Thursday, March 23, 2023

पावापुरी (फाजिल नगर) की ऐतिहासिक वेशकीमती पहचान डॉ. राधे श्याम द्विवेदी


          एक निजी यात्रा के दौरान कुशीनगर के सुमाही खुर्द गांव जाने का अवसर मिला। सुमाही खुर्द गाँव उत्तर प्रदेश के कुशी नगर जिले की कसया तहसील के फाजिल नगर ब्लाक के रामपुर उर्फ खूशहाल टोला ग्राम पंचायत में स्थित है। सुमही दो शब्दों से बना है। सु +माही में सु का मतलब सुंदर और माही का मतलब धरा होता है। इस प्रकार यह सुन्दर धरा वाली भूमि के रूप में जाना जाता रहा है। जिला मुख्यालय कुशीनगर सुमाही खुर्द से लगभग 29 किलोमीटर दूर है। मुस्लिम काल में एक जैसे कई गांव मिलते हैं। खुर्द ,बुजुर्ग और कलां को जोड़ते हुए इनके नाम हैं। सुमही खुर्द का मतलब छोटे आकार का सुन्दर धरा है। सुमही बुजुर्ग का मतलब उम्र दराज या पुरानी आवादी वाला सुन्दर धरा गांव होता है। 
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ऐतिहासिक पावापुरी फाजिल नगर के प्रमुख सूत्र :-
1.चुन्दा स्तूप की ऐतिहासिकता
2.विषाक्त पदार्थ खाने से बुद्ध का निर्वाण हुआ था
3. असोगवा एक प्राचीन साइट 
4. चेतियांव ( सठियांव ) बौद्ध स्थल 
5. छहूं गांव प्राचीन साइट 
6. उस्मानपुर वीरभारी टीला 
7. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का प्रयास 
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ऐतिहासिक पावापुरी फाजिल नगर :-
मगध के हर्यक वंश के समय पावा प्राचीन भारत के मल्ल जनजाति का एक महत्वपूर्ण शहर उत्तर प्रदेश राज्य में कुशीनगर से लगभग 20 किलोमीटर (12 मील) दक्षिण पूर्व में फाजिलनगर राष्ट्रीय राजमार्ग 28 पर स्थित है। फाजिल का मतलब प्रख्यात श्रेष्ठ या गुणी होता है। गोरखपुर से इसकी दूरी 71 किमी (पूर्व दिशा में) है। फाजिल नगर को 'पावापुरी' भी कहा जाता है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि जैन धर्म की वास्तविक 'पावापुरी' यही है ( नाकि बिहार में स्थित पावापुरी जहाँ महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त हुआ था।) इसिलिए जैन श्रद्धालुओं ने यहाँ पर एक भव्य जैन मन्दिर का निर्माण कराया है।
      पुरातत्व विभाग द्वारा इस संरक्षित स्मारक की खुदाई में प्राचीन काल का एक महल भी आज यहां देखा जा सकता है जो खुदाई के पूर्व मिट्टी का टीला हुआ करता था। ऐसा विश्वास किया जाता है कि कुशीनगर से वैशाली जाते समय महात्मा बुद्ध यहाँ रुके हुए थे और अपने एक शिष्य के घर भोजन किया था।
        पालि त्रिपिटक के अनुसार यह मल्ल राजाओं की दूसरी राजधानी थी। यहाँ के मन्दिर में अति सुन्दर 'मानस्तम्भ' और चार सुन्दर मूर्तियाँ हैं। यहाँ दीपावली के अगले दिन एक मेला लगता है। कार्तिक पूर्णिमा को 'निर्वाण महोत्सव' की छटा देखने बहुत से तीर्थयात्री दूर दूर से आते हैं।
          जैन ग्रंथ कल्पसूत्र के अनुसार महावीर ने पावा में एक वर्ष बिताया था। यहीं उन्होंने अपना प्रथम धर्म-प्रवचन किया था, इसी कारण इस नगरी को जैन संम्प्रदाय का सारनाथ माना जाता है। महावीर स्वामी द्वारा जैन संघ की स्थापना पावापुरी में ही की गई थी। फाजिलपुर को पावा नगर भी कहते हैं। यह स्थान उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जनपद से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ पर भगवान महावीर का एक मंदिर भी है।
चुन्दा स्तूप :-
 चुन्दा कुमारपुत्त का घर हुआ करता था। यह भगवान बुद्ध का अनुयाई था। यहां पर एक स्तूप बना हुआ है। जब बुद्ध अपने अस्सीवें वर्ष में पहुँचे, तो उन्हें लगा कि इस दुनिया में उनका समय समाप्त हो रहा है। उस समय, महापरिनिब्बान सुत्त ( दीघ निकाय के सुत्त 16) के अनुसार , उन्होंने और उनके कुछ शिष्यों ने एक महीने की लंबी यात्रा की, जो उन्हें पाटलिपुत्त , बैसाली , भोगनगर और पावा होते हुए राजगृह से उनके अंतिम पड़ाव तक ले गई। यह स्थान पावा में था।
इस अवसर पर कुंडा सुत्त ( अंगुत्तर निकाय 6:46) का प्रचार किया गया था। उस समय, मल्लों ने अभी-अभी अपना नया सभा भवन तैयार किया था। उनके निमंत्रण पर, बुद्ध ने पहले यहां पधारे और फिर इसमें उपदेश देकर इसका अभिषेक किया। बुद्ध के बोलने के बाद, उनके प्रमुख शिष्यों में से एक, सारिपुत्र ने एकत्रित भिक्षुओं को संगीति सुत्त ( धम्म सुत्ता निकाय 33) का पाठ किया । भोजन के बाद, बुद्ध ने कक्कुत्था नदी (जिसे अब खानुआ नदी कहा जाता है ), को पार किया और कुशीनगर की अपनी अन्तिम यात्रा पूरी की। कुशीनगर आने के तुरंत बाद, बुद्ध ने परिनिर्वाण प्राप्त किया था । बुद्ध के दाह संस्कार के बाद , पावा के मल्लों ने उनके अवशेषों में हिस्सेदारी का दावा किया। द्रोण नाम के एक ब्राह्मण ने उनके दावे को आठ भागों में बांटकर संतुष्ट किया, और अवशेष के एक हिस्से पर पावा में एक स्तूप बनाया गया।
 विषाक्त पदार्थ खाने से बुद्ध का निर्वाण हुआ था:-
पावा के निवासी चुंडा या कुंडा ने समूह को भोजन के लिए आमंत्रित किया ।जीवन के अंतिम समय में तथागत ने पावापुरी में ठहरकर चुंड का सूकर-माद्दव नाम का भोजन स्वीकार किया था। जिसके कारण अतिसार हो जाने से उनकी मृत्यु कुशीनगर पहुँचने पर हो गई थी। वे यहां चुंद कम्मारपुत्र नामक एक लुहार के आमों के वन में ठहरे हुए थे। उसने खाने में उन्हें मीठे चावल, रोटी व मद्दव दिया। बुद्ध ने मीठे चावल व रोटी तो औरों को दिलवा दिए पर मद्दव इसलिए किसी को नहीं दिया क्योंकि उन्होंने समझ लिया था, यह कोई अन्य पचा नहीं सकेगा। स्वयं उन्होंने भी जरा सा खाया। शेष जमीन में गड़वा दिया। इसको खाते ही वे बीमार हो गये थे। और उनकी मृत्यु हो गई। भारत में यह बात प्रचलित है की गौतम बुद्ध ने अपना आख़िरी भोजन के तौर पर सुअर का माँस खाया था ।
       प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक राजेंद्र प्रसाद सिंघ जी ने इस पर प्रश्न चिन्ह लगाया है । उन्होंने भाषा के ज़रिए यह बात साबित करने की कोशिश की है की यह बात सत्य नहीं है ।
बुद्ध घोष ही थे जिन्होंने सूकर मद्दव का अर्थ सुअर का माँस कर दिया । सुकर मद्दव एक प्रकार की मशरूम भी होती है जिसपे सुअर जैसे बाल होते है । संभवतः उन्होंने मशरूम ही खाई थी । यह इससे भी सिद्ध होता है की पाली भाषा में सूक्र मद्दव का मतलब कोई वनस्पति या बल्क जो जमीन में उगता है ऐसा भी बौद्ध साहित्यों में उल्लेख मिलता हैं।
         तथागत बुद्ध को अर्पित किया गया सूकर मद्दव संभवतः किसी विषैले जीव के मृत शरीर के अंशो पर उगा रहा होगा। जिसे चुंद जान न पाये हों किन्तु भोजनोपरान्त बुद्ध विषाक्तता को समझ गए । अतः किसी अन्य को अब ना परोसने के लिए चुंद से कहा।
          यदुनंदन लाल लिखते है – बुद्ध ने सुअर कंद खायी थी। उत्तर भारत में सुगर कंद कहते हैं ।इसे सुअर बड़े चाव से खाते हैं। इसलिए सुअर कंद कहते हैं।
     न्यू इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका (मार्को पीडिया भाग) में उल्लेखित है कि संभव है कि एक ग्रामीण व्यक्ति के घर कुछ खाने के कारण उनके पेट में दर्द शुरु हो गया। बुद्ध अपने शिष्यों के साथ कुशीनारा चल दिये। रास्ते में उन्होंने अपने शिष्य आनंद से कहा, 'आनंद इस संधारी के चार तह करके बिठाओ। मैं थक गया हूं, लेटूंगा। आनंद मेरे लिए कुकुत्था नदी से पानी ले आओ।
        बुद्ध ने फिर उस कुकुत्था नदी में खूब स्नान किया। उसके बाद वहीं रेत पर चीर बिछा कर लेट गए। कुछ देर आराम करने के बाद वह अब चलने लगे रास्ते में उन्होंने हिरण्यवती नदी पार की। अंत में कुशीनारा पहुंचे। यहां उनका कहना था कि, 'मेरा जन्म दो शाल वृक्षों के मध्य हुआ था, अत: अन्त भी दो शाल वृक्षों के बीच में ही होगा। अब मेरा अंतिम समय आ गया है।'
        आनंद को बहुत दु:ख हुआ। वे रोने लगे। बुद्ध को पता लगा तो उन्होंने उन्हें बुलवाया और कहा, 'मैंने तुमसे पहले ही कहा था कि जो चीज उत्पन्न हुई है, वह मरती है। निर्वाण अनिवार्य और स्वाभाविक है। अत: रोते क्यों हो? बुद्ध ने आनंद से कहा कि मेरे मरने के बाद मुझे गुरु मान कर मत चलना।
     उनके निर्वाण पर 6 दिनों तक लोग दर्शनों के लिए आते रहे। सातवें दिन शव को जलाया गया। फिर उनके अवशेषों पर मगध के राजा अजातशत्रु, कपिलवस्तु के शाक्यों और वैशाली के विच्छवियों आदि में भयंकर झगड़ा हुआ।
        जब झगड़ा शांत नहीं हुआ तो द्रोण नामक ब्राह्मण ने समझौता कराया कि अवशेष आठ भागों में बांट लिये जाएं। ऐसा ही हुआ। आठ स्तूप आठ राज्यों में बनाकर अवशेष रखे गये। बताया जाता है कि बाद में अशोक ने उन्हें निकलवा कर 84000 स्तूपों में बांट दिया था।
असोगवा:-
फाजिल नगर ब्लाक में असोगवा नामक कई गांव हैं। यहां अशोक का बनवाया स्तूप संभावित है।इस पर शोध की आवश्कता है।
चेतियांव ( सठियांव ):-
कुशीनगर जिले में वर्तमान समय के चेतियांव में स्थित झारमटिया के रूप में जाना जाने वाला खंडहर का एक बड़ा कम ऊंचाई वाला टीला है। यह टीला वर्तमान थाने के पास है। वर्तमान समय में चेतियांव या सठियांव और फाजिल या फाजिलनगर दोनों एक दूसरे के पड़ौसी गांव है जो कभी एक ही जगह के दो भाग थे। यह एक प्राचीन नगर के अवशेष हैं । इस नगर को आधुनिक काल में चेतियांव अथवा सठियांव कहते हैं । यहां चैत्य रहा होगा। यहां चैत्य उपवन कभी रहा होगा। कार्लाइल ने इस गांव का जिक्र अपने वृतांत में किया है।
छहूं गांव :-
फाजिलनगर से तुर्कपट्टी के बीच 14 किलोमीटर के दायरे में आधा दर्जन से अधिक स्थान ऐसे हैं जहां से जब-तब भगवान बुद्घ, भगवान महावीर और गुप्तकालीन सभ्यता से जुड़ी वस्तुएं मिलती रहती हैं। कसया तहसील के तुर्कपट्टी क्षेत्र के छहूं गांव के एक टीले के आसपास लोग जब भी मिट्टी कटवाते समय प्राचीन मूर्तियां मिलती हैं। छहूं गांव में प्राचीन टीले का कुछ ही हिस्सा अब शेष बचा है। इस टीले को आसपास के लोगों ने काटकर खेत बना लिया है। चार दशक में यहां दो दर्जन मूर्तियां मिल चुकी हैं। परंतु संरक्षण के अभाव में अधिकांश का अब अता-पता नहीं है। बीते वर्ष अप्रैल में यहां मंदिर की बाउंड्री के लिए हो रही खुदाई के दौरान विभिन्न देवी देवताओं की सात मूर्तियां मिली थीं। दो वर्ष में ही इस टीले से काटी गई मिट्टी से आठ मूर्तियां मिल चुकी हैं। परंतु यहां मिली मूर्तियों को भी गांव के एक अधूरे मंदिर में दीवार से जोड़कर रखा गया है।       
उस्मानपुर वीरभारी टीला :-
फाजिलनगर क्षेत्र के सठियांव और उस्मानपुर वीरभारी के टीलों से मिले प्रमाण के बाद फाजिलनगर को ही भगवान बुद्घ के समकालीन व जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर का परिनिर्वाण स्थल पावा माना गया। फाजिलनगर से छह किलोमीटर और कुशीनगर से 20 किलोमीटर दूर तुर्कपट्टी में भगवान बुद्घ की प्रतिमा मिली जिसे गुप्तकालीन माना गया।
        भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का प्रयास :-
भारतीय पुरातत्व विभाग ने कुशीनगर के महापरिनिर्वाण मंदिर परिसर, रामाभार स्तूप परिसर, माथाकुंवर मंदिर परिसर, अनिरुद्घवां का टीला, पडरौना नगर के छावनी का टीला, फाजिलनगर कोट, सठियांव का स्तूप, उस्मानपुर वीरभारी का टीला को संरक्षित घोषित कर दिया। इनमे से केवल कुशीनगर के संरक्षित स्थानों की ही खुदाई पूरी हुई। बाकी जगहों को पुरातत्व विभाग ने संरक्षित घोषित कर छोड़ रखा है। यदि इसकी खुदाई हो तो और भी प्राचीन पुरावशेष मिल सकते हैं।     



