Sunday, June 26, 2022

राष्ट्रोत्कर्ष दिवस के रूप में मनाया गया शंकराचार्य जी का जन्मोत्सव

बस्ती। सनातन धर्म संस्था बस्ती द्वारा शंकराचार्य श्री निश्चलानंद सरस्वती जी महाभाग का ८०वॉ जन्मोत्सव राष्ट्रोत्कर्ष दिवस के रूप में मनाया गया । संसार के सभी हिन्दुओं के मुख्य चार धर्म गुरुओं मे से एक गोवर्धनमठ पुरी पीठाधीश्वर शंकराचार्य भगवन श्री निश्चलानंद सरस्वती जी महाभाग का ८०वॉ जन्मोत्सव सनातन धर्म संस्था द्वारा कल आषाढ़ कृष्ण त्रयोदशी २६जून, रविवार को राष्ट्रोत्कर्ष दिवस के दिवस के रूप मे कटेश्वर पार्क के निकट स्थित गोशाला परिसर मे सायं 5 बजे से रात्रि 8 बजे तक मनाया गया।
जन्मोत्सव कार्यक्रम मे हरीश त्रिपाठी और अनुराग शुक्ल जी की अगुवाई मे राष्ट्र रक्षा दल के वीरों और वीरांगनाओं द्वारा पाँच बार श्री हनुमान चालीसा का पाठ, आरती व प्रसाद वितरण किया किया गया और उसके बाद गौशाला मे रह रही 150 से अधिक गौओं को रोटी-गुड़, केला, आम, हरा चारा खिलाकर सेवा की गई। शहर के प्रमुख व्यापारी आशुतोष मिश्र द्वारा अतिथियों का स्वागत किया गया।
उपस्थिति सनातनी लोगों को सम्बोधित करते हुये सनातन धर्म संस्था के सदस्य अखिलेश दूबे ने पूज्य शंकराचार्य जी से संबंधित बातें लोगों को बताई और कहा कि हम अपने धर्म के श्रेष्ठ गुरुओं का सम्मान करें और आडंबर से बचें। कर्नल के सी मिश्र ने गाय और गाय दूध, गो मूत्र, गाय के गोबर, घर में गाय की रखने के वैज्ञानिक और आध्यात्मिक लाभ, जैविक जीवन शैली में गाय का महत्व आदि बहुत ही महत्वपूर्ण विचार रखें उन्होंने सनातन धर्म की वैज्ञानिकता और आज विदेशों में सनातन धर्म से बहुत सी चीजें उपयोग हो रही हैँ जिनका जीवन रक्षा हेतु प्रयोग किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि विदेशों में अपना तनाव कम करने के लिये काउ कैटलिंग हो रही है लोग सैकड़ो डालर खर्च करके 1 घंटा गायों के पास रहते हैँ और उन्हें प्यार दुलार कर रेडियशन, रक्तचाप आदि दूर करते हैँ।
राष्ट्र उत्कर्ष कैसे करें विषय पर सम्बोधित करते हुये मुख्य वक्ता कटरा कुटी धाम अयोध्या के महंत स्वामी चिन्मयानन्द दास जी ने कहा कि सबसे पहले स्वयं में संकल्पित हों कि हम आज दिन भर में एक कार्य ऐसा करेंगे जो ईश्वर को समर्पित होगा, हम दिन भर में एक काम राष्ट्रहित में करें। उन्होंने कहा कि अगर आपसे कुछ अच्छा नही हो पा रहा है तो आप संकल्प लें कि हम धर्म और राष्ट्र को छति पहुंचाने वाला कोई कार्य नही करेंगे। आपके मात्र एक प्रयास से ही राष्ट्रोत्कर्ष का प्रारम्भ हो जायेगा। उन्होंने सनातन धर्म संस्था के कार्यों की प्रसंसा की और आशीर्वाद दिया। सनातन धर्म संस्था द्वारा गौशाला में सेवा दे रहे सात गौ सेवकों को स्वामी चिन्मयानन्द दास जी के हाथों उपहार दिलाकर सम्मानित किया गया। संस्था के सदस्य कैलाश नाथ दूबे ने आये हुये अतिथियों का आभार ज्ञापित किया।
कार्यक्रम में मुख्य रूप से प्रीती श्रीवास्तव, संध्या दीक्षित, डॉ नवीन सिंह, डॉ वीरेंद्र त्रिपाठी, राजीव शुक्ल, अजय, संदीप पासवान, सुनील यादव, महेन्द्र यादव, इन्द्रमणि मिश्र, पंकज त्रिपाठी सहित राष्ट्र रक्षा दल के वीर और वीरांगनायें उपस्थिति रही।


