Friday, December 23, 2022

उ0प्र0 /जिला सहकारी बैंक लि0 को सुचारू संचालन के लिए अधिग्रहण और सरकारी नियन्त्रण में लिया जाये

सम्पूर्ण भारतवर्ष के अन्य प्रदेशों की भाति उत्तर प्रदेश की आर्थिक प्रगति भी कृषि के विकास पर आधारित है । वाणिज्य, व्यापार एवं उद्योग धन्घों में पर्याप्त विकास के बावजूद भी प्रदेश की सकल आय में कृषि क्षेत्र का योगदान 35 प्रतिशत से अधिक है। रोजगार के अवसर सुलभ कराने की दृष्टि से भी कृषि लगातार सबसे व्यापक क्षेत्र बना हुआ है । प्रदेश के किसानों को कृषि उत्पादन हेतु आवश्यक संसाधन- उर्वरक, बीज, कृषि रक्षा रसायन और उपकरण, कृषि यन्त्र आदि हेतु अल्पकालीन ऋण तथा कृषि पर आधारित उद्योग सेवा एवं व्यवसाय आदि प्रयोजनों के लिये मध्यकालीन ऋण सुलभ कराने में सहकारी एवम भूमि विकास बैंकों की भूमिका अग्रणी है। 
सहकारी बैंक जिसे को-ऑपरेटिव बैंक भी कहा जाता है! यह एक वित्तीय संस्थान होती हैं जो शहरी और गैर-शहरी दोनों क्षेत्रों में छोटे व्यवसायों को ऋण देने का सुविधा प्रदान करती हैं। सहकारी बैंक का गठन एवं कार्यकलाप सहकारिता के आधार पर होता है। इन बैंकों द्वारा किसानों को उनकी उपज के वैज्ञानिक भण्डारण तथा विपणन आदि की सुविधा उपलब्ध कराने के साथ-साथ दैनिक उपयोग की आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं की आपूर्ति हेतु वित्तपोषण की व्यवस्था भी की जाती है। ये बैंक ऋण वित्त पोषण के साथ ही साथ बचत की अनेक योजनाएं भी चलाते हैं। छोटी छोटी समितियों के माध्यम से ये निचले या अंतिम पायदान पर जीवन यापन करने वाले लोगों के संपर्क और पहुंच में आसानी से आ जाते हैं। इनके सदस्यों डायरेक्टर और अध्यक्ष पद के चुनाव होते हैं और हर राजनीतिक पार्टी अपने व्यक्ति को इस पद पर आसीन कराने के लिए प्रयासरत रहता है। उसे गाड़ी नौकर और सुरक्षा गार्ड उपलब्ध कराया जाता है।समाज और सरकार में उसे अच्छे रूप में देखा जाता है।
त्रिस्तरीय सहकारी ढाचा:-
प्रदेश स्तर पर उ0प्र0 सहकारी बैंक लि0 की 27 शाखायें , 17 क्षेत्रीय कार्यालय , 30 पे-आफिस कुल 74 वित्त संस्थाएं हैं। जिला स्तर पर जिला/केन्द्रीय सहकारी बैंक लि0 बैंकों की संख्या 50 है। शाखाओं की संख्या1266 है। न्याय पंचायत स्तर पर: प्रारम्भिक सहकारी कृषि समितियों की संख्या 7479 है। भारतीय सहकारी बैंकिंग का इतिहास वर्ष 1904 में सहकारी समिति अधिनियम के पारित होने के साथ शुरू हुआ। इस अधिनियम का उद्देश्य सहकारी ऋण समितियों की स्थापना करना था। स्वतंत्रता के बाद पहले 3 वर्षों के दौरान यानी वर्ष 1949 तक सहकारी बैंकिंग की दृष्टि से कुछ भी महत्त्वपूर्ण कार्य संभव नहीं हो पाया। सहकारी साख के त्रिस्तरीय ढाचे की वर्तमान वित्तीय स्थिति, उसके सम्मुख विद्यमान प्रमुख समस्यायें एवं उनके निराकरण की योजना वर्णित की जा रही है।
उ0प्र0 कोआपरेटिव बैंक लि0, मुख्यालय, लखनऊ:-
उ0प्र0 कोआपरेटिव बैंक लि0 की स्थापना जिला सहकारी बैंकों की शीर्ष सहकारी संस्था के रुप में निबन्धन संख्या 811 के द्वारा दिनांक 20 नवम्बर 1944 को हुई थी । इस प्रकार इस बैंक को कार्य करते हुए लगभग आठ दशक वर्ष हो चुके हैं । उ0प्र0 कोआपरेटिव बैंक लि0, भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम 1934 की द्वितीय अनुसूची में सूचीबद्ध है। अर्थात् यह एक अनुसूचित बैंक है तथा सहकारी संस्था के रुप में उ0प्र0 सहकारी समिति अधिनियम 1965 एवं उ0प्र0 सहकारी समिति नियमावली 1968 तथा बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट 1949 के अधीन बैंकिंग के रुप में विनियमित होता है। 
50 जिला सहकारी बैंक संचालित :-
सहकारिता विभाग के अधीन प्रदेश में उत्तर प्रदेश कोआपरेटिव बैंक की एक शाखा, जबकि 50 जिलों में जिला सहकारी बैंक संचालित हैं। इन सभी 51 बैंकों को अलग-अलग प्रबंधन संचालित कर रहा है। हर माह करोड़ों रुपये खर्च हो रहे हैं ।साथ ही कर्मचारी भी उसी जिले में वर्षों से जमे होने से राजनीतिक गतिविधि में शामिल हो रहे हैं। बैंकों का अपेक्षित कंप्यूटरीकरण व अन्य कार्य न हो पाने से वहां पारदर्शिता का अभाव है। इसके अलावा कार्मिकों को वेतन सही से नहीं मिल पा रहा है। केंद्रीय सहकारिता मंत्री अमित शाह ने सहकार भारती के अधिवेशन में कहा था कि वे जिला सहकारी बैंकों को प्रदेश बैंक के साथ नाबार्ड से जोड़ेंगे। यह कब भलीभूत हो सकेगा कहा नही जा सकता है। अलबते चुनाव आदि के समय सभी राजनीतिक दल इसे अपने प्रतिष्ठा का विषय बना लेते हैं। इसमें पारदर्शिता पर संदेह होता है और पद प्रतिष्ठा के साथ कुछ गुप्त लाभ और सुविधाएं भी छिपा होना लाजमी है।
प्रदेश सरकार ने यूपीसीबी व जिला सहकारी बैंकों के बेहतर प्रबंधन के लिए 31 अक्टूबर 2018 को आइआइएम लखनऊ के प्रोफेसर विकास श्रीवास्तव की अगुवाई में कमेटी गठित किया था। समिति ने फरवरी 2020 में सरकार को रिपोर्ट सौंपा है कि जिला सहकारी बैंकों का यूपीसीबी में विलय कर दिया जाए, इसके अलावा कई अन्य अहम सुझाव दिए गए हैं, ये प्रकरण शासन स्तर पर लंबित है। यदि इसका निराकरण हो गया तो यह स्वतन्त्र और स्वायत्त होकर पॉकेट संगठन नहीं रह सकेगा।
नोट बन्दी के समय इस संस्था द्वारा बड़े पैमाने पर कालेधन को सफेद किया गया है। इन बैंकों द्वारा वित्तीय अनियमितताएं की गई। धड़ाधड़ अनुदान और ऋण बांटे गए। वसूली पर जोर नही दिया गया।इसलिए इनका घाटा बढ़ते बढ़ते इतना ज्यादा हो गया कि इन्हें अपना कारोबार समेट कर ताला लटकाना पड़ा। मुझे तो यह भी प्रतीत होता है कि वार्षिक लेखा परीक्षण के प्रस्तरों की भी अनदेखी की गई होगी। बाद में जब सरकार की साख पर सवाल उठा तो सीमित और मनमानी तरीके से इसे चालू करने का नाटक किया गया।  यूपी के बंद 16 जिला सहकारी बैंक फिर से खुल गए हैं। भारतीय रिजर्व बैंक के आदेश के अनुसार, ये 16 जिला सहकारी बैंक प्रदेश के अन्य बैंकों की तरह कार्य शुरू कर भी दिए हैं पर सच्चाई तो कोई भुक्त भोगी ही बता पाएगा। बैंक उपभोक्ताओं को उनका पैसा मिलने और एक महीने तक इंतजार करने के अलावा और कोई सुगम रास्ता नहीं बचा है। भारतीय रिजर्व बैंक ने इन 16 जिला सहकारी बैंक के निर्धारित मानक की पूर्ति न करने के वजह से इनके लाइसेन्स निरस्त कर दिए थे। पर  एक अक्टूबर 2022 से बैंक खाताधारक बिना किसी असुविधा के लेन-देन कर सकेंगे,इस प्रकार की घोषणा भी हो चुकी है । किसी भी खाताधारक को चिन्ता ना करने की और सभी ग्राहकों का पैसा पूरी तरह सुरक्षित होने की लालीपाप दिया जा चुका है। प्रभावित बैंक हैं -- जनपद गाजीपुर, वाराणसी, सीतापुर, हरदोई, आजमगढ़, फतेहपुर, बलिया, इलाहाबाद, फैजाबाद, गोरखपुर जौनपुर, सिद्धार्थनगर, सुलतानपुर, बहराइच, देवरिया तथा बस्ती की जिला सहकारी बैंक।इन सब शाखाओं के खाता भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा लाइसेंस आरबीआई द्वारा निरस्त किया गया थे।
 उत्तर प्रदेश के सहकारिता राज्य मंत्री जेपीएस राठौर ने कहा था कि भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित मानकों की पूर्ति न करने के कारण 16 जिला सहकारी बैंकों के निरस्त लाइसेंस को रिन्यूअल कर दिया गया है। 16 कमजोर स्थिति वाली जिला सहकारी बैंकों की समीक्षा करते हुए सहकारिता मंत्री ने निर्देश देते हुए कहा था कि सभी अधिकारी व कर्मचारी मेहनत एवं लगन से कार्य करें, तथा चुनौतियों का सामना मिलजुल कर करें। बैंक की आय बढ़ाने के लिए वेतन भोगी समितियों को जोड़ा जाये। जिससे तत्काल बैंक की पूंजी बढ़ेगी। इसके साथ ही कृषक हित के ऋण देने के अतिरिक्त होम लोन, एजुकेशन लोन, बिजनेस लोन के साथ-साथ अन्य लोन भी दिए जाये। उन्होंने कहा कि कोई भी अधिकारी भ्रष्टाचार तथा वित्तीय अनियमितता में शामिल न हों।नहीं तो उनके खिलाफ सख्त कार्यवाही की जायेगी। उन्होंने कहा था कि अथक प्रयासों के बाद इन बैंकों को पुनः लाइसेंस प्राप्त हुआ है। इसीलिए सभी बैंकों को अपनी स्थिति में और सुधार करने तथा पूंजी बढ़ाने की अवश्यकता है।
इतना सब होते हुए भी इन बैंकों के काम काज में सुधार होता नहीं दिख रहा है।जो बैंक बैंक के काम काज की अवधि में उपभोक्ताओं से खचाखच भरा रहता था वह अब इने गिने लोगों को देखने को तरस रहे हैं। स्टाफ की भर्ती बंद हो गई है।एक लिपिक और एक कैशियर से काम काज चल जाता है। कुछ अन्य वफादार स्टाफ भी देखे जा सकते हैं पर वे क्या करते हैं और कितना उपभोक्ता के लिए उपयोगी है? इसे बिरले लोग ही समझ सकते हैं। आम जनता का विश्वास हासिल करने में ये सक्षम नही हो पा रहे हैं। धीरे धीरे लोग अपना एकाउंट बंद कराते जा रहे हैं। हां यदि उ0प्र0 /जिला सहकारी बैंक लि0 का अधिग्रहण और सरकारी नियन्त्रण में ले लिया जाए और जन जागरण अभियान चला कर लोगों का विश्वास जीता जाय तो ये बैंक पुनः स्थापित होकर जीवित हो सकते हैं।
जिला सहकारी बैंक बस्ती का नवीन प्रयास:-
जिला सहकारी बैंक के नवनिर्वाचित अध्यक्ष राजेंद्र नाथ तिवारी ने बैंक की साख बचाने के लिए जरूरी पहल की है। उन्होंने भारत सरकार के सहकारिता मंत्री को पत्र भेजकर कहा है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के 16 सहकारी बैंकों में लेन देन की स्थिति विभागीय दु‌र्व्यवस्था के कारण इतनी खराब हो गई है कि उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध हो गई है। रिजर्व बैंक की स्थापना के पूर्व का जिला सहकारी बैंक लिमिटेड बस्ती है। जिसको रिजर्व बैंक की मुख्य धारा में रहने के लिए रिजर्व बैंक से लाइसेंस लेना पड़ा। लाइसेंस लेने से पूर्व ही रिजर्व बैंक ने एक आदेश जारी कर जिला सहकारी बैंकों में जिसमें बस्ती, वाराणसी, गोरखपुर, बहराइच जैसे 16 जिले शामिल हैं, को लेन-देन से मना कर दिया। बाद में 16 अगस्त 2016 को लेन-देन के लिए सीमित अधिकारी देते हुए पुन: कार्य करते रहने की अनुमति दी गई। इस बीच बैंक की साख इतनी खराब हो गई कि लेन-देन की बढ़ती भीड़ के कारण और मांग के अनुरूप भुगतान न करने के कारण बैंकों पर विश्वास का संकट खड़ा हो गया। प्रधानमंत्री की ओर से सहकारी बैंकों के उपचार के लिए लिए पैकेज की घोषणा की गई। भारत सरकार ने उत्तर प्रदेश कोआपरेटिव बैंक लिमिटेड लखनऊ में धनराशि भेज दी, मगर उस धनराशि के सापेक्ष बीमार बैंकों को धन आवंटित नहीं किया गया।अध्यक्ष जी ने सहकारिता मंत्री जी से अनुरोध किया है कि जिला सहकारी बैंकों के उत्तर प्रदेश कोआपरेटिव बैंक लिमिटेड में जमा धनराशि लगभग 76 करोड़ रुपये को तुरंत अवमुक्त किया जाए। जिला सहकारी बैंक बस्ती में मांग के अनुरूप बैंक अधिकारी व कर्मचारी भी तैनात किए जाएं।
जिला सहकारी बैंक बस्ती द्वारा बस्ती और संत कबीर नगर की साधन सहकारी सहकारी संस्थाओं को वित्त पोषित करने के लिए अब तक सहकारी समितियों को 500000 से ₹1000000 तक का उर्वरक ऋण सीमा स्वीकृत की गई है। इसके साथ सहकारी बैंक द्वारा उद्यमियों सहित अन्य पात्र लोगों विभिन्न प्रकार के ऋण उपलब्ध कराये जा रहे हैं। जिससे अपने बलबूते ऊर्जा का सदुपयोग करते हुए लोग अपने जीवन स्तर में और अधिक सुधार ला सकें।

Sunday, December 18, 2022

पेरिय नम्बि परांकुशदास महापूर्ण स्वामीजी एक महान आचार्य (सनातन श्री सम्प्रदाय परम्परा 19) डा. राधे श्याम द्विवेदी