Tuesday, March 21, 2023

सात माह पूर्व हुए चोरी का कोई सुराग नहीं


अभी एक दो दिन के अखबार की खबरों से पता चला है कि थाना कोतवाली पुलिस व स्वाट टीम बस्ती द्वारा बन्द घरों मे चोरी करने वाले चोरी के विभिन्न घटनाओ को अंजाम देने वाले 03 शातिर चोरो को चोरी किये गये सामान के साथ किया गिरफ्तार किया गया है। थाना कोतवाली क्षेत्र के विभिन्न स्थानों पर हुई चोरियो को अंजाम देने वाले अभियुक्तगण 1.- साजिद हुसैन उर्फ सादिक उर्फ गोली पुत्र कलामुद्दीन निवासी कंचन टोला गाधीनगर थाना कोतवाली जनपद बस्ती 2. शहजाद उर्फ जादू पुत्र मोहम्मद सईद सा0 कचंन टोला थाना कोतवाली जनपद बस्ती , 3. महमूद आलम उर्फ गुड्डू पुत्र हयातुल्लाह निवासी हनुमानगढ़ी के पास तुरकहिया थाना कोतवाली जनपद बस्ती को चोरी किये गये सामान व पैसे जिसकी अनुमानित कीमत 7 लाख 60 हजार रुपये है के साथ गिरफ्तार किया गया है। इन गिरफ्तार अभियुक्तों का आपराधिक इतिहास इस प्रकार रहा है -

A- साजिद हुसैन उर्फ सादिक उर्फ गोली |
1- मु0अ0सं0 328/22  धारा 457/380/411 IPC, थाना कोतवाली जनपद बस्ती
2- मु0अ0सं0-422/22  धारा 457/ 380/411 IPC, थाना कोतवाली जनपद बस्ती
3- मु0अ0सं0 475/22  धारा  457/380/411 IPC , थाना कोतवाली जनपद बस्ती
4- मु0अ0सं0 74/23  धारा 457/380/411 IPC थाना कोतवाली जनपद बस्ती
5- , मु0अ0सं0 28/23 धारा 457/380/411 IPC, थाना कोतवाली जनपद बस्ती
6- मु0अ0सं0 89/2023 धारा 457/380/411 IPC थाना कोतवाली जनपद बस्ती
7- मु0अ0सं0 101/2023 धारा 457/380/411 IPC थाना कोतवाली जनपद बस्ती
B- महमूद आलम उर्फ गुड्डू |
1- मु0अ0सं0 328/22  धारा 457/380/411 IPC, थाना कोतवाली जनपद बस्ती
2- मु0अ0सं0-422/22  धारा 457/ 380/411 IPC, थाना कोतवाली जनपद बस्ती
3- मु0अ0सं0 475/22  धारा  457/380/411 IPC , थाना कोतवाली जनपद बस्ती
4- मु0अ0सं0 74/23  धारा 457/380/411 IPC थाना कोतवाली जनपद बस्ती
5- , मु0अ0सं0 28/23 धारा 457/380/411 IPC, थाना कोतवाली जनपद बस्ती
6- मु0अ0सं0 89/2023 धारा 457/380/411 IPC थाना कोतवाली जनपद बस्ती
7- मु0अ0सं0 101/2023 धारा 457/380/411 IPC थाना कोतवाली जनपद बस्ती
C- शहजाद उर्फ जादू |
1. मु0अ0सं0 74/23 धारा 457/380/411 IPC थाना कोतवाली जनपद बस्ती
2. मु0अ0सं0 328/22  धारा 457/380/411 IPC, थाना कोतवाली जनपद बस्ती

आनन्द नगर कटरा के सात माह पूर्व हुए डाक्टर के घर हुए चोरी का कोई सुराग नहीं लग सका है:-

अभी हाल ही में बस्ती कोतवाली क्षेत्र में हुए कुछ चोरियों में बरामदगी दिखाई गई है , जबकि इसके पूर्व  मेरे आनन्द नगर कटरा घर से 10/12 अगस्त 2022 को हुए चोरी का कोई सुराग आज तक बस्ती कोतवाली पुलिस नही लगा सकी है। दिनांक 15 अगस्त को अपराध संख्या 425/2022 पर मेरा एफआईआर दर्ज हुआ था। यदि कोतवाली पुलिस सक्रियता से खोज करती और इन चोरों के फिंगर प्रिंट्स का मेरे केस के चोरों के फिंगर प्रिंट्स से मिलान करती तो इन्ही अभियुक्तों से मेरे घर की चोरी का सुराग भी लग सकता था।
आनन्द नगर कटरा हुए के चोरी का विवरण :-
मैं  डा. राधे श्याम द्विवेदी,भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा का अवकाश प्राप्त पुस्तकालय सूचना अधिकारी रहा हूं। मेरा बड़ा पुत्र डा अभिषेक द्विवेदी इंडियन मेडिकल कोर  में मेजर पद से सेवा निवृत्त होकर इस समय आगरा में रेडियोलॉजिस्ट के रूप में चिकित्सक है। मैं अपने छोटे पुत्र और पुत्र वधू जो बस्ती के राजकीय मेडिकल में सहायक प्रोफेसर पद पर कार्यरत हैं,के साथ आनन्द नगर कटरा बस्ती कोतवाली बस्ती शहर में रह रहा हूं। घटना के दिन घर पर कोई ना रहने के कारण दिनांक 10 से 12 अगस्त 2022 के मध्य  मेरे घर चोरी हो गई थी, जिसमे रुपए नौ लाख नगदी चोरी चला गया। हमारी नीचे लिखित एफ आई आर 15 अगस्त 2022 को क्राइम नंबर 425 पर अज्ञात चोरों के विरुद्ध आईपीसी की धारा 380 और 457 के अंतर्गत बस्ती कोतवाली में दर्ज हुई है। घटना घटे लगभग सात माह  हो गया है। अभी तक जांच किसी सार्थक परिणाम तक नही पहुंच सका है। जांच अधिकारी श्री मुनींद्र त्रिपाठी तत्कालीन चौकी प्रभारी बड़े बन (कोतवाली) बस्ती रहे है , जो अब कहीं अन्यत्र स्थानांतरित होकर चले भी गए हैं।

15 अगस्त 2022 को दर्ज कराई गई  एफआईआर का विवरण:-

सेवा में,
प्रभारी निरीक्षक,
कोतवाली, बस्ती
महोदय,
सविनय निवेदन है कि प्रार्थी के पुत्र डा. सौरभ द्विवेदी और पुत्रबधू डा. तनु मिश्रा पशुपति नाथ मन्दिर (नेपाल) का दर्शन करने हेतु दिनांक 10.08.2022 को अपरान्ह 2.30 बजे अपने आवास 8/2785 ,आनंद नगर, कटरा थाना कोतवाली, जिला बस्ती से निकले थे। प्रार्थी खुद सावन मेले को देखने हेतु अयोध्या गया हुआ था। जब प्रार्थी के पुत्र और पुत्रबधू दो दिन बाद 12.08.2022 को रात्रि 10.00 बजे आनन्द कटरा थाना कोतवाली जिला बस्ती स्थित अपने आवास पर लौटे तो घर के बाहर का ताला लगा हुआ था। अंदर लोहे के ग्रिल के गेट के चैनल की कुण्डी टूटी हुई थी। घर के हाल में रखे दीवान का गद्दा हटा था, दीवान का बॉक्स खुला हुआ था तथा समान बिखरा हुआ था। अंदर के दो कमरों का सामान बिखरा हुआ था। एक कमरे में तीन बड़े बॉक्स रखे थे। सब के कुंडे वा ताले टूटे हुए थे। इन्हीं में से एक बॉक्स में लगभग 9,00,000 ( नौ लाख रुपए) की नगदी थी,जो किन्ही अज्ञात चोर द्वारा चुरा ली गई थी।

अतः श्री मान जी से निवेदन है कि हमारी एफ आई आर दर्ज करते हुए नगदी बरामद कराई जाए और चोर के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही की जाए।

प्रार्थी
राधे श्याम द्विवेदी
पुत्र स्वर्गीय शोभा राम
8/2785
निवासी मोहल्ला आनंद नगर कटरा
थाना कोतवाली ,जिला बस्ती
मोबाइल नंबर 8630778321






















Saturday, March 11, 2023

रुद्रांश हनुमानजी द्वारा रुद्रांश सूर्य देव को निगलना डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

                 ' जुग सहस्त्र जोजन पर भानू, 
                    लिल्यो ताहि मधुर फल जानू', 
हनुमान चालीसा की ये लाइनें तो हर कोई बखूबी से जानता है। वैज्ञानिक तो इसको आधार बना कर सूर्य और पृथ्वी की दूरी तक माप ले जा रहे हैं। युग' का मतलब चार युगों कलयुग, द्वापर, त्रेता और सतयुग से है। कलयुग में 1200 साल, द्वापर में 2400 साल, त्रेता में 3600 और सतयुग में 4800 साल माने गए हैं, जिनका कुल योग 12000 साल है। 'सहस्त्र' का मतलब 1000 साल है। 'योजन' का मतलब 8 मील से होता है (1 मील में 1.6 किमी होते हैं)। अब अगर 1 योजन को युग और सहस्त्र से गुणा कर दिया जाए तो 8 x 1.6 x 12000 x 1000=15,36,00000 (15 करोड़ 36 लाख किमी), जोकि सूर्य से पृथ्वी के बीच की प्रमाणिक दूरी बनती है।
पृथ्वी से 28 लाख गुना भगवान सूर्य देव का आकार है। क्या पता श्याम मानव जैसे कोई तथाकथित नास्तिक वैज्ञानिक ,यूपी के स्वामी प्रसाद मौर्या जैसा दलित समाजवादी पार्टी का एमएलसी और बिहार के शिक्षा मंत्री सेकुलर चंद्रशेखर से लेकर ना जाने कोई नास्तिक ,वामी कामी ,या गैर राष्ट्रवादी नेता भगवान सूर्य और हनुमान जी के अस्तित्व और पराक्रम पर ही प्रश्न चिन्ह लगाकर अपने वोट बैंक के लालच या अज्ञानता में सनातन मान्यताओं श्रद्धा और विश्वास पर कब कुठाराघात करना शुरू कर दे। 

ऋग्वेद में रुद्र का वर्णन:-
ऋग्वेद में रुद्र का वर्णन मिलता है। इनको हिरण्यगर्भ (अग्नि) के रूप में इस सृष्टि का रचयिता माना गया है। ऋग्वेद की ऋचाओं में इनसे आयु एवं स्वास्थ्य एवं अपनी जीवन की रक्षा की कामना की गई है। पुराणों में ब्रह्म के प्रकृति को मानव रुप दिया गया है ताकि सरल ढंग में भी सामान्य समाज समझ सके। मानव रूप में शक्ति के प्रयोग का शिव आधार हैं। इसीलिए काली के नीचे लेटे हैं ताकि संहार शक्ति का प्रयोग कल्याण के लिए हो। पुराणों की रचना इस बात की साक्षी है कि सनातनी व्यवस्था इस वर्ग के लिए भी सकारात्मक सोच के साथ जागरूक था। 