महर्षि वाशिष्ठ की एक लम्बी परम्परा डा. राधेश्याम द्विवेदी

वसिष्ठ यानी सर्वाधिक पुरानी पीढ़ी का निवासी:- 
महर्षि वसिष्ठ का निवास स्थान से सम्बन्धित होने के कारण बस्ती का नामकरण उनके नाम के शब्दों को समेटा जा रहा है। प्राचीन काल में यह अवध की ही  इकाई रही हैं। वसिष्ठ मूलतः ‘वस’ शब्द से बना है जिसका अर्थ - रहना, निवास, प्रवास, वासी आदि होता है । इसी आधार पर ‘वस’ शब्द से  'वास' का अर्थ निकलता है। वरिष्ठ, गरिष्ठ, ज्येष्ठ, कनिष्ठ आदि में जिस 'ष्ठ' का प्रयोग है, उसका अर्थ - 'सबसे ज्यादा' यानी 'सर्वाधिक बड़ा' होता है। ‘वसिष्ठ’ का अर्थ 'सर्वाधिक पुराना निवासी' होता है। महर्षि वशिष्ठ के 'तपस्या स्थल' को वशिष्ठ कहा गया है।
एक नहीं अनेक वशिष्ठों का उल्लेख:-
 वसिष्ठ एक जातिवाची नाम रहा है। आजकल भी जातिवादी नाम पीढ़ी दर पीढ़ी व्यक्तियों के साथ जुड़ा रहकर चलता रहता है। वैसी ही परम्परा पुराने काल से चलती आ रही है। "पुरानिक इनकाइक्लोपीडिया” नामक सन्दर्भ ग्रंथ (पृ.834-36 पर) वसिष्ठ के तीन जन्मों की बातें कही गयी हैं।  वशिष्ठ मैत्रावरुण, वशिष्ठ शक्ति, वशिष्ठ सुवर्चस सहित कुल 12 वशिष्ठों का पुराणों में उल्लेख है। वशिष्ठ की संपूर्ण जानकारी वायु, ब्रह्मांड एवं लिंग पुराण में मिलती है, जबकि वशिष्ठ कुल ऋषियों एवं गोत्रकारों की नामावली मत्स्य पुराण में दर्ज है। ब्रह्मा के पुत्र वशिष्ठ के नाम पर आगे चलकर उनके वंशज भी वशिष्ठ कहलाए। इस तरह ‘वशिष्ठ’ केवल एक व्यक्ति नहीं बल्कि पद बन गया और विभिन्न युगों में अनेक प्रसिद्ध वशिष्ठ हुए।
1.
प्रथम जन्म में अनाम आद्य वसिष्ठ:-
आद्य वसिष्ठ, सबसे पुराने वसिष्ठ थे। वे कोशल देश की राजधानी अयोध्या में आकर बसे । वे स्मृति परम्परा के मुताबिक हिमालय से वहां आए थे और अयोध्या में आकर रहने से पहले का विवरण चूंकि हमारे ग्रंथों में खास मिलता नहीं, इसलिए उन्हें ब्रह्मा का पुत्र मानने की श्रद्धा से भरी कही गई। आदि वशिष्ठ की दो पत्नियां थीं। एक ऋषि कर्दम की कन्या अरुंधती और दूसरी प्रजापति दक्ष की कन्या ऊर्जा। वह हिमालय में ही रहते थे ।  प्रथम जन्म में वे ब्रह्मा के मानस पुत्र कहे गये हैं। जो ब्रहमा के सांस (प्राण) से उत्पन्न हुए हैं।  पूर्व जन्म में अरुन्धती का नाम सन्ध्या था। प्रथम जन्म के वसिष्ठ की मृत्यु दक्ष के यज्ञ कुण्ड में हुई थी। उन्हें ब्रह्मा का मानस पुत्र मान लिया गया और उनका विवाह दक्ष नामक प्रजापति की पुत्री ऊर्जा से बताया गया, जिससे उन्हें एक पुत्री और सात पुत्र पैदा हुए। 
2.
विदेह निमि जनक के मित्रावरूण वशिष्ठ
निमि, मिथिला के प्रथम राजा थे। वे मनु के पौत्र तथा इक्ष्वाकु के पुत्र थे। वे महात्मा इक्ष्वाकु के बारहवें पुत्र थे। उ
 वैजयन्त  नगर बसाकर उन्होंने एक भारी यज्ञ (कर्म-धर्म) का अनुष्ठान किया। पहले महर्षि वशिष्ठ को और फिर अत्रि, अंगिरा, तथा भृगु को आमंत्रित किया। परन्तु वशिष्ठ का एक यज्ञ के लिए देवराज इन्द्र ने पहले ही बुला लिया था, इसलिये वे निमि से प्रतीक्षा करने के लिये कहकर इन्द्र का यज्ञ कराने चले गये। वशिष्ठ के जाने पर महर्षि गौतम ने यज्ञ को पूरा कराया। वशिष्ठ ने लौटकर जब देखा कि गौतम यज्ञ को पूरा कर रहे हैं तो उन्होंने क्रोध में आकर निमि को श्राप दिया कि राजा निमि! तुमने मेरी अवहेलना (निरादर) करके दूसरे पुरोहित को बुलाया है, इसलिये तुम्हारा शरीर प्राणहीन होकर गिर जायेगा। 
       जब राजा निमि को इस श्राप की बात मालूम हुई तो उन्होंने भी वशिष्ठ जी को श्राप दिया कि आपने मुझे अकारण ही श्राप दिया है अतएव आपका शरीर भी प्राणहीन होकर गिर जायेगा। इस प्रकार श्रापों के कारण दोनों ही विदेह (बिना देह (शरीर) के हो गये। पहले तो वे दोनों वायुरूप हो गये। 
वशिष्ठ ने ब्रह्माजी से शरीर दिलाने की प्रार्थना की तो उन्होंने कहा कि तुम मित्र और वरुण के छोड़े हुये वीर्य में प्रविष्ट हो जाओ। इससे तुम अयोनिज रूप से उत्पन्न होकर मेरे पुत्र बन जाओगे। इस प्रकार वशिष्ठ फिर से शरीर धारण करके प्रजापति बने। तब से वशिष्ठ मित्रावरूण वशिष्ठ कहे जाने लगे।मैत्रा बरूण वसिष्ठ के 97 सूक्त ऋग्वेद में मिलते हैं, जो ऋग्वेद का करीब-करीब दसवां हिस्सा है। 
      राजा निमि का शरीर नष्ट हो जाने पर ऋषियों ने स्वयं ही यज्ञ को पूरा किया और राजा को तेल के कड़ाह आदि में सुरक्षित रखा। यज्ञ कार्यों से निवृत होकर महर्षि भृगु ने राजा निमि की आत्मा से पूछा कि तुम्हारे जीव चैतन्य को कहाँ स्थापित किया जाय? इस पर निमि ने कहा कि मैं समस्त प्राणियों के नेत्रों में निवास करना चाहता हूँ। राजा की यह अभिलाषा पूर्ण हुई। तब से निमि का निवास वायुरूप होकर समस्त प्राणियों के नेत्रों में हो गया। उन्हीं राजा के पुत्र मिथिलापति जनक हुये और वे भी विदेह कहलाये।"
3. 
सहस्त्रबाहु के समय वरुण पुत्र वशिष्ठ अपव:-
एक बार अग्नि देव ने भूख से पीड़ित होकर सहस्त्रबाहु से भोजन की भिक्षा मांगी थी।तब सहस्त्राबाहू अग्नि को सातों द्वीप दे दिया था। तब तो वह अग्नि पुर, ग्राम, घोष तथा देशो को चारो तरफ से अपनी ज्वाला से सब कुछ जला दिया। अग्नि उस पुरुषेन्द्र महात्मा अर्जुन के प्रभाव से वन और पर्वतों को जलाते जलाते वरुण पुत्र वशिष्ठ के सूने आश्रम को भी डरते डरते हैहय (सहस्त्रबाहु) के साथ वन की भांति भस्म कर दिया। वरुण ने पहले जिस उत्तम तेज वाले पुत्र का लाभ किया था वही वशिष्ठ नाम से विख्यात मुनि हुए, उनको आपव भी कहते है। वशिष्ठ मुनि ने आश्रम को भस्म हुआ देख अर्जुन को श्राप दिया की हे हैहय, जिन भुजाओं के बल से तूने हमारे वन को जलाने से नहीं रोका और दुष्कर्म कर डाला, उन भुजाओं को काटकर वेग से तुम्हारा मान-मर्दन कर जमदग्नि  के पुत्र तपस्वी ब्राह्मण प्रतापी एवं बली भृगुवंशी परशुराम बध करेगे। 
4.  
सत्यव्रत त्रिशुंक कालीन  देवराज वसिष्ठ:- 
इक्क्षवाकुवंशी राजा सत्यव्रत त्रिशुंक के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ देवराज कहते थे। जिन वसिष्ठ ने विश्वामित्र को ब्राह्मण मानने से इनकार कर दिया, उनका नाम देवराज वसिष्ठ था। अयोध्या के ही एक राजा सत्यव्रत त्रिशंकु ने जब अपने मरणशील शरीर के साथ ही स्वर्ग जाने की पागल जिद पकड़ ली और अपने कुलगुरु देवराज वसिष्ठ से वैसा यज्ञ करने को कहा तो वसिष्ठ ने साफ इनकार कर दिया और उसे अपने पद से हाथ धोना पड़ा। पर जब इसी वसिष्ठ ने एक बार यज्ञ में नरबलि का कर्मकाण्ड करना चाहा तो फिर विश्वामित्र ने उसे रोका और देवराज वसिष्ठ की काफी थू-थू हुई। इसके बाद वशिष्ठ को वापस हिमालय जाने को मजबूर होना पड़ा । 
महर्षि विश्वामित्र क्षत्रिय कुल में जन्म के कारण अपने वचन के पक्के माने जाते थे. कहा जाता है कि उनके मित्र राजा त्रिशंकु की इच्छा थी कि वह सशरीर स्वर्गधाम जाएं, लेकिन प्रकृति के नियमों के अनुसार यह संभव नहीं था. ऐसे में त्रिशंकु सिद्धियों से भरपूर गुरु वशिष्ठ के पास गए, लेकिन उन्होंने नियमों के विरुद्ध ना जाने का फैसला लिया. निराश त्रिशंकु वशिष्ठ के पुत्रों के पास गए और आपबीती बताई तो पुत्रों ने क्रोधित होकर उन्हें चांडाल हो जाने का श्राप दे दिया. इसे अपना अपमान मानते हुए त्रिशंकु अपने मित्र विश्वामित्र के पास गए. विश्वामित्र ने कहा- मैं भेजूंगा। इसके लिए महायज्ञ शुरू किया, जिसमें वशिष्ठ पुत्रों समेत कई ब्राह्मणों को आमंत्रित किया गया. यज्ञ का कारण जानने के बाद वशिष्ठ पुत्रों ने तिरस्कार करते हुए कहा कि हम ऐसे किसी यज्ञ में शामिल नहीं होंगे, जो एक चांडाल के लिए किया जा रहा हो।
विश्वामित्र आग बबूला हो गए और उन्होंने श्राप दे दिया, जिससे वशिष्ठ के पुत्रों की मृत्यु हो गई. क्रोधित विश्वामित्र ने अपने तप से त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग लोक भेज दिया।लेकिन इंद्र ने उन्हें यह कहते हुए लौटा दिया कि वो शापित हैं, इसलिये स्वर्ग में नहीं रह सकते. त्रिशंकु का शरीर धरती और स्वर्ग के बीच ही अटक गया. विश्वामित्र ने अपना वचन पूरा करने के लिये त्रिशंकु के लिए नया स्वर्ग सप्तऋषि की रचना कर दी. भयभीत देवताओं ने विश्वामित्र से प्रार्थना की तो उन्होंने कहा कि मैंने अपना वचन पूरा करने के लिए यह किया है. अब त्रिशंकु इसी नक्षत्र में रहेगा, मगर आश्वासन देता हूं कि देवताओं की सत्ता को हानि नहीं होगी. 
5. 
राजा हरिशचंद्र कालीन वशिष्ठ :-
राजा हरिश्चंद्र अयोध्या के प्रसिद्ध क्षत्रिय सूर्यवंशी  राजा थे जो त्रिशंकु के पुत्र थे। वे बहुत दिनों तक पुत्रहीन रहे पर अंत में अपने कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ के उपदेश से इन्होंने वरुणदेव की उपासना की तो इस शर्त पर पुत्र जन्मा कि उसे राजा हरिश्चंद्र यज्ञ में बलि दे दें। पुत्र का नाम रोहिताश्व रखा गया और जब राजा ने वरुण के कई बार आने पर भी अपनी प्रतिज्ञा पूरी न की तो उन्होंने राजा हरिश्चंद्र को जलोदर रोग होने का श्राप दे दिया। रोग से छुटकारा पाने और वरुणदेव को फिर प्रसन्न करने के लिए राजा ने महर्षि वशिष्ठ जी की सम्मति से अजीगर्त नामक एक दरिद्र ब्राह्मण के बालक शुन:शेप को खरीदकर यज्ञ की तैयारी की। परंतु बलि देने के समय शमिता ने कहा कि मैं पशु की बलि देता हूँ, मनुष्य की नहीं। जब शमिता चला गया तो महर्षि विश्वामित्र ने आकर शुन:शेप को एक मंत्र बतलाया और उसे जपने के लिए कहा। इस मंत्र का जप कने पर वरुणदेव स्वयं प्रकट हुए और बोले - हरिश्चंद्र, तुम्हारा यज्ञ पूरा हो गया। इस ब्राह्मणकुमार को छोड़ दो। तुम्हें मैं जलोदर से भी मुक्त करता हूँ।
6. 
बाहु और सागर के समय के वशिष्ठ अथर्वनिधि (प्रथम):-
अयोध्या के राजा बाहु और सागर के समय में हुए जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (प्रथम) कहा जाता था। सूर्यवंश में राजा हरिश्चंद्र, रोहित के वंश में बाहु नाम के एक राजा हुए, उनके पिता का नाम वृक था। बाहु बड़े धर्मपरायण राजा थे, वे अपनी प्रजा का पालन पुत्रों के समान करते थे। पापियों और द्रोहियों को उचित दंड देते थे जिससे समस्त प्रजा निर्भय होकर धर्मपूर्वक रहते थे। अहंकार के बढ़ जाने के कारण राजा बाहु अत्यंत उदंड हो गए। परिणाम स्वरूप उनके बहुत सारे शत्रु बन गए।हैहय और तालजंघ कुल के क्षत्रियों से उनकी प्रबल शत्रुता हो गई और उनके साथ राजा बाहु का घोर युद्ध छिड़ गया। युद्ध में राजा बाहु परास्त हो गए और दुखी होकर अपनी दोनों पत्नियों के साथ वन में चले गए और वहीं समय व्यतीत करने लगे।दुःख और संताप से राजा बाहु का शरीर जर्जर हो गया और कुछ समय बाद वन में ही उन्होंने प्राण त्याग दिए।उस समय उनकी छोटी पत्नी गर्भवती थी । दुख में पतिव्रता छोटी रानी को सती होते देखा तो पास ही में और्व मुनि ने उनको मना करते हुए कहा – ” हे देवी, तेरे गर्भ में शत्रुओं का नाश करने वाला चक्रवर्ती बालक है।और्व मुनि के आश्रम में रहकर दोनों रानियां महर्षि के सेवा सत्कार में समय व्यतीत करने लगीं। छोटी रानी अपने पूर्व के संस्कारों के कारण धर्म कर्म में विशेष रूचि लेतीं ।बड़ी रानी के मन में उसके प्रति ईर्ष्या होने लगी और एक दिन बड़ी रानी ने छोटी रानी को भोजन में जहर मिला कर दे दिया। ईश्वर की कृपा से छोटी रानी पर उस जहर का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और नाही गर्भ में पल रहे शिशु पर।समय आने पर छोटी रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। और्व मुनि ने गर (विष) के साथ उत्पन्न हुए उस बालक का नाम सगर रखा। माता ने बालक सगर का बड़े प्रेमपूर्वक पालन पोषण किया।और्व मुनि से शिक्षा पाकर बालक सगर बलवान, बुद्दिमान और धर्मात्मा हो गए। अपने वंश के बारे में जानकर उसने माता के सामने प्रतिज्ञा ली कि वह अपने पिता के शत्रुओं का नाश कर देगा और अपना खोया हुआ राज्य वापस लेगा।तब माता से आज्ञा लेकर सगर और्व मुनि के पास पहुँचे और उनका आशीर्वाद लेकर वहां से प्रस्थान किया और अपने कुलगुरु  वशिष्ठ के पास पहुँचे।वशिष्ठ सगर को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें विभिन्न प्रकार के दिव्य अस्त्र शस्त्र प्रदान किए। सभी दिव्य अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित होकर सगर कुलगुरु वशिष्ठ से आज्ञा लेकर अपने पिता के शत्रुओं से युद्ध करने पहुँचे। शूरवीर सगर ने बहुत ही कम समय में अपने सभी शत्रुओं को पराजित कर दिया। तब शक, यवन तथा अन्य बहुत से राजा अपने प्राण बचाने वशिष्ठ मुनि के शरण में पहुँचे।गुरु वसिष्ठ की बात मानकर सगर ने उन राजाओं को प्राणदान दे दिया। ये देखकर वशिष्ठ मुनि सगर पर बहुत प्रसन्न हुए और अन्य तपस्वी मुनिओं को साथ लेकर सगर का राज्याभिषेक किया। तत्पश्चात राजा सगर और्व मुनि के आश्रम गए और उनकी आज्ञा लेकर अपनी दोनों माताओं को अपने साथ राजमहल ले आए और सुखपूर्वक राज्य करने लगे।
7.
कल्माषपाद कालीन वशिष्ठ श्रेष्ठभाज:-
 राजा इक्ष्वाकु के कुल में एक सौदास या सुदास (कल्माषपाद)
 नाम का एक राजा हुआ। राजा एक दिन शिकार खेलने वन में गया। वापस आते समय वह एक ऐसे रास्ते से लौट रहा था। जिस रास्ते पर से एक समय में केवल एक ही आदमी गुजर सकता था। उसी रास्ते पर मुनि वसिष्ठ के सौ पुत्रों में से सबसे बड़े पुत्र शक्तिमुनि उसे आते दिखाई दिये। राजा ने कहा तुम हट जाओ मेरा रास्ता छोड़ दो तो कल्माषपाद ने कहा आप मेरे लिए मार्ग छोड़े दोनों में विवाद हुआ तो शक्तिमुनि ने इसे राजा का अन्याय समझकर उसे राक्षस बनने का शाप दे दिया। उसने कहा तुमने मुझे अयोग्य शाप दिया है ऐसा कहकर वह शक्तिमुनि को ही खा जाता है।शक्ति और वशिष्ठ मुनि के और पुत्रों के भक्षण का कारण भी उसकी राक्षसीवृति ही थी। पुत्रों की मृत्यु पर अधीर होकर वसिष्ठ आत्म हत्या के कई प्रयास भी किये थे। 
  जब महषि वसिष्ठ अपने आश्रम लौट रहे थे तो उन्हे लगा कि मानो कोई उनके पीछे वेद पाठ करता चल रहा है।
इस समय वसिष्ठ बोले कौन है ? तो आवाज आई मैं आपकी पुत्र-वधु शक्ति की पत्नी अदृश्यन्ती हूं। आपका पौत्र मेरे गर्भ में है वह बारह वर्षो से गर्भ में वेदपाठ कर रहा है। वे यह सुनकर सोचने लगे कि अच्छी बात है मेरे वंश की परम्परा नहीं टूटी। 
उनमें आशा संचार हुआ और वे मृत्यु का इरादा त्यागकर अपने भावी उस उत्ताधिकारी को पालने के लिए पुनः धर्मपूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करने लगे थे। यही बालक आगे चलकर पराशर ऋषि के रुप में प्रसिद्ध हुए। 
8.
 महाभारत कालीन शक्ति वसिष्ठ :- 
महाभारत के काल में हुए जिनके पुत्र का नाम शक्ति था। जिन वसिष्ठ के साथ विश्वामित्र का भयानक संघर्ष हुआ, वे शक्ति वसिष्ठ थे। महर्षि वसिष्ठ क्षमा की प्रतिपूर्ति थे। शक्ति वसिष्ठ के पास कामधेनु थी । एक बार श्री विश्वामित्र उनके अतिथि हुए। महर्षि वसिष्ठ ने कामधेनु के सहयोग से उनका राजोचित सत्कार किया। कामधेनु की अलौकिक क्षमता को देखकर विश्वामित्र के मन में लोभ उत्पन्न हो गया। उन्होंने इस गौ को वसिष्ठ से लेने की इच्छा प्रकट की। कामधेनु वसिष्ठ जी के लिये आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु महत्त्वपूर्ण साधन थी, अत: इन्होंने उसे देने में असमर्थता व्यक्त की। जिसका दुरूपयोग कर अहंकार पालने का मौका उन्होंने कभी भी नहीं दिया। विश्वामित्र ने कामधेनु को बलपूर्वक ले जाना चाहा। वसिष्ठ जी के संकेत पर कामधेनु ने अपार सेना की सृष्टि कर दी। विश्वामित्र को अपनी सेना के साथ भाग जाने पर विवश होना पड़ा। घमंडी विश्वामित्रों को ऐसी गाय न मिले, इसके लिए अपने पुत्रों का बलिदान देकर भी एक भयानक संघर्ष उन्होंने विश्वामित्रों के साथ किया था। द्वेष-भावना से प्रेरित होकर विश्वामित्र ने भगवान शंकर की तपस्या की और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके उन्होंने महर्षि वसिष्ठ पर पुन: आक्रमण कर दिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मदण्ड के सामने उनके सारे दिव्यास्त्र विफल हो गये और उन्हें क्षत्रिय बल को धिक्कार कर ब्राह्मणत्व लाभ के लिये तपस्या हेतु वन जाना पड़ा।विश्वामित्र की अपूर्व तपस्या से सभी लोग चमत्कृत हो गये। सब लोगों ने उन्हें ब्रह्मर्षि मान लिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मर्षि कहे बिना वे ब्रह्मर्षि नहीं कहला सकते थे। वसिष्ठ विश्वामित्र के बीच के संघर्ष की कथाएं सुविदित हैं। वसिष्ठ क्षत्रिय राजा विश्वामित्र को 'राजर्षि' कह कर सम्बोधित करते थे। विश्वामित्र की इच्छा थी कि वसिष्ठ उन्हें 'महर्षि' कहकर सम्बोधित करें। एक बार रात में छिप कर विश्वामित्र वसिष्ठ को मारने के लिए आये। एकांत में वसिष्ठ और अरुंधती के बीच हो रही बात उन्होंने सुनी। वसिष्ठ कह रहे थे, 'अहा, ऐसा पूर्णिमा के चन्द्रमा समान निर्मल तप तो कठोर तपस्वी विश्वामित्र के अतिरिक्त भला किस का हो सकता है? उनके जैसा इस समय दूसरा कोई तपस्वी नहीं।' एकांत में शत्रु की प्रशंसा करने वाले महा पुरुष के प्रति द्वेष रखने के कारण विश्वामित्र को पश्चाताप हुआ। शस्त्र हाथ से फेंक कर वे वसिष्ठ के चरणों में गिर पड़े। वसिष्ठ ने विश्वामित्र को हृदय से लगा कर 'महर्षि' कहकर उनका स्वागत किया। इस प्रकार दोनों के बीच शत्रुता का अंत हुआ था।
9.
राजा दिलीप कालीन वशिष्ठ अथर्वनिधि( द्वितीय):-
 ये वशिष्ठ राजा दिलीप के समय हुए, जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (द्वितीय) कहा जाता था।दिलीप इक्ष्वाकु वंश के प्रतापी राजा थे जिन्हें 'खटवांग' भी कहते हैं। उनकी पत्नी का नाम सुदक्षिणा था।  दिलीप की परम कामना यही थी कि उनकी प्रिय पत्नी सुदक्षिणा उनके समान ही तेजस्वी, ओजस्वी पुत्र को जन्म दे।  राज्य भार सौंप देने पर उन्होंने महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में जाकर उनसे परामर्श करने का निश्चय किया। उनके समीप पहुंचने पर राजा और उनकी पत्नी मगधकुमारी सुदक्षिणा ने कुलगुरु तथा उनकी पत्नी के चरण स्पर्श कर उनको प्रणाम किया। महर्षि वसिष्ठ और उनकी पत्नी अरुंधती ने हृदय से उनका स्वागत किया। गुरु ने आने का कारण पूछा तो राजा ने अपने निःसन्तान होने की बात बताई । तब महर्षि वशिष्ठ बोले – “ हे राजन ! तुमसे एक अपराध हुआ है, इसलिए तुम्हारी अभी तक कोई संतान नहीं हुई है ।एक बार की बात है, जब तुम देवताओं की एक युद्ध में सहायता करके लौट रहे थे । तब रास्ते में एक विशाल वटवृक्ष के नीचे देवताओं को भोग और मोक्ष देने वाली कामधेनु विश्राम कर रही थी और उनकी सहचरी गौ मातायें निकट ही चर रही थी। तुम्हारा अपराध यह है कि तुमने शीघ्रतावश अपना विमान रोककर उन्हें प्रणाम नहीं किया ।” महर्षि वशिष्ठ की बात सुनकर राजा दिलीप बड़े दुखी हुए। उपाय पूछने पर महर्षि वशिष्ठ बोले – “ एक उपाय है राजन ! ये है मेरी गाय नंदिनी है जो कामधेनु की ही पुत्री है। इसे ले जाओ और इसके संतुष्ट होने तक दोनों पति-पत्नी इसकी सेवा करो और इसी के दुग्ध का सेवन करो । जब यह संतुष्ट होगी तो तुम्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी ।
एक दिन संयोग से एक सिंह ने नंदिनी पर आक्रमण कर दिया और उसे दबोच लिया । उस समय राजा दिलीप कोई अस्त्र – शस्त्र चलाने में भी असमर्थ हो गया । कोई उपाय न देख राजा दिलीप सिंह से प्रार्थना करने लगे – “ हे वनराज ! कृपा करके नंदिनी को छोड़ दीजिये, यह मेरे गुरु वशिष्ठ की सबसे प्रिय गाय है ।आप इसके बदले मुझे खा लो, लेकिन मेरे गुरु की गाय नंदिनी को छोड़ दो ।”इसके बाद नंदिनी गाय बोली – “ उठो राजन ! यह मायाजाल, मैंने ही आपकी परीक्षा लेने के लिए रचा था । जाओ राजन ! तुम दोनों दम्पति ने मेरे दुग्ध पर निर्वाह किया है अतः तुम्हें एक गुणवान, बलवान और बुद्धिमान पुत्र की प्राप्ति होगी ।” इतना कहकर नंदिनी अंतर्ध्यान हो गई। उसके कुछ दिन बाद नंदिनी के आशीर्वाद से महारानी सुदक्षिणा ने एक पुत्र को जन्म दिया, रघु के नाम से विख्यात हुआ और उसके पराक्रम के कारण ही इस वंश को रघुवंश के नाम से जाना जाता है ।
10.
 महाराज दशरथ और राम के समय के वशिष्ठ:- 
ये वशिष्ठ ब्रहमा के हवन कुण्ड से ही  दूसरी बार जन्म लिये थे। इस बार उनकी पत्नी का नाम अक्षमाला था। जो अरुन्धती का पुनर्जन्म था। इस कारण इन्हें अग्निपुत्र भी कहा गया है। जब इनके पिता ब्रह्मा जी ने इन्हें मृत्युलोक में जाकर सृष्टि का विस्तार करने तथा सूर्यवंश का पौरोहित्य कर्म करने की आज्ञा दी, तब इन्होंने पौरोहित्य कर्म को अत्यन्त निन्दित मानकर उसे करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। ब्रह्मा जी ने इनसे कहा- 'इसी वंश में आगे चलकर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम अवतार ग्रहण करेंगे और यह पौरोहित्य कर्म ही तुम्हारी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगा।' निमि राजा के विवाह के बाद वसिष्ठ ने सूर्य वंश की दूसरी शाखाओं का पुरोहित कर्म छोड़कर केवल इक्ष्वाकु वंश के राजगुरु पुरोहित के रूप में कार्य किया। महाराज दशरथ की निराशा में आशा का संचार करने वाले महर्षि वसिष्ठ ही थे।  दशरथ से ऋष्यश्रृंग की देखरेख में पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया और भगवान श्री राम का अवतार हुआ।राम आदि का नामकरण किया, शिक्षा-दीक्षा दी और राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेजने के लिए दशरथ का मन बनाया। पर इनका अलग से नाम नहीं मिलता। वे दशरथ से पुत्रेष्टि यज्ञ कराया जिससे राम आदि चार पुत्र हुए। अनेक बार आपत्ति का प्रसंग आने पर तपोबल से उन्होंने राजा प्रजा की रक्षा की। राम को शस्त्र शास्त्र की शिक्षा दी। वसिष्ठ के कारण ही ' रामराज्य' की स्थापना संभव हुई। महर्षि वसिष्ठ ने सूर्यवंश का पौरोहित्य करते हुए अनेक लोक-कल्याणकारी कार्यों को सम्पन्न कराया था। इन्हीं के उपदेश के बल पर भगीरथ ने प्रयत्न करके गंगा-जैसी लोक कल्याणकारिणी नदी को हम लोगों के लिये सुलभ कराया।  भगवान राम के समय में हुए वाशिष्ठ को महर्षि वशिष्ठ कहते थे। भगवान श्री राम को शिष्य रूप में प्राप्त कर महर्षि वसिष्ठ का पुरोहित-जीवन सफल हो गया। भगवान श्री राम के वन गमन से लौटने के बाद इन्हीं के द्वारा उनका राज्याभिषेक हुआ। गुरु वसिष्ठ ने श्री राम के राज्यकार्य में सहयोग के साथ उनसे अनेक यज्ञ करवाये। उन्होंने दशरथ की मृत्यु के बाद कोशल राज्य को संभाला, विश्वामित्र से कामधेनु को लेकर उनके युद्ध हुए, उन्होंने विश्वामित्र को ऋषि तो माना । पौराणिक श्रुति इस प्रकार है कि वनवास के दौरान जब युद्ध में रामचन्द्र जी द्वारा रावण मार दिया गया तो रामचन्द्र पर ब्रह्महत्या का पाप लगा। अयोध्या वापस आने पर श्रीराम इस पाप के निवारण के लिये अश्वमेध की तैयारी में जुट गये। यज्ञ शुरू हुआ तो उपस्थित सारे ऋषि मुनियों ने गुरू वशिष्ठ को कहीं नहीं देखा। वशिष्ठ राजपुरोहित थे, बिना उनके यह यज्ञ सफल नहीं हो सकता था। उस समय वशिष्ठ हिमालय में तपस्यारत थे। श्रंगी ऋषि लक्ष्मण को लेकर मुनि वशिष्ठ की खोज में निकल पड़े। लम्बी यात्रा के बाद वे इसी स्थान पर आ पहुंचे। सर्दी बहुत थी। लक्ष्मण ने गुरू के स्नान के लिये गर्म जल की आवश्यकता समझी। लक्ष्मण ने तुरन्त धरती पर अग्निबाण मारकर गर्म जल की धाराएं निकाल दीं। प्रसन्न होकर गुरू वशिष्ठ ने दोनों को दर्शन देकर कृतार्थ किया। गुरू ने कहा कि अब यह धारा हमेशा रहेगी व जो इसमें नहायेगा, उसकी थकान व चर्मरोग दूर हो जायेंगे। लक्ष्मण ने गुरूजी को यज्ञ की बात बतलाई। तदुपरान्त गुरू वशिष्ठ ने अयोध्या जाकर यज्ञ को सुचारू रूप से सम्पन्न कराया। 
11.
वशिष्ठ सुवर्चस भी एक वशिष्ठ रहे। इनके बारे में जानकारी अत्यल्प ही मिलती है।
 है। 
12.
जातुकर्ण शाखा के वशिष्ठ :-
एक और अल्प शाखा है, जो जातुकर्ण नाम से जानी जाती है। 

