Wednesday, April 30, 2025

आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी ‘नवीन’ की साहित्य साधना ( बस्ती मण्डल के छन्दकार भाग 3, कड़ी 25)


संक्षिप्त जीवनवृति ;- 

27 जून 1957 ई. को जन्मे डा.राधेश्याम द्विवेदी ने किसान इण्टर कालेज मरहा से इण्टर परीक्षा, अवध विश्व विद्यालय फैजाबाद से बी.ए.और बी.एड. की डिग्री, गोरखपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी), एल.एल.बी.,सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी का शास्त्री, साहित्याचार्य, ग्रंथालय विज्ञान की (B.Lib.Sc.) डिग्री तथा “संस्कृतपंच महाकाव्येषु प्रमुख नायिकानाम् चरित्र चित्रणम तुलनात्मकम अध्ययनमच” संस्कृत साहित्य की विद्यावारिधि Ph.D. ) की डिग्री उपार्जित किया है।

आगरा विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास से एम.ए.डिग्री तथा’’बस्ती का पुरातत्व : प्रारंभ से छठी शताब्दी ई तक” विषय पर दूसरी पी.एच.डी. उपार्जित किया। डा हरी सिंह गौड़ सागर विश्व विद्यालय से पुस्तकालय विज्ञान का मास्टर डिग्री(MLIS) प्राप्त किया।

कहानी लेखन महा विद्यालय अंबाला छावनी से कहानी कला, लेख रचना, पत्रकारिता और सम्पादन, पत्रिका संचालन नामक पत्राचार पाठ्यक्रम का सफलता पूर्वक पूर्ण किया।आप बस्ती जिले के न्यायालयों में 1979 से 1987 तक अधिवक्ता के रूप में अपनी सेवाएं दी। बाद में सेवा में आने के बाद अपना एडवोकेट लाइसेंस उत्तर प्रदेश बार काउंसिल को समर्पित कर दिया था। शिक्षा के समय और सेवा से पूर्व

बस्ती जिले से साप्ताहिक ’जयमानव’ का संवाददाता, ’ग्रामदूत’ दैनिक व साप्ताहिक में नियमित लेखन, राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं (लेख कहानी कविता और बाल साहित्य) प्रकाशित, बस्ती से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक ‘अगौना संदेश’ के तथा ‘नवसृजन’ त्रयमासिक का प्रकाशन व संपादन भी किया। 

12 मार्च 1987 से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण वडोदरा/आगरा मण्डल में Asstt. Librarian. Gr 1 तथा 2014 से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण आगरा मण्डल आगरा में Assistant Library and Information Officer  (राजपत्रित)पद पर कार्य कर चुके हैं। विधि स्नातक होने के कारण विभागीय मुकदमों में समय समय पर सहयोग लिया गया। आगरा मण्डल के कार्य काल में राजभाषा और विभागीय प्रकाशनों को संभालने की अतिरिक्त जिम्मेदारी भी निभानी पड़ी।

स्व परिचय:- 

नाम राधेश्याम द्विवेदी है मेरा उपनाम 

पुस्तकालय सूचनाधिकारी काम करता।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग मेरा 

आगरा मण्डल से जीवन यापन होता ।।


भारद्वाज गोत्र सरयूपारीय विप्र हूं मै

बुद्ध जन्म स्थली पावन बस्ती में रहता ।।

हिन्दी आलोचना सम्राट रामचन्द्र शुक्ल 

नाटककार लक्ष्मीनारायण जहां जन्मता।।


सक्सेना सर्वेश्वर दयाल की कुवानों नदी 

पावनभूमि जिसमें कलकल करके बहती।

पिपरहवा कपिल कोपिया तामेश्वरनाथ

रामग्राम बाराह क्षेत्र कोलियो की धरती।।


शृंगीनारी की शांता मां की है छवि निराली

जिनके तप प्रभाव से तामसी वृति डरती।

महाराजा दशरथ की मखौड़ा यज्ञ स्थली 

पुण्य प्रताप से त्रिभुवनपति को उतारती।।


सरयू रामरेखा मनोरमा के हैं सुरम्य तट 

राप्ती बूढ़ीराप्ती कलकल कलकल करती।

कहां तक गिनाऊं बस्ती अब बस्ती नही 

ऊंची ऊंची कोठियां मण्डल में हैं बनती।।


प्रकाशित कृतिः ”इन्डेक्स टू एनुवल रिपोर्ट टू द डायरेक्टर जनरलआफ आकाॅलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया” भारत सरकार, 1930-36 (1997) पब्लिस्ड बाई डायरेक्टर जनरल, आकालाजिकल सर्वेआफ इण्डिया, न्यू डेलही। अनेक राष्ट्रीय पोर्टलों में नियमित रिर्पोटिंग कर रहे हैं।

Pravakta.com से सैकड़ों रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। Poorvanchalmedia.com में बस्ती जिले के ब्यूरो चीफ के रूप में सफलता पूर्वक कार्य किए। जहां सैकड़ों रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। 

Hindimedia.in पर अब भी आप देखे जा सकते हैं।

liveaaryaavatt.com पर अब भी आप की रचनाएं देखी जा सकती हैं।

BNTlive.com पर भी आप नियमित देखे जा सकते हैं।

Krantidoot.com पर भी इनकी अनेक रचनाएं देखी जा सकती हैं।

परितोष न्यूज ब्यूरो (PNI) से न्यूज और आलेख का प्रकाशित होते रहे। 

उगता भारत, वॉयस ऑफ बस्ती, विजयदूत आदि के आप नियमित लेखक हैं ।

आकाश वाणी गोरखपुर और आगरा से समय समय पर रचनाएं प्रसारित हुई। राजभाषा समिति के लिए पुरातत्व विभाग आगरा द्वारा मानद राज भाषा अधिकारी पद के दायित्व का निर्वहन। सैकड़ों शोध छात्रों को उनके Ph.D. उपाधि के मार्ग दर्शन किया। रिटायर हो कर मूल आवास बस्ती में आने से आगरा निवास की अवधि में घर पर रखी अनेक बहुमूल्य पांडुलिपि देखरेख के अभाव में नष्ट हो जाने और कंप्यूटर हैंग होने से द्विवेदी जी का सम्यक मूल्यांकन हो पाना संभव नहीं है।

कुछ साहित्यिक / सामयिक प्रकाशित लेख :- इस सूची में प्रारंभिक जीवन की प्रिंट मीडिया के की कुछ आलेख रचनाओं की सूची ही उपलब्ध हो सकी है। अनेक रचनाएं ऑन लाइन नेट पर सही शीर्षक डालने से या लेखक का नाम डालने से दिख सकती हैं।


1. शिक्षा तब और अब ( जुलाई 1977)


2. वैज्ञानिक प्रगति मानवता का ह्रास (दिसम्बर 1977)


3. उपेक्षा तीर्थयात्रियों की (जून 1979)


4. बात करने की कला (फरवरी 1980)


5. भ्रष्टाचार : एक भयंकर रोग (जुलाई 1980) (सभी प्रकाशित मन दिल्ली )


6. ग्रामीणों का शोषण(भूभारती सितंबर 1977)


7. अध्यात्मवाद भौतिकवाद का वास्तविक स्वरुप (योगवाणी गोरखपुर, 1977)


8. चरित्रहीनता एक संक्रामक रोग (नैतिकी टेहरी गढवाल,1978)


9. विद्यार्थी और राजनीति (जनर्मोर्चा , फैजाबाद 7 अप्रैल,1978)


10. ग्रामीण यातायात(जनर्मोर्चा , फैजाबाद 29 मार्च ,1978)


11. बस्ती की साहित्यिक बीरानगी (जनर्मोर्चा फैजाबाद 26 अगस्त,1978)


12. धूम्रपान एक भयंकर रोग(जनर्मोर्चा फैजाबाद 1978)


13. सदियों से उपेक्षित श्रवणाश्रम

(जनर्मोर्चा फैजाबाद 23.11.1979)


14. बाल पोषण(हरियाणा रेडकास पत्रिका , चण्डीगढ)


15. कल जो कभी नहीं आता(हरियाणा रेडकास पत्रिका,चण्डीगढ,मई जून 1980)


16. पुलिस का दुर्व्यवहार (तरुणदूत , चण्डीगढ,22.11.1981)


17. नई कांति (सुपर एक्सप्रेस गुडगांव

27.10.1981)


18. प्राणघातक शराब (दैनिक आचरण ग्वालियर,20.09.1981)


19. इतिहास कितना सही कितना गलत : (परितोष न्यूज व्यूरो, ग्वालियर से प्रकाशित)


20. नेत्र एक दैवी कैमरा(परितोष न्यूज व्यूरो, ग्वालियर से प्रकाशित)


21. बहू को अपनाना ही ठीक: 27 दिस. 1981 (परितोष न्यूज व्यूरो, ग्वालियर से प्रकाशित)


22. कवि एक सामाजिक जितेरा (दैनिक भास्कर ग्वालियर 9 अगस्त,1981)


ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं पुरातात्विक प्रकाशित लेखों की सूची:- 


1. बाबर की चारबाग परिकल्पना: 12.03.1989,(दैनिक जागरण आगरा)


2. सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा 20.09.1990,(दैनिक जागरण आगरा)


3. पुरातत्व को लोकप्रिय बनाया जाना

(दैनिक जागरण आगरा,08.11.1990)


4. भारतीय संस्कृति में सरस्वती(दैनिक जागरण आगरा 21.01.1991)


5. शिव और उनकी लिंग पूजा(दैनिक जागरण आगरा 12.02.1991)