सूर्यदेव रुद्र के अंश :-
भगवान रुद्र ही इस सृष्टि के सृजन, पालन और संहार कर्ता हैं। शंभु, शिव, ईश्वर और महेश्वर आदि नाम उन्हीं के पर्याय हैं। श्रुति का कथन है कि एक ही रूद्र हैं, जो सभी लोगों को अपनी शक्ति से संचालित करते हैं। वही सब के भीतर अंतर्यामी रूप से भी स्थित हैं। सदाशिव और सूर्य में कोई भेद नहीं है ।
आदित्यं च शिवं विद्याच्छिवमादित्य रूपिणम्।
उभयोरन्तरं नास्ति ह्यादित्यस्य शिवस्य च।।
(सूर्य एवं भगवान शिव को एक ही जानना चाहिए इन दोनों में कोई अंतर नहीं है।)
सूर्यदेव भला किस प्रकार शिव के स्वरूप है?
          प्रमाण के लिए यजुर्वेद के दो मंत्र देखिए:
मंत्र क्रमांक 6 और 7 का शब्द अर्थ इस प्रकार है --
उदय के समय ताम्रवर्ण (अत्यन्त रक्त), अस्तकाल में अरुणवर्ण (रक्त), अन्य समय में वभ्रु (पिंगल) – वर्ण तथा शुभ मंगलों वाला जो यह सूर्यरूप है, वह रुद्र ही है. किरणरूप में ये जो हजारों रुद्र इन आदित्य के सभी ओर स्थित हैं, इनके क्रोध का हम अपनी भक्तिमय उपासना से निवारण करते हैं।।6।।
जिन्हें अज्ञानी गोप तथा जल भरने वाली दासियाँ भी प्रत्यक्ष देख सकती हैं, विष धारण करने से जिनका कण्ठ नीलवर्ण का हो गया है, तथापि विशेषत: रक्तवर्ण होकर जो सर्वदा उदय और अस्त को प्राप्त होकर गमन करते हैं, वे रविमण्डल स्थित रुद्र हमें सुखी कर दें।।7।।
रुद्र का उल्लेख हिन्दू पौराणिक ग्रंथ महाभारत के वन पर्व में हुआ है, जिसके अनुसार यह भगवान सूर्य का एक अन्य नाम है। सूर्यदेव का एक अन्य नाम सविता भी है, जिसका अर्थ है –
सृष्टि करने वाला “सविता सर्वस्य प्रसविता" 
 (निरुक्त 10।31)। 
ऋग्वेद के अनुसार आदित्य-मण्डल के अन्त:स्थित सूर्य देवता सबके प्रेरक, अन्तर्यामी तथा परमात्मा स्वरुप हैं। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार सूर्य ब्रह्मस्वरुप हैं, सूर्य से जगत उत्पन्न होता है और उन्हीं में स्थित है। सूर्य सर्वभूत स्वरुप सनातन परमात्मा हैं। यही भगवान भास्कर ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र बनकर जगत का सृजन, पालन और संहार करते हैं। सूर्य नवग्रहों में प्रमुख देवता हैं। ( महाभारत वन पर्व अध्याय 3 श्लोक 1 से 28)
रुद्र अपने धन के लिए जाने जाते हैं। वह आदित्य (सूर्य) और अग्नि से भी जुड़ा हुआ है। उन्हें वज्र धारण करने वाले हजार नेत्रों वाले ( सहरक्षा ) के रूप में संबोधित किया जाता है। वह गड़गड़ाहट और बिजली की नाटकीय प्रचंडता से जुड़ा हुआ है जो पुरुषों और मवेशियों पर प्रहार करता है, लेकिन जो बारिश के माध्यम से शांति और प्रचुरता लाता है।

सूर्य एवम् हनुमान दोनो रुद्र के अंशावतार:-
महावीर हनुमान को महाकाल शिव का 11वां रुद्रावतार माना गया है। उन्होंने अपना जीवन केवल अपने भगवान राम और माता सीता की सेवा के लिए समर्पित किया है।
पुराणों के अनुसार समुद्रमंथन के बाद शिव जी ने भगवान विष्णु का मोहिनी रूप देखने की इच्छा प्रकट की। उन्‍होंने देवताओं और असुरों को अपना यह रूप दिखाया था। उनका वह आकर्षक रूप देखकर वह कामातुर हो गए, और उन्होंने अपना वीर्यपात कर दिया। वायुदेव ने शिव जी के बीज को वानर राजा केसरी की पत्नी अंजना के गर्भ में प्रविष्ट कर दिया और इस तरह अंजना के गर्भ से वानर रूप हनुमान का जन्म हुआ, इसलिए उन्हें शिव का 11 वां रूद्र अवतार माना जाता है। हनुमान अवतार को उनका सर्वोच्च अवतार माना जाता है। भगवान शिव ने यह अवतार भगवान राम के समय में लोगों के सामने भगवान और भक्त का एक अच्छा उदाहरण पेश करने के लिए लिया था।
भगवान शंकर ने भी अपना रूद्र अवतार लिया था और इसके पीछे वजह थी कि उनको भगवान विष्णु से दास्य का वरदान प्राप्त हुआ था. हनुमान उनके ग्यारहवें रुद्र अवतार हैं. इस रूप में भगवान शंकर ने राम की सेवा भी की और रावण वध में उनकी मदद भी की थी।जब श्री हनुमानजी महाराज तो साक्षात एकादश रुद्र के अवतार है ही जो संसार की समस्त रामायणें तथा पुराण भी एकमत होकर डिंडिम घोष करके कह रहे है:--
जेहि सरीर रति राम सो सोई आदरहि सुजान ।
रुद्रदेह तजि नेहबस बानर भे हनुमान ।। 
(दोहावली १४२)।
मेष लग्ने अंजनी गर्भात् स्वयं जातो हरः शिवः।
       (वायुपुराण)
यो वै चैकादशो रुद्रो हनुमान् स महाकपिहिः।
       (स्कंदपुराण माहेश्वर संहिता)
जब सूर्य भी रुद्र और हनुमानजी भी रुद्र तथा ये समूचा दृश्यमान जगत भी तो रुद्र का एक अंश मात्र ही है फिर एक रुद्र ने दूसरे रुद्र को अपने में समाहित कर भी लिया तो रुद्र ही शेष रहेंगे ।
         आध्यात्म रामायण तथा स्कंदपुराण (अवंतीखंड) में जैसा वर्णित है उसी के अनुसार लिखने जा रहा हूं:
नन्हे से हनुमान जी महाराज पालने में झूल रहे है की तभी उन्हें भूख लग आई, आकाश में देखा तो नारंगी के फल के समान सूर्यदेव दैदीप्यमान हो रहे थे बस उन्हें ही फल समझकर खाने के लिए इन्होंने अंतरिक्ष में छलांग लगा दी।
वहां जब सूर्यदेव ने देखा की शिव के साक्षात स्वरूप हनुमान मेरे सूर्यमंडल में क्रीड़ा करने आ रहे है तो उन्होंने तुरंत अपनी किरणों को शीतल कर लिया और हनुमान जी ने बड़ी सरलता से सूर्यमंडल में प्रवेश कर लिया। वहां पहुंचकर वो चंद्रमौलेश्वर शंकर के स्वरूप हनुमानजी अपने रुद्र स्वरूप सूर्यदेव के रथ में विराजित हो गए और शिशु लीला करने लगे, वे सूर्यदेव के साथ खेलने लगे, बाल सुलभ क्रीड़ा करने लगे। संयोग से वो अमावस्या का दिन था और सूर्यदेव पर ग्रहण लगने का पर्व भी था, उसी समय सिंहिका का पुत्र राहु सूर्य को ग्रस्त करने वहां सूर्यमंडल में आया।
       सूर्यदेव के रथ पर बालक हनुमान को देखकर भी राहु ने अभिमानवश अनदेखी की और सूर्य को ग्रस्त करने आगे बढ़ा ही था की इतने में हनुमान जी न राहु को अपने छोटे छोटे हाथो में दबोच लिया, वो बुरी तरह से छटपटाने लगा और सूर्य पर ग्रहण लगा ही नहीं पाया।जैसे तैसे स्वयं को बालक हनुमान के हाथ से छुड़ाकर वो इंद्र के पास गया और क्रोधित होकर कहा -
"हे इन्द्र! आपने ही तो मेरे तोषण के लिए पर्व आने पर सूर्य को ग्रहण करने की व्यवस्था की है, फिर आज मुझे एक नन्हे से वानर बालक ने कैसे सूर्य ग्रहण करने से रोक दिया?"
इंद्र के मन में विस्मय हुआ की भला सूर्यमंडल तक पहुंचने की शक्ति किसमे आ गई है? भला कौन महान आत्मा सूर्य की किरणों से दग्ध (जल जाने) हुए बिना सूर्य के रथ पर सवार हो गया है? वे राहु के साथ तुरंत सूर्यदेव के पास चले। इतने में राहु ने पुनः से गति पकड़ी और पूरी शक्ति से सूर्य को ग्रहण करने चला और हनुमानजी को राहु को आता देखकर पुनः से भूख की स्मृति हो आई तथा उसे एक फल समझकर उसी को खाने हनुमानजी लपके। राहु भयभीत होकर इंद्र के पास प्राण रक्षा करने की प्रार्थना लिए भागे, इधर हनुमानजी भी उसके पीछे पीछे ही थे।
उन्होंने ऐरावत हाथी और उसपर सवार इंद्र को देखा तो उसे भी कोई मधुर फल समझकर ऐरावत समेत इंद्र को खाने के लिए छलांग लगा दी और फिर इंद्र ने अपने वज्र का प्रहार कर दिया।
शिव स्वरूप हनुमान ने अपने भक्त दधीचि की अस्थियों से बने उस वज्र का सम्मान रखने के लिए अपने हनु (थोड़ी) पर एक घाव स्वीकार कर लिया और मूर्छित होने की लीला की। फिर पवन देव ने अपने पुत्र हनुमान के मूर्छित हो जाने पर सारे जगत की वायु रोक दी और प्रलय की स्थिति निर्मित हो गई जिसके पश्चात ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इंद्र, यम, कुबेर, अग्नि समेत समस्त देवों ने आशीर्वाद की वर्षा करके असंख्य वरदान देकर नन्हे से हनुमान जी को प्रसन्न किया और इसके अनन्तर वायु देव ने पुनः से वायु का संचार जगत में किया जिससे संसार का हाहाकार समाप्त हुआ।
यद्यपि परमेश्वर शिव स्वरूप हनुमान जी को इन किसी भी वरदान की आवश्यकता थी नही, क्योंकि इस मायामय जगत के निर्माता ही वे स्वयं है उनसे परे तो कुछ भी नही है, तथापि श्रीराम अवतार में मधुर मधुर लीला प्रसंग करने हेतु उन्होंने सब वरदान स्वीकार किए।
आध्यात्म रामायण तथा स्कंद पुराण में इस लीला का वर्णन इस प्रकार है--
    "बाल समय रवि भक्ष लियो 
                                  तब तीनहु लोक भयो अंधियारो"
          तुलसी बाबा बड़ी गूढ़ भाषा में कहते है ये, इसके पीछे राहु भक्षण की लीला का रहस्य छुपा हुआ है और तीनो लोक में वायु रुक जाने से जो अंधियारा जो हाहाकार व्याप्त हो गया था उसका वर्णन तुलसी बाबा कर रहे है यहां। श्रीराम ने अयोध्या में अपनी सभा में एक बार कहा था:-
" लंका युद्ध में कोई भी एक ऐसा वीर नही था जो श्री हनुमान जी के "चरणों के नाखून की भी बराबरी कर सके। अगर हनुमान संकल्प कर लेते तो निमिष मात्र में रावण समेत समूची शत्रु सेना का संहार हो जाता।" (वाल्मीकी रामायण उत्तरकांड)

आधुनिक वैज्ञानिकों का मत :- 
एच2ओ यानी पानी जैसे सरलतम उदाहरण से अपनी बात को प्रमाण देने जा रहा हूं।
नदी में भी वही एच2ओ बह रहा है और समुद्र में भी वही एच2ओ बह रहा है, है ना?फिर नदियों का जल जब अंत में समुद्र पी जाता है तब क्या होता है?
वही एच2ओ यानी जल ही तो रहता है ।
ठीक वैसे ही रुद्र के एक स्वरूप हनुमान जी ने रुद्र के दूसरे स्वरूप सूर्य देव को अपने में विलीन कर भी लिया तो भी रुद्र ही शेष रहेंगे।
भले वो स्वरूप हनुमान है या स्वरूप सूर्य है, वो रुद्र ही रहेंगे ।
जब पदार्थ एक ही है तो निगल लेने का विलीन कर लेने के बाद भी कोई बदलाव तो होना नही है, ठीक वैसे ही जैसे नदी का जल और समुद्र का जल कोई अलग पदार्थ नही बनेगा, वो वही का वही जल ही रहने वाला है।
    इस प्रकार अध्यात्म श्रद्धा विश्वास और वैज्ञानिक सभी 
आधारों से ये घटना पूर्ण सत्य सिद्ध होती है।यह अपने आप में किसी चमत्कार से कम नहीं है।




