श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, अष्टदशो अध्याय
डा. राधे श्याम द्विवेदी
🌷जय श्री कृष्ण जय श्री राधे। 🌷
मेरे प्रिय मित्रों! जय श्री कृष्ण,जय श्री राधे। जय श्री परम वन्दनीय अकारण करूणा वरूनालय भक्तवान्छा कल्पतरू श्री कृष्ण चन्द्र जी के चरणों में बरम्बार प्रणाम है। आप सभी सौभाग्य शाली मित्रों को भी मेरा सादर प्रणाम है । आप सभी पर परमात्मा की अत्यन्त कृपा है कि आप परमात्मा की रसोमय लीला का रसास्वादन कर पा रहे हैं I द्वापर युग के अंत में भगवान श्री कृष्ण ने पृथ्वी पर अवतार धारण करके अधर्मी राजाओं के भार से पृथ्वी को मुक्त किया था । जब भगवान श्रीकृष्ण अपना अवतार कार्य समाप्त करके अपने धाम को चले गए तब पाडवो ने भी अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को राज सिंहासन पर बैठा दिया और स्वयं हिमायल को चले गए । राजा परीक्षित ने अपने राज्य में आने पर कलियुग का दमन किया । राजा परीक्षित के काल मे कलियुग का प्रभाव बहुत ही सीमित था । शरण मे आने पर राजा परीक्षित ने कलियुग को कुछ ही स्थानों में रहने की अनुमति दी थी ओ स्थान थे ,द्यूत, मद्यपान, स्त्री-संग , हिंसा और सुवर्ण ।
जिस दिन, जिस क्षण श्रीकृष्णने पृथ्वीका परित्याग किया, उसी समय पृथ्वीमें अधर्म का मूल कारण कलियुग आ गया था । भ्रमर के समान सारग्राही ,सम्राट् परीक्षित् कलियुगसे कोई द्वेष नहीं रखते थे । क्योंकि इसमें यह एक बहुत बड़ा गुण है कि पुण्यकर्म तो संकल्पमात्र से ही फलीभूत हो जाते हैं, परन्तु पापकर्म का फल शरीर से करने पर ही मिलता है,संकल्पमात्र से नहीं । यह भेड़िये के समान ,बालकों के प्रति शूरवीर और धीर वीर पुरुषों के लिये बड़ा भीरु है । यह प्रमादी मनुष्यों को अपने वशमें करनेके लिये ही सदा सावधान रहता है ।
राजा परीक्षित के राज्य में कलियुग ने प्रवेश कर लिया था तब राजा परीक्षित ने कलियुग को अपने राज्य से निकालने के लिए दिग्विजय करने का निश्चय कर दिग्विजय करने के लिए चल पडे थे । एक दिन राजा परीक्षित् धनुष लेकर वनमें शिकार खेलने गये हुए थे। हरिणों के पीछे दौड़ते दौड़ते वे थक गये और उन्हें बड़े जोर की भूख और प्यास लगी । जब कहीं उन्हें कोई जलाशय नहीं मिला, तब वे पासके ही एक ऋषि के आश्रम में घुस गये उन्होंने देखा कि वहाँ आँखें बंद करके शान्त भावसे एक मुनि आसन पर बैठे हुए हैं । इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि के निरुद्ध हो जाने से वे संसार से ऊपर उठ गये थे । जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं से रहित निर्विकार ब्रह्मरूप तुरीय पदमें वे स्थित थे । उनका शरीर बिखरी हुई जटाओंसे और कृष्ण मृगचर्म से ढका हुआ था । राजा परीक्षित् ने ऐसी ही अवस्थामें उनसे जल माँगा, क्योंकि प्यास से उनका गला सूखा जा रहा था । जब राजा को वहाँ बैठने के लिये तिनके का आसन भी न मिला, किसी ने उन्हें भूमिपर भी बैठने को न कहा-अर्घ्य और आदर भरी मीठी बातें तो कहाँसे मिलती-तब अपने को अपमानित-सा मानकर वे क्रोध के वश हो गये ।
राजा परीक्षित भूख-प्यास से छटपटा रहे थे, इसलिये एकाएक उन्हें ब्राह्मणके प्रति ईर्ष्या और क्रोध हो आया । उनके जीवन में इस प्रकार का यह पहला ही अवसर था , वहाँ से लौटते समय उन्होंने क्रोधवश धनुषकी नोकसे एक मरा साँप उठाकर ऋषिके गले में डाल दिया और अपनी राजधानी में चले आये । उनके मनमें यह बात आयी कि इन्होंने जो अपने नेत्र बंद कर रखे हैं, सो क्या वास्तवमें इन्होंने अपनी सारी इन्द्रियवृत्तियोंका निरोध कर लिया है अथवा इन राजाओंसे हमारा क्या प्रयोजन है, यों सोचकर इन्होंने झूठ-मूठ समाधि का ढोंग रच रखा है । राजा ने पूर्व समयमे कलियुग को सुवर्ण में रहने के लिए स्थान दिया था । राजा ने अपने सरपर सुवर्ण का मुखोटा पहन रखा था इसलिये कुछ समय के लिए कलियुग ने उनकी बुद्धिपर अपना प्रभाव बना लिया था ।
