल्कि जीवन पद्धति है- ये वाक्य बहुत सालों से बहुत से लोग और संगठन प्रचारित करते रहे हैं। उक्त वाक्य से यह प्रतिध्वनित होता है कि इस्लाम, ईसाई, बौद्ध और जैन सभी धर्म है। धर्म अर्थात आध्यात्मिक मार्ग, मोक्ष मार्ग। धर्म अर्थात जो सबको धारण किए हुए हो, अस्तित्व और ईश्वर है, लेकिन हिंदुत्व तो धर्म नहीं है। जब धर्म नहीं है तो उसके कोई पैगंबर और अवतारी भी नहीं हो सकते। उसके धर्मग्रंथों को फिर धर्मग्रंथ कहना छोड़ो, उन्हें जीवन ग्रंथ कहो। गीता को धर्मग्रंथ मानना छोड़ दें? भगवान कृष्ण ने धर्म के लिए युद्ध लड़ा था कि जीवन के लिए? जहाँ तक हम सभी धर्मों के धर्मग्रंथों को पढ़ते हैं तो पता चलता है कि सभी धर्म जीवन जीने की पद्धति बताते हैं। यह बात अलग है कि वह पद्धति अलग-अलग है। फिर हिंदू धर्म कैसे धर्म नहीं हुआ? धर्म ही लोगों को जीवन जीने की पद्धति बताता है, अधर्म नहीं। क्यों संत-महात्मा गीताभवन में लोगों के समक्ष कहते हैं कि 'धर्म की जय हो-अधर्म का नाश हो'?

 
मनमानी व्याख्या के संगठन : पहले ही भ्रम का जाल था कुछ संगठनों ने और भ्रम फैला रखा है उनके अनुसार ब्रह्म सत्य नहीं है शिव सत्य है और शंकर अलग है। आज आप जहाँ खड़े हैं अगले कलयुग में भी इसी स्थान पर इसी नाम और वेशभूषा में खड़े रहेंगे- यही तो सांसारिक चक्र है। इनके अनुसार समय सीधा नहीं चलता गोलगोल ही चलता है। इन लोगों ने वैदिक विकासवाद के सारे सिद्धांत और समय गणित की धारणा को ताक में रख दिया है। एक संत या संगठन गीता के बारे में कुछ कहता है, तो दूसरा कुछ ओर। एक राम को भगवान मानता है तो दूसरा साधारण इंसान। हालाँकि राम और कृष्ण को छोड़कर अब लोग शनि की शरण में रहने लगे हैं।वेद, पुराण और गीता की मनमानी व्याख्याओं के दौर से मनमाने रीति-रिवाज और पूजा-पाठ विकसित होते गए। लोग अनेकों संप्रदाय में बँटते गए और बँटते जा रहे हैं। संत निरंकारी संप्रदाय, ब्रह्माकुमारी संगठन, जय गुरुदेव, गायत्री परिवार, कबिर पंथ, साँई पंथ, राधास्वामी मत आदि अनेकों संगठन और सम्प्रदाय में बँटा हिंदू समाज वेद को छोड़कर भ्रम की स्थिति में नहीं है तो क्या है?संप्रदाय तो सिर्फ दो ही थे- शैव और वैष्णव। फिर इतने सारे संप्रदाय कैसे और क्यूँ हो गए। प्रत्येक संत अपना नया संप्रदाय बनाना चाहता है