Thursday, February 29, 2024

भक्तों की मनोकामनाओं का पूरक है चित्रकूट का कामद गिरि और कामतानाथ मन्दिर - आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी


       

 यह वह भूमि है, जहां पर ब्रह्म, विष्णु और महेश तीनों देव का निवास स्थान रहा है। भगवान विष्णु ने भगवान राम रूप में यहां वनवास काटा था, तो ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना के लिए यहां यज्ञ किया था और उस यज्ञ से प्रगट हुआ शिवलिंग मतगज्येंद्र नाथ धर्मनगरी चित्रकूट के क्षेत्रपाल के रूप में आज भी विराजमान है। वायु पुराण में चित्रकूट गिरि की महिमा का उल्लेख है। सुमेरू पर्वत के बढ़ते अहंकार को नष्ट करने के लिए वायु देवता उसके मस्तक को उडा कर चल दिये थे। किंतु उस शिखर पर चित्रकेतु ऋषि तप कर रहे थे। शाप के डर से वायु देवता पुनः उस शिखर को सुमेरू पर्वत में स्थापित करने के लिए चलने लगे। तभी ऋषिराज ने कहा कि मुझे इससे उपयुक्त स्थल पर ले चलो नहीं तो शाप दे दूंगा। संपूर्ण भूमंडल में वायु देवता उस शिखर हो लेकर घूमते रहे, जब वे चित्रकूट के इस भूखंड पर आये तो ऋषि ने कहा कि इस शिखर को यहीं स्थापित करों। चित्रकेतु ऋषि के नाम से ही इस शिखर का नाम चित्रकूट गिरि पडा था।    

       चित्रकूट धाम उत्तर विंध्य रेंज में एक छोटा सा पर्यटन शहर स्थित है। यह उत्तर प्रदेश राज्य के प्राचीन बांदा आधुनिक चित्रकूट और मध्य प्रदेश राज्य के सतना जिले  में स्थित है। भगवान राम ने अपने वनवास के दौरान  11 वर्ष 11 माह 11 दिन मंदाकिनी नदी के किनारे स्थित चित्रकूट में गुजारे थे । इस दौरान उनके साथ अनेकों साधु-संतों ने चित्रकूट को ही अपनी साधना स्थली बना लिया।  इसलिए चित्रकूट को एक प्रमुख तीर्थ स्थल माना जाता है ।

कामदगिरि पर्वत :–

कामदगिरि चित्रकूट धाम का मुख्य पवित्र स्थान है। संस्कृत शब्द ‘कामदगिरि’ का अर्थ ऐसा पर्वत है, जो सभी इच्छाओं और कामनाओं को पूरा करता है। इस गिरि को रामगिरि और चित्रकूट पर्वत भी कहा जाता है । कहा जाता है कि पर्वतराज सुमेरू के शिखर कहे जाने वाले चित्रकूट गिरि को कामदगिरि होने का वरदान भगवान राम ने दिया था। तभी से विश्व के इस अलौकिक पर्वत के दर्शन मात्र से आस्था वानों की मनो - कामनाएं पूर्ण होती हैं। यह स्थान अपने वनवास काल के दौरान भगवान राम, माता सीता और लक्ष्मण जी का निवास स्थल रहा है। उनके नामों में से एक भगवान कामतानाथ, न केवल कामदगिरि पर्वत के बल्कि पूरे चित्रकूट के प्रमुख देवता हैं। धार्मिक मान्यता है कि सभी पवित्र स्थान (अर्थात् तीर्थ) इस परिक्रमा स्थल में स्थित हैं। इस पहाड़ी के चारों ओर का परिक्रमा पथ लगभग 5 किमी लंबा है जिसमें बड़ी संख्या में मंदिर हैं। ग्रीष्म ऋतु के अलावा, पूरे वर्ष इस पहाड़ी का रंग हरा रहता है और चित्रकूट में किसी भी स्थान से देखे जाने पर धनुषाकार दिखाई देता है। जंगलों से घिरे इस पर्वत के तल पर अनेक मंदिर बने हुए हैं।  प्राचीन पौराणिक कथाओं के अनुसार इस खूबसूरत सृष्टि की रचना समय परम पिता ब्रह्मा जी ने की थी, इस पवित्र स्थान पर 108 अग्नि कुंडों की स्थापना की गई थी। अपने निर्वासन काल के दौरान भगवान राम भी इसी स्थान पर कुछ समय के लिए अवतरित हुए थे। धनुसाकार पर्वत पर स्थित एक विशाल झील सैलानियों को अपनी ओर आकर्षित करती है। तुलसी दास ने लिखा है - 

" कामद भे गिरि रामप्रसादा।

   अवलोकत अप हरत विषादा'।

राम का ही स्वरूप कामतानाथ मन्दिर :-  

चित्रकूट में ही भरत जी सभी नगरवासियों को साथ लेकर श्रीराम से मिलने गये थे। आस पास के लोगों को पता चल गया कि राम जी चित्रकूट में विराजमान हैं तब सभी लोग उनसे मिलने पहुंचने लगे, वहाँ भारी भीड़ रोजाना आने लगी इसलिए वे तीनों चित्रकूट छोड़ कर आगे चले गये। कहा जाता है कि जब भगवान राम चित्रकूट को छोड़कर जाने लगे तो चित्रकूट गिरी ने भगवान राम से याचना कि, हे प्रभु आपने इतने वर्षों तक यहां वास किया, जिससे ये जगह पावन हो गई। लेकिन आपके जाने के बाद मुझे कौन पूछेगा। तब प्रभु राम ने चित्रकूट गिरि को वरदान दिया कि अब आप कामद हो जाएंगे। यानि ईच्छाओं (मनो कामनाओं) की पूर्ति करने वाले हो जाएंगे। जो भी आपकी शरण में आयेगा उसके सारे विषाद नष्ट होने के साथ-साथ सारी मनोकामना पूर्ण हो जाएंगी, और उस पर सदैव राम की कृपा बनी रहेगी। जैसे प्रभु राम ने चित्रकूट गिरि को अपनी कृपा का पात्र बनाया कामदगिरि पर्वत कामतानाथ बन गये। जहाँ भक्तों की सभी इच्छाएँ पूरी होती हैं। यह मंदिर कामदगिरि पर्वत की तलहटी में स्थित है।

कामदगिरि की परिक्रमा:-

कामदगिरि का परिक्रमा मार्ग उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित है या यूँ कहें कि परिक्रमा का आधा हिस्सा यूपी में आता है और आधा एमपी में स्थित है।कामदगिरि की परिक्रमा करने के लिए देश के कोने-कोने से सैकड़ों की संख्या में श्रद्धालुओं का आना-जाना होता रहता है। इसकी परिक्रमा की शुरुआत चित्रकूट के प्रसिद्ध रामघाट में स्नान के साथ होती है,। रामघाट, मंदाकिनी और पयस्वनी नदी के संगम पर स्थित है। यह वही घाट है, जहाँ भगवान राम ने अपने पिता राजा दशरथ का पिंडदान किया था। श्रद्धालु इसी घाट पर स्नान करके कामतानाथ मंदिर में भगवान के दर्शन करते हैं और कामदगिरि पर्वत की परिक्रमा प्रारंभ करते हैं। यह परिक्रमा 5 किलोमीटर की है, जिसे पूरा करने में लगभग डेढ़ से दो घंटे का समय लगता है।

भगवान राम से आशीर्वाद इस पर्वत को मिला था :-
त्रेतायुग में जब भगवान राम, माता सीता और अनुज लक्ष्मण सहित वनवास के लिए गए तो उन्होंने अपने 14 वर्षों के वनवास में लगभग साढ़े 12 वर्ष चित्रकूट में व्यतीत किए। इस दौरान चित्रकूट साधु-संतों और ऋषि-मुनियों की पसंदीदा जगह बन गया। जब यहां भीड़ बढ़ने लगी और बनवासी जीवन को सादगी से बिताने में असुबिधा होने लगी तो भगवान राम ने चित्रकूट छोड़ने का निर्णय लिया। उनके इस निर्णय से चित्रकूट पर्वत दुःखी हो गया और भगवान राम से कहा कि जब तक वो वनवास के दौरान यहाँ रहे, तब तक यह भूमि अत्यंत पवित्र मानी जाती रही लेकिन उनके जाने के बाद इस भूमि को कौन पूछेगा? इस पर भगवान राम ने पर्वत को वरदान दिया और कहा, “अब आप कामद हो जाएँगे और जो भी आपकी परिक्रमा करेगा उसकी सारी मनोकामनाएँ पूरी हो जाएँगी और हमारी कृपा भी उस पर बनी रहेगी।“ इसी कारण इसे पर्वत कामदगिरि कहा जाने लगा और वहाँ विराजमान हुए कामतानाथ भगवान राम के ही स्वरूप हैं। कामदगिरि की एक विशेषता है कि इसे कहीं से भी देखने पर इसका आकार धनुष की भाँति ही दिखाई देता है।

परिक्रमा मार्ग पर हैं अनेक प्राचीन मंदिर :-
कामदगिरि पर्वत के परिक्रमा मार्ग में कई प्रसिद्ध मंदिर भी स्थित हैं। उनमें से एक है चरण-पादुका मंदिर या भरत मिलाप मंदिर। यह वही स्थान है, जहाँ भगवान राम के छोटे भाई भरत उन्हें अयोध्या वापस ले जाने के लिए आए थे लेकिन भगवान राम ने वनवास पूरा करना ही स्वीकार किया। इस पर भरत ने भगवान राम की चरण पादुकाएँ माँग ली थी और यह घोषणा की थी भगवान राम की अनुपस्थिति में राजसिंहासन पर ये चरण पादुकाएँ ही सुशोभित होंगी।
         इसके अलावा परिक्रमा मार्ग में राम-मुहल्ला, साक्षी गोपाल मंदिर, पीली कोठी और मुखारबिंदु भी स्थित हैं। परिक्रमा मार्ग में कई प्रकार की वस्तुओं और खाने-पीने की दुकानें भी स्थित हैं। कामदगिरि पर्वत की प्रमुख विशेषता है कि यहाँ चार दिशाओं में कामदगिरि के घने जंगल से बाहर निकालने के लिए चार अलग-अलग द्वार बनाए गए हैं। इन चार मुख्य द्वारों में हर द्वार में हर भगवान का अलग अलग वास रहता है. जिसमे उत्तरद्वार पर कुबेर, दक्षिणीद्वार पर धर्मराज, पूर्वी द्वार पर इंद्र और पश्चिमी द्वार पर वरूण देव द्वारपाल हैं। इसके अलावा कामदगिरि पर्वत के नीचे क्षीरसागर है। जिसके अंदर उठने वाले ज्वार-भाटा से कभी-कभार कामतानाथ भगवान के मुखार बिंद से दूध की धारा प्रवाहित होती है. इसीलिए चित्रकूट के कामदगिरि पर्वत के द्वारों का महत्व काफी बढ़ जाता है। विविध विशेषताओं के कारण ही कामदगिरि पर्वत के दर्शन और परिक्रमा के लिए प्रत्येक माह अमावस्या और पूर्णिमा के अवसर पर लाखों की संख्या में श्रद्धालुओं का जमावडा लगता है।
आस्था का सबसे बड़ा केन्द्र कामदगिरि पर्वत:-
यह आस्था का सबसे बड़ा केंद्र है। अमावस्या, पूर्णिमा, मकर संक्रांति, दीपावली, जैसे बड़े पर्वों में लोग यहां पर भगवान कामदगिरि पर्वत की परिक्रमा लगाते हैं. लोग अपनी मन्नतें भी मांगते हैं । उत्तर प्रदेश प्रशासन और मध्यप्रदेश प्रशासन दोनों सरकारें मिलकर कामदगिरि पर्वत के विकास को लेकर लगातार लगी रहती हैं। भगवान राम ने इसी पर्वत में अपना वनवास काल का समय बिताया था, जिसके लिए इस पर्वत का महत्व और भी बढ़ जाता है। परिक्रमा पथ को सरकार ने टीन शेड से सुरक्षित कर रखा है।इस क्षेत्र में अनेक जलाशय सूखे हुए मिल जायेंगे। पूरे क्षेत्र में वैध अवैध झोपड़ पट्टी से आवागमन प्रभावित होता है।इन्हें पुनर्वासित कर पथ को सुन्दर स्वरूप दिया जा सकता है।

