Tuesday, August 30, 2022

अयोध्या - काशी के बाद मथुरा विवाद समाधान की तरफ बढ़ा डा. राधे श्याम द्विवेदी

पौराणिक साहित्य में मथुरा के कई नाम हैं जैसे शूरसेन नगरी, मधुपुरी, मधुनगरी, मधुरा, मथुरा आदि। जहां कृष्ण का जन्म हुआ, कंस के राज में वह स्थान एक कारागार था जहां वसुदेव और देवकी को कंस ने कैद कर रखा था।

महाक्षत्रप सौदास के समय के एक शिलालेख से पता चलता है कि वसु नाम के व्यक्ति ने यहां कृष्ण जन्म स्थान पर पहला मंदिर बनाया था। इसके बहुत समय बाद विक्रमादित्य के काल में यहां दूसरा मंदिर बनवाया गया। इस मंदिर को सन् 1017-18 ई. में महमूद गजनी ने तोड़ दिया।

बाद में सन् 1150 ई. में महाराजा विजय पाल देव के शासन में जज्ज नामक व्यक्ति ने यहां फिर एक विशाल मंदिर बनवाया। इसे 16वीं सदी की शुरुआत में सिकंदर लोधी ने नष्ट करवा दिया।मुग़ल सम्राट औरंगजेब ने श्रीकृष्ण जन्म स्थली पर बने प्राचीन केशवनाथ मंदिर को नष्ट करके उसी जगह 1669-70 में शाही ईदगाह मस्जिद का निर्माण कराया था। 1770 में गोवर्धन में मुगलों और मराठाओं में जंग हुई। इसमें मराठा जीते। जीत के बाद मराठाओं ने फिर से मंदिर का निर्माण कराया। 1935 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 13.37 एकड़ की भूमि बनारस के राजा कृष्ण दास को आवंटित कर दी। 1951 में श्री कृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट ने ये भूमि अधिग्रहीत कर ली। मुस्लिम समाज इससे संतुष्ट नहीं हुआ और विवाद बनाए रखा।क्योंकि शाही ईदगाह मस्जिद मथुरा शहर में श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर परिसर से सटी हुई है। 12 अक्तूबर 1968 को श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान ने शाही मस्जिद ईदगाह ट्रस्ट के साथ एक समझौता किया। समझौते में 13.37 एकड़ जमीन पर मंदिर और मस्जिद दोनों के बने रहने की बात तय हुई थी । पूरा विवाद इसी 13.37 एकड़ जमीन को लेकर है। इस जमीन में से 10.9 एकड़ जमीन श्रीकृष्ण जन्मस्थान और 2.5 एकड़ जमीन शाही ईदगाह मस्जिद के पास है। इस समझौते में मुस्लिम पक्ष ने मंदिर के लिए अपने कब्जे की कुछ जगह छोड़ी और मुस्लिम पक्ष को बदले में पास में ही कुछ जगह दी गई थी।

इस अस्थाई समाधान से दोनों पक्ष संतुष्ट नहीं हुए। वाद विवाद और व्यापक राष्ट्र की अस्मिता को देखते हुए मंदिर के हिन्दू पक्ष पूरी 13.37 एकड़ जमीन पर कब्जे की मांग करने लगे । राम जन्मभूमि की लंबी लड़ाई अपने पक्ष में आने और मुस्लिम पक्ष द्वारा अंतिम समय तक जद्दोजहद करने के कारण हिन्दू पक्ष में नया उत्साह आया और वह निरंतर जिला अदालत में कृष्ण जन्म भूमि के पूरे भाग को पाने के लिए अपनी अर्जी लगता रहा।जब मथुरा की जिला अदालत हिला हवाली करने लगा तो याचिका कर्ता मनीष यादव ने हाईकोर्ट का रूख किया।
आज हाईकोर्ट ने क्या-क्या कहा
मथुरा के श्रीकृष्ण जन्मभूमि और शाही ईदगाह मस्जिद को लेकर विवाद है। 13.37 एकड़ भूमि के स्वामित्व की मांग को लेकर मथुरा कोर्ट में याचिका दायर की गई है। याचिका में पूरी जमीन लेने और श्री कृष्ण जन्मभूमि के बराबर में बनी शाही ईदगाह मस्जिद को हटाने की मांग की गई है। याचिकाकर्ता ने विवादित स्थल की वीडियोग्राफी और फोटोग्राफी कराने की भी मांग की थी। निचली अदालत में ये मामला लंबित है। लगातार देरी होने के चलते याचिकाकर्ता मनीष यादव ने हाईकोर्ट का रूख किया। मनीष ने हाईकोर्ट में भी यही मांग की। इसके बाद कोर्ट ने निचली अदालत से आख्या मांगी थी। इस मामले में हाईकोर्ट में आज सुनवाई हुई। कोर्ट ने यहां वीडियोग्राफी और फोटोग्राफी सर्वे कराने का आदेश दिया है। चार महीने में ये सर्वे पूरा करना होगा। इसकी रिपोर्ट हाईकोर्ट में जमा करनी होगी। इसके लिए एक वरिष्ठ अधिवक्ता को इस सर्वे के लिए कमिश्वर और दो अधिवक्ताओं को सहायक कमिश्नर के तौर पर नियुक्त किया जाएगा। इस सर्वे कमीशन में वादी और प्रतिवादी के साथ-साथ प्रशासनिक अफसर भी शामिल होंगे। हाई कोर्ट के आदेश से अब मथुरा के श्रीकृष्ण जन्मभूमि केस में वीडियो और फोटोग्राफी होगी। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सोमवार को चार महीने के अंदर सर्वे कराकर रिपोर्ट पेश करने का आदेश जारी किया है। इसके मुताबिक, शाही ईदगाह मस्जिद की भी वीडियोग्राफी और फोटोग्राफी होगी।  कोर्ट के इस आदेश के बाद एक बार फिर से श्रीकृष्ण जन्मभूमि का मुद्दा गर्म हो गया है। 
                     आचार्य डा.राधे श्याम द्विवेदी


