Saturday, February 5, 2022

सर्व शक्तिमान पुरुष द्वारा जगत और मानव का निर्माण डा. राधे श्याम द्विवेदी

(भगवत प्रसंग 2) 
सर्व शक्तिमान पुरुष द्वारा जगत और मानव का निर्माण 
डा. राधे श्याम द्विवेदी
सर्वशक्तिमान् पुरुष ने विश्व का निर्माण किया है। अमित तेजस्वी ब्रह्मा जी को ही सर्वशक्तिमान् पुरुष हैं। वे समस्त प्राणियों की सृष्टि करने वाले तथा भगवान् नारायण के आश्रित हैं, प्रकृति से महत्तत्त्व की उत्पत्ति महत्तत्त्व से अहंकार तथा अहंकार से सब सूक्ष्म भूत उत्पन्न हुए है, भूतों के जो स्थूल भेद हैं वे भी उन सूक्ष्म भूतों से ही प्रकट हुए हैं,यह अनादि काल से प्रवाह रूप से चला आने वाला सनातन सर्ग है।
             स्वयम्भू भगवान् नारायण ने नाना प्रकार की प्रजा उत्पन्न करने की इच्छासे सबसे पहले जल की ही सृष्टि की फिर उस जल में अपनी शक्ति का आधान किया, जल का दूसरा नाम है नार क्यों कि उसकी उत्पत्ति भगवान् नर से हुई है, वह जल पूर्व काल में भगवान्का अयन हुआ इसलिये वे नारायण कहलाते हैं, भगवान ने जल मै जो अपनी शक्ति का आधान किया था उससे एक बहुत विशाल सुवर्णमय अण्ड प्रकट हुआ वह दीर्घ काल तक जल में ही स्थित था, उसी में स्वयम्भू ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। 
हिरण्य गर्भ में से ब्रह्मा जी की उत्पति हुई:-
भगवान् हिरण्य गर्भ ने उस अण्ड में एक वर्ष तक निवास करके उसके दो टुकड़े कर दिये फिर एक टुकड़े से धुलोक बनाया और दूसरे से भूलोक, उन दोनों टुकड़ों के बीच में भगवान् ब्रह्मा ने आकाश अवकाश की सृष्टि की, जल के ऊपर तैरती हुई पृथ्वी को स्थापित किया, फिर दसों दिशाएँ निश्चित कीं।उस ब्रह्माण्ड के भीतर ही उन्होंने काल मन वाणी काम क्रोध तथा रति आदि भावों की सृष्टि की, फिर इन भावों के अनुरूप सृष्टि करने की इच्छा वाले ब्रह्माजी ने निम्नलिखित सात प्रजापतियों को उत्पन्न किया।
ब्रह्मा जी द्वारा सात सात प्रजापतियो को उत्पन्न किया गया:-
उन प्रजापतियो के नाम इस प्रकार हैं, मरीचि अत्रि अङ्गिरा पुलस्त्य पुलह क्रतु और वसिष्ठ, महा तेजस्वी ब्रह्मा ने इन सातों की अपने मन संकल्प से सृष्टि की अतः ये उनके मानस पुत्र हैं, पुराणों में ये सात ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं, भगवान् नारायण में मन लगाये रहने वाले इन सात ब्राह्मणों की सृष्टि के अनन्तर ब्रह्मा जी ने अपने रोष से रुद्र को प्रकट किया, फिर पूर्वजों के भी पूर्वज भगवान् सनत्कुमार जी को उत्पन्न किया। सातो प्रजापतियों के दिव्य वंश परम्परा है देवता आदि भी इसी वंश मै आते है। ये मरीचि आदि सात ऋषि तथा रुद्र देव प्रजा की सृष्टि करने लगे, स्कन्द और सनत्कुमार ये दोनों अपने तेज का संवरण करके रहते हैं, उक्त सात महर्षियों के सात बड़े बड़े दिव्य वंश हैं, देवता भी इन्हीं वंशों के अन्तर्गत हैं, उन सातों वंशों के लोग कर्म निष्ठ एवं संतान वान् हैं, उन वंशों को बड़े बड़े ऋषियों ने सुशोभित किया है।
             इसके बाद ब्रह्मा जी ने नक्षत्र मेघ आकाशीय पिंड पर्वतों और चार वेदों कि रचना करी। इसके बाद ब्रह्मा जी ने पहले विद्युत् वज्र मेघ रोहित सीधा इन्द्रधनुष पक्षि समुदाय तथा पर्जन्य की सृष्टि की, फिर ब्रह्माजी ने यज्ञ की सिद्धि के लिये नित्य सिद्ध ऋक् यजुः और साम का आविष्कार किया, फिर ऐश्वर्य शील ब्रह्मा ने अपने मुख से देवताओं को और वक्षःस्थल से पितरो को प्रकट किया, फिर उन्होंने उपस्थेन्द्रिय से मनुष्यो को और जंघाओ से असुरो को उत्पन्न किया, तदनन्तर उन्हो ने साध्य नामक प्राचीन देवताओ को प्रकट किया।