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।) 

Wednesday, February 28, 2024

विचित्र दिव्य परंपराओं वाला शान्त तपोभूमि चित्रकूट को जानें आचार्य डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

 
चित्रकूट का मतलब :-
चित्रकूट- दो शब्दों के मेल से बना है- चित्र और कूट  । संस्कृत में चित्र का अर्थ है अशोक एवं कूट का अर्थ है शिखर या चोटी। इस वन क्षेत्र में कभी अशोक के वृक्ष बहुतायत मिलते थे। इस कारण इसे चित्रकूट कहा गया होगा। यहां निवास और साधना से मन की चित्त वृत्तियां आध्यात्मिक की तरफ उन्मुख होकर परिवर्तित हो जाती हैं। मोटे तौर पर चित्त को आकर्षित और प्रसन्न करने की जगह को चित्रकूट कहा जा सकता है।
सुख - शान्ति का क्षेत्र :-
इस स्थान पर आकर बड़ा से बड़ा दुख शांति में बदल जाता है, श्रीराम ने यहां 11 साल बिताये थे। रहीम का यह दोहा पूर्णातः सत्य है -
चित्रकूट में रमि रहे, ‘रहिमन’ अवध-नरेस। 
जा पर बिपदा परत है , सो आवत यहि देस॥ 
( अयोध्या के महाराज राम अपनी राजधानी छोड़कर चित्रकूट में जाकर बस गये, इस अंचल में वही आता है, जो किसी विपदा का मारा होता है।) कहा जाता है जिसपर आपत्ति आती है उसे चित्रकूट जाने पर शांति का एहसास होता है। कवि रहीम खान की इस बात पर किसी को कोई आशंका नहीं होगा।एक अन्य लोकप्रिय प्रसंग यहां पर सार्थक प्रमाण देता है 
चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर। 
तुलसिदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥ 
गोस्वामी तुलसीदास ने रामघाट पर भगवान श्रीराम के दर्शन किए थे। यह घाट आज आधुनिकता से रंगा है पूरा घाट लाल पत्थर के बने है । इस घाट पर मत गजेंद्र नाथ का अति प्राचीन शिव मंदिर भी है जिसे औरंगजेब तोड़ने का साहस नहीं जुटा पाया और इसका पुनरुद्धार कराया था। इस घाट पर अन्य अनेक प्राचीन मंदिर भी देखे जा सकते है। 
दो- दो प्रदेश, मंडल और जिलों का संयुक्त सीमावर्ती क्षेत्र :-
चित्रकूट मध्य प्रदेश राज्य में सतनाऔर उत्तर प्रदेश के प्राचीन बांदा एवम वर्तमान नव निर्मित चित्रकूट जिले का सीमावर्ती मे बुंदेलखंड नामक क्षेत्र का बहुत ही पावन धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व का स्थान है।  जिसका मुख्यालय चित्रकूट धाम (करवी) में स्थित है। यह वर्तमान भारतीय राज्यों मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के बीच विभाजित भी करता है। 
कई अजूबी पहाड़ियों वाला क्षेत्र :-
चित्रकूट का अर्थ है ‘कई अजूबों की पहाड़ी’। चित्रकूट क्षेत्र उत्तरी विंध्य श्रेणी में आता है जो उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश राज्यों में फैला है। यह क्षेत्र उत्तर प्रदेश के जिला चित्रकूट और मध्य प्रदेश के जिला सतना में शामिल है। उत्तर प्रदेश में चित्रकूट जिला 4 सितंबर 1998 को बनाया गया है। इससे पहले यह साहू जी महाराज नगर और पहले बांदा जिले का भाग रहा है।
                                 भरत कूप   
“अनेक आश्चर्यों की पहाड़ियां” वास्तव में प्रकृति और देवताओं द्वारा प्रदत्त एक अद्वितीय उपहार है, जो उत्तर प्रदेश में पयस्वनी/मन्दाकिनी नदी के किनारे विन्ध्य के उत्तरार्द्ध में स्थित एक शांत क्षेत्र है। चित्रकूट धाम कर्वी रेलवे स्टेशन से 10 किमी दक्षिण और बांदा जनपद से 72 किमी दक्षिण पूर्व, इलाहाबाद मार्ग पर, चित्रकूट धाम  भारत के सबसे प्राचीन पवित्र तीर्थस्थानों में से एक है। चित्रकूट, मानव हृदय को शुद्ध करने और प्रकृति के आकर्षण से पर्यटकों को आकर्षित करने में सक्षम है। चित्रकूट एक प्राकृतिक स्थान है जो प्राकृतिक दृश्यों के साथ साथ अपने आध्यात्मिक महत्त्व के लिए प्रसिद्ध है।
                कामद गिरि के कामता नाथ 
प्रकृति और पर्यावरण का अनूठा संगम :-
एक पर्यटक यहाँ के खूबसूरत झरने, चंचल युवा हिरण और नाचते मोर को देखकर रोमांचित होता है, तो एक तीर्थयात्री पयस्वनी/मन्दाकिनी में डुबकी लेकर और कामद गिरी की धूल में तल्लीन होकर अभिभूत होता है। प्राचीन काल से चित्रकूट क्षेत्र ब्रह्मांडीय चेतना के लिए प्रेरणा का एक जीवंत केंद्र रहा है। यही वह जगह है, जहां ऋषि अत्री और सती अनसूया संपर्क में आए थे। इसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश के अवतारों का निवास होने का श्रेय दिया जाता है। भगवान श्री राम के चरण स्पर्श से पवित्र चित्रकूट तीर्थ में महाकाव्य ‘श्री रामचरित मानस’ के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास ने अपने जीवन के कई वर्ष व्यतीत किये थे ।
                             राम शैय्या 
संतों और महात्माओं की साधना स्थली:-
अत्री, अनुसूया, दत्तात्रेय, महर्षि मार्कंडेय, सारभंग, सुतीक्ष्ण और विभिन्न अन्य ऋषि, संत, भक्त और विचारक सभी ने इस क्षेत्र में अपनी आयु व्यतीत की और जानकारों के अनुसार ऐसे अनेक लोग आज भी यहाँ की विभिन्न गुफाओं और अन्य क्षेत्रों में तपस्यारत हैं।                  गुप्त गोदावरी जानकी कुण्ड
इस प्रकार इस क्षेत्र की एक आध्यात्मिक सुगंध है, जो पूरे वातावरण में व्याप्त है और यहाँ के प्रत्येक दिन को आध्यात्मिक रूप से जीवंत बनाती है। चित्रकूट में  ही ऋषि अत्री और सती अनसुइया ने ध्यान लगाया था। ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने चित्रकूट में ही सती अनसुइया के घर जन्म लिया था। यहां विश्व भर के लोगो के लिये किंवदंतियों कथाओं कथानकों के साथ ही यथार्थ चेतना का पुंज बना हुआ है। प्रजापति ब्रह़मा के तपोबल से उत्पन्न मां अनुसुइया के दस हजार सालों के तप का परिणाम मां मंदाकिनी के साथ ही प्रभु राम के बारह वर्ष छह माह तक चित्रकूट मे प्रवास किया । इस दौरान उनकी सेवा के लिये अयोध्‍या से आई मां सरयू की त्रिवेणी आज भी यहां पर लोगों को आनंद देने के साथ ही पापों के भक्षण करने का काम कर रही है । हजारों भिक्षुओं, साधुओं और संतों ने यहाँ उच्च आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त की है और अपनी तपस्या, साधना, योग, तपस्या और विभिन्न कठिन आध्यात्मिक प्रयासों के माध्यम से विश्व पर लाभदायक प्रभाव डाला है।
                   मन्दाकिनी का राम घाट 
तीर्थों का तीर्थ :-