 

Sunday, August 28, 2022

शिव पुराण की पार्वती से रामायण की सीता तक का पतिव्रत धर्म की विवेचना आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी


शिव पुराण का आधार
शिव पुराण के रुद्र संहिता तृतीय पार्वती खण्ड के अध्याय 54 में राजा हिमवान की पत्नी मेना की इच्छा के अनुसार एक ब्राह्मण-पत्नी द्वारा शिव पार्वती विवाह के उपरान्त पार्वती जी को पतिव्रत धर्म का उपदेश दिलाया गया है। इसी को बाद में तुलसी दास जी ने राम चरित मानस में माता अनसूया द्वारा सीता जी को भी सुनाया गया है। यहां शिव पुराण के वर्णन को आधार बनाया गया है। वर्तमान समय के माताए और बहन बेटियां यदि इसका अनुसरण करेंगी तो उनका लौकिक और पारलौकिक दोनों जीवन में पूर्णता आएगी।
आगामी दिनों में कजरी तीज हिंदू धर्म में मनाया जाने वाला खास त्योहार है जिस दिन भगवान शिव और माता पार्वती की पूरे विधि-विधान से पूजा की जाती है। महिलाएं इस दिन अपने पति की दीर्घायु के लिए व्रत रखती हैं और भोलेनाथ-पार्वती माता से घर में सुख-समृद्धि बनाए रखने की मनोकामना करती हैं। 
शिव पार्वती विवाह के उपरान्त ब्रह्मा जी कहते हैं-
नारद ! तदनन्तर सप्तर्षियों ने हिमालय से कहा-‘गिरिराज ! अब आप अपनी पुत्री पार्वती देवी की यात्रा का उचित प्रबन्ध करें।’ मुनीश्वर! यह सुनकर पार्वती के भावी विरह का अनुभव करके गिरिराज कुछ काल तक अधिक प्रेम के कारण विषाद में डूबे रह गये। कुछ देर बाद सचेत हो शैलराज ने ‘तथास्तु’ कहकर मेना को संदेश दिया। मुने! हिमवान् का संदेश पाकर हर्ष और शोक के वशीभूत हुई मेना पार्वती को विदा करने के लिये उद्यत हुईं।
शैलराजकी प्यारी पत्नी मेनाने विधिपूर्वक वैदिक एवं लौकिक कुलाचार का पालन किया और उस समय नाना प्रकार के उत्सव मनाये। फिर उन्होंने नाना प्रकार के रत्नजटित सुन्दर वस्त्रों और बारह आभूषणों द्वारा राजोचित श्रृंगार करके पार्वती को विभूषितकिया। तत्पश्चात् मेना के मनोभाव को जानकर एक सती-साध्वी ब्राह्मण पत्नी ने गिरिजा को उत्तम पातिव्रत्य की शिक्षा दी।
ब्राह्मण पत्नी बोली-
गिरिराज किशोरी! तुम प्रेमपूर्वक मेरा यह वचन सुनो। यह धर्म को बढ़ानेवाला, इहलोक और परलोक में भी आनन्द देने वाला तथा श्रोताओं को भी सुख की प्राप्ति कराने वाला है। संसार में पतिव्रता नारी ही धन्य है, दूसरी नहीं। वही विशेष रूपसे पूजनीय है। पतिव्रता सब लोगों को पवित्र करने वाली और समस्त पाप राशि को नष्ट कर देने वाली है। शिवे! जो पति को परमेश्वर के समान मानकर प्रेम से उसकी सेवा करती है, वह इस लोक में सम्पूर्ण भोगों का उपभोग करके अन्त में कल्याणमयी गतिको पाती है।सावित्री,लोपामुद्रा, अरुन्धती, शाण्डिली, शतरूपा,अनसूया, लक्ष्मी, स्वधा, सती, संज्ञा, सुमति, श्रद्धा, मेना और स्वाहा-ये तथा और भी बहुत-सी स्त्रियाँ साध्वी कही गयी हैं। यहाँ विस्तार भय से उनका नाम नहीं लिया गया।
वे अपने पातिव्रत्य के बलसे ही सब लोगों की पूजनीया तथा ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं मुनीश्वरों की भी माननीया हो गयी हैं। इसलिये तुम्हें अपने पति भगवान् शंकरकी सदा सेवा करनी चाहिये। वे दीनदयालु, सबके सेवनीय और सत्पुरुषों के आश्रय हैं। श्रुतियों और स्मृतियोंमें पातिव्रत्यधर्मको महान् बताया गया है। इसको जैसा श्रेष्ठ बताया जाता है, वैसा दूसरा धर्म नहीं है-यह निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है।
पातिव्रत्य-धर्ममें तत्पर रहने वाली स्त्री अपने प्रिय पति के भोजन कर लेने पर ही भोजन करे। शिवे! जब पति खड़ा हो, तब साध्वी स्त्री को भी खड़ी ही रहनी चाहिये। शुद्धबुद्धि वाली साध्वी स्त्री प्रतिदिन अपने पति के सो जाने पर सोये और उसके जागने से पहले ही जग जाय। वह छल-कपट छोड़ कर सदा उसके लिये हितकर कार्य ही करे। शिवे! साध्वी स्त्री को चाहिये कि जबतक वस्त्रा भूषणोंसे विभूषित न होले तब तक वह अपने को पति की दृष्टि के सम्मुख न लाये। यदि पति किसी कार्य से परदेश में गया हो तो उन दिनों उसे कदापि श्रृंगार नहीं करना चाहिये। पतिव्रता स्त्री कभी पतिका नाम न ले। पति के कटु वचन कहने पर भी वह बदले में कड़ी बात न कहे। पति के बुलाने पर वह घर के सारे कार्य छोड़कर तुरंत उसके पास चली जाय और हाथ जोड़ प्रेम से मस्तक झुकाकर पूछे-‘नाथ! किसलिये इस दासी को बुलाया है? मुझे सेवाके लिये आदेश देकर अपनी कृपा से अनुगृहीत कीजिये।’ फिर पति जो आदेश दे, उसका वह प्रसन्न हृदय से पालन करे। वह घरके दरवाजे पर देरतक खड़ी न रहे। दूसरेके घर न जाय। कोई गोपनीय बात जानकर हर एक के सामने उसे प्रकाशित न करे पति के बिना कहे ही उनके लिये पूजन-सामग्री स्वयं जुटा दे तथा उनके हितसाधन के यथोचित अवसर की प्रतीक्षा करती रहे। पति की आज्ञा लिये बिना कहीं तीर्थयात्रा के लिये भी न जाय। लोगों की भीड़ से भरी हुई सभा या मेले आदिके उत्सवों का देखना वह दूरसे ही त्याग दे। जिस नारी को तीर्थ यात्रा का फल पानेकी इच्छा हो, उसे अपने पति का चरणोदक पीना चाहिये। उसके लिये उसीमें सारे तीर्थ और क्षेत्र हैं, इसमें संशय नहीं है।