Thursday, March 9, 2023

भारतीय संविधान के प्रारूपकार सर बी. एन. राऊ डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। देश का कानून और संसद इसके द्वारा ही संचालित होती है। देश में जब जब कोई संकट आता या राजनीतिक विवाद होते हैं, तब-तब संविधान का ही हवाला देकर उस विवाद और संकट को हल करने की बात की जाती है। आजादी के 75वें साल में आते-आते और अपने लागू होने की 71वीं सालगिरह तक अपने देश में संविधान किसी धर्मग्रंथ से भी ज्यादा पूजनीय और पवित्र बन चुका है। लेकिन इसके निर्माण से जुड़े कई ऐसे तथ्य हैं, जिसे बहुत कम ही लोग जानते हैं।
संविधान सभा सदस्यों का जनता से सीधे चुनाव नहीं :-
जिस संविधान सभा ने संविधान तैयार किया, एक दौर तक उसका विरोध वामपंथी विचारधारा करती रही। उनका तर्क था कि संविधान सभा के सभी 389 सदस्यों का चुनाव तो हुआ था, लेकिन उनका निर्वाचन प्रत्यक्ष नहीं था। यानी जिस जनता के लिए वह सभा संविधान का निर्माण करने वाली थी, उसका निर्वाचन उस जनता ने नहीं किया था। संविधान सभा के सभी सदस्यों को या तो तब के अंग्रेज शासित राज्यों के विधान मंडलों और रियासतों के सीमित मतदाता वर्ग ने चुना था। संविधान सभा के कई सदस्य बेशक भारत की आजादी के आंदोलन के सेनानी रहे थे, लेकिन जिस प्रारूप समिति ने इसे तैयार किया, उसका कोई सदस्य आजादी के आंदोलन में शामिल ही नहीं था। संविधान सभा की प्रारूप समिति के सातों सदस्यों में से एक कन्हैया लाल मणिक लाल मुंशी स्वाधीनता सेनानी तो थे, लेकिन भारत की आजादी के लिए हुई निर्णायक जंग यानी भारत छोड़ो के वक्त वे चुप थे। आजाद भारत के पहले भारतीय गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी भी भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान चुप रहे। बाबा साहब भीमराव आंबेडकर इस प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। लेकिन वे भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान ब्रिटिश वायसराय की काउंसिल के सदस्य थे। यानी आजादी के आंदोलन में उनकी सीधी भागीदारी नहीं थी, बल्कि उस दौरान वह ब्रिटिश सरकार के मंत्री की हैसियत से काम कर रहे थे। संविधान सभा का गठन छह दिसंबर 1946 को हुआ था। इसके तहत संविधान निर्माण की समिति बनी, जिसे ड्राफ्ट कमेटी भी कहा जाता है। उसके जिम्मे संविधान के तब तक तैयार संविधान के प्रारूप पर बहस करके उसे 389 सदस्यीय संविधान सभा में प्रस्तुत करना था, जो उसे अंतिम रूप देगी।
बी.एन. राऊ विधिक सलाहकार का होम वर्क:-
देश के भावी सरकार के लिए तत्कालीन अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल ने कर्नाटक के जाने माने विधिवेत्ता बेनेगल नरसिम्ह राव को विधि सलाहकार का पद देकर संविधान के प्रारूप पर काम करने के लिए 1946 में ही जिम्मेदारी दे दी थी। बी एन राऊ ने मद्रास और कैंब्रिज विश्वविद्यालय से पढ़ाई की थी। वर्ष 1910 में वे भारतीय सिविल सेवा के लिए चुने गए। वर्ष 1939 में उन्हें कलकत्ता हाई कोर्ट का न्यायाधीश बनाया गया। जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने 1944 में उन्हें अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया था। इन्हीं राऊ साहब को संविधान का मूल प्रारूप तैयार करने की जिम्मेदारी दी गई थी। भारत सरकार के संविधान सलाहकार के नाते उन्होंने वर्ष 1945 से 1948 तक अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन आदि देशों की यात्र की और तमाम देशों के संविधानों का अध्ययन किया। राऊ सर अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीश थे। ।वह 1950 से 1952 तक संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषदमें भारत के प्रतिनिधि भी थे। उनके भाई भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर बेनेगल रामा राऊ, पत्रकार और राजनीतिज्ञ बी शिव राऊ थे। भारतीय संविधान का प्रारूप बी एन राऊ सर ने  ही तैयार किया था।  सच्चिदानंद सिन्हा ने भी सहयोग किया था। बी एन राऊ को 1946 मेंभारतीय संविधान केनिर्माण में संविधान सभा की संवैधानिक सलाहकार नियुक्त किया गया था। वे संविधान के लोकतांत्रिक ढांचे की सामान्य संरचना के लिए जिम्मेदार थे और उन्होंने फरवरी 1948 में इसका शुरुआती मसौदा तैयार किया था।  उन्होंने 395 अनुच्छेद वाले संविधान का पहला प्रारूप तैयार करके संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डा. आंबेडकर को सौंप दिया था।
भीमराव आंबेडकर उनके कार्यों को सराहे भी थे:-
अगस्त 1947 को प्रारूप समिति की बैठक में कहा गया कि संविधान सलाहकार बी एन राऊ द्वारा तैयार प्रारूप पर विचार कर उसे संविधान सभा में पारित करने हेतु प्रेषित किया जाए। संविधान सभा में संविधान का अंतिम प्रारूप प्रस्तुत करते हुए 26 नवंबर 1949 को भीमराव आंबेडकर ने जो भाषण दिया था, उसमें उन्होंने संविधान निर्माण का श्रेय बी एन राऊ को भी दिया है। संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष आंबेडकर थे। उसके दूसरे सदस्य थे अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर, जो मद्रास प्रांत के महाधिवक्ता रहे। इसके तीसरे सदस्य थे, कन्हैया लाल मणिक लाल मुंशी। मुंशी की ख्याति गुजराती और हिंदी लेखक के साथ ही जाने-माने वकील के रूप में भी रही है। मुंशी ने भी 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया था। तब उनका मानना था कि गृह युद्ध के जरिये भारत अखंड रह सकता है। वे पाकिस्तान के निर्माण के विरोध में इसी विचार को सहयोगी पाते थे। इसके चौथे सदस्य थे, असम के मोहम्मद सादुल्ला। वैसे तो उन्होंने मुस्लिम लीग के साथ राजनीति की, लेकिन वे भारत में ही रहे। पांचवें सदस्य थे आंध्र प्रदेश के मछलीपत्तनम निवासी एन माधवराव, जो मैसूर राज्य के दीवान यानी प्रधान मंत्री भी रहे। वे तेलुगूभाषी थे और दिलचस्प है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के विरोधी रहे। छठे सदस्य को लोग नेहरू सरकार में वित्त मंत्री रहे टीटी कृष्णमाचारी के रूप में जानते हैं। सातवें सदस्य एन गोपालास्वामी अयंगर थे। वे बीएन राऊ से पहले कश्मीर के प्रधान मंत्री रहे।
लगभग तीन साल में तैयार हुआ था संविधान:-
भारत के संविधान का निर्माण 26 नवम्बर 1949 को हुआ था इस संविधान का निर्माण एक संविधान सभा द्वारा किया गया था  इसके निर्माण में 2 वर्ष 11 माह और 18 दिन का समय लगा था. संविधान सभा के निर्माण का प्रस्ताव सर्वप्रथम वर्ष 1934 में एम.एन. राऊ द्वारा रखा गया था. जबकि संविधान सभा के गठन के लिए चुनाव वर्ष 1946 में कैबिनेट मिशन योजना के तहत हुए थे.
संविधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या 389 निश्चित की गई थी. जिसमें 292 प्रतिनिधि ब्रिटिश प्रान्तों के, 4 चीफ कमिश्नर और 93 प्रतिनिधि देशी रियासतों के थे. कुल 389 सदस्यों में से प्रांतों के लिए निर्धारित 296 सदस्यों के लिय चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस को 208 वोट, मुस्लिम लीग को 73 वोट और 15 वोट अन्य दलों को और स्वतंत्र उम्‍मीदवार को मिले थे. 
सच्चीदानंद सिन्हा अस्थाई और डा.राजेंद्र प्रसाद अध्यक्ष 
संविधान सभा की प्रथम बैठक का आयोजन 9 दिसंबर 1946 को दिल्ली स्थित काउंसिल चैम्बर के पुस्तकालय भवन में हुआ था , और इसकी अध्यक्षता सभा के सबसे बुजुर्ग सदस्य सच्चीदानंद सिन्हा ने की थी वो सभा के अस्थाई अध्यक्ष चुने गए थे. संविधान सभा के स्थाई अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद थे. संविधान सभा में 12 महिला, 33 अनुसूचित जाति, 213 सामान्य, 4 सिख और 79 मुस्लिम सदस्य थे.
अनेक समितियों ने इसे सजाया संवारा:-
संविधान सभा की कार्यवाही 13 दिसम्बर 1946 ई. को  शुरू हुई थी. संविधान सभा की 13 समितियां थी. जो संविधान सभा के विभिन्न कार्यों से निपटने के लिए गठित की गईं थी. इन समितियों में 8 समितियां प्रमुख थीं, नीचे उन समितियों के नाम और उनके अध्यक्ष के नाम दिए गयें हैं- 
समिति                :   अध्यक्ष 
मसौदा समिति        :    बी.आर. अंबेडकर  
संघ शक्ति समिति      :   जवाहरलाल नेहरू
केंद्रीय संविधान समिति :  जवाहरलाल नेहरू
प्रांतीय संविधान समिति   : वल्लभभाई पटेल
मौलिक अधिकारों, अल्पसंख्यकों और जनजातीय तथा बहिष्कृत क्षेत्रों पर सलाहकार समिति :   वल्लभभाई पटेल
प्रक्रिया समिति के नियम     :  राजेंद्र प्रसाद
राज्य समिति                :     जवाहरलाल नेहरू
संचालन समिति     :            राजेंद्र प्रसाद
अनेक देशों के संविधान से अच्छी चीजें ली गई:-
संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार बी. एन राव थे. राऊ ने दुनिया के बहुत सारे संविधानों का अध्ययन किया और यूके, आयरलैंड, कनाडा, अमेरिका जाकर वहां के विधि विद्वानों से इसके विषय में विस्तृत चर्चा की। फिर अक्टूबर 1947 में उन्होंने संविधान का पहला ड्राफ्ट तैयार किया और इस ड्राफ्ट को भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता वाली 7 सदस्यीय ड्राफ्टिंग कमेटी को सौंपा गया। इस ड्राफ्ट पर विचार करने के बाद कमेटी ने एक नया ड्राफ्ट तैयार किया और उसे पर संविधान सभा के सुझाव मांगे। दिए गए सुझावों के आधार पर ड्राफ्ट में कई बदलाव किये गए और बदले हुए ड्राफ्ट के सभी प्रावधानों पर एक वर्ष तक चर्चा हुई. जिसके बाद संविधान को 26 नवंबर, 1949 ई० को संविधान सभा द्वारा अंगीकृत किया गया ।
      भारतीय संविधान और उसके विदेशी स्त्रोत:-