6. धार्मिक सहिष्णुता का प्रतीक सांची के स्मारक " 

( दैनिक जागरण 27.05.1991)


7. इतिहास के पन्नों में खुदी आगरा की तस्बीर (दैनिक आज 27.09.1990)


8. भारतीय स्मारकों में संगमरमर का प्रयोग 

(अमरउजाला मेरठ 01.08.1990)


9. विरासत की रक्षा 

(अमरउजाला मेरठ आगरा, बरेली एवं मुरादाबाद 29.09.1990)


10. विश्व प्रसिद्ध भारतीय धरोहरें (अमरउजाला मेरठ, आगरा, बरेली एवं मुरादाबाद13.12.1990)


11. भारत में संगमरमर के मन्दिर

(अमरउजाला मेरठ, आगरा, बरेली एवं मुरादाबाद,09.01.1991)


12. आगरा का विश्व धरोहर आगरा किला

(अमरउजाला मेरठ आगरा, बरेली एवं मुरादाबाद,31.07.1991)


13. ताज महल (अमरउजाला मेरठ आगरा, बरेली एवं मुरादाबाद 18.04.1992)


14. आगरा के विश्व धरोहरें (आकाशवाणी आगरा से प्रसारित 18.04.1992)


15. जैन संस्कृति के विकास में उ.प्र. का योगदान (संग्रहालय पत्रिका जून 1982)


16.कपिलवस्तु की राजधानी के नवीनतम अनुसंधान( दैनिक जागरण विशेषांक कानपुर 07.10.2015) (Sthapatyam Journal 2015)

अप्रकाशित रचनाएं:- 

भार्गव वंश का उद्भव तथा भगवान परशुराम की लोक रंजक लीलायें”

22 अध्याय में तथ्य परक ऐतिहासिक विश्लेषण किया गया है।

1. संस्कृति सभ्यता तथा सृष्टि की उत्पत्ति 

2. भृगु एवम् प्रारंभिक भार्गव

3. तत्कालीन राजनीतिक और सांस्कृतिक घटनाएं 

4. ऋषि जमदग्नि एवम् उनसे संबंधित घटनाएं 

5. परशुराम जन्म, बचपन और शिक्षा

6. शुन:शेप और नरमेध यज्ञ 

7. गुरु गरिमा

8. लोमा की अघोर साधना 

9. राम की साधना 

10. तत्कालीन राजनीतिक हलचलें 

11. रेणुका उद्धार कथा

12. नवोदभव: अखण्ड भारत के निर्माता के रूप में भार्गव

13. पितरों का स्वर्गारोहण

14. दिव्य साधना और सिद्धि 

15. ब्राह्मण क्षत्रिय दल युद्ध भूमि में आमने-सामने 

16. प्रारंभिक संग्राम

17.सहस्त्रार्जुन की वीरगति एवं परशुराम का दिग्विजय अभियान 

18. परशुराम का शिव लोक गमन 

19. सनातन धर्म की पुनर्स्थापना हेतु रचनात्मक प्रयासों के विविध प्रसंग

20. भगवान परशुराम की विविध प्रतिमाएं एवम् मूर्ति कलाएं 

21. भार्गव वंश से संबंधित प्रमुख तीर्थ , पर्यटक स्थल तथा संस्थान 

22. उपसंहार

आगरावली :- 

इस संग्रह में आगरा के स्मारकों को दर्शाती कविताओं की संख्या अभी सात है। ये कविताएं आगरा में सेवा के आखिरी दिनों में लिखी गई है। प्रमुख शीर्षक इस प्रकार है अगर वन, ताज महल की पहेली, हालात- ए- आगरा, स्मार्ट सिटी आगरा की सूरत, रूमी की हवेली: नाम यहां न मिटने पाता, ताज महल और मोक्षधाम आदि।

शाश्वत मूल्यों की रचनावली :- 

इस संग्रह में कुल कविताओं की संख्या  लगभग 30 है। प्रमुख शीर्षक इस प्रकार है - तार बजा दे वीणा का, नव वर्ष आगमन,गीता, पश्चिम का प्रभाव, पाश्चात्य सभ्यता, दुर्जन हर दांव जीतता है, जन जागरूकता, गुलशन को सजाती बहारें (गजल), मतलब की दुनियां,मुक्तक, एक पल मुस्कान,जीवन, सत्य जीवन असत्य है, कोई कोई, सच्चाई ढूंढो, मध्यम मार्ग, सुख दुख, दो महा दुख, आंसू, दुःख की रजनी, जिंदगी, टिमटिमाता दीप,उपयोग, जगमग ज्योति जले,मुक्तक, रूबाइया तथा जिन्दगी और मौत आदि।

राष्ट्रीय राजनीतिक रचनाएं :- 

इस संग्रह में कुल कविताओं की संख्या लगभग 36 है। इस संकलन मेंप्रमुख शीर्षक इस प्रकार है- भारत मां का अभिनंदन, वंदनम भारतम, राष्ट्र ध्वज को हमारा प्रणाम,परतंत्र की बेड़ी, हम हैं आजाद, बिलखती आत्मा, दो हों दो से तीन चार नहीं, राज कहानी, जागरण गीत, स्वतंत्रता दिवस,, स्पेशल कमीशन, पत्राचार,कुर्सी दौड़, खण्डों में खण्ड, अखबार रेडियो बोलेगा,, घटके, पहेली, चिरंतन, राजनेता,काम खानदानी,चूसते , लक्ष्य, राष्ट्र भाषा, क्या होगा, इस्तीफा, धर्म का दलदल,कर्तव्य, शहर बड़ौदा, उत्तर प्रदेश,खुराफात, असामान्य हालात, महा राणाप्रताप, गांधी जी को भावांजलि, मेरी तरकीब अलग तरह की आदि।

ग्राम्यालोक 

इस संग्रह में कुल कविताओं की संख्या  लगभग 17 है। इस संकलन मेंप्रमुख शीर्षक इस प्रकार है - समभाव, ग्राम देव, किसान और देहात, पाती आई है, आज कय परिस्थिति, स्वरजवा, बरखा आई राम, वर्षा गीत, गांव की सादगी, स्वर्ग नरक, गांव में स्वर्ग जैसा माहौल,परिवर्तन, चांदनी, गांव की देवी, दुवाई बदलाईं, हे किसनवा भईया खेतवा कै उपज बढ़ावा और वसन्त का स्वागत आदि।

श्रृंगारिक नगमे :- 

इस संग्रह में कुल कविताओं की संख्या लगभग 44  है। वियोग शृंगार के 20 रचनाएं हैं।प्रमुख शीर्षक इस प्रकार है- 

कुंडलियां, सजनी, काली रात, तेरी हरकतें मेरे ख्याल/भ्रम, जुदाई, मेरे हालात, वियोग के सात मुक्तक, तुम्हारी याद, याद में तुम पास हो, जोड़ी बिछड़ने ना पाए, मुश्किल, स्वप्न, जब याद तुम्हारी आती होगी, और रातें आदि। संयोग शृंगार के 24 रचनाएं इस संकलन में है। प्रमुख शीर्षक इस प्रकार है- लाल रंग चढ़यो है, होली गीत, संयोग के मुक्तक,खुशी का जीवन बिताओ, मेरी अर्चना स्वीकारों, आहिस्ते आहिस्ते मुस्काना,कली, कागा का संदेशा,दर्दीला गीत, तुम और मैं, चिंतन,सम्मोहन,प्रेमालाप, प्रेम नाव, तुम्हारा रूप,  नैया,स्वर्ग की नहीं जरूरत, मुलाकात, प्यार, क्यों रूठ गई मुझसे, मेरा दिल छोड़ देती हो और साहचर्य आदि।

     इस समय इतिहास के अदभुत रहस्य  rsdwivedi.com ब्लॉग पर अपने विचार रखते रहते हैं। स्मृति शेष डा. मुनि लाल उपाध्याय 'सरस' के “बस्ती मण्डल के छन्दकार” तृतीय भाग के प्रकाशन की योजना में प्रयत्नरत हैं।

पता स्थाई: ग्राम मरवटिया पाण्डेय, पोस्ट बरहटा थाना कप्तान गंज जिला बस्ती 272131

वर्तमान पता: 8/ 2785,निकट लिटिल फ्लावर स्कूल, आनन्द नगर,कटरा, जिला बस्ती 272001

(मोबाइल नंबर: 8630778321

वर्डसप नम्बर: 9412300183)

(ईमेल: rsdwivediasi@gmail.com)

(नोट:अप्रकाशित रचनाओं के प्रकाशन के लिए प्रकाशक बंधु का सहयोग अपेक्षित है।)

Monday, April 21, 2025

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना व्यक्तित्व और कृतित्व (बस्ती के छंदकार भाग 3 कड़ी 24)

         सर्वेश्वरदयाल सक्सेना 
            व्यक्तित्व और कृतित्व
         आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी 