पतिव्रता नारी पतिके उच्छिष्ट अन्न आदिको परम प्रिय भोजन मानकर ग्रहण करे और पति जो कुछ दे, उसे महाप्रसाद मानकर शिरोधार्य करे। देवता, पितर, अतिथि, सेवकवर्ग, गौ तथा भिक्षु समुदाय के लिये अन्नका भाग दिये बिना कदापि भोजन न करे। पातिव्रत- धर्म में तत्पर रहनेवाली गृहदेवी को चाहिये कि वह घर की सामग्रीको संयत एवं सुरक्षित रखे। गृहकार्यमें कुशल हो, सदा प्रसन्न रहे। और खर्चकी ओरसे हाथ खींचे रहे। पतिकी आज्ञा लिये बिना उपवासव्रत आदि न करे, अन्यथा उसे उसका कोई फल नहीं मिलता और वह परलोकमें नरकगामिनी होती है।
पति सुखपूर्वक बैठा हो या इच्छानुसार क्रीडा विनोद अथवा मनोरंजन में लगा हो, उस अवस्थामें कोई आन्तरिक कार्य आ
पड़े तो भी पतिव्रता स्त्री अपने पति को कदापि न उठाये। पति नपुंसक हो गया हो, दुर्गति में पड़ा हो, रोगी हो, बूढ़ा हो, सुखी हो अथवा दुःखी हो, किसी भी दशामें नारी अपने उस एकमात्र पतिका उल्लंघन न करे। रजस्वला होनेपर वह तीन रात्रि तक पति को अपना मुँह न दिखाये अर्थात् उससे अलग रहे। जबतक स्नान करके शुद्ध न हो जाय, तब तक अपनी कोई बात भी वह पति के कानों में न पड़ने दे। अच्छी तरह स्नान करने के पश्चात् सबसे पहले वह अपने पतिके मुख का दर्शन करे, दूसरे किसी का मुँह कदापि न देखे अथवा मन-ही-मन पतिका चिन्तन करके सूर्य का दर्शन करे। पति की आयु बढ़ने की अभिलाषा रखने वाली पतिव्रता नारी हल्दी, रोली, सिन्दूर, काजल आदि;चोली, पान, मांगलिक आभूषण आदि; केशों का सँवारना, चोटी गूँथना तथा हाथ- कान के आभूषण-इन सबको अपने शरीर से दूर न करे। धोबिन, छिनाल या कुलटा, संन्यासिनी और भाग्यहीना स्त्रियोंको वह कभी अपनी सखी न बनाये। पति से द्वेष रखने वाली स्त्रीका वह कभी आदर न करे। कहीं अकेली न खड़ी हो। कभी नंगी होकर न नहाये। सती स्त्री ओखली, मूसल,झाडू, सिल, जाँत और द्वारके चौखट के नीचे वाली लकड़ी पर कभी न बैठे।
मैथुनकाल के सिवा और किसी समय में वह पति के सामने धृष्टता न करे जिस-जिस वस्तुमें पति की रुचि हो, उससे वह स्वयं भी प्रेम करे। पतिव्रता देवी सदा पतिका हित चाहने वाली होती है। वह पति के हर्षमें हर्ष माने। पति के मुख पर विषादकी छाया देख स्वयं भी विषाद में डूब जाय तथा वह प्रियतम पति के प्रति ऐसा बर्ताव करे, जिससे वह उन्हें प्यारी लगे। पुण्यात्मा पतिव्रता स्त्री सम्पत्ति और विपत्तिमें भी पतिके लिये एक-सी रहे। अपने मनमें कभी विकार न आने दे और सदा धैर्य धारण किये रहे। घी, नमक, तेल आदिके समाप्त हो जाने पर भी पतिव्रता स्त्री पतिसे सहसा यह न कहे कि अमुक वस्तु नहीं है। वह पति को कष्ट या चिन्ता में न डाले। देवेश्वरि! पतिव्रता नारीके लिये एकमात्र पति ही ब्रह्मा, विष्णु और शिव से भी अधिक माना गया है। उसके लिये अपना पति शिवरूप ही है। जो पति की आज्ञाका उल्लंघन करके व्रत और उपवास आदिके नियम का पालन करती है , वह पति की आयु हर लेती है और मरने पर नरक में जाती है। जो स्त्री पति के कुछ कहने पर क्रोध पूर्वक कठोर उत्तर देती है वह गाँवमें कुतिया और निर्जन वनमें सियारिन होती है। नारी पतिसे ऊँचे आसनपर न बैठे, दुष्ट पुरुष के निकट न जाय और पति से कभी कातर वचन न बोले किसी की निन्दा न करे। कलहको दूरसे ही त्याग दे। गुरुजनोंके निकट न तो उच्चस्वरसे बोले और न हँसे। जो बाहरसे पतिको आते देख तुरंत अन्न, जल, भोज्य वस्तु, पान और वस्त्र आदिसे उनकी सेवा करती है, उनके दोनों चरण दबाती है, उनसे मीठे वचन बोलती है तथा प्रियतम के खेद को दूर करने वाले अन्यान्य उपायों से प्रसन्नता पूर्वक उन्हें संतुष्ट करती है, उसने मानो तीनों लोकोंको तृप्त एवं संतुष्ट कर दिया। पिता, भाई और पुत्र सुख देते हैं, परंतु पति असीम सुख देता है। अत: नारी को सदा अपने पति का पूजन- आदर-सत्कार करना चाहिये। पति ही देवता है,पति ही गुरु है और पति ही धर्म, तीर्थ एवं व्रत है; इसलिये सबको छोड़ कर एकमात्र पतिकी ही आराधना करनी चाहिये।