प्रस्तुति डा. राधे श्याम द्विवेदी
1963 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने द्वारका का खोज आरंभ किया है। पुरातत्त्ववेत्ता पिछले 6 दशकों से प्राचीन द्वारका के अवशेषों को खोजने की कोशिश कर रहे हैं। द्वारका में पहली पुरातात्विक खुदाई 1963 में की गई थी। इस खोज में कई शताब्दियों पुरानी कलाकृतियां मिली थीं।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) की मरीन आर्कियो- लॉजिकल यूनिट (MAU) ने 1979 में डॉ. एस. आर. राव के नेतृत्व में खुदाई का दूसरा दौर चलाया था। यह खोज गुजरात में बंदरगाह शहर लोथल में की गई। इस खोज में विशिष्ट मिट्टी के बर्तन मिले थे। जो 3,000 साल पुराने बताए गए। इन खुदाई के परिणामों के आधार पर 1981 में अरब सागर में द्वारका की खोज शुरू हुई।पानी के नीचे की खोज की परियोजना को 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा मंजूरी दी गई थी। समुद्र के नीचे खुदाई का काम कठिन था। 1983 और 1990 के बीच डॉ. एस. आर. राव की टीम को ऐसी खोजों के बारे में पता चला जिसने एक डूबे हुए शहर की मौजूदगी की प्रमाणिकता पर पहली बार मोहर लगाई थी।
दिसंबर 2000, अक्टूबर 2002 और फिर जनवरी 2007 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के अंडरवाटर पुरातत्व विंग (UAW) ने द्वारका में फिर से खुदाई शुरू की थी। जिसमें अरब सागर में पाए जाने वाली प्राचीन संरचनाओं की पहचान की जा रही है। अन्वेषणों में बस्तियां, दीवारें, स्तंभ और त्रिकोणीय और आयताकार जैसी संरचनाएं निकली। शिलालेख, मिट्टी के बर्तन, पत्थर की मूर्तियां, टेराकोटा की माला, पीतल, तांबा और लोहे की वस्तुएं मिली थीं।
2007 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का अभियान-भगवान कृष्ण की द्वारका नगरी से जुड़े दावों और अनुमानों के वैज्ञानिक कसौटी पर कसे जाने का समय अब एकदम नजदीक आ गया है, क्योंकि 2007 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के निर्देशन में भारतीय नौसेना के गोताखोर समुद्र में समाई द्वारका नगरी के अवशेषों के नमूनों को सफलतापूर्वक निकाल लाए थे।
गुजरात में कच्छ की खाड़ी के पास स्थित द्वारका नगर समुद्र तटीय क्षेत्र में नौसेना के गोताखोरों की मदद से पुरा विशेषज्ञों ने व्यापक सर्वेक्षण के बाद समुद्र के भीतर उत्खनन कार्य किया और वहाँ पड़े चूना पत्थरों के खंडों को ढूँढ़ निकाला।
नौसेना के साथ मिलकर चलाए गए अपनी तरह के इस तीसरे अभियान के आरंभिक नतीजों की जानकारी देते हुए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के समुद्री पुरातत्व विशेषज्ञों ने बताया कि इन दुर्लभ नमूनों को अब देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों की पुरा प्रयोगशालाओं को भेजा गया था। मिली जानकारी के मुताबिक ये नमूने सिंधु घाटी की सभ्यता से कोई मेल नहीं खाते।
नौसेना के गोताखोरों ने 40 हजार वर्गमीटर के दायरे में यह उत्खनन किया और वहाँ पड़े भवनों के खंडों के नमूने एकत्र किए, जिन्हें आरंभिक तौर चूना पत्थर बताया गया था।
पुरातत्व विशेषज्ञों ने बताया ये खंड किसी नगर या मंदिर के अवशेष लगते हैं।
जमीन पर उत्खनन्:-
द्वारका में समुद्र के भीतर ही नहीं, बल्कि जमीन पर भी खुदाई की गई थी और दस मीटर गहराई तक किए इस उत्खनन में सिक्के और कई कलाकृतियाँ भी प्राप्त हुई। उन्होंने माना कि जमीन पर मिले अवशेषों की समुद्र के भीतर पाए गए खंडों से समानता मिलती है। पुरातत्व विशेषज्ञों के अनुसार इन अवशेष खंडों का सिंधु घाटी की सभ्यता से कोई मेल नहीं मिलता और यह आयताकार खंडों की बनावट और स्टाइल से स्पष्ट है।
खोज का काम रुका:-
द्वारका नगरी के रहस्य से पर्दा उठाने का काम आज रुका है।
पुराणों और धर्मग्रंथों में वर्णित प्राचीन द्वारका नगरी और उसके समुद्र में समा जाने से जुड़े रहस्यों का पता लगाने का काम पिछले कई वर्ष से रुका पड़ा है, हालांकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने ऐसी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए अगले दो साल में ‘अंडर वाटर आर्कियोलॉजी विंग’ को सुदृढ़ बनाने का निर्णय किया है.