चित्रकूट सभी तीर्थों का तीर्थ है। हिंदू आस्था के अनुसार, प्रयागराज (आधुनिक नाम- इलाहाबाद) को सभी तीर्थों का राजा माना गया है; किन्तु चित्रकूट को उससे भी ऊंचा स्थान प्रदान किया गया है। किवदंती है की जब अन्य तीर्थों की तरह चित्रकूट प्रयागराज नहीं पहुंचे तब प्रयागराज को चित्रकूट की उच्चतर पदवी के बारे में बताया गया तथा प्रयागराज से अपेक्षा की गयी की वह चित्रकूट जाएँ, इसके विपरीत की चित्रकूट यहाँ आयें। ऐसी भी मान्यता है कि प्रयागराज प्रत्येक वर्ष पयस्वनी में स्नान करके अपने पापों को धोने के लिए आते हैं। यह भी कहा जाता है कि जब प्रभु राम ने अपने पिता का श्राद्ध समारोह किया तो सभी देवी-देवता शुद्धि भोज (परिवार में किसी की मृत्यु के तेरहवें दिन सभी सम्बन्धियों और मित्रों को दिया जाने वाला भोज) में भाग लेने चित्रकूट आए। वे इस स्थान की सुंदरता से मोहित हो गए थे। भगवान राम की उपस्थिति में इसमें एक आध्यात्मिक आयाम जुड़ गया। इसलिए वे वापस प्रस्थान करने के लिए तैयार नहीं थे। कुलगुरु वशिष्ठ, भगवान राम की इच्छा के अनुसार रहने और रहने की उनकी इच्छा को समझते हुए विसर्जन (प्रस्थान) मंत्र को बोलना भूल गए। इस प्रकार, सभी देवी-देवताओं ने इस जगह को अपना स्थायी आवास बना लिया और वहां हमेशा उपस्थित रहते हैं। आज भी, यहां तक कि जब एक अकेला पर्यटक भी प्राचीन चट्टानों, गुफाओं, आश्रमों और मंदिरों की विपुल छटा बिखेरे हुए इस स्थान में पहुंचता है तो पवित्र और आध्यात्मिक साधना में लगे ऋषियों के साथ वह अनजाने में ही खुद को पवित्र संस्कारों और ज्ञान प्राप्ति के उपदेशों और कृतियों से भरे माहौल में खो देता है और एक अलग दुनिया के आनंद को प्राप्त करता है। विश्व के सभी हिस्सों से हजारों तीर्थयात्री और सत्य के साधक इस स्थान में अपने जीवन को सुधारने और उन्नत करने की एक अदम्य इच्छा से प्रेरित होकर आश्रय लेते हैं।
                              भरत कूप
राम , बाल्मीकि और तुलसीदास का प्रिय क्षेत्र:-
प्राचीन काल से ही चित्रकूट का एक विशिष्ट नाम और पहचान है।इस स्थान का पहला ज्ञात उल्लेख वाल्मीकि रामायण में है, जो पहले सबसे पहले कवि द्वारा रचित सबसे पहला महाकाव्य माना जाता है। एक अलिखित संरचना के रूप में, विकास के इस महाकाव्य को, पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक परंपरा द्वारा, सौंप दिया गया था। जैसा कि वाल्मीकि, जो राम के समकालीन (या उनसे पहले) माने जाते हैं, और मान्यता है कि उन्होंने राम के जन्म से पहले रामायण का निर्माण किया गया था, से इस स्थान की प्रसिद्धि व पुरातनता को अच्छी तरह से निरूपित किया जा सकता है। महर्षि वाल्मीकि चित्रकूट को एक महान पवित्र स्थान के रूप में चित्रित करते हैं, जो महान ऋषियों द्वारा बसाया गया है और जहाँ बंदर, भालू और अन्य विभिन्न प्रकार के पशुवर्ग और वनस्पतियां पाई जाती हैं। ऋषि भारद्वाज और वाल्मीकि दोनों इस क्षेत्र के बारे में प्रशंसित शब्दों में बोलते हैं और श्रीराम को अपने वनवास की अवधि में इसे अपना निवास बनाने के लिए सलाह देते हैं।  यह स्थान किसी व्यक्ति की सभी इच्छाओं पूर्ण करने और उसे मानसिक शांति देने में सक्षम था। जिससे वह अपने जीवन में सर्वोच्च लक्ष्यों को प्राप्त कर सके। भगवान राम स्वयं इस जगह के मोहक प्रभाव को मानते हैं।रामोपाख्यान और महाभारत के विभिन्न स्थानों पर तीर्थों के विवरण में चित्रकूट एक को एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है।                     अनसुइया परमहंस आश्रम
‘अध्यात्म रामायण’ और ‘बृहत् रामायण’ चित्रकूट की झकझोर कर देने वाली आध्यात्मिक और प्राकृतिक सुंदरता को प्रमाणित करते हैं। राम से संबंधित पूरे भारतीय साहित्य में इस स्थान को एक अद्वितीय गौरव प्रदान किया गया है। फादर कामिल बुलके ने भी ‘चित्रकूट-महात्म्य’ का उल्लेख किया है जो मैकेंज़ी के संग्रह में पाया गया है। विभिन्न संस्कृत और हिंदी कवियों ने चित्रकूट का वर्णन किया है। महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य ‘रघुवंश’ में इस स्थान का सुंदर वर्णन किया है। वह यहाँ के आकर्षण से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने मेघदूत में अपने यक्ष के निर्वासन का स्थान चित्रकूट (जिसे वह प्रभु राम के साथ इसके सम्मानित संबंधों की वजह से रामगिरी कहते हैं) को बनाया। हिंदी के संत-कवि तुलसीदास जी ने अपने सभी प्रमुख कार्यों- रामचरित मानस, कवितावली, दोहावली और विनय पत्रिका में इस स्थान का अत्यंत आदरपूर्वक उल्लेख किया है। उनकी उपलब्धियों का एक उल्लेखनीय पल माना जाता है जब हनुमान जी की मध्यस्थता में उन्हें उनके आराध्य प्रभु राम के दर्शन प्राप्त हुए। 
आधुनिक इतिहास :-
उत्तर प्रदेश में 6 मई 1997 को बाँदा जनपद से काट कर छत्रपति शाहू जी महाराज नगर के नाम से नए जिले का सृजन किया गया जिसमे कर्वी तथा मऊ तहसीलें शामिल थीं। कुछ समय बाद, 4 सितंबर 1998 को जिले का नाम बदल कर चित्रकूट कर दिया गया। यह उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश राज्यों में फैली उत्तरी विंध्य श्रृंखला में स्थित है। यहाँ का बड़ा हिस्सा उत्तर प्रदेश के चित्रकूट और मध्य प्रदेश के सतना जनपद में शामिल है। यहाँ प्रयुक्त “चित्रकूट” शब्द, इस क्षेत्र के विभिन्न स्थानों और स्थलों की समृद्ध और विविध सांस्कृतिक, धार्मिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक विरासत का प्रतीक है।
सड़के और सीवर लाइन वा नागरिक सुविधाओं को और बेहतर बनाने की जरूरत:- 
विशाल भूभाग में फैले इस धाम के धर्म स्थलों  में साफ सफाई, बिजली ,सड़के, सीवर लाइन वा नागरिक सुविधाओं को और बेहतर बनाने की जरूरत है। चूंकि ये कई अलग अलग फेज में बनते हैं इसलिए ये पूरे मुवकल्ल देखे ही नही जा सकते है। हां, जब कोई वीआईपी मूवमेंट होने पर कुछ अलग ही नजारा देखा जा सकता है। पतित पावनी मन्दाकिनी को गहन सफाई की सख्त आवश्कता है। उत्तर प्रदेश के स्थल मध्य प्रदेश की अपेक्षा अच्छे दिखते हैं।
प्रमुख आकर्षण :- 
रामघाट, मत गयेंद्र नाथ मंदिर, राघव प्रयाग घाट, तुलसीदास की मूर्ति, तुलसीदास मंदिर गुफा मंदिर, बालाजी मंदिर, बड़े हनुमान जी, भरत घाट, कामद गिरि, कामद गिरि परिक्रमा, चार प्रवेश द्वार, साक्षी गोपाल मंदिर, ब्रह्म कुण्ड, लक्ष्मण पहाड़ी, भरत मिलाप, पीली कोठी, राम शैया, राम शैया गोशाला, वनदेवी आश्रम, हनुमान धारा, गोयनका घाट, पुत्र जीवा वृक्ष,कांच का मंदिर, मानस मन्दिर, नेत्र चिकित्सालय जानकी कुण्ड, जानकी कुण्ड,श्रृंगार वन (सिरसा वन) ,स्फटिक शिला, पंजाबी भगवान आश्रम, आरोग्य धाम, रामदर्शन, नन्ही दुनिया (दीन दयाल शोध संस्थान), अनसुइया आश्रम, गुप्त गोदावरी, पंचमुखी हनुमान धारा, बांके सिद्ध, गणेश बाग, तुलसी तीर्थ राजापुर, नांदी के हनुमान जी, सूर्य कुंड, मांडव्य ऋषि आश्रम, भरत कूप, लैना बाबा सरकार, कालिजर शिवलिंग भूमि, शारदा देवी( मैहर) आदि।
पर्व और त्योहार:- 
चित्रकूट क्षेत्र में सोमवती अमावस्या, सावन झूला, जन्माष्टमी, विवाह पंचमी, जल बिहार बड़ी एकादशी, रथ यात्रा, दीपावली, शरद-पूर्णिमा, मकर-संक्रांति , रामायण मेलाऔर राम नवमी यहाँ ऐसे समारोहों के विशेष अवसर हैं। प्रत्येक अमावस्या में यहाँ विभिन्न क्षेत्रों से लाखों श्रृद्धालु एकत्र होते हैं। असंख्य मंदिरों और तीर्थों के साथ प्रकृति शांति व सुंदरता में लिपटा हुआ यह क्षेत्र पक्षियों की मीठी चहचहाहट और गहराई से बहती धाराओं से घिरा हुआ है। 
                 आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी 
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।) 