जीवन परिचय:- 
अनेक-अनेक कालजयी कविताओं की रचना करने वाले स्मृति शेष श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म बस्ती शहर के पिपरा शिव गुलाम नामक मोहल्ले में श्री विश्वेश्वर दयाल सक्सेना जी के घर 15 सितम्बर, 1927 को हुआ था। पिता श्री विश्वेश्वर दयाल जी ने बड़ी मेहनत से मालवीय रोड बस्ती स्थित अनाथालय के पास एक छोटा सा घर बनवाया था। उनके साथ उनके भाई श्री श्रद्धेश्वर दयाल सक्सेना और उनके पुत्र संजीव व संजय का परिवार भी रहता था। सर्वेश्वर जी की आरंभिक शिक्षा-दीक्षा भी ज़िला बस्ती में ही हुई। जब वे बस्ती के राजकीय हाईस्कूल में नवीं कक्षा में पढ़ रहे थे, राजनीतिक चुहलबाजी और विद्रोही प्रकृति के कारण उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया। उन्हें एंग्लो संस्कृत हाईस्कूल, बस्ती के प्रधानाचार्य श्री चक्रवर्ती ने शरण दी। इसी विद्यालय से सर्वेश्वर जी ने 1941 में हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। मालवीय रोड के नए घर में सर्वेश्वर के छोटे भाई एवं छोटी बहन का जन्म हुआ था । इस दौरान सर्वेश्वर जी की माँ जो प्राध्यापिका थी, का तबादला बस्ती से बांसगांव - गोरखपुर और फिर वाराणसी हो गया। सर्वेश्वर भी अध्ययन के लिए अपनी माँ के साथ वाराणसी चले गए। 1943 में उन्होंने वाराणसी के क्वींस कॉलेज से इन्टर मीडियट की परीक्षा उत्तीर्ण की। सन 1944-45 में आर्थिक विपन्नता और बहन की शादी हेतु पैसा एकत्र करने हेतु सर्वेश्वर ने पढ़ाई छोड़ दी थी। 
       ग्रामीण-कस्बाई परिवेश तथा निम्न मध्यवर्ग की आर्थिक विसंगतियों के बीच सर्वेश्वर का व्यक्तित्व पका एवं निखरा था। गरीबी एवं संघर्षशील जीवन की उनके व्यक्तित्व पर गहरी छाप पड़ी। उनके मन में गहन मानवीय पीड़ा बोध तथा आम आदमी से लगाव था। दिल्ली में रहने के बावजूद बचपन की अनुभूति उनके साथ बनी रहीं। सर्वेश्वर के पिता गांधीवादी विचारों से प्रभावित थे। मां के प्राध्यापिका होने से उनमें अच्छे संस्कार एवं लोगों के प्रति संवेदना के बीज उगे। व्यवस्था एवं यथास्थितिवाद के खिलाफ हमेशा खड़े रहे। पारिवारिक जिम्मेदारियों, मां-पिता की मृत्यु ने सर्वेश्वर की जीवनचर्या ही बदल दी। सर्वेश्वर ने बस्ती के खैर इण्डस्ट्रियल इण्टर कॉलेज में नौकरी भी की। यहाँ उन्हें उस जमाने में साठ रुपए प्रतिमाह वेतन प्राप्त हो रहा था। वे इसके बाद ज्यादा दिनों तक बस्ती न रह पाए। 
        उनकी दिली तमन्ना कुछ कर दिखाने की थी। इसी अभिलाषा को हृदय में संजोए वे बस्ती से प्रयाग पहुंच गए। इलाहाबाद से उन्होंने बी.ए. और सन् 1949 में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1949 का यह साल पत्रकार सर्वेश्वर के मर्मान्तक पीड़ा देने वाला साबित हुआ और उनकी प्यारी माँ अपने स्वास्थ्य एवं आर्थिक विपन्नता को झेलते हुए उनसे हमेशा के लिए बिछुड़ गई। उस वर्ष घोर दुःख एवं विपन्नता को सहते हुए सर्वेश्वर किसी प्रकार लगभग चार माह अपने पिता के साथ बस्ती रहे। यहीं उन्होंने प्रख्यात उर्दू शायर और सकसेरिया इण्टर कालेज के पूर्वप्राचार्य श्री ताराशंकर ‘नाशाद’ के साथ ‘परिमल’ नामक (साहित्यिक संस्था) की स्थापना की। उनके काव्य-लेखन की सक्रियता 1951 से शुरू हुई। ‘परिमल गोष्ठी’ में उनकी चर्चा बढ़ी और उनमें नई कविता की पर्याप्त संभावनाएँ देखी गई। 
बस्ती की माटी का असर:- 
बस्ती की माटी से ही वे उगकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त करने में सफल हुए। इस सबके बीच बस्ती का ग्राम्य परिवेश, आंचलिकता, शहर के किनारे बहने वाली साधारण सी शांति कुआनो नदी, खलीला- बाद के पास स्थित भुजैनिया का पोखरा आदि प्रतीक सर्वेश्वर के भोले मन को सदैव प्रभावित करते रहे। 
साहित्यिक परिचय :- 
समकालीन हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता में जहां तक जनता से जुड़े क़लमकारों का सवाल है, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना अपनी बहुमुखी रचनात्मक प्रतिभा के साथ एक जवाब की तरह सामने आते हैं। कविता हो या कहानी, नाटक हो या पत्रकारिता, उनकी जन प्रतिबद्धता हर मोर्चे पर कामयाब है। सर्वेश्वर जी ने साहित्य के हर विधा को अपनाया था। उनसे कोई विधा छूट नहीं सका था। कविता के अतिरिक्त उन्होंने कहानी, नाटक और बाल साहित्य भी रचा। उनकी रचनाओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है।
काव्य साहित्य:- 
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी का साहित्यिक जीवन काव्य से प्रारंभ हुआ। वे ‘चरचे और चरखे’ स्तम्भ में दिनमान में छपते रहे। सर्वेश्वर जी एक बेहद संवेदनशील कवि थे।कहानी के बाद वे कविता लेखन के क्षेत्र में 1950 में आए। कम समय में उन्होंने अपने समय के लोगों में जो ख़ास जगह दर्ज कराई, उससे वे हिंदी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर बन गए। 1959 में अज्ञेय के संपादन में प्रकाशित ‘तीसरा सप्तक’ के कवि के रूप में पहचाने गए। सही अर्थों में सर्वेश्वर नई कविता के अधिष्ठाता कवियों में एक थे।
कविता-संग्रह : - 
काठ की घंटियाँ,1959 में प्रकाशित हुई। इसी वर्ष ‘तीसरा सप्तक’ में उनकी कविताएँ शामिल की गई। इसके बाद 
बाँस का पुल, एक सूनी नाव, गर्म हवाएँ, कुआनो नदी, जंगल का दर्द, खूँटियों पर टँगे लोग, क्या कह कर पुकारूँ, कोई मेरे साथ चले और गधा आदि उनकी प्रमुख कृतियां प्रकाशित हुई हैं। कविता-संग्रह ‘खूँटियों पर टँगे लोग’ के लिए उन्हें 1983 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
संपादन :-
शमशेर (मलयज के साथ), रूपांबरा (सहायक संपादन, संपादक : अज्ञेय जी), अँधेरों का हिसाब आदि ग्रंथों का सम्पादन किया था।उन्होंने नेपाली काव्य संग्रह 'रक्तबीज' का भी संपादन किया था।
बाल साहित्य :
बच्चों के लिए उन्होंने काफ़ी साहित्य लिखा। उनके दो बाल कविता संग्रह 'बतूता का जूता' एवं 'महंगू की टाई' नाम से छप चुके हैं। इसके अलावा ' भों-भों खों-खों,' और लाख की नाक, उनका बाल साहित्य भी रहा है।
उपन्यास :- 
सूने चौखटे उनका प्रिय उपन्यास रहा। पागल कुत्तों का मसीहा, सोया हुआ जल उनका लघु उपन्यास रहा।
नाटक : - 
बकरी, लड़ाई, अब ग़रीबी हटाओ, कल भात आएगा और हवालात उनके प्रिय नाटक रहे।
यात्रा-संस्मरण :- उन्होंने यात्रा संस्मरण भी लिखे, जो कुछ 'रंग-कुछ गंध' नाम से छपकर आया है। 
पत्रकारिता और सम्पादन:-
सर्वेश्वर जी को ए.जी. ऑफिस, इलाहाबाद के सेक्रेटरी, जो स्वयं साहित्यिक रुचि के थे, तार देकर प्रयाग बुलाया था। सर्वेश्वर जी प्रयाग पहुंचे और उन्हें ए.जी. ऑफिस में प्रमुख डिस्पैचर के पद पर कार्य मिल गया। ऑफिस के प्रमुख अधिकारी सर्वेश्वर जी की साहित्यिक रुचियों से ख़ासे प्रभावित थे, इसके चलते उन्हें वहाँ काम में बहुत स्वतंत्रता मिली। इस प्रकार सर्वेश्वर के लिए यह नौकरी वरदान साबित हुई तथा प्रयाग के साहित्यिक-सांस्कृतिक वातावरण में उन्हें रमने एवं बेहतर रचने का मौका मिल गया था। वे ए.जी.ऑफिस में 1955 तक रहे। 
    तत्पश्चात ऑल इंडिया रेडियो के सहायक संपादक (हिंदी समाचार विभाग) पद पर आपकी नियुक्ति हो गई। इस पद पर दिल्ली में वे 1960 तक रहे। सन 1960 के बाद वे दिल्ली से लखनऊ रेडियो स्टेशन आ गए। 1964 में लखनऊ रेडियो की नौकरी के बाद वे कुछ समय भोपाल एवं इंदौर रेडियो में भी कार्यरत रहे। वे अध्यापन तथा आकाशवाणी में सहायक प्रोड्यूसर भी रहे ।
'दिनमान' एवं 'पराग' का सम्पादन :- 
वह मानते थे कि जिस देश के पास समृद्ध बाल साहित्य नहीं है, उसका भविष्य उज्ज्वल नहीं रह सकता। सन 1964 में जब दिनमान पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ तो वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ के आग्रह पर वे पद से त्यागपत्र देकर दिल्ली आ गए और दिनमान से जुड़ गए। ‘अज्ञेय’ जी के साथ पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्होंने काफ़ी कुछ सीखा। 1982 में प्रमुख बाल पत्रिका 'पराग' के सम्पादक बने। 
       इस बीच उनकी पत्नी विमला देवी का निधन हो गया। तत्पश्चात् सर्वेश्वर की बहन यशोदा देवी ने आकर उनकी दोनों बच्चियों को मातृत्व भाव से लालन-पालन किया। पराग के संपादक के रूप में आपने हिंदी बाल पत्रकारिता को एक नया शिल्प एवं आयाम दिया। नवंबर 1982 में पराग का संपादन संभालने के बाद वे 23 सितम्बर 1983 तक मृत्युपर्यन्त उससे जुड़े रहे। इसके अलावा सर्वेश्वर ने प्रख्यात कवि शमशेर बहादुर सिंह पर केन्द्रित शमशेर का संपादन भी किया था।