जो दुर्बुद्धि नारी अपने पतिको त्याग कर एकान्त में विचरती है ( या व्यभिचार करती है), वह वृक्षके खोखले में शयन करने वाली क्रूर उलूकी होती है। जो पराये पुरुषको कटाक्ष पूर्ण दृष्टिसे देखती है, वह ऐंचातानी देखने वाली होती है। जो पति को छोड़कर अकेले मिठाई खाती है, वह गाँव में सूअरी होती है अथवा बकरी होकर अपनी ही विष्ठा खाती है। जो पति को तू कहकर बोलती है, वह गूँगी होती है। जो सौतसे सदा ईष्ष्या रखती है, वह दुर्भाग्यवती होती है। जो पतिकी आँख बचाकर किसी दूसरे पुरुष पर दृष्टि डालती है , वह कानी, टेढ़े मुँह वाली तथा कुरूपा होती है। जैसे निर्जीव शरीर तत्काल अपवित्र हो जाता है, उसी तरह पतिहीना नारी भलीभाँति स्नान करनेपर भी सदा अपवित्र ही रहती है। लोकमें वह माता धन्य है, वह जन्मदाता पिता धन्य है तथा वह पति भी धन्य है, जिसके घरमें पतिव्रता देवी वास करती है। पतिव्रताके पुण्यसे पिता, माता और पति के कुलों की तीन-तीन पीढ़ियों के लोग स्वर्गलोक में सुख भोगते हैं। जो दुराचारिणी स्त्रियाँ अपना शील भंग कर देती हैं, वे अपने माता-पिता और पति तीनों के कुलोंको नीचे गिराती हैं तथा इस लोक और परलोकमें भी दुःख भोगती हैं। पतिव्रता का पैर जहाँ-जहाँ पृथ्वीका स्पर्श करता है, वहाँ-वहाँ की भूमि पाप हारिणी तथा परम पावन बन जाती है। भगवान् सूर्य, चन्द्रमा तथा वायुदेव भी अपने-आपको पवित्र करनेके लिये ही पतिव्रता का स्पर्श करते हैं और किसी दृष्टिसे नहीं। जल भी सदा पतिव्रता का स्पर्श करना चाहता है। और उसका स्पर्श करके वह अनुभव करता है कि आज मेरी जडताका नाश हो गया तथा आज मैं दूसरोंको पवित्र करने वाला बन गया। भार्या ही गृहस्थ आश्रमकी जड़ है , भार्या ही सुखका मूल है, भार्यासे ही धर्मके फल की प्राप्ति होती है तथा भार्या ही संतानकी वृद्धिमें कारण है। क्या घर-घरमें अपने रूप और लावण्य- पर गर्व करनेवाली स्त्रियाँ नहीं हैं? परंतु पतिव्रता स्त्री तो विश्वनाथ शिवके प्रति भक्ति होने से ही प्राप्त होती है। भार्यासे इस लोक और परलोक दोनों पर विजय पायी जा सकती है। भार्या हीन पुरुष देवयज्ञ, पितृयज्ञ और अतिथियज्ञ करनेका अधिकारी नहीं होता। वास्तवमें गृहस्थ वही है, जिसके घरमें पतिव्रता स्त्री है। दूसरी स्त्री तो पुरुषको उसी तरह अपना ग्रास ( भोग्य) बनाती है, जैसे जरावस्था एवं राक्षसी।
जैसे गंगास्नान करनेसे शरीर पवित्र होता है, उसी प्रकार पतिव्रता स्त्रीका दर्शन करनेपर सब कुछ पावन हो जाता है।पति को ही इष्टदेव मानने वाली सती नारी और गंगामें कोई भेद नहीं है। पतिव्रता और उसके पतिदेव उमा और महेश्वर के समान हैं, अत: विद्वान् मनुष्य उन दोनों का पूजन करे। पति प्रणव है और नारी वेद की ऋचा; पति तप है और स्त्री क्षमा; नारी सत्कर्म है और पति उसका फल। शिवे! सती नारी और उसके पति-दोनों दम्पती धन्य हैं।
गिरिराजकुमारी! इस प्रकार मैंने तुमसे पतिव्रताधर्मका वर्णन किया है।अब तुम सावधान हो आज मुझसे प्रसन्नता-पूर्वक पतिव्रताके भेदोंका वर्णन सुनो। देवि ! पतिव्रता नारियाँ उत्तमा आदि भेदसे चार प्रकारकी बतायी गयी हैं, जो अपना
स्मरण करनेवाले पुरुषोंका सारा पाप हर लेती हैं। उत्तमा, मध्यमा, निकृष्टा और अतिनिकृष्टा-ये पतिव्रताके चार भेद हैं।
अब मैं इनके लक्षण बताती हूँ। ध्यान देकर सुनो। भद्रे! जिसका मन सदा स्वप्नमें भी अपने पतिको ही देखता है, दूसरे किसी पर पुरुषको नहीं, वह स्त्री उत्तमा या उत्तम श्रेणीकी पतिव्रता कही गयी है।
शैलजे! जो दूसरे पुरुषको उत्तम बुद्धिसे पिता, भाई एवं पुत्रके समान देखती है, उसे मध्यम श्रेणीकी पतिव्रता कहा गया है।
पार्वती! जो मनसे अपने धर्मका विचार करके व्यभिचार नहीं करती, सदाचार में ही स्थित रहती है, उसे निकृष्टा अथवा निम्न श्रेणी की पतिव्रता कहा गया है जो पतिके भयसे तथा कुल में कलंक लगने के डरसे व्यभिचार से बचने का प्रयत्न करती है,
उसे पूर्वकालके विद्वानोंने अतिनिकृष्टा अथवा निम्नतम कोटिकी पतिव्रता बताया है।
शिवे! ये चारों प्रकारकी पतिव्रताएँ समस्त लोकोंका पाप नाश करनेवाली और उन्हें पवित्र बनानेवाली हैं। अत्रिवीकी स्त्री अनसूया ने ब्रह्मा, विष्णु और शिव-इन तीनों देवताओंकी
प्रार्थना से पातिव्रत्य के प्रभावका उपभोग करके वाराह के शाप से मरे हुए एक ब्राह्मणको जीवित कर दिया था। शैलकुमारी शिवे ! ऐसा जानकर तुम्हें नित्य प्रसन्नतापूर्वक पति की सेवा करनी चाहिये। पति सेवन सदा समस्त अभीष्ट फलों को देने वाला है।
तुम साक्षात् जगदम्बा महेश्वरी हो और तुम्हारे पति साक्षात् भगवान् शिव हैं। तुम्हारा तो चिन्तन-मात्र करनेसे स्त्रियाँ पतिव्रता हो जायँगी। देवि! यद्यपि तुम्हारे आगे यह सब कहने का कोई प्रयोजन नहीं है, तथापि आज लोकाचार का आश्रय ले मैंने तुम्हें सती-धर्मका उपदेश दिया है।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! ऐसा कहकर वह ब्राह्मण-पत्नी शिवा देवीको मस्तक झुका चुप हो गयी। इस उपदेशको सुनकर
शंकर प्रिया पार्वती देवी को बड़ा हर्ष हुआ।
तुलसीदास जी द्वारा वर्णित पतिव्रत धर्म
गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित राम चरित मानस में श्रीराम बन गमन के समय श्रीराम अत्रि मुनि के आश्रम जाते हैं तब