Friday, February 23, 2024

सनातन धर्म में कर्म और कर्म के आधार पर जन्म के नियम आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी

सनातन धर्म के तीन मूल आधार स्तंभ –
सनातन धर्म के तीन मूल आधार स्तंभ हैं। कर्म नियम, पुनर्जन्‍म एवं मोक्ष। कर्म के तीन प्रकार होते हैं -आगामी, संचित और प्रारब्ध। ज्ञान की उत्पत्ति के पश्चात् ज्ञानी के शरीर के द्वारा जो पाप-पुण्य रूप कर्म होते हैं, वे आगामी कर्म के नाम से जाने जाते हैं।इनमें सर्वप्रथम है कर्म नियम होता है। सनातन धर्म मानता है कि जो व्यक्ति जैसा कर्म करता है उसको वैसा ही फल मिलता है। कर्म नियम सनातन धर्म में ऋग्वेद के समय से चला आ रहा सिद्धांत है। ऋग्वेद में मंत्र दृष्टा ऋषियों ने विचार करके पाया कि किसी भी व्यक्ति के जीवन में अकृताभ्‍य उपगम और कृत हानि नहीं हो सकती।
अकृताभ्य उपगम का अर्थ है कि जो कर्म हमने नहीं किए हैं उसके परिणाम हमें मिलेंगे। कृत हानि का अर्थ है कि जो कर्म हमने किए हैं उसके परिणाम हमें न मिलें। ऐसा नहीं हो सकता। ऋग्वेद कहता है कि जो कर्म आपने किए हैं उसके परिणाम आपको मिलेंगे।
सनातन धर्म में कर्म और जन्म का विधान:-
हिंदू सनातन धर्म में पूर्व जन्म और कर्मों की बहुत ही अहमियत होती है। सनातन धर्म मानता है कि जो व्यक्ति जैसा कर्म करता है उसको वैसा ही फल मिलता है। हम जीवन में तीन तरह के कर्म देखते हैं। तीसरे प्रकार का कर्म है अनासक्‍त भाव से किया गया कर्म होता है। इसके अलावा दो तरह के सर्वाधिक प्रचलित कर्म मुख्य रूप से होते हैं। प्रत्‍येक व्यक्ति मोटे तौर पर दो प्रकार के कर्म करता है जिन्‍हें हम अच्छे कर्म और बुरे कर्म में विभाजित कर सकते हैं।
अच्छा कर्म और बुरा कर्म किसे कहा जाए :-
जिस कर्म से भलाई हो , परोपकार हो ,सुख प्राप्ति हो और उद्देश्‍य की सिद्धि हो। वे अच्‍छे कर्म हैं और जिससे किसी की बुराई हो , दुख मिले, संताप मिले, काम रूकें तो ऐसे कर्म को हम बुरा कर्म कह सकते हैं। हम जिस विचार या भावना से प्रेरित होकर कर्म करते हैं, वे विचार एवं भावनाएं ही अच्छा या बुरा कर्म बनाती हैं। जो अच्छा कर्म है वह हमें अच्छे परिणाम देता है। बुरा कर्म , बुरे एवं अशुभ परिणाम देता है।
विचित्रताओं से भरा हुआ है यह संसार:-
हम इस संसार में देखते हैं कि बहुत से लोग दुखी हैं, कई तरह के कष्ट पा रहे हैं। जीवन अभावों से ग्रस्त है। जबकि दूसरी ओर ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो सर्व सुविधा संपन्न हैं।
यहां पर दो बातें विचारणीय है। पहली बात कि धनी होने एवं सुखी होने में अंतर है। आवश्यक नहीं है कि जो धनी है वह सुखी ही है और जो निर्धन है वह दुखी ही हो। दूसरी बात यह कि हमारे जो कर्म हैं और जो परिणाम हमें मिल रहे हैं वे केवल इस जन्‍म के ही नहीं होते। हमारे पिछले जन्‍मों के कई कर्म होते हैं जिनका परिणाम हमें इस जन्म में मिल रहा होता है। किसी व्यक्ति को देख कर यह समझना कि वह अच्‍छे कर्म करके भी दुखी है या इसने कोई गलत कार्य नहीं किया है या यह दुष्‍कर्मी होकर भी धनवान दिख रहा है। इसने कोई श्रेष्‍ठ कर्म नहीं किया होगा। ऐसा विचार करना अनुचित है।
इच्छायें और कामनायें और संस्कार आत्मा का आवरण:-
सनातन धर्म के शास्त्रों के अनुसार हम जो कोई कर्म करते हैं। हम किसी कामना की पूर्ति के लिए, किसी इच्छा से जो भी कार्य करते हैं। वे हमारे मन में एक संस्कार को उत्पन्‍न करते हैं वह संस्‍कार हमारी आत्‍मा से चिपक जाता है।
किसी व्यक्ति के मन में जब किसी दूसरे के प्रति हिंसा का विचार आता है तो वह संस्‍कार विचार के रूप में व्‍यक्ति के अंतर्मन में, अवचेतन में, आत्मा में चिपक गया और आगे चल कर वही संस्‍कार उसके दुख का कारण बनता है और उसको दुख देता है।
          इसी तरह जो व्‍यक्ति करूणाभाव से प्रेरित होकर किसी व्‍यक्ति की भलाई करता है अच्‍छे कार्य करता है तो वे सदविचार के रूप में आत्मा की पवित्रता के रूप में अच्‍छे संस्‍कार के रूप में उसकी आत्मा में चिपक जाते हैं। वही आगे चल कर उसे सुख देता है। 
अनासक्‍त भाव का निष्काम कर्म ही सर्वोत्तम :-
तीसरे प्रकार का कर्म है अनासक्‍त भाव से किया गया कर्म। इसका उपदेश भगवान कृष्‍ण में गीता में दिया है। भगवान कहते हैं ऐसे कर्म जो अनासक्‍त भाव से किए गए हों, जो कर्म फल को ध्‍यान में रख कर नहीं किए गए हों। जिसके पीछे कोई कामना न हो जिसके पीछे कोई इच्‍छा न हो। जिसे हम उत्‍तरदायित्‍व समझ कर करते हों। उन्‍हें इस तीसरी श्रेणी में रखा जाता है। ये निष्‍काम कर्म हैं।अनासक्‍त भाव से किए कर्मों का कोई उद्देश्‍य नहीं होता। उनका कोई लक्ष्‍य नहीं होता। वह केवल कर्म होता है। ऐसा ही कर्म निष्काम कर्म है । यही कर्म वांछनीय है और यही कर्म इच्छित है।
सांसारिक रिश्ते नाते पूर्व जन्म के कर्म के अनुसार :-
हिन्दू दर्शन के अनुसार मृत्यु के बाद मात्र यह भौतिक शरीर या देह ही नष्ट होती है, जबकि सूक्ष्म शरीर जन्म-जन्मांतरों तक आत्मा के साथ संयुक्त रहता है। यह सूक्ष्म शरीर ही जन्म-जन्मांतरों के शुभ-अशुभ संस्कारों का वाहक होता है। कर्म नियम ऋग्वेद के समय से चला आ रहा सिद्धांत है। एसा माना जाता है कि पूर्व जन्म के कर्मों से ही व्यक्ति को उसके दूसरे जन्‍म में माता-पिता, भाई बहन, पति पत्नी, दोस्त-दुश्मन , नौकर चाकर आदि रिश्ते नाते मिलते है। इन सबसे या तो कुछ लेना होता है या फिर कुछ देना होता है। इसी प्रकार इस जन्म के व्यक्ति के संतान के रूप में उसके पूर्व जन्म का कोई संबंध ही आता है। शास्त्रों के अनुसार हमारे जितने भी सगे-संबंधी हैं, वे सभी किसी न किसी कारण ही हमारे सगे-संबंधी बने हैं। कुछ भी अकारण या संयोग से नहीं होता है। संयोग भी किसी कारणवश ही होता है। पिछले जन्म का हमारा कुछ हिसाब-किताब अगर बाकी रह जाता है, तो वह उसे हमें इस जन्म में पूरा करना होता है। धर्मशास्त्र और नीतिशास्त्रों में कहा गया है कि कर्म के बगैर गति नहीं मिलती है। हमारे द्वारा किया गया कर्म ही हमारे भविष्य को निर्धारित करता है।     
संचित कर्म':-
ये संस्कार मनुष्य के पूर्व जन्मों से ही नहीं आते, अपितु माता-पिता के संस्कार भी रज और वीर्य के माध्यम से उसमें (सूक्ष्म शरीर में) प्रविष्ट होते हैं जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व इन दोनों से ही प्रभावित होता है। बालक के गर्भधारण की परिस्थितियां भी इन पर प्रभाव डालती हैं। ये कर्म 'संस्कार' ही प्रत्येक जन्म में संगृहीत (एकत्र) होते चले जाते हैं जिससे कर्मों (अच्छे-बुरे दोनों) का एक विशाल भंडार बनता जाता है। इसे 'संचित कर्म' कहते हैं। शास्‍त्रों में इसे 4 प्रकार का बताया गया है।
1.ऋणानुबन्ध पुत्र :
यदि आपने पिछले जन्म में किसी से कोई कर्ज लिया हो और उसे चुका नहीं पाएं तो आपके इस जन्म में वो व्यक्ति आपकी संतान बनकर आपके जीवन में आएगा और तब तक आपका धन व्यर्थ होगा, जब तक उसका पूरा हिसाब न हो जाएं।
 2.शत्रु पुत्रः- 
अगर आपके पिछले जन्म में कोई आपका दुश्मन था और वो आपसे अपना बदला नहीं ले पाया था तो आपके इस जन्म में वो आपकी संतान के रूप में आपका एक अहम हिस्सा बनता है। जिसके बाद उसके कारण आपको जिंदगी भर परेशान ही रहना पड़ता है।
3 .उदासीन पुत्र : -
इस प्रकार कि सन्तान माता पिता को न तो कष्ट देती है ओर ना ही सुख। विवाह होने पर यह माता- पिता से अलग हो जाते हैं ।
4.सेवक पुत्र: -
यदि पिछले जन्म में आपने बिना किसी स्वार्थ के किसी की बहुत सेवा की है, तो वह व्यक्ति आपका कर्ज उतारने आपके वर्तमान जन्म में पुत्र बनकर आता है।
         हमें अपने प्रारब्ध के कर्मो को सकारात्मक रूप में अंगीकार करते हुए , काटते हुए और भोगते हुए आने वाले समय के लिए सात्विक कर्म को निष्पादित करना चाहिए। सांसारिक लोगों के सुख दुख की ना ही तुलना करना चाहिए और ना ही उस के बारे में किसी प्रकार का चिन्तन करना चाहिए। सदैव निष्काम कर्म में ही संयुक्त होना चाहिए।
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।) 




आखिर हिन्दू समाज से ही इतनी सदाशयता की अपेक्षा क्यों ?

                                खोल के कान, सुनें इरफान
            खोल के कान, भीख मांगने वाला
                   मूल लेखक: सन्त समीर 
        पुनः प्रस्तुति आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी 
((भारत में एक दो नही 1800 से ऊपर गैर मुस्लिम सरचनाएं हिंदू बौद्ध और जैन सरचनाओं को तोड़कर या उसके मलवे पर बनी हुई है। इसके बाबजूद मुस्लिम कांग्रेसी सपाई वामपन्थी केवल और केवल सनातन हिन्दू धर्म के लोगों को सदाशयता का पाठ पढ़ाते हैं।यह एकतरफा कुर्बानी आखिर कब तक यह बहु संख्यक समाज करता रहेगा और जुल्मकार कब तक सनातनियों के सीने पर मूंग गलाते रहेंगे। हमे अपनी अस्मिता की रक्षा लोकतांत्रिक तरीके से करनी ही होगी। एक विद्धान श्री सीताराम गोयल की प्रारम्भिक रिपोर्ट “LIST OF MOSQUES IN VARIOUS STATES WHICH WERE BUILT AFTER DEMOLISHING THE HINDU TEMPLES” BY Sita Ram Goel / https:skanda 987 .files .wordpress.com के आधार पर तैयार की गयी सूची में ही 1800 से अधिक स्थलों की सूची प्रकाशित हो चुकी है। )। -(आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी)

       आज काशी या मथुरा में एक बार फिर से भव्य मन्दिर का निर्माण होता है तो इस पर यह कहना सरासर गलत है कि ‘जो काम औरंगजेब ने किया वही काम अब आप करने जा रहे हैं, ऐसे में आप में और औरंगजेब में क्या अन्तर रह गया?’

        सेकुलर इतिहासकार प्रो. इरफान हबीब पक्के मार्क्सवादी हैं और मार्क्सवादियों को ‘इतिहास’ का विशेष खाद-पानी उपलब्ध कराते रहे हैं। किसी की विचारधारा कोई भी हो, अगर वह जिद की हद तक व्यक्तित्व पर प्रभावी होने लगे तो एक प्रकार का मानसिक रोग ही बन जाता है, विशेषकर मार्क्सवाद के संदर्भ में। वे बयान तो दे देते हैं लेकिन लगता है, वे ऐसा मानते हैं कि भारत की जनता इतनी भोली है कि उसके पीछे की उनकी असल मंशा नहीं समझ पाएगी!