            कमलापति कल्याण गुणामृत निषेवया।
            पूर्ण कामाय सततम् पूर्णाय महते नमः ॥

         सनातन धर्म श्री सम्प्रदाय के आचार्यों की श्रृंखला में दक्षिणभारत के पेरिय नम्बि परांकुशदास महापूर्णस्वामीजी के बारे में कतिपय सूचनाओं से अवगत कराएंगे। सनातन अर्थात श्री सम्प्रदाय के आचार्यों की श्रृंखला में दक्षिण भारत के आचार्यों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस कड़ी में पुण्डरीकाक्ष जी के बाद उनके शिष्य राममिश्र जी और उनके बाद उनके शिष्य परांकुश जी हुए थे उसके बाद उनके शिष्य यामुनाचार्य जी और उनके बाद रामानुज जी हुए हैं ।
           पेरिय नम्बि को परांकुशदास श्री महापूर्ण स्वामीजी भी कहा जाता है। परांकुशदास महापूर्णाचार्य का ही दूसरा नाम है। परांकुश का मतलब सर्वशक्तिमान होता है।
 वे आळवन्दार् श्री यामुनाचार्यजी के ही शिष्य और रामानुजाचार्य के गुरु रहे हैं । उनका जन्म श्रीरंगम में मार्गशीर्ष् मास, ज्येष्ठ नक्षत्र में हुआ था। आळवन्दार (श्री यामुनाचार्य स्वामीजी) के समय के बाद , सारे श्रीरंगम के श्रीवैष्णव पेरिय नम्बि से विनती करते है की वह श्री रामानुजाचार्य को श्रीरंगम मे लाये । अतः वह श्रीरंगम से अपने सपरिवार के साथ कांचीपुरम की ओर चले। इसी दौरान श्री रामानुजाचार्य भी श्रीरंगम की ओर निकल पडे।
          भगवान पेरुमल थे जो सदैव इळयाळ्वार स्वामीजी की बचाव करते थे और उनको पेरिय नम्बि जी के पास जाने को प्रेरित करते थे, और कहते की आप पेरिय नम्बि से पञ्च संस्कार करवाइये और उनके शिष्य बन जाईये।
वरदराज पेरुमाल मंदिर भारत के तमिल नाडु राज्य के कांचीपुरम तीर्थ-नगर में स्थित भगवान विष्णु को समर्पित एक हिन्दू मंदिर है। यह दिव्य देशम में से एक है, जो विष्णु के वह 108 मंदिर हैं जहाँ 12 आलवार संतों ने तीर्थ करा था। यह कांचीपुरम के जिस भाग में है उसे विष्णु कांची कहा जाता है।
             इळयाळ्वार स्वामीजी (श्री रामानुजाचार्य) कान्चि छोड़ कर जाते हैं, फिर पेरिय नम्बि से कान्चि के रास्ते में मिलते है| आश्चर्य की बात यह थी की वे दोनो मदुरान्तगम् मे मिलते है और तभी पेरिय नम्बि श्री रामानुजाचार्य का पञ्च संस्कार करते हैं और कान्चिपुरम पहुँचकर श्री रामानुजाचार्य को सम्प्रदाय के अर्थ को बतलाते है।इसी बींच रामानुजाचार्य की धर्मपत्नी पेरियनम्बि (जिनका कुल नीचा था) के प्रति असद्भावना होने की वजह से पेरियनम्बि दुखित होकर अपने परिवार के साथ श्रीरंगम वापस लौट गए ।
             पेरिय नम्बि एक महान आचार्य थे जिन्हें श्री रामानुजाचार्य के प्रति अत्यधिक लगाव और सम्मान था।
जब उनकी बेटी को अलौकिक सहायता की जरूरत थी तब इसके हल के लिये अपनी बेटी को रामानुजाचार्य के पास जाने का उपदेश देते है।वह जानते थे कि इस तरह के अच्छे कर्मों को कभी स्थगित नहीं किया जाना चाहिए । 
          एक बार श्रीरामानुजाचार्य अपने शिष्यगण के साथ चल रहे थे तब अचानक श्रीरामानुजाचार्य के गुरु पेरियनम्बि उनको दण्डवत प्रणाम करते है । तब श्रीरामानुजाचार्य इस क्रिया का स्वीकार या समर्थन नही करते क्योंकि किसी भी शिष्य को अपने आचार्य का प्रणाम स्वीकार नही करना चाहिये । इस क्रिया से सभी शिष्य आश्चर्यचकित होते देखकर श्रीरामानुजाचार्य अपने आचार्य से पूछते है," उन्होने ऐसा क्यों किया ?" तब श्रीपेरियनम्बि कहते है कि "रामानुजाचार्य मे वह अपने आचार्य श्री यामुनाचार्य को देखते है इसीलिये उन्होने दण्दवत प्रणाम किया |" वार्ता माला में एक विशेष वचन सूचित करती हैं की आचार्य को अपने शिष्य के प्रति बहुत सम्मान होना चाहिए और पेरियनम्बि उस वचन के अनुसार जीवन यापन किए हैं ।
             पेरियनम्बि मारनेरीनम्बि (जो शूद्र होने के बावजूद यामुनाचार्य के शिष्य हुए और फिर एक महान श्रीवैष्णव बने) का अन्तिम संस्कार करते है , जब वह परपदम को प्रस्थान हुए । इस क्रिया का समर्थन अधिकतर श्रीवैष्णव नही करते और वे श्रीरामानुजाचार्य को इस घटना के बारें मे बताते है । यह जानकर जब श्रीरामानुजाचार्य पेरियनम्बि से पूछते है तब पेरियनम्बि कहते है की उन्होने सीधा आळ्वार के श्रीसूक्तियों ( तिरुवाय्मोळि – पयिलुम् चुडरोळि (3.7) और नेडुमार्क्कडिमै (8.10) ) का पालन किया और यही वार्दात श्री अळगिय मनवाळ पेरुमाळ्नायणार अपने आचार्य हृदय मे कहते है और यह हमारे गुरुपरंपराप्रभावम् मे भी है ।
         एक बार पेरियपेरुमाळ को कुछ कुकर्मियों से खतरा था यह जानकारी प्राप्त कर श्रीवैष्णव निश्चय करते है की पेरियनम्बि ही सही व्यक्ति है जो देवालय की प्रदक्षिणा कर सकते है । तब वह श्री कूरत्ताळ्वार को अपने साथ प्रदक्षिणा करने को बुलाते है क्योंकि कूरत्ताळ्वार ऐसे एक मात्र भक्त थे जिन्होने परतन्त्रता का दिव्यस्वरूपज्ञान मालूम था । यही विषय नम्पिळ्ळै अपने तिरुवाय्मोलि (७ .१० .५ ) ईडु व्याख्यान में बताते हैं ।
           इसके पश्चात , एक बार शैव राजा ने श्री रामानुजा- चार्य को अपने दरबार मे आमंत्रित किया जिससे समाधान मे श्री कूरत्ताळ्वार (श्रीरामानुजाचार्य के भेष मे) और बूढे श्री पेरियनम्बि उनके साथ गए । यह शैव राजा को श्रीरामानुजाचार्य के प्रति सद्भावना नही होने के कारण अपने अनुचरों को आज्ञा देते है की श्रीरामानुजाचार्य के आँखें नोच लें । तब श्री पेरियनम्बि राज़ी होकर अपने आपको समर्पित करते है और उनकी आँखें नोच ली जाती है । अपने वृध्द अवस्था मे होने के कारण श्री पेरियनम्बि परम पद को प्रस्थान करते है । कहते है की उनके अन्तिम काल के इस घटना से एक सीख मिलती है ।
         श्री कूरत्ताळ्वान और पेरियनम्बि कि बेटी (अतुळाय) कहते है कि जैसे भी हो आप अपने प्राणों को ना त्यागें, क्योंकि श्रीरंगम ज्यादा दूर नही है । यानि वह अपने प्राण तभी त्यागें जब वह श्रीरंगम पहुँचे । यह सुनकर श्री पेरियनम्बि तुरन्त रुकने को कहते है और फिर कहते है अगर इस घटना को लोग कुछ इस प्रकार समझेंगे कि अपने प्राणों का त्याग श्रीरंगम मे करना जरूरी है तब वह एक श्रीवैष्णव के वैभव को सीमित करने के बराबर है और यह कदाचित भी नही होना चाहिये । अतः वह वही अपने प्राणों को त्यागते है ।
             आळ्वार कहते है –
               "वैकुंठमागुम् तम् ऊरेल्लाम्” – 
         यानि जहाँ श्रीवैष्णव रहते है वही वैकुंठ हो जाता है । अतः हमारे लिये यह जरूरी है की हम जहाँ भी हो भगवान पर पूर्णनिर्भर रहे क्योंकि ऐसे कुछ लोग जो दिव्यदेशों मे रहने के बावज़ूद नही समझते की उनपर भगवान की असीम कृपा और प्रशंशनीय आशीर्वाद है और इसके व्यतिरेक मे ऐसे श्रीवैष्णव है जो सदैव भगवद्चिंतन मे रहते है (जैसे – चाण्डिलि और गरुड की घटना) ।
          पेरिय नम्बि हमारे सम्प्रदाय के सच्चे सिद्धांतों को जानते थे जो कभी भगवान के भक्त को अलग नहीं करते थे और सभी को प्यार और सम्मान के साथ समान रूप से व्यवहार करते थे । वह अपने शिष्य रामानुज से इतना प्यार करते थे कि उन्होंने हमारे सम्प्रदाय के भविष्य के आचार्य के लिए अपना जीवन त्याग दिया । उस समय, वहां के शैव राजा ने रामानुजा को अपनी मांगों को स्वीकार करने के लिए अपनी अदालत में आने का आदेश दिया था। 
           जब राजा उन्हें अपनी मांगों को स्वीकार करने का आदेश देता है, तो श्री कूरेश (कूरत्ताज़्ह्वान्) और पेरिय नम्बि दोनों राजा की मांगों को नहीं मानते हैं। राजा बहुत क्रोधित हो गया और अपने सैनिकों को उनकी आंखें निकालने का आदेश दिया। वृद्धावस्था के कारण दर्द को सहन करने में असमर्थ, पेरिय नम्बि अपना जीवन छोड़ देते है और श्रीरंगम जाने के रास्ते में परमपद चले जाते है, अंत समय में पेरिय नम्बि स्वामीजी कुरेश स्वामीजी की गोद में अपना सिर रखते है और फिर परमपद को प्रस्थान करते है। इन महान आत्माओं ने बिना किसी चिंता के सब कुछ त्याग दिया, हमारे रामानुज स्वामीजी की रक्षा करने के लिए, जो एक मोती के हार में केंद्रीय मणि की तरह हैं, जिसे हमारे श्री रामानुजा सम्प्रदाय कहा जाता है, मोतियों के रूप में सभी आचार्यों ने हार को एक साथ रखा और देखा कि केंद्रीय मणि सुरक्षित रहे । तो हम सभी को अपने आचार्यों के प्रति हमेशा आभारी रहना चाहिए और हमेशा अपने जीवन से नम्र होना चाहिए।
      अतः हम देख सकते है की श्री पेरियनम्बि कितने उत्कृष्ट श्रीवैष्णव थे और वह भगवान पर पूरि तरह निर्भर थे । तिरुवाय्मोळि और नम्माळ्वार के प्रति असीमित लगाव के कारण उन्हे परांकुश दास के नाम से जाना जाता है । उनके प्रार्थना से हमे यह पता चलता है की वह भगवान श्रियपती के कल्याणगुणों मे इतने निमग्न थे की वह इस दिव्यानुभव से सुखी और संतुष्ठ थे ।
पेरियनम्बि के शिष्य गण : - पेरियनम्बि के शिष्य निम्न हैं - श्रीरामानुजाचार्य (एम्पेरुमानार) , मलैकुनियनिन्रार , आरियुरिल् श्री शठगोप दासर , अणियैरंगतमनुदानार पिळ्ळै और तिरुवैक्कुलमुदैयार भट्टर इत्यादि।











Saturday, December 17, 2022

खरमास के बारे में कुछ जरूरी तथ्य-- डा. राधे श्याम द्विवेदी


        वैदिक पंचांग के अनुसार एक साल में 12 संक्रांति होती हैं। सूर्य जब भी एक राशि से निकलकर दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं तो वह क्षण संक्रांति के नाम से जाना जाता है। वहीं सूर्यदेव जिस भी राशि में प्रवेश करते हैं, उसी राशि का नाम संक्रांति के साथ जुड़ जाता है। सभी संक्रांतियों में मीन और धनु संक्रांति बहुत ही महत्वपूर्ण संक्रांति मानी जाती हैं। क्योंकि ये संक्रांति जब भी होती हैं, उसके बाद एक महीने तक किसी भी प्रकार के शुभ और मांगलिक कार्य नहीं किए जाते हैं ।
     ज्योतिषीय दृष्टि से देखा जाए तो साल में दो बार खरमास आता है। जब -जब सूर्य बृहस्पति की राशि धनु और मीन में प्रवेश करते हैं,तब-तब खरमास लगता है। खरमास में सूर्य अपने तेज को देवगुरु बृहस्पति के घर पहुंचते ही कम कर लेते हैं,ऐसी परिस्थिति में पृथ्वी पर सूर्य का तेज कम हो जाता है। सूर्य के कमजोर होने के कारण एक माह के लिए मंगलिक कार्यों पर विराम लगा दिया जाता है। जब सूर्य गुरु की राशियों में होता है,तब सूर्य के तेज से गुरु की राशि धनु और मीन निर्बल हो जाती है। ऐसी स्थिति में शुभ कार्यों के अपूर्ण होने की आशंका रहती है,इसलिए इस दौरान प्रभु का स्मरण करना बहुत पुण्यदायी माना जाता है।
प्रथम दिसंबर - जनवरी का खरमास :-
16 दिसंबर 2022 को भगवान सूर्यदेव धनु राशि में प्रवेश कर गए और 14 जनवरी 2023 को मकर राशि में सूर्यदेव गोचर करेंगे। इसीलिए 16 दिसंबर 2022 से लेकर 14 जनवरी 2023 तक खरमास रहेगा।
14 जनवरी 2023 शनिवार के दिन 7 व्रत और त्यौहार है
1. मकर संक्रान्ति - (सूर्य का मकर राशि में प्रवेश)
2. पोंगल - (मकर संक्रान्ति के दिन)
3. उत्तरायण - (सौर कैलेण्डर पर आधारित)
4. मकरविलक्कु - (सौर कैलेण्डर पर आधारित)
5. रोहिणी व्रत - (जैन कैलेण्डर पर आधारित)
6.स्वामी विवेकानंद जयंती
7. लोहड़ी (लोहरी)
द्वितीय मार्च - अप्रैल का खरमास :-
15 मार्च 2023, दिन बुधवार को भगवान सूर्यनारायण मीन राशि में प्रवेश कर जाएंगे और खरमास आरंभ हो जाएगा। इसके बाद 14 अप्रैल 2023, दिन शुक्रवार तक खरमास रहेगा और इसी दिन भगवान सूर्यदेव मीन राशि से निकलकर मेष राशि में प्रवेश करेंगे।
14 अप्रेल 2023, वैशाख कृष्ण नवमी शुक्रवार के दिन 5 व्रत और त्यौहार है
1. बौशाखी (मेष संक्रान्ति के दिन)
2. मेष संक्रान्ति - (सूर्य का मीन से मेष राशि में प्रवेश)
3. सोलर नववर्ष - (हिन्दु सौर कैलेण्डर का पहला दिन)
4.पुथन्डू - (सौर कैलेण्डर पर आधारित)
5. अम्बेडकर जयन्ती - (ग्रेगोरियन कैलेण्डर में निश्चित दिन)
इस दौरान कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता है. आने वाले नए साल में 14 जनवरी को मकर संक्रांति के दिन खरमास का महीना खत्म होगा. इस समय का निर्धारण सूर्य की गति से हर बार होता है और चन्द्र की स्थिति से कोई मतलब नहीं होता है।कुछ लोग इसे मलमास समझने का भ्रम मन बैठते है। खरमास साल में दो बार तथा मलमास तीन साल में एक बार होता है। हिंदू मान्यताओं के मुताबिक खरमास में शादी-विवाह पर पाबंदी होती है. इसके अलावा घर बनाना या खरीदना या कोई नया काम करने पर रोक होती है. 
खरमास की कथा:-
खरमास की कथा गधे से संबंधित है. संस्कृत में खर का मतलब गधा होता है और मास का मतलब महीना होता है. कथाओं के मुताबिक एक बार सूर्य देवता अपने रथ पर बैठकर ब्राह्मांड की परिक्रमा कर रहे थे. इस दौरान उनके रुकने का मतलब धरती पर जनजीवन का रुक जाना था. इसलिए उनका रथ हमेशा चलता रहता था. लेकिन इस दौरान उनके घोड़े थक गए और उनको प्यास लगने लगी. इससे चिंतित होकर भगवान ने रथ को एक तालाब के किनारे रोक दिया और घोड़ों को आराम के लिए छोड़ दिया. इसी वक्त तालाब किनारे दो गधे घास चर रहे थे. भगवान ने दोनों गधों को रथ से जोड़ा और फिर परिक्रमा पर निकल पड़े. लेकिन गधे तो गधे होते हैं. उनकी रफ्तार घोड़ों के मुकाबले कम होती है. इसलिए रथ की रफ्तार भी धीमी हो गई. भगवान सूर्य ने किसी तरह से एक महीने का वक्त पूरा किया और तालाब के किनारे पहुंचे. इसके बाद उन्होंने गधों को मुक्त किया और घोड़ों को रथ से जोड़ा और फिर परिक्रमा पर निकले पड़े. इस तरह से हर सौर साल में एक महीना खरमास का होता है।
खरमास के महीने में क्या करना चाहिए:-
खरमास के महीने में शुभ कामों पर रोक होती है. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि खरमास में हर काम अशुभ होता है. चलिए आपको बताते हैं कि खरमास में क्या-क्या करना चाहिए.
भगवान सूर्य की पूजा करनी चाहिए. 
इस महीने में लक्ष्मी नारायण की पूजा करके विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ कर सकते हैं 
इस महीने में दान-पुण्य करना भी फलदायी होता है
खरमास में ईष्ट देवों की पूजा-पाठ करने से जीवन की सभी बाधाएं दूर होती हैं
खरमास में गरीबों की मदद करने से मां लक्ष्मी का आशीर्वाद मिलता है
इस महीने में जप-तप और मंत्रों का उच्चारण करने से भी शुभ फल मिलता है
खरमास में क्या नहीं होता है:-
मांगलिक कार्यक्रमों जैसे शादी-विवाह, मुंडन, गृह प्रवेश जैसे काम नहीं करने चाहिए।
खरमास में कोई भी नया काम करने की पाबंदी होती है
मकान, जमीन या प्लॉट नहीं खरीदा चााहिए।
नए कपड़े और आभूषण भी पहनना नुकसानदायक होता है।
खरमास में अगर संभव हो तो मूंग दाल, जीरा, आम, सुपारी, सेंधा नमक, तिल नहीं खाना चाहिए।