श्री सीता-अनसूया मिलन भी हुआ है और श्री सीताजी को अनसूया जी के द्वारा पतिव्रत धर्म बतलाया गया है जो कुछ इस प्रकार है।
चौपाई :
अनुसुइया के पद गहि सीता। मिली बहोरि सुसील बिनीता॥
रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई। आसिष देइ निकट बैठाई॥1॥
भावार्थ:-फिर परम शीलवती और विनम्र श्री सीताजी अनसूयाजी (आत्रिजी की पत्नी) के चरण पकड़कर उनसे मिलीं। ऋषि पत्नी के मन में बड़ा सुख हुआ। उन्होंने आशीष देकर सीताजी को पास बैठा लिया॥1॥
दिब्य बसन भूषन पहिराए। जे नित नूतन अमल सुहाए॥
कह रिषिबधू सरस मृदु बानी। नारिधर्म कछु ब्याज बखानी॥2॥
भावार्थ:-और उन्हें ऐसे दिव्य वस्त्र और आभूषण पहनाए, जो नित्य-नए निर्मल और सुहावने बने रहते हैं। फिर ऋषि पत्नी उनके बहाने मधुर और कोमल वाणी से स्त्रियों के कुछ धर्म बखान कर कहने लगीं॥2॥
मातु पिता भ्राता हितकारी। मितप्रद सब सुनु राजकुमारी॥
अमित दानि भर्ता बयदेही। अधम सो नारि जो सेव न तेही॥3॥
भावार्थ:-हे राजकुमारी! सुनिए- माता, पिता, भाई सभी हित करने वाले हैं, परन्तु ये सब एक सीमा तक ही (सुख) देने वाले हैं, परन्तु हे जानकी! पति तो (मोक्ष रूप) असीम (सुख) देने वाला है। वह स्त्री अधम है, जो ऐसे पति की सेवा नहीं करती॥
 धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥4॥
भावार्थ:-धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री- इन चारों की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती है। वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त ही दीन-॥4॥
ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना॥
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा। कायँ बचन मन पति पद प्रेमा॥5॥
भावार्थ:-ऐसे भी पति का अपमान करने से स्त्री यमपुर में भाँति-भाँति के दुःख पाती है। शरीर, वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिए, बस यह एक ही धर्म है, एक ही व्रत है और एक ही नियम है॥5॥
जग पतिब्रता चारि बिधि अहहीं। बेद पुरान संत सब कहहीं॥
उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं॥
भावार्थ:-जगत में चार प्रकार की पतिव्रताएँ हैं। वेद, पुराण और संत सब ऐसा कहते हैं कि उत्तम श्रेणी की पतिव्रता के मन में ऐसा भाव बसा रहता है कि जगत में (मेरे पति को छोड़कर) दूसरा पुरुष स्वप्न में भी नहीं है॥6॥
मध्यम परपति देखइ कैसें। भ्राता पिता पुत्र निज जैसें॥
धर्म बिचारि समुझि कुल रहई। 
सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई॥7॥
भावार्थ:-मध्यम श्रेणी की पतिव्रता पराए पति को कैसे देखती है, जैसे वह अपना सगा भाई, पिता या पुत्र हो (अर्थात समान अवस्था वाले को वह भाई के रूप में देखती है, बड़े को पिता के रूप में और छोटे को पुत्र के रूप में देखती है।) जो धर्म को विचारकर और अपने कुल की मर्यादा समझकर बची रहती है, वह निकृष्ट (निम्न श्रेणी की) स्त्री है, ऐसा वेद कहते हैं॥7॥
बिनु अवसर भय तें रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई॥
पति बंचक परपति रति करई। रौरव नरक कल्प सत परई॥8॥
भावार्थ:-और जो स्त्री मौका न मिलने से या भयवश पतिव्रता बनी रहती है, जगत में उसे अधम स्त्री जानना। पति को धोखा देने वाली जो स्त्री पराए पति से रति करती है, वह तो सौ कल्प तक रौरव नरक में पड़ी रहती है॥8॥
छन सुख लागि जनम सत कोटी। दुख न समुझ तेहि सम को खोटी॥
बिनु श्रम नारि परम गति लहई। पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई॥
भावार्थ:-क्षणभर के सुख के लिए जो सौ करोड़ (असंख्य) जन्मों के दुःख को नहीं समझती, उसके समान दुष्टा कौन होगी। जो स्त्री छल छोड़कर पतिव्रत धर्म को ग्रहण करती है, वह बिना ही परिश्रम परम गति को प्राप्त करती है॥9॥
पति प्रतिकूल जनम जहँ जाई। बिधवा होइ पाइ तरुनाई॥10॥
भावार्थ:-किन्तु जो पति के प्रतिकूल चलती है, वह जहाँ भी जाकर जन्म लेती है, वहीं जवानी पाकर (भरी जवानी में) विधवा हो जाती है॥10॥
सोरठा :
सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ।
जसु गावत श्रुति चारि अजहुँ तुलसिका हरिहि प्रिय॥5 क॥
भावार्थ:-स्त्री जन्म से ही अपवित्र है, किन्तु पति की सेवा करके वह अनायास ही शुभ गति प्राप्त कर लेती है। (पतिव्रत धर्म के कारण ही) आज भी 'तुलसीजी' भगवान को प्रिय हैं और चारों वेद उनका यश गाते हैं॥5 (क)॥
सुनु सीता तव नाम सुमिरि नारि पतिब्रत करहिं।
तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित॥5 ख॥
भावार्थ:-हे सीता! सुनो, तुम्हारा तो नाम ही ले-लेकर स्त्रियाँ पतिव्रत धर्म का पालन करेंगी। तुम्हें तो श्री रामजी प्राणों के समान प्रिय हैं, यह (पतिव्रत धर्म की) कथा तो मैंने संसार के हित के लिए कही है॥5 (ख)॥