कथा साहित्य:- 
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना एक कथाकार एवं उपन्यासकार के रूप में भी हिंदी साहित्य संसार में समादृत हुए। विश्व- विद्यालीय जीवन में ही उन्हें उनकी कहानियों के लिए पुरस्कार मिले। अपना लेखक जीवन उन्होंने वस्तुतः एक कथाकार के रूप में आरंभ किया। सन 1950 तक वे कहानियां लिखते रहे। तीन-चार सालों बाद उन्होंने फिर कहानियां लिखीं। इसी समय उनका लघु उपन्यास ‘सोया हुआ जल’ छपकर आया, फिर उनका उपन्यास ‘उड़े हुए रंग’ छपा। एक अन्य कथा संग्रह ‘अंधेरे पर अंधेरा’ की ख़ासी चर्चा हुई।
नाट्य साहित्य:- 
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने एक नाटककार के रूप में अपनी अलग पहचान दर्ज कराई। उनके नाटकों में ‘बकरी’ सर्वाधिक चर्चित हुआ, जिसके ढेरों मंचन हुए। उनके नाटकों में राजनीतिक विद्रूपताओं एवं यथास्थितिवाद के ख़िलाफ़ तीखा व्यंग्य मिलता है। वे अपने पात्रों के माध्यम से देश की सड़ांध मारती राजनीतिक व्यवस्था पर सीधी चोट करते नजर आते हैं। इसके अलावा उन्होंने लड़ाई, अब ग़रीबी हटाओ, कल भात आएगा, हवालात, रूपमती बाजबहादुर, होरी घूम मचोरी नामक नाटक एवं एकांकी लिखे। 
डा.कृष्णदत्त पालीवाल का अभिमत:- 
सर्वेश्वर ने नाटक, उपन्यास, कहानी के समान पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अनेक ऊँचाइयां प्राप्त की लेकिन उनका कवि व्यक्तित्व ही सर्वाधिक प्रखर है। प्रख्यात आलोचक डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल मानते हैं कि “समसामयिक जीवन-संदर्भों, समस्याओं से सीधे जुड़ने के कारण उनकी ताजी संवेदनात्मक क्षमता एक क्षमता संपन्न कवि के काव्य को नवीन विचारों-दृष्टियों से भरा-पूरा बना रही है ।”  
        चयनित प्रमुख कविताएं :- 
1.ताजी कविता :
सर्वेश्वर की कविता में भाषा की कामधेनु का दूध इतना ताजा एवं जीवनप्रद है कि नई कविता का संसार उससे पुष्ट ही हुआ है। सामाजिक परिवर्तन को लगातार नजरुल इस्लाम की तरह अराजकतावादी स्वर की तरह पहचानते हैं। सामाजिक व्यवस्था के विद्रोहपूर्ण क्षण में वे अपने से भी विद्रोह करते हैं–
“मैं जहां होता हूँ
वहाँ से चल पड़ता हूँ
अक्सर एक व्यथा
एक यात्रा बन जाती है।”
अपनी कविता और अपने उद्देश्य को वे पूरे खुलेपन से स्वीकारते हैं और कहते हैं–
“अब मैं कवि नहीं रह
एक काला झंडा हूँ ।
तिरपन करोड़ भौंहों के बीच मातम में
खड़ी है मेरी कविता।”
सुनना चाहता हूँ 
एक समर्थ सच्ची आवाज़
यदि कहीं हो
अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता,
सुनना चाहता हूँ
एक समर्थ सच्ची आवाज़
यदि कहीं हो।
अन्यथा
इसके पूर्व कि
मेरा हर कथन
हर मंथन
हर अभिव्यक्ति
शून्य से टकराकर फिर वापस लौट आए,
उस अनंत मौन में समा जाना चाहता हूँ
जो मृत्यु है।
‘वह बिना कहे मर गया’
यह अधिक गौरवशाली है
यह कहे जाने से - 
‘कि वह मरने के पहले
कुछ कह रहा था
जिसे किसी ने सुना नहीं।’
2.तुम्हारे साथ रहकर :- 
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएँ पास आ गई हैं,
हर रास्ता छोटा हो गया है,
दुनिया सिमटकर
एक आँगन-सी बन गई है
जो खचाखच भरा है,
कहीं भी एकांत नहीं
न बाहर, न भीतर।
हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने छोटे हो गए हैं
कि मैं उनके शीश पर हाथ रख
आशीष दे सकता हूँ,
आकाश छाती से टकराता है,
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ।
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है,
यहाँ तक कि घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार पर
चढ़कर चले जाने का
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
संभावनाओं से घिरे हैं,
हर दीवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुज़र सकता है।
शक्ति अगर सीमित है
तो हर चीज़ अशक्त भी है,
भुजाएँ अगर छोटी हैं,
तो सागर भी सिमटा हुआ है,
सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है।
दर्द उठे तो, सूने पथ पर
पाँव बढ़ाना, चलते जाना ।
हंसा ज़ोर से जब, तब दुनिया
बोली इसका पेट भरा है
और फूट कर रोया जब
तब बोली नाटक है नखरा है
जब गुमसुम रह गया, लगाई
तब उसने तोहमत घमंड की
कभी नहीं वह समझी इसके
भीतर कितना दर्द भरा है
दोस्त कठिन है यहाँ किसी को भी
अपनी पीड़ा समझाना
दर्द उठे तो, सूने पथ पर
पाँव बढ़ाना, चलते जाना ।।
3.प्रेम :- 
कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे को बिना जाने
पास-पास होना
और उस संगीत को सुनना
जो धमनियों में बजता है,
उन रंगों में नहा जाना
जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं।
शब्दों की खोज शुरू होते ही
हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं
और उनके पकड़ में आते ही
एक-दूसरे के हाथों से
मछली की तरह फिसल जाते हैं।
हर जानकारी में बहुत गहरे
ऊब का एक पतला धागा छिपा होता है,
कुछ भी ठीक से जान लेना
ख़ुद से दुश्मनी ठान लेना है।
कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे के पास बैठ ख़ुद को टटोलना,
और अपने ही भीतर
दूसरे को पा लेना।
4.चीजें /क्रांति /देश:- 
धीरे-धीरे
भरी हुई बोतलों के पास
ख़ाली गिलास-सा
मैं रख दिया गया हूँ।
धीरे-धीरे अँधेरा आएगा
और लड़खड़ाता हुआ
मेरे पास बैठ जाएगा।
वह कुछ कहेगा नहीं
मुझे बार-बार भरेगा
ख़ाली करेगा,
भरेगा-ख़ाली करेगा,
और अंत में
ख़ाली बोतलों के पास
ख़ाली गिलास-सा
छोड़ जाएगा।
मेरे दोस्तो!
तुम मौत को नहीं पहचानते
चाहे वह आदमी की हो
या किसी देश की
चाहे वह समय की हो
या किसी वेश की।
सब-कुछ धीरे-धीरे ही होता है
धीरे-धीरे ही बोतलें ख़ाली होती हैं
गिलास भरता है,
हाँ, धीरे-धीरे ही
आत्मा ख़ाली होती है
आदमी मरता है।
उस देश का मैं क्या करूँ
जो धीरे-धीरे लड़खड़ाता हुआ
मेरे पास बैठ गया है।
मेरे दोस्तो!
तुम मौत को नहीं पहचानते
धीरे-धीरे अँधेरे के पेट में
सब समा जाता है,
फिर कुछ बीतता नहीं
बीतने को कुछ रह भी नहीं जाता
ख़ाली बोतलों के पास
ख़ाली गिलास-सा सब पड़ा रह जाता है—
झंडे के पास देश
नाम के पास आदमी
प्यार के पास समय
दाम के पास वेश,
सब पड़ा रह जाता है
ख़ाली बोतलों के पास
ख़ाली गिलास-सा
धीरे-धीरे'- 
मुझे सख़्त नफ़रत है
इस शब्द से।
धीरे-धीरे ही घुन लगता है
अनाज मर जाता है,
धीरे-धीरे ही दीमकें सब-कुछ चाट जाती हैं
साहस डर जाता है।
धीरे-धीरे ही विश्वास खो जाता है
सकंल्प सो जाता है।
मेरे दोस्तो!
मैं उस देश का क्या करूँ
जो धीरे-धीरे
धीरे-धीरे ख़ाली होता जा रहा है
भरी बोतलों के पास
ख़ाली गिलास-सा
पड़ा हुआ है।
धीरे-धीरे
अब मैं ईश्वर भी नहीं पाना चाहता,
धीरे-धीरे
अब मैं स्वर्ग भी नहीं जाना चाहता,
धीरे-धीरे
अब मुझे कुछ भी नहीं है स्वीकार
चाहे वह घृणा हो चाहे प्यार।
मेरे दोस्तो!
धीरे-धीरे कुछ नहीं होता
सिर्फ़ मौत होती है,
धीरे-धीरे कुछ नहीं आता
सिर्फ़ मौत आती है,
धीरे-धीरे कुछ नहीं मिलता
सिर्फ़ मौत मिलती है,
मौत- 
ख़ाली बोतलों के पास
ख़ाली गिलास-सी।
सुनो,
ढोल की लय धीमी होती जा रही है
धीरे-धीरे एक क्रांति-यात्रा
शव-यात्रा में बदल रही है।
सड़ाँध फैल रही है- 
नक़्शे पर देश के
और आँखों में प्यार के
सीमांत धुँधले पड़ते जा रहे हैं
और हम चूहों-से देख रहे हैं।
5.प्रेम चीजें:- 
तुमसे अलग होकर लगता है
अचानक मेरे पंख छोटे हो गए हैं,
और मैं नीचे एक सीमाहीन सागर में
गिरता जा रहा हूँ।
अब कहीं कोई यात्रा नहीं है,
न अर्थमय, न अर्थहीन;
गिरने और उठने के बीच कोई अंतर नहीं।
तुमसे अलग होकर
हर चीज़ में कुछ खोजने का बोध
हर चीज़ में कुछ पाने की
अभिलाषा जाती रही
सारा अस्तित्व रेल की पटरी-सा बिछा है
हर क्षण धड़धड़ाता हुआ निकल जाता है।
तुमसे अलग होकर
घास की पत्तियाँ तक इतनी बड़ी लगती हैं
कि मेरा सिर उनकी जड़ों से
टकरा जाता है,
नदियाँ सूत की डोरियाँ हैं
पैर उलझ जाते हैं,
आकाश उलट गया है
चाँद-तारे नहीं दिखाई देते,
मैं धरती पर नहीं, कहीं उसके भीतर
उसका सारा बोझ सिर पर लिए रेंगता हूँ।
तुमसे अलग होकर लगता है
सिवा आकारों के कहीं कुछ नहीं है,
हर चीज़ टकराती है
और बिना चोट किए चली जाती है।
तुमसे अलग होकर लगता है
मैं इतनी तेज़ी से घूम रहा हूँ
कि हर चीज़ का आकार
और रंग खो गया है,
हर चीज़ के लिए
मैं भी अपना आकार और रंग खो चुका हूँ,
धब्बों के एक दायरे में
एक धब्बे-सा हूँ,
निरंतर हूँ
और रहूँगा
प्रतीक्षा के लिए
मृत्यु भी नहीं है।