ज्ञानी का घमंड टूटना व विद्वतकर की प्रथा का अंत आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी

पंडितों में कर लेने की प्रथा:-
बात दसवीं - ग्यारहवी शताब्दी के उन दिनों की है जब दक्षिण भारत में राजा पांड्य राज करते थे। उनके दरबार में कोलाहल नामक एक विद्वान ब्राह्मण राजपंडित के पद पर नियुक्त थे । वह विद्वान के साथ ही साथ बड़ा घमंडी भी था। राजा पांड्य भी इसका बहुत सम्मान करते थे। वह विद्वान ब्राह्मïणों से शास्त्रार्थ करता था और शास्त्रार्थ में पराजित होने वाले ब्राह्मïणों से प्रति वर्ष कर वसूला करता था। सामान्य जीवन यापन करने वाले और हारे हुए पंडितों को राज पंडित को मजबूरन कर देना पड़ता था।
       उन्हीं गुरु भाष्याचार्य के एक शिष्य थे यमुनाचार्य, जिन्होंने वैष्णव सम्प्रदाय की स्थापना की थी। वे बचपन से ही काफी प्रतिभाशाली और विद्वान थे। उनकी विशेषता यह थी कि वे जिस पुस्तक को पढ़ लेते, वह उनको कंठस्थ हो जाया करती थी। भाष्याचार्य की अनुपस्थिति में कोलाहल का सेवक आया और यमुनाचार्य से कर की मांग करने लगा। कर की बात सुनकर यमुनाचार्य को बहुत आश्चर्य हुआ और बोले, ‘ किस बात का कर? तुम्हें किसने कर लेने के लिए भेजा है? मेरे गुरु तो किसी को कर नहीं देते।’ सेवक ने सोचा यह जानबूझकर ऐसा बोल रहा है। यही सोचकर क्रोधित होकर बोला, ‘जानकर भी अनजान बन रहे हो यामुन मुनि । तुम्हारे गुरु हमारे राजपंडित से शास्त्रार्थ में पराजित हो गये हैं। नियमानुसार पराजित होने वाले प्रत्येक विद्वान को कर देना पड़ता है। तुम्हारे गुरु ने पिछले कई वर्षों से कर नहीं दिया है और मुंह छिपाये फिर रहे हैं। यदि अपना कुशल चाहते हो, तो हमारा कर चुकता कर दो, वरना इसका परिणाम बुरा होगा।’
महापंडित, राज पुरोहित कोलाहल अन्य पंडितो को हरा कर आनंदित होता और इन सबकी खिल्ली उड़ाता था। उस समय गुरु भाष्याचार्य की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, फिर भी किसी प्रकार से वे कर दे रहे थे। यह बात उन्होंने अपने शिष्यों को नहीं बतायी थी। आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के से वे कई वर्षों तक कर नहीं चुका पाये और किसी आवश्यक कार्य से कहीं बाहर चले गये थे।  
        कोलाहल अपने प्रतिनिधियों को पंडितों के पास भेज कर उनसे कर वसुल करने को भेजता है । एक दिन कोलाहल का एक शिष्य ‘वंजि’ आया और बकाया कर की वसूली के लिए वहां बैठे यामुनाचार्य को अपशब्द बोल दिया। गुरु की अनुपस्थिति में उनका बारह वर्षीय शिष्य यामुन मुनि ने वंजि से कहा,"अपने गुरु तथा राजा को मेरा संदेश सम्मान के साथ दे देना कि मैं उन महापंडित ‘कोलाहल’ जी से शास्त्रार्थ करके उन्हें पराजित कर दूंगा।"
       उसी समय इस नए पंडित श्री यामुन मुनि की विद्वता की ख्याति फैल रही थी जो धीरे धीरे राजा पांड्य के कानों तक पहुंच गई थी। राजा को अपने महा पंडित के पांडित्य पर पूर्ण विश्वास था ही, अतः कुतुहल बस नए पंडित श्री यामुन मुनि को कोलाहल से शास्त्रार्थ करने के लिए आमंत्रित कर दिया ।  
           यामुनाचार्यजी एक श्लोक भेजते हैं, जिसमे वह स्पष्ट रूप से कहते है, वह उन सब कवियों का जो अपना स्वप्रचार के लिये अन्य विद्वानों पर अत्याचार करते है, उनका नाश करेंगे। यह देखकर कोलाहल को गुस्सा आता है और अपने सैनिकों को यमुनाचार्य को राजा के अदालत में लाने के लिए भेजता है।    
ज्ञान के घमंड का टूटना :-
       उस समय यमुनाचार्य की आयु मात्र बारह वर्ष की थी। उन्हें अपने गुरु का अपमान सहन न हुआ और बोल पड़े, ‘यदि कोलाहल को अपने ज्ञान का घमंड हो गया है । जाओ, जाकर अपने राजपंडित से कह दो, पहले भाष्याचार्य के शिष्य यमुनाचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित करें, फिर कर लेने की बात करें।’ सेवक ने राजदरबार में जाकर कोलाहल को सारी बातें बतायीं। उस समय दरबार में राजा पांड्य भी मौजूद थे। यह सुनकर कोलाहल भी आग -बबूला हो गया और उसने राजा से कहा, ‘महाराज, उस धृष्ट बालक को बुलाया जाये।’
        राजा ने तुरंत अपने सेवकों को आदेश दिया, ‘जाओ और उस बालक को शीघ्र दरबार में पेश करो।’ सेवक ने शीघ्र यमुनाचार्य के पास जाकर राजा का संदेश सुनाया और दरबार में चलने को कहा। यमुनाचार्य बड़े गर्व से बोले, ‘जाओ और अपने राजा से कह दो हम इस प्रकार राजदरबार नहीं जा सकते। यदि वे राज पंडित के साथ शास्त्रार्थ के लिए बुलाना चाहते हैं, तो मुझे सम्मानपूर्वक आमंत्रित करें और मेरे आने के लिए सवारी भेजें।’
       सेवक ने जाकर राजा को सारी बात बतायी। राजा ने तुरंत आमंत्रण पत्र और सवारी सहित ससम्मान यमुनाचार्य को लाने के लिए सेवक को भेजा। उस समय तक उनके गुरु भाष्याचार्य भी बाहर से लौट आये थे। अपने द्वार पर राजा का रथ देखकर, वे भयभीत हो गये। उन्होंने सोचा कि शायद कोलाहल का कर न देने के कारण राजा के अधिकारी उन्हें दंड देने के लिए आये हैं। तभी सेवक ने आकर यमुनाचार्य को राजा का निमंत्रण पत्र दिया। भाष्याचार्य को बड़ा आश्चर्य हुआ। यमुनाचार्य ने अपने गुरु को सारी बातें बता दीं और कहा, ‘मैं कोलाहल के घमंड को चकनाचूर कर दूंगा। आप मुझे आशीर्वाद दें।’ यह सुनकर भाष्याचार्य ने अपना सिर पीटते हुए कहा, ‘यमुना, यह तूने क्या किया? कोलाहल जैसे विद्वान को पराजित करना कोई सरल कार्य नहीं। तू अभी बच्चा है। फिर तेरे लिए भी प्रतिवर्ष मुझे कर देना होगा। मेरा कहा मान तू अपना हठ छोड़ दे। राजा और कोलाहल से क्षमा मांग ले।’ लेकिन यमुनाचार्य अपनी जिद पर अड़े हुए थे। गुरु के लाख समझाने पर भी नहीं माने। वे राजा के दूत के साथ राज सभा में उपस्थित हो गए।
       राज दरबार में राजा ने सभा में उन्हें ऊंचा आसन दिया। बालक होकर भी यमुनाचार्य सबसे अधिक प्रभावशाली लग रहे थे। उस दिन दरबार में महारानी भी मौजूद थीं। तब बालक को देखकर बोली, ‘यह तो साक्षात् विद्या का अवतार है। यह बालक अवश्य कोलाहल को पराजित करेगा।’ 
       यह सुनकर राजा बोला, ‘क्या कहती हो रानी? कोलाहल जैसे विद्वान को पराजित करने की हिम्मत बड़े-बड़े विद्वानों में नहीं है, फिर इस बालक की क्या बिसात! कोलाहल जैसे विद्वान तो इसके गुरु भी नहीं हैं।’
इस बात को लेकर दोनों में बहस शुरू हो गयी। राजा ने उत्तेजित होकर कहा, ‘यदि तुम्हारी बात सच निकली, तो मैं इसे अपना आधा राज्य दे दूंगा।’
         रानी भी कहां पीछे रहने वाली थी। बोली, ‘यदि आप की बात सच निकली, तो मैं आपकी दासी की दासी बनकर रहूंगी।’
         शास्त्रार्थ आरंभ हुआ। राजा को ही निर्णायक बनाया गया। राजा ने पहले यमुनाचार्य से कहा, ‘आप प्रश्न पूछिए। यदि निश्चित समय में उत्तर नहीं मिला, तो कोलाहल की हार मानी जाएगी।’
         यमुनाचार्य ने प्रश्न किया, ‘शास्त्रों में कहा गया है, यह संसार अपार है। भगवान ने एक से एक बड़ा पापी और धर्मात्मा संसार में उत्पन्न किया है। कहा जाता है, राजा पांड्य बड़े धर्मात्मा हैं। क्या यह सबसे बड़े धर्मात्मा हैं?’
         यह प्रश्न सुनकर कोलाहल चुप हो गए। अगर सबसे बड़ा धर्मात्मा राजा को बताये, तो शास्त्र के विरुद्ध। अगर न बताये तो राजा के अपमान का भय। वह कोई उत्तर न दे सका।
     यमुनाचार्य ने फिर प्रश्न किया, ‘सतियों में सावित्री का नाम आता है। आपने कई बार अपनी रानी को महान सती बताकर प्रशंसा की है। क्या वह सावित्री से भी महान है। हैं तो प्रमाण दीजिए।’ बेचारे कोलाहल को काटो तो खून नहीं। कोलाहल को कोई उत्तर न सूझ पड़ा। वे चुपचाप सिर झुकाए खड़े थे। 
     यमुनाचार्य ने राजा से कहा, ‘आप अपना निर्णय दें।’ राजा ने हाथ उठाकर यमुनाचार्य को विजयी घोषित कर दिया। शर्त के अनुसार उन्हें आधा राज्य दे दिया गया। कोलाहल को भी अपनी गलती का अहसास हो गया। उसने उसी दिन से ज्ञान का घमंड न करने और किसी पराजित विद्वान से कर न लेने का संकल्प कर लिया।



 

















Wednesday, December 14, 2022

श्री सम्प्रदाय के श्रीयामुनाचार्यजी राजा भी और सन्त भी (श्रीसनातन सम्प्रदाय परम्परा 18 )आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी

अल्पायु में पिता की छत्रछाया छिनी :-
संवत् 965 में आचार्य नाथमुनि अवतरित हुए हैं। उनके पुत्र का नाम ईश्वरमुनि तथा पौत्र थे यामुनाचार्य। ये सभी वैष्णव संप्रदाय से जुड़े हुए थे। बालक यामुनाचार्य 916 ई./ विक्रमी संवत् 1010 को दक्षिणात्य आषाढ़ माह के उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में काट्टुमन्नार् कोविल, वीर नरायणपुराम , वर्तमान मदुरा के मन्नारगुडी गांव में पैदा हुए थे। बाद में इन्हे आळवन्दार् के नाम से जाना जाने लगा। वे अभी मात्र दस वर्ष के थे कि पिता ईश्वरमुनि की मृत्यु हो गई। पौत्र को भगवान के सहारे छोड़कर दादा नाथ मुनि ने संन्यास ले लिया था। 
अलौकिक प्रतिभा:-
 यामुनाचार्य का लालन-पालन पिता के अभाव में उनकी दादी तथा माता ने किया था। बचपन से ही उनकी अलौकिक प्रतिभा सामने आ गई थी। उनके गुरु थे, भाष्याचार्य। उनसे शिक्षा पाकर वह थोड़े समय में ही शास्त्रों में पारंगत हो गए थे। उनका स्वभाव मधुर प्रेम मय और उदार था, इसलिए उनकी ओर लोग खिंचे चले आते। श्री आळवन्दार ने अपना विद्याध्यन, अपनी प्रारंभिक शिक्षा महाभष्य भट्टर् से प्राप्त किया था। पांड्य राज के महा पंडित कोलाहल को शास्त्रार्थ में परास्त करने के उपलक्ष्य में वहां के महारानी ने उन्हें आधा राज्य सौंप दिया था।
पंडितों में कर लेने की प्रथा:-
 उन दिनों सामान्य और हारे हुए पंडितों को मुख्य और जीते हुए पंडित को कर चुकाना पडता था। उस समय पांड्य राजा के राजदरबार के विद्वान पंडित, राज पुरोहित कोलाहल थे। जो अन्य पंडितो को हरा कर आनंदित होता था। इधर श्री यामुन मुनि की विद्वता की ख्याति फैल रही थी जो राजा पांड्य के कानों तक पहुंची। उन्हें अपने महा पंडित पर विश्वास था ही, अतः कुतुहल बस श्री यामुन मुनि को कोलाहल से शास्त्रार्थ करने के लिए आमंत्रित किया।
यामुनाचार्य के गुरु भाष्याचार्य एक बार राजा के दरबारी ‘कोलाहल नामक दिग्विजयी पंडित से शास्त्रार्थ में हार गए।
 एक बार आर्थिक तंगी के कारण यामुनाचार्य गुरु दो-तीन वर्ष तक महा पंडित कोलाहल को कर नहीं दे पाए। एक दिन कोलाहल का एक शिष्य ‘वंजि’ आया और बकाया कर की वसूली के लिए वहां बैठे यामुनाचार्य को अपशब्द बोल दिया। गुरु की अनुपस्थिति में बारह वर्षीय यामुन मुनि शिष्य ने वंजि से कह दिया अपने गुरु तथा राजा को मेरा संदेश दे देना कि मैं उन महापंडित ‘कोलाहल’ जी से शास्त्रार्थ करके उन्हें पराजित कर दूंगा।
        कोलाहल अपने प्रतिनिधियों को पंडितों के पास भेज कर उनसे कर वसुल करने को कहते थे। इसे सुनकर महाभाष्य भट्टर् चिन्तित हो जाते हैं और यामुनाचार्य जी से कहते हैं के वो इसका ख्याल रखेंगे। यामुनाचार्यजी एक श्लोक भेजते हैं, जिसमे वह स्पष्ट रूप से कहते है, वह उन सब कवियों का जो अपना स्वप्रचार के लिये अन्य विद्वानों पर अत्याचार करते है, उनका नाश करेंगे। यह देखकर कोलाहल को गुस्सा आता है और अपने सैनिकों को यमुनाचार्य को राजा के अदालत में लाने के लिए भेजता है। 
        यामुनाचार्यजी उन्हें बताते हैं कि वह केवल तभी आएगें जब उसे उचित सम्मान की पेशकश की जाएगी।
जब यह बात राजा तथा पंडित तक पहुंची, तो वह तिलमिला उठे। राजा ने यामुनाचार्य को लाने के लिए सवारी (पालकी )भेज दी। तब तक गुरु भाष्याचार्य भी आ चुके थे। वह डरे हुए थे । शिष्य ने कहा, आप चिंता न करें। मैं उन्हें पराजित कर हर वर्ष देने वाले कर से आपको मुक्ति दिला दूंगा।
यामुनाचार्य जी जब पालकी पर बैठ कर आ रहे थे तो राजा और रानी ने उन्हें झरोखों से देखा। रानी को आचार्य श्री के चेहरे पर दिव्य तेज दिखाई दिया। उन्होंने महाराज जी से कहा कि ये कोई दिव्य पुरुष हैं, कोलाहल पंडित इनसे जीत नहीं पाएंगे।
         रानी राजा को बताती है कि उन्हे यकीन है कि यामुनाचार्य जी जीतेगा और यदि वह हारेंगे तो वह राजा का सेवक बन जाएंगी। पांडव देश की रानी शर्त रखी थी - अगर वह जीतते नही तो, रानी एक नौकर बन जाएगी। 
उधर राजा को भरोसा था कि कोलाहल जीतेंगे और वो कहते हैं कि अगर यामुनाचार्य जी जीतते हैं, तो राजा उन्हे आधा राज्य दे देंगे। यामुनाचार्य जी राज सभा में आते हैं। दरबार लगा, दोनों पंडित अपने अपने आसन पर विराजमान हो गए।
घमण्ड का मर्दन:-
दोनो विद्वानो के मध्य शास्त्रार्थ शुरू हो गया। उस समय रानी भी वहां उपस्थिति थी। कोलाहल ने घमंड में भरकर आचार्य श्री से कहा आप जो कुछ भी कहेंगे मैं उसका खण्डन कर दूंगा। इस पर यमुनाचार्य ने कहा मैं तीन बातें कह रहा हूं। इनमे से किसी एक का तुम खंडन कर दोगे तो मैं तुम्हारा शिष्य हो जाऊंगा। यह कहकर उन्होंने कोलाहल पण्डित से तीन बातें कही ,जो इस प्रकार है --
पहला – आप ( अक्की आलवान ) के माताजी बंध्या (बाँझ ) स्त्री नहीं है।
दूसरा – हमारे राजा धार्मिक पुण्यवान है, हमारे राजा समर्थ (काबिल/योग्य/सक्षम) है।
तीसरा – राजा की पत्नी (महारानी) पतिव्रता स्त्री और साधु स्वभाव की है।
       यह प्रश्न कर यमुनाचार्य ने कहा अब इन तीनो का खण्डन अपने शास्त्रार्थ के नैपुण्य से करिये । ये तीन प्रश्न सुनकर कोलाहल दंग रह गए । वह एक भी प्रश्न का खण्डन नही कर पाए क्योंकि, इन प्रश्नो का खंडन स्वयं की माता को बाँझ बताना , राजा को अधर्मी बतलाना और महारनी के पतिव्रत्य पर आक्षेप लगाना होता। वह ऐसे असमंजस मे पड गए की अगर वह जवाब दे तो राजा बुरा मान जायेंगे और अगर इसका समाधान नही (खण्डन) करें तो भी राजा बुरा मानेंगे । इस प्रकार वह एक बालक से हार मान ली। इसी विपरीत चिंतित अवस्था मे वह यामुनाचार्य से अपनी पराजय स्वीकार कर लेते है। यमुनाचार्य को ही इन प्रश्नो का खंडन कर समाधान करने की बात कहते है । इसके उत्तर मे यामुनाचार्य कुछ इस प्रकार कहते है।
पहला – शास्त्रों के अनुसार , वह माँ बाँझ (निस्संतान) होती है जिसका एक ही पुत्र/पुत्री हो (आप अपनी माँ की एकलौती संतान हो, अतः आपकी माँ एक बाँझ (निस्संतान) स्त्री है ) ।
दूसरा – शास्त्रों में बतलाया है की , प्रजा के पाप पुण्य में राजा का भी भाग होता है, ऐसे में प्रजा के पाप का भागी होने से पुण्यवान नहीं कहलाता । हमारे राजा बिलकुल भी काबिल/समर्थ नही है क्योंकि वह केवल अपने राज्य का ही शासन करते है पूरे साम्राज्य के अधिपति नही है।
तीसरा – शास्त्रों के अनुसार राजा में अन्य देव भी विद्यमान रहते है , विवाह के समय कन्या को , पहले वेद मंत्रों से देवतावों को अर्पित करते है। इस कारण रानी को पवित्र नही मानते है।
        कोलाहल’ यामुनाचार्य के सक्षम और आधिपत्य को स्वीकार करते हुए अपने आप को यमुनाचार्य से पराजित मानकर उनके शिष्य बन जाते है । राजा ने ही निर्णय सुनाया। बारह वर्षीय बालक से हमारे ‘कोलाहल’ हार गए। राजा ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार आधा राज्य दे दिया। महान बहादुरी और ज्ञान के साथ, यामुनाचार्य जी ने कोलाहल के खिलाफ शास्त्रार्थ जीता। कोलाहल इतने प्रभावित हो जाते हैं कि वो भी यामुनाचार्य जी का शिष्य बन जाते हैं। बाद में रानी भी उनकी शिष्य बन जाती हैं। राजा द्वारा वादा किए गए अनुसार यामुनाचार्य को आधा राज्य भी मिलता है। रानी ने उन्हें “आळवन्दार्” नाम उपाधि में दिया – वह जो उनकी रक्षा करने आये थे ।
यामुनाचार्य की अभी केवल बारह वर्ष की आयु थी, अपनी प्रखर बुद्धि के बल पर पांडव राज्य का आधा हिस्सा अपने अधिकार में कर लिया। 
      यामुनाचार्य शाश्त्रों के आधार पर दिव्य स्पष्टीकरण से विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त की स्थापना करते है । महारानी उन्हें आळवन्दार नाम से सम्बोधित करती हैं (जिसका मतलब हैं की वह जो उनकी रक्षा करने , सब पर विजय पाने के लिए आये हैं) और उनकी शिष्या बन जाती हैं । राजा महारानी को दिए वचन अनुसार यामुनाचार्यजी को अपनाआधा राज्य दे देता है |
श्री रंगनाथ के सेवक बने :-  
यामुनाचार्य जब 35 साल के हुए थे तो अपने देहावसान काल में नाथ मुनि ने अपने शिष्य प्रवर राम मिश्र से कहा --
"ऐसा न हो कि यामुन राजकाज में ही अपना अमूल्य समय बिता दे , विषय भोग में ही उनकी आयु बीत जाए।" नाथ मुनि के देहावसान के बाद एक दिन यामुनाचार्य से राम मिश्र मिलने आए। वह यामुनाचार्य के दादाजी के शिष्य थे। वे उन्हें सम्पत्ति का अधिकार सौंपने के लिए अपने साथ ले चलने को तैयार किए।उन्होंने कहा महाराज आप मेरे साथ चलें। आपके दादाजी बहुत बड़ा खजाना छोड़ गए थे, इसे संभाल लीजिए। राजा यामुनाचार्य उसके साथ हो लिए। पैंतीस वर्षीय राजा को रंगनाथ मंदिर पहुंचाया गया। रास्ते में राम मिश्र का स्पर्श पा लेने तथा उनके भगवदविचार सुन लेने के कारण राजा यामुनाचार्य का हृदय बदल गया। वह भी रंगनाथ के सेवक बनकर वहीं रहने लगे। उन्होंने अपना राज्य भी त्याग दिया। उनके हृदय में वैराग्य का उदय हुआ,माया और राज भोग की प्रवृति का नाश हो गया।
श्रीरंगजी की स्तुति :-
 यामुनाचार्य जी ने शुद्ध अंतर्मन से भगवान श्रीरंगजी की इस प्रकार स्तुति की --"हे परम पुरुष,मुझ अपवित्र , उदंड,निष्ठुर और निर्लज्ज को धिक्कार है,जो स्वेक्षाचारी होते हुए आपका पार्षद होने की इच्छा रखता है। आपके पार्षद भाव को बड़े बड़े योगीश्वरों के अग्र गण्य तथा ब्रह्मा शिव और संकादि को भी पाना दूर रहा,मन में सोच भी नहीं सकते।" उन्होंने बड़े सादगी और विनम्रता से कहा," आपके दास्य भाव में ही सुख का अनुभव करने वाले सज्जनों के घर में मुझे कीड़े की भी योनि मिले , पर दूसरे के घर में मुझे ब्रह्मा जी की भी योनि ना मिले।"
       वे भगवान के भक्त हो गए ,उनके अधरों पर भक्ति की रसमयी वाणी विहार करने लगी। इस प्रकार उन्होंने अपने दादा द्वारा छोड़ा गया सच्चा धन प्राप्त कर लिया। श्री यामुनाचार्य ने भगवान को पूर्ण पुरुषोत्तम माना,जीव को अंश और ईश्वर को अंशी के रूप में निरूपित किया है।जीव और ईश्वर नित्य पृथक हैं। उन्होंने कहा कि जगत ब्रह्म का परिणाम है।ब्रह्म ही जगत के रूप में परिणत है।जगत ब्रह्म का शरीर है।ब्रह्म जगत के आत्मा है। आत्मा और शरीर अभिन्न है। इसलिए जगत ब्रह्मात्मक है। ब्रह्म सविशेष सगुण, अशेष कल्याण गुण गण सागर सर्व नियंता है।जीव स्वभाव से ही उनका दास दास है, भक्त है। भक्ति जीव का स्वधर्म है ,आत्म धर्म है। भक्ति शरणागत का पर्याय है। भगवान अशरण शरण हैं।
यमुनाचार्य की रचनाएँ :-
यमुनाचार्य जी ने अनेक रचनाएँ संस्कृत में रची हैं। उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ निम्नलिखित हैं-
आगम-प्रमाण्य, सिद्धित्रय (आत्मसिद्धि, संवितसिद्धि, ईश्वरसिद्धि), गीतार्थसंग्रह, चतुश्लोकी, और स्तोत्ररत्न
महापुरुष निर्णय, नित्यमऔर मायावाद खण्डनम।
 उनका आल बंदार स्रोत बड़ा ही मधुर है। उन्होंने भगवान से अनन्य भक्ति का ही वरदान मांगा। उनके लिए भगवान ही परमाश्रय थे। उन्हीं के चरणों में शरण लेने में उन्हें बन्धन मुक्ति दीख पड़ी। वे अपने समय के महान दार्शनिक, अनन्य भक्त और विचारक थे।
गुरु के संकेत को समझा और पूरा किया:-
रामानुजाचार्य, यामुनाचार्य की शिष्य-परम्परा में थे। 1041 ई में जब यामुनाचार्य की मृत्यु निकट थी, तब उन्होंने अपने शिष्य द्वारा रामानुज को अपने पास बुलवाया। लेकिन उनके पहुंचने से पहले ही यामुनाचार्य की मृत्यु हो चुकी थी।वहाँ पहुंचने पर रामानुज ने देखा कि यामुनाचार्य की तीन अंगुलियां मुड़ी हुई थीं। इससे उन्होंने समझ लिया कि यामुनाचार्य उनके माध्यम से 'ब्रह्मसूत्र', 'विष्णुसहस्रनाम' और 'अलवन्दारों' जैसे दिव्य सूत्रों की टीका करवाना चाहते हैं।
यामुनाचार्य के मृत शरीर को प्रणाम कर रामानुज ने उनकी अंतिम इच्छा पूरी करने का वचन दिया। उन्होंने यामुनाचार्य को प्रणाम किया और कहा -"भगवान्! मुझे आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, मैं इन तीनों ग्रन्थों की टीका अवश्य लिखूंगा अथवा लिखवाऊंगा।" रामानुज के यह कहते ही यामुनाचार्य की तीनों अंगुलियां सीधी हो गईं। इसके बाद श्रीरामानुज ने यामुनाचार्य के प्रधान शिष्य पेरियनाम्बि जिसे महापुराण भी कहा जाता है, से विधिपूर्वक वैष्णव दीक्षा ली और भक्तिमार्ग में प्रवृत्त हो गए। उनके मन में तीन कामनाएं थी, जिसको रामानुजा- चार्य ने पूरा किया।     

Saturday, December 10, 2022

श्री सम्प्रदाय के आचार्य श्री मणक्काल् नम्बी 'राममिश्र' (श्री सनातन सम्प्रदाय परम्परा कड़ी 17) -- आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी

              दक्षिण भारत के श्री सनातन परम्परा के प्रमुख आचार्य नाम्मालवार (शठकोपन )के शिष्यों में मधुर कवि और रत्ननाथ मुनि दो प्रमुख नाम थे। रत्ननाथ मुनि के दो शिष्य मणक्काल् नम्बी और उयकोण्डा पुण्डरीकाक्ष थे। दोनों श्री वैष्णव सम्प्रदाय के आचार्य तथा समकालीन थे। आचार्य श्री मणक्काल् नम्बी का उपनाम राम मिश्र था। वे श्री यमुनाचार्य के पितामह श्री रत्न नाथ मुनि के अत्यंत प्रिय कृपा प्राप्त और विश्वास पात्र शिष्य थे। वे उच्च कोटि के विद्वान सदाचारी थे और हर जीव में परमात्मा का दर्शन करते थे।

         उनका जन्म माघ मास, माघ नक्षत्र के महीने में श्रीरंगम के पास कावेरी नदी के तट पर स्थित एक छोटा सा गांव मनक्कल में हुआ था। मधुर कवि आळ्ळवार की तरह जो नम्माळ्ळवार के लिए बहुत समर्पित थे, मनक्कल नम्बि उय्यक्कोण्डार् के लिए बहुत समर्पित थे। उय्यक्कोण्डार रत्ननाथ मुनि की पत्नी के निधन के बाद, उन्होंने यमुनाचार्य का खाना पकाने खिलानेऔर सम्पूर्ण देखरेख की जिम्मेदारी ली और अपने गुरु के अंश की हर व्यक्तिगत आवश्यकता को पूरा किया।
          एक बार उय्यक्कोंडार रत्ननाथ मुनि की बेटियां नदी में स्नान करने के बाद वापस लौट रही थीं, तब रास्ते में कीचड़ के कारण वह आगे नहीं बढ़ीं। यह देख मनक्कल नम्बि छाती के बल पर कीच पर लेट जाता है और अपने गुरु के बेटों को अपनी पीठ पर बहते हुए नदी पार कराया था । उनके अंश यूयक्कोण्डार रत्ननाथ मुनि को जब इस घटना का रहस्य मिला, तब वह मनक्कल नम्बि के अंश चरणों में भक्ति और जिम्मेदारी वहन करने की क्षमता को देख अत्यंत प्रशंसा की थी।
         रत्न नाथमुनि के पुत्र यमूनाचार्य थे । परंपरा के अनुसार रत्ननाथमुनि श्रीरंगम मंदिर की मूर्ति में प्रवेश कर ईश्वर में समाहित हो गये थे।  जिसके कारण यमुनाचार्य के देखरेख की जिम्मेदारी पितामह पुण्डरीकाक्ष ने अपने शिष्य श्री राम मिश्र को सौंप रखी थी। एक तरह से श्री राम मिश्र जी यमूनाचार्य के गुरु और संरक्षक की जिम्मेदारी निभाई थी।
           एक दिन यामुनाचार्य से राम मिश्र मिलने आए।
उन्होंने कहा महाराज आप मेरे साथ चलें। आपके दादाजी बहुत बड़ा खजाना छोड़ गए थे, इसे संभाल लीजिए। यमुनाचार्य ने अपनी विद्वता से राज पुरोहित को शास्त्रार्थ में पराजित कर वहां के राजा को प्रसन्न कर उनका आधा राज्य प्राप्त कर लिया था।

           राजा यामुनाचार्य राम मिश्र जी के साथ हो लिए। पैंतीस वर्षीय राजा यमुनाचार्य को रंगनाथ मंदिर पहुंचाया गया। रास्ते में राम मिश्र का स्पर्श पा लेने  तथा उनके भगवद विचार सुन लेने के कारण राजा यामुनाचार्य का हृदय बदल गया। वह भी रंगनाथ के सेवक बनकर वहीं रहने लगे। उन्होंने अपना राज्य भी त्याग दिया। इस प्रकार उन्होंने अपने दादा द्वारा छोड़ा गया सच्चा धन प्राप्त कर लिया।  इनके उपदेश के प्रभाव से यामुनाचार्य राज सम्मान छोड़ कर रंगनाथ विष्णु जी के अनन्य सेवक हो गए थे।

Monday, November 14, 2022

ज्ञानी भक्त और पितरों के रूप में पूज्य होने के बावजूद कौवे को समाज में उचित स्थान नहीं