 


Wednesday, August 10, 2022

मेरे घर की मुडेरी पर मोर



मोर भारत का राष्ट्रीय पक्षी है। इसका मनभावन नृत्य देख हर किसी का मन प्रफुल्लित हो उठता है। नर मोर मुख्य रूप से नीले रंग के होते हैं साथ ही इनके पंख पर चपटे चम्मच की तरह नीले रंग की आकृति जिस पर रंगीन आंखों की तरह चित्ती बनी होती है, पूँछ की जगह पंख एक शिखा की तरह ऊपर की ओर उठी होती है और लंबी रेल की तरह एक पंख दूसरे पंख से जुड़े होने की वजह से यह अच्छी तरह से जाने जाते हैं। सख्त और लम्बे पंख ऊपर की ओर उठे हुए पंख प्रेमालाप के दौरान पंखे की तरह फैल जाते हैं। इनकी गर्दन हरे रंग की और पक्षति हल्की भूरी होती है। यह मुख्य रूप से खुले जंगल या खेतों में पाए जाते हैं जहां उन्हें चारे के लिए बेरीज, अनाज मिल जाता है लेकिन यह सांपों, छिपकलियों और चूहे एवं गिलहरी वगैरह को भी खाते हैं। वन क्षेत्रों में अपनी तेज आवाज के कारण यह आसानी से पता लगा लिए जाते हैं । इन्हें चारा जमीन पर ही मिल जाता है, यह छोटे समूहों में चलते हैं और आमतौर पर जंगल पैर पर चलते है और उड़ान से बचने की कोशिश करते हैं। यह लंबे पेड़ों पर बसेरा बनाते हैं। यह एक बड़े आकार का पक्षी है जिसकी लंबाई चोंच से लेकर पूंछ तक 100 के 115 सेमी (40-46 इंच) होती है और अन्त में एक बड़ा पंख 195 से 225 सेमी (78 से 90 इंच) और वजन 4-6 किलो (8.8-13.2 एलबीएस) होता है। मादा या मयूरी, कुछ छोटे लंबाई में करीब 95 सेम (38 इंच) के आसपास और 2.75-4 किलोग्राम (6-8.8 एलबीएस) वजन के होते हैं। उनका आकार, रंग और शिखा का आकार उन्हें अपने देशी वितरण सीमा के भीतर अचूक पहचान देती है। नर का मुकुट धातु सदृश नीला और सिर के पंख घुंघराले एवं छोटे होते हैं। सिर पर पंखे के आकार का शिखर गहरे काले तीर की तरह और पंख पर लाल, हरे रंग का जाल बना होता है। आंख के ऊपर सफेद धारी और आँख के नीचे अर्धचन्द्राकार सफेद पैच पूरी तरह से सफेद चमड़ी से बना होता है। सिर के पक्षों पर इंद्रधनुषी नीले हरे पंख होते है। पीछे काले और तांबे के निशान के साथ शल्की पीतल -हरा पंख होता है। स्कंधास्थि और पंखों का रंग बादामी और काला, शुरू में भूरा और बाद में काला होता है। पूंछ गहरे भूरे रंग का और ऊपर लम्बी पूंछ का "रेल" (200 से अधिक पंख, वास्तविक पूंछ पंख केवल 20) होता है और लगभग सभी पंखों पर एक विस्तृत आंख होती है। बाहरी पंख पर कुछ कम आंखें और अंत में इसका रंग काला और आकार अर्द्धचन्द्राकार होता है। नीचे का भाग गहरा चमकदार और पूंछ के नीचे हरे रंग की लकीर खींची होती है। जांघें भूरे रंग की होती हैं। नर के पैर की अंगुली और पिछले भाग के ऊपर पैर गांठ होती है। इस पक्षी की आवाज बहुत तेज पिया-ओ या मिया-ओ होती है। मानसून के मौसम से पहले इनकी पुकारने की बारंबारता बढ़ जाती है और अधिक तेज शोर से परेशान होकर यह अलार्म की तरह आवाज निकालने लगते हैं। वन क्षेत्रों में, अपनी तेज आवाज के कारण यह अक्सर एक शेर की तरह एक शिकारी को अपनी उपस्थिति का संकेत भी देते हैं। यह अन्य तरह की तेज आवाजें भी करते हैं जैसे कि कां-कां या बहुत तेज कॉक-कॉक । मोर ऊँचे पेड़ों पर अपने बसेरे से समूहों में बांग भरते हैं लेकिन कभी कभी चट्टानों, भवनों या खंभों का उपयोग करते हैं। गोधूलि बेला में अक्सर पक्षी अपने पेड़ों पर बने बसेरे पर से आवाज निकालते हैं। मोर मांसभक्षी होते है और बीज, कीड़े, फल, छोटे स्तनपायी और सरीसृप खाते हैं। वे छोटे सांपों को खाते हैं लेकिन बड़े सांपों से दूर रहते हैं। खेती के क्षेत्रों के आसपास, धान, मूंगफली, टमाटर मिर्च और केले जैसे फसलों का मोर व्यापक रूप से खाते हैं। मानव बस्तियों के आसपास, यह फेकें गए भोजन और यहां तक कि मानव मलमूत्र पर निर्भर करते हैं। बीज कीटनाशक, मांस के कारण अवैध शिकार, पंख और आकस्मिक विषाक्तता के कारण मोर पक्षियों की जान को खतरा है। भारत के कुछ हिस्सों में यह पक्षी उपद्रव करते हैं, कई जगह ये फसलों और कृषि को क्षति पंहुचाते है। बगीचों और घरों में भी इनके कारण समस्याएं आती है जहाँ वे पौधों, अपनी छवि को दर्पण में देखकर तोड़ देना, चोंच से कारों को खरोंच देना या उन पर गोबर छोड़ देते है। ये बहुत ताकतवर भी होते हैं अपनी जान बचाने के लिए ये मोटा कांच भी तोड़ देते हैं। एक बार मेरे आगरा स्थित पुस्तकालय के हाल में मोर घुस आया था।एक अल्प शिक्षित महिला कर्मी मोर के पंख को उसके शरीर से नोचना चाहा तो वह भागकर बिना ग्रिल वाले खिड़की का कांच तोड़ते हुए सुरक्षित भाग निकला ।उस महिला ने प्रवेश द्वार भी बंद कर रखा था।प्रतीत होता है वह मानव को क्षति नहीं पहुंचाता और खुद दूर सुरक्षित चला जाता है। कई शहरों में, जंगली मोर प्रबंधन कार्यक्रम शुरू किया गया है। नागरिकों को शिक्षित किया जाना चाहिए कि पक्षियों के उपचार में शामिल हों और उन्हें नुकसान करने से रोकें।