        अभी हाल में मथुरा और काशी पर इरफान हबीब ने एक बयान दिया। उन्होंने कहा कि ‘औरंगजेब ने काशी और मथुरा में हिन्दू मन्दिरों को ध्वस्त किया था और यह करके उसने गलत किया था। यह साबित करने के लिए किसी सर्वेक्षण या अदालत के आदेश की आवश्यकता नहीं है कि वाराणसी और मथुरा में मन्दिर तोड़े गए थे, क्योंकि इतिहास की किताबों में पहले ही इसका उल्लेख किया गया है।’ यहां तक तो हबीब ने ठीक ही कहा।

         लेकिन उनके इसी बयान का अगला हिस्सा उनके मार्क्सवादी एजेंडे को साफ कर गया। प्रो. हबीब ने आगे कहा कि ‘औरंगजेब ने जो किया, उसे तीन सौ साल बाद दुरुस्त करने का औचित्य नहीं है।’ उनके कहे के हिसाब से गत तीन सौ साल से वहां पर ‘मस्जिद’ बनी हुई है। उनका कहना है कि ‘औरंगजेब ने भले ही वहां मन्दिरों की जगह मस्जिदें बनवाई हों; लेकिन अब उन्हें तोड़कर फिर से मन्दिर बनाना उचित नहीं है, वह भी तब, जबकि देश में संविधान लागू है।’ वे कहते हैं कि ‘जो काम औरंगजेब ने किया, वही काम अब आप करने जा रहे हैं, तो ऐसे में आप में और औरंगजेब में क्या अन्तर रह गया?’

         प्रो. इरफान यह नहीं बताते कि अगर पहले की गई गलती को दुरुस्त किया जाए तो इसमें परेशानी क्या है? अगर मन्दिर को तोड़कर बनाई गई मस्जिद केवल इसलिए बनी रहने दी जाए कि वह तीन सौ साल पहले से बनी हुई है, तो सवाल है कि सदियों तक मस्जिद के नीचे मौजूद मन्दिर की पृष्ठभूमि पर क्या विस्मृति की धूल चढ़ा दी जाए? क्या सदियों पहले से मस्जिद की जगह मौजूद आस्था के मन्दिर की तुलना में एक कौम के स्वाभिमान को तोड़ने के लिए नफरत के भाव से बनाई गई मस्जिद के ढांचे को बड़ा मान लिया जाए? अगर सचमुच कहीं कोई गलती है, तो उसे दुरुस्त करने का औचित्य आखिर क्यों नहीं? अतीत की इतनी बड़ी घटना को ‘जो हुआ सो हुआ’ कहकर भुला देना क्या इतना आसान है?

        ' औरंगजेब ने काशी और मथुरा में हिन्दू मन्दिरों को ध्वस्त किया था और यह करके उसने गलत किया था। यह साबित करने के लिए किसी सर्वेक्षण या अदालत के आदेश की आवश्यकता नहीं है कि वाराणसी और मथुरा में मन्दिर तोड़े गए थे, क्योंकि इतिहास की किताबों में पहले ही इसका उल्लेख किया गया है।’ – इरफान हबीब

       मुगलों द्वारा मन्दिर को तोड़कर मस्जिद बना देना, एक इमारत को दूसरी इमारत में बदल देना भर नहीं था। यह दूसरी कौम की सम्पत्ति पर कब्जा कर लेना या उसे हड़प लेना तो था ही, बुतशिकन के अहंकारी भाव से दूसरी कौम के सांस्कृतिक और धार्मिक चिह्नों को मिटा देने का अभियान भी था। हो सकता है, कुछ लोगों को ‘रेसकोर्स रोड’ को ‘लोककल्याण मार्ग’ बना देना, ‘किंग्सवे’ को ‘राजपथ’ के अहंकार से नीचे उतार कर ‘कर्तव्य पथ’ में बदल देना, ‘इण्डियन पीनल कोड’ को ‘भारतीय न्याय संहिता’ बना देना, फैजाबाद को ‘अयोध्या’ का मूल नाम दे देना, ‘मुगल गार्डन’ को ‘अमृत उद्यान’ में रूपायित करना या कि इण्डिया गेट के पास किंग जार्ज पंचम की जगह नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की प्रतिमा लगा देना अखरे या गलत और अनौचित्यपूर्ण लगे, पर सच तो यह है कि जो कौम विरासत के गौरव पर ध्यान नहीं दे सकती, वह अपना आत्मसम्मान और स्वाभिमान भी नहीं बचा सकती। अतीत के गौरव पर इतराना अलग बात है, पर एक स्वाभिमानी कौम के लिए वह ऊर्जा का स्रोत भी होता है।

       यदि आज काशी या मथुरा में एक बार फिर से भव्य मन्दिर का निर्माण होता है तो इस पर यह कहना सरासर गलत है कि ‘जो काम औरंगजेब ने किया वही काम अब आप करने जा रहे हैं, ऐसे में आप में और औरंगजेब में क्या अन्तर रह गया?’ अगर यह समझाना पड़े कि औरंगजेब के काम में और अब के काम में बुनियादी अन्तर है, तो यह समझदारों की समझदारी पर तरस खाने वाली बात होगी। ऐसा नहीं था कि हिन्दुओं ने मथुरा या काशी में किसी मस्जिद को तोड़कर मन्दिर बनाया हो और तब औरंगजेब ने मन्दिर को तोड़कर दुबारा मस्जिद बनाई हो। सचाई यह है कि मुगल अंग्रेजों से पहले अंग्रेजों की तरह ‘भारत को सभ्यता का पाठ’ पढ़ा रहे थे।
      अयोध्या में आज अगर राम का मन्दिर बना है तो यह किसी तरह की नफरत के वशीभूत नहीं है, बल्कि धर्म के प्रति आस्था दर्शाने और संस्कृति के प्रतीक को पुनर्जीवन देने जैसा है। यह कितना जरूरी था, इसका एहसास प्रो. हबीब की मार्क्सवादी नास्तिक भावनाओं के सहारे सम्भव नहीं है। यह भी याद रखना चाहिए कि मुसलमानों की एक बड़ी संख्या ने इस विरासत को महत्व को समझा है और राम मन्दिर को भरपूर समर्थन दिया है।

       भारत बहुभाषी और अनेक मतावलम्बियों का निवास स्थल है। आज वक्त इस्लाम के अनुयायियों के लिए अपना बड़ा दिल दिखाने का है। आखिर वे भी यहीं की मिट्टी में जन्मे हैं, राम-कृष्ण उनके भी पूर्वज हैं। उन्होंने मान्यताएं भले बदल ली हों, पर पूर्वजों की विरासत और गौरवबोध साझा हैं। इतिहास पर कितनी भी लीपापोती की जाए, पर मन्दिर विरोधियों को भी पता है कि मुगलों ने इस देश के एक-दो नहीं, हजारों मन्दिरों को तोड़ा। बुतशिकनी का यह मनोभाव अफगानिस्तान जैसे देश में आज भी देखा जा सकता है, जहां आए दिन अब तक बौद्धों-हिन्दुओं के बचे हुए चिह्नों को जमींदोज किया जा रहा है।

      हिन्दू समुदाय तोड़े गए हजारों मन्दिरों में से अगर आस्था के केवल तीन सबसे महत्वपूर्ण केन्द्रों को मांग रहा है तो समभाव रखते हुए मुस्लिम समुदाय को भी सहयोग का हाथ बढ़ाने के लिए आगे आना चाहिए। आग्रहों-पूर्वग्रहों के वशीभूत क्रिया-प्रतिक्रिया अलग बात है, पर भारत संसार में अकेला ऐसा देश है, जहां का बहुसंख्यक समाज अपने ही आस्था केन्द्रों के लिए दशकों से अदालती लड़ाई लड़ रहा है। संसार के समस्त मुस्लिम राष्ट्रों का अतीत और वर्तमान देखिए और सोचिए कि बहुसंख्यक स्थिति में क्या मुस्लिम समुदाय अपने आस्था केन्द्रों के लिए इस तरह से अदालती लड़ाई लड़ने की जहमत उठाता?

        ‘औरंगजेब ने जो किया, उसे तीन सौ साल बाद दुरुस्त करने का औचित्य नहीं है।’ उनके कहे के हिसाब से गत तीन सौ साल से वहां पर ‘मस्जिद’ बनी हुई है। उनका कहना है कि ‘औरंगजेब ने भले ही वहां मन्दिरों की जगह मस्जिदें बनवाई हों; लेकिन अब उन्हें तोड़कर फिर से मन्दिर बनाना उचित नहीं है, वह भी तब, जबकि देश में संविधान लागू है।’ – प्रो. हबीब

        मजहब से पहले मुल्क को रखने वाले कुछ मुसलमान भले ही ऐसा करने की बात करते, पर सबसे पहले वे ही रास्ते से हटाए जाते। जो लोग हिन्दुत्व के उभार से भयभीत हैं और ‘गंगा-जमुनी तहजीब’ की दुहाई देते हैं, उन्हें यह याद रखना चाहिए कि यह ‘तहजीब’ अगर भारत में चरितार्थ हुई है तो वह यहां की जमीन या पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों की वजह से नहीं हुई है, बल्कि ऐसा यहां के रहने वालों की मानसिकता की वजह से है। बहुसंख्यक समुदाय या कहें सनातनी समुदाय की मानसिकता सबके साथ मिल-जुलकर रहने की रही है, इसलिए यहां दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र फल-फूल रहा है।

         आज विरासत के पुनर्जागरण का अभियान जारी है। सनातन संस्कृति यही है कि वह खुद से पहले दूसरों का ख्याल करती है। यह भारत की संस्कृति ही है कि यहां अपने मुंह में रोटी का निवाला डालने से पहले आस-पड़ोस का ध्यान रखा जाता है कि कहीं कोई भूखा तो नहीं। हिन्दू दिल खोलकर सहयोग करते हैं। जाने कितनों की हज यात्रा हिन्दुओं के दिए दान के सहारे सम्भव हुई है। सनातन संस्कृति की जरा भी समझ रखने वाला यह समझ सकता है कि भारत का हिन्दू समुदाय उदार चित्त वाला है। इसलिए वह अपने स्वाभिमान के साथ कभी समझौता नहीं कर सकता। अपने आस्था चिन्हों को अपमानित होते नहीं देख सकता।

      प्रो. हबीब अगर अपनी सेकुलर मानसिकता से बाहर आकर सोचेंगे तो पाएंगे कि अयोध्या, काशी, मथुरा में बात सिर्फ मंदिर की नहीं है, बल्कि बात है अपने गौरव को नए जोश के साथ जाग्रत करते हुए अपने आराध्य के प्रति सर्वस्व समर्पण की।
         (आभार : पांचजन्य 22 फरवरी 2024
                  श्री सन्त समीर का आलेख
              https://panchjanya.com/)




Thursday, February 22, 2024

अपने व पूर्वजों के कर्मों का फल हर प्राणी को भोगना पड़ता है डा. राधेश्याम द्विवेदी


