श्रीमदभागवतपुराण माहात्म्य चतुर्थोSध्यायः( प्रसंग 26)
डा. राधे श्याम द्विवेदी
प्राचीन समय में एक ब्राह्मण थे आत्मदेव।जो तुंगभद्रा नदी के तट पर रहते थे।ये बड़े ज्ञानी थे।ये समस्त वेदों के विशेषज्ञ और श्रौत-स्मार्त कर्मों में निपुण थे।इनकी एक पत्नी थी जिसका नाम था धुन्धुली।वैसे तो ये कुलीन और सुंदर थी लेकिन अपनी बात मनवाने वाली, क्रूर और झगड़ालू थी।आत्मदेव जी के जीवन में धन,वैभव सब कुछ था लेकिन सिर्फ एक चीज की कमी थी। इनके जीवन में कोई संतान नहीं थी।जिस बात का इन्हे दुःख था।
जब अवस्था बहुत ढल गयी,तब उन्होंने सन्तान के लिये तरह- तरह के पुण्यकर्म आरम्भ किये और वे दीन-दुःखियों को गौ, पृथ्वी,सुवर्ण और वस्त्रादि दान करने लगे।इससे कोई लाभ नहीं हुआ।इतना दुःखी हो गए कि अपने प्राण त्यागने के लिए वन में चल दिए।जब अपने जीवन का अंत करने जा रहे थे तो रास्ते में एक सिद्ध संत महात्मा बैठे हुए थे।
संत ने पूछा-अरे! तुम कौन हो और कहाँ जा रहे हो?
आत्मदेव जी कहते हैं, सन्तान के लिये मैं इतना दुःखी हो गया हूँ कि मुझे अब सूना-ही-सूना दिखायी देता है।मैं प्राण त्यागने के लिये यहाँ आया हूँ।
सन्तानहीन जीवन को धिक्कार है,
सन्तानहीन गृह को धिक्कार है!
सन्तानहीन धन को धिक्कार है !
और सन्तानहीन कुल को धिक्कार है।
महात्मा जी मैं अपने बारे में कहाँ तक कहूं? मैंने सोचा कि एक गाय पाल लूँ। गाय के बछड़ा/बछड़ी जन्म लेगा तो उससे मन बहला लूंगा । लेकिन वो गाय भी बाँझ निकली।जो पेड़ लगाया उस पर कोई फल नहीं लगा । वो भी सूख गया।मेरे घर में जो फल आता है,वह भी बहुत जल्दी सड़ जाता है।जब मैं ऐसा अभागा और पुत्रहीन हूँ,तब फिर इस जीवन को ही रखकर मुझे क्या करना है?ऐसा कहकर आत्मदेव फुट फुटकर रोने लगा।
संन्यासी ने कहा-ब्राम्हणदेवता! इस पुत्र प्राप्ति का मोह त्याग दो।विवेक का आश्रय लेकर संसार की वासना छोड़ दो। विप्रवर! सुनो; मैंने इस समय तुम्हारा प्रारब्ध देख लिया है। तुम इस जन्म के लिए रोते हो ।लेकिन तुम्हारे तो सात जन्म तक कोई संतान का योग ही नहीं है।तुम्हारे माथे कि रेखा ये बता रही है। पूर्वकाल में राजा सगर एवं अंग को सन्तान के कारण दुःख भोगना पड़ा था। ब्राम्हण!अब तुम घर-परिवार की आशा छोड़ दो। संन्यास में ही सब प्रकार का सुख है।
ब्राम्हण ने कहा-महात्मा जी! विवेक और विचार से मेरा कोई भला नहीं होगा। मेरे भाग्य में संतान नहीं लेकिन आप मुझे अपने प्रताप से पुत्र दीजिये। आपके आशीर्वाद में तो संतान है।यदि आप मुझे संतान का सुख नहीं देंगे तो मैं आपके सामने ही शोक में मुर्च्छित होकर अपने प्राण त्यागता हूँ।
संत जी ने आत्मदेव का आग्रह और हठ देखकर कहा-ये फल लेकर जाओ और अपनी पत्नी को खिला देना।इससे उसके एक पुत्र होगा।तुम्हारी स्त्री को एक साल तक सत्य, शौच,दया,दान और एक समय एक ही अन्न खाने का नियम रखना चाहिये।ऐसा कहकर योगिराज चले गये और ब्राम्हण अपने घर लौट आया।
घर आकर आत्मदेव ने फल अपनी पत्नी धुंधली को दे दिया और कहा कि ये संत का प्रसादी तुम इस फल को खाकर एक साल तक नियमपूर्वक रहो।तुम्हे सुंदर पुत्र प्राप्त होगा।ऐसा कहकर आत्मदेव वहां से चले गए।