कौवे को समाज में उचित स्थान नहीं  
आचार्य (डा.) राधे श्याम द्विवेदी 
चतुर चालाक पक्षी:-
कौआ काले रंग का एक पक्षी है , जो कर्ण कर्कश ध्वनि 'काँव-काँव' करता है। उसे बहुत उद्दंड, धूर्त तथा चालाक पक्षी माना जाता है। बिगड़ रहे पर्यावरण की मार कौओं पर भी पड़ी है। कौओं का दिमाग लगभग उसी तरीके से काम करता है, जैसे चिम्पैन्जी और मानव का। ये लोगों की नज़र में अछूत हैं, पर इतने चतुर-चालाक होते हैं कि चेहरा देखकर ही जान लेते हैं कि कौन खुराफाती और कौन दोस्त हो सकता है। अपनी याददाश्त के बल पर कौवे अपने लिए सुरक्षित रखे गए भोजन के बारे में भी याद रखते हैं, जिसको भूख लगने पर वे प्रयोग कर लेते हैं। कौवों को अपने यहाँ मुंडेर पर बैठकर काँव-काँव करने वाले कौवे को संदेश-वाहक भी माना जाता है। कौवे का सिर पर बैठना बुरा माना जाता है और इसको टोने के रूप में प्रचारित किया जाता है। 
 भुसुंडी उत्तम कोटि के ज्ञानी भक्त:-
योग वशिष्ठ में काक भुसुंडी की चर्चा है, रामायण में भी सीता के पांव पर जयंत द्वारा कौवे के रूप में चोंच मारने का प्रसंग आया है। भगवान शंकर के मुख से निकली श्रीराम की यह पवित्र कथा 'अध्यात्म रामायण' के नाम से विख्यात है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में लिखा है कि काकभुशुण्डि परमज्ञानी रामभक्त हैं। पूर्व के एक कल्प में कलियुग का समय चल रहा था। उसी समय काकभुशुण्डि जी का प्रथम जन्म अयोध्या पुरी में एक शूद्र के घर में हुआ। उस जन्म में वे भगवान शिव के भक्त थे किन्तु अभिमान पूर्वक अन्य देवताओं की निन्दा करते रहते थे। 
एक बार अयोध्या में अकाल पड़ जाने पर वे उज्जैन चले गये। वहाँ वे एक दयालु ब्राह्मण की सेवा करते हुये उन्हीं के साथ रहने लगे। वह ब्राह्मण भगवान शंकर के बहुत बड़े भक्त थे किन्तु भगवान विष्णु की निन्दा कभी नहीं करते थे। उन्होंने उस शूद्र को शिव जी का मन्त्र दिया था। मन्त्र पाकर उस शूद्र का अभिमान और भी बढ़ गया। वह अन्य द्विजों से ईर्ष्या और भगवान विष्णु से द्रोह करने लगा था। उसके इस व्यवहार से उनके गुरु अत्यन्त दुःखी होकर उसे श्री राम की भक्ति का उपदेश दिया करते थे।
एक बार उस शूद्र ने भगवान शंकर के मन्दिर में अपने गुरु, (अर्थात् जिस ब्राह्मण के साथ वह रहता था) , का अपमान कर दिया। इस पर भगवान शंकर ने आकाशवाणी करके उसे शाप दे दिया -- "रे पापी! तूने गुरु का निरादर किया है इसलिए तू सर्प की अधम योनि में चला जा और सर्प योनि के बाद तुझे 1000 बार अनेक योनि में जन्म लेना पड़े।" गुरु बड़े दयालु थे इसलिये उन्होंने शिव जी की स्तुति करके अपने शिष्य के लिये क्षमा प्रार्थना की। 
गुरु के द्वारा क्षमा याचना करने पर भगवान शंकर ने आकाशवाणी करके कहा, "हे ब्राह्मण! मेरा शाप व्यर्थ नहीं जायेगा। इस शूद्र को 1000 बार जन्म अवश्य ही लेना पड़ेगा किन्तु जन्मने और मरने में जो दुःसह दुःख होता है वह इसे नहीं होगा और किसी भी जन्म में इसका ज्ञान नहीं मिटेगा। इसे अपने प्रत्येक जन्म का स्मरण बना रहेगा जगत् में इसे कुछ भी दुर्लभ न होगा । इसकी सर्वत्र अबाध गति होगी ।मेरी कृपा से इसे भगवान श्री राम के चरणों के प्रति भक्ति भी प्राप्त होगी।" इसके पश्चात् उस शूद्र ने विन्ध्याचल में जाकर सर्प योनि प्राप्त किया। कुछ काल बीतने पर उसने उस शरीर को बिना किसी कष्ट के त्याग दिया । वह जो भी शरीर धारण करता था उसे बिना कष्ट के सुखपूर्वक त्याग देता था, जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र को त्याग कर नया वस्त्र पहन लेता है। प्रत्येक जन्म की याद उसे बनी रहती थी। श्री रामचन्द्र जी के प्रति भक्ति भी उसमें उत्पन्न हो गई। 
लोमश ऋषि के शाप से कौवे का स्वरूप मिला :-
अन्तिम शरीर उसने ब्राह्मण का पाया। ब्राह्मण हो जाने पर ज्ञानप्राप्ति के लिये वह लोमश ऋषि के पास गया। जब लोमश ऋषि उसे ज्ञान देते थे तो वह उनसे अनेक प्रकार के तर्क-कुतर्क करता था। उसके इस व्यवहार से कुपित होकर लोमश ऋषि ने उसे शाप दे दिया कि जा तू चाण्डाल पक्षी (कौआ) हो जा। वह तत्काल कौआ बनकर उड़ गया। शाप देने के पश्चात् लोमश ऋषि को अपने इस शाप पर पश्चाताप हुआ और उन्होंने उस कौए को वापस बुला कर राममन्त्र दिया तथा इच्छा मृत्यु का वरदान भी दिया। कौए का शरीर पाने के बाद ही राममन्त्र मिलने के कारण उस शरीर से उन्हें प्रेम हो गया और वे कौए के रूप में ही रहने लगे तथा काकभुशुण्डि के नाम से विख्यात हुए। लोमश ऋषि के शाप के चलते काकभुशुण्डि कौवा बन गए थे। लोमश ऋषि ने शाप से मु‍क्त होने के लिए उन्हें राम मंत्र और इच्छामृत्यु का वरदान दिया। कौवे के रूप में ही उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन व्यतीत किया।
गरुण का भ्रम कागभुशुण्डि द्वारा दूर हुआ था:-
रावण के पुत्र मेघनाथ ने राम से युद्ध करते हुये जब राम को नागपाश से बाँध दिया था। देवर्षि नारद के कहने पर गरूड़, जो कि नागभक्षी थे, ने नागपाश के समस्त नागों को प्रताड़ित कर राम को नागपाश के बंधन से छुड़ाया था। राम के इस तरह नागपाश में बँध जाने पर राम के परमब्रह्म होने पर गरुड़ को सन्देह हो गया। गरुड़ का सन्देह दूर करने के लिये देवर्षि नारद उन्हें ब्रह्मा जी के पास भेजा। ब्रह्मा जी ने उनसे कहा कि तुम्हारा सन्देह भगवान शंकर दूर कर सकते हैं। भगवान शंकर ने भी गरुड़ को उनका सन्देह मिटाने के लिये काकभुशुण्डि जी के पास भेज दिया। अन्त में काकभुशुण्डि जी ने राम के चरित्र की पवित्र कथा उत्तराखंड के काक भुसुंडी ताल की घाटी में सुना कर गरुड़ के सन्देह को दूर दिया था।
गरुण पुराण में कौवा पितर के रूप में पूज्य:- 
भारत में श्राद्ध, तर्पण के जरिए पितरों को संतुष्ट किया जाता है। श्राद्ध पक्ष में नियम है कि इसमें पितरों के नाम से जल और अन्न का दान किया जाता है और उनकी नियमित कौएं को भी अन्न जल दिया जाता है। श्राद्ध के समय लोग अपने पूर्वजों को याद करके यज्ञ करते हैं और कौए को अन्न जल अर्पित करते हैं। कौए को यम का प्रतीक माना जाता है। गरुण पुराण के अनुसार, अगर कौआ श्राद्ध को भोजन ग्रहण कर लें तो पितरों की आत्मा को शांति मिलती है। साथ ही ऐसा होने से यम भी खुश होते हैं और उनका संदेश उनके पितरों तक पहुंचाते है।
यम ने कौवे को वरदान दिया था तुमको दिया गया भोजन पूर्वजों की आत्मा को शांति देगा। पितृ पक्ष में ब्राह्मणों को भोजन कराने के साथ साथ कौवे को भोजन करना भी बेहद जरूरी होता है। कहा जाता है कि इस दौरान पितर कौवे के रूप में भी हमारे पास आते हैं।
श्राद्ध में कौए का महत्त्व :-
भारत में हिन्दू धर्म में श्राद्ध अनुष्ठान पूरा करने के लिए कौए तलाशने से कम मिलते हैं। श्राद्ध पक्ष के समय कौओं का विशेष महत्त्व है और कौए के विकल्प के रूप में लोग बंदर, गाय और अन्य पक्षियों को भोजन का अंश देकर श्राद्ध अनुष्ठान पूरा करते हैं। प्रत्येक श्राद्ध के दौरान पितरों को खाना खिलाने के तौर पर सबसे पहले कौओं को खाना खिलाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि व्यक्ति मर कर सबसे पहले कौए का जन्म लेता है। मान्यता है कि कौओं को खाना खिलाने से पितरों को खाना मिलता है। जो व्यक्ति श्राद्ध कर्म कर रहा है, वह एक थाली में सारा खाना परोसकर अपने घर की छत पर जाता है और ज़ोर-ज़ोर से कोबस 'कोबस' कहते हुए कौओं को आवाज़ देता है। थोडी देर बाद जब कोई कौआ आ जाता है तो उसको वह खाना परोसा जाता है। पास में पानी से भरा पात्र भी रखा जाता है। जब कौआ घर की छत पर खाना खाने के लिए आता है तो यह माना जाता है कि जिस पूर्वज का श्राद्ध किया गया है, वह प्रसन्न है और खाना खाने आ गया है। कौए की देरी व आकर खाना न खाने पर माना जाता है कि वह पितर नाराज़ है और फिर उसको राजी करने के उपाय किए जाते हैं। इस दौरान हाथ जोड़कर किसी भी ग़लती के लिए माफ़ी माँग ली जाती है और फिर कौए को खाना खाने के लिए कहा जाता है। जब तक कौआ खाना नहीं खाता, व्यक्ति के मन को प्रसन्नता नहीं मिलती। 
जयंत के भ्रम का निवारण:-
इंद्र के पुत्र जयंत जो राजा दशरथ का मंत्री भी था,के मन में एक बार राम की शक्ति परखने का विचार आ गया क्योंकि उसकी दृष्टि सीता पर मोहित हो चुकी थी। वनवास के समय जब चित्रकूट में एक दिन राम अपनी कुटिया में सीता के केशों पर फूलों की वेणी सजा रहे थे तो जयंत कौए का रूप धारण कर वहां पहुंच गया । ईर्ष्यावश उससे यह सुंदर दृश्य देखा ना गया और वह सीता के पाँव पर अपनी चोंच से गंभीर चोट मार कर भाग गया ।
‘सीता चरण चोंच हतिभागा। मूढ़ मंद मति कारन कागा।।
चला रूधिर रघुनायक जाना।सीक धनुष सायक संधाना’।।
जयंत का दु:स्साहस और सीता की पीड़ा देखकर राम का रक्त खौल गया । उन्होंने तुरंत कुशा यानी घास का बाण बनाकर जयंत पर छोड़ दिया । जयंत भागा…भागा । शरण के लिए उसने अपने पिता इंद्र समेत सभी देवी-देवताओं की देहरी पर माथा टेका पर उसे किसी ने शरण न दी । देते भी क्यों ? वह राम का अपराधी जो था। किसी अन्य देवता का अपराध करने पर उसे क्षमादान मिल भी सकता था, किंतु यहां उसने एक असाधारण व्यक्ति का अपराध किया था जो अपनी मर्यादा,कर्तव्य-परायणता, वीरता, साहस, धर्म,अधर्म पर विवेक,अविवेक के उचित बोध से समस्त लोकों में देव तुल्य हो गया था। तब नारद जी ने जयंत को सलाह दी कि जिनका बाण काल बनकर तुम्हारा पीछा कर रहा है उन्हीं की शरण में जाओ । जयंत राम के चरणों में गिर पड़ा । श्री राम ने अपने बाण से उसकी आंखों पर वार कर दिया और कौए की आंख फूट गई। कौवे को जब इसका पछतावा हुआ तो उसने श्रीराम से क्षमा मांगी तब भगवान राम ने आशीर्वाद स्वरुप कहा जो कौवे को भोजन कराएगा वह अन्न उसके पितरों को तृप्त करेगा।यह कौवा कोई और नहीं इंद्र के पुत्र जयंत थे। भी कौवा प्रिय नहीं :- 
इतनी महत्ता होने के बावजूद आम जन मानस में कौवे के प्रति सम्मान का भाव नही देखा जाता है। काला रूप, कर्कस आवाज और अवांछित स्थल पर विष्टा त्यागने के कारण लोग उसे पास रुकने नहीं देते और तुरन्त दूर भगाने के लिए प्रयास करने लगते हैं।हमारे समाज में पूज्य और उपयोगी जनों को भी सम्मान नहीं मिलता है।लोग मीठी बातों में आकर अवांछित जनों के चक्कर में फंस कर अपना और समाज का नुकसान कर देते हैं।पूज्य विद्वत जन इस दंस को झेलने के लिए मजबूर हो जाते हैं। समाज में पसरी इस समस्या का सम्यक निदान किया जाना चाहिए।


Thursday, November 10, 2022

अयोध्या का कल्पवास -- आचार्य डा.राधे श्याम द्विवेदी

          राम करणामृतम १/६३-६५ में अयोध्यावास की लालसा का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है।यह अयोध्या दर्शन गीताप्रैस के पृष्ट 111 से उद्धित किया गया है। (मोबाइल टाइपिंग के पूर्ण शुद्धता नही आ पाती है।)

कदा वा साकेते विमल सरयू पुनीत पुलिने
समासीन: श्रीमदरघुपतिपदाबजे हृदि भजन।
अये राम स्वामिन जनक तनया बल्लभ विभो
प्रसीदेति क्रोशन्नीमिषमिव नेष्यामि दिवसान।।

कदा वा साकेते तरुणतुलसीकाननतले
निविष्टस्तम पश्यन्नविहतविशालोर्द्ध तिलकम।
अये सीतानाथ स्मृतजनपते दानवजयिन 
प्रसीदेति क्रोशन्नीमिषमिव नेष्यामि दिवसान।।