1935 भारत सरकार अधिनियम मूलतः अनुप्राणित :-
भारतीय संविधान के 70 प्रतिशत भाग को 1935  के भारत सरकार अधिनियम से लिया गया है । इसलिए अंग्रेजों  द्वारा लागू गुलामी के कानून "इन्डियन गवर्नमेंट एक्ट 1935" की 256 धारायें समलित की गई। 30 प्रतिशत भाग के प्रावधानों को 124 धाराओं के रूप में अलग-अलग देशों से लिए गया है । इस प्रकार  256 + 124 +15=395 कुल धाराएं बनीं। इनमे 15 धाराएं नेहरू जी ने जबरदस्ती डलवाई थी।
संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से मौलिक अधिकार, न्यायिक पुनरावलोकन, संविधान की सर्वोच्चता, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, निर्वाचित राष्ट्रपति एवं उस पर महाभियोग, उपराष्ट्रपति उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को हटाने की विधि एवं वित्तीय आपात आदि  अमेरिका संविधान से 35 धारायें समलित की गई।
ब्रिटेन के संविधान से संसदात्मक शासन-प्रणाली, एकल नागरिकता एवं विधि निर्माण प्रक्रिया आदि ब्रिटेन से 22 धारायें समलित की गई।
आयरलैंड के संविधान से  नीति निर्देशक सिद्धांत, राष्ट्रपति के निर्वाचक-मंडल की व्यवस्था, राष्ट्रपति द्वारा राज्य सभा में साहित्य, कला, विज्ञान तथा समाज-सेवा इत्यादि के क्षेत्र में ख्यातिप्राप्त व्यक्तियों का मनोनयन, आपातकालीन आपातकालीन उपबंध आदि आयरलैंड की 18 धाराएं समलित की गई।
ऑस्ट्रेलिया के संविधान से प्रस्तावना की भाषा, समवर्ती सूची का प्रावधान, केंद्र एवं राज्य के बीच संबंध तथा शक्तियों का विभाजन आदि आस्ट्रेलिया से 16 धारायें समलित की गई।
जर्मनी के संविधान से आपातकाल के प्रवर्तन के दौरान राष्ट्रपति को मौलिक अधिकार संबंधी शक्तियां आदि जर्मनी से 8 धारायें समलित की गई।
कनाडा के संविधान से संघात्‍मक विशेषताएं अवशिष्‍ट शक्तियां केंद्र के पास आदि कनाडा से 24 धारायें समलित की गई।
दक्षिण अफ्रीका के संविधान से संविधान संशोधन की प्रक्रिया प्रावधान नामक सिर्फ से 1 धारा समलित की गई।
कुल मिलाकर 124 धरायें विदेशी संविधान से ली गई हैं।
इसके अलावा रूस के संविधान से मौलिक कर्तव्यों का प्रावधान और जापान के संविधान से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया का भी अपनाया गया है।
             बड़े समूह द्वारा बना बड़ा संविधान:-
26 जनवरी 1950 को संविधान देश में पूरी तरह से लागू हो गया, मूल संविधान में कुल 22 भाग, 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियां थीं. जबकि वर्तमान में इसमें 470 अनुच्छेद, 25 भाग, और 12 अनुसूचियां हैं। भारत के लिखित "संविधान" का निर्माण तो "संविधान सभा" के सारे 389 सदस्यों ने एक साथ मिलकर किया था! जिसके अध्यक्ष -  डॉ राजेन्द्र प्रसाद, उपाध्यक्ष... एच. मुखर्जी और संवैधानिक सलाहकार - बी.एन. राव साहब थे। कुल 13 समितियां थी! उसमें से केवल एक समिति के 7वें सदस्य  भीमराव अम्बेडकर  थे।भारत के "संविधान" में 124 धारायें विदेशी संविधानों से और  256 धारायें वही पुरानी हैं, जो  अंग्रेजों ने गुलाम भारत के नागरिकों पर शासन करने के लिये लागू की थी।  स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी भारत के संविधान में उक्त 256 धारायें लागू की गयी ।इस तरह से भारत के संविधान में  टोटल 395 धाराओं में मात्र 15 नई धारायें शेष बची। इसमें अधिकतर धारायें,जो जवाहरलाल नेहरू ने  जबरदस्ती लागू करायी हैं। वो पूरी तरह से केवल हिन्दुओं, सिखों, बौद्धों और जैनियों को  मुसलमानों / ईसाईयों का गुलाम बनाने के षड़यंत्र में लिखवाई  हैं!
उदाहरण 1. धर्मनिरपेक्ष भारत देश में  धारा 30 मुसलमानों और ईसाइयों को अपनी धार्मिक शिक्षा देने हेतु मदरसा और कान्वेंट स्कूल खोलने की कानूनी अनुमति एवं संरक्षण देता है! धारा 30ए हिन्दुओं को धार्मिक आधार पर शिक्षा देने पर कानूनन रोक लगाता है!
उदाहरण 2 : क्या धारायें  370 तथा 35ए काश्मीर में गजवा-ए -हिन्द के लिये, फिर धीरे-धीरे भारत से पूरी तरह से हिन्दुओं को समाप्त करने की नीयत से लागू थी ।
इसीलिये भारत के संविधान से दु:खी होकर डॉ.भीमराव आम्बेडकर  ने 2 सितम्बर 1953 को राज्य सभा में कहा, कि भारत के संविधान में भारत के नागरिकों के लिये कुछ भी नहीं है!  यह संविधान भारत के नागरिकों के साथ न्याय और भला नहीं करेगा!   
       एक विलक्षण प्रतिभा वाले रहे बी एन राऊ:-
      बी एन राव ने भी संविधान में निर्देशक सिद्धांतों को शामिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. उन्होंने भारत सरकार और संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार के रूप में अपने काम के लिए किसी भी पारिश्रमिक को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। अपने अंतिम वर्षों में, जब उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में भारत का प्रतिनिधित्व किया और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में कार्य किया, तो उन्होंने एक वैश्विक कद पाया. बी आर अम्बेडकर ने संविधान सभा में अपने समापन भाषण में बी एन राव के योगदान को याद करने हुए कहा था, "मुझे जो श्रेय दिया जाता है वह वास्तव में मेरा नहीं है. यह आंशिक रूप से संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार सर बी एन राव का है, जिन्होंने मसौदा समिति के विचार के लिए संविधान का एक मोटा मसौदा तैयार किया था।" संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने राव के बारे में कहा "(बी एन राव) वह व्यक्ति था जिसने भारतीय संविधान की योजना की कल्पना की और इसकी नींव रखी।" 30 नवंबर 1953 को राऊ की ज्यूरिख में आंतों के कैंसर से मौत हो गई। भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उनकी मृत्यु के बारे में संसदमें बात की और सदन ने एक पल का मौन अनुश्रवण दी गई है। 1988 में, उनकी जन्म जयंती के अवसरों पर, सरकार भारत सरकार ने बीएन राव के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया , जबकि उन्हें भारत रत्न या अन्य किसी उच्च नागरिक सम्मान से भी सम्मानित किया जाना चाहिए।

(लेखक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्य कर चुका हैं। वर्तमान में साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और अध्यात्म विषयों पर अपनी राय देता रहता हैं।)

Tuesday, March 7, 2023

मंत्र दीक्षा के एक वर्ष

             श्रीरामबल्लभा कुंज वेदांती जी मंदिर
मैं और मेरी धर्म पत्नी ने विगत 7 मार्च 2022 को अपने परिवारिक गुरु घराना "श्रीरामबल्लभा कुंज वेदांती जी मंदिर" के वर्तमान महंत आचार्य श्री राम शंकर दास जी महाराज से गुरु मन्त्र की दीक्षा लिया था। एक साल के अल्प समय में कुछ आध्यात्मिक कदम बढ़े और कुछ रुके। 
कुछ सुमिरन भजन हुआ कुछ ब्रत उपवास हुए कुछ तीर्थटन हुए। माया के बंधन और सांसारिकता में अनेक व्यवधान भी आए। कुछ नए मेहमान से परिवार की समृद्धि हुई तो लक्ष्मी जी का रूठना भी हमे झेलना पड़ा। एक वर्ष की अवधि पूर्ण होने पर गुरुदेव महाराज श्री राम शंकर वेदांती जी श्रीरामबल्लभा कुंज वेदांती जी जानकी घाट अयोध्या के श्री चरणों में सादर नमन और प्रणाम । 
               गुरुदेव महाराज श्री राम शंकर वेदांती जी
दीक्षा के कुछ नियम:-
        इस पावन अवसर पर दीक्षा के कुछ नियमों को नवागत श्रद्धालुओं के निमित्त प्रस्तुत कर रहा हूं।शिष्य को गुरू में सम्पूर्ण श्रद्धा तथा विश्वास रखना चाहिये तथा शिष्य को पूर्णरूपेण उनके प्रति आत्मसमर्पण करना चाहिये ! दीक्षाकाल में गुरू के द्वारा दिये गये तमाम निर्देशों का पूर्ण रूप से पालन करने का प्रयास करना चाहिये। यदि गुरू ने विशेष नियमों की चर्चा न की हो तो निम्नलिखित सर्व सामान्य नियमों का पालन करना चाहिये !

मंत्र जप से कलियुग में भी ईश्वर से साक्षात्कार सिद्ध होता है ! इस बात पर विश्वास रखना चाहिये !

मंत्र दीक्षा की क्रिया एक अत्यन्त पवित्र क्रिया है ! उसे मनोरंजन का साधन नहीं मानना चाहिये ! अन्य किसी की देखा देखी दीक्षा ग्रहण करना उचित नहीं ! अपने मन को स्थिर और सुदृढ़ करने के पश्चात गुरू की शरण में जाना चाहिये !

मंत्र को ही भगवान समझना चाहिये तथा गुरू में ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहिये !

मंत्र दीक्षा को यथा शक्ति सांसारिक सुख-प्राप्ति का माध्यम नहीं बनाना चाहिये ! बल्कि भगव्तप्राप्ति का माध्यम बनाना चाहिये !

मंत्र दीक्षा के उपरांत मंत्र जप को छोड़ना नहीं चाहिए। इससे मंत्र का घोर अपमान होता है तथा साधक को हानि होने की संभावना भी रहती है !

साधक को आसुरी प्रवृत्तियाँ – काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष आदि का त्याग करके दैवी सम्पत्ति सेवा, त्याग, दान, प्रेम, क्षमा, विनम्रता आदि गुणों को धारण करने का प्रयत्न करते रहना चाहिये !

गृहस्थ को व्यवहार की दृष्टि से अपना कर्त्तव्य आवश्यक मानकर पूरा करना चाहिये ! परन्तु उसे गौण कार्य समझना चाहिये ! समग्र सांसारिक जीवन को ही आध्यात्मिक बनाने का प्रयत्न करना चाहिये ! मन, वचन तथा कर्म से सत्य, अहिंसा तथा ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये !

प्रति सप्ताह मंत्र दीक्षा ग्रहण किये गये दिन एक वक्त फलाहार पर रहना चाहिये और वर्ष के अंत में उस दिन पूर्ण उपवास रखना चाहिये !

भगवान को निराकार-निर्गुण और साकार-सगुण दोनों स्वरूपों में देखना चाहिये ! ईश्वर को अनेक रूपों में जानकर श्रीराम, श्रीकृष्ण, शंकरजी, गणेशजी, विष्णु भगवान, दुर्गा, लक्ष्मी इत्यादि किसी भी देवी-देवता में विभेद नहीं करना चाहिये ! सभी के इष्टदेव सर्वव्यापक, सर्वज्ञ सभी देवता के प्रति विरोध भाव प्रकट नहीं करना चाहिये ! हाँ, आप अपने इष्टदेव पर अधिक विश्वास रख सकेत हैं ! उसे अधिक प्रेम कर सकते हैं !

अपना इष्ट मंत्र गुप्त रखना चाहिये ! किसी से भी शेयर नहीं करना चाहिए।

पति पत्नी यदि एक ही गुरू की दीक्षा लें तो यह अति उत्तम है, परन्तु अनिवार्य नहीं है !

कभी कभी लिखित मंत्र जप भी करना चाहिये तथा उसे किसी पवित्र स्थान में सुरक्षित रखना चाहिये ! इससे वातावरण सकारात्मक और शुद्ध रहता है !

मंत्र जप के लिये पूजा का एक कमरा अथवा कोई स्थान अलग अवश्य होना चाहिये ! जिसमें नियमित धूप बत्ती व दिया अवश्य होना चाहिये ! उस स्थान को कभी भी अपवित्र नहीं होने देना चाहिये !

प्रत्येक समय अपने गुरू तथा इष्टदेव की उपस्थिति का अनुभव करते रहना चाहिये !

गुरु की आज्ञा के बिना कोई भी व्रत अनुष्ठान नहीं शुरू करना चाहिये ! एकादशी तेरस आदि प्रमुख व्रत का चयन करना चाहिए।

प्रत्येक दीक्षित दम्पति को एक पत्नीव्रत तथा पतिव्रता धर्म का पालन करना चाहिये ! अपने युगल को पूरा आदर मान सम्मान देना चाहिए।

अपने घर के मालिक के रूप में गुरू तथा इष्टदेव को मानकर स्वयं अपने को उनके प्रतिनिधि के रूप में परिवार का हर कार्य करना चाहिये !

मंत्र की शक्ति पर विश्वास रखना चाहिये ! उससे सारे विघ्नों का निवारण हो जाता है !

प्रतिदिन गुरु के बताए संख्या या कम से कम 5 माला का जप अवश्य करना चाहिये ! प्रातः और सन्ध्याकाल को नियमानुसार जप करना चाहिये !

माला फिराते समय तर्जनी, अंगूठे के पास की तथा कनिष्ठिका (छोटी) उंगली का उपयोग नहीं करना चाहिये ! माला नाभि के नीचे जाकर लटकती हुई नहीं रखनी चाहिये ! यदि सम्भव हो तो किसी वस्त्र (गौमुखी) में रखकर माला फिराना चाहिये ! सुमेरू के मनके को (मुख्य मनके को) पार करके माला नहीं फेरना चाहिये ! माला फेरते समय सुमेरू तक पहुँचकर पुनः माला घुमाकर ही दूसरी माला का प्रारम्भ करना चाहिये !

अन्त में तो ऐसी स्थिति आ जानी चाहिये कि निरन्तर उठते बैठते, खाते-पीते, चलते, काम करते तथा सोते समय भी जप चलते रहना चाहिये ।

आप सभी को अपने अपने गुरूदेव का अनुग्रह प्राप्त हो, यह हार्दिक कामना है ! 

आप सभी मंत्रजप के द्वारा अपना ऐच्छिक लक्ष्य प्राप्त करने में सम्पूर्णतः सफल हों।

 ईश्वर आपको शान्ति, आनन्द, समृद्धि तथा आध्यात्मिक प्रगति प्रदान करें ! 

आप सदा उन्नति करते रहें और इसी जीवन में भगवत्साक्षात्कार करें ! 

                          हरि ॐ तत्सत् !