 6.मृत्यु :- 

अन्त में 

अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता,

सुनना चाहता हूँ

एक समर्थ सच्ची आवाज़

यदि कहीं हो।

अन्यथा

इसके पूर्व कि

मेरा हर कथन

हर मंथन

हर अभिव्यक्ति

शून्य से टकराकर फिर वापस लौट आए,

उस अनंत मौन में समा जाना चाहता हूँ

जो मृत्यु है।

‘वह बिना कहे मर गया’

यह अधिक गौरवशाली है

यह कहे जाने से- 

‘कि वह मरने के पहले

कुछ कह रहा था

जिसे किसी ने सुना नहीं।’

विषय:सौंदर्यसन्नाटा। :- 

तुम्हारा मौन

तुम्हारे

पतले होंठों के नीचे

एक तिल है

गोया ईश्वर की ओर से

एक कील जड़ी हुई,

जो तुम्हारे

हर मौन को

अलौकिक बनाता है।

7.स्त्री :- 

सिगरेट पीती हुई औरत

पहली बार

सिगरेट पीती हुई औरत

मुझे अच्छी लगी।

क्योंकि वह प्यार की बातें

नहीं कर रही थी।

चारों तरफ़ फैलता धुआँ

मेरे भीतर धधकती आग के

बुझने का गवाह नहीं था।

उसकी आँखों में

एक अदालत थी :

एक काली चमक

जैसे कोई वकील 

उसके भीतर जिरह कर रहा हो

और उसे सवालों का अनुमान ही नहीं

उनके जवाब भी मालूम हों।

वस्तुतः वह नहा कर आई थी

किसी समुद्र में,

और मेरे पास इस तरह बैठी थी

जैसे धूप में बैठी हो।

उस समय धुएँ का छल्ला

समुद्र-तट पर गड़े छाते की तरह

खुला हुआ था- 

तृप्तिकर, सुखविभोर, संतुष्ट,

उसको मुझमें खोलता और बचाता भी।

8.हिंसा प्रतिरोध /साहस /राजनीति संघर्ष/भेड़िया:- 

एक

भेड़िए की आँखें सुर्ख़ हैं।

उसे तब तक घूरो

जब तक तुम्हारी आँखें

सुर्ख़ न हो जाएँ।

और तुम कर भी क्या सकते हो

जब वह तुम्हारे सामने हो?

यदि तुम मुँह छिपा भागोगे

तो भी तुम उसे

अपने भीतर इसी तरह खड़ा पाओगे

यदि बच रहे।

भेड़िए की आँखें सुर्ख़ हैं।

और तुम्हारी आँखें?

दो

भेड़िया ग़ुर्राता है

तुम मशाल जलाओ।

उसमें और तुममें

यही बुनियादी फ़र्क़ है

भेड़िया मशाल नहीं जला सकता।

अब तुम मशाल उठा

भेड़िए के क़रीब जाओ

भेड़िया भागेगा।

करोड़ों हाथों में मशाल लेकर

एक-एक झाड़ी की ओर बढ़ो

सब भेड़िए भागेंगे।

फिर उन्हें जंगल के बाहर निकाल

बर्फ़ में छोड़ दो

भूखे भेड़िए आपस में ग़ुर्राएँगे

एक-दूसरे को चीथ खाएँगे।

भेड़िए मर चुके होंगे

और तुम?

तीन

भेड़िए फिर आएँगे।

अचानक

तुममें से ही कोई एक दिन

भेड़िया बन जाएगा

उसका वंश बढ़ने लगेगा।

भेड़िए का आना ज़रूरी है

तुम्हें ख़ुद को चहानने के लिए

निर्भय होने का सुख जानने के लिए

मशाल उठाना सीखने के लिए।

इतिहास के जंगल में

हर बार भेड़िया माँद से निकाला जाएगा।

आदमी साहस से, एक होकर,

मशाल लिए खड़ा होगा।

इतिहास ज़िंदा रहेगा

और तुम भी

और भेड़िया?

9.आवाज सन्नाटा :- 

मेरे भीतर की कोयल

मेरे भीतर कहीं

एक कोयल पागल हो गई है।

सुबह, दुपहर, शाम, रात

बस कूदती ही रहती है

हर क्षण

किन्हीं पत्तियों में छिपी

थकती नहीं।

मैं क्या करूँ?

उसकी यह कुहू-कुहू

सुनते-सुनते मैं घबरा गया हूँ।

कहाँ से लाऊँ

एक घनी फलों से लदी अमराई?

कुछ बूढ़े पेड़

पत्तियाँ सँभाले खड़े हैं

यही क्या कम है!

मैं जानता हूँ

वह अकेली है

और भूखी

अपनी ही कूक की

प्रतिध्वनि के सहारे

वह जिए जा रहे है

एक आस में- 

अभी कोई आएगा

उसके साथ मिलकर गाएगा

उसकी चोंच से चोंच रगड़ेगा

पंख सहलाएगा

यह बूढ़े पेड़ फलों से लद जाएँगे।

कुहू-कुहू

उसकी आवाज़- 

वह नहीं जानती

मैं जानता हूँ

अब दिन-पर-दिन कमज़ोर होती जा रही है।

कुछ दिनों बाद

इतनी शिथिल हो जाएगी

कि प्रतिध्वनियाँ बनाने की

उसकी सामर्थ्य चुक जाएगी।

वह नहीं रहेगी।

मेरे भीतर की यह पागल कोयल

तब मुझे पागल कर जाएगी।

मैं बूढ़े पेड़ों की छाँह नापता रहूँगा

और पत्तियाँ गिनता रहूँगा

 बाल साहित्य 

10.नक्शा :- 

एक बच्चा नक़्शा बनाता है

तुम जानते हो वह कहाँ जाता है?

एक बच्चा नक़्शे में रंग भरता है

तुम जानते हो वह कहाँ गया?

एक बच्चा नक़्शा फाड़ देता है

तुम जानते हो वह कहाँ पहुँचा?