Saturday, August 6, 2022

हनु का चौथा बर्थ डे

पवन देवता द्वारा एक शापित अंजनी अप्सरा के बच्चे हनुमान ने एक बच्चे के रूप में, ऊपर उड़ने और सूर्य को पकड़ने की कोशिश की थी जिसे उसने फल समझ खाना चाहा था। जब हनुमान के मुख में सूर्य समा जाने और अंधेरा होने का डर हुआ तो देवताओं के राजा इंद्र ने हनुमान के जबड़े (हनु) पर वज्र से प्रहार किया और उनकी ठुड्ढी विकृत हो गई तो लोगों हनुमान नाम दिया। हनुमान शिव जी के अंशावतार और स्वमेव जगत के अधिष्ठाता रामजी के समकक्षी भी हैं। वे रामजी के वे सारे कार्य ततक्षण किए जिसे मर्यादा पालन करने के कारण मानव रूप धारी रामजी नहीं कर सकते थे।
हनु के चौथे जन्म दिन के अवसर पर कुछ तस्वीरें शेयर कर रहा हूं।                          5 अगस्त 2019
हनुमान जी के प्रसाद स्वरूप बालक हनु का संसार में आना
श्रावण /अगस्त 2019 का महीना था। देश में कुछ विशेष घटित होने वाला था। सैनिकों की छुट्टियां निरस्त हो रही थीं। सैनिकों का आवागमन बढ़ गया था। सभी लोग क्या होने वाला है के जिज्ञासा से युक्त थे।भारत सरकार ने भारतीय संविधान में प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करके अस्थाई 35 ए अनुच्छेद और धारा 370 के अस्थाई प्रावधान को बहुमत के आधार पर दूर कर दिया।कुछ अवसर और संकीर्ण शक्तियां बिदबिदाने लगीं।कुछ को अंदर तो कुछ बाहर फड़फड़ाने लगे।
इसी उपापोह और राष्ट्र को नवीन स्वरूप दिए जाने के अद्भुत क्षण की स्थिति में हनुमान जी ने अपने आशीष अंश को हमारे परिवार में भेजा।
                    जन्माष्टमी के अवसर पर
 हम लोगों ने उन्हें मंगलवार दिन पैदा होने के कारण हनु नाम दिया। ये श्रावण शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि और 6 अगस्त 2019 की तारीख थी। 
                   चाचू के शादी के अवसर पर
हमारे परिवार और चौबे जी के परिवार ने दिन रात पूरी निगरानी रखकर इस बालक का यथोचित पालन पोषण किया।
                 विदेश यात्रा में सावधानी
 इस बालक को देश विदेश में घूमने का कई अवसर भी मिला।इसके नाम से डाइग्नेस्टिक सेंटर भी चल रहा है।
      वह विद्यालय जाना भी शुरू कर दिया है। 
                                     छोटे भाई के साथ
आज बालक के तीसरी वर्ष गांठ और चौथे जन्म दिन के अवसर पर हनुमान जी के कुछ नामों को समावेश करते हुए हनुमान बाहुक की कुछ चयनित पंक्तियां उद्धृत कर रहा हूं।
दोहा : 
निश्चय प्रेम प्रतीति ते, बिनय करैं सनमान।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान॥
चौपाई : 
जय हनुमंत संत हितकारी। 
सुन लीजै प्रभु अरज हमारी॥
जै हनुमान जयति बल-सागर। 
सुर-समूह-समरथ भट-नागर॥
ॐ हनु हनु हनु हनुमंत हठीले। 
बैरिहि मारु बज्र की कीले॥
ॐ ह्नीं ह्नीं ह्नीं हनुमंत कपीसा। 
ॐ हुं हुं हुं हनु अरि उर सीसा॥
जय अंजनि कुमार बलवंता। 
शंकरसुवन बीर हनुमंता॥
जय जय जय हनुमंत अगाधा। 
दुख पावत जन केहि अपराधा॥
ॐ चं चं चं चं चपल चलंता।
 ॐ हनु हनु हनु हनु हनुमंता॥
ॐ हं हं हाँक देत कपि चंचल। 
ॐ सं सं सहमि पराने खल-दल॥
अपने जन को तुरत उबारौ। 
सुमिरत होय आनंद हमारौ॥
यह बजरंग-बाण जेहि मारै। 
ताहि कहौ फिरि कवन उबारै॥
पाठ करै बजरंग-बाण की।
 हनुमत रक्षा करै प्रान की।।
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यह बजरंग बाण जो जापैं । 
ताते भूत-प्रेत सब कापैं ।।
धूप देय अरु जपै हमेशा । 
ताके तन नहिं रहै कलेसा ।।
दोहा : -
प्रेम प्रतीतिहि कपि भजै, सदा धरै उर ध्यान ।
तेहि के कारज सकल सुभ, सिद्ध करैं हनुमान ।।