         अध्यात्म विषयक इस आलेख के आलोक में कृपया चिंतन मनन तथा परिपालन करें. संसार के प्रत्येक प्राणी को अपने तथा पूर्वजों के कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। इससे मुक्ति कभी नहीं मिलती है। यह बात और है कि किस कर्म का फल कब मिलता है। जो कर्म ज्यादा होते हैं उसे बाद में तथा जो कम होते है उसे पहले भोगने को मिलता है। वैसे इसका कोई एक ही पैमाना ना होकर परिस्थिति तथा दैवी कृपा से निर्धारण होते देखा या सुना गया है। यदि अच्छे कर्म ज्यादा हैं तो बुरे कर्मों का फल इसी जन्म में तथा अच्छे का फल अगले जन्म में या इसी जन्म के बाद के दिनों में भोगने को मिलता है। यदि बुरे कर्म ज्यादा हैं तो अच्छे कर्मों का फल इसी जन्म में तथा बुरे का फल अगले जन्म में या इसी जन्म के बाद के दिनों में भोगने को मिलता है। अध्यात्म तथा लोकाचार में यह बात कही गई हैं कि "जैसा बीज बोवोगे, वैसा ही फल काटोगे।" गोस्वामी तुलसी दास ने कहा है "जो जस करहिं तो तस फल चाखा।" श्रीमद् भगवत गीता में कहा गया है कि मनुष्य अपने कर्मों का फल इसी जन्म में पाता है। इस संसार में रहते हुए फल की चिंता किए बिना कर्म करते जाना ही हर मनुष्य का कर्त्तव्य है। जो अपना कर्म नहीं करता वह पाप का भागीदार होता है। 
        वास्तविक जीवन में कई बार ऐसा होता है कि मनुष्य के स्वभाव के विपरीत उसे कर्मफल मिलते हैं। अक्सर ऐसा होता है कि अच्छे लोगों को बार-बार जीवन में बुरी तथा दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं का सामना करना पड़ जाता है, जबकि कई दुष्ट मनुष्यों को अनेक बुरे कर्मों के बावजूद भाग्यहीनता का कभी सामना नहीं करना पड़ता। एसे में अगर कर्म के अनुसार फल पाने जैसी बातों का आंकलन करें, तो यह पूरी तरह निराधार मालूम पड़ता है।
मनुष्य का वंश उसका पुनर्जन्म :- बच्चे अपने माता-पिता का अंश होते हैं और उन्हीं का दूसरा रूप माने जाते हैं। उनकी सोच और स्थिति के अनुसार बच्चों का जीवन भी प्रभावित होता है, लेकिन इससे भी कहीं बहुत अधिक हर व्यक्ति का भाग्य और दुर्भाग्य भी अपने पारिवारिक कर्मों से जुड़ा होता है। इसलिए संभव है कोई मनुष्य अपने कर्म और स्वभाव में अति नेक दिल हो लेकिन उसकी परिस्थितियां हमेशा उसे चुनौतियों तथा दुखों का सामना कराए। वहीं एसा भी संभव है कि एक अत्यधिक क्रूर व्यक्ति भी अपने भाग्य के बल पर जीवन का हर सुख पाए और हर चीज उसे आसानी से मिल जाए। यह उनसे जुड़े पारिवारिक कर्मों के फल हो सकते हैं। इसलिए अपने साथ दूसरों की परिस्थितियों की तुलना करते हुए दुखी होने की बजाय हमें उसे अपना कर्मफल मानकर चलना चाहिए और ईमानदारी पूर्वक अपने कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए।
पूर्वजों से जुड़ते कर्मफल :- पारिवारिक कर्मों या यूं कहें पूर्वजों के कर्मों से जुड़े लोग कुछ ऐसी घटनाओं या परिस्थितियों से जुड़ सकते हैं जिसका उनके वर्तमान वजूद से शायद ही कोई नाता हो। एसे लोग उन परिस्थितियों के भी जिम्मेदार ठहराए जाते हैं जो उन्होंने कभी किया ही नहीं। एसा भी संभव है कि हमें उस काम का क्रेडिट भी मिले जिसके लिए हमारा बहुत अधिक योगदान ना हो। अगर कोई व्यक्ति अपने पूर्वजों के कर्मों से जुड़ा होगा तो जरूरी नहीं कि यह हमेशा उसके लिए नकारात्मक ही होगा, बल्कि कई बार यह उसके लिए अच्छा भी होगा। या तो एसे लोगों को मेहनत से कम आंका जाता है या मेहनत और उम्मीद से अधिक उन्हें मिलता है। ज्यादातर एसे लोगों को परिवार में या तो उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है या उनसे हर किसी की बहुत अधिक उम्मीदें होती हैं। परिणाम यह होता है कि अगर परिवार में कुछ बुरा हुआ और उसके लिए वे जिम्मेदार ना भी हुए, तो भी दोषी ठहराए जाते हैं। यह उनके लिए बेहद दुखी करने वाला या अवसादपूर्ण परिणाम होता है।
        इसके ठीक विपरीत एसा भी हो सकता है कि किसी भी प्रकार से परिवार की उन्नति हो या मान-सम्मान मिले और उसे दिलाने में भले ही उस व्यक्ति ने कोई अधिक प्रयास ना किया हो लेकिन परिस्थितियां कुछ एसी होती हैं कि उसका पूरा क्रेडिट उसे ही दे दिया जाता है। एसे लोग त्यागी होते हैं और जीवन में अपने पूर्वजों के आशीर्वाद से आगे बढ़ते हैं। परिवार और उसके हर सदस्य के लिए उनके दिल में एक विशेष मोह होता है। अन्य लोगों की अपेक्षा उनमें परिवार के सदस्यों और परिस्थितियों के लिए अतिरिक्त समझ भी होती है। जिन घटनाओं या समस्याओं का कारण और निदान परिवार के बड़े भी नहीं समझ पाते, उन्हें ये आसानी से समझ लेते हैं।
समभाव में रहने का प्रयास करें :- इसलिए अगर हमारे साथ भी उपर्युक्त परिस्थितियां हैं तो समझें हम भी अपने परिवार के कर्मों से जुड़े हैं। एसे में अगर हमें बेवजह प्रशंसा मिले तो उसपर बहुत अधिक उत्साहित और खुश होने की बजाय अपनी वास्तविकता को याद रखना चाहिए। इसी प्रकार अगर अकारण कुछ बुरा होता है तो दुखी होने की बजाय सत्य को स्वीकर करना चाहिए। जो हो रहा है उसका आंकलन करना चाहिए और अपने दिल की पुकार को ही सुनना चाहिए। चाहें हालात अच्छे हों या बुरे, अपने दिल की आवाज को कभी अनसुना ना करें, यही हम सबको हमेशा सही रास्ता दिखाएगा।
पूर्वजों के गुणों का अनुसरण : - हमें अपने पूर्वजों के गुणों का अनुसरण करना ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि देना होता है। परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को न मानकर उसकी कथित पूजा करना अथवा अपात्र को दान देना, एसे कर्म क्रमशः कोई कर्म-फल प्राप्त नहीं कराते, बल्कि पाप का भागी बनाते हैं। परमात्मा जिसे जीवन में कोई विशेष अभ्युदय-अनुग्रह करना चाहता है, उसकी बहुत-सी सुविधाओं को समाप्त कर दिया करता है। पिता सिखाते हैं पैरों पर संतुलन बनाकर व उंगली थाम कर चलना, पर मां सिखाती है सभी के साथ संतुलन बनाकर दुनिया के साथ चलना, तभी वह अलग है, महान है। हमें पढना एक गुना, चिंतन दोगुना, आचरण चैगुना करना चाहिए। परोपकारी, निष्कामी और सत्यवादी यानी निर्भय होकर मन, वचन व कर्म से सत्य का आचरण करने वाले को देव कहा जा सकता है। प्रेम करने का मतलब सम-व्यवहार जरूरी नहीं, बल्कि सम-भाव होना चाहिए जिसके लिए घोड़े की लगाम की भांति व्यवहार में कभी ढील देना पड़ती है और कभी खींचना भी जरूरी हो जाता है। 
बाढ़ै पूत पिता के धर्मे :- घाघ तथा लोकाचार में कहा जाता है कि पुत्र पिता के धर्म से फलता-फूलता है और खेती अपने कर्म से अच्छी होती है।
      बाढ़ै पूत पिता के धर्मे। खेती उपजै अपने कर्मे।।

          पूर्वजों के कर्म भी उनकी संतानों के भाग्य को प्रभावित करते हैं। दशरथ ने श्रवण कुमार को बाण मारा जिसके फलस्वरूप माता-पिता के शाप के कारण पुत्र वियोग से मृत्यु का कर्मफल भोगना पड़ा। किंतु इसका परिणाम तो उनके पुत्रों, पुत्रवधू समेत पूरे राजपरिवार यहां तक कि अयोध्या की प्रजा को भी भोगना पड़ा। भगवान राम भगवान होते हुए भी उस कर्म फल से ना तो स्वयं मुक्त हो सके ना ही अन्य किसी को कर सके। इसी प्रकार बहेलिया के बाण से श्रीकृष्ण का अन्त भी कर्म फल के कारण ही हुआ था।
संगति गुण अनेक फल :- कहा जाता है कि 'संगति गुण अनेक फल।' घुन गेहूं की संगति करता है। गेहूं की नियति चक्की में पिसना है। गेहूं से संगति करने के कारण ही घुन को भी चक्की में पिसना पड़ता है। देखा जाता है कि किसी जातक के पीड़ित होने पर उसके संबंधी तथा मित्र भी पीड़ित होते हैं। इस दृष्टि से सज्जनों का संग साथ शुभ फल और अपराधियों दुष्टों का संग साथ अशुभ फल की पूर्व सूचना मिल जाती है। किसी भी अपराधी से संपर्क उसका आतिथ्य या उपहार स्वीकार करना भयंकर दुर्भाग्य विपत्ति को आमंत्रण देना है। अतः यश-अपयश, उचित-अनुचित का हर समय विचार करके ही कोई काम करना चाहिए, क्योंकि इन्हीं से सुखद-दुखद परिस्थितियां बनती हैं। इन्हीं के अनुसार भविष्य का निर्धारण होता है।

लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।) 