यदि तुम जानते होते

तो चुप नहीं बैठते

इस तरह।

 11.इच्छा:- 

मैं नहीं चाहता 

सड़े हुए फलों की पेटियों की तरह

बाज़ार में एक भीड़ के बीच मरने की अपेक्षा

एकांत में किसी सूने वृक्ष के नीचे

गिरकर सूख जाना बेहतर है।

मैं नहीं चाहता कि मुझे

झाड़-पोंछकर दुकान पर सजाया जाए,

दिन-भर मोल-तोल के बाद

फिर पोटियों में रख दिया जाए,

और एक ख़रीदार से

दूसरे ख़रीदार की प्रतीक्षा में

यह जीवन अर्थहीन हो जाए।

12.हिंसा /सांप्रदायिकता/ भूख :- 

पोस्टमार्टम की रिपोर्ट

गोली खाकर

एक के मुँह से निकला- 

‘राम’।

दूसरे के मुँह से निकला- 

‘माओ’।

लेकिन

तीसरे के मुँह से निकला- 

‘आलू’।

पोस्टमार्टम की रिपोर्ट है

कि पहले दो के पेट

भरे हुए थे।

13.प्रतिरोध संघर्ष :- 

पिछड़ा आदमी

जब सब बोलते थे

वह चुप रहता था

जब सब चलते थे

वह पीछे हो जाता था

जब सब खाने पर टूटते थे

वह अलग बैठा टूँगता रहता था

जब सब निढाल हो सो जाते थे

वह शून्य में टकटकी लगाए रहता था

लेकिन जब गोली चली

तब सबसे पहले

वही मारा गया।।

14.आवाज़ :- 

सब कुछ कह लेने के बाद

सब कुछ कह लेने के बाद

कुछ ऐसा है जो रह जाता है,

तुम उसको मत वाणी देना।

वह छाया है मेरे पावन विश्वासों की,

वह पूँजी है मेरे गूँगे अभ्यासों की,

वह सारी रचना का क्रम है,

वह जीवन का संचित श्रम है,

बस उतना ही मैं हूँ,

बस उतना ही मेरा आश्रय है,

तुम उसको मत वाणी देना।

वह पीड़ा है जो हमको, तुमको, सबको अपनाती है,

सच्चाई है-अनजानों का भी हाथ पकड़ चलना सिखलाती है,

वह यति है-हर गति को नया जन्म देती है,

आस्था है-रेती में भी नौका खेती है,

वह टूटे मन का सामर्थ है,

वह भटकी आत्मा का अर्थ है,

तुम उसको मत वाणी देना।

वह मुझसे या मेरे युग से भी ऊपर है,

वह भावी मानव की थाती है, भू पर है,

बर्बरता में भी देवत्व की कड़ी है वह,

इसलिए ध्वंस और नाश से बड़ी है वह,

अंतराल है वह-नया सूर्य

 उगा लेती है,

नए लोक, नई सृष्टि, नए स्वप्न देती है,

वह मेरी कृति है

पर मैं उसकी अनुकृति हूँ,

तुम उसको मत वाणी देना।

15.भूख :- 

जब भी

भूख से लड़ने

कोई खड़ा हो जाता है

सुंदर दीखने लगता है।

झपटता बाज़,

फन उठाए साँप,

दो पैरों पर खड़ी

काँटों से नन्हीं पत्तियाँ खाती बकरी,

दबे पाँव झाड़ियों में चलता चीता,

डाल पर उल्टा लटक

फल कुतरता तोता,

या इन सबकी जगह

आदमी होता।

जब भी

भूख से लड़ने

कोई खड़ा हो जाता है

सुंदर दीखने लगता है।

16.दुःख :- 

अक्सर एक व्यथा

अक्सर एक गंध

मेरे पास से गुज़र जाती है,

अक्सर एक नदी

मेरे सामने भर जाती है,

अक्सर एक नाव

आकर तट से टकराती है,

अक्सर एक लीक

दूर पार से बुलाती है।

मैं जहाँ होता हूँ

वहीं पर बैठ जाता हूँ,

अक्सर एक प्रतिमा

धूल में बन जाती है।

अक्सर चाँद जेब में

पड़ा हुआ मिलता है,

सूरज को गिलहरी

पेड़ पर बैठी खाती है,

अक्सर दुनिया

मटक का दाना हो जाती है,

एक हथेली पर

पूरी बस जाती है।

मैं जहाँ होता हूँ

वहाँ से उठ जाता हूँ,

अक्सर रात चींटी-सी

रेंगती हुई आती है।

अक्सर एक हँसी

ठंडी हवा-सी चलती है,

अक्सर एक दृष्टि

कनटोप-सा लगाती है,

अक्सर एक बात

पर्वत-सी खड़ी होती है,

अक्सर एक ख़ामोशी

मुझे कपड़े पहनाती है।

मैं जहाँ होता हूँ

वहाँ से चल पड़ता हूँ,

अक्सर एक व्यथा

यात्रा बन जाती है।

17.प्रकृति पेड़ /पृथ्वी समाज /चिड़िया

थोड़ी धरती पाऊँ

बहुत दिनों से सोच रहा था,

थोड़ी धरती पाऊँ

उस धरती में बाग़-बग़ीचा,

जो हो सके लगाऊँ।

खिलें फूल-फल, चिड़ियाँ बोलें,

प्यारी ख़ुशबू डोले

ताज़ी हवा जलाशय में

अपना हर अंग भिगो ले।

लेकिन एक इंच धरती भी

कहीं नहीं मिल पाई

एक पेड़ भी नहीं, कहे जो

मुझको अपना भाई।

हो सकता है पास, तुम्हारे

अपनी कुछ धरती हो

फूल-फलों से लदे बग़ीचे

और अपनी धरती हो।

हो सकता है छोटी-सी

क्यारी हो, महक रही हो

छोटी-सी खेती हो जो

फ़सलों में दहक रही हो।

हो सकता है कहीं शांत

चौपाए घूम रहे हों

हो सकता है कहीं सहन में

पक्षी झूम रहे हों।

तो विनती है यही,

कभी मत उस दुनिया को खोना

पेड़ों को मत कटने देना,

मत चिड़ियों को रोना।

एक-एक पत्ती पर हम सब

के सपने सोते हैं

शाख़ें कटने पर वे भोले,

शिशुओं सा रोते हैं।

पेड़ों के संग बढ़ना सीखो,

पेड़ों के संग खिलना

पेड़ों के संग-संग इतराना,

पेड़ों कं संग हिलना।

बच्चे और पेड़ दुनिया को

हरा-भरा रखते हैं

नहीं समझते जो, 

दुष्कर्मों का 

वे फल चखते हैं।

आज सभ्यता वहशी बन,

पेड़ों को काट रही है

ज़हर फेफड़ों में भरकर

हम सब को बाँट रही है।

18. बाल साहित्य : हाथी 

हाथी

सूंड उठा कर हाथी बैठा

पक्का गाना गाने, मच्छर

इक घुस गया कान में,

लगा कान खुजलाने।

फटफट-फटफट तबले

जैसा हाथी कान बजाता,

बड़े मौज से भीतर

बैठा मच्छर गाना गाता।

पूछ रहा है एक-दूसरे से

जंगल—‘ऐ भैया, हमें बता दो,

इन दोनों में अच्छा कौन गवैया?

19.माँ की याद

चींटियाँ अंडे उठाकर जा रही हैं,

और चींटियाँ नीड़ को चारा दबाए,

थान पर बछड़ा रँभाने लग गया है

टकटकी सूने विजन पथ पर लगाए,

थाम आँचल, थका बालक रो उठा है,

है खड़ी माँ शीश का गट्ठर गिराए,

बाँह दो चुमकारती-सी बढ़ रही है,

साँझ से कह दो बुझे दीपक जलाए।

शोर डैनों में छिपाने के लिए अब,

शोर, माँ की गोद जाने के लिए अब,

शोर घर-घर नींद रानी के लिए अब,

शोर परियों की कहानी के लिए अब,

एक मैं ही हूँ—कि मेरी साँझ चुप है,

एक मेरे दीप में ही बल नहीं है,

एक मेरी खाट का विस्तार नभ-सा

क्योंकि मेरे शीश पर आँचल नहीं है।

          बाल साहित्य:- 

20.बादल सुख वर्षा:- 

मेघ आए

मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।

आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली,

दरवाज़े-खिड़कियाँ खुलने लगीं गली-गली,

पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के।

मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।

पेड़ झुक झाँकने लगे गरदन उचकाए,

आँधी चली, धूल भागी घाघरा उठाए,

बाँकी चितवन उठा, नदी ठिठकी, घूँघट सरके।

मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।

बूढ़े पीपल ने आगे बढ़कर जुहार की,

‘बरस बाद सुधि लीन्हीं’—

बोली अकुलाई लता ओट हो किवार की,

हरसाया ताल लाया पानी परात भर के।

मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।

क्षितिज अटारी गहराई दामिनि दमकी,

‘क्षमा करा गाँठ खुल गई अब भरम की’,

बाँध टूटा झर-झर मिलन के अश्रु ढरके।

मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।

21.अकाल स्मृति / सूखा

सूखा 

हाँ, वह पगडंडी

अब रसातल में चली गई है।

अभ्यासवश ही मैं यहाँ खड़ा हूँ

दौड़कर पार भी कर जाना चाहता हूँ

चीथड़ों-सी पड़ी इस धरती को

जिसकी दरारों में

आकाश तक के पैर फँस गए हैं,

और सूरज सारी हरियाली

के साथ लुढ़क गया है।

अभ्यासवश ही मैं यहाँ हूँ

जलहीन कूपों की आँखों में झाँकता,

जलती धरती के माथे पर

ठंडे हाथ रखता।

(शायद कोई अंकुर उगे)

अभ्यासवश ही देखता हूँ, सुनता हूँ,

बोलता हूँ, चुप रहता हूँ,

ख़ाली ज़मीन को घेरता हूँ

और बाड़े बनाने के लिए

काँटे उठा-उठाकर लाता हूँ।

‘तुम एक भयानक सूखे से घिर गए हो’—

लोग मुझसे कहते है।

(शायद यह हमदर्दी है!)