कदा वा साकेते मणिखचितसिंहासनतले
समासीनम रामम जनकतनयालिंगिततनुम।
अये सीताराम त्रुटितहरधनवन रघुपते
प्रसीदेति क्रोशन्नीमिषमिव नेष्यामि दिवसान।।
कार्तिक मास की महत्ता:-
भगवान विष्‍णु का प्रिय कार्तिक मास का इस बार 10 अक्‍टूबर से लगा था । आश्विन मास की पूर्णिमा तिथि के बाद से कार्तिक मास का आरंभ माना जाता है। इस बार शरद पूर्णिमा 9 अक्‍टूबर को था। उसके अगले दिन से यानी कि 10 अक्‍टूबर से कार्तिक मास प्रारंभ हो गया था।
शरद पूर्णिमा पर्व से शुरुवात : -
शास्त्रीय मान्यता है कि शरद पूर्णिमा के पर्व पर चन्द्र किरणों से अमृत की वर्षा होती है। इसी अमृत मिश्रित खीर प्रसाद के सेवन से नाना प्रकार की शारीरिक व्याधियों का शमन हो जाता है। सामान्यतया इसी तिथि से शरद ऋतु का भी आगमन हो जाता है। इसी समय में स्वाति नक्षत्र में गिरने वाली ओस की बूदें सीप के मुंह में जाकर बहुमूल्य मोती का स्वरुप धारण करती हैं। इन्हीं मान्यताओं को लेकर सभी मंदिरों में आश्विन शुक्ल पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा महोत्सव का भी आयोजन मठ-मंदिरों में होता है। इस अवसर पर भगवान के चल विग्रह को खुले आसमान के नीचे मंदिर के आंगन में प्रतिष्ठित कर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है और खीर का विशेष भोग लगाकर श्रद्धालुओं में प्रसाद का वितरण किया जाता है।
कल्पवास एक साधना है:-
कल्पवास एक प्रकार की साधना है, जो पूरे कार्तिक मास के दौरान पवित्र नदियों के तट पर की जाती है। भविष्य पुराण में वर्णित है कि कार्तिक का व्रत आश्विन की पूर्णिमा को शुरू कर कार्तिक की पूर्णिमा को पूरा किया जाता है। स्कन्ध पुराण के अनुसार कार्तिक मास समस्त मासों में सर्वश्रेष्ठ है। कहा जाता है कि इस मास में तीर्थ नगरियों में प्रवाहमान पवित्र नदियों के पावन सलिल में सूर्योदय के पूर्व स्नान करने और तुलसी दल के साथ भगवान विष्णु की आराधना करने का विशेष फल प्राप्त होता है। कार्तिक मास की शुरुआत से ही अयोध्या में कल्पवासी श्रद्धालुओं का जमावड़ा शुरू हो जाता है। इस दौरान रामनगरी में बड़ी संख्या में श्रद्धालु कल्पवास के लिए आते हैं। अयोध्या के विभिन्न मंदिरों ,आश्रमों , होटलों, धर्मशालाओं व गुरु स्थानों पर रुक कर कार्तिक कल्पवास करते हैं। कार्तिक पूर्णिमा तक चलने वाले इस अनुष्ठान के दौरान श्रद्धालुगण तीर्थ नगरी में आकर पूर्ण नियम और संयम के साथ प्रवास करते हैं और दैनिक पूजा-पाठ के साथ रामकथा- भागवत प्रवचनों के श्रवण के साथ विविध धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन कर पुण्य लाभ अर्जित करते हैं।
कार्तिक सर्वोत्तम मास :-
कार्तिक मास सभी मासों में श्रेष्ठ व सर्वोत्तम फलदायक माना गया है। व्रत, स्नान व दीपदान के लिए सरयू तट पर सुबह-शाम कल्पवासी श्रद्धालुओं की भीड़ शुरू होने जाती है। कार्तिक मास त्योहारों का माह कहा जाता है। ऋतु परिवर्तन की दृष्टि से कार्तिक का महीना समशितोष्ण होता है। अर्जुन को गीता का ज्ञान देते समय भगवान कृष्ण ने स्वयं को महीनों में कार्तिक बताया था। इस महीने में व्रत त्योहारों की संख्या भी अधिक होती है। चातुर्मास का सबसे प्रमुख मास होता है कार्तिक मास। इस मास में गंगा यमुना सरयू आदि पवित्र नदियों में स्‍नान, दीप दान, यज्ञ और अनुष्‍ठान परम फल देने वाले माने गए हैं। इसे करने से कष्‍ट दूर होने के साथ पुण्‍य की प्राप्ति होती है और ग्रह दशा भी सुधरती है। शरद पूर्णिमा से प्रारंभ होकर करवा चौथ, धनतेरस, वीआईपी अयोध्या   दीपोत्सव,हनुमान जयंती ,दीपावली ,भैया दूज , छठ पूजा,अक्षय नवमी चौदह कोसी परिक्रमा ,देवोत्थान एकादशी पंच कोसी परिक्रमा, तुलसी शालिग्राम विवाह, कार्तिक पूर्णिमा तक शायद ही कोई दिन हो जिस दिन का विशेष महत्व न हो। इसी दौरान मंत्रार्थ मंडप में अंतर्राष्ट्रीय राम महायज्ञ का एक भव्य आयोजन और संत सम्मेलन 5 से 14 अक्टूबर के मध्य आयोजित हुआ था।
देवोत्‍थान एकादशी :-
कार्तिक मास की ही देवोत्‍थान एकादशी पर भगवान विष्‍णु चार महीने की निद्रा के बाद जागृत होते हैं। इस महीने में भगवान विष्‍णु के साथ तुलसी पूजन का विशेष महत्‍व माना गया है। इसी महीने में तुलसी और शालिग्राम का विवाह आयोजित होता है। 
तुलसी का विशेष पूजन :-
कार्तिक मास भगवान विष्‍णु की पूजा के लिए सबसे खास माना गया है। इस मास में तुलसी पत्र के अलावा आंवले के वृक्ष के पूजन का भी खास महात्म्य है। इसलिए इस महीने में विष्‍णुप्रिया तुलसी की पूजा करना भी बहुत अच्‍छा माना जाता है। इस पूरे महीने में तुलसी के पौधे के नीचे घी का दीपक जलाने की परंपरा है। ऐसा करने से धन लाभ होता है और घर में मां लक्ष्‍मी का वास होता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन शालिग्राम और तुलसी का विवाह करवाया जाता है।
आंवले का पूजन :-
कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को श्रद्धालु जन आंवले के पूजन के साथ वृक्ष के नीचे ही भोजन का निर्माण कर प्रसाद भी ग्रहण करते हैं। कार्तिक महात्म्य की कथा के अनुसार भगवान के दस अवतारों में प्रथम मत्स्यावतार इसी मास में हुआ था। पौराणिक मान्‍यताओं के अनुसार इस महीने में श्रीहरि मत्‍स्‍य अवतार में रहते हैं, इसलिए इस महीने में भूलकर भी मछली या फिर अन्‍य प्रकार की तामसिक चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए। इसी मास में भगवान श्रीहरि योग निद्रा से जागृत होते हैं और मंत्रों की शक्ति का हरण करने वाले शंखासुर का वध करके मंत्रों की रक्षा करते हैं और देवताओं को सुरक्षित करते हैं।
कार्तिक माह के दान :-
कलयुग में दान को सभी पापों से मुक्ति का सबसे बड़ा माध्यम माना गया है. पौराणिक मान्यता के अनुसार कार्तिक मास में कुछ चीजों का दान करने पर व्यक्ति को अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है. कार्तिक मास में तुलसी, अन्न, आंवले का पौधा, गोदान आदि का बहुत ज्यादा महत्व है।
कार्तिक मास में दीपदान :-
कार्तिक मास में तमाम तरह के दान के साथ व्यक्ति को विशेष रूप से दीपदान करना चाहिए. मान्यता है कि यदि कार्तिक मास में यमुना अथवा किसी पवित्र नदी, तुलसी, या देवस्थान पर श्रद्धा के साथ दान करने का बहुत ज्यादा महत्व है. मान्यता है कि यदि पूरे मास कोई व्यक्ति दीपदान करता है तो उसकी बड़ी से बड़ी कामना पूरी होती है। दीपदान की यह पूजा शरद पूर्णिमा से प्रारंभ होकर कार्तिक पूर्णिमा तक की जाती है।
तुलसी को घी का दीपक :-
कार्तिक के महीने में पूरे 30 दिन तुलसी के नीचे घी का दीपक जरूर जलाना चाहिए। अगर हम लगातार इतने दिन दीपक जलाने में असमर्थ हैं तो देवोत्‍थान एकादशी से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक कम से कम 5 दिन दीपक जरूर जलाना चाहिए। तुलसी के पूजा करने पर मां लक्ष्‍मी के साथ-साथ कुबेरजी की विशेष कृपा भी प्राप्‍त होती है।
कार्तिक के महीने में भगवान विष्‍णु का स्‍मरण करते हुए शाम के वक्‍त पूजा के स्‍थान में तिल के तेल का दीपक जलाकर रखें। पौराणिक मान्‍यताओं के अनुसार भगवान विष्‍णु ने स्‍वयं कुबेरजी से कहा के कार्तिक मास में जो मेरी उपासना करे उसे कभी धन की कमी मत होने देना।
साधना के विकल्प:-
स्नान, दीपदान, तुलसी के पौधों को लगाना और सींचना, पृथ्वी पर शयन, ब्रह्मचर्य का पालन, भगवान विष्णु के नामों का संकीर्तन व पुराणों का श्रवण, इन सब नियमों का कार्तिक मास में निष्काम भाव से पालन करने वाले श्रेष्ठकर हैं। पीपल के रूप में साक्षात् भगवान विष्णु विराजमान होते हैं, इसलिए कार्तिक में उसका पूजा जाना चाहिए।
प्रभु की कृपा और आत्मीयजनों के आग्रह से इस बार इस अलौकिक साधना का अवसर और करीब से देखने का अवसर इस स्तंभकार को मिल सका है, इसमें बहुत ही आत्मिक सुख का अनुभव रहा। 
वर्ष 2022 में कार्तिक मास के तीज-त्योहार इस बार इस प्रकार रहे -
9 अक्टूबर 2022 -- शरद पूर्णिमा।
10 अक्टूबर 2022 कल्पवास का श्री गणेश
13 अक्टूबर 2022 – करवा चौथ व्रत
15 अक्टूबर 2022 – स्कंद षष्ठी व्रत
17 अक्टूबर 2022 – तुला संक्रांति, अहोई अष्टमी
21 अक्टूबर 2022 – रंभा एकादशी व्रत
22 अक्टूबर 2022 – धनतेरस, धनवंतरि जयंती, प्रदोष व्रत
23 अक्टूबर 2022-- अयोध्या दीपोत्सव
24 अक्टूबर 2022 – दीपावली, नरक चतुर्दशी
25 अक्टूबर 2022 – कार्तिक अमावस्या, सूर्य ग्रहण
26 अक्टूबर 2022 – भाई दूज, अन्नकूट, गोवर्धन पूजा, यम द्वितीया, चित्रगुप्त पूजा
30 अक्टूबर 2022 – छठ पूजा
2 अक्टूबर 2022--अक्षय नवमी,14 कोसी परिक्रमा 
4 नवंबर 2022 – देवउठनी एकादशी पंच कोसी परिक्रमा 
5 नवंबर 2022 – प्रदोष व्रत,तुलसी विवाह
8 नवंबर 2022 – कार्तिक पूर्णिमा, चंद्र ग्रहण,देव दीपावली
9 नवंबर 2022 – चंद्र ग्रहण के उपरांत स्नान दानादि।

Thursday, October 13, 2022

पुरास्थल मैनपुरी सैफई में 4000 साल पुराने अवशेष और मुलायम सिंह यादव प्रस्तुति डा. राधे श्याम द्विवेदी



सपा मुखिया स्वर्गीय मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद 1989 से सैफई चर्चाओं में आया, लेकिन सैफई का इतिहास चार हजार साल पुराना है। यहां ईसा से 2000 साल पहले की सभ्यता मौजूद है। अगस्त 1966 में खेत की जुताई करते वक्त यहां कुल्हाड़ियां, बर्छियां, भालों के अग्रभाग, मानवकृत और वलय जैसी तांबे की कई चीजें मिलीं। एएसआई के बीबी लाल के निर्देशन में तत्कालीन पुरातत्वविद् एलएम बहल ने दिसंबर 1970 से फरवरी 1971 के बीच उत्खनन कराया, जिसमें तांबे का हुकदार बाणाग्र और गैरिक मृदभांड मिले। गैरिक मृदभांड ईसा से दो से 1500 साल पहले के काल में मिलते हैं। एएसआई ने वर्ल्ड हेरिटेज वीक के दौरान आगरा के किले में सैफई में हुए उत्खनन का ब्योरा प्रदर्शनी में पेश किया है। भारतीय पर्यटकों के लिए यह ब्योरा बेहद चौंकाने वाला है। सैफई में उत्तर हड़प्पाकाल के दौरान ग्रामीण सभ्यता में प्रयोग किए गए मिट्टी के बर्तन प्राप्त हुए, जिससे सैफई में चार हजार साल पहले सभ्यता और संस्कृति होने के प्रमाण मिलते हैं।             गणेशपुर 4000 साल पुरानी हेरिटेज साइट :-
मैनपुरी के गणेशपुर में 77 ताम्रनिधियों के मिलने और जांच में 3800 साल पुराने होने के बाद हेरिटेज साइट के उत्खनन की मांग पुरातत्वविदों और इतिहासकारों ने की है। उनका कहना है कि सैफई और मैनपुरी के उत्खनन से पूरी सभ्यता के विकास जानकारी मिलेगी। गणेशपुर गंगा-यमुना के दोआब में ऐसी साइट हैं, जहां से पहली बार 39 इंच लंबी तलवार और चार धार वाला भाला मिला है। यहां से 30 किमी दूर सैफई में 52 साल पहले उत्खनन के दौरान ताम्रनिधियां तो मिलीं, लेकिन वहां से केवल 45 सेमी लंबा हार्पून ही मिला। ओसीपी के साथ यहां ग्रे नार्दन ब्लैक पॉलिशड वेयर यानी एनबीपी मिले। इन पर क्रिस-क्रॉस लाइनें थीं। यहां गैरिक मृदभांड में कटोरी और जार भी मिले थे। हड़प्पा और गंगाघाटी सभ्यता की समकालीन सभ्यता के जमीन में दफन रहस्यों को उजागर करने के लिए राज्य सरकार भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से उत्खनन की सिफारिश कर सकती है। 
चार हजार साल पुराना है सैफई का इतिहास:-
मैनपुरी के गणेशपुर में जिस तरह से ताम्रनिधियां मिली हैं, ठीक वैसे ही इटावा जिले के सैफई से 1970 में हुए उत्खनन में ताम्रनिधियां पाई गई थीं, जो कि चार हजार साल पुरानी थीं। यहां केवल हार्पून मिले, जबकि गणेशपुर में तलवारें और चार धार, चार हुक वाले भाले मिले हैं। पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के गृह जिले से चर्चित इटावा के सैफई में सबसे पहले 1966 में खेत जोतते समय तांबे की कुल्हाड़ियां, बर्छियां, भालों के अग्रभाग, मानवकृत और वलय जैसी तांबे की कई चीजें मिलीं। 
एएसआई के डॉ. बीबी लाल के निर्देशन में तत्कालीन पुरातत्वविद् एलएम बहल ने दिसंबर 1970 से फरवरी 1971 के बीच 20×20 मीटर ट्रेंच में उत्खनन कराया, जिसमें तांबे का हुकदार बाणाग्र और गैरिक मृदभांड मिले। 
      जुलाई सन 1969 ई. सैफई , इटावा के किसान श्री भंवरी सिंह को खेत की जुताई के दौरान बड़ी संख्या में ताम्र - आयुध मिले । सूचना मिलने पर पुलिस आई और प्राप्त सामग्री को जांच के नाम पर इटावा ले गई । इसके बाद कुछ आयुध किसान को लौटा दिया और उसने उसे कबाड़ी को बेच दिया जिन्हें उसने गला दिया ।
          अगस्त 1969 ई. में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण नई दिल्ली को जब इसकी सूचना मिली कि सैफई इटावा में तांबे के कुछ आयुध प्राप्त हुए हैं तो पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने उत्तरी क्षेत्र के तकनीकी सहायक डा. एल एम वहल को निरीक्षण / जांच के लिए भेजा । डा एल एम वहल के सैफई पहुंचने तक (72 घण्टे में) अधिकांश पुरा सामग्री इधर उधर हो गई । 
           डा. एल एम वहल ने जांच में जुताई के समय प्राप्त ताम्र - आयुधों में से एक कटार देखने को मिला जिससे यह सिद्ध हुआ कि यह महत्त्वपूर्ण पुरा-स्थल है। उक्त ताम्र आयुध को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक प्रोफेसर बी. बी. लाल को दिखाया गया । इसके बाद सैफई में डा एल एम वहल के निर्देशन में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने उत्खनन कराया । उत्खनन के दौरान डा बहल के पास बर्लिन विश्वविद्यालय, जर्मनी के पुरा विज्ञानी प्रोफेसर पाल यूली भी सैफई आए । उस समय स्थानीय लोगो ने बताया कि 10 ×10मीटर के क्षेत्र मे लगभग 200 ताम्र आयुध एक ढेर के रूप में रखे थे । ताम्र आयुधो में कुल्हाड़ी, मानवाकृति एवं बर्क्षी व भाले आदि प्रमुख थे । डा.वहल और प्रोफेसर पाल यूली ने कुछ पुरावशेष सैफई वासियों के पास देखा । सैफई के पंचम सिंह व बादाम सिंह ने दोनो पुराविदो को काफी जानकारी व सहयोग दिया । 
      सैफई में पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने मई 1970 में जब खाई खोदी तो गैरिक मृदभांड (O.C.P.) के साथ एक कटार मिली । दिसम्बर 1970 में डा एल एम वहल ने प्रोफेसर बी बी लाल के कुशल मार्गदर्शन में छोटे स्तर से अनवरत उत्खनन कार्य शुरू किया जो फरवरी 1971 तक चला । सैफई से प्राप्त मृदभांड ( OCP) को डा बी बी लाल ने "Safai Ware" कहा है । सैफई को पुराविदो ने पुनीत स्थल माना है । (Saifai is a holy place of Indian Archaeology )
सैफई पुरास्थल का जिक्र प्रमुख रूप से जर्मनी के प्रोफेसर पाल यूली ने अपनी किताब "द कापर हार्डस आफ इंडियन सब कांटीनेंट और डा एल एम वहल ने पुरातत्त्व -५ में एक्सकेवेशन एट सैफई ओर प्रोफेसर बी बी लाल का लेख द कापर हार्डस कल्चर आव द गंगा वैली में प्रमुख रूप से है । कुछ समय पूर्व युग युगों में सैफई शीर्षक पुस्तक भी प्रकाशित हुई थी । 
सैफई में पुरातत्व सर्वेक्षण एवं उत्खनन कर्ता डा. एल एम वहल को इस आशय का एक प्रमाण पत्र भूतपूर्व एम एल ए श्री मुलायम सिंह यादव जी (उस समय मास्टर साहब के रूप में ख्यात थे ) ने दिया, अवलोकन करें ---     
     " मै प्रमाणित करता हूं कि श्री लाल मोहन वहल तकनीकी सहायक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण भारत सरकार के जिनको पुरातत्व विभाग ने खुदाई के कार्य हेतु यहां ग्राम सैफई जि. इटावा में भेजा है । उस स्थान की खुदाई का काम करने के लिए जहां पहले ताम्रयुगीन हथियारों का एक भंडार मिला था । उन्होंने इस स्थान की खुदाई का कार्य बहुत ही संतोषप्रद ढंग से किया तथा उनके काम एवं कार्य प्रणाली से हम सब लोग बहुत ही प्रभावित एवं सन्तुष्ट हैं । यह सैफई ग्राम का पुन: सौभाग्य था कि खुदाई के दौरान एक ताम्रयुगीन तांबे की तलवार पुन: उसी स्थान के करीब मिल गई हैं । जो इस बात का ज्वलंत प्रमाण है कि यह स्थान ताम्र युग में बहुत महत्त्वपूर्ण रहा होगा । मुझे पूर्ण विश्वास है कि इन सब तथ्यों को ध्यान में रखकर विवेचनात्मक दृष्टि से यदि देखा जाय तो ताम्रयुगीन इतिहास पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ेगा ।
मुलायम सिंह यादव, सैफई  भू. पू. एम. एल. ए. 20. 5.1970