         यह भी कह सकते हैं कि, वशिष्ठ केवल एक व्यक्ति ही नहीं,बल्कि एक संपूर्ण कुल का प्रतीक, एक गौत्र तथा एक पद भी है। आज भी, कई जाती के लोग अपना गौत्र वशिष्ठ लगाते हैं। वशिष्ठ गौत्र या वंश में देवराज, आपव, अथर्वनिधी,वारुणी, श्रेष्ठभाज,सुवर्चस, शक्ति और वारुणी जैसे कई प्रमुख व्यक्ति हुए हैं, जिनका ग्रंथों और पुराणों में उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के सातवें मंडल के रचनाकार, होने के साथ ही महर्षि वशिष्ठ ने वशिष्ठ संहिता, वशिष्ठ पुराण, वशिष्ठ शिक्षा, वशिष्ठ श्राद्धकल्प  तथा वशिष्ठ तंत्र  की भी रचना की थी। ऋग्वेद के अनेक मंत्रों के सुक्तकार तथा द्रष्टा, सूर्यवंश तथा रघुकुल के महान राजपुरोहित महर्षि वशिष्ठ को एक त्रिकालदर्शी, महान तपस्वी, यज्ञ तथा मंत्र विद्या के ज्ञानी तथा एक तेजस्वी ऋषि के रुप में युगो तक याद किया जाएगा।
          वेदव्यास की तरह वशिष्ठ भी एक पद हुआ करता था।  कहा जाता है कि जो ब्रह्मा के पुत्र थे वे आज भी जीवित हैं और वे ही हर काल में प्रकट होते हैं। उनका स्थान हिमालय के किसी क्षेत्र में बताया जाता है।





अयोध्या में श्री सीताराम की रसिक उपासना के प्रमुख केन्द्र डा. राधे श्याम द्विवेदी