कोई कुछ देने आया है दे जाए,

लूट लेने आया है ले जाए।

मुझे सभी एक जैसे लगते हैं।

किसी का होना न होना

कोई मतलब नहीं रखता।

सूखा- 

हाँ, अब मुझमें कुछ उगेगा नहीं

अब कहीं कोई प्रतिक्षा नहीं होगी,

एक ख़ाली पेट की तरह

मेरी आत्मा पिचक गई है

और ईश्वर मरे हुए डाँगर-सा गँधा रहा है।

फिर भी अभ्यासवश मैं यहाँ खड़ा हूँ

पुजागृहों की दीवारों से टिका

जलहीन स

रोवरों के हाथ बिका

निष्प्राण होने पर भी इस धरती को पहचानता

कुछ न मिलने पर भी अपना मानता।

22.यात्रा :

लीक पर वे चलें जिनके

चरण दुर्बल और हारे हैं,

हमें तो जो हमारी यात्रा से बने

ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।

साक्षी हों राह रोके खड़े

पीले बाँस के झुरमुट,

कि उनमें गा रहा है जो हवा

उसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं।

शेष जो भी हैं- 

वक्ष खोले डोलती अमराइयाँ;

गर्व से आकाश थामे खड़े

ताड़ के ये पेड़,

हिलती क्षितिज की झालरें;

झूमती हर डाल पर बैठी

फलों से मारती

खिलखिलाती शोख़ अल्हड़ हवा;

गायक-मंडली-से थिरकते आते गगन में मेघ,

वाद्य-यंत्रों-से पड़े टीले,

नदी बनने की प्रतीक्षा में, कहीं नीचे

शुष्क नाले में नाचता एक अँजुरी जल;

सभी, बन रहा है कहीं जो विश्वास

जो संकल्प हममें

बस उसी के सहारे हैं।

लीक पर वे चलें जिनके

चरण दुर्बल और हारे हैं,

हमें तो जो हमारी यात्रा से बने

ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।

23.नाव अवसाद:- 

एक सूनी नाव

तट पर लौट आई।

रोशनी राख-सी

जल में घुली, बह गई,

बंद अधरों से कथा

सिमटी नदी कह गई,

रेत प्यासी

नयन भर लाई।

भीगते अवसाद से

हवा श्लथ हो गई

हथेली की रेख काँपी

लहर-सी खो गई

मौन छाया

कहीं उतराई।

स्वर नहीं,

चित्र भी बहकर

गए लग कहीं,

स्याह पड़ते हुए जल में

रात खोई-सी

उभर आई।

एक सूनी नाव

तट पर लौट आई।

24.किसान:- 

आकाश का साफ़ा बाँधकर

सूरज की चिलम खींचता

बैठा है पहाड़,

घुटनों पर पड़ी है नदी चादर-सी,

पास ही दहक रही है

पलाश के जंगल की अँगीठी

अंधकार दूर पूर्व में

सिमटा बैठा है भेड़ों के गल्ले-सा।

अचानक—बोला मोर।

जैसे किसी ने आवाज़ दी—

‘सुनते हो’।

चिलम औंधी

धुआँ उठा—

सूरज डूबा

अँधेरा छा गया।

25.धूल पर दो रचनाएं 

एक

तुम धूल हो—

पैरों से रौंदी हुई धूल।

बेचैन हवा के साथ उठो,

आँधी बन

उनकी आँखों में पड़ो

जिनके पैरों के नीचे हो।

ऐसी कोई जगह नहीं

जहाँ तुम पहुँच न सको,

ऐसा कोई नहीं

जो तुम्हें रोक ले।

तुम धूल हो

पैरों में रौंदी हुई धूल,

धूल से मिल जाओ।

दो

तुम धूल हो

ज़िंदगी की सीलन से

दीमक बनो।

रातों-रात

सदियों से बंद इन

दीवारों की

खिड़कियाँ

दरवाज़े

और रोशनदाल चाल दो।

तुम धूल हो

ज़िंदगी की सी

लन से जन्म लो

दीमक बनो, आगे बढ़ो।

एक बार रास्ता पहचान लेने पर

तुम्हें कोई ख़त्म नहीं कर सकता।





Sunday, April 13, 2025

नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर :माहेश्वर तिवारी 'शलभ'(बस्ती के छंदकार भाग 3 कड़ी 23)

नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर :माहेश्वर तिवारी 'शलभ     

डॉ मुनि लाल उपाध्याय 'सरस'    आचार्य आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी 

जीवन परिचय:- 

प्रसिद्ध कवि माहेश्वर तिवारी' का जन्म 22 जुलाई, 1939 को उत्तर प्रदेश के बस्ती मण्डल के जिला संत कबीर नगर के मलौली गाँव में हुआ था।जो संत कबीर नगर के घनघटा तालुका में स्थित है । यह धनघटा से 2 किमी तथा संत कबीर नगर जिला मुख्यालय से 28 किमी दूर स्थित है। हैसर धनघटा नगर पंचायत में गांव सभा मलौली शामिल हुआ है । यह एक प्रसिद्ध चौराहा भी है जो राम जानकी रोड पर स्थित है । इस गांव ने सर्वाधिक अभी तक ज्ञात आठ कवियों (सात तो चतुर्वेदी परम्परा के हैं) ,को जन्म दिया है। मलौली के मूलनिवासी तथा मुरादाबाद को अपना कर्मक्षेत्र के रूप में चयन करने वाले नवगीत के सुप्रसिद्ध कवि श्री माहेश्वर तिवारी हिंदी भाषा के सुप्रसिद्ध कवि थे। उनके पिता का नाम श्री श्याम बिहारी तिवारी है। वे राष्ट्रीय स्तर के गीतकार के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके हैं। बस्ती जिले के महान साहित्यकार और राष्ट्रपति महोदय से शिक्षक सम्मान प्राप्त अवकाश प्राप्त स्मृति शेष प्रधानाचार्य डॉ मुनि लाल उपाध्याय 'सरस' ने अपने अप्रकाशित शोध ग्रन्थ बस्ती मण्डल के छन्दकार की पांडुलिपि के पृष्ठ पर “शलभ”जी को पृष्ठ 592 पर स्थान दिया है।

      श्री माहेश्वर तिवारी का निधन 16 अप्रैल 2024 को हुआ था। हिन्दी अकादमी, दिल्ली के सचिव श्री संजय कुमार गर्ग द्वारा 'शलभ’ जी के अविस्मरणीय साहित्यिक योगदान का स्मरण करते हुए इस प्रकार विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित किया था।  - 

     “हिन्दी की नवगीत धारा के प्रतिनिधि रचनाकार एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. माहेश्वर तिवारी जी जो उत्तर प्रदेश के बस्ती जनपद में और मुरादाबाद के साहित्यिक पर्याय थे। श्री माहेश्वर तिवारी जी का सृजन-संसार अपने समकालीन परिवेश एवं लोक मानस से निरंतर जुड़ा रहा है। उनके नवगीत अपनी विशेष रचना-दृष्टि अछूते बिम्बों और स्वस्थ कथ्यों के चलते पाठकों और श्रोताओं के मन को भीतर तक छूते हैं। माहेश्वर जी हिन्दी गीतिकाव्य परम्परा के उन गीतकारों में से एक थे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन गीतों को समर्पित किया। उनके गीतों को पढ़कर, उनकी शैली से न जाने कितने कवि तैयार हुए। वे गीत को मंत्र की भांति मारक बनाने में निष्णात थे। नवगीतों का प्रकृति चित्रण इतना सजीव है कि जैसे प्रकृति स्वयं देह धारण करके वार्तालाप कर रही है। मंचों पर गीत धारा को निष्कलुष और जीवंत रखने में उनका योगदान अतुलनीय है।”

कुछ प्रमुख कृतियाँ :- 

      नवगीत-संग्रह

  1. हरसिंगार कोई तो हो,  

  2. नदी का अकेलापन, 

     3.   सच की कोई शर्त नहीं, 

     4.   फूल आए हैं कनेरों में

कविता कोश” से प्रकाशित गीत:- 

कविता कोश असंख्य हिंदी कवियों को खोज खोज करके अपने मंच पर लाकर हिन्दी जगत को समृद्ध किया है। कोश ने 'शलभ' की जीवन परिचय के साथ उनके चयनित 25 गीत तथा एक बाल गीत को अपने प्रकाशन से जोड़कर आम जन मानस के करीब लाने का स्तुतय प्रयास किया है - 

सोये हैं पेड़ 

झील का ठहरा हुआ जल 

याद तुम्हारी 

आओ हम धूप-वृक्ष काटें 

सारे दिन पढ़ते अख़बार 

गहरे गहरे-से पदचिन्ह 

मन है 

हसो भाई पेड़ 

जिन्दगी अपनी हुई है मैल कानों की 

बहुत दिनों के बाद

 कुहरे में सोए हैं पेड़

 गर्दन पर, कुहनी पर, जमी हुई मैल सी 

मुड़ गया इतिहास फिर 

छोड़ आए हम अजानी घाटियों में

 भरी-भरी मूँगिया हथेली पर 

एक तुम्हारा होना

 मुड़ गए जो 

टूटे खपरैल-सी

 फागुन का रथ

 चिरंतन वसंत 

गया साल 

चिट्ठियाँ भिजवा रहा है गाँव 

आज गीत गाने का मन है  

याद तुम्हारी जैसे कोई कँचन-कलश भरे।

बाल कविताएं

पत्ते झरने लगे 

विविध कृतियां :- 

नवगीतों का विभिन्न भारतीय भाषाओं तथा अंग्रेज़ी में अनुवाद तथा कैसेट काव्यमाला (वीनस कम्पनी)। 

सम्मान:- 

उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान सहित शताधिक संस्थाओं से सम्मानित।

प्रकाशन :- 

प्रमुख राष्ट्रीय समाचार पत्रों, साहित्यिक पत्रिकाओं तथा अनेक समवेत संकलनों में रचनाओं का प्रकाशन।

प्रसारण : - 

दूरदर्शन दिल्ली,लखनऊ व आकाशवाणी रामपुर व बरेली से अनेक बार कविता- कार्यक्रम प्रसारित।