Wednesday, October 12, 2022

लक्ष्मण के अवतार रामानुजाचार्य की मूर्ति का अयोध्या में उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी जी ने अनावरण किया डा राधे श्याम द्विवेदी

अयोध्या ।12 सितंबर 2022 । अम्माजी रामास्वामी मंदिर गोलाघाट निर्माेचन चौराहा अयोध्या में स्थित है। यह राम जन्मभूमि से मात्र दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित दक्षिण भारत की शैली पर बने राधा कृष्ण मंदिर अम्मा जी मंदिर के रूप में जाना जाता है । यहां के पूर्व संत श्री योगी की मृत्यु के बाद भगवान ने उनका रख-रखाव की जिम्मेदारी ली। मंदिर और लोगों को भवन निर्माण के लिए निस्वार्थ भक्ति के रूप में अमाजी मंदिर के रूप में जाना जाता है।  श्री रंगनाथ जी स्वामी और श्री राम की मूर्तियाँ यहाँ स्थापित हैं। सीता माता के साथ लक्ष्मण, भरतन चतुरगण, अंजनेय और गरुड़ श्री राम के साथ की मूर्तियां स्थापित हैं।
         दक्षिण भारतीय शैली के बने अम्मा जी मंदिर का हाल ही में जीर्णोद्धार हुआ है। 28 सितंबर को 5 दिवसीय समारोह में इसका शिलान्यास किया गया था। उत्तर प्रदेश के ख्यातिवान मुख्यमंत्री ने 28 सितंबर को रामानुजाचार्य की प्रतिमा स्थापित करने की घोषणा की थी।रामानुजाचार्य की 1000 वीं जयंती पर रामनगरी अयोध्या में पहली बार 12 सितंबर 2022 को उनकी प्रतिमा की स्थापना हुआ है। यह प्रतिमा लगभग चार फीट लंबी है। अयोध्या के संतों ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से अयोध्या के प्रमुख चौराहे को रामानुजाचार्य के नाम पर रखने की मांग की थी। इस पर मुख्यमंत्री ने उन्हें आश्वासन दिया था कि आने वाले वर्षों में वरिष्ठ साधु-संतों के नाम से अयोध्या में चौराहे बनाए जाएंगे।
    अनावरण के मौके पर मुख्यमंत्री के साथ जगद्गुरु रामानुजाचार्य राघवाचार्य और जगद्गुरु रामानुजाचार्य श्रीधराचार्य उपस्थित रहे। इस अवसर पर मुख्यमंत्री ने अपने संबोधन में कहा कि भारत ज्ञान की भूमि है। समय -समय पर भारत में आध्यात्मिक संतों का मार्गदर्शन मिला है। स्वामी रामानुजाचार्य ने समाज को दृष्टि दी थी। संतों का सानिध्य भारतवर्ष को हर कालखण्ड में मिला। संतों की इस परम्परा पर हमें गौरव की अनुभूति होती है। द्वैत-अद्वैत लक्ष्य पर पहुंचने के अलग-अलग मार्ग हैं। भारतीय मनीषा ने कभी नहीं कहा कि जो हम कह रहे हैं, वही धर्म है। महापुरुषों के द्वारा जो बताया गया, वही धर्म है।
      मुख्यमंत्री ने कहा कि संत लोक कल्याण के मार्ग पर चलने की हमें प्रेरणा देते हैं।                                         जात-पात पूछे नहि कोई, हरि को भजे सो हरि को होई...।                  इस मार्ग से जब हम हटे तब विदेशी आक्रान्ताओं ने हमें कमजोर किया। हम सनातन धर्म को मजबूत कर एक भारत श्रेष्ठ भारत बनाने के साथ ही दुनिया को शांति का संदेश देंगे। कार्यक्रम के दौरान दक्षिण भारतीय संगीत की धुनें बजती रहीं।

Sunday, October 9, 2022

देश भर के सनातन मंदिरों में शरद पूर्णिमा के विविध कार्यक्रम डा.राधे श्याम द्विवेदी

अयोध्या।शरद पूर्णिमा के अवसर पर देश भर के सनातन मंदिरों में प्रभु के विग्रह के अनेक रास लीलाएं,पूजन और अर्चना के कार्यक्रम आयोजित हुए।इस अवसर राम नगरी अयोध्या के प्राचीन दन्त धावन कुंड में क्षीरशायी भगवान विष्णु कि अलौकिक झांकी का आयोजन किया गया । हजारो की संख्या में पहुंचे श्रद्धालु भगवान विष्णु की झांकी का दर्शन कर में भाव विभोर हुए । राम नगरी अयोध्या में शरद पूर्णिमा के मौके पर यह आयोजन 124 वर्षों से होता चला आ रहा है।  ऐतिहासिक दंतधावन कुण्ड में भगवान क्षीरशायी महाराज की सुन्दर एवं अलौकिक झांकी सजाई गई है तथा इस मौके पर खीर प्रसाद का भोग लगाकर श्रद्धालुओं में वितरित किया गया। यह पूरा आयोजन साकेत भूषण समाज की ओर परम्परागत रूप से सजाई जाती रही है। जिसमे शेषशैया पर देवी महालक्ष्मी के साथ विराजमान विष्णु शंख, गदा एवं चक्र के साथ शेषनाग पर विराज मान है रहते हैं। भगवान विष्णु की कमलनाभि के सृष्टि के रचयिता ब्रम्हदेव एवं नारदमुनि की सुन्दर झांकी सजाया गया था।
ब्रह्म मुहूर्त से ही अयोध्या के विभिन्न घाटों समेत फैजाबाद के गुप्तारघाट पर भक्तों ने डुबकी लगाई व मां सरयू का पूजन-अर्चन किया। इसके बाद विभिन्न मंदिरों रामलला, कनक भवन, हनुमानगढ़ी, नागेश्वरनाथ आदि में भी माथा टेका। हनुमानगढ़ी में दिन भर दर्शन-पूजन के लिए भक्तों की लंबी कतार लगी रही। शाम को आंजनेय सेवा संस्थान की ओर से मां सरयू की भव्य आरती हुई।
अयोध्या के हजारों मंदिरो में प्रभु के विग्रहों को बाहर श्वेत चांदनी में रख दिव्य छटा का रसपान कराया गया। अयोध्या में श्रद्धालुओं में विशेष उल्लास देखा गया।

Saturday, October 8, 2022

रामलीला है प्रभु श्रीराम की लीलाओं की शाश्वत प्रस्तुति डा. राधे श्याम द्विवेदी


         रामलीला का कार्यक्रम भारत में मनाये जाने वाले प्रमुख सांस्कृतिक कार्यक्रमों में से एक है। यह एक प्रकार का गद्य पद्य और संगीतमय कथा का नाटकीय मंचन होता है, जो हिंदू धर्म के प्रमुख आराध्यों में से प्रमुख आराध्य प्रभु श्रीराम के जीवन पर आधारित होता है। महर्षि वाल्मिकि द्वारा रचित ‘रामायण’ सबसे प्राचीन हिंदू ग्रंथों में से एक है। संस्कृत में लिखा गया यह ग्रंथ भगवान विष्णु के सातवें अवतार प्रभु श्री राम के ऊपर आधारित है। इसमें उनके जीवन संघर्षों, मूल्यों, मानव कल्याण के लिए किये गये कार्यों का वर्णन किया गया है।
          सामान्यतः इसका आरंभ दशहरे से कुछ दिन पहले होता है और इसका अंत दशहरे के दिन रावण दहन के साथ होता है। इसके अलावा परंपरा के अनुसार अलग अलग स्थानों पर अलग अलग समयों पर भी राम लीलाएं और राम बारात का आयोजन होता रहता है। स्थानीय क्षेत्र के विकास के लिए आगरा में पितृ पक्ष में ही राम बारात का भव्य आयोजन होता है। आश्विन मास में राम विवाह के अवसर पर भी देश भर में लीलाएं आयोजित होती रहती हैं।
रामलीला का इतिहास:-
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के जीवन पर आधारित राम लीला लोक नाटक के इस कार्यक्रम का इतिहास काफी प्राचीन है, ऐसा माना जाता है कि रामलीला की शुरुआत उत्तर भारत में हुई थी और यहीं से इसका हर जगह प्रचार-प्रसार हुआ। रामलीला को लेकर कई सारे ऐसे ऐतिहासिक प्रमाण मिले है, जिससे यह पता चलता है कि यह पर्व 11वीं शताब्दी से भी पूर्व से मनाया जा रहा है। यद्धपि इसका पुराना प्रारुप महर्षि वाल्मिकि के महाकाव्य ‘रामायण’ पर आधारित था, लेकिन आज के समय में जिस रामलीला का मंचन होता है, वह रामलीला मूलतःगोस्वामी तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ पर आधारित होती है। इसके अलावा राधेश्याम रामायण और रामानंद सागर का रामायण धारावाहिक भी राम लीलाओं का आधार बनता है। 
        राम लीला के वर्तमान रुप को लेकर कई सारी मान्यताएं प्रचलित हैं । कुछ विद्वानों का मानना है कि इसकी शुरुआत 16वीं सदी में वाराणसी में हुई थी। ऐसा माना जाता है कि उस समय के काशी नरेश ने गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित मानस को पूरा करने के बाद रामनगर में रामलीला कराने का संकल्प किया था। जिसके पश्चात गोस्वामी तुलसीदास के शिष्यों द्वारा इसका वाराणसी में पहली बार मंचन किया गया था। रामलीला मंचन के दौरान भगवान श्री राम के जीवन के विभिन्न चरणों तथा घटनाओं का मंचन किया जाता है। एक बड़े और प्रतिष्ठित राज्य का राजकुमार होने के बावजूद उन्होंने अपने पिता के वचन का पालन करते हुए, अपने जीवन के 14 वर्ष जंगलों में बिताये थे। उन्होंने सदैव धर्म के मार्ग पर चलते हुए लोगो को पारिवारिक संबंधों,आदर्श त्याग,आदर्श राजा और गरीबों , दलितों के उत्थान,संतों, गाय, विप्र और धरती के कष्टों को दूर करने, दया, मानवता और सच्चाई का संदेश दिया। अपने राक्षस शत्रुओं का संहार करने का पश्चात उन्होंने उनका विधिवत दाह संस्कार करवाया क्योंकि उनका मानना था कि हमारा कोई भी शत्रु जीवित रहने तक ही हमारा शत्रु होता है। मृत्यु के पश्चात हमारा उससे कोई बैर नही होता, स्वयं अपने परम शत्रु रावण का वध करने के बाद उन्होंने एक वर्ष तक उसके हत्या के लिए प्रायश्चित किया था।
मानवता के लिए एक प्रेरणा स्रोत:-
एक विशाल राज्य के राजकुमार और भावी राजा होने के बावजूद भी उन्होंने एक ही विवाह किया, वास्तव में उनका जीवन मानवता के लिए एक प्रेरणा स्रोत है। यहीं कारण कि उनके जीवन के इन्हीं महान कार्यों का मंचन करने के लिए देश भर के विभिन्न स्थानों पर रामलीला के कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।
रामलीला: रिवाज एवं परंपरा :-
वैसे तो रामलीला की कहानी महर्षि वाल्मिकि द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामायण’ पर आधारित होती है लेकिन आज के समय में जिस रामलीला का मंचन किया जाता है उसकी पटकथा गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ पर आधारित होता है। हालांकि भारत तथा दूसरे अन्य देशों में रामलीला के मंचन की विधा अलग-अलग होती है परंतु इनका कथा प्रभु श्रीराम के जीवन पर ही आधारित होती है।
शारदीय नवरात्रि में मंचन:-
देश के कई स्थानों पर नवरात्र के पहले दिन से रामलीला का मंचन शुरु हो जाता है और दशहरे के दिन रावण दहन के साथ इसका अंत होता है। वाराणसी के रामनगर में मनाये जाने वाली रामलीला 31 दिनों तक चलती है। इसी तरह ग्वालियर और प्रयागराज जैसे शहरों में मूक रामलीला का भी मंचन किया जाता है। जिसमें पात्रों द्वारा कुछ बोला नही जाता है बल्कि सिर्फ अपने हाव-भाव द्वारा पूरे रामलीला कार्यक्रम का मंचन किया जाता है।
पात्र के अनुरुप वेश भूषा और श्रृंगार :-
पूरे भारत में रामलीला का कार्यक्रम देखने के लिए भारी संख्या में लोग इकठ्ठा होते है। देश के सभी रामलीलाओं में रामायण के विभिन्न पात्र देखने को मिलते हैं। रामलीला में इन पात्रों का मंचन कर रहे लोगो द्वारा अपने पात्र के अनुरुप वेश भूषा और श्रृंगार किया जाता है।
विविध प्रसंगों की लीलाएं:-
कई जगहों पर होने वाली रामलीलाओं में प्रभु श्री राम के जीवन का विस्तृत रुप से वर्णन किया जाता है, तो कही सक्षिंप्त रुप से मुख्यतः इसमें सीता स्वयंवर ,वनवास काल, निषाद द्वारा गंगा पार कराना, सीता हरण, अंगद का दूत रुप में लंका जाना, हनुमान जी द्वारा माता सीता को प्रभु श्रीराम का संदेश देना और लंका दहन करना, लक्ष्मण जी का मूर्छित होना और हनुमान जी द्वारा संजीवनी लाना, मेघनाथ वध, कुंभकर्ण वध, रावण वध , भरत मिलाप और राज्याभिषेक जैसे घटनाओं को प्रमुखता से प्रदर्शित किया जाता है। दशहरा के दिन रावण, मेघनाथ तथा कुंभकर्ण के पुतलों के जलाने के साथ रामलीला के इस पूरे कार्यक्रम का अंत होता है।
रामलीला की आधुनिक परंपरा :-
रामलीला के वर्तमान स्वरुप और इसके मनाये जाने में आज के समय में काफी परिवर्तन आया है। आज के समय में जब हर ओर उन्माद तथा कट्टरपंथ अपने चरम पर है, तो दशहरे के समय आयोजित होने वाला रामलीला का यह कार्यक्रम भी इससे अछूता नही रह पाया है। आजादी से पहले लाहौर से लेकर कराचीं तक रामलीला कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता था। जिसमें हिंदुओं के संग मुसलमान भी बड़े ही उत्सुकता के साथ देखने जाते थे। स्वयं मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के शासनकाल में उनके दरबार में भी उर्दू भाषा में अनुवादित रामायण सुनाई जाती थी।
इसके साथ ही दिल्ली में यमुना किनारे रामलीला का मंचन किया जाता था। इस कार्यक्रम के लिए हिंदू तथा मुस्लिम दोनो ही संयुक्त रुप से दान किया करते थे। लेकिन आज के समय में हालात काफी बदल गये हैं। आजकल लोगों में धार्मिक कट्टरता और उन्माद काफी बड़ चुका है। भारत के कई सारे क्षेत्रों में रामलीला मंचन के समय कई तरह की बुरी घटनाए सुनने को मिलती है। यदि हम चाहें तो रामलीला में दिखाये जाने वाले प्रभु श्रीराम के जीवन मंचन से काफी कुछ सीख सकते हैं और यह सीखें सिर्फ हिंदु समाज ही नही अपितु पूरे विश्व के लिए काफी कल्याण कारी साबित होंगी। हमें इस बात का अधिक से अधिक प्रयास करना चाहिए कि हम रामलीला को सद्भावना पूर्वक एक-दूसरे के साथ मनायें ताकि इसकी वास्तविक महत्ता बनी रहे।
रामलीला का महत्व :-
रामलीला का अपना एक अलग ही महत्व है। वास्तव में यह कार्यक्रम हमें मानवता तथा जीवन मूल्यों का अनोखा संदेश देने का कार्य करता है। आज के समय लोगो में दिन-प्रतिदिन नैतिक मूल्यों का पतन देखने को मिल रहा है। यदि आज के समय में हमें सत्य और धर्म को बढ़ावा देना है तो हमें प्रभु श्री राम के पथ पर चलना होगा। उनके त्याग और धर्म के लिए किये गये कार्यों से सीख लेकर हम अपने जीवन को बेहतर बनाते हुए, समाज के विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दे सकते है।
रामलीला से बड़े परिवर्तन की संभावना :-
यदि हम रामलीला में दिखाये जाने वाले सामान्य चीजों को भी अपने जीवन में अपना ले तो हम समाज में कई सारे बड़े बदलाव ला सकते। रामायण पर आधारित रामलीला में दिखाये जाने वाली छोटी-छोटी चीजें जैसे श्री राम द्वारा अपने पिता के वचन का पालन करने के लिए वन जाना, शबरी के जूठे बैर खाना, लोगो में किसी प्रकार का भेद ना करना, सत्य और धर्म के रक्षा के लिए अनेकों कष्ट सहना जैसी कई सारी महत्वपूर्ण बाते बतायी जाती हैं, जो हमें वचन पालन, भेदभाव को दूर करना तथा सत्य के मार्ग पर डटे रहना जैसे महत्वपूर्ण संदेश देता है।
उपयोगी सीख:-
वास्वव में यदि हम चाहे तो रामलीला मंचन के दौरान दी जानी वाली शिक्षाप्रद बातों से काफी कुछ सीख सकते हैं और यदि हम इन बातों में से थोड़ी भी चीजों को अपने जीवन में अपना ले तो यह समाज में काफी बड़ा परिवर्तन ला सकते हैं। यही कारण है कि रामलीला मंचन का कार्यक्रम हमारे लिए इतना महत्वपूर्ण है।
रावण का महिमा मंडन का गलत प्रचलन बन्द हो :-
इस कलयुग में भगवान श्रीराम के साथ साथ कुछ ब्राह्मण जन केवल रावण की जाति देखकर दशानन रावण को अपना भगवान मानने लगे हैं। सोशल मिडिया पे जहां भी देखो दशानन रावण के बखान की परिपाटी चल पड़ी है कि वह एक प्रकांड पंडित था, उसने जगत जननी माता सीता को कभी छुआ तक नहीं जी, वह तो अपनी बहन के अपमान के लिये, अपना पूरा कुल तक दाव पर लगा दिया आदि आदि। 
       यह पूर्ण सत्य नही है। माता सीता जी को ना छूने का कारण उसकी अच्छाईयां नहीं, बल्कि कुबेर के पुत्र “नलकुबेर” का श्राप था। एक बार स्वर्ग की अप्सरा रंभा ने रावण के भाई कुबेर के पुत्र "नलकुबेर" से मिलने जा रही थी तब रास्ते में रावण उसे देख लिया था। वह रंभा के रूप और सौंदर्य को देखकर मोहित हो गया था। दशानन रावण ने रंभा को बुरी नीयत से रोका भी था। इस पर रंभा ने रावण से, उसे छोडऩे की प्रार्थना की और कहा कि, आज मैंने आपके भाई कुबेर के पुत्र नलकुबेर से मिलने का वचन दिया है ।अत: मैं आपकी पुत्रवधु के समान हूं मुझे छोड़ दीजिए, परंतु रावण था ही दुराचारी वह नही माना और रंभा के साथ दुष्कर्म किया था। जब नलकुबेर को रावण के इस दुष्कृत्य का पता चला तो, वह अति क्रोधित हुआ।
          क्रोधित नलकुबेर ने दशानन रावण को श्राप दिया कि अब से रावण ने किसी भी स्त्री को उसकी स्वीकृति के बिना छुआ, या अपने महल में रखा या उसके साथ दुराचार किया तो वह उसी क्षण भस्म हो जाएगा। इसी श्राप के डर से रावण ने सीता जी को राजमहल में न रखते हुए राजमहल से दूर अशोक वाटिका में रखा। वैसे भी जो व्यक्ति ज्ञानी होकर भी पथभ्रष्ट होने वाले पतित का अपराध ज़्यादा संगीन होता है। इसलिए रावण के महिमागान के गलती नही होना चाहिए। दशानन रावण विद्वान अवश्य था लेकिन जो व्यक्ति अपने ज्ञान को यथार्थ जीवन मे लागू ना करे वो ज्ञान विनाश कारी होता है।
        रावण ने अनेक ऋषिमुनियों का वध किया था। अनेक यज्ञ ध्वंस किये थे। ना जाने कितनी स्त्रियों का अपहरण किया। एक गरीब ब्राह्मणी "वेदवती" के रूप से वह प्रभावित होकर जब उसे बालों से घसीट कर, ले जाने लगा तो वेदवती ने आत्मदाह कर लिया था और वह उसे श्राप दे गई कि तेरा विनाश एक स्त्री के कारण ही होगा।
रावण अजेय भी नही था, प्रभु श्रीराम जी के अलावा, उसे राजा बलि, वानरराज बाली, महिष्मति के राजा कार्तविर्य अर्जुन जो, सहस्त्रबाहु के रूप में जाने जाते हैं, और स्वयं भगवान शिव ने भी रावण को हराया था। दशानन रावण की और एक कारनामे में से एक है जब रावण की बहन सूर्पनखा का पति विधुतजिव्ह राजा कालकेय का सेनापति था। जब दशानन रावण ने तीनो लोकों पर विजय प्राप्त करने के लिए निकला तो उसका युद्ध कालकेय से भी हुआ, जिसमे उसने सूर्पनखा के पति विधुतजिव्ह का वध कर दिया था, तब सूर्पणंखा ने अपने ही भाई को श्राप दिया था कि तेरे सर्वनाश का कारण ही मै बनूंगी। इसलिए जो ज्ञानी होकर भी पथभ्रष्ट हो जाता है, उसका अपराध और ज्यादा संगीन हो जाता है. चाहे वह दशानन रावण हो, कार्तविर्य अर्जुन हो या महिषासुर हो।इनकी महिमागान की गलती नही होना चाहिए।
विदेशों में राम लीला :-
भारत के साथ-साथ दूसरे कई सारे देशों में भी रामलीला काफी प्रसिद्ध है। भारत के अलावा बाली, जावा, श्रीलंका, थाईलैंड जैसे देशों में भी रामलीला का मंचन किया जाता है। 
थाईलैंड की रामलीला:-
भारत के साथ थाईलैंड और बाली जैसे अन्य देशों में भी काफी धूम-धाम के साथ रामलीला कार्यक्रम का मंचन किया जाता है। थाईलैंड की रामलीला काफी प्रसिद्ध है, थाईलैंड में रामलीला मंचन को रामकीर्ति के नाम से जाना जाता है। हालांकि यह रामलीला भारत में होने वाली रामलीलाओं से थोड़ी भिन्न हैं लेकिन फिर भी इसके किरदार रामायण के पात्रों पर ही आधारित हैं। प्राचीन समय में भारत का दक्षिण एशियाई देशों पर काफी प्रभाव था। यहां के व्यापारी, ज्ञानी तथा उत्सुक लोग सदैव ही व्यापार तथा नयी जगहों की खोज के लिए दक्षिण एशिया के क्षेत्रों में यात्रा किया करते थे। उनके ही कारण भारत की यह सांस्कृतिक विरासत कई सारी देशों में प्रचलित हुई। इतिहासकारों के अनुसार थाईलैंड में 13वीं सदी से ही रामायण का मंचन किया जा रहा है।