हिन्दी भक्ति साहित्य के मध्यकालीन साहित्य का अध्ययन करने पर हमें उसके प्रधानतम प्रवृत्ति के रूप में मधुर रस उपासना की जानकारी होती है. भक्ति की चाहे जिस भी निर्गुण ,सगुण शाखा हो या निर्गुण का योग भक्ति मार्ग हो या प्रेम भक्ति मार्ग हो या सगुण की कृष्ण उपासना हो या राम उपासना हो सभी क्षेत्रों में प्रायः सर्वत्र इस मधुर रस की उपासना की एक सर्वव्यापक प्रवृती मणिमणा परिलक्षित होती है.(संदर्भ/साभार : रसिक सम्प्रदाय और सखी भाव- डॉ. तपेश्वरनाथ) .
          राम नगरी अयोध्या में 11,000 से ज्यादा मंदिर हैं, पूरे विश्व में यह एक ऐसा स्थान है जहां इतनी बड़ी संख्या में मंदिर है. धर्म नगरी अयोध्या भगवान राम की जन्म स्थली के रूप में जानी जाती है.  यह अनेक रहस्यों और संस्कृतियों से भरा हैं, हर रहस्य और संस्कृति का एक ही आधार राम का प्रेम है। यदि श्रृंगार की बात होती है तो भगवान विष्णु के ही दूसरे अवतार कृष्ण का नाम पहले लिया जाता है। रासलीला, गोपलीला, राधा प्रेम जैसी कई कथाएं कृष्ण से सम्बन्धित हैं. भारत देश में एक संप्रदाय ऐसा भी है जो श्रीराम के लिए भी ऐसा ही प्रेम रखता है, यानी उन्हें अपना स्वामी मानता है, खुद को उनकी प्रेमिका. दुनिया इन्हें राम रसिक के नाम से जानती है. इनकी उपासना के कुछ अलग ही पद्धति होती है.
1.
सिर पर चुनरी डालकर उपासना:-
अयोध्या में जन्मभूमि मंदिर से कुछ दूर कनक भवन स्थित है. कहते हैं कि इस भवन को माता कैकेयी ने देवी सीता को मुंह दिखाई में दिया था. श्रीराम विवाह के बाद सीता के साथ यहीं रहे थे. इसी कनक भवन मंदिर में अब श्रीराम का जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया जाता है. रसिक संप्रदाय के लोग यहां सिर पर चुनरी डालकर भगवान की आरती करते हैं और राम संकीर्तन में खो जाते हैं. वह खुद का संबंध सीता से जोड़ते हैं और श्रीराम को दूल्हा मानते हैं. कनक भवन मंदिर एक प्रसिद्ध हिंदू मंदिर है जो धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण है, शानदार ढंग से बनाया गया है और दूर-दूर से हजारों भक्तों को आकर्षित करता है। मंदिर भगवान राम और उनकी पत्नी सीता को समर्पित किया गया है। पवित्र शहर अयोध्या में स्थित, मंदिर का मंदिर स्थापत्य प्रतिभा का एक आदर्श उदाहरण है और निश्चित रूप से प्रशंसनीय है। देवता अत्यंत सुंदर और मनोरम हैं और निश्चित रूप से आपको स्तब्ध कर देंगे। सजावटी अग्रभाग से लेकर सुंदर प्रांगण तक, भगवान और उनकी पत्नी के शानदार देवता के लिए आश्चर्यजनक आंतरिक भाग प्रशंसनीय है और कनक भवन मंदिर में आपको आध्यात्मिक रूप से समृद्ध अनुभव होना निश्चित है।
2.
श्रीराम ,सर्व दूल्हे के रूप में पूज्य:-
मान्यता  है कि जब मिथिला में श्रीराम-सीता का विवाह हुआ तब उसके बाद उनकी सखियों ने विवाह ही नहीं किया. उन्हें इस युगल को देखकर ही जीवन का सारा ज्ञान मिल गया. उन्होंने वरदान मांगा कि हमारा जब भी जन्म हो, राम-सीता की भक्ति में ही जीवन कटे और हम अधिक से अधिक उनके निकट रहें. बिहार में सीतामढ़ी, जनकपुरी, दरभंगा, मैथिल आदि इलाकों में आज भी श्रीराम और यहां तक कि अयोध्या के हर वासी को वे पाहुन (ससुराल से आया अतिथि) मानते हैं. वह उन्हें दूल्हा ही मानते हैं. 
3.
त्रेतायुग से रामरसिकों की सानिध्यता :-
राम रसिकों की मौजूदगी त्रेतायुग से ही है. अहिल्या, शबरी खुद श्रीराम की नवधा भक्ति में समर्पित महिलाएं थीं. हिंदी साहित्य की रामाश्रयी शाखा के जो कवि हुए हैं, उनमें कई भक्त कवि राम रसिक संप्रदाय के हैं. इनमें सबसे ऊंचा नाम आता है संत और भक्त कवि रामानंद का. एक खास बात ये भी है कि राम रसिक होने के बाद स्त्री-पुरुष का भेद मिट जाता है, सिर्फ आत्मा रह जाती है, जो किसी देह से बंधी सी है. 
4.
संत रामानंद से रसिक पीठ की स्थापना:-
लोक विचारों में राम रसिक तो पहले से मौजूद थे, 17वीं शताब्दी तक मंदिरों में उनका दिख जाना स्वाभाविक था, लेकिन इसके बाद संत कवि रामानंद को संप्रदाय के तौर पर इन्हें एकत्रित करने का काम किया गया. रामानंद की वैरागी परंपरा को तापसी-सखा के नाम से जाना जाता है. उनके ही शिष्य दाहिमा ब्राह्मण कृष्णदास ने पहली बार जयपुर के निकट गलता में रामानंद संप्रदाय की गद्दी की स्थापना की. रामानंद के दो प्रसिद्ध शिष्य किल्हादास और अग्रदास थे. अग्रदास ने राजस्थान के विभिन्न भागों में रसिक सम्प्रदाय का प्रतिपादन किया था. राजस्थान में उत्पन्न रसिक सम्प्रदाय अयोध्या, जनकपुर और चित्रकूट में फैला. इस सम्प्रदाय का साहित्य ज्यादातर मैथिली के साथ मिश्रित ब्रज और अवधी भाषा में है, 1861 में रूपदेवी द्वारा रचित अंतिम महत्वपूर्ण कविता राम रास है.
5.
अयोध्या के लक्ष्मण किले में राम रसिकों की मौजूदगी:-
अयोध्या में, लक्ष्मण किला में भी राम रसिकों की खास और दुर्लभ पूजा देखी जा सकती है. आचार्य पीठ लक्ष्मण किला रसिक उपासना का सबसे प्राचीन पीठ है. आचार्य जीवाराम के शिष्य स्वामी युगलानन्य शरण की तपोस्थली पर इस मंदिर को साल 1865 में रीवा स्टेट के दीवान दीनबंधु के विशेष आग्रह के बाद बनवाया गया था. दशहरे के अतिरिक्त पूरे वर्ष में यहां भगवान राम को शस्त्र धारण नहीं कराया जाता है. यहां वह सिर्फ सीता के पति हैं, सखियों के जीजा हैं और जगत के स्वामी हैं. उनकी उपासना में श्रृंगार का भाव प्रमुख हैं. राम रसिक सिर्फ राम की भक्ति नहीं करते हैं, बल्कि राम से भक्ति में रचा-बसा प्रेम करते हैं. रसिक उपासना के संत यहां भगवान राम की उपासना दूल्हे के रूप करते हैं. मंदिर में विवाह के पदों का गायन होता है.
6.
 अयोध्या मां सीता की भी नगरी रही :-
रामनगरी वस्तुत: श्रीराम के साथ मां सीता की भी नगरी है. श्रीराम और मां सीता में अभिन्नता प्रतिपादित है. यह शास्त्रीय तथ्य रामनगरी में पूरी प्रामाणिकता और पूर्णता के साथ प्रवाहमान है. रामजन्मभूमि पर विराजे रामलला को छोड़कर बाकी के सभी मंदिरों में श्रीराम के साथ मां जानकी का भी विग्रह अनिवार्य रूप से स्थापित है. वैष्णव परंपरा की दो मुख्यधारा रामानुज एवं रामानंद संप्रदाय में सीता आद्या-परात्परा एवं अखिल ब्रह्मांड नायक सृष्टि नियंता श्रीराम की सहचरी के रूप में समान रूप से स्वीकृत-शिरोधार्य हैं.गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं कि सीता उत्पत्ति, पालन और संहार की अधिष्ठात्री शक्ति है. वैष्णव मतावलंबी संतों की यह आम धारणा है कि श्रीराम करुणा के साथ न्याय और कर्म के आधार पर फल देने वाले हैं, जबकि मां जानकी अतीव करुणामयी हैं और वे पीड़ित मानवता पर अहेतुक कृपा करती हैं. रामानंद संप्रदाय की उपधारा रसिक उपासना परंपरा में तो मां सीता श्रीराम की चिर सहचरी के साथ जीव मात्र की आदि गुरु और मार्गदर्शिका के रूप में प्रतिष्ठित हैं.
मान्यता है कि भक्तों की पुकार वही श्री राम तक पहुंचाती हैं और श्रीराम की कृपा भी उनके ही माध्यम से भक्तों पर बरसती है. 
7.
अयोध्या का रंग महल में माता सीता की सखी भाव की पूजा:-
अयोध्या के मंदिरों में से एक पवित्र मंदिर रंगमहल भी है। यह सैकड़ों वर्ष पुरानी मंदिर है जहां की उपासना बहुत ही महत्वपूर्ण है भगवान श्रीराम की जन्म स्थली से सटे रंगमहल की पौराणिकता अत्यंत अद्भुत है श्री राम जन्मभूमि में जहां श्री राम की उपासना होती है वही राम जन्मभूमि के बगल स्थित रंगमहल में माता सीता की उपासना होती है, इस मंदिर के संत अपने आपको सीता जी की सखी मानते हैं.
8.
 बड़ा स्थान जानकीघाट मन्दिर रसिक उपासना का केन्द्र  :-
रसिक उपासना की मूलपीठ श्री स्वामी करुणा सिंधु मेमोरियल चैरिटेबल सेवा संस्थान द्वारा संचालित श्री जानकीघाट बड़ा स्थान है. ट्रस्ट के द्वारा गौ सेवा व गौमाता के संरक्षण व संवर्धन का भी कार्य किया जा रहा है.इसके अलावा संत महंत की सेवा व विराट अन्न क्षेत्र संतों एवं आगंतुकों के लिए विराट रूप से प्रतिदिन दोपहर भंडारे का आयोजन किया जा रहा है. ट्रस्ट के द्वारा ही वेद पाठी व संस्कृत छात्र विद्यार्थी सेवा के साथ ही निर्धन व गरीब विद्यार्थियों के लिए भोजन प्रसाद आवास की भी सुविधा प्रदान की जाती है.परमार्थ सेवा की यह सिद्ध स्थली है. यह अयोध्या की अति प्राचीनतम मन्दिर है. जहा पर हर वर्ष विविध धार्मिक आयोजनों के साथ ही जन मानस व राम भक्तो की सेवा सतत चलती ही रहती है.
9.
 खाकी बाबा प्रिया अली सहचरी भाव पाये थे :-
श्री रूपकला जी (अयोध्या के सिद्ध संत) के साथ खाकी बाबा की मित्रता थी । जब कभी अयोध्या आते तो उनसे मिलते और श्री रामकथा सुनकर उसका आनंद लेते । एक दिन रात्रि मे वही विश्राम किया । रात्रि मे श्री रूपकला जी को विरह हुआ तो उनके मुख से आर्त वाणी से निकलने लगा - हे प्रियतम ! हे प्राणनाथ ! हे किशोरी जू । इस तरह कहकर रोने लगे । खाकी बाबा ने उनको डांटा और कहा की यह क्या प्रियतम और प्यारे प्यारे कहकर रोते रहते हो ? रूपकला जी ने खाकी बाबा से कहा - खाकी बाबा ! श्री अवध आये हो तो आपको एक बार श्री श्री लक्ष्मण शरण जी का दर्शन करना चाहिए । श्री रूपकला जी के कहने पर खाकी बाबा उन रसिक संत का दर्शन करने गए  । जब खाकी बाबा दर्शन करने गए तब बाबा जी चारपाई पर लेटे थे । 
श्री लक्ष्मण शरण जी ने खाकी बाबा से कहा की थोड़ा समय रुके रहो । जब सब लोग चले गए तब खाकी बाबा को अपने पास बुलाया । जैसे ही पास जाकर उनके चरणों का स्पर्श किया तो देखा की उनके शरीर का अंग प्रत्यंग बदल गया । उनका शरीर एक अतिसुंदर तरुणी के शरीर मे बदल गया । सामने जो रसिक संत लेटे है उनको भी एक सुंदर युवती के रूप मे देखा । कुछ क्षणों मे वह दृश्य चला गया । खाकी बाबा वहां से भागे । 
रूपकला जी के पास आकर बोले -  उसके चरण छूते ही मै एक युवती बन गया और वह बाबा खुद भी एक युवती बन गया । रूपकला जी ने कहा - आप पर श्री किशोरी जी की कृपा हो गयी । आपको संत ने श्री किशोरी जी की सहचरियों मे सम्मिलित कर लिया । आप अपने स्वरूप को पहचानो, आज से आप तो प्रिया अली हो गए।  गुरुदेव द्वारा प्रदत्त नाम सीतारामदास, दुनिया के लिए खाकी बाबा और अंतरंग उपासना मे आपका नाम प्रिया अली होगा । उसके बाद धीरे धीरे रसिक संतो एक संग व सेवा करते करते उनको माधुर्य उपासना की प्राप्ति हुई । 
10.
हनुमत् निवास मंदिर में रसिक उपासना :-
अयोध्या में रसिक उपासना परम्परा से जुड़े हनुमत् उपासना के प्रमुख केन्द्र हनुमत् निवास मंदिर है।सौ वर्षों से भी अधिक पुराने इस धर्म स्थान की हनुमत् उपासना के क्षेत्र में विशिष्ट परम्परा रही है। कहा जाता है की गोमती शरण जी महाराज को हनुमानजी का साक्षात्कार हुआ था। चित्रकूट में कठिन साधना के पश्चात ईश्वरीय प्रेरणा से रसिक परम्परा की केन्द्रीय पीठ लक्ष्मण किला के इस स्थान पर स्थित गौशाला को ही उन्होंने अपनी साधना स्थली बना लिया था। कालांतर में इस स्थान का विस्तार समय समय पर होता रहा।
         अयोध्या में श्रावण कुंज नृत्य राघव कुंज , सियाराम केलि कुंज चार शिला कुंज तथा राम सखा बगिया आदि पाच प्रमुख मंदिर रसिक उपासना और राम सखा सम्प्रदाय के हैं। श्रावण कुंज अयोध्या के नया घाट पर स्थित है। मान्यता के अनुसार गोस्वामी तुलसी दास जी ने यही रामचरित मानस के बालकाण्ड  की रचना की थी। नृत्य राघव कुंज मणिराम छावनी के निकट बासुदेव घाट स्थित है। पहले अयोध्या से ही नियंत्रित होता था। अब पुनरुद्धार पुष्कर राजस्थान के महंथ जी द्वारा हो रहा है।
राम सखा बगिया रानी बाग में एक विस्तृत भूभाग में स्थित है। नृत्य राघव कुंज बासुदेवघाट अयोध्या एक प्राचीन मंदिर है। यह राम सखा सम्प्रदाय का पुराना मंदिर है। सियावर केलि कुंज नागेश्वरनाथ मंदिर के पीछे स्थित है। यह राम सखा सम्प्रदाय का पुराना मंदिर है। चार शिला कुंज जानकी घाट अयोध्या में स्थित है। यह राम सखा सम्प्रदाय का पुराना मंदिर है। राम सखा मंदिर रानी बाग अयोध्या के वर्तमान महन्थ श्री अवध किशोर मिश्र ने मंदिर की परम्परा के बारे में बताया कि अयोध्या के कुल पाच मंदिर एक ही पूर्व महंथ द्वारा संचालित थे। रसिक उपासना और सखा सखी भाव के कई अन्य मंदिर अयोध्या में अपनी अनूठी भक्ति की छटा बिखेर रहे है। यहां का प्रमुख आकर्षण राम विवाह होता है। वैसे राम जन्मोत्सव,सावन झूला और परिक्रमा आदि अवसर पर भी रसिक उपासना देखी जा सकती है।







Wednesday, June 22, 2022

मेजर डा. अभिषेक द्विवेदी के 41वें जन्म दिन की सस्नेह हार्दिक शुभकामनाएं

तुम पास रहो या दूर रहो या अपने कामों में व्यस्त रहो।
हम मात पिता की यादों में हर पल तुम ही तुम रहते हो।
तुम फूलो फलों खुश भी रहो मेरी चिन्ता कभी मत करना।
हम सूखे दरख़्त हैं इस युग के हमे उसकी मर्जी तक रहना।
भवसागर पार करे डुबोदे सब अच्छा ही अच्छा करता है।
अब उसका ही सहारा सबको जो जिसको आए करता है।

Friday, June 17, 2022

गोधूल बेला की शास्त्रगत विबेचना डा. राधे श्याम द्विवेदी


गोधूलि शब्द का अर्थ है - गो + धूल = अर्थात गायों के पैरों से उठने वाली धूल। पुराने समय में जब गायें जंगल से चरकर वापस आती थीं तो पता चल जाता था कि शाम होने वाली है। इसलिए इस समय विशेष को गोधूलि बेला कहने लगे। अर्थात संध्या का समय। जब गोधूली शब्द चलन में आया होगा या फिर जब यह शब्द गढ़ा गया होगा उस समय हमारे देश में सबसे अधिक पालतु पशुओं की संख्या में गाय ही होती थी। गाय ही एक मात्र ऐसा पशु था जिसे सबसे अधिक पाला जाता था और पूजा भी जाता था। विभिन्न प्रकार के साहित्य, लोक साहित्य और लोकोक्तियों से प्राप्त जानकारियों के अनुसार यह माना जाता है कि प्राचीन समय में या आज भी जब खास कर हमारे गांवों में या घरों में पाली जाने वाली गायें दिनभर खेतों, खलिहानों या वनों में विचरण करने के बाद वापस अपने बसेरे की ओर आते हैं वह काल गोधूलि कहलाती है। इसलिए गोधूली यानी गायों के झूंड के चलने पर उड़ने वाली धूल या धूल के कणों के रूप में उठने वाले गुब्बारे को एक नाम दिया गया गोधूली, यानी गायों के द्वारा उड़ाई जाने वाली धूल। जबकि संस्कृत के वेला शब्द से ही हिन्दी का बेला शब्द चलन में आया है , जिसका अर्थ है बेला यानी समय, घड़ी या वक्त। इसी तरह गाय और अन्य पशु चरकर वापस अपने बसेरे की ओर आते हैं , उस काल या समय को गोधूली बेला का नाम दिया गया। यानी प्रतिदिन हर गांव या कस्बे में गायों के द्वारा जिस समय धूल का यह गुबार उठता था उसे गोधूली बेला कहा जाने लगा।

24या 48 मिनट की बेला:-
वैदिक पंचांग अनुसार स्थानीय सूर्यास्त से 12 मिनिट पूर्व एवं सूर्यास्त के 12 मिनिट पश्चात् के समय को गोधूलि काल कहा जाता है। इसका आशय यह हुआ कि सूर्यास्त के समय की 1 घड़ी अर्थात् 24 मिनट गोधूलि काल है। कुछ विद्वान इसे 2 घड़ी अर्थात् सूर्यास्त से 24 मिनट पूर्व और सूर्यास्त से 24 मिनट पश्चात् का भी मानते हैं। कहीं कहीं माना जाता है कि सूर्य ढलने के ठीक 24 मिनट पहले और सूर्य ढलने के 24 बाद तक का समय गोधूली बेला माना जाता है। यानी कुल 48 मिनट के उस समय को गोधूली बेला माना जाता है जिसमें आधा समय सूर्य अस्त से पहले और आधा समय सूर्य अस्त के बाद का आता है। इसी विशेष समय को खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में गोधूली बेला के नाम से जाना जाता है। जबकि कुछ अन्य क्षेत्रों में इसको सांझ की घड़ी या संध्या की घड़ी भी कहा जाता है। इस जी पश्चिम क्षितिज लोहित हो उठता है। तरु शिखाओ पर सूर्य की मंद मंद किरणे अठखेलियां करने लगती हैं।

सुबह की धूलि गोधूलि नहीं:-
प्राचीन काल से ही या आज भी जब गायों को सुबह-सुबह चरने के लिए जंगल की ओर छोड़ा जाता रहा है। उस समय धरती पर या मिट्टी पर रात की नमी का असर होता है और उस नमी के कारण मिट्टी या धूल के कण भारी होने के कारण हवा में उठ नहीं पाते, यानी रात की उस नमी के कारण हवा में धूल का गुब्बार या धूल के कण उठ नहीं पाते या उड़ नहीं पाते हैं। जबकि दिनभर की गरमी के बाद जमीन की ऊपरी सतह की नमी समाप्त हो जाती है और ऐसे में गायों के एक साथ चलने की वजह से वही धूल हवा में उड़ने लगती है।

शुभ मंगलमयी बेला :-
आज भी हमारे देश के अनेकों गावों में शाम के समय गायों के घर लौटने पर ऐसे दृश्य देखने को मिल ही जाते हैं। और इसी प्रक्रिया को या इसी विशेष समय के लिए हमारे गांवों में गोधूली बेला जैसे शब्दों की उत्पत्ति हुई होगी। इसी गोधूली बेला यानी गोधूली के समय को हमारे शास्त्रों में अत्यधिक शुभ माना गया है और कहा गया है कि इस मुहूर्त में किए गए कुछ कार्य अत्यंत ही शुभ और फलदायी होते हैं। इसका एक सबसे अच्छा और सटीक उदाहरण अगर देखा जाय तो आज भी विशेष रूप से हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाली वैवाहिक रस्मों को इसी समय में यानी संध्या काल में ही संपन्न किया जाता है।

लग्न से संबंधित दोषों को खत्म करने की शक्ति:-
जहां एक ओर यह माना जाता है कि किसी भी शुभ कार्य के लिए शाम का समय उत्तम नहीं होता वहीं गोधुली बेला को भला शुभ क्यों माना जाता है और इस समय में शादी करना शुभ क्यों माना गया है और किस उद्देश्य से इस समय में विवाह किए जाते हैं? इस विषय पर सनातन धर्म के ज्ञाताओं का कहना है कि अगर किसी विवाह मुहूर्त में क्रूर ग्रह, युति वेद, मृत्यु बाण आदि दोषों की शुद्धि होने पर भी विवाह का शुद्ध लग्न और समय नहीं निकल पा रहा हो तो गोधूलि बेला में विवाह करवा देना चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि लग्न से संबंधित सभी प्रकार के दोषों को खत्म करने की शक्ति गोधूलि बेला में है।भले ही आजकल की शहरी आबादी वाले लोगों और बच्चों के बीच गोधूली बेला एक अनजाना शब्द है और इसका कोई अर्थ भी नहीं रह गया है और गायों के द्वारा उड़ाई जाने वाली धूल के गुबार से शहरी लोगों का कोई लेना-देना ना हो या ऐसी धूल और मिट्टी से एलर्जी होती है या गंवारों वाली संस्कृति लगती हो, लेकिन प्राचिन समय में तो यह प्रतिदिन का उत्सव और शुद्धता का प्रतिक मानी जाती थी।
"गोधूल बेला " पर छंद :-
पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी ' मोहन' ने गोधूल बेला का एक मनोहारी चित्रण राष्ट्रपति पदक से सम्मानित स्मृति शेष डा. मुनि लाल उपाध्याय "सरस" प्रणीत "बस्ती के छंद कार" नामक शोध प्रबंध में इस प्रकार किया है--
धेनुए सुहाती हरी भूमि पर जुगाली किये, 
मोहन बनाली बीच चिड़ियों का शोर है।
अम्बर घनाली घूमै जल को संजोये हुए, 
पूछ को उठाये धरा नाच रहा मोर है।
सुरभि लुटाती घूमराजि है सुहाती यहां, 
वेणु भी बजाती बंसवारी पोर पोर है।
गूंजता प्रणव छंद छंद क्षिति छोरन लौ, 
स्नेह को लुटाता यहां नित सांझ भोर है ।।

"धूल भरे लाल हैं" समस्या पूर्ति:-
गोधूल पर आधारित "धूल भरे लाल हैं।" की एक समस्या पूर्ति की लाइन बस्ती जिला परिषद के तत्कालीन अध्यक्ष स्वर्गीय श्री धनुषधारी पाण्डेय ने मेरे पितामह पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी 'मोहन' को दिया था । जिसे बहुत कम समय में पंडित जी ने कुछ इस प्रकार पूरा किया था -- 

एक सखी कहती है सुनो ओ राधा जी,
श्याम की मनोहर छवि कैसे मृद गाल हैं।
गोप संग धेनुवे चराय रहे यमुना तट ,
परत दर परत धूल मुख लाल लाल है।
हाथ में लें वंशी बजाकर सुनाई रहें ,
झूमती हैं गायें मद मस्त उनके लाल है।
खेल रहे गोकुल में गोप और गोपी संग ,
गौवै के धूल से धूल भरे लाल हैं।
 डा. ज्ञानेंद्र नाथ श्रीवास्तव ने सांध्य (प्रत्यूषा)और प्रभाती संध्या को ऊषा नाम देते हुए कुछ अनमोल सुझाव दिया है।
"गोघूलि अंग्रेज़ी में भी है उनके यहाँ प्रभाती संध्या को dawn और अस्ताचल संध्या को dusk कहते हैं। हमारे यहाँ भी ऊषा और प्रत्यूषा नाम मिलते है। यह संधिकाल होता है इसलिये दो संध्यायें है। भारत के ऋषि अपने समय के सर्वश्रेष्ठ विद्वान ज्ञाता थे। वह ज्ञान पूर्वकाल में ही नहीं वर्तमान काल में ही प्रासंगिक है। हमारे पत्रा वर्ष भर की नक्षत्रीय गतिविधियों एवं जलवायु का विवरण दे देते हैं जो साफ्टवेयर से भी अधिक सटीक निकलता है।  
प्राचीन काल में गऊयें संस्कृत भाषा में चराई जाती थीं। जाते समय डहर डहर कहते थे और वापसी में गिरहे गिरहे गृहे गृहे।"
मैं इन शब्दों को अंगीकार करते हुए कृतज्ञता व्यक्त करता हूं।

बशीर बद्र की एक ग़ज़ल पर एक प्रतिक्रिया


   

बशीर बद्र की एक ग़ज़ल 'लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में.' पढ़ने को मिला। प्रतीत होता है बुलडोजर द्वारा अवांछित सरचनाओं के धवस्तीकरण को इंगित करते हुए भी यह प्रस्तुति आई है। एक कवि हृदय एक क्रिया पर अपनी प्रतिक्रिया देने से अपने को रोक नहीं सका। हमने कुछ तब्दीली करके कुछ पंक्तियां ज़बाब के तौर पर तैयार की है। इसे आप सब की खिदमत में पेश कर रहा हूं। पहले बद्र साहब का नगमा दिया जा रहा है बाद में अपना कलाम पेश कर रहा हूं। दोनों में अंतर साफ नज़र आएगा। अलग अलग जमाने और परिस्थितियों की झलक भी देखने को मिलेगी। बद्र साहब की शक्सियत का सम्मान के साथ कद्र करते हुए मैं अपनी बातें क्षमा याचना सहित पेश कर रहा हूं।

बद्र साहब की मूल ग़ज़ल

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में

और जाम टूटेंगे इस शराब-ख़ाने में
मौसमों के आने में मौसमों के जाने में

हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं
उम्रें बीत जाती हैं दिल को दिल बनाने में

फ़ाख़्ता की मजबूरी ये भी कह नहीं सकती
कौन साँप रखता है उस के आशियाने में

दूसरी कोई लड़की ज़िंदगी में आएगी
कितनी देर लगती है उस को भूल जाने में।

English version

Bashir Badra’s words are quite relevant in the present day world, he says that —
People break down in making just one residence
And you are busy in burning the settlements
More Glass of wines are going to break in this tavern
While coming and going of the seasons
People consider heart to every throbbing stone
Ages get invested in making heart a heart actually
The dove was helpless to ask that
Who brings snake to her nests?


हमारी प्रतिक्रिया

सदियां गुज़र जाती है एक देश को संवारने में
कुछ सिरफिरे लगे हैं इसे खाक में मिलाने में।

जाम के टूट ने इस देश को बरबाद किया
मौसम के मौज ने इस का काम तमाम किया।

पत्थर नदी पेड़ पौधों में उसका बास होता है
सदियां बीत जाती है इस सच को जानने में।

दुनियां को एक परिवार का हमने जो दर्जा दिया
हमारी दिलेरी को हमें काफिर का दर्जा मिला।

लडकियां मां बेटी देवी आदमी से बड़ी मानी गई
सात जन्मों ही क्या जन्म जन्म से जुड़ी होती है ।।


Thursday, June 16, 2022

राजेश दूबे की पुण्य स्मृति में महा रक्तदान शिविर सम्पन्न एसपी आटोव्हील्स और टाटा मोटर्स ने किया आयोजन

 
बस्ती (उ.प्र.)। एस पी आटोव्हील्स और टाटा मोटर्स की तरफ से श्री राजेश दूबे की पुण्य स्मृति में महा रक्तदान शिविर और निःशुल्क जाँच शिविर का आयोजन किया गया। विश्व रक्तदाता दिवस पर 14 जून आयोजित इस शिविर में बड़ी संख्या में लोगों ने इसमें हिस्सा लिया।
विशाल रक्तदान शिविर आयोजित
मुख्य अतिथि सांसद हरीश द्विवेदी ने कहा कि जरूरतमंदों के लिए रक्तदान करने में बड़ी ही सुखद अनुभूति का एहसास होता है। विश्व रक्तदाता दिवस पर टाटा मोटर्स के गोटवा शो रूम पर रक्तदान शिविर का आयोजन किया गया। शिविर में बड़ी संख्या में लोगों ने रक्तदान किया। इस दौरान लोगों में गजब का उत्साह देखा गया। रक्तदान करने के लिए हर कोई अपनी बारी का इंतजार करते नजर आया।
        महर्षि वशिष्ठ मेडिकल कालेज के प्राचार्य डॉ. मनोज कुमार ने बताया कि रक्तदान करने के 49 घंटे के भीतर शरीर में कम हुई लाल रक्त कणिकाओं का निर्माण शुरू हो जाता है, जिससे शरीर स्वस्थ रहता है। रक्तदान करने से शरीर में आयरन का स्तर सही रहता है, इससे हृदय रोगों का खतरा कम हो जाता है। इससे कैलोरी कम करने और कोलेस्ट्रॉल नियंत्रित करने में मदद मिलती है। डॉ. मनोज कुमार ने बताया कि वजन के अनुसार अधिकतम 350 से 450 मिली रक्त ही लिया जाता है। आये हुये अतिथियों का स्वागत एस पी आटोव्हील्स के निदेशक अखिलेश दूबे ने आए हुए सभी अतिथियों का स्वागत किया। 
स्वास्थ्य संबंधित अनेक जांचे निःशुल्क
अर्चना हॉस्पिटल की ओर से जनरल फीजिशियन डॉ. प्रशांत यादव और स्त्री एवं प्रसूति रोग विशेषज्ञ डॉ. शिल्पी त्रिपाठी ने लोगों की स्वास्थ्य जांच कर दवाएं वितरित की। अस्पताल की तरफ हीमोग्लोबिन, शुगर, बीपी, मलेरिया की जांच की गई। ब्लड बैंक डॉ. अखिलेश मद्धेशिया, बी के प्रसाद, ओ पी चौधरी, गोविंद शुक्ल, दीपधर दूबे, चंदन, चंद्रिका ने रक्तदान करवाया।
         शिविर में व्यवसायी एवं समाज सेवी सुनील मिश्र, इंडियन पब्लिक स्कूल के प्रबंधक कैलाश नाथ दूबे जी, राखी दूबे, कात्यानी दूबे, प्रखर दूबे, राहुल त्रिवेदी, चंदन सिंह, विष्णु कुमार शुक्ल, अनुराग शुक्ल, टाटा मोटर्स के अधिकारी अभिषेक सिंह, जॉन डियर के अधिकारी दीपक राणा, विवेक त्रिपाठी, सुधीर पाण्डेय सहित 22 लोगों ने रक्तदान किया। शिविर में बड़ी संख्या में लोगों ने रक्तदान किया। इस आयोजन में खासकर पहली बार रक्तदान करने वाले युवाओं का उत्साह देखने को मिला। ब्लड बैंक टीम एवम अर्चना हॉस्पिटल की टीम को सांसद हरीश द्विवेदी द्वारा सम्मानित किया गया।
        


Wednesday, June 15, 2022

आषाढ़स्य प्रथम दिवसे” विना वर्षा यूं ही गुजर गया डा. राधे श्याम द्विवेदी



आषाढ़ हिंदी कैलेंडर का एक विशेष महीना है जिसके आसपास मानसून की शुरुआत होती है.यह वर्षा के प्रवेश का सिंहद्वार है. कवि कुलगुरु कालिदास कहते हैं. ’मेघदूत‘ का पहला श्लोक आषाढ़ के स्मरण के साथ है – ’आषाढ़स्य प्रथम दिवसे‘ कहकर कवि वर्षा का आगमन आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदा से मानता है. आषाढ़ में हवा वर्जनाओं को तोड़ती है. जिससे झाड़ झंखार गिर जाते हैं. बादल ऐसे गरजते हैं जैसे आपके सिर के ऊपर ही गर्जना कर रहे हों. नदियाँ अपने उफान पर होती हैं. कभी कभी तो वे खेत के कलेजे तक चढ़ जाती हैं.
बादल जीवन की क्षणभंगुरता :-
केरल के पश्चिमी तट से ही मानसून इस देश में प्रवेश करता है.
 दक्षिण-पश्चिम मानसूनी हवाएं प्राचीन काल से ही ‘नैरुत्य मारुत’ कही जाती हैं. जीवन की क्षणभंगुरता के दर्शन को बादल से बेहतर नहीं समझा जा सकता है. मानसूनी बादल का औसत जीवन कुछ ही घंटों का होता है.आषाढ़ का पहला दिन स्मृतियों के लौटने का दिन है. आषाढ़ स्मृतियों का महीना है. मैं भी अक्सर आषाढ़ की प्रथम बौछार में स्मृतियों से भीग उठता हूं. हालांकि अब स्मृति व़ृद्ध होने की ओर है . इसलिए आषाढ़ में कालिदास को याद करता हूं. आषाढ़ में काम का आवेग बेलगाम हो उठता है. वसंत में जन्मा काम आषाढ़ आते-आते यौवन उन्माद का पर्याय बन जाता है. बारिश संयम को तोड़ती है, बादलों तक में संयम नहीं रहता. कभी भी बरस पड़ते हैं. नदियां उफनाने लगती हैं, बाँध तोड़कर बहती हैं. प्रकृति अपने सौंदर्य के चरम पर होती है. उसका सोलह शृंगार दिखता है. अंतहीन हरियाली दहकती है. कवि कहता है—‘‘पेड़ों पर छाने लगा, रंग-बिरंगा फाग, मौसम ने छेड़ा जहां, रिमझिम बारिश राग. अषाढ़ी फुहार प्रेमी जोड़ों को प्रेम रस में भिगोती है. मन की नदियां बांध लांघ बहती हैं.’’
यक्ष और मेंघ की विरह व्यथा :-
कालिदास ने जब आषाढ़ के पहले दिन आकाश पर मेघ उमड़ते देखे तो उनकी कल्पना ने उनसे यक्ष और मेघ के ज़रिए उनकी विरह-व्यथा को दर्ज करते हुए ‘मेघदूत’ की रचना करवा डाली. उनका विरही यक्ष अपनी प्रियतमा के लिए छटपटाने लगा और फिर उसने सोचा कि शाप के कारण तत्काल अल्कापुरी लौटना तो उसके लिए सम्भव नहीं है. इसलिए क्यों न संदेश भेज दिया जाए. कहीं ऐसा न हो कि बादलों को देखकर उनकी प्रिया उसके विरह में प्राण त्याग दे. कालिदास की कल्पना की यह उड़ान उनकी अनन्य कृति बन गई. कालिदास की इस बेजोड़ कृति की अनगिनत विवेचाएं हुईं, मीमांसा हुई. मैथिली के प्रसिद्ध कवि बाबा नागार्जुन ने अपनी कविता के द्वारा कालिदास से यहां तक पूछ लिया-
“कालिदास, सच-सच बतलाना!
इन्दुमती के मृत्युशोक से
अज रोया या तुम रोये थे?
वर्षा ऋतु की स्निग्ध भूमिका
प्रथम दिवस आषाढ़ मास का
देख गगन में श्याम घन-घटा
विधुर यक्ष का मन जब उचटा
खड़े-खड़े तब हाथ जोड़कर
चित्रकूट से सुभग शिखर पर
उस बेचारे ने भेजा था
जिनके ही द्वारा संदेशा
उन पुष्करावर्त मेघों का
साथी बनकर उड़ने वाले
कालिदास, सच-सच बतलाना!
बारह महीने के ऋतुचक्र:-
आषाढ़ का माहौल बाधा, संकोच और वर्जना तोड़ता है. साधु- संत भी इस दौरान समाज से कट चौमासा मनाते थे. आयुर्वेद भी मानता है कि वर्षा में मनुष्य के भीतर रस का संचार ज्यादा होता है. वर्षा ऋतु मात्र प्रेम और मादकता का प्रतीक नहीं है. हमारे यहाँ इससे समाज और अर्थशास्त्र भी नियंत्रित होता था. इस मौसम पर पूरे साल का अर्थशास्त्र निर्भर होता था. जल प्रबंधन के सारे इंतजाम इसी दौरान होते थे. मौसम का राजा बसंत भले हो, पर वर्षा ऋतु लोक गायकों की पहली पसंद है. बारह महीने के ऋतुचक्र को वर्षा से ही बाँधा गया है, तभी तो ऋतुचक्र को वर्ष कहा जाता है. कालिदास का यक्ष भी इसे जानता था. वह मेघदूत से कहता है कि उसका संदेश मध्यभारत के रत्नागिरि से हिमालय की तराई में अल्कागिरि तक पहुंचाएं. उसे मालूम था कि अकेला बादल इतना लंबा सफर नहीं तय कर सकता. यक्ष के पास समाधान था, वह बादलों से कहता है कि रास्ते में पड़ने वाली नदियों पर विश्राम करते हुए जाना. 
लोक-राग-रागनियों के संगुंफन :-
छांदोग्योपनिषद् में मेघों के बरसने को उद्गीथ कहा गया है, वर्षा प्रकृति की छांदासिक रचना तो है ही, वह उसे गाती भी है, इसलिए वर्षा अनेक लोक-राग-रागनियों के संगुंफन से अपना एक विराट् राग-चक्र बनाती है. वर्षा का एक राग है – मलार, जिसे मल्हार भी कहा जाता है. यह उमड़-घुमड़ कर गाया जाने वाला राग है. बाद में यह शास्त्रीय रंगत में निबद्ध हो गया, जिसे मेघ मल्हार और मियाँ मल्हार भी कहा गया. बाबा नागार्जुन ने अमल धवल गिरी के शिखरों पर जिन बादलों को घिरते देखा था, वे कहां गए? अब तो बस उनकी स्मृतियां शेष हैं और बाबा की लेखनी में कसक समाई हुई है -
“अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है.
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है.”
            ये बादल घिर घिरकर छिप जाते हैं, हमें चिढ़ाते हैं. प्रकृति न जाने कौन सा संदेश देना चाहती है. बदलते वक्त ने शायद मानसून को भी बदल डाला है, सिर्फ जमीन ही नहीं सूखी है, जीवन भी सूखा सा है. बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा है मल्हार गाने वाले मेघों की. काश! वे घुमड़कर आएं, उमड़कर बरसें और मन-जीवन का कोना कोना भिगा दें. ऐसी झूमकर बारिश हो कि उसमें ये ‘काश’ भी भीग जाए.
          कालिदास का प्रियतमा को संदेश ‘आषाढ़स्य प्रथम दिवसे’ भी अर्थहीन हो गया है. आज अषाढ़ का पहला दिन है. दूर दूर तक मेघ का कोई टुकड़ा नहीं दिख रहा है. पूरा आकाश धूं-धूं कर जल रहा है. न जाने अब कब इस जलते आकाश पर बिजली टूटेगी? कवि दुष्यंत याद आते हैं- 
“बरसात आ गई तो दरकने लगी ज़मीन
सूखा मचा रही है ये बारिश तो देखिए”
 वाकई सूखा मचाती बारिशें ऐसी ही होती हैं. 
           कुछ इसी प्रकार की कवि भवानी प्रसाद मिश्र की अभिव्यक्ति है --
हवा का ज़ोर वर्षा की झड़ी, झाड़ों का गिर पड़ना
कहीं गरजन का जाकर दूर सिर के पास फिर पड़ना
उमड़ती नदी का खेती की छाती तक लहर उठना
ध्वजा की तरह बिजली का दिशाओं में फहर उठना
ये वर्षा के अनोखे दृश्य जिसको प्राण से प्यारे
जो चातक की तरह तकता है बादल घने कजरारे
जो भूखा रहकर, धरती चीरकर जग को खिलाता है
जो पानी वक्त पर आए नहीं तो तिलमिलाता है
अगर आषाढ़ के पहले दिवस के प्रथम इस क्षण में
वही हलधर अधिक आता है, कालिदास से मन में
तो मुझको क्षमा कर देना.


Tuesday, June 14, 2022

कांग्रेस द्वारा भारत के विभाजन का दुखद इतिहास डा. राधे श्याम द्विवेदी

आज ही के दिन कांग्रेस ने 1947 में 14-15 जून को नयी दिल्ली में हुए अपने अधिवेशन में बंटवारे के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी।इसे देश के बंटवारे को इतिहास की सबसे दुखद घटनाओं में शुमार किया जाता है। यह सिर्फ दो मुल्कों का नहीं बल्कि घरों का, परिवारों का, रिश्तों का और भावनाओं का बंटवारा था। रातोरात लाखों लोगों की तकदीर बदल गई। कोई बेघर हुआ तो किसी को नफरत की तलवार ने काट डाला। किसी का भाई सीमापार चला गया तो कोई अपने परिवार को छोड़कर इस ओर चला आया। एक रात पहले तक भाइयों की तरह रहने वाले दो समुदायों के लोग हमसाए से अचानक दुश्मन बन गए और इस बंटवारे ने दोनो समुदायों के लोगों के दिलों में नफरत की ऐसी खाई खोद दी, जिसे पाटने की कोई कोशिश आज तक कामयाब नहीं हो पा रही है।
दुखद इतिहास का महत्वपूर्ण दिन 
बंटवारे के उस दुखद इतिहास में 15 जून का दिन इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि कांग्रेस ने 1947 में 14-15 जून को नयी दिल्ली में हुए अपने अधिवेशन में बंटवारे के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी। आजादी की आड़ में अंग्रेज भारत को कभी न भरने वाला यह जख्म दे गए।15 जून. यह वही तारीख है जिस दिन कुछ लोगों के 'निजी स्वार्थ' के लिए एक सियासी लकीर खींचने पर सहमति बनी थी. वही लकीर जिसने सबकुछ तक़सीम कर दिया था. तकसीम मुल्क़ को, क़ौम को, रिश्तों को, मुहाफ़िज़ों को, नदिओं-तलाबों को और सबसे ज़रूरी इंसानों को. एक खूनी खेल खेला गया. हिन्दुस्तान नाम का जिस्म बंट गया और एक हिस्सा पाकिस्तान बन गया. इक़बाल की पेशीन गोई और जिन्ना का ख़्वाब ताबीर की जुस्तजू में भटकता हुआ पंजाब के उस पार पहुंच गया. कई कारवां अपने अनजाने मंजिल की तरफ रवाना हो गए.
15 जून 1947 ही वो तारीख है जब अखिल भारतीय कांग्रेस ने नई दिल्ली में भारत के विभाजन वाली ब्रितानिया सरकार की योजना को स्वीकार किया था. इस विभाजन की योजना को माउंटबेटन योजना के रूप में भी जाना जाता है. इस योजना की घोषणा भारत के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा की गई थी. अगस्त 1947 में भारत का विभाजन निस्संदेह सबसे दुखद और हिंसक घटनाओं में से एक है. दरअसल पाकिस्तान के निर्माण की वकालत ऑल इंडिया मुस्लिम लीग जिसे 1906 में ढाका में स्थापित किया गया था, उसने की थी. इसके मुसलमान सदस्यों की राय थी कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुस्लिम सदस्यों को हिंदू सदस्यों के जैसे समान अधिकार प्राप्त नहीं हैं. कांग्रेस उनके साथ भेदभाव करती है.
विभाजन की पृष्ठभूमि
1930 में मुसलमानों के लिए एक अलग राज्य की मांग करने वाले पहले व्यक्ति अल्लामा इकबाल थे, जिनका उस वक्त मानना था कि 'हिंदू बहुल भारत' से अलग मुस्लिम देश बनना महत्वपूर्ण है.अल्लामा इकबाल ने मुहम्मद अली जिन्ना और ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर एक नए मुस्लिम राज्य के गठन के लिए एक प्रस्ताव तैयार किया. 1930 तक, मुहम्मद अली जिन्ना, जो लंबे समय से हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए प्रयासरत थे, अचानक भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति के बारे में चिंतित होने लगे. इसके लिए वो कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराने लगे, जिसके एक वक्त पर वो खुद भी सदस्य थे. उन्होंने कांग्रेस पर देश के मुसलमानों के साथ भेदभाव का आरोप लगाया. 1940 में लाहौर सम्मेलन में, जिन्ना ने एक अलग मुस्लिम देश की मांग करते हुए एक बयान दिया. उस समय के सभी मुस्लिम राजनीतिक दल, जैसे खाकसार तहरीक और अल्लामा मशरिकी धार्मिक आधार पर भारत के विभाजन के पक्ष में नहीं थे. अधिकांश कांग्रेसी नेता धर्मनिरपेक्ष थे और देश के विभाजन का भी विरोध करते थे. महात्मा गांधी धार्मिक आधार पर भारत के विभाजन के खिलाफ थे और उनका मानना ​​था कि हिंदुओं और मुसलमानों को एक देश में शांति से एक साथ रहना चाहिए. गांधी ने मुसलमानों को कांग्रेस में बनाए रखने के लिए भी संघर्ष किया, जिनमें से कई ने 1930 के दशक में पार्टी छोड़ना शुरू कर दिया था.
1940 तक पाकिस्तान की परिभाषा अस्पष्ट थी और इसकी दो तरह से व्याख्या की जा रही थी. एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में या संघबद्ध भारत के सदस्य के रूप में. 1946 में, एक कैबिनेट मिशन ने एक विकेन्द्रीकृत राज्य का सुझाव देकर कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच समझौता करने की कोशिश की. इस सुझाव में कहा गया कि स्थानीय सरकारों को पर्याप्त शक्ति दी जाएगी. जवाहर लाल नेहरू ने एक विकेंद्रीकृत राज्य के लिए सहमत होने से इनकार कर दिया और जिन्ना ने पाकिस्तान के एक अलग राष्ट्र की अपनी इच्छा को बनाए रखा.
ब्रितानियां हुकूमत की साजिश
ब्रितानियां हुकूमत ने भारत को दो अलग-अलग भागों में विभाजित करने की माउंटबेटन की योजना को पूरा कर लिया. 3 जून 1947 को लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा स्वतंत्रता की तारीख, 15 अगस्त 1947 तय की गई थी. 15जून 1947 को माउंटबेटन योजना पारित की गई और विभाजन के निर्णय को अखिल भारतीय कांग्रेस के सदस्यों ने स्वीकार कर लिया. पंजाब और बंगाल राज्यों को विभाजित किया गया. पश्चिम पंजाब का अधिकांश मुस्लिम हिस्सा पाकिस्तान का हिस्सा बन गया जबकि पश्चिम बंगाल अपने हिंदू बहुमत के साथ भारत में बना रहा. मुख्य रूप से मुस्लिम बहुल पूर्वी बंगाल पाकिस्तान का हिस्सा बन गया. यही हिस्सा बाद में पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश बन गया.
हिंसा और अराजकता का बोलबाला
भारत की स्वतंत्रता और रेडक्लिफ रेखा द्वारा देश के दो हिस्सों में विभाजन से बड़े पैमाने पर हिंसा हुई. लाखों लोग बेघर हुए. अधिकतर भारतीय मुसलमान पाकिस्तान में अपने 'नव निर्मित देश' जा रहे थे तो वहीं हिंदू और सिख जो अब पाकिस्तान में थे, भारत में आ रहे थे. विभाजन ने लाखों की जिंदगियां तबाह कर दी. लाखों को बेघर कर दिया. साम्प्रदायिक हिंसा का डर हर किसी को सता रहा था. भारत के विभाजन के कारण हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बड़े पैमाने दंगे हुए, जिसके परिणामस्वरूप अंतहीन हत्याएं, बलात्कार और अपहरण हुए.
नफरत की खाई काम होने के बजाय बढ़ती जा रही है। इतना ही नहीं 1947 में दोनों मुल्क़ों के बीच जो नफरत की बीज बो दी गई वो आज एक बड़ा खतरनाक पेड़ बन गया है. पुराने लोगों ने एसी दुश्चक्र रच दिया है और उसकी नीव में इतना जहर घोल दिया है कि भारत के बाहर के साथ यहां रह रहे कुछ सांप्रदायिक शक्तियां निरन्तर अपना दबदबा और एकाधिकार बनाए रखना चाहता है।गंगा जमुनी तहबीज, सेकुलर की मनमानी अवधारणा, कांग्रेसी और कम्यूनिष्ट राजनीति और न्यायपालिका में मजबूत पकड़ अभी भी इस देश के सम्यक विकास में अवरोध उत्पन्न कर रहा है।

 

विश्व बुजुर्ग दुर्व्यवहार जागरूकता दिवस डा. राधे श्याम द्विवेदी


बुजुर्गों की होती है ,अजीब सी कहानी ।
खाने को रोटी नहीं ,आंखों से टपके पानी ।
शरीर से हारे हैं ये, मन के अभी जवान हैं।
घर में बुजुर्ग जरूरी, क्योंकि ये भी भगवान है।।

किस्मत वाले होते जग में 
सिर पर बुजुर्गों का हाथ हो ।
वह घर घर नहीं रह जाता 
जहां ना बुजुर्ग का साथ हो।।

        हमारे बड़े बुजुर्गों का सम्मान, उनकी हुजूरी की खनक, जिसमें हमारा घर परिवार, गांव, शहर खुशहाली से हरा भरा रहता है, गमों की कोई सिलवट नहीं होती क्योंकि हमारे बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद, उनकी खुशी, दुआ हमारे लिए वह अक्षुण्य ख़ज़ाना है जिसके सामने सांसारिक मायावी खजाना कुछ नहीं है क्योंकि हमारी हजारों वर्षों पूर्व की संस्कृति नें ही हमें सिखाया है, बड़े बुजुर्गों की सेवा उनका सम्मान के तुल्य इस सृष्टि में कोई पुण्य और आध्यात्मिक सुख नहीं।
            बदलते परिवेश में और पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रकोप से इस आधुनिक डिजिटल युग में माता-पिता बड़े बुजुर्गों का आंकलन कम होते जा रहा है और दिखावों के स्तर पर बाहरी माहौल में आर्थिक शारीरिक मानसिक सेवाएं प्रदान कर अपने आप को महादानी करार दिए जाने की प्रथा चल पड़ी है जबकि घर के बड़े बुजुर्गों को हाशिए पर रखकर उनके विचारों को पुराना ज़माना बताकर अपमानित किया जाता है घर से निकाल दिया जाता है, वृद्धआश्रम में शिफ्ट किया जाता है। 
        हर साल 15 जून को विश्व स्तर पर मनाया जाता है. यह दिन बुजुर्ग लोगों के साथ दुर्व्यवहार और पीड़ा के विरोध में आवाज उठाने के लिए मनाया जाता है. इस दिन का मुख्य उद्देश्य दुनिया भर के समुदायों को बुजुर्गों के दुर्व्यवहार और उपेक्षा को प्रभावित करने वाली सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और जनसांख्यिकीय प्रक्रियाओं के बारे में जागरूकता पैदा करके दुर्व्यवहार और उपेक्षा की बेहतर समझ को बढ़ावा देने का अवसर प्रदान करना है. इंटरनेशनल नेटवर्क फॉर द प्रिवेंशन ऑफ एल्डर एब्यूज (INPEA) के अनुरोध के बाद संयुक्त राष्ट्र के संकल्प 66/127 को दरकिनार करते हुए दिसंबर 2011 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा आधिकारिक तौर पर इस दिन को मान्यता दी गई थी.विश्व बुजुर्ग दुर्व्यवहार जागरूकता दिवस 15 जून 2022 पर विशेष है। बुजुर्गों को के साथ दुर्व्यवहार की गंभीरता को रेखांकित करना वर्तमान समय की मांग है। बड़े बुजुर्गों की सेवा और सम्मान के तुल्य इस सृष्टि में कोई पुण्य और आध्यात्मिक सुख नहीं।
       

‘ बाबूजी’ श्री शोभा राम दूबे एक कुशल और सख्त अधिकारी

       

                        स्मृतिशेष श्री शोभा राम दुबे 
    (जन्म: 15 जून 1929: स्वर्गारोहण 17 जनवरी 2011)

मेरे बाबूजी का नाम शोभाराम दूबे था, जिन्हें हम बचपन से बाबू ही कहकर पुकारा करते थे। इनका जन्म 15 जून 1929 . को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिला के हर्रैया तहसील के कप्तानगंज विकास खण्ड के दुबौली दूबे नामक गांव मे एक कुलीन परिवार में हुआ था। उन्होने 1945 में लखनऊ के क्वींस ऐग्लो संस्कृत हाई स्कूल से हाई स्कूल की परीक्षा उस समयप्रथम श्रेणीसे अंग्रेजी, गणित, इतिहास एवं प्रारम्भिक नागरिकशास्त्र आदि अनिवार्य विषयों तथा हिन्दी और संस्कृत एच्छिक विषयों से उत्तीर्ण की है। इन्टरमीडिएट परीक्षा 1947 में कामर्स से द्वितीय श्रेणी में अंग्रेजी, बुक कीपिंग एण्ड एकाउन्टेंसी, विजनेस मेथेड करेस पाण्डेंस, इलेमेन्टरी एकोनामिक्स एण्ड कामर्सियल ज्याग्रफी तथा स्टेनो- टाइपिंग विषयों से उत्तीर्ण किया था।

बाबू से अफसर तक का सफर

बाबूजी सहकारिता विभाग में सरकारी सेवा में लिपिक पद पर नियुक्ति पाये थे। बाद में बाबूजी ने विभागीय परीक्षा देकर लिपिक पद से आडीटर के पद पर अपनी नियुक्ति करा लिये थे। बाबूजी अपने सिद्धान्त के बहुत ही पक्के थें उन्होने अनेक विभागीय अनियमितताओं को उजागर किया था इसका कोपभाजन भी उन्हें बनना पड़ा था।

यूपी से उत्तराखंड तक दो दो जिले का प्रभार

उस समय उत्तराखण्ड उत्तरप्रदेश का ही भाग था। बाबूजी को टेहरी गढ़वाल और पौड़ी गढ़वाल भी जाना पड़ा था। बाबूजी का आडीटर के बाद सीनियर आडीटर के पद पर प्रोन्नति पा गये थे। सीनियर आडीटर के जिम्मे जिले की पूरी जिम्मेदारी होती थी। बाद में यह पद जिला लेखा परीक्षाधिकारी के रुप में राजपत्रित हो गया। कभी- कभी बाबूजी को दो- दो जिलों का प्रभार भी देखना पड़ता था। जब कोई अधिकारी अवकाश पर जाता था तो पास पड़ोस के अधिकारी के पास उस जिले का अतिरिक्त प्रभार भी संभालना पड़ता था। 1975  में बाबूजी ने अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद से बी. . की उपधि प्राप्त की थी।बाबूजी अपने सिद्धान्त के बहुत ही पक्के थें उन्होने अनेक विभागीय अनियमितताओं को उजागर किया था । इसका कोप भाजन भी उन्हें बनना पड़ा था। प्रताड़ना स्वरूप उनकी उल्टी -सीधी पोस्टिंग दी जाती रही। टेहरी गढ़वाल और पौड़ी गढ़वाल जो उस समय यूपी में था, की चढ़ाई करना पड़ा था। 

 'स्टेटऑफ़ यूपी बनाम विश्वनाथ कपूर'

फैजाबाद में सहकारिता विभाग का एक बहुत बड़ा घोटाला जिसमें कांग्रेसी नेता विश्वनाथ कपूर संलिप्त थे,बाबूजी के द्वारा ही उजागर हुआ था। अयोध्या का क्षेत्र फैजाबाद सदर विधानसभा क्षेत्र के तहत तब आता था।1967 के चुनाव में अयोध्या अलग विधान सभा सीट बना था। जहां 1969 में कांग्रेस के विश्वनाथ कपूर जीतने में कामयाब रहे।1969 में आईएनसी के विश्वनाथ कपूर 19569 तथा उनके प्रतिद्वंदी बीकेडी के राम नारायण त्रिपाठी को 15652 मत मिले थे।उनके द्वारा हुए घोटाले का स्थानीय और फिर उच्च न्यायालय में विचारण हुवा था। जिला सहकारी बैंक फैजाबाद, जिसमें श्री विश्वनाथ कपूर, अधिवक्ता प्रबंध निदेशक थे और श्री जोखान सिंह कैशियर थे और एलन खान कार्यवाहक प्रबंधक थे और महराज बक्स सिंह सामग्री समय पर सहायक लेखाकार थे, राज्य अधिनियम द्वारा या उसके तहत स्थापित एक निगम है और , इसलिए उक्त आरोपी व्यक्ति भारतीय दंड संहिता की धारा 21 खंड 12वीं के अर्थ में लोक सेवक थे।भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अधीन हाई कोर्ट में  ''स्टेट ऑफ़ यूपी बनाम विश्वनाथ कपूर'' और अन्य केस चला था। इसका निस्तारण 14 जनवरी 1980 को न्यायमूर्ति टी मिश्रा द्वारा हुवा था। इस संदर्भित प्रश्न का न्यायमूर्ति का उत्तर इस प्रकार रहा है- यूपी सहकारी समिति अधिनियम के तहत पंजीकृत एक सहकारी समिति एक केंद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियम द्वारा या उसके तहत स्थापित निगम नहीं है ।इस उत्तर के साथ कागजात माननीय एकल न्यायाधीश के समक्ष रखे जाने का आदेश पारित किया गया था।उक्त आरोपी व्यक्ति भारतीय दंड संहिता की धारा 21 खंड 12वीं के अर्थ में लोक सेवक थे।वे इस घोटाले के जिम्मेदार बनाए गए।

इस प्रकार विभागीय घोटालों को प्रकाश में लाने पर मुख्य लेखा परीक्षा अधिकारी श्री अवधेश चंद्र दुबे ने बाबू जी को लखनऊ में बुलाकर सिस्टम को सुधारने को छोड़ अपना कार्यकाल सामान्य रूप में बिताने की नसीहत दी थी।

         बाबूजी का आडीटर के बाद सीनियर आडीटर के पद पर प्रोन्नति पा गये थे। सीनियर आडीटर के जिम्मे जिले की पूरी जिम्मेदारी होती थी। बाद में यह पद जिला लेखा परीक्षाधिकारी के रुप में राजपत्रित हो गया। कभी- कभी बाबूजी को दो- दो जिलों का प्रभार भी देखना पड़ता था। जब कोई अधिकारी अवकाश पर जाता था तो पास के अधिकारी के पास उस जिले का अतिरिक्त प्रभार भी संभालना पड़ता था। बहराइच में सेवा के दौरान 1975 में बाबूजी ने अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद से बी. ए. की उपधि प्राप्त की थी।  17 जनवरी 2011 को वह महान आत्मा हमेशा हमेशा के लिए हमसे दूर होकर परम तत्व में बिलीन हो गया। उनकी प्रेरणा व स्मृतियां आज भी मेरे व मेरे परिवार को सम्बल प्रदान करती है। बाबूजी के 94वी साल गिरह जो 15 जून को मैं उन्हें सादर नमन करता हूं और स्मृतियों में उन्हे अपने साथ पाते हुए उनके बताये हुए रास्ते पर चलने का प्रयत्न करता हू।उनके पुण्य प्रताप से आज मेरा खुशहाल भरा पूरा परिवार उन्हें श्रद्धावनत हो रहा है। परम धाम से उनकी सदैव कृपा दृष्टि बनी रहे। बाबू जी को परमधाम गए ग्यारह वर्ष व्यतीत हो गए।उनकी जन्म तिथि पर श्रद्धा के प्रसून अर्पित करते हुए उनके शांतिमय पारलौकिक जीवन की परमपिता से प्रार्थना करता हूं।

 

 

 

Friday, June 10, 2022

राम की पौढ़ी अयोध्‍या को दुर्घटनाओं से बचाएं डा. राधे श्याम द्विवेदी

प्राचीन समय में राम की पौढ़ी वाले स्थल पर सरयू बहती थीं, भगवान राम समेत चारों भाई यहीं स्नान करते थे। धीरे धीरे नदी और उत्तर को हटती चली गई और सारे पुराने घाट सूख गए। राम घाट ,जानकी घाट और बासुदेव घाट पर पहले कभी नदी सटकर बहती थी ।आज ये सब आबादी वाले क्षेत्र हो गए हैं और नदी राम की पौड़ी वाले क्षेत्र में आ गई थी। जब से अयोध्या कटरा गोण्डा को जाने वाला पक्का पुल बना है पौड़ी के घाट से पानी हट गया है। पौड़ी स्थल की वास्‍तविक सीढि़या या पौढि़यां, मूसलाधार बारिश में या नदी के तेज बहाव में बह गई थी। यहां सूखे घाट रह गए थे। नया घाट समूह स्थित वर्तमान नदी के किनारे सारे घाट स्थानतरित हो गए। राम की पौड़ी वाला वर्तमान स्थल सुना साना हो गया था।चोर उच्चकों की वारदातें होने लगी थी। बीर बहादुर सिंह के मुख्य मंत्री काल में एक बार परिक्रमा के दौरान भगदड़ में यहीं पर बहुतों की जान चली गई थी। इस घाट की नई सीढि़यों को 1984 - 1985 में उत्‍तर प्रदेश के तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री श्री श्रीपति मिश्रा और उनके सिंचाई मंत्री श्री वीर सिंह बहादुर के संयुक्‍त प्रयास से बनवाया गया था। घाट के लिए पानी सरयु नदी से मोटर पंपों से खिंचा जाता है। घाटों का रखरखाव और पानी की नियमित आपूर्ति, उत्‍तर प्रदेश सरकार के सिंचाई विभाग के डिवीजन के द्वारा किया जाता है। 
राम की पौढ़ी अयोध्‍या में ठीक उसी तरह है जैसे हरिद्वार में हर की पौढ़ी है। यहां पास में नयाघाट है जहां श्रद्धालु अयोध्‍या में सरयु नदी में स्‍नान करते है। इस घाट पर भारी संख्‍या में भक्‍त स्‍नान करने आते हैं और पवित्र नदी में पवित्र डुबकी लगाते है।राम की पौढ़ी में श्री राम से जुड़े समारोह के दौरान श्रद्धालुओं की भारी भीड़ आती है। लोग यहां आकर सरयु के पवित्र जल में स्‍नान करते हैं और मानते हैं कि इससे उनके पाप धुल जाते है। कहा जाता है कि स्वर्गद्वार की शुरूआत इसी पैड़ी से होती है, नागेश्वरनाथ इसी के तट पर स्थित है। यहीं से अयोध्या के ऐतिहासिक मंदिरों की शुरूआत होती है। इसके अलावा सरयू की लहरों में आए दिन डूबने की घटनाएं को देखते हुए पैड़ी में नहाना मुफीद होगा क्योंकि यहां गहराई मात्र 4 से 6 फिट ही है। अब राम की पैड़ी की जलधारा अविरल एवं स्वच्छ होगी तो वहीं इसमें डूबने का खतरा भी कम होगा। सरयू नहर खंड के अवर अभियंता जितेंद्र प्रताप ने बताया कि पैड़ी पर 64 मीटर का नया घाट बनाया गया है। साथ ही पैड़ी की गहराई मात्र 4 से 6 फिट की है । पानी जहां फ्लो होना है वहां आरसीसी बेड बनाए गए हैं।
सहस्रधारा घाट पर पंप हाउस बनाया गया है जहां से सरयू का पानी राम की पैड़ी में अविरल रूप से प्रवाहित हो रहा है । पानी का बहाव 80 सेमी प्रतिसेंकड के अनुसार है । पैड़ी का जल स्वच्छ एवं अविरल होगा इसलिए इसमें स्नान किया जा सकेगा, क्योंकि पैड़ी में भी सरयू की जलधारा ही प्रवाहित होगी। राम की पैड़ी अब श्रद्धालु, भक्तों के साथ पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र रहेगी। पैड़ी के पंप हाउस की क्षमता 6 गुना बढ़ा दी गई है। 
आज के समय लक्ष्मण घाट सहस्र धारा घाट नया सरयू घाट से लेकर चौधरी चरण सिंह घाट तक पौड़ी का विस्तार किया गया है। जिसमे प्रायः 5 बजे से लेकर रात 10 बजे तक पंप द्वारा पानी नदी से निकल कर कृत्रिम झील में अनवरत प्रवाहित किया जाता है। सहस्र धारा घाट पर पंप लगा है।
पिकनिक स्पॉट ना बनाए
अयोध्या के सरयू तट पर स्थित राम की पैड़ी पर इन दिनों अलग ही नजारा देखने को मिल रहा है.इस भीषण गर्मी से बचने के लिए लोग राम की पौड़ी में स्नान कर रहे हैं.साथ ही कुछ युवा चिलचिलाती धूप से बचने के लिए सरयू की जल धारा के साथ खेल रहे हैं.अब राम की पैड़ी एक बेहतरीन पिकनिक स्पॉट बन गया है.यहां अयोध्या सहित आसपास जनपद से बड़ी संख्या में लोग पहुंच रहे हैं.तो वहीं अब सरयू के जल से आचमन कर लोग अपने आप को धन्य मान रहे हैं.
सावधानी हटी दुर्घटना घटी
आसपास के जिलों के सैकड़ों युवक और युवतियां पौड़ी के ऊपर बने पुल से पौड़ी के जल में कूदते हैं और खूब हो हल्ला मचाते हैं। जहां से धारा के रूप में जल प्रवाहित होता है उस मुहाने पर पानी को रोक कर झरने का आनन्द उठाते हैं।जो इनका मनोरंजन तो करता है पर पौड़ी के दोनो किनारे आते जाते वा नहाते हुए श्रद्धालुओं को अच्छा नहीं लगता है।जो दिव्यता का भाव लेकर श्रद्धालु यहां आता है वह सब काफूर हो जाता है।यहां तक कि सरयू आरती के श्रद्धालु भी स्वं को असहज महाशूस करते हैं।
डूबने की घटनाएं बढ़ी
इस संचित और प्रवाह वाले जल में डूबने की भी घटनाएं आए दिन होती रहती है। 13 जुलाई 2020 को राम की पैड़ी के रिमॉडलिंग के बाद स्नान के दौरान पहली बार दो युवकों की डूबकर मौत हो गई। जो 14 जूलाई 2020 के पेपरों की हेडिग बने। हालांकि पैड़ी की गहराई महज चार फीट ही है लेकिन प्रवाह काफी तेज है। जल पुलिस ने दोनों युवकों को राम की पैड़ी से निकाला और फिर उन्हें श्रीराम अस्पताल पहुंचाया गया, जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। एसी ही एक घटना
14 मार्च 2022 को भी हुई जो 15 मार्च 2022 के पेपर की हेडिंग बनी । पड़ोसी जिले गोंडा से चार दोस्तों के साथ अयोध्या आए एक किशोर की सुबह राम की पैड़ी में स्नान करते समय डूबने से मौत हो गई। घाट पर तैनात गोताखोरों ने बड़ी मशक्कत के बाद शव पानी से निकाला। अयोध्या कोतवाली देवेंद्र पांडेय ने बताया कि साथ आए दोस्तों से पूछताछ में किशोर की शिनाख्त हुई। जानकारी के अनुसार गोण्डा के गायत्रीपुरम का रहने वाला प्रखर सिंह पुत्र पंकज सिंह अपने दोस्तों के साथ अयोध्या दर्शन के लिए आया था। इसी दौरान साथियों ने सरयू स्नान का कार्यक्रम तय किया। चारों दोस्त राम की पैड़ी स्थित घाट पर स्नान के लिए उतर गए। कोतवाल ने बताया कि दोस्तों से मिली जानकारी के अनुसार प्रखर तैरते तैरते राम की पैड़ी स्थित पंप हाउस के पास स्थित गहरे पानी तक पहुंच गया। गहरे पानी में खुद को संभाल नहीं सका और डूब गया। दोस्तों ने हल्ला मचाया तो घाट पर तैनात गोताखोरों और नाविकों ने तलाश कर लाश को निकाला था ।
कोतवाली अयोध्या अंतर्गत 27 मई 2022 को आरती घाट पर एक दूसरे को बचाने के चक्कर में डूब रहे एक ही परिवार के तीन लोगों को सुरक्षित बचा लिया गया। इनमें एक 15 साल बालक भी शामिल है। परिवार के लोग यहां अयोध्या दर्शन के लिए आए थे। सरयू स्नान के दौरान यह घटना हुई। पुलिस ने बचाए गए परिवार को सुरक्षित उनके घर हरैया बस्ती भेज दिया है।
     जानकारी के अनुसार बस्ती हरैया से एक परिवार यहां दर्शन पूजन करने आया था। इस दौरान सभी लोग सरयू स्नान के लिए आरतीघाट गए। बताया जाता है कि वहां सभी स्नान कर रहे थे कि बालक का पैर फिसल गया, जिससे वह डूबने लगा। इसे देख परिवार के दो लोग भी उसे बचाने के लिए नदी में चले गए लेकिन वे भी डूबने लगे।
       हल्ला गोहार पर जल पुलिस और स्थानीय गोताखोरों ने तत्काल नदी में कूद कर तीनों को सुरक्षित बाहर निकाल लिया। बचाए गए लोगों में अभिषेक यादव और बालक दिव्यांश समेत एक महिला शामिल हैं। जल पुलिस के निरीक्षक आरपी कुशवाहा ने बताया कि परिवार के लोगों ने जल पुलिस का आभार भी जताया।
राम की पैड़ी में 9 जून 2022 को पांच वर्षीय बालक की डूबने से मौत हो गयी। बच्चा जौनपुर से अयोध्या परिवार के साथ आया था।राम की पैड़ी पर स्न्नान के दौरान हादसा हुआ। परिवार को बालक के डूबने की भनक नही लगी।परिजनों ने कई घंटे खोजने के बाद पुलिस को सूचना दी।पुलिस अयोध्या की सड़कों पर बच्चे की तलाश करती रही। देर रात राम की पैड़ी पर शव उतराता मिला।स्थानीय लोगो ने पुलिस को सूचित किया।परिजनों का रो रो कर बुरा हाल है।
घाट पर गहराई के बाबत चेतावनी लिखी हुई है जिसे युवक नजरंदाज कर देते हैं और दुर्घटनाओं को आमंत्रित कर बैठते हैं। यहां जो पुलिस रहती भी है वह इन युवकों को रोकने की जहमत नहीं उठाती है। यहां स्थाई चौकी होनी चाहिए। 
इन युवकों को रोकने तथा चालान की करवाही की जानी चाहिए।यदि इस प्रकार की व्यवस्था रहेगी तो आगे दुर्घटनाएं नही होगी। आगंतुकों में अच्छी छवि भी जायेगी।



Thursday, June 9, 2022

महुवा डाबर : एक और जलियावालाबाग की अनकही कहानी डा. राधे श्याम द्विवेदी

       1857 के स्वतंत्रता आन्दोलन में बस्ती मण्डल का योगदान सामान्य ही रहा। जिस समय यह जिला बना था उस समय यह गोरखपुर का भाग था। इसका कोई नागरिक केन्द्र नहीं था। इसके इतिहास को गोरखपुर के इतिहास से अलग करके नहीं देखा जा सकता है साथ ही गोण्डा एवं फैजाबाद से भी अलग करके नहीं देखा जा सकता है। गोरखपुर से संयुक्त रहते हुए बस्ती के स्मारकों के विवरण खोजे जाते रहे हैं। 1857 के विद्रोह के समय पूरे देश में अंगे्रजों पर संकट के बादल मड़राने लगे थे। सभी अंग्रेज जान बचााकर भाग रहे थे। उन्हें व उनके परिवार पर संकट बरकरार था। बस्ती कल्कट्री पर पहले अफीम तथा ट्रेजरी की कोठी हुआ करती थी। यहां 17वीं नेटिव इनफेन्ट्री की एक टुकड़ी सुरक्षा के लिए लगाई गई थी। इस यूनिट का मुख्यालय आजमगढ बनाया गया था।       समूचा उत्तर भारत आजादी के विद्रोह के चपेट में आ गया था। दिल्ली , मेरठ तथा अन्य कई स्थानों पर 10 मई 1857 से ही विद्रोह की चिनगारी सुलगने लगी थी। 31 मई को घाघरा नदी पर वहां के जमींदार ने रास्ता अवरूद्ध कर दिया था। नरहरपुर के राजा इन्द्रजीत सिंह ने 50 कैदियों को जेल से मुक्त करवा दिया था। 5 जून को आजमगढ़ में आन्दोलन शुरू हो गया था। 6 जून को सिपाहियों ने अधिकारियों का कहा मानने से इनकार कर दिया था। 7 जून को कैदियों ने जेल से भागने की कोशिश की थी तो 20 कैदी मारे गये थे। गोरखपुर के सिपाहियों ने 8 जून को राजकोष लूटने की कोशिश की थी। कैप्टन स्टील और उनकी 12वीं अश्वारोही सिपाहियों को घरों में शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था। 8 एवं 9 जून को फैजाबाद तथा गोण्डा के सिपाहियों अंगे्रजों के विरुद्ध हो गये थे। सब जगहों पर सड़कें अवरुद्ध कर ली गई थीं।         इधर बस्ती जिलें में 5 जून 1857 तक आते आते विद्रोह पूरी तरह भड़क उठा था। 22 भारतीय पैदल सेना के अधिकारी व सिपाही 8 जून को फैजाबाद छावनी पर कब्जा कर लिये थे। 17 वीं पैदल वाहिनी के सिपाहियों व अधिकारियों का एक दल 9 जून को आजमगढ़ से चलकर फैजाबाद पहुंच चुका था। फैजाबाद से सभी अंग्रेज अधिकारियों को बाहर निकलने के लिए आदेश निर्गत हो चुका था। उनके लिए दानापुर पटना जाने की यात्रा खर्च , हथियार तथा चार नावों का प्रबंध भी व्रिटिश सरकार द्वारा कर दिया गया था। वहां से 18 मील चलने पर बेगमगंज के पास वह घाघरा नदी के तट पर पहुंचे । 8 अधिकारी व सिपाही उन्हें पीछे छोड़ दिये थे। फैजाबाद के कर्नल गोल्डनी व मेजर मिल लापता हो गये थे । घाघरा नदी के दाहिने किनारे पर फायरिंग शुरू हो चुकी थी। पानी के रास्ते दानापुर पटना जाना ज्यादा खतरनाक लग रहा था। उन्होने अपना इरादा बदला और पगडंडियों के माध्यम से सुरक्षित निकलने की योजना बनाई। वचे कुचे अधिकारी अपनी जान बचाने के लिए झावा के जंगल में छिप गये थे। उन्हें शाम तक किसी स्थानीय जमींदार ने अपने घर ले जाकर खाना खिलाया था। आधी रात में अपने कुछ अन्य साथियों से मुलाकात करके चार नं. की नाव से छः अंग्रेज भगोडों का एक दल चांद की रोशनी में अमोढ़ा की तरफ एक जमींदार की देखरेख में 10 जून को आ पहुंचा था। उन्हें वहां ज्यादा देर तक रूकने नहीं दिया गया था। वहां से वे अपने हथियारों को कप्तानगंज स्थित अंग्रेज कैप्टन के पास लाकर छोड़ दिया। उन्हें रास्ते के खर्चे के लिए कुछ पैसे की व्यवस्था कर दी गई तथा भारतीय जमींदार व चैकीदार के साथ चलने के लिए तैयार कर दिया गया था। तत्कालीन अमोढा के तहसीलदार लेफ्टिनेंट रैची और लेफ्टिनेंट कैटी के लिए दो खच्चरों की व्यवस्था भी की गई थी । वे 17वी नेटिव इनफैन्ट्री के सिपाहियों द्वारा बस्ती में बन्द किये गये अपने खजाने को साथ ले जाना चाह रहे थे । तहसीलदार ने उन अंग्रेज अधिकारियों को चेताया था कि वे तुरंत बस्ती छोड़ दें। उन्हें गायघाट( निकट कलवारी ) जाने के लिए कोई सलाह भी नहीं दी गई ।     कप्तानगंज( वर्तमान बस्ती जिले वाला) से 8 मील चलने पर वह वे बस्ती जिले के 260 39’ उत्तरी अक्षांश तथा 820 41’ पश्चिमी देशान्तर पर स्थित बस्ती सदर तहसील के परगना बस्ती पूरब के बहादुरपुर विकासखण्ड के तप्पा पिलाई में मनोरमा नदी के तट पर बसे महुआडाबर नामक गांव पहुंचे। यह एक मुस्लिम बाहुल्य गांव था। अंगे्रजों की बेगारी तथा हाथ काटने जैसे जुल्मों से तंग आकर बनारस , मुर्शिदाबाद (वंगाल) तथा विहार के कुछ कलाकार , कारीगर, दस्तकार , शिल्पी यहां आकर बस गये थे। मुस्लिम बाहुल्य इस गांव में मलमल तथा दूसरे कपड़े तैयार हाते थे। ये कारीगर लगभग एक दशक पहले ही आकर यहां बसे थे। वे कताई्र बुनाई तथा छपाई का काम मुख्य रूप से करते थे। वे अपने हुनर से बस़्त्र उद्योग की एक अच्छी कपड़ों की मण्डी यहां बना लिये थे। यहां उस समय लगभग 5000 जनसंख्या की आवादी थी।
अंगेजों द्वारा अपने पूर्वजों पर किये गये अत्याचारों को याद करके यहां के प्रवासियों का धैर्य जाता रहा। उन्हें अंग्रेजो के वहां आने की भनक लग गई थी। वे स्वयं को रोक ना सके और अंगेजों को समाप्त करने की तत्काल योजना को असली जामा पहनाने लगे। स्थानीय एक प्रवासी जफर अली के नेतृत्व में लाठी डन्डे तलवार एवं भाला लेकर इस गांव के निवासियों का एक दल मनोरमा नदी पार कर रहे अंगेजों पर 10वीं तारीख को हमला कर दिया गया। गांव महुआडाबर में एक छोड़ शेष पांच को वहां के गांव वालों ने घेर लिया था। लेफ्टिनेंट आई लिंडसे की पहले हत्या की गई । लेफ्टिनेंट थामस , लेफ्टिनेंट टी.जे. रिची , सार्जेन्ट एडवड्स और लेफ्टिनेंट कैटिली तथा दो सैनिकों को धोखे से हत्या कर दी गई थी। इस दल का तोपचालक सार्जेन्ट वषीर भाग निकला जिसे कलवारी के जमीदार बाबू बल्ली सिंह ले पकड़ लिया गया। उसे 10 दिन तक अधिकारियों की निगरानी में बन्दी बनाया गया था। 10 जून की महुआ डाबर की घटना से गोरखपुर की जिला सरकार हिल गई। वहां के जिला जज डबलू. विनयार्ड तथा कलेक्टर डबलू पेटरसन ने 15 जून 1857 को वर्डपुर का जमीदार मि. डबलू . पेप्पी को बस्ती तहसील का नया डिप्टी कलेक्टर बना दिया गया था। जिसको 12वीं अश्वारोही बटालियनकी आधी टुकड़ी सुरक्षा के लिए गोरखपुर से कप्तानगंज के लिए रवाना किया गया थाा। उसने इस कैदी बुशर को जमीदार के चंगुल से मुक्त कराया था। 20 जून 1857 को पूरे जिले में मारशल ला लागू कर दिया गया था। पेप्पी अपने दल के साथ जाने के लिए उद्यत थे। उसी समय बाग में अग्नि ने अपना प्रचण्ड रूप ले लिया तथा महुआ डाबर नामक गांव को बड़ी बेदर्दी से आग लगवा करके जलवा दिया था। उनके घर बार खेती बारी रोजी रोजगार तथा परिवार सब के सब खत्म हो चुके थे। उस गांव का नामो निशान तक सरकार ने मिटवा दिया था। लावारिस बाहर पड़ी बची कुची सम्पत्तियों का नीलाम करके राजकोष में जमा करवाये गये थे। वहां पर अंग्रेजो के चंगुल में आये निवासियों के सिर कलम कर दिये गये थे। उनके शवों के टुकड़े टुकड़े करके दूर फेंक दिया गया था। वे इस सजा से पूरे देश के अन्य क्षेत्रों के लोगों को आतंकित भी करना चाह रहे थे।
जलियावाला बाग की तरह एक बहुत बड़ा जनसंहार यहां हुआ था। 
                               ।मोहम्मद हसन
इन्हीं दौरान अवध के नबाब के प्रतिनिधि राजा सैयद हुसेन अली उर्फ मोहम्मद हसन ( जो मूलतः सहसवान बदायूं के मूल निवासी थे ) ने कर्नल लेनाक्स ,उनकी पत्नी तथा बेटी को अपनी संरक्षा में ले रखा था। पेप्पी ने इन्हें भी मुक्त कराया था। इस घटना ने गोरखपुर , आजमगढ़ बनारस आदि स्थानों पर अंग्रजों के विरुद्ध जन चेतना जगाई और अपना खास असर डाला था। महुआ डाबर के लोग जो बचे कुचे थे वे डर के मारे उस समय बाहर भाग गये थे फिर जब स्थिति सामान्य हुई तो पुनः आकर नये सिरे से उसे पुनः सजोने का प्रयास किया । यह गांव अभी भी गुमनाम की जिन्दगी गुजार रहा है। स्वतंत्र भारत में तो यह पवित्र स्थल के रूप में विकसत होना चाहिए था परन्तु ऐसा नहीं हो सका है और अपनी शहादत पर आंसू बहा रहा है। क्रांतिवीर पिरई खा भारतीय जंग ए आज़ादी आंदोलन के महान योद्धा रहे 1857 के स्वतंत्रता संग्राम मे उनकी एक आवाज पर हजारों लोग निकल पड़ते थे। उनकी अगुवाई में हुए सशस्त्र संघर्ष को महुआ डाबर एक्शन के नाम से जाना जाता है।
                  लेखक/ब्लागर :डा. राधे श्याम द्विवेदी