Wednesday, August 3, 2022

नवधा भक्ति डा. राधे श्याम द्विवेदी

तुलसी जयंती के अवसर पर रामचरितमानस के आधार पर 
नवधा भक्ति 
डा. राधे श्याम द्विवेदी
व्यक्ति अपने जीवन में कई प्रकार की भक्ति करता है। उनमें से, ईश्वर भक्ति के अंतर्गत नवधा भक्ति आती है। ‘नवधा’ का अर्थ है ‘नौ प्रकार से या नौ भेद’। अतः ‘नवधा भक्ति’ यानी ‘नौ प्रकार से भक्ति’। इस भक्ति का विधिवत पालन करने से भक्त भगवान को प्राप्त कर सकता है। जिन भक्तों ने भगवान को प्राप्त नहीं किया है और जिन्होंने प्राप्त किया है, वे दोनों नवधा भक्ति करते हैं। वैष्णव भक्तों ने इस भक्ति का बहुत प्रचार-प्रसार किया है।
नवधा भक्ति दो युगों में दो लोगों द्वारा कही गई है। सतयुग में, प्रह्लाद ने पिता हिरण्यकशिपु से कहा था। फिर त्रेतायुग में, श्री राम ने माँ शबरी से कहा था। श्री राम की ‘नौ प्रकार से भक्ति’ प्रह्लाद जी द्वारा कही गयी ‘नौ प्रकार से भक्ति’ से थोड़ा-सा भिन्न है। नवधा भक्ति रामायण (श्रीरामचरितमानस) के अरण्यकाण्ड में है। जब माता शबरी कहा कि मैं नीच, अधम, मंदबुद्धि हूँ, तो मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ? तब श्री राम ने उनसे कहा कि मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध मानता हूँ। फिर श्री राम नवधा भक्ति कुछ इस तरह कहते हैं। तुलसीदास जी लिखते हैं -

नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥
- श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड
अर्थात् :- मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम।

गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥
- श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड
अर्थात् :- तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें।

गुरु के चरण कमलों की सेवा करना यह तीसरी ‘चरण सेवा’ भक्ति है। चौथी भक्ति गुण समूहों का गान यानी कीर्तन भक्ति है।
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
- श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड
अर्थात् :- मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना।

सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥
- श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड
अर्थात् :- सातवीं भक्ति है जगत्‌ भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना।

नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥
- श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड
अर्थात् :- नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो-

सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥
- श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड
अर्थात् :- हे भामिनि! मुझे वही अत्यंत प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है।

कुल देवी मां शीतला ( पार्वती जी) हमारे परिवार और कुटुंब की रक्षा करें।

स्कंद पुराण के अनुसार माँ शीतला दुर्गा और माँ पार्वती का ही अवतार हैं। ये प्रकृति की उपचार शक्ति का प्रतीक हैं। इस दिन भक्त अपने बच्चों के साथ माँ की पूजा आराधना करते हैं जिसके फलस्वरूप परिवार प्राकृतिक आपदा तथा आकस्मिक विपत्तियों से सुरक्षित रहता है। आदिकाल से ही श्रावण कृष्ण सप्तमी को महाशक्ति के अनंतरूपों में से प्रमुख शीतला माता की पूजा-आराधना की जाती रही है। इनकी आराधना दैहिक तापों ज्वर, राजयक्ष्मा, संक्रमण तथा अन्य विषाणुओं के दुष्प्रभावों से मुक्ति दिलाती हैं, विशेषतः ज्वर, चेचक, कुष्टरोग दाहज्वर, पीतज्वर, विस्फोटक, दुर्गन्धयुक्त फोडे तथा अन्य चर्मरोगों से आहत होने पर माँ की आराधना इना रोगों से मुक्त कर देती है यही नहीं व्रती के कुल में भी यदि कोई इन रोंगों से पीड़ित हो तो माँ शीतलाजनित ये रोग-दोष दूर हो जाते हैं।

इन्हीं की कृपा से देह अपना धर्माचरण कर पाता है बगैर शीतला माँ की अनुकम्पा के देह धर्म संभव ही नहीं है। ऋषि-मुनि-योगी भी इनका स्तवन करते हुए कहते हैं कि ''शीतले त्वं जगन्माता शीतले त्वं जगत्पिता।शीतले त्वं जगद्धात्री शीतलायै नमो नमः अर्थात- हे माँ शीतला ! आप ही इस संसार की आदि माता हैं, आप ही पिता हैं और आप ही इस चराचर जगत को धारण करतीं हैं अतः आप को बारम्बार नमस्कार है।