धुंधली ने सोचा-मैं तो यह फल नहीं खाऊँगी।फल खाने से गर्भ रहेगा और गर्भ से पेट बढ़ जायगा।फिर कुछ खाया-पीया जायगा नहीं। इससे मेरी शक्ति क्षीण हो जायगी। तब घर का काम धंधा कैसे होगा ? और-दैववश-यदि कहीं गाँव में डाकुओं का आक्रमण हो गया तो गर्भिणी स्त्री कैसे भागेगी ? प्रसव के समय बड़ी भयंकर पीड़ा होती है।मैं सुकुमारी भला,यह सब कैसे सह सकूँगी ?जो स्त्री बच्चा जनती है,उसे उस बच्चे के लालन-पालन में भी बड़ा कष्ट होता है। मेरे विचार से तो वन्ध्या या विधवा स्त्रियाँ ही सुखी हैं।
मन में ऐसे ही तरह-तरह के कुतर्क उठने से उसने वह फल नहीं खाया और जब उसके पति ने पूछा:-‘फल खा लिया ?’ तब उसने कह दिया:-‘हाँ,खा लिया’।और वह फल घर पर पल रही बाँझ गाय को खिला दिया।
एक दिन धुन्धुली की बहिन धुन्धुली से मिलने आई । तब उसने अपनी बहिन को सारा वृतान्त सुनाकर कहा , ‘मेरे मन में इसकी बड़ी चिन्ता है।मैं इस दुःख के कारण दिनों दिन दुबली हो रही हूँ।बहिन! मैं क्या करूँ ?’
बहिन ने कहा,तेरे पास धन की कोई कमी नहीं है और मेरे पास बच्चे की कोई कमी नहीं है।”मेरे पेट में बच्चा है। प्रसव होने पर वह बालक मैं तुझे दे दूँगी।तब तक तू गर्भवती के समान घर में गुप्त-रूप से सुख से रह।तू मेरे पति को कुछ धन दे देगी तो वे तुझे अपना बालक दे देंगे और तू इस फल की जाँच करने के लिये यह फल गौ को खिला दे।”
आज आत्मदेव की पत्नी धुंधली से दो बड़े अपराध हो गए। पहला संत के प्रसाद फल का अपमान कर दिया । और दूसरा संत द्वारा प्राप्त फल की परीक्षा भी ले ली । अगर संत जी के फल में इतनी ही शक्ति है तो गाय के बच्चा होगा।
कुछ समय के बाद जब इसकी बहन के पुत्र हुआ तो उसके पिता ने चुपचाप लाकर उसे धुन्धुली को दे दिया । उसने आत्मदेव को सूचना दे दी कि मेरे सुखपूर्वक बालक पैदा हो गया है।
आत्मदेव के पुत्र हुआ सुनकर सब लोगों को बड़ा आनन्द हुआ। ब्राम्हण ने उसका जातकर्म-संस्कार करके ब्राम्हणों को दान दिया। उसके द्वार पर गाना-बजाना तथा अनेक प्रकार के मांगलिक कृत्य होने लगे।
धुन्धुली ने कहा-आप खुशी मना रहे है लेकिन ‘मेरे स्तनों में तो दूध ही नहीं है।अब मैं इस बच्चे का पालन कैसे करुँगी? मेरी बहन के अभी एक बालक ने जन्म लिया था लेकिन वह मर गया।उसे यहाँ बुलाकर रख लेते हैं तो वह आपके इस बच्चे का पालन-पोषण कर लेगी।
आत्मदेव ने पुत्र रक्षा के लिए "हाँ "कर दी और धुन्धुली ने उस बालक का नाम धुन्धुकारी रखा।
तीन महीने बीत जाने पर आत्मदेव जी गऊ को चारा डालने के लिए गए।आत्मदेव ने देखा की एक सुंदर बालक को गाय ने जन्म दिया है।जिसका पूरा शरीर तो मनुष्य जैसा है लेकिन कान गऊ की तरह हैं।इसलिए इसका नाम रखा गोकर्ण रखा।वह सर्वांग सुन्दर,दिव्य,निर्मल तथा सुवर्ण की-सी कान्ति वाला था।उसे देखकर ब्राम्हणदेवता को बड़ा आनन्द हुआ और उसने स्वयं ही उसके सब संस्कार किये।इस समाचार से और सब लोगों को भी बड़ा आश्चर्य हुआ और वे बालक को देखने के लिये आने लगे।