Monday, March 6, 2023

श्रीकृष्णदास पयहारी ने नाथपंथी संत को शेर से गदहा बनाया ✍️ डॉ. राधे श्याम द्विवेदी



जाके सिर कर धर्यो तासु कर तर नहीं आद्यो ।
अर्प्यो पद निर्बान सोक निर्भय करि छाड्यो ॥
तेजपुंज बल भजन महामुनि ऊँधरेता ।
सेवत चरणसरोज राय राणा भुवि जेता ॥
दाहिमा बंस दिवसकर उदय संत कमल हय सुख दियो ।
निर्वेद अवधि कलिकृष्णदास अन परिहरी पय पान कियो।।
( भक्तमाल पद संख्या 38 गीता प्रेस)
पयहारी कृष्‍णदास जी गालव-ऋषि आश्रम के प्रसिद्ध संत थे। जयपुर में गलता नाम का एक प्रसिद्ध स्‍थान है, जो गालव-ऋषि का आश्रम "गलता गादी" माना जाता है। आपने आजन्‍म पय (दूध) का ही आहार किया, जिससे आप पयहारीबाबा के नाम से विख्‍यात हैं। आपकी जाति दाहिमा (दाधीच) ब्राह्मण थी। आप बाल ब्रह्मचारी थे। उदासीनता (वैराग्‍य) की तो पयहारी कृष्‍णदास मर्यादा ही थे। भारतवर्ष के छोटे बड़े जितने राजा महाराजा थे, वे सभी आपके श्री चरणों की सेवा करते थे। उन्होंने जिस किसी के शिर पर हाथ रखा उसे बड़ा से बड़ा वरदान दिया। भगवद्भजन में लवलीन रहना, यही आप का रात-दिन का काम था।
वैष्‍णवद्रोही योगियों को चमत्कारिक छवि प्रस्तुत करना:-
भक्ति आंदोलन के पूर्व देश में विशेषत: राजपूताने में नाथपंथी कनफटे योगियों का बहुत प्रभाव था, जो अपनी सिद्धि की धाक जनता पर जमाए रहते थे। जब सीधे सादे वैष्णव भक्ति मार्ग का आंदोलन देश में चला तब उसके प्रति दुर्भाव रखना उनके लिए स्वाभाविक था। कृष्णदास पयहारी जब पहले पहल गलता पहुँचे, तब वहाँ की गद्दी नाथपंथी योगियों के अधिकार में थी। वे रात भर टिकने के विचार से वहीं धूनी लगाकर बैठ गए। पर कनफटे नाथ पंथियों ने उन्हें उठा दिया।  इस पर पयहारीजी ने भी अपनी सिद्धि दिखाई और वे धूनी की आग एक कपड़े में उठाकर दूसरी जगह जा बैठे। कपड़े का न जलना देखकर योगियों के महंथ को बहुत आश्चर्य हुआ। वह बाघ बनकर उनकी ओर झपटा। इस पर पयहारीजी के मुँह से अनायास ये शब्द निकला कि 'तू कैसा गदहा है?' वह महंथ तुरंत गदहा हो गया और फिर लाख कोशिश करके अपने बल से मनुष्‍य न बन सका। उस कनफटों की मुद्राएँ उनके कानों से निकल निकल कर पयहारीजी के सामने इकट्ठी हो गईं और वे सब प्रभावहीन होती गई । आमेर के राजा पृथ्वीराज इसकी दुर्दशा नहीं देख पाये। वे आपकी सेवा में जाकर जब बड़ी प्रार्थना की, तब पयहारी बाबा ने अपनी सिद्धियों के बल पर गदहा बने महंथ को फिर आदमी बनाया । आपने गधे को फिर आदमी बनने की इस प्रकार आज्ञा दी कि- "इस जगह को तुम सब छोड़कर अलग रहो और इस आश्रम की धूनी में लकड़ियाँ पहुँचाया करो।" उन सब नाथ पंथियों ने इस शर्त को  स्‍वीकार किया ।इन्ही ऋषि ने जिस धूनी पर तपस्या की थी, वो धूनी आज तक यहां जल रही है. वहीं उन्होंने नाथ संप्रदाय को निर्देश दिया था कि उसकी धूनी बुझनी नहीं चाहिए और इसलिए ही नाथ संप्रदाय इस धूनी को जलाये रखता है।राजा पृथ्‍वीराज भी पयहारीजी के शिष्य हो गए और गलता की गद्दी रामानंदी वैष्णवों का अधिकार में पुनः आ गया । 
पयोहारी ऋषि की रहस्यमयी गुफा:-
यह रहस्यमयी बातें यही नहीं खत्म होती, धाम में पयोहारी ऋषि एक गुफा में रहते हैं, जो धूनी के ठीक सामने है. कहा जाता है कि ये गुफा पाताल तक जाती है और इसके अंदर जो भी गया, वो कभी वापस नहीं लौटा है, इसलिए ही इस गुफा को बंद कर दिया गया है.
बन में गाय के दूध का दिव्य प्रबंध:-
वन में गौएँ श्रीपयहारी जी को आप-से-आप दूध देती थीं।
जब वे कुल्लू के पहाड़ी की एक गुफा में भजन करने लगे तो दूध का प्रबंध नहीं था। वहां ग्वालों के गायों के समूह की एक गाय वहां आ जाती और स्वम दूध देने लगती। बाबा उसे अपने कमंडल में रख लेते और पी जाते। गाय अपने झुंड में रोज चली जाती थी।एक दिन गाय का मालिक ग्वाला गाय को गुफा में जाते देख उसके पीछे चला आया। उसने बाबा का दर्शन कर गाय को बहुत धन्यवाद दिया।बना ने उसे वरदान मांगने को कहा तो उसने अपने राजा का खोया राज वापस करने को कहा। ग्वाले के माध्यम से राजा आया और विना प्रयास के बाबा की कृपा से अपना राज वापस पा लिया। कुल्लू राज के लोग बाबा के भक्त बन गए।
कुल्लू राजा के बेटे को जीवनदान दिया:-
एक बार पुजारी भगवान का भोग लगाने के लिए जिलेबी लेकर जा रहा था।एक गिरा टुकड़ा राजकुमार ने खा लिया। बिना भोग लगे खाने पर राजा ने तलवार तानकर बच्चे को मारना चाहा। पयहारी बाबा ने बच्चे को बचा लिया।और अपना शिष्य बना लिया। वह बहुत धर्मनिष्ट भगवद भक्त बन गया। पयहारी बाबा ने आमेर की एक गणिका को भी उपदेश दिया था, जिसने परम गति पायी।
चमत्कारिक श्रीद्वारकाधीश के दर्शन का प्रसंग :-
कहते हैं कि एक समय राजा पृथ्‍वीराज जी ने पयहारी जी से श्रीद्वारकाधीश के दर्शन करने के लिये द्वारका चलने की प्रार्थना की। तब आपने राजा की भक्ति देख अपनी यो‍ग-सिद्धि से आधी रात के समय राजमहल में प्रकट हो राजा को श्रीद्वारकाधीश के दर्शन वहीं करा दिये। फिर राजा ने द्वारका चलने को कभी नहीं कहा--
कृष्‍णदास कलि जीति, न्‍यौति नाहर पल दीयो।
अतिथि धर्म प्रतिपालि, प्रकट जस जग में लीयो।।
उदासीनता अवधि, कनक कामिनि नहिं रातो।
राम चरन मकरंद रहत निसि दिन मद-मातो।।
गलतें गलित अमित गुन, सदाचार, सुठि नीति।
दधीचि पाछें दूसरि करी कृष्‍णदास कलि जीति।।

अपने शरीर का दान:-
जैसे दधीचि ऋषि ने देवताओं के माँगने से अपना शरीर दे दिया, ऐसे ही दधीचि-गोत्र में उत्‍पन्‍न स्‍वामी श्रीकृष्‍णदास पयहारी जी ने कलिकाल को जीतकर दधीचि की तरह दूसरी बार अपना शरीर बाघ को खाने के लिए दे दिया था। एक समय पयहारी कृष्‍णदास की गुफा के सामने बाघ आया तो आपने उसको अतिथि जान, नेवता देकर आतिथ्‍य धर्म-प्रतिपालन पूर्वक अपना पल (मांस) काटकर दिया।धर्म पालन देख रामजी ने उनके शिर पर अपना हाथ रखा तो पायहारी जी पुनः पूर्ववत शरीर प्राप्त कर लिए। इस प्रकार के प्रसिद्ध यश को आप जग में प्राप्‍त हुए।
संसारिक्ता से दूर रहे:-
उदासीनता (वैराग्‍य) की तो पयहारी कृष्‍णदास मर्यादा ही थे। इस संसार सागर में जो कनक-कामिनी रूप दो भँवर सबको डुबा देने वाले हैं, उन दोनों के रंग से आप नहीं रँगे। केवल श्रीरामचरण कमल के अनुराग रूपी मकरन्‍द से भ्रमर के सदृश मदमत्त-आनन्दित रहते थे। संतों के अमित दिव्‍य गुणों से गलित अर्थात परिपक्‍व, सदाचार एवं सुन्‍दर नीतियुक्त, ‘गलते’ गादी में आप विराजमान हुए।
उत्तर तोताद्रि' की रामानंदी गद्दी:-
अनंतानंदजी के शिष्य कृष्णदास पयहारी जी ने गलता में रामानंद संप्रदाय की गद्दी स्थापित की। यही पहली और सबसे प्रधान गद्दी हुई। रामानुज संप्रदाय के लिए दक्षिण में जो महत्व तोताद्रि का था वही महत्व रामानंद संप्रदाय के लिए उत्तर भारत में गलता को प्राप्त हुआ। यह 'उत्तर तोताद्रि' कहलाया। 
भक्त पारायण शिष्योंकी लम्बीसूची : -
कील्ह अगर केवल चरनब्रत हठी नारायण ।99
सूरज पुरुष पृथु त्रिपुर हरिभक्ति परायण॥
पद्मनाभ गोपाल टेक टीला गदाधारी।
देवा हेम कल्याण गंगा गंगासम नारी॥
विष्णुदास कन्हर रंगा चाँदन सबिरी गोबिन्द पर।
पहाड़ी परसाद तेन सिश्य सबै भाए पारकर ॥ 
( भक्तमाल पद संख्या 39 गीता प्रेस)  
(लेखक सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्य कर चुके हैं। वर्तमान में साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और अध्यात्म विषयों पर अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं।)







Saturday, March 4, 2023

जीवात्मा के उत्कृष्टता की परम अवस्था का नाम "अवधू" या "अवधूत" है ----✍️ डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