पानी के भीतर खोज के काम योजनाबद्ध हो:-
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के निदेशक (धरोहर) ए के सिन्हा ने कहा, ‘‘पानी के भीतर खोज के काम के लिए बड़ी आधारभूत संरचना की जरुरत होती है. प्राचीन द्वारका नगरी की खोज जैसी परियोजना के लिए समुद्र में प्लेटफार्म और काफी संख्या में प्रशिक्षित गोताखोरों की जरुरत होती है जो गहराई में पानी में जा सकें.’’उन्होंने कहा कि दुर्भाग्य से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण में पानी के नीचे कार्य करने में सक्षम ऐसे आधारभूत संरचना और मानव संसाधन की कमी है. ‘‘साल दो साल में ‘अंडर वाटर आर्कियोलॉजी विंग’ को सुदृढ़ बनाया जायेगा ताकि ऐसी परियोजनाओं को आगे बढ़ाया जा सके.’’डा.सिन्हा ने कहा कि एएसआई के अधिकारी रहे डा. एस आर राव ने नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओसेनोग्राफी के समुद्री पुरातत्व शाखा में काम करते हुए द्वारका, महाबलीपुरम नगरों से जुड़े रहस्यों पर काफी काम किया था. उनके नेतृत्व किये गए प्रयासों से प्राचीन द्वारका नगरी का पता लगाया गया और कुछ अवशेष एकत्र किये गए. हालांकि इसके बाद से काम रुका पड़ा है. गौरतलब है कि 2005 में नौसेना के सहयोग से प्रचीन द्वारका नगरी से जुड़े अभियान के दौरान समुद्र की गहराई में कटे छंटे पत्थर मिले और लगभग 200 नमूने एकत्र किये गए.
प्राचीन द्वारका नगरी के समुद्र में समा जाने के रहस्य के बारे में पूछे जाने पर सिन्हा ने कहा कि द्वारका नगरी का एक बड़ा हिस्सा समुद्र में डूब गया था लेकिन इसके कारण के बारे में प्रमाण के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता है. ‘‘हालांकि एक मान्यता यह है कि समुद्र का जलस्तर बढ़ने से यह प्रचीनतम नगरी डूब गई.’’ धरोहर विशेषज्ञ प्रो. आनंद वर्धन के अनुसार, महाभारत काल से अब तक पुराणों, धर्मग्रंथों एवं शोधकर्ताओं द्वारा किये गए अध्ययन में भगवान कृष्ण की द्वारका नगरी के प्रमाण मिले हैं.
उन्होंने कहा कि महाभारत में एक जगह पर ‘‘द्वारका समासाध्यम’’ वर्णित है. विष्णु पुराण में भी एक स्थान पर ‘कृष्णात दुर्गम करिष्यामि’ का जिक्र किया गया है. इसमें कहा गया है कि भगवान कृष्ण की मृत्यु के बाद द्वारका समुद्र में समा गई थी. बहरहाल, सिन्हा ने समुद्र के भीतर इस तरह की खोज के लिए विशेषज्ञता हेतु भारतीय नौसेना के साथ फ्रांस, स्पेन और आस्ट्रेलिया के अनुभव से सीखने की जरुरत बतायी.
प्रो. राव और उनकी टीम ने 560 मीटर लंबी द्वारका की दीवार की खोज की। साथ में उन्हें वहां पर उस समय के बर्तन भी मिले, जो 3000 ईसा पूर्व के हैं। इसके अलावा सिंधु घाटी सभ्यता के भी कई अवशेष उन्होंने खोजे। उन्होंने सिर्फ पश्चिमी भारत में नहीं बल्कि दक्षिण भारत में भी कई जगह पर खुदाई में ढेर सारी खोज कीं। उनका नाम पुरातत्व की दुनिया में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है और हमेशा रहेगा। उस जगह पर भी उन्होंने खुदाई में कई रहस्य खोले, जहां पर कुरुक्षेत्र का युद्ध हुआ था.