कुछ समय बीत जाने पर दोनों बालक जवान हुए।उनमें गोकर्ण तो बड़ा पण्डित और ज्ञानी हुआ,किन्तु धुन्धुकारी बड़ा ही दुष्ट निकला।स्नान-शौचादि ब्राम्हणोचित आचारों का उसमें नाम भी न था । उसमें खान-पान का ही कोई परहेज नही था।क्रोध उसमें बहुत बढ़ा-चढ़ा था।वह बुरी-बुरी वस्तुओं का संग्रह किया करता था।मुर्दे के हाथ से छुआया हुआ अन्न भी खा लेता था।दूसरों की चोरी करना और सब लोगों से द्वेष बढ़ाना ,उसका स्वभाव बन गया था।छिपे-छिपे वह दूसरों के घरों में आग लगा देता था।दूसरों के बालकों को खेलाने के लिये गोद में लेता और उन्हें चट कुएँ में डाल देता।हिंसा का उसे व्यसन-सा हो गया था।हर समय वह अस्त्र-शस्त्र धारण किये रहता और बेचारे अंधे और दीन-दुःखियों को व्यर्थ तंग करता।चाण्डालों से उसका विशेष प्रेम था।बस,हाथ में फंदा लिये कुत्तों की टोली के साथ शिकार की टोह में घूमता रहता।अंत में यह वैश्यों के जाल में फंस गया।उसने अपने पिता की सारी सम्पत्ति नष्ट कर दी।
वह एक दिन माता-पिता को मार- पीटकर घर के सब बर्तन-भाँड़े उठा ले गया। जब आत्मदेव की सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई तो आत्मदेव फूट-फूटकर रोने लगा और बोला:-‘इससे तो इसकी माँ का बाँझ रहना ही अच्छा था। कुपुत्र तो बड़ा ही दुःखदायी होता है।अब मैं कहाँ रहूँ ? कहाँ जाऊँ ? मेरे इस संकट को कौन काटेगा ? हाय! मेरे ऊपर तो बड़ी विपत्ति आ पड़ी है,इस दुःख के कारण अवश्य मुझे एक दिन प्राण छोड़ने पड़ेंगे।
गोकर्ण का आत्मदेव को उपदेश :-
पुत्र द्वारा अनेक कष्ट भुगतते रहने पर उनके घर पर उसी समय परम ज्ञानी गोकर्ण जी वहां आ गए। गोकर्ण जी कहते हैं:- ‘पिताजी! यह संसार असार है। यह अत्यन्त दुःख रूप और मोह में डालने वाला है।पुत्र किसका ? धन किसका ? स्नेहवान् पुरुष रात-दिन दीपक के समान जलता रहता है। सुख न तो इन्द्र को है और न चक्रवर्ती राजा को ही सुख है । सुख तो केवल विरक्त,एकान्तजीवी मुनि को मिलता है। ‘यह मेरा पुत्र है’ इस अज्ञान को छोड़ दीजिये।मोह से नरक की प्राप्ति होती है।यह शरीर तो नष्ट होगा ही।इसलिये सब कुछ छोड़कर वन में चले जाइये।
गोकर्ण के वचन सुनकर आत्मदेव के मन में वैराग्य जाग्रत हुआ और वन में जाने के लिये तैयार हो गया और उनसे कहने लगा,‘बेटा! वन में रहकर मुझे क्या करना चाहिये,यह मुझसे विस्तारपूर्वक कहो।
गोकर्ण ने कहा:-पिताजी! यह शरीर हड्डी,मांस और रुधिर का पिण्ड है,इसे आप ‘मैं’ मानना छोड़ दें और स्त्री-पुत्रादि को ‘अपना’ कभी न मानें। इस संसार को रात-दिन क्षणभंगुर देखें।
इसकी किसी भी वस्तु को स्थायी समझकर उसमें राग न करें।बस,एकमात्र वैराग्य रस के रसिक होकर भगवान् की भक्ति में लगे रहें।भगवद्भजन ही सबसे बड़ा धर्म है,निरन्तर उसी का आश्रय लिये रहें।अन्य सब प्रकार के लौकिक धर्मों से मुख मोड़ लें।सदा साधुजनों की सेवा करें।भोगों की लालसा को पास न फटकने दें । जल्दी-से-जल्दी दूसरों के गुण-दोषों का विचार करना छोड़कर एकमात्र भगवत्सेवा और भगवान् की कथाओं के रस का ही पान करें।
आत्मदेव ने गोकर्ण की बात सुनकर साठ वर्ष की आयु में घर का त्याग कर दिया।आत्मदेव ने वन में रहकर दिन रात भगवन का भजन किया और नियमपूर्वक भागवत के दशमस्कन्ध का पाठ किया जिससे उसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र को प्राप्त कर लिया।
इति चतुर्थो अध्यायः
No comments:
Post a Comment