भारतीय साहित्य में यह 'अवधू' शब्द कई संप्रदायों के सिद्ध आचार्यों के अर्थ में व्यवहुत हुआ है। साधारणत: जागातिक द्वंद्वों से अतीत, मान- अपमान-विवर्जित, पहुँचे हुए योगी को अवधूत कहा जाता है। यह शब्द मुख्यतया तांत्रिकों, सहज यानियों और योगियों का है। सहजयान और वज्रयान नामक बौद्ध तांत्रिक मतों में 'अवधूती वृत्ति' नामक एक विशेष प्रकार की यौगिक वृत्ति का उल्लेख मिलता है। मत्स्येंद्रनाथ गोरखनाथ को अवधू. कह कर संबोधित करते थे । नाथ संप्रदाय को 'अवधू संप्रदाय' आचार्यगण सहजवस्था की बात करते हैं। सहजावस्था को प्राप्त करने पर ही साधक अवधूत होता है।
       निर्गुण भक्ति में साधक कवियों द्वारा बार बार अवधू या अवधूत शब्दों का प्रयोग भजन गायन में देखने को मिलता है। निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख संत कवियों में कबीर, कमाल, रैदास या रविदास, धर्मदास, गुरू नानक, दादूदयाल, सुंदरदास, रज्जब, मलूकदास, अक्षर अनन्य, जंभनाथ, सिंगा जी, हरिदास निरंजनी आदि रहे। नाथ पंथी गोरखनाथ इस सम्प्रदाय के प्रथम गुरु एवं आराध्य हैं। अवधू शब्द का प्रयोग संन्यास आश्रम में रहने वाला तथा उसके नियमों का पालन करने वाला व्यक्ति होता है।कबीरदास ने प्रायः अपने पदों में अवधू संबोधन का प्रयोग किया है। यहाँ 'अवधू' शब्द का प्रयोग नाथपंथियों के  अनुगामी साधक  नहीं, अपितु प्रतिपक्षी, प्रतिद्वंद्वी के लिए प्रयुक्त किया है, जिसको वे उद्बोधन के लिए चुनौती -सी देते दिखाई देते हैं ।
अवधू का अर्थ हैः-  
अवधू शब्द का अर्थ है ‘वधू जाके न होई, सो अवधू कहावे।’ जिसको दूसरे की जरूरत न रही; वधू यानी दूसरा। किसी को पत्नी की जरूरत है; किसी को मकान की जरूरत है; किसी को दूकान की जरूरत है; किसी को मित्र की जरूरत है; किसी को बेटे की, बेटी की; कोई न कोई जरूरत है। किसी को धन की, किसी को पद की। जब तक दूसरे की जरूरत है, तब तक तुम अवधू नहीं। जो ‘पर’ से मुक्त हो गया, जिसको दूसरे की जरूरत न रही; जो अकेला काफी है; जो अपने में पूरा है; ऐसा सब छोड़ कर जो चला गया; संसार से बिलकुल विरक्त हो गया, परिपूर्ण हो गया ,संसार से पीठ मोड़ ली, वह  अवधू या अवधूत होता हैइस अनोखे शब्द अवधूत का अर्थ होता है - जिसने सब कुछ छोड़ा। जो त्यागी हो गया– परमहंस– जिसने क्रमशः घर-द्वार छोड़ा, गहराई से देखा जाए तो वर्ण-व्यवस्था छोड़ी, समाज छोड़ा, सभ्यता छोड़ी–इतना ही नहीं अंत मे सम्पूर्ण रूप से संन्यास भी जिसने छोड़ा। अवधूत एक परम उत्कृष्ट अवस्था होता है।
भारत का चमत्कारिक शब्द:-
संपूर्ण विश्व में एक अद्वितीय शब्द, भारत में निर्मित हुआ जिसका नाम "अवधूत" है। यह अवधूत एक ऐसा शब्द है जो बड़ा कीमती है और जिसका आशय उससे भी ज्यादा कीमती है क्योंकि यह अवस्था, दुर्लभ अवस्था होती है। ऐसे व्यक्ति को संभालना वर्तमान के हिसाब से थोड़ा तो कठिन है, क्योंकि यह समाज से बिल्कुल हटके  होते हैं,लेकिन कुछ सम्प्रदाय में यह अवधूत का आशय हट के प्रतीत होता है। इनको सुरक्षा देना इनके अनुरूप वातावरण तैयार करना काफी हद तक सरल होता है ।
अवधुत शब्द की व्युत्पत्ति:-
विद्वानों ने अवधुत शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार बताई है-- अ+वधू यानी जिसकी वधू न हो अर्थात अकेला, सांसारिक बंधनो से मुक्त । भाव ग्रहण करने के स्तर पर तो यह व्युत्पत्ति आनंदित कर सकती है मगर यह सही नहीं है।अवधूत बना है संस्कृत के धूत शब्द में अव उपसर्ग लगने से । अव + धूत = अवधूत।  अव उपसर्ग का मतलब होता है दूर, परे, फासले पर ,नीचे,अवतल। धूत शब्द भी मूलतः धू धातु से बना है जिसका अर्थ है- झकझोरना, हिलाना, अपने ऊपर से उतार फेंकना, हटाना आदि। इससे बने धूत शब्द में हटाया हुआ, भड़काया हुआ, फटकारा हुआ, तिरस्कृत, परित्यक्त, पापमुक्त जैसे भाव उजागर होते हैं।  इस तरह देखें तो अवधूत का मतलब निकलता है वह सन्यासी जिसने सांसारिक बंधनों तथा विषय वासनाओं का त्याग कर दिया है। सभी प्रकार से मुक्त, धूत अर्थात परिष्कृत ।व्यक्ति पहले गृहस्थ होता है,फिर ग्रहस्थ से संन्यस्त बनता है,और एक दिन ऐंसा भी घटित होता है कि फिर संन्यस्त के भी पार हो जाता है।  जीवात्मा के उत्कृष्टता की परम अवस्था ही अवधूत अवस्था होता है।
"अवधू" बड़ा ही गहरा शब्द है । इसका अर्थ है:-"वधू जाके न होई,अवधू कहावे सोई ।" अब जिसको दूसरे की जरूरत न रहे वह अवधू । वधू से मतलब होता है दूसरा। जीवन मे किसी को पत्नी की जरूरत है, किसी को मकान की जरूरत है,किसी को दूकान की जरूरत है, किसी को मित्र की जरूरत है,किसी को बेटे की, बेटी की, कोई न कोई जरूरत बनी ही रहती है। इतना ही काफी नहीं किसी को धन की, किसी को पद की,किसी को प्रतिष्ठा की भी जरूरत भी होती है। जब तक दूसरे की जरूरत है,तब तक आप अवधू नहीं हैं। अब जो ‘पर’ से मुक्त हो गया, जिसको दूसरे की जरूरत बिल्कुल भी न रही, जो अकेला ही काफी है,जो अपने में ही पूरा है । ऐसा सब छोड़ कर जो चला गया। संसार से बिलकुल विरक्त हो गया, परिपूर्ण हो गया और पीठ मोड़ ली, वह है- अवधू= मतलब अवधूत बन गया।
संसार और परमात्मा के बीच समन्वय :-
कबीर दास जी कहते हैंः अवधूत से भी ऊपर एक दशा है; और वह दशा है–जल में कमलवत रहना। संसार में होकर भी संसार को अपने में न होने देना। कबीर उसके पक्षपाती है। अवधूत के प्रति उनका सम्मान है। वे कहते हैंः कुछ तो किया; कुछ तो अपने को बदला; ‘पर’ से मुक्त हुआ। संसार से मुक्त हुआ। लेकिन कबीर कहते हैं कि संसार से मुक्त होने से भी बड़ी बात हैः संसार में मुक्त होना। वह कबीर की संसार और परमात्मा के बीच संधि है; संसार और परमात्मा के बीच समन्वय है। संसारी से बेहतर है त्यागी। लेकिन त्यागी से भी बेहतर है वह, जो संसार में है और संन्यस्त है।यही मेरे संन्यास की धारणा भी है। तुम जहां हो, वहीं; जैसे हो वैसे ही; ठीक उसी दशा में तुम्हारे भीतर रूपांतरण हो जाए। क्योंकि रूपांतरण मनःस्थिति का है परिस्थिति का नहीं।
अवधूतों के चार प्रकार :- 
तंत्र-ग्रंथों में चार प्रकार के अवधूतों की चर्चा है- ब्रह्मावधूत, शैवावधूत, भक्तावधूत और हंसावधूत। हंसावधूतों में जो पूर्ण होते हैं वे परमहंस और जो अपूर्ण होते हैं वे परिव्राजक कहलाते हैं ('प्राण्तोषिणी')। परंतु कबीरदास ने न तो इतने तरह के अवधूतों की कहीं कोई चर्चा ही की है और न ऊपर 'निर्वाण-तंत्र' के बताए हुए अवधूत से उनके अवधूत की कोई समता ही दिखाई है। 'हंसा' की बात कबीरदास कहते ज़रूर हैं पर वे हंस और अवधूत को शायद ही कहीं एक समझते हों। वे बराबर हंस या पक्षी शुद्ध और मुक्त जीवात्मा को ही कहते हैं। इसी भाव को बताने के लिए भर्तृहरि ने कहा है कि इस अवधूत मुनि की बाह्य क्रियाएँ प्रशमित हो गई हैं। वह न दु:ख समझता है, न सुख को सुख। वह कहीं भूमि पर सो सकता है कहीं पलंग पर, कहीं कंथा धारण कर लेता है कहीं दिव्य वसन, कहीं मधुर भोजन पाने पर उसे भी पा लेता है। 'किंतु कबीरदास इस प्रकार योग में भोग को पंसद नहीं करते। यद्यपि इन योगियों के संप्रदाय के सिद्धों को ही कबीर अवधूत कहते हैं तथापि वे साधारण योगी अवधूत के फ़र्क़ को बराबर याद रखते हैं। साधारण योगी के प्रति उनके मन में वैसा आदर का भाव नहीं है जैसा अवधूत के बारे में है। कभी-कभी उन्होंने स्पष्ट भाषा में योगी को और अवधूत को भिन्न रूप से याद किया है। इस प्रकार कबीरदास का अवधूत नाथपंथी सिद्ध योगी है।
अवधूत में अक्‍खड़ता पूरे सबाब पर :-
अक्‍खड़ता कबीरदास का सर्वप्रधान गुण नहीं हैं । जब वे अवधूत या योगी को संबोधन करते हैं तभी उनकी अक्‍खड़ता पूरे चढ़ाव पर होती है । वे योग के बिकट रूपों का अवतरण करते हैं गगन और पवन की पहेली बुझाते
रहते हैं, सुन्न और सहज का रहस्‍य पूछते रहते हैं, द्‌वैत और अद्‌वैत के सत्‍त्व की चर्चा करते रहते हैं-
अवधू, अच्छरहूँ सों न्यारा ।
जो तुम पवना गगन चढ़ाओ, गुफा में बासा ।
गगना पवना दाेनों बिनसैं,कहँ गया जोग तुम्‍हारा ।
गगना-मद्धे जोती झलके, पानी मद्धे तारा ।
घटिगे नींर विनसिने तारा, निकरि गयौ केहि द्‌वारा ।
फक्‍ कड़ता अवधू का स्‍वभाव:-
कबीर स्‍वभाव से फक्‍कड़ थे । अच्छा हो या बुरा, खरा हो या खोटा, जिससे एक बार चिपट गए उससे जिंदगी भर चिपटे रहो, यह सिद्धांत उन्हेें मान्य नहीं था । वे सत्‍य के जिज्ञासु थे और कोई माेह-ममता उन्हें अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकती थी । वे अपना घर जलाकर हा‍थ में मुराड़ा लेकर निकल पड़े थे और उसी को साथी बनाने को तैयार थे जो उनके हाथों अपना भी घर जलवा सके -
हम घर जारा अपना, लिया मुराड़ा हाथ ।
अब घर जारों तासु का,जो चलै हमारे साथ।
कबीर मस्‍त-मौला भी:-
वे सिर से पैर तक मस्‍त-मौला थे । मस्त-जो पुराने कृत्‍यों का हिसाब नहीं रखता, वर्तमान कर्मों को सर्वस्‍व नहीं समझता और‍ भविष्‍य में सब-कुछ झाड़-फटकार निकल जाता है । जो दुनियादार किए-कराए का लेखा-जोखा दुरुस्‍त रखता है वह मस्‍त नहीं हो सकता । जो अतीत का चिट्ठा खोले रहता है वह भविष्‍य का क्रांतदर्शी नहीं बन सकता । जो मतवाला है वह दुनिया के माप-जोख से अपनी सफलता का हिसाब नहीं करता । कबीर जैसे फक्‍कड़ को दुनिया की होशियारी से क्‍या वास्‍ता ? ये प्रेम के मतवाले थे मगर अपने को उन दीवानों में नहीं गिनते थे जो माशूक के लिए सर पर कफन बाँधे फिरते हैं 
हमन हैं इश्क मस्‍ताना, हमन को होशियारी क्‍या ।
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्‍या ।
जो बिछुड़ै हैं पियारे से, भटकते दर-बदर फिरते ।
हमारा यार है हम में, हमन को इंतजारी क्‍या।
अखंड आत्‍मविश्वास:-
कबीर की यह घर-फूँक मस्‍ती, फक्‍कड़ना, लापरवाही और निर्मम अक्‍खड़ता उनके अखंड आत्‍मविश्वास का परिणाम थी । उन्होंने कभी अपने ज्ञान को, अपने गुरु को और अपनी साधना को संदेह की नजरों से नहीं देखा । अपने प्रति उनका विश्वास कहीं भी डिगा नहीं । कभी गलती महसूस हुई तो उन्होंने एक क्षण के लिए भी नहीं सोचा कि इस गलती के कारण वे स्‍वयं हो सकते हैं । उनके मत से गलती बराबर प्रक्रिया में होती थी, मार्ग में होती थी, साधन में होती थी । उनका विश्वास ही इस प्रेम की कुंजी है। उनके विश्वास है जिसमें संकोच नहीं, द्‌विधा नहीं, बाधा नहीं है। वे कहते हैं--
प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा-परजा जिस रुचे, सिर दे सो ले जाय ।।
सूरै सीस उतारिया, छाड़ी तन की आस ।
आगेथैं हरि मुलकिया, आवत देख्या दास ।।
कबीर साहेब का यह संदेश भी कम महत्व पूर्ण नही है --
अवधू भूले को घर लावे ,
सो जन हमको भावै ।।
घर में जोग भोग घर में ही ,
घर तजि बन नहीं जावै ।
बन को गए कलपना उपजै ,
तब धौं कहाँ समावै ।।
घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में ,
जो गुरु अलख लखावै ।
सहज सुन्न में रहे समाना,
सहज समाधि लगावै ।।
उनमुनि  रहे ब्रह्म को चिन्है,
परम तत्त को ध्यावै ।
सूरत –निरत को मेला करिके,
अनहद नाद बजावै ।।
घर में वसत वस्तु भी घर है,
घर ही वस्तु मिलावै।
कहै कबीर सुनो हो अवधू,
ज्यों का त्यों ठहरावै ।।
युग प्रवर्तक कबीर :-
युगावतारी शक्ति आैर विश्वास लेकर पैदा हुए थे और युगप्रवर्तक की दृढ़ता उनमें वर्तमान थी इसीलिए वे युग प्रवर्तन कर सके । एक वाक्‍य में उनके व्यक्‍तित्‍व को कहा जा सकता हैः वे बेपरवाह , दृढ़, उग्र, कुसुमादपि कोमल, वज्रादपि कठोर सिर से पैर तक मस्‍त-मौला सन्त थे।
अवधूत अवस्था को प्राप्त दो सम्प्रदाय हैं :-
अवधूत अवस्था को प्राप्त सन्यासी दोनो ही सम्प्रदाय से सम्बन्धित होते हैं -पहला शैव और दूसरा वैष्णव शैव अवधूत वे हैं जो कठोर साधना में जीवन व्यतीत करते हैं। तथा भस्म को पूरे शरीर में लगाकर अधिकतर मौन,बिना कपड़ों के रहकर ही तपस्या रत होते हैं।इस सम्प्रदाय में विशेष रूप से विचित्र अवधूत के रूप में गुरु गोरखनाथ जी को जाना जाता है।
          वैष्णव अवधूत वे हैं जो  प्रमुख रूप से ग्रहस्थ रहकर सन्यस्त हो सकते हैं। जिनके मन की अवस्था कुछ  ऐंसी है कि आप जहां हो, वहीं। जैसे हो वैसे ही । ठीक उसी दशा में आपके भीतर रूपांतरण हो जाए।  रूपांतरण मनःस्थिति का है–परिस्थिति का नहीं। अर्थात सन्यासी और गृहस्थी एक साथ जरा भी भेद नहीं । कबीर दास जी भी इस विधि से सहमत हैं।
कबीर दास जी का अवधूत:-
कबीर दास जी ने अवधूत के विषय मे बड़ी ही अद्भुत बात कही है।  कबीर दास जी के मन में अवधूत का सम्मान है। लेकिन वे उनकी जीवन व्यवस्था से वे कतई राजी नहीं हैं। कारण यह है कि कबीर दास जी कहते हैं- कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं,सब कुछ जहां हैं वहीं हो सकता है। जो व्यक्ति दौड़-दौड़ कर, भाग-भाग कर, जंगल-पहाड़ में तप करते हैं, वह तो बाजार में भी हो सकता है। इतने दूर जाने की जरूरत ही क्या? परमात्मा दूर नहीं–पास है। परमात्मा आपके हृदय में विराजमान है।  कबीर दास जी का यह अत्यंत ही अनमोल वचन यह है कि संसार छोड़ना, संसार में रहने से बड़ी बात है। लेकिन संसार में रहना और संसार को छोड़कर रहना, संसार छोड़ने से भी कीमती बात है। कबीर दास जी कहते हैंः अवधूत से भी ऊपर एक दशा है । और वह दशा है–जल में कमलवत, संसार में होकर भी संसार को अपने में न होने देना। कबीर उसके पक्षपाती है। आगे वे कहते हैं कि संसार से मुक्त होने से भी बड़ी बात है, संसार में मुक्त होना। वह कबीर दास जी का संसार और परमात्मा के बीच का जोड़ है । संसार और परमात्मा के बीच का समन्वय है। एक बात तो निश्चित है कि संसारी से बेहतर है त्यागी। लेकिन त्यागी से भी बेहतर है वह, जो संसार में है और संन्यस्त है। इस तरह शैव और वैष्णव दोंनो ही सम्प्रदाय में यह उपयोगी रहस्य है जो हमारे जीवन को बदल सकता है। चाहे शेव की तरह अवधूत हो कोई या फिर वैष्णव की तरह से यह अवधूत शब्द की रचना ईश्वर के निकट में रहने की अवस्था है। इतने निकट की उसी में हम जीने लगें। हर सांस में ईश्वर ही वस जाए। ऐंसा है अवधूत का रहस्य ।
भैरवनाथ भी अवधूत रहे  :-
वैष्णोवी देवी धाम के भगवान भैरवनाथ भी नाथ संप्रदाय के अग्रज माने जाते हैं। और विशेष इन्हे योगी भी कहते और जोगी भी कहा जाता हैं। देवो के देव महादेव जी स्वयं शिव जी ने नवनाथो को खुद का नाम जोगी दिया हैं। इन्हें तो नाथो के नाथ नवनाथ भी कहा जाता हैं। नाथ सम्प्रदाय में योगी और जोगी एकही सिक्के के दो पहलू हैं, एक जो सन्यासी जीवन और दुसरा गृहस्थ जीवन हैं। इनके कुछ गुरुओं के शिष्य मुसलमान, जैन व हिन्दू भी हुए हैं।
तुलसीदास का अवधूत:-
धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।
काहू की बेटी सों, बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ।
तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको, रुचै सो कहै कछु ओऊ।
माँगि कै खैबो, मसीत को सोईबो, लैबो को, एकु न दैबे को दोऊ॥
   (अर्थात चाहे कोई मुझे धूर्त कहे अथवा परमहंस कहे, राजपूत कहे या जुलाहा कहे, मुझे किसी की बेटी से तो बेटे का ब्याह करना नहीं है, न मैं किसी से संपर्क रखकर उसकी जाति ही बिगाड़ूँगा। तुलसीदास तो श्रीराम का प्रसिद्ध ग़ुलाम है, जिसको जो रुचे सो कहो। मुझको तो माँग के खाना और मसजिद (देवालय) में सोना है, न किसी से एक लेना है, न दो देना है।) ( कवितावली  पृष्ठ 120) ।
इसलिए मेरा मंतव्य है कि --
अवधू बनो ,अवधू बनो ,अवधू बनो रे।
सब त्याग दो ,सब त्याग दो ,परम सत्य में मिलो रे।।