ब्रह्मा जी द्वारा नर नारी मानव आदि की रचना :-
इस प्रकार प्रजाकी सृष्टि रचते हुए उन आपव अर्थात् जल में प्रकट हुए प्रजापति ब्रह्मा के अङ्गो मे से उच्च तथा साधारण श्रेणी के बहुत से प्राणी प्रकट हुए, इस प्रकार वे आपव प्रजापति मानसिक प्रजाओ को रच रहे थे परंतु वे प्रजाएँ जब अधिक न बढ़ीं तब वे अपने शरीर के दो भाग कर एक भाग से पुरुष और दूसरे भाग से नारी हो गये और उस नारी ने गाय घोड़ी आदि जिस जिस रूप को धारण किया पुरुष ने उसी जाति के बैल घोड़े आदि का रूप धारण किया इस प्रकार उन्होंने उस नारी में अनेक प्रकार की मैथुनी प्रजाओ को रचा, इस प्रकार वे पुरुष और नारी अपनी महिमा से स्वर्ग और पृथ्वी पर व्याप्त हो गए।
ब्रह्मा जी से मनु-शतरूपा और मन्वन्तर काल की उत्पति :-
भगवान् विष्णुने विराट् पुरुष आपव प्रजापति या ब्रह्माकी सृष्टि की थी और विराट्ने पुरुष की उस विराट पुरुष ही मनु हैं और उनकी स्त्री को शतरूपा, मनु के समय को ही मन्वन्तर काल कहा गया है, आपव पुत्र मनु की जो यह दूसरी योनिज सृष्टि है यहीं से मन्वन्तर का आरम्भ बताया जाता है, इस प्रकार शक्तिशाली वैराज पुरुष मनु ने प्रजासर्ग की सृष्टि की, आपव प्रजापति को नारायण सर्ग कहा गया है क्यो कि वे नारायण से ही प्रकट हुए हैं, उनकी अयोनिजा प्रजा प्रथम सर्ग है और मनुकी योनिजा प्रजा द्वितीय सर्ग, जो इस आदि सृष्टि को इस प्रकार जान लेता है वह आयुष्मान् कीर्तिमान् धन्यवाद का पात्र संतान वान् और विद्वान् होता है उसे इच्छानुसार उत्तम गति प्राप्त होती है।
सृष्टि-उत्पत्ति के सन्दर्भ में इस पुराण में कहा गया है- एकोऽहम्बहुस्यामि अर्थात् एक से बहुत होने की इच्छा के फलस्वरूप भगवान स्वयं अपनी माया से अपने स्वरूप में काल, कर्म और स्वभाव को स्वीकार कर लेते हैं। तब काल से तीनों गुणों- सत्त्व, रज और तम में क्षोभ उत्पन्न होता है तथा स्वभाव उस क्षोभ को रूपान्तरित कर देता है। तब कर्म गुणों के महत्त्व को जन्म देता है जो क्रमश: अहंकार, आकाश, वायु तेज, जल, पृथ्वी, मन, इन्द्रियाँ और सत्त्व में परिवर्तित हो जाते हैं। इन सभी के परस्पर मिलने से व्यष्टि-समष्टि रूप पिंड और ब्रह्माण्ड की रचना होती है। यह ब्रह्माण्ड रूपी अण्डा एक हज़ार वर्ष तक ऐसे ही पड़ा रहा। फिर भगवान ने उसमें से सहस्र मुख और अंगों वाले विराट पुरुष को प्रकट किया। उस विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जांघों से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए।
विराट पुरुष रूपी नर से उत्पन्न होने के कारण जल को 'नार' कहा गया। यह नार ही बाद में 'नारायण' कहलाया। कुल दस प्रकार की सृष्टियाँ बताई गई हैं। महत्तत्त्व, अहंकार, तन्मात्र, इन्दियाँ, इन्द्रियों के अधिष्ठाता देव 'मन' और अविद्या- ये छह प्राकृत सृष्टियाँ हैं। इनके अलावा चार विकृत सृष्टियाँ हैं, जिनमें स्थावर वृक्ष, पशु-पक्षी, मनुष्य और देव आते हैं।









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