Wednesday, February 14, 2024

सरस्वती जयंती -- आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी

सरस्वती हिन्दू धर्म की प्रमुख वैदिक एवं पौराणिक देवियों में से हैं। सनातन धर्म शास्त्रों में दो सरस्वती का वर्णन आता है, एक ब्रह्मा पत्नी सरस्वती एवं एक ब्रह्मा पुत्री तथा विष्णु पत्नी सरस्वती। ब्रह्मा पत्नी सरस्वती मूल प्रकृति से उत्पन्न सतोगुण महाशक्ति एवं प्रमुख त्रिदेवियों में से एक है एवं विष्णु की पत्नी सरस्वती ब्रह्मा के जिव्हा से प्रकट होने के कारण ब्रह्मा की पुत्री मानी जाती है कई शास्त्रों में इन्हें मुरारी वल्लभा (विष्णु पत्नी) कहकर भी संबोधन किया गया है। धर्म शास्त्रों के अनुसार दोनों देवियाँ ही समान नाम स्वरूप, प्रकृति, शक्ति एवं ब्रह्मज्ञान-विद्या आदि की अधिष्ठात्री देवी मानी गई है इसलिए इनकी ध्यान आराधना में ज्यादा भेद नहीं बताया गया है।
ब्रह्म विद्या एवं नृत्य संगीत क्षेत्र के अधिष्ठाता के रूप में दक्षिणामूर्ति/नटराज शिव एवं सरस्वती दोनों को माना जाता है इसी कारण दुर्गा सप्तशती की मूर्ति रहस्य में दोनों को एक ही प्रकृति का कहा गया है अतः सरस्वती के १०८ नामों में इन्हें शिवानुजा (शिव की छोटी बहन) कहकर भी संबोधित किया गया है।
कहीं-कहीं ब्रह्मा पुत्री सरस्वती को विष्णु पत्नी सरस्वती से संपूर्णतः अलग माना जाता है इस तरह मतान्तर में तीन सरस्वती का भी वर्णन आता है। इसके अन्य पर्याय या नाम हैं वाणी, शारदा, वागेश्वरी, वेदमाता इत्यादि हैं। ये शुक्लवर्ण, शुक्लाम्बरा, वीणा-पुस्तक-धारिणी तथा श्वेतपद्मासना कही गई हैं। इनकी उपासना करने से मूर्ख भी विद्वान् बन सकता है। माघ शुक्ल पंचमी (श्रीपंचमी/बसंतपंचमी) को इनकी विशेष रूप से पूजन करने की परंपरा है। देवी भागवत के अनुसार विष्णु पत्नी सरस्वती वैकुण्ठ में निवास करने वाली है एवं पितामह ब्रह्मा की जिह्वा से जन्मी हैं तथा कहीं-कहीं ऐसा भी वर्णन आता है की नित्यगोलोक निवासी श्री कृष्ण भगवान के वंशी के स्वर से प्रकट हुई है। देवी सरस्वती का वर्णन वेदों के मेधा सूक्त में, उपनिषदों, रामायण, महाभारत के अतिरिक्त कालिका पुराण, वृहत्त नंदीकेश्वर पुराण तथा शिव महापुराण, श्रीमद् देवी भागवत पुराण इत्यादि इसके अलावा ब्रह्मवैवर्त पुराण में विष्णु पत्नी सरस्वती का विशेष उल्लेख आया है। 
       पौराणिक कथा अनुसार सृष्टि के प्रारंभिक काल में पितामह ब्रह्मा ने अपने संकल्प से ब्रह्मांड की तथा उनमें सभी प्रकार के जंघम-स्थावर जैसे पेड़-पौधे, पशु-पक्षी मनुष्यादि योनियों की रचना की। लेकिन अपनी सर्जन से वे संतुष्ट नहीं थे, उन्हें लगता था कि कुछ कमी रह गई है जिसके कारण चारों ओर मौन छाया रहता है। तब ब्रह्मा जी ने इस समस्या के निवारण के लिए अपने कमण्डल से जल अपने अंजली में लेकर संकल्प स्वरूप उस जल को छिड़कर भगवान श्री विष्णु की स्तुति करनी आरम्भ की। ब्रम्हा जी के किये स्तुति को सुन कर भगवान विष्णु तत्काल ही उनके सम्मुख प्रकट हो गए और उनकी समस्या जानकर भगवान विष्णु ने मूलप्रकृति आदिशक्ति माता का आव्हान किया। विष्णु जी के द्वारा आव्हान होने के कारण मूलप्रकृति आदिशक्ति वहां तुरंत ही ज्योति पुंज रूप में प्रकट हो गयीं तब ब्रह्म एवं विष्णु जी ने उन्हें इस संकट को दूर करने का निवेदन किया।
        ब्रम्हा जी तथा विष्णु जी बातों को सुनने के बाद उसी क्षण मूलप्रकृति आदिशक्ति के संकल्प से तथा स्वयं के अंश से श्वेतवर्णा एक प्रचंड तेज उत्पन्न किया जो एक दिव्य नारी के नारी स्वरूप बदल गया। जिनके हाथो में वीणा, वर-मुद्रा पुस्तक एवं माला एवं श्वेत कमल पर विराजित थी। मूल प्रकृति आदिशक्ति के शरीर से उत्पन्न तेज से प्रकट होते ही उस देवी ने वीणा का मधुरनाद किया जिससे समस्त राग रागिनिया संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया। पवन चलने से सरसराहट होने लगी। तब सभी देवताओं ने शब्द और रस का संचार कर देने वाली उन देवी को ब्रह्म ज्ञान विद्या वाणी संगीत कला की अधिष्ठात्री देवी "सरस्वती" कहा गया।
        फिर आदिशक्ति मूल प्रकृति ने पितामह ब्रम्हा से कहा कि मेरे तेज से उत्पन्न हुई ये देवी सरस्वती आपकी अर्धांगिनी शक्ति अर्थात पत्नी बनेंगी, जैसे लक्ष्मी श्री विष्णु की शक्ति हैं, शिवा शिव की शक्ति हैं उसी प्रकार ये सरस्वती देवी ही आपकी शक्ति होंगी। ऐसी उद्घोषणा कर मूलप्रकृति ज्योति स्वरूप आदिशक्ति अंतर्धान हो गयीं। इसके बाद सभी देवता सृष्टि के संचालन में संलग्न हो गए। सरस्वती को वागीश्वरी, भगवती, शारदा और वीणावादिनी सहित अनेक नामों से संबोधित जाता है। ये सभी प्रकार के ब्रह्म विद्या-बुद्धि एवं वाक् प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की अधिष्ठात्री देवी भी हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है-
 " प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।
भावार्थ:- ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। कई पुराणो के अनुसार नित्यगोलोक निवासी श्रीकृष्ण भगवान ने सरस्वती से प्रसन्न होकर कहा की उनकी बसंत पंचमी के दिन विशेष आराधना करने वालों को ज्ञान विद्या कला मे चरम उत्कर्ष प्राप्त होगी । इस उद्घोषणा के फलस्वरूप भारत में वसंत पंचमी के दिन ब्रह्मविद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की पूजा होने कि परंपरा आज तक जारी है।
                       सरस्वती वंदना
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥

शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्‌।
हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्‌
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्‌।।









 

Monday, February 12, 2024

वक्फ बोर्ड के कानून ने लटकाया, चौवन साल में सच निकल पाया, लाक्षागृह हिंदुओं के अधीनआया डॉ. राधे श्याम द्विवेदी


          ‘मजार नहीं , महाभारत काल का लाक्षागृह :-
अयोध्या में श्रीराम मंदिर बनने और वर्षों पुराना विवाद खत्म होने के बाद अभी भी काशी और मथुरा के विवाद अदालतों में चल ही रहे थे । ज्ञानवापी के बाद हिंदुओं को  एक और जीत हुई है। बागपत के सिविल कोर्ट ने 5 फरवरी 2024  को एकअहम फैसला सुनाया है।
        यूपी के बागपत जिले में महाभारत काल के पांडवों के द्वारा मांगे गए पांच गांवों में से एक वर्णावत आधुनिक बरनावा (बागपत जिले ) का ऐतिहासिक गांव से संबंधित महत्वपूर्ण निर्णय आया है। यह ऐतिहासिक स्थल जो महाभारत काल की PGW पॉटरी को अपने आप में समेटे हुए है। इस सच को उजागिर करने में भारतीय न्याय व्यवस्था को 54 साल का समय लग गया।  राम लला के केस की प्रेरणा ने न्याय तन्त्र को झकझोर दिया और जज की आत्मा अंतः प्रेरित होते हुए आधी शताब्दी से लटके इस पुराने विवाद का निपटारा कर ही दिया । न्यायालय ने सबूतों के आधार पर हिंदू पक्ष में फैसला सुनाया। साथ के 100 बीघे जमीन को हिंदू पक्ष को सौंप दिया।


प्राचीन इतिहास :-
महाभारत के अनुसार दुर्योधन ने पांडवों को खत्म करने की योजना बनाई थी। वारणावर्त (अब बरनावा) में पुरोचन नाम के शिल्पी से ज्वलनशील पदार्थों लाख, मोम आदि से एक भवन तैयार कराया गया था। यह सुरंग हिडन नदी के किनारे खुलती है। इसके अवशेष आज भी मिलते हैं। गांव के दक्षिण में लगभग 100 फुट ऊंचा और 30 एकड़ भूमि पर फैला हुआ यह टीला लाक्षागृह के अवशेष के रूप में मौजूद है। इस टीले के नीचे 2 सुरंगें स्थित हैं। इस लाक्षागृह के आज भी कई सबूत - जली हुई ईट और दीवालें मिलते हैं। कहा जाता है कि पांडवों की हत्या की साजिश दुर्योधन ने यहीं रची थी, लेकिन विदुर के आगे उसकी योजना धरी की धरी रह गई थी। भवन में आग लगते ही और विदुर की  सूझ-बूझ ने पांडवों को यहां से सुरक्षित निकाल लिया था।
स्थल की वस्तु स्थिति:-
बरनावा नाम का गांव मेरठ से करीब 40 किलोमीटर की दूरी पर है। यह इलाका सुनसान ही नजर आता है। यह राजधानी दिल्ली से लगभग 100 किलोमीटर दूर हिंडन और कृष्णा नदी के संगम के पास एक ऐतिहासिक टीला है। यहां एक ऊंचा टीला है और उसके आसपास टूटी हुई दीवारें हैं। दीवारों पर कुछ जले हुए के निशान आज भी देखे जा सकते हैं। बीते 54 सालों से इस जगह को लेकर विवाद चल रहा था। हिंदू पक्ष इसे महाभारत कालीन लाक्षागृह बता रहा तो वहीं मुस्लिम पक्ष लाक्षागृह की 100 बीघे जमीन को कब्रिस्तान और शेख बदरुद्दीन की दरगाह बताकर उस पर कब्जा करना चाहता था। मुस्लिमों ने टीले के आसपास की जमीन पर दावा किया था और कहा था कि यह कब्रिस्तान और दरगाह की जमीन है।
      बरनावा के टीले पर जो दरगाह है, वो  एक सूफी संत शेख बदरुद्दीन की है। जो लगभग 600वर्षों पूर्व अपने जीवन की अंतिम साधना इसी टीले पर की है।बरनावा के टीले पर सूफी संत बदरुद्दीन की मजार और उनके कई अन्य चेलों की मजार भी बनी हुई है ! वहीं पर उनका मेहमानखाना और छोटी मस्जिद इबादत के लिए बनाई गई थी जो कालांतर में मौसम के कारण ढह गई! परंतु अभी तक उनकी याद में बनाई गई मजार की गुंबद जीर्ण हालत में मौजूद है। बागपत सिविल न्यायालय अपने  32 पृष्ठीय आदेश में कहा  है कि मुस्लिम पक्ष के सबूत में खामियां पाई गई । पक्षकार 600 साल पहले बने वहां मजार बनने की बात तो कहता है जिसे उस समय के शाह ने वक्फ संपत्ति बनाया , पर शाह का नाम बताने में पक्षकार विफल रहा। वास्तव में सरकारी रिकार्ड मे मजार का कहीं कोई उल्लेख ही नही है। सिविल जज शिवम द्विवेदी ने माना कि महाभारत काल के लाखा घर पर मुस्लिम सूफी बदरुद्दीन का कोई मजार नहीं है। मुस्लिम पक्ष यह स्थापित नहीं कर सका कि 1920 में विवादित स्थल वक्फ संपत्ति थी या कब्रिस्तान। जबकि भारत सरकार के 12 दिसंबर 1920 के नोटिफिकेशन में यह लाक्षागृह के रूप में सरक्षित स्मारक दर्ज है।