उन शमीक मुनि का पुत्र बड़ा तेजस्वी था । वह दूसरे ऋषिकुमारों के साथ पास ही खेल रहा था । जब उस बालक ने सुना कि राजा ने मेरे पिताके साथ दुर्व्यवहार किया है, तब वह इस प्रकार कहने लगा । ‘ये नरपति कहलाने वाले लोग उच्छिष्ट भोजी कौओं के समान संड-मुसंड होकर कितना अन्याय करने लगे हैं । ब्राह्मणों के दास होकर भी ये दरवाजे पर पहरा देने वाले कुत्तेके समान अपने स्वामी का ही तिरस्कार करते हैं ।
ब्राह्मणों ने क्षत्रियों को अपना द्वारपाल बनाया है। उन्हें द्वार पर रहकर रक्षा करनी चाहिये, घर में घुसकर स्वामीके बर्तनों में खाने का उसे अधिकार नहीं है । अतएव उन्मार्गगामियों के शासक भगवान् श्रीकृष्णके परमधाम पधार जाने पर इन मर्यादा तोड़नेवालों को आज मैं दण्ड देता हूँ , मेरा तपोबल देखो’ । अपने साथी बालकोंसे इस प्रकार कहकर क्रोध से लाल-लाल आँखों वाले उस ऋषिकुमार ने कौशिकी नदीके जलसे आचमन करके अपने वाणी-रूपी वज्रका प्रयोग किया । ‘कुलांगार परीक्षित् ने मेरे पिताका अपमान करके मर्यादा का उल्लंघन किया है, इसलिये मेरी प्रेरणासे आज के सातवें दिन उसे तक्षक सर्प डस लेगा ।
इसके बाद वह बालक अपने आश्रमपर आया और अपने पिताके गले में साँप देखकर उसे बड़ा दुःख हुआ तथा वह ढाड़ मारकर रोने लगा । शमीक मुनि ने अपने पुत्र का रोना चिल्लाना सुनकर धीरे-धीरे अपनी आँखें खोली और देखा कि उनके गले में एक मरा साँप पड़ा है । अपने गले मे पड़े उस मारे हुए सांप को फेंककर, उन्होंने अपने पुत्रसे पूछा-‘बेटा! तुम क्यों रो रहे हो? किसने तुम्हारा अपकार किया है ?’ उनके इस प्रकार पूछने पर बालक ने सारा हाल कह दिया ।
ब्रह्मर्षि शमीक ने राजा के शाप की बात सुनकर अपने पुत्र का अभिनन्दन नहीं किया। उनकी दृष्टिमें परीक्षित् शापके योग्य नहीं थे ,उन्होंने कहा- ‘ओह, मूर्ख बालक! तूने बड़ा पाप किया! खेद है कि उनकी थोड़ी-सी गलती के लिये तूने उनको इतना बड़ा दण्ड दिया । तेरी बुद्धि अभी कच्ची है । तुझे भगवत् स्वरूप राजा को साधारण मनुष्यों के समान नहीं समझना चाहिये , क्योंकि राजा के दुस्सह तेजसे सुरक्षित और निर्भय रहकर ही प्रजा अपना कल्याण सम्पादन करती है ।
जिस समय राजा का रूप धारण करके भगवान् पृथ्वी पर नहीं दिखायी देंगे, उस समय चोर बढ़ जायेंगे और अरक्षित भेड़ों के समान एक क्षणमें ही लोगों का नाश हो जायगा । राजा के नष्ट हो जाने पर धन आदि चुराने वाले चोर जो पाप करेंगे, उसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध न होनेपर भी वह हमपर भी लागू होगा । क्योंकि राजा के न रहने पर लुटेरे बढ़ जाते हैं और वे आपस में मार-पीट, गाली-गलौज करते हैं, साथ ही पशु, स्त्री और धन-सम्पत्ति भी लूट लेते हैं ।
उस समय मनुष्यों का वर्णाश्रमाचार युक्त वैदिक आर्यधर्म लुप्त हो जाता है, अर्थ-लोभ और काम-वासना के विवश होकर लोग कुत्तों और बंदरों के समान वर्णसंकर हो जाते हैं । सम्राट परीक्षित् तो बड़े ही यशस्वी और धर्मधुरन्धर हैं । उन्होंने बहुत-से अश्वमेध यज्ञ किये हैं और वे भगवान के परम प्यारे भक्त हैं ,वे ही राजर्षि भूख प्यास से व्याकुल होकर हमारे आश्रम पर आये थे, वे शापके योग्य कदापि नहीं हैं ।
ऋषि शमीक ने भगवान से प्रार्थना की , इस नासमझ बालक ने हमारे निष्पाप सेवक राजा का अपराध किया है, सर्वात्मा भगवान कृपा करके इसे क्षमा करें । भगवान के भक्त में भी बदला लेने की शक्ति होती है, परंतु वे दूसरे द्वारा किये हुए अपमान, धोखेबाजी, गाली-गलौज, आक्षेप और मार-पीट का कोई बदला नहीं लेते । महामुनि शमीक को पुत्र के अपराध पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ । राजा परीक्षित् ने जो उनका अपमान किया था, उसपर तो उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया । महात्माओंका स्वभाव ही ऐसा होता है कि जगत् में जब दूसरे लोग उन्हें सुख-दुःखादि द्वन्द्वों में डाल देते हैं, तब भी वे प्रायः हर्षित या व्यथित नहीं होते; क्योंकि आत्मा का स्वरूप तो गुणों से सर्वथा परे है ।
इस तरह शमीक ऋषि के पुत्र श्रृंगी ऋषि ने राजा परीक्षित को शाप दिया था ।शमीक ऋषि अब अपने पुत्र के कृत्य पर पश्चाताप कर रहे हैं।
।।इतिअष्टदशोsअध्याय:।।
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