भगवान विष्णु के अनन्य भक्त आचार्य श्री रंगनाथ मुनि श्रीसनातन सम्प्रदाय परम्परा (15वीं कड़ी)

श्री सम्प्रदाय के आद्य आचार्य रंगनाथ मुनि और उनके पौत्र यामुनाचार्य ने वैष्णव परम्परा को आगे बढाया और रामानुजाचार्य ने इसे गौरव के शिखर पर पहुँचाया है। इसे आजकल रामानुज सम्प्रदाय के नाम से भी जाना जाता है। इस सम्प्रदाय के अनुयायी 'श्री वैष्णव' कहलाते हैं। इनका दार्शनिक सिद्धान्त 'विशिष्टाद्वैत' है। ये भगवान् लक्ष्मी जी नारायण की उपासना करते है। श्री सम्प्रदाय के आचार्यों में परिगणित मुनि त्रय में श्री नाथमुनी बहुत लोकप्रियता रूप में जाने जाते है ।  श्री संप्रदाय के मुनि त्रय के दो अन्य आचार्य यामुनाचार्य और रामानुजाचार्य रहे। आचार्य रंगनाथ मुनि या नाथ मुनि वेदशास्त्र वा पुराणादि के प्रकाण्ड विद्वान सिद्ध और जीवन मुक्त महात्मा रहे हैं। शंकराचार्य के सिद्धांत का प्रतिवाद किया था। वे वैष्णव धर्मशास्त्री थे जिन्होंने नलयिर के  "दिव्य प्रबंधम" को एकत्र और संकलित किया जो श्री वैष्णव आचार्यों में से पहला ग्रंथ माना जाता है । नाथमुनि योगरहस्य , और न्यायतत्व के लेखक भी रहे हैं ।
जीवन परिचय :-नाथमुनि स्वामीजी के जन्म का नाम अरंगनाथन था। जिनका जन्म द्रविण देश के चिदंबरम क्षेत्र के तिरुनारायण पुरम ( कार्टू मन्नार,वर्तमान वीरना -रायण पुरम) में 824 ई में हुआ था। आपके पिता का नाम ईश्वर भटटर था । आपका विवाह वंगीपुराचार्य की पुत्री अरविंदजा से हुआ था। जिससे ईश्वरमुनि पुत्र का जन्म हुआ था। ईश्वर मुनि अल्पकाल में दिवंगत हो गए थे। ईश्वरमुनि के पुत्र यमुनाचार्य जी हुए थे। ये भी श्री सम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य हुए थे। श्री नाथ मुनि को ब्रज भूमि और यमुना बहुत प्रिय था। इस कारण वे अपने पौत्र का नाम यमुनाचार्य रखा था। प्रतीत होता है इनका नाम संभवतः एक तीर्थयात्रा की स्मृति के रूप में रखा गया था । नाथमुनि अपने बेटे (ईश्वर मुनि) और बहू के साथ यमुना के तट पर  गए थे। वे श्रीरंगम में अपने दो भतीजों को भी भजन सिखाये थे। इसके अलावा , उन्होंने उन्हें श्री रंगनाथस्वामी मंदिर, श्रीरंगम में श्रीरंगम मंदिर सेवा में भी लिया  था , जहां वे मंदिर प्रशासक रहे थे। 
तीर्थ यात्रा को बढ़ावा:-
उन्होंने उत्तर भारत के अनेक तीर्थों की यात्रा में बहुत समय बिताया था। ब्रज की प्रेम लक्षणा नारदीय भक्ति का उन्होंने दक्षिण में व्यापक प्रचार किया था। आपने आलवारोंं के प्रबंधों के खोज के लिए अनेक यात्राएं की थी।आप सिद्ध योगी थे। समाधि अवस्था में आपको श्री शठकोपाचार्य का साक्षात्कार हुआ था। जिनके कृपा प्रसाद से आपको 4000 दिव्य प्रबंधों की प्राप्ति हुई थी। जिस कारण आप चार भागों में दिव्य प्रबंधकम का संकलन किया था। समाधि अवस्था में आपने श्री शठकोपा जी से वैष्णवी दीक्षा प्राप्त की थी। आपने रहस्यार्थ सहित मंत्रों का ज्ञान प्राप्त किया था ।आपके ही प्रयत्नों से श्रीरंगम में भगवान के मंदिर में आलवार भक्तों के पद्यों के संगीत मय गायन का प्रारम्भ हुआ था। (संदर्भ: गीताप्रेस भक्त माल पृष्ठ 336)
चार लोकप्रिय श्लोक:-
नाथमुनि स्वामीजी के प्रयास से प्राप्त इन दिव्य प्रबंधों, के कारण ही आज श्री वैष्णव साम्प्रदाय का ऐश्वर्य हमें प्राप्त हुआ हैं । इनके बिना यह प्राप्त होना दुर्लभ था । आल्वन्दार स्वामीजी , नाथमुनि स्वामीजी के पौत्र अपने स्तोत्र रत्न में नाथमुनि की प्रशंसा शुरुआत के तीन श्लोकों मे करते है ।
पहले श्लोक में बताते हैं की ” मैं उन नाथमुनि को प्राणाम करता हुँ जो अतुलनीय हैं, विलक्षण हैं और एम्पेरुमानार् के अनुग्रह से अपरिमित ज्ञान भक्ति और वैराग्य के पात्र हैं ।
दूसरे श्लोक में कहते हैं की ” मैं उन नाथमुनि जी के चरण कमलों का, इस भौतिक जगत और अलौकिक जगत में आश्रय लेता हूँ जिन्हें मधु राक्षस को वध करने वाले (भगवान श्री कृष्ण) के श्री पाद कमलों पर परिपूर्ण आस्था , भक्ति और शरणागति ज्ञान हैं” ।
तीसरे श्लोक में कहते हैं की ” मैं उन नाथ मुनिजी की सेवा करता हूँ जिन्हें अच्युत के लिए असीमित प्रेम हो निज ज्ञान के प्रतीक हैं , जो अमृत के सागर हैं , जो बद्ध जीवात्माओ के उज्जीवन के लिए प्रकट हुए हैं, जो भक्ति में निमग्न रहते हैं और जो योगियों के महा राजा हैं ।
उनके अन्तिम और चौथे श्लोक में एम्पेरुमान् से विनति करते हैं की, उनकी उपलब्धियों को न देखकर , बल्कि उनके दादा की उपलब्धिया और शरणागति देखकर मुझे अपनी तिरुवेडी का दास स्वीकार किया जाय । इन चारो श्लोक से हमें नाथमुनि जी के महान वैभव की जानकारी होती हैं ।
दीर्घ जीवी रहे रत्न मुनि :-
उन्हें दीर्घ जीवी 400 साल जीवित होने की बात भी कही जाती है।यह संभावना है कि चोल राजाओं द्वारा नियंत्रित उस क्षेत्र में अपनी महानता के शिखर पर पहुंचने से पहले नाथमुनि सौ वर्षों से थोड़ा अधिक समय तक रहे। माना जाता है कि वह मधुरकवि अलवर की परम्परा के जीवनकाल में ही रहे थे । नाथमुनी के साथ संपर्क में था नम्मलवार द्वारा सत्यापित किया जाता है गुरु-परम्परा , दिव्या सूरी चरित , और प्रप्पन्नामरता भी साक्षी है।
अद्भुत मृत्यु :-
अपना अंतिम समय निकट जान कर नाथमुनि स्वामीजी, आस पास की परिस्थिथो से विस्मरित हो एम्पेरुमान के ध्यान में निमग्न रहते थे । एक दिन उनसे मिलने राजा और रानी आते है । ध्यानमग्न स्वामीजी को देख , राजा और रानी लौट जाते है । प्रभु प्रेम , लगन और भक्ति में मग्न, नाथमुनि स्वामीजी को ऐसा आभास होता है की भगवान श्री कृष्ण गोपियों के साथ आए और उनको ध्यानमग्न अवस्था में देखकर वापस लौट गये है, अपने इस आभास से दुखी हो श्रीनाथमुनि राजा और रानी की ओर दौड़ते है |
अगली बार शिकार से लौटते हुए राजा, रानी, एक शिकारी, एक वानर के साथ उनसे मिलने के लिए आते हैं । इस बार भी नाथमुनि स्वामीजी को ध्यान मग्न देख , राजा फिर से लौट जाते हैं । नाथमुनि जी को इस बार यह लगता हैं की श्री राम चन्द्र, माता सीता, लक्ष्मण जी और हनुमान जी उन्हें दर्शन देने पधारे हैं , पर उन्हें ध्यान मग्न देख लौट गये और इसी आभास में , नाथमुनि उनके दर्शन पाने उनके पीछे दौड़ते हैं । जब वह छवि उनकी आँखों से ओझल हो जाती हैं, भगवान से वियोग सहन न कर पाने के कारण नाथमुनि मूर्छित हो 924 ई में प्राणों को छोड़ देते हैं और परमपद प्राप्त कर लेते है । परंपरा के अनुसार नाथमुनि श्रीरंगम मंदिर की मूर्ति में प्रवेश कर ईश्वर में समाहित हो गये थे।  यह समाचार सुनकर तुरन्त ईश्वर मुनि , शिष्य बृंद के साथ वहाँ पहुँचते हैं और उनके अन्तिम कर्म संपन्न कराते है ।