Saturday, February 5, 2022

श्रीमद्भागवत कथा के उत्तम श्रोता (४) शौनक जी ( भागवत प्रसंग 15 )

श्रीमद्भागवत कथा के उत्तम श्रोता (४) शौनक जी           
( भागवत प्रसंग 15 )
डा. राधे श्याम द्विवेदी
              शौनक ऋषि भृगुवंशी शुनक ऋषि के पुत्र थे। ये प्रसिद्ध वैदिक आचार्य थे।'ऋष्यानुक्रमणी' के अनुसार, वह शनुहोत्र ऋषि का पुत्र था, एवं शनुक के इन्हें अपना पुत्र मानने के कारण, इन्हें 'शौनक' पैतृक नाम प्राप्त हुआ। यह पहले अंगिरस्गोत्रीय था, किन्तु बाद में भृगु-गोत्रीय बन गया। "शौनकजी” महाराज आयु में बड़े हैं वयोवृद्ध होकर भी श्रोता बनकर बैठे रहते थे और इनकी यह विशेषता है कि भगवान का कथामृत पान करने में बड़े कुशल है महान विद्वान, वयोवृद्ध होकर भी एकदम अनभिज्ञ बन जाते थे।जब श्रोता बनकर बैठते हैं जैसे कि उन्हें कुछ आता ही नहीं, यही उनकी कुशलता है । शतपथ ब्राह्मण के उल्लेखानुसार इनका पूरा नाम इंद्रोतदैवाय शौनक था जिन्होंने राजा जनमेजय का सर्प सत्र अश्वमेध यज्ञ कराया था। महाभारत इनके विषय में एक नूतन तथ्य का संकेत करता है, वह यह कि जनमेजय नामक एक राजा को ब्रह्महत्या लगी थी जिसके निवारण के लिए उसने अपने पुरोहित से प्रार्थना की। प्रार्थना को पुरोहित ने नहीं माना। तब राजा इस ऋषि की शरण आया। ऋषि ने राजा से अश्वमेध यज्ञ कराया तथा उसकी ब्रह्महत्या का पूर्णतया निवारण कर उसे स्वर्ग भेज दिया। नैमिषारण्य में इन्होंने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया था, जो बारह वर्षों तक चलता रहा था। शौनक ऋषि के यज्ञ में उग्रश्रवा ने महाभारत की कथा सुनायी थी।हिन्दू पुराणों ने काल को मन्वंतरों में विभाजित कर प्रत्येक मन्वंतर में हुए ऋषियों के ज्ञान और उनके योगदान को परिभाषित किया है। प्रत्येक मन्वंतर में प्रमुख रूप से 7 प्रमुख ऋषि हुए हैं। इन्हीं ऋषियों में से एक थे ऋषि शौनक।
           जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण में इंद्रोत श्रुत के शिष्य बतलाए गए हैं। वैदिक आचार्य और ऋषि शौनक ने गुरु-शिष्य परंपरा व संस्कारों को इतना फैलाया कि उन्हें दस हजार शिष्यों वाले गुरुकुल का कुलपति होने का गौरव मिला था। शिष्यों की यह तादाद कई आधुनिक विश्वविद्यालयों की तुलना में भी कहीं ज्यादा थी।किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया। अगर शौनक ऋषि ना होते तो पुराण और धर्म का लोप हो गया होता। वे ऋषियों मुनियों के बीच एक सकरात्मक माहौल बना कर रखते थे। प्राचीन धर्म और साहित्य गुरु शिष्य परम्परा से आज तक जीवित और वर्तमान देखा जा रहा है। 
         शौनकादिक ऋषियो के लिए कहा गया की - "कथामृत रसास्वाद कुशल"-- अर्थात् जो कथा के रस को आस्वादन करने मे कुशल हैं। श्रोता को कैसा होना चाहिये ये शौनकादिक ऋषियो से सीखना चाहिये।कथा को जो सुनकर जीवन मे उतार ले वही कुशल श्रोता है। परंतु जो लोग कथा को एक कान से सुनकर दुसरे कान से निकाल देते हैं वे कुशल श्रोता नही कहे जा सकते।कुशल श्रोता केवल वही है जो कथा को पीता है। स्कंदपुराण मे भी सुत जी महाराज कहते है --