(लेखक : सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्य कर चुके हैं। वर्तमान में साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और अध्यात्म विषयों पर अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं।)

Wednesday, March 1, 2023

रामानंदाचार्य के शिष्य अनंतानन्द जी महराज एक दिव्य सन्त ✍️ डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

विलक्षण गुरु परंपरा :-
संत शिरोमणि रामानंदाचार्य के शिष्यों की वास्तविक संख्या कितनी थी, इसके सम्बन्ध में कोई निश्चित मत स्थापति नहीं किया जा सकता। सहज अनुमान किया जा सकता है कि इस युग प्रवर्तक विभूति के शिष्यों की संख्या अत्यधिक रही होगी। भारत भ्रमण के समय में स्थान-स्थान पर लोग उनके व्यक्तित्व एवं उपदेशों से प्रभावित होकर उन्हें अपना गुरु मानने लगे होंगे। फिर भी उनके 12 प्रमुख शिष्यों का उल्लेख कई स्रोतों से मिलता है। इन शिष्यों के बारे में एक दोहा भी कहा जाता है-
अनतानन्द, कबीर, सुखा, सुरसुरा, पद्मावती, नरहरि।
पीपा, भावानन्द, रैदासु, धना, सेन, सुरसरि की धरहरि।
(अर्थात्- अनंतानंद, कबीर, सुखानंद, सुरसुरानंद, पद्मावति, नरहरि, पीपा, भावानंद, रैदास, धन्ना, सेन तथा सुरसुरानंद की धर्मपत्नी आदि प्रमुख शिष्य थे)
संवत्‌ 1532 अर्थात सन्‌ 1476 में आद्य जगद्‍गुरु रामानंदाचार्य जी ने अपनी देह छोड़ दी। उनके देह त्याग के बाद से वैष्ण्व पंथियों में जगद्‍गुरु रामानंदाचार्य पद पर 'रामानंदाचार्य' की पदवी को आसीन किया जाने लगा।
रामानंदाचार्य के शिष्यों में से कबीर, पीपा तथा रैदास कवि थे। इन्हें मध्य युगीन भक्ति काल में संत कवि की प्रतिष्ठा प्राप्त है। कवि होने के कारण इन संतों की महिमा काल व लोक की सीमाओं को पार करके दूर दूर तक प्रकाशित हुई। नाभादास कृत भक्तमाल में रामानंदाचार्य के शिष्य का संक्षिप्त वर्णन मिलता है।
अनंतानंद जी महराज:-
रामानंद संप्रदाय के ग्रंथों में इनका नाम अत्यंत आदर से लिया जाता है। इन्हें भी अपने गुरु के ही समान जगद्गृरु कहकर संबोधित किया गया है। अनंतानंद जी, को ब्रह्मा जी का अवतार कहा जाता है। नाभादास ने भक्तमाल में लिखा है-
         अनंतानंद पद परिस कै लोकपाल से ते भए।
अर्थात् अनंतानंद के शिष्य अपने गुरु के चरणों का स्पर्श करके लोकपालों के समान शक्तिशाली हो गये। अनंतानंद के बचपन का नाम छन्नूलाल था। आप अयोध्या के पास राम रेखा नदी के तट पर महेशपुर गांव में पैदा हुए थे। शिक्षा दीक्षा काशी में हुई और वहीं बस गए थे। अनंतानंद के पिता जी पंडित विश्वनाथमणि त्रिपाठी सनाढ्य ब्रह्मण थे। अयोध्या और रामायण के प्रति निष्ठा के कर उन्हे अवधू पंडित कहा जाता है। वे सरस्वती के भक्त थे,जिनके आशीर्वाद से उन्हें संवत 1363 विक्रमी के कार्तिक पूर्णिमा को अनंतानंद नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था। जन्म उपरांत पहले माता जी और बाद में पिता जी की मृत्यु हो गई थी। अब पिता अवधू पंडित के ग्वाल यजमानों के बच्चों के साथ वे वन में गाय चराया करते थे। गाय चराते दिव्य वंशी की धुन सुनकर आप संवरू नामक बालक से उनकी घनिष्ठता बढ़ गई। एक दिन सांवला सलोना बालक वंशी वादन कर रहा था। आपकी उससे मित्रता हो गई। उससे मिलना आपका नित्य कर्म हो गया। उससे ना मिलने पर आप में बेचैनी महसूस होने लगी । एक दिन वह बालक भगवान श्री कृष्ण जी के रूप में उन्हें आंख बन्द कराकर गोवर्धन पर्वत के विविध लीलाओं का दर्शन कराया था। उन्हें ब्रह्म का ज्ञान मिला और उनकी भाव समाधि लग गई। बाद में श्याम किशोर नामक ब्राह्मण भक्त ने उनका पुत्रवत लालन पालन किया। वे उन्हें काशी ले गए और वहीं बस गए। वहां अनुकूल स्थिति में वे पढ़कर प्रतिष्ठित विद्वान बन गए।
एक बार काशी विश्वनाथ मंदिर में वे जागरण कर रहे थे जहां स्वामी रामानन्द जी महाराज की दिव्य ध्वनि उन्हें सुनाई दी और उस आकर्षण में आकर वे रामानंद जी से शिष्य बन दीक्षा ली और फिर अपने घर लौट कर नही आए। गुरु जी ने उनका अनंतानंद नाम रख दिया। गुरु और आश्रम की सेवा कर वे महान संत बन गए । अनंतानंद ने ‘‘श्री हरि भक्ति सिंधु - वेला’’ नामक ग्रंथ की रचना की।
         भक्त माल के अनुसार अनंतानंद के शिष्य का नाम योगानंद, गयेश जी,कर्म चन्द जी, अल्लह जी, पयहारी 
जी, राम दास जी, श्री रंग जी और नरहरि दास आदि थे।
सभी भक्ति की वर्षा करने वाले थे। अनंतानंद के शिष्य कृष्णदास पयहारी हुए जिन्होंने जयपुर के निकट गलता नामक स्थान पर रामानंद संप्रदाय की गद्दी स्थापित की। रामानंद और उनके शिष्यों द्वारा प्रचारित राम-भक्ति के ही वातावरण मं रामकथा के श्रेष्ठ हिंदी गायक तुलसीदास का आविर्भाव हुआ। श्री अनंतानंद और उनके शिष्य गणों ने श्री राम चंद्र और श्री कृष्ण के निर्मल यशोगान करके पवित्र कीर्ति रूपी धन का संग्रह किया है। अनंतानंद जी भक्ति रूपी समुद्र की मर्यादा थे। पद्मजा जी श्री जानकी ने आप के शिर पर अपना वरद हस्त रख कर आशीर्वाद दिया था।
श्री रामानंदाचार्य के साकेतवासी होने पर अनंतानंद को ही वैष्णवाचार्य के पीठ पर अभिषिक्त किया गया था किंतु गुरु विरह को सहन नहीं कर पाने के कारण एक वर्ष बाद ही वे अपने वरिष्ठ शिष्य कृष्णदासजी को आचार्य पीठ पर अभिषिक्त करके स्वयं स्वच्छंद परिभ्रमण के लिये निकल पड़े। मान्यता है कि उन्होंने 113 वर्ष की आयु में साकेत गमन किया। अनंतानंद के शिष्य अपने गुरु के चरणों का स्पर्श करके लोकपालों के समान शक्तिशाली हो गये। (भक्तमल पद्य संख्या 37)
शिष्य कृष्णदास पयहारी जी :-
        अनंतानंदजी के शिष्य कृष्णदास पयहारी हुए जिन्होंने गलता (अजमेर राज्य, राजपूताना) में रामानंद संप्रदाय की गद्दी स्थापित की। यही पहली और सबसे प्रधान गद्दी हुई। रामानुज संप्रदाय के लिए दक्षिण में जो महत्व तोताद्रि का था वही महत्व रामानंद संप्रदाय के लिए उत्तर भारत में गलता को प्राप्त हुआ। यह 'उत्तर तोताद्रि' कहलाया। कृष्णदास पयहारी राजपूताने की ओर के दाहिमा (दाधीच्य) ब्राह्मण थे। जैसा कि आदिकाल के अंतर्गत दिखाया जा चुका है, भक्ति आंदोलन के पूर्व देश में विशेषत: राजपूताने में नाथपंथी कनफटे योगियों का बहुत प्रभाव था जो अपनी सिद्धि की धाक जनता पर जमाए रहते थे। जब सीधे सादे वैष्णव भक्तिमार्ग का आंदोलन देश में चला तब उसके प्रति दुर्भाव रखना उनके लिए स्वाभाविक था। कृष्णदास पयहारी जब पहले पहल गलता पहुँचे, तब वहाँ की गद्दी नाथपंथी योगियों के अधिकार में थी। वे रात भर टिकने के विचार से वहीं धूनी लगाकर बैठ गए। पर कनफटों ने उन्हें उठा दिया। ऐसा प्रसिद्ध है कि इस पर पयहारीजी ने भी अपनी सिद्धि दिखाई और वे धूनी की आग एक कपड़े में उठाकर दूसरी जगह जा बैठे। यह देख योगियों का महंत बाघ बनकर उनकी ओर झपटा। इस पर पयहारीजी के मुँह से निकला कि 'तू कैसा गदहा है?' वह महंत तुरंत गदहा हो गया और कनफटों की मुद्राएँ उनके कानों से निकल निकलकर पयहारीजी के सामने इकट्ठी हो गईं। आमेर के राजा पृथ्वीराज के बहुत प्रार्थना करने पर महंत फिर आदमी बनाया गया। उसी समय राजा पयहारीजी के शिष्य हो गए और गलता की गद्दी पर रामानंदी वैष्णवों का अधिकार हुआ। 
                       डॉ. राधे श्याम द्विवेदी 
(लेखक सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्य कर चुके हैं। वर्तमान में साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और अध्यात्म विषयों पर अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं।)