भारतीय नौसेना के गोताखोरों द्वारा खोज:-
गुजरात में कच्छ की खाड़ी के पास स्थित द्वारका नगर समुद्र तटीय क्षेत्र में नौसेना के गोताखोरों की मदद से पुरा विशेषज्ञों ने व्यापक सर्वेक्षण के बाद समुद्र के भीतर उत्खनन कार्य किया और वहाँ पड़े चूना पत्थरों के खंडों को ढूँढ़ निकाला।18अगस्त 2007 को भारतीय नौसेना के गोताखोरद्वारका की तह तक पहुंचे थे .
भगवान कृष्ण की द्वारका नगरी से जुड़े दावों और अनुमानों के वैज्ञानिक कसौटी पर कसे जाने का समय अब एकदम नजदीक आ गया है, क्योंकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के निर्देशन में भारतीय नौसेना के गोताखोर भीतर पड़े अवशेषों के नमूनों को सफलतापूर्वक निकाल लाए हैं।
नौसेना के साथ मिलकर चलाए गए अपनी तरह के इस तीसरे अभियान के आरंभिक नतीजों की जानकारी देते हुए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के समुद्री पुरातत्व विशेषज्ञ डॉ. आलोक त्रिपाठी ने शुक्रवार को यहाँ बताया कि इन दुर्लभ नमूनों को अब देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों की पुरा प्रयोगशालाओं को भेजा जा रहा है और छह माह के भीतर द्वारका नगरी से जुड़े रहस्यों से पर्दा उठ जाएगा.
इस समुद्री उत्खनन के बारे में सहायक नौसेना प्रमुख रियर एडमिरल एसपीएस चीमा ने बताया कि इस ऐतिहासिक अभियान के लिए उनके 11 गोताखोरों को पुरातत्व सर्वेक्षण ने प्रशिक्षित किया और नवंबर 2006 में नौसेना के सर्वेक्षक पोत आईएनएस निर्देशक ने इस समुद्री स्थल का सर्वे किया. इसके बाद इस साल जनवरी से फरवरी के बीच नौसेना के गोताखोर तमाम आवश्यक उपकरण और सामग्री लेकर उन दुर्लभ अवशेषों तक पहुँच गए, जिनके बारे में अनेक तरह के विवाद समय-समय पर सामने आते रहे हैं। इन गोताखोरों ने 40 हजार वर्गमीटर के दायरे में यह उत्खनन किया और वहाँ पड़े भवनों के खंडों के नमूने एकत्र किए, जिन्हें आरंभिक तौर चूना पत्थर बताया गया हैं, लेकिन उनकी वास्तविक प्राचीनता का सच जानना बाकी है.
रियर एडमिरल चीमा ने कहा कि इन अवशेषों की प्राचीनता का वैज्ञानिक अध्ययन होने के बाद देश के समुद्री इतिहास और धरोहर का तिथिक्रम लिखने के लिए आरंभिक सामग्री इतिहासकारों को उपलब्ध हो जाएगी। यह पूछने पर कि क्या प्रस्तर खंड किसी नगर या मंदिर के अवशेष लगते हैं, डॉ. त्रिपाठी ने कहा कि हम किसी प्रकार के कयास लगाने के हक में नहीं हैं। दरअसल हम तो अभी तक लगाए जा रहे कयासों और अनुमानों की सचाई ढूँढ़ने निकले हैं। हमारे पास सर्वेक्षण के नतीजे और नमूने हैं, जिन्हें विशुद्ध रूप से वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में भेजा जाएगा और खंडों की प्राचीनता और सही तारीख का पता लगाया जाएगा.
द्वारका में समुद्र के भीतर ही नहीं, बल्कि जमीन पर भी खुदाई की गई है और दस मीटर गहराई तक किए इस उत्खनन में सिक्के और कई कलाकृतियाँ भी प्राप्त हुई हैं. उन्होंने माना कि जमीन पर मिले अवशेषों की समुद्र के भीतर पाए गए खंडों से समानता मिलती है, लेकिन सिर्फ इस आधार पर कोई नतीजा निकालना खतरे से खाली नहीं होगा. उन्होंने कहा कि इन अवशेष खंडों का सिंधु घाटी की सभ्यता से कोई मेल नहीं मिलता और यह आयताकार खंडों की बनावट और स्टाइल से स्पष्ट है। संयोग की बात यह है कि द्वारका के इन समुद्री अवशेषों को सबसे पहले भारतीय वायुसेना के पायलटों ने समुद्र के ऊपर से उड़ान भरते हुए नोटिस किया था और उसके बाद 1970 के जामनगर के गजेटियर में इनका उल्लेख किया गया। उसके बाद से इन खंडों के बारे में दावों-प्रतिदावों का दौर चलता रहा है.
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