सूफी संत शेख बदरुद्दीन शाह का परिचय:-
निम्न लिंक से सूफी संत शेख बदरुद्दीन शाह के बारे में पर्याप्त जानकारी मिलती है - http://cultureandhistory.in/sufi-sant-badruddin-shah.html
              सूफ़ी संत बदरुद्दीन शाह
  " सूफी बदरुद्दीन शाह सूफियों के चिश्ती संप्रदाय के अनुयायी थे और प्रसिद्ध चिश्ती संत नसीरुद्दीन शाह चिराग देहलवी के शिष्य थे।सूफी बदरुद्दीन शाह का जन्म 1236 ई में जिला बागपत के सिरसलगढ़ नामक स्थान पर हुआ था । उन्हें सूफियों की महान परंपरा में दीक्षित किया गया और अंततः बरनावा में बसने से पहले, उन्होंने दिल्ली की यात्रा की थी । वे बागपत में लगातार उपदेश देते रहे। 1343 में उनकी मृत्यु हो गई और उन्हें बरनावा में ही दफनाया गया, जहां समय के साथ उनके दफनाने का स्थान इस क्षेत्र के सबसे महत्वपूर्ण सूफी केंद्रों में से एक बन गया।
        बरनावा का प्राथमिक सूफी मजार गांव के भीतर स्थित है जो उत्तरी टीले पर निकलता है। यहां सल्तनत के साथ-साथ बाद के काल की भी कई इमारतें हैं, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण है दरगाह और उससे सटी एक पुरानी मस्जिद। मंदिर के भीतर एक प्राचीन कुरान मौजूद है, जिसके सभी पन्नों पर सोने से सुलेख है। दक्षिणी टीले के ऊपर कुछ अन्य प्राचीन इमारतें हैं, जो संभवतः महान सूफी के समय की हैं। वर्तमान में हर साल सूफी बदरुद्दीन के मुख्य दरगाह में एक उर्स और त्यौहार आयोजित किया जाता है और पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश से कवाल आते हैं और महान संत की याद में कव्वाली पेश करते हैं, जिसमें अमीर खुसरो की मूल प्रस्तुति भी शामिल है, यह परंपरा लगभग 800 साल पुरानी है ।"
उत्खनन में महाभारत कालीन अवशेष :-
लाक्षागृह का टीला करीब 100 बीघा परिक्षेत्र में फ़ैला हुआ है। यहां पुरातत्व सर्वेक्षण का संरक्षित एक बोर्ड भी लगा है जिसमें लाक्षागृह बरनावा लिखा हुआ है। इसमें बताया गया है कि यह पांडवकालीन है। यहां लोग ना के बराबर ही आते हैं। 

1952 और 2018 में यहां एएसआई की देखरेख में खुदाई हुई थी। इसमें कई वर्ष पुराने मिट्टी के बर्तन मिले थे। इन बर्तनों की उम्र 4500 साल पुरानी बताई गई। इसका वर्तमान संरचना मुगलकालीन है। बदरुद्दीन की मजार और कब्रिस्तान यहां पर अवैध कब्जे के रूप में बना है।  यहां 6 साल पहले भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की टीम खुदाई कर चुकी है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) लाल किला, भारतीय पुरातत्व संस्थान, नई दिल्ली द्वारा सन 2018 में ट्रेंच लगाकर टीले का उत्खनन किया जा चुका है. उत्खनन से महत्वपूर्ण चीजें भी प्राप्त हो चुकी हैं। टीले के नीचे जो दफन है, वो सब भारत की संस्कृति महाभारत काल की पेंटेड ग्रे वेयर PGW , कुषाणकाल, गुप्तकाल, राजपूत काल की पॉटरी के साक्ष्य यहां मिलते हैं। इन सबको ध्यान में रखते हुए कोर्ट ने यह फैसला दिया होगा। इसी को सपोर्ट करते हुए यहां एक गुरुकुल भी यहां लगभग 60 वर्षों से चल रहा है। यहीं पर आचार्य बालकृष्ण जी ने साधना की है और यहां गुरुकुल परिसर में पांच भव्य यज्ञशालाएं हैं। इनमें वर्ष में दो बार बड़े यज्ञों के आयोजन होते हैं, जिनमें देश भर ही नहीं विदेश से भी श्रद्धालु भाग लेते हैं।
मेरठ और बागपत कोर्ट में लम्बा चला ट्रायल :-
यह केस मेरठ की अदालत में 1970 में फाइल किया गया था। इसके वाद में लाक्षागृह गुरुकुल के संस्थापक ब्रह्मचारी महाराज थे। वहीं मुकीम खान मुस्लिम पक्ष की तरफ से थे। फिलहाल दोनों का ही निधन हो चुका है। न्यायालय में बरनावा लाक्षागृह का मामला 54 साल तक चला। जिसमें करीब 875 तारीखें लगाई गईं और दोनों पक्षों के 12 गवाह बने। जिस पर न्यायालय ने 32 पेज पर 104 बिंदुओं में फैसला दिया। जिसमें न्यायाधीश ने आखिर में केवल इतना लिखा कि "वादी वाद साबित करने में असफल रहे और इसे निरस्त किया जाता है।"  वादी पक्ष से मुकीम खान ने सबसे पहले याचिका दायर की और उनकी मौत के बाद खैराती खान व अहमद खान ने मरने तक पैरवी की तो अब खालिद खान पैरवी कर रहे थे।इस तरह ही प्रतिवादी पक्ष में शुरूआत में कृष्णदत्त रहे और उनकी मौत के बाद हर्रा गांव के छिद्दा सिंह, बरनावा के जगमोहन, बरनावा के जयकिशन महाराज ने पैरवी की। इन सभी की मौत हो चुकी है। वहीं, अब मेरठ की पंचशील कॉलोनी में रहने वाले राजपाल त्यागी व जयवीर, बरनावा के आदेश व विजयपाल कश्यप पैरवी कर रहे थे। यह सभी इस मामले में गवाह भी रहे।

पुरातत्व विभाग का संरक्षित क्षेत्र :-
एएसआई सर्वे में भी यहां महाभारत काल के साक्ष्य मिलने की बात कही गई है। राजस्व रिकार्ड में भी इस जगह का नाम लाक्षागृह के नाम से ही दर्ज किया गया है। कोर्ट में हिंदू पक्ष ने बताया था कि यहां आज भी सुरंग मौजूद है जिसकी मदद से पांडव बच निकले थे। इसके अलावा लाख के किले की बड़ी सी ईंट जमीन के अंदर राख और शिव मंदिर के अवशेष मौजूद हैं। यह जगह एएसआई द्वारा संरक्षित है। यहां प्राचीन काल के अवशेष आज भी मौजूद हैं। एएसआइ आगरा से अभियन्ता श्री अमर नाथ गुप्ता और उनके सुपरवाइजर शमशेर खान के देखरेख में पिछले दिनों कारीगरों की टीम ने पहचान खो रहे संरक्षित क्षेत्र की चाहरदीवारी का निर्माण कर गुम्बदनुमा अवशेष को नक्काशी कर पत्थर लगाकर संवारा है । जीर्णोद्धार के काम के लिए करीब 3 दर्जन मजदूरों व प्रशिक्षित इंजीनियरों की टीम ने बहुत तेजी से सबसे पहले यहां की साफ सफाई की और टीले पर मौजूद मुगलकालीन स्थापत्य कला के अद्भुत नमूने के अवशेष इकट्ठा किए और लाल चित्तीदार पत्थर से बनी मुगलकालीन मजार के ऊपर उसी प्रकार के मुगल कालीन डिजाइन की अनुकृति बनाकर उसकी मरम्मत का काम किए है। इसमें करीब 24 लाख रुपये के खर्च हुआ था। 

पर्यटन विभाग ने कराया विकास :-
प्रदेश के पर्यटन एवं संस्कृति विभाग द्वारा लाक्षागृह को महाभारत सर्किट योजना से जोड़कर वर्ष 2006- 07
में करीब डेढ़ करोड़ रुपये की धनराशि से सौंदर्यकरण कराया गया। इसमें सुरंगों का सौन्दर्यकरण, सभा कक्ष, पर्यटकों के लिए शेड, फुटपाथ, सीढि़या, स्नानागार व शौचालय आदि का निर्माण हुआ। लाक्षागृह पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हो रहा है।


परवान नही चढ़ी स्वदेश दर्शन योजना:-
लाक्षागृह के विकास के लिए पिछली केंद्र सरकार के पर्यटन एवं संस्कृति मंत्रालय द्वारा भी लाक्षागृह को स्वदेश दर्शन योजना के आध्यात्मिक परिपथ-1 प्रोजेक्ट के तहत वर्ष 2016 में 1.39 करोड़ की धनराशि से विकास की स्वीकृति दी थी परन्तु ए एस आई के मानक को फॉलो ना कर पाने के कारण यह योजना शुरू ही नहीं हो पाई।
शापित माना जाता है यह साइट :-
यहां के स्थानीय लोग इस जगह को शापित भी मानते आ रहे हैं। इसीलिए यहां आसपास लोगों ने निर्माण नहीं किया है। उनका कहना है कि यहां बस्ती बसना संभव नहीं है। इस लाक्षागृह में जब आग लगवाई गई तो बहुत सारे लोग जलकर मर गए थे। इसके बाद से यह जगह उजाड़ ही पड़ी रही। यहां ज्यादा परिवर्तन दिखाई नहीं पड़ता है।               श्री शिवम द्विवेदी ,सिविल जज ,बागपत 
कोर्ट के फैसले के बाद बढ़ाई गई सुरक्षा :-
इस धर्मस्थल को लेकर स्थानीय अदालत के फैसले के आने के बाद से इस जगह की सुरक्षा के लिए प्रशासन ने टेंट लगाकर पुलिस और डेढ़ सेक्शन पीएसी की तैनाती कर दी है।आने जाने वालों को चेक किया जा रहा है।फैसले के बाद काफी लोग वहां देखने के लिए पहुंच रहे हैं। मीडिया सूत्रों का कहना है कि मौजूदा स्थल पर असमाजिक तत्वों की गतिविधि रोकने और क्षेत्र में शांतिपूर्ण माहौल बनाए रखने के लिए सुरक्षा बढ़ाई गई है। फिलहाल वहां पर लोगों को भीड़ लगाने या किसी भी तरह के आयोजन करने से मना किया गया है। फैसले के बाद काफी लोग वहां देखने के लिए पहुंच रहे हैं।     डा.राधे श्याम द्विवेदी पूर्व सहायक पुस्तकालय एवं सूचना                          अधिकारी आगरा मंडल आगरा 

लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।)