" कृष्णार्थीति धनार्थीति श्रोता वक्ता द्विधा मत: । 
यथा वक्ता तथा श्रोता तत्र सौख्यं विवर्द्धते"। 
अर्थात् अगर श्रोता ओर वक्ता दोनो कृष्णार्थी हुए तो तब ही कथा
कहने ओर सुनने का उत्तम फल यानि प्रेमरस मिलेगा। कृष्णार्थी यानि जो केवल कृष्ण का बन जाता है।जिसके मन से भुक्ति ओर मुक्ति की कामना चली गयी है ओर जो केवल कृष्ण प्रेम प्राप्त करने के लिए कथा को पीता है वही कृष्णार्थी श्रोता वक्ता है। लेकिन अगर श्रोता धनार्थी हुआ तो तब श्रोता को प्रेमरस नही मिलेगा क्योकि श्रोता का मन धन मे लगा रहता है और
अगर वक्ता भी धनार्थी हुआ तो तब भी रस नही मिलेगा क्योकि अगर वक्ता धनार्थी हुआ तो वो कथा तो कम कहेगा बल्कि धन की महिमा ज्यादा कहेगा ईसलिए अगर भगवद् प्रेमारस चाहिये तो वक्ता और श्रोता दोनो को कृष्णार्थी बनकर कथा कहना और सुनना चाहिये। "ते श्रोता वक्ता सम शीला"-- अब प्रश्न उठता है की अगर कोई श्रोता कृष्णार्थी ना हो तो क्या उसे कथा सुनने का अधिकार नही है। इसका उत्तर यह है की भगवान के दरबार मे सबका स्वागत है।भगवान सकाम ओर निष्काम दोनो भक्तो पर कृपा करते है लेकिन निष्काम भक्त भगवान को बहुत प्रिय है। अगर श्रोता संसारिक कामना वाला है तो भागवत जी कहती है की तुम चिंता मत करो ,,तुम केवल एक बार मेरी शरण मे आ जाओ मै तुम्हे सकाम से निष्काम बना देंगे क्योकि जब तक मनुष्य को विवेक नही होगा की हमारा असली धन क्या है तब तक मनुष्य संसारिक धन की कामना करेगा लेकिन जब सत्संग के माध्यम से मनुष्य के जीवन मे विवेक जागृत होता है तो मनुष्य फिर संसारिक धन की कामना छोडकर निष्काम बन जाता है। " "होई विवेक मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा"। ईसलिए भागवत श्रवण करने का सबको अधिकार है। भागवत सकामियो को निष्काम बनाती है ओर निष्कामियो का प्रेमानंद बढाती है। ईसलिए कृष्णार्थी बनकर कथा कहने ओर सुनने से ही कथा का उत्तम प्रेमरस प्राप्त होगा। कृष्णार्थी श्रोता ही कुशल श्रोता है जो कथामृत के रसास्वाद को पान करता है। इसलिए ये श्लोक बहुत पयारा है--
नैमिषे सुतं आसीनं अभिवाद्य महामतिम्। 
कथामृत रसास्वाद कुशल शौनकोब्रवीत।।
           शौनक ऋषि द्वारा अनेक ग्रंथ रचित किये गए थे।इन्होंने ऋक्प्रातिशाख्‍य, ऋग्वेद छंदानुक्रमणी, ऋग्वेद ऋष्यानुक्रमणी, ऋग्वेद अनुवाकानुक्रमणी, ऋग्वेद सूक्तानुक्रमणी, ऋग्वेद कथानुक्रमणी, ऋग्वेद पादविधान, बृहदेवता, शौनक स्मृति, चरणव्यूह, ऋग्विधान आदि अनेक ग्रंथ लिखे हैं। इसके अतिरिक्त शौनक गृह्सूत्र, शौनक गृह्यपरिशिष्ट, वास्तुशा्सत्र ग्रंथ की भी चर्चा की जाती है।

 

 

 
 









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