व्यवसाय:- 

लगभग दो दशक तक प्राध्यापन तथा पत्रकारिता से जुड़े रहने के बाद स्वतंत्र लेखन मुरादाबाद से किया।

स्थायी पताः- 

1.ग्राम पोस्ट मलौली, धनघटा, जिला सन्त कबीर नगर उत्तर प्रदेश।

 2.पत्राचार एवं स्थायी पताः ‘हरसिंगार’,ब/म- 48, नवीन नगर, काँठ रोड, मुरादाबाद-244001 (उ०प्र०)

   माहेश्वर तिवारी की काव्य यात्रा 

इस पोस्ट में प्रसिद्ध कवि 'महेश्वर तिवारी’ को काव्य यात्रा के कुछ प्रमुख पहलुओं पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।

इस सदी का गीत हूँ मैं , गुन गुनाकर देखिए ; एक आलेख

हिन्दी नवगीत के महत्वपूर्ण और अद्भुत हस्ताक्षर श्री माहेश्वर तिवारी के सृजनात्मक उल्लेख के बिना न तो वह पूर्ण होती है और ना ही उस चर्चा का कोई महत्व रहता है। उनकी रचनाओं में प्रयुक्त आंचलिक शब्द, मुहावरे और जीवन-जगत से जुड़े अनूठे प्रयोग उन्हें अन्य नवगीत- कारों में एक अलग विशेष पहचान दिलाते हैं।

       उनके नवगीतों में भारतीयता की सांस्कृतिक सुगंध अपने समय के युगबोध और मूल्यबोध के साथ उपस्थित है, कथ्य और शिल्प में प्रयोगवादी स्वर है तो नवता के साथ। उन्होंने अपने नवगीतों में वर्तमान परिवेश के लगभग हर पहलू को सार्थक अभिव्यक्ति दी है, चाहे राजनीति का विद्रूप चेहरा हो, व्यवस्थाओं की अव्यवस्थित स्थिति हो, आम-आदमी की विवशताओं का चित्रण हो या फिर सामाजिक विषमताएं हों-

‘बर्फ होकर

जी रहे हम तुम

मोम की जलती इमारत में

इस तरह

वातावरण कुहरिल

धूप होना

हो रहा मुश्किल

जूझने को

हम अकेले हैं

एक अंधे महाभारत में’।

         सुन रहा हूँ शेर की खालें दिखाकर नवगीत ने हमेशा अपने समय केअधुनातन संदर्भों के यथार्थ को मुक्तछंद कीकविताओं के समांतर ही उजागर किया है। कविता में यथार्थ का अर्थ सपाटबयानी या समाचार-वाचन नहीं होता, सच्ची कविता में यथार्थ की उपस्थिति भी अपनी संवेदनशीलता और काव्यत्व की ख़ुशबू के साथ होती है।

    माहेश्वर तिवारी के नवगीतों में यथार्थ का चित्रण इसी काव्यत्व की ख़ूबसूरती के साथ प्रस्तुत किया गया है। यह आम धारणा के साथ-साथ कड़वी सच्चाई भी है कि आज के समय में राजनीति के क्षेत्र में वही व्यक्ति सफल है या हो सकता है जो छल-छंद, मक्कारी, दबंगई और अनैतिक चातुर्य में निपुण हो। राजनीति के ऐसे ही विद्रूप पक्ष को अपनी पंक्तियों में माहेश्वर तिवारी प्रभावी रूप से व्यक्त करते हुए मंथन करने पर विवश करते हैं-

‘सुन रहा हूँ

शेर की खालें दिखाकर

मेमने कुछ फिर किसी

मुठभेड़ में मारे गए

फिर हवा ने

मुखबिरी की चंद फूलों की

और बन आई

खड़े काले बबूलों की

कई कागज लिए बादामी

गाँव को जब

चंद हरकारे गए’

आने वाले हैं ऐसे दिन आने वाले हैं।

    एक अन्य नवगीत में भी माहेश्वर तिवारी अपने मन की इन्हीं पीड़ाओं को प्रतीकों के माध्यम से बहुत ही प्रभावशाली रूप से अभिव्यक्त करते हुए साम्राज्यवादी नीतियों के ख़तरों के प्रति आगाह करते हैं-

‘आने वाले हैं

ऐसे दिन आने वाले हैं

जो आँसू पर भी

पहरे बैठाने वाले हैं

आकर आसपास भर देंगे

ऐसी चिल्लाहट

सुन न सकेंगे हम अपने ही

भीतर की आहट

शोर-शराबे ऐसा

दिल दहलाने वाले हैं’।

     आज तथाकथित कुछ सुख-सुविधाओं की तलाश में आदमी का वास्तविक सुख- चैन ख़त्म हो गया है। कभी किसी कारण से तो कभी किसी कारण से दिन-रात तनाव- ग्रस्त रहना और चिन्ताओं की भट्टी में पल-पल गलते रहना उसकी नियति बन गई है। चिट्ठियां भिजवा रहा है गाँव।महानगरीय जीवन में व्याप्त इन्हीं विद्रूपताओं और विसंगतियों से व्यथित माहेश्वर तिवारी गांव वापस लौटने की आत्मीयता से लबालब गुहार लगाते हैं क्योंकि कवि को लगता है कि शहर की तुलना में गांव का जीवन अधिक सरल और सुकून भरा है-

‘चिट्ठियां भिजवा रहा है गाँव

अब घर लौट आओ

थरथराती गंध

पहले बौर की कहने लगी है

याद माँ के हाथ

पहले कौर की कहने लगी है

थक चुके होंगे सफर में पाँव

अब घर लौट आओ’।

    माहेश्वर तिवारी हिन्दी नवगीत के एक समर्थ रचनाकार हैं। उनके रचना कर्म का कैनवास बहुत विस्तृत है, मुझे नहीं लगता कि उनकी लेखनी से कोई भी विषय छूटा हो। सामान्य सी बात है कि प्रेम का हर व्यक्ति से गहरा नाता होता है।

     उन्होंने अपनी रचनाओं में जहां एक ओर अपने समय के यथार्थ को बड़ी ही संवेदनशीलता के साथ महसूस करते हुए उकेरा है वहीं दूसरी ओर काग़ज के कोरेपन की तरह पवित्र प्रेम को भी मिठास की खुशबू भरे शब्द दिए हैं। 

प्रेमगीतों का भी अपना एक स्वर्णिम इतिहास रहा है। हिन्दी गीति-काव्य में प्रेमगीतों का भी अपना एक स्वर्णिम इतिहास रहा है, छायावादोत्तर काल में विशेष रूप से। माहेश्वर तिवारी के प्रेम की चाशनी में पगे गीतों में भी वही परंपरागत स्वर अपनी चुम्बकीय शक्ति के साथ विद्यमान है लेकिन नवता की मिठास के साथ-

‘डायरी में 

उँगलियों के फूल से

लिख गया है

नाम कोई भूल से

सामने यह खुला पन्ना

दिख गया हो

कौन जाने आदतन ही

लिख गया हो

शब्द जो

सीखे कभी थे धूल से’।

     माहेश्वर तिवारी का एक गीत जो रचा तो गया सन् 1964 में लेकिन आज आधी सदी बीत जाने बाद भी उतना ही ताज़गी भरा लगता है जितना रचे जाने के समय होगा। यह गीत केवल चर्चित ही नहीं हुआ बल्कि उनकी पहचान का गीत भी बना-

‘याद तुम्हारी जैसे कोई

कंचन-कलश भरे

जैसे कोई किरन अकेली

पर्वत पार करे।

लौट रही गायों के संग-संग

याद तुम्हारी आती

और धूल के संग-संग मेरे।

माथे को छू जाती

दर्पण में अपनी ही छाया-सी

रह-रह उभरे।

जैसे कोई हंस अकेला

आंगन में उतरे’।

      लगभग सभी विषयों सन्दर्भों को उनके नवगीत आत्मसात करते हुए श्रोताओं से, पाठकों से सीधा संवाद करते हैं। उनके नवगीत ज़मीन से जुड़कर तो बात करते ही हैं, हमें ऐसे दिवालोक में भी ले जाते हैं – 

जहां ‘खिलखिलाते हैं । नदी में/ जंगलों के गेह’, ‘दूर तक फैला हुआ तट/चाँदनी में सो गया है’, ‘डालों से उलझी है शाम/कनेरों वाली मुंडेरों पर’, ‘किसी स्वेटर की तरह/बुनकर/दिशाएं खुल गई हैं’, ‘मटर की ताज़ी फलियों से दिन’ और ‘कच्ची अमियां की फांकों-सी आँखें’ हैं। 

     शायद ही किसी ने पत्तियों को ताली बजाते देखा हो,  माहेश्वर तिवारी के नवगीतों में पत्तियां भी ताली बजाती हैं- 

‘पेड़ का

गाना सुना है क्या

पत्तियां

ताली बजाती हैं

और

सुर में सुर मिलाती हैं

यह कभी

हमने गुना है क्या’

    गीतों की मिठास में हम झूम-झूम जाते हैं । विख्यात साहित्यकार दयानन्द पाण्डेय के शब्दों में कहें ‘माहेश्वर तिवारी के गीतों की मिठास में हम झूम-झूम जाते हैं। फिर जब इन गीतों को माहेश्वर तिवारी का सुरीला कंठ भी मिल जाता है तो हम इन में डूब-डूब जाते हैं। इन गीतों की चांदनी में न्यौछावर हो-हो जाते हैं। माहेश्वर तिवारी हम में और माहेश्वर तिवारी में हम बहने लग जाते हैं। माहेश्वर तिवारी के गीतों की तासीर ही ऐसