विष्णु के प्रथम अवतार सनकादि ऋषि(भागवत प्रसंग 16)
डा. राधे श्याम द्विवेदी
ब्रह्मा की संताने:-
सनकादि ऋषि (सनकादि = सनक + आदि)से तात्पर्य ब्रह्मा के चार पुत्रों सनक, सनन्दन, सनातन व सनत्कुमार से है। पुराणों में उनकी विशेष महत्ता वर्णित है। ये ब्रह्मा की अयोनिज संताने हैं और भगवान विष्णु के प्रथम अवतार हैं | जो १० सृष्टियों में से ही गिने जाते हैं। ये प्राकृतिक तथा वैकृतिक दोनों सर्गों से हैं।
भगवान विष्णु का प्रथम अवतार सनकादि ४ मुनि हैं। वे परमात्मा जो साकार हैं उन्होंने लीलार्थ २४ तत्वों के अण्ड का निर्माण किया। उस अण्ड से ही वे परमात्मा साकार रूप में बाहर निकले। उन्होंने जल की रचना की तथा हजारों दिव्य वर्षों तक उसी जल में शयन किया अतः उनका नाम नारायण हुआ।
आपो नरा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः।
अयनं तस्य ता पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः॥
उन्हें जब प्रकट होने की इच्छा हुई तब वे उठे तथा अण्ड के अधिभूत, अध्यात्म तथा अधिदैव ये तीन खण्ड किये। उन परमात्मा के आंतरिक आकाश से इन्द्रिय, मनः तथा देह शक्ति उत्पन्न हुई। साथ ही सूत्र, महान् तथा असु नामक तीन प्राण भी उत्पन्न हुए। उनके खाने की इच्छा के कारण अण्ड से मुख निकला जिसके अधिदैव वरुण तथा विषय रसास्वादन हुआ। इसी प्रकार बोलने की इच्छा के कारण वाक् इन्द्रिय हुई जिसके देव अग्नि तथा भाषण विषय हुआ। उसी तरह नासिका, नेत्र, कर्ण, चर्म, कर, पाद आदि निकला। यह परमात्मा का साकार स्थूल रूप है जिनका नमन वेद पुरुष सूक्त से किये हैं।
प्रलय काल में भगवान शेष पर शयन कर रहे थे । वे आदि मध्य अन्तहीनाय निर्गुणाय गुणात्मने हैं । अतः शेष जो सबके बाद भी रहते हैं वही उनकी शैया हैं। सृष्टि की इच्छा से जब उन्होंने आँखें खोलीं तो देखा कि सम्पूर्ण लोक उनमें लीन है। तभी रजोगुण से प्रेरित परमात्मा की नाभि से कमल अंकुरित हो गया जिससे सम्पूर्ण जल प्रकाशमय हो गया। नाभिपद्म से उत्पन्न ब्रह्मा पंकज कर्णिका पर आसीन थे। ब्रह्मा जी ने सोंचा कि मैं कौन, क्यों हूँ तथा मेरे जनक कौन हैं? वे कमलनाल के सहारे जल में प्रविष्ट हुए तथा सौं वर्ष तक निरंतर खोज करने पर भी कोई प्राप्त नहीं हुआ। अंत में वे पुनः यथा्थान बैठ गए। वहाँ हजारों वर्षों तक समाधिस्थ रहे। तभी उन्हें पुरुषोत्तम परमात्मा के दर्शन हुए। शेषनाग में शयन कर रहे प्रभु का नीलमणि के समान देह अनेक आभूषणों से आच्छादित था तथा वन माला और कौस्तुभ मणि स्वयं को भाग्यवान मान रहे थे। उनके अंदर ब्रह्मा जी ने अथाह सागर तथा कमल पर आसीन स्वयं को भी देखा। ब्रह्मा जी भगवान की स्तुति करते हैं -
ज्ञातोऽसि मेऽद्य सुचिरान्ननु देहभाजां
न ज्ञायते भगवतो गतिरित्यवद्यम्।
नान्यत्वदस्ति भगवन्नपि तन्न शुद्धं मायागुणव्यतिकराद्यदुरुर्विभासी ॥
(भागवत)
"चिरकाल से मैं आपसे अन्जान था, आज आपके दर्शन हो गए। मैने आपको जानने का प्रयास नहीं किया, यही हम सब का सबसे बड़ा दोष है क्योंकि समस्त ब्रह्माण्ड में आप ही जानने योग्य हैं। अपने समीपस्थ जीवों के कल्याणार्थ आपने सगुण रूप धारण किया जिससे मेरी उत्पत्ति हुई। निर्गुण भी इससे भिन्न नहीं।"
श्री भगवान ने कहा "मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, जाओ सृष्टि करो। प्रलय से जो प्रजा मुझमें लीन हो गई उसकी पुनः उत्पत्ति करो।" और भगवान अंतर्धान हो गए।
ब्रह्मा जी ने सौ वर्षों तक तपस्या की। उस समय प्रलय कालीन वायु के द्वारा जल तथा कमल दोनो आंदोलित हो उठे। ब्रह्मा जी ने तप की शक्ति से उस वायु को जल सहित पी लिया। तब आकाशव्यापी कमल से ही चौदह लोकों की रचना हुई। ईश्वर काल के द्वारा ही सृष्टि किया करते हैं अतः काल की सृष्टि दस प्रकार की होती है ।इन सृष्टियों से ब्रह्मा जी को संतुष्टि न मिली तब उन्होंने मन में नारायण का ध्यान कर मन से दशम सृष्टि सनकादि मुनियों की थी जो साक्षात् भगवान ही थे। ये सनकादि चार सनत, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार नामक महर्षि हैं तथा इनकी आयु सदैव पाँच वर्ष की रहती है। ब्रह्मा जी नें उन बालकों से कहा कि पुत्र जाओ सृष्टि करो।
शेष भगवान से श्रवण कर नारद जी भागवत सुनाया:-
सनकादि मुनियों नें ब्रह्मा जी से कहा "पिताश्री! क्षमा करें। हमारे हेतु यह माया तो अप्रत्यक्ष है, हम भगवान की उपासना से बड़ा किसी वस्तु को नहीं मानते अतः हम भी जाकर उन्हीं की भक्ति करेंगे।" और सनकादि मुनि वहाँ से चल पड़े। वे वहीं जाया करते हैं जहाँ परमात्मा का भजन होता है।
जब नारद जी बेचैन हो कर भक्ति के ताप को नाश करने के लिए बद्री पर्वत पर सनक आदि मुनियों से मिले थे तो उन्हें सनक आदि ने भागवत कथा सुनने की सलाह दिये थे। ये स्वयं भगवान शेष से भागवत श्रवण किये थे और नारद जी को उन्होंने भागवत सुनाया था। ये जितने छोटे दिखते हैं उतनी ही विद्याकंज हैं। ये चारो वेदों के ही रूप कहे जा सकते हैं।
जय विजय को तीन जन्मों तक राक्षस बनने का श्राप:-
एक समय चारों सनकादि कुमार भगवान विष्णु के दर्शनार्थ वैकुण्ठ जा पहुंचे। वे वहाँ के सौंदर्य को देखकर बड़े प्रसन्न हुए। वहाँ स्फटिक मणि के स्तंभ थे, भूमि पर भी अनेकों मणियाँ जड़ित थीं। भगवान के सभी पार्षद नन्द, सुनंद सहित वैकुण्ठ के पति का सदैव गुणगान किया करते हैं। चारों मुनि छः ड्योढ़ियाँ लाँघकर जैसे ही सातवीं ड्योढ़ी पर चढ़े उनका दृष्टिपात दो महाबलशाली द्वारपाल जय तथा विजय पर हुआ। कुमार जैसे ही आगे बढ़े दोनों द्वारपालों ने मुनियों को धृष्टतापूर्वक रोक दिया। यद्यपि वे रोकने योग्य न थे । इसपर सदा शांत रहने वाले सनकादि मुनियों को भगवत् इच्छा से क्रोध आ गया। वे द्वारपालों से बोले "अरे! बड़ा आश्चर्य है। वैकुण्ठ के निवासी होकर भी तुम्हारा विषम स्वभाव नहीं समाप्त हुआ? तुम लोग तो सर्पों के समान हो। तुम यहाँ रहने योग्य नहीं अतः तुम नीचे लोक में जाओ। तुम्हारा पतन हो जाये।" इसपर दोनो द्वारपाल मुनियों के चरणों पर गिर पड़े। तभी भगवान का आगमन हुआ। मुनियों नें भगवान को प्रणाम किया। श्री भगवान कहते हैं "हे ब्रह्मन्! ब्राह्मण सदैव मेरे आराध्य हैं। मैं आपसे मेरे द्वारपालों द्वारा अनुचित व्यवहार हेतु क्षमा प्रार्थी हूँ।" उन्होंने द्वारपालों से कहा "यद्यपि मैं इस श्राप को समाप्त कर सकता हूँ परंतु मैं ऐसा नहीं करुंगा क्योंकि तुम लोगों को ये श्राप मेरी इच्छा से ही प्राप्त हुआ है। तुम लोग इसके ताप से तपकर ही चमकोगे, यह परीक्षा है इसे ग्रहण करो। एक बात और... तुम मेरे बड़े प्रिय हो।" द्वारपालों ने श्राप को ग्रहण किया। मुनियों ने कहा "प्रभु! आप तो हमारे भी स्वामी हैं और सब ब्राह्मणों का आदर करते हुए सभी लोग मुक्ति को प्राप्त करें यह सोचकर हमें आदर प्रदान करते हैं। प्रभु आप धन्य हैं। सदैव हमारे हृदय में वास करें। और द्वारपालों की मुक्ति आपके करकमलों से ही होगी" भगवान ने द्वारपालों को कहा "द्वारपालों तुम तीन जन्म तक दैत्य योनि में जाओगे तथा मैं तुम्हारा उद्धार करुंगा।" इसी श्राप के कारण ये दोनों द्वारपाल तीन जन्मों तक दैत्य बने। प्रथम जन्म में ये दोनों ही हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकश्यपु बनें, द्वितीय जनम में रावण तथा कुम्भकर्ण तथा तृतीय जन्म में ये ही शिशुपाल तथा दन्तवक्र बने। भगवान विष्णु ने अवतार लेकर इनका उद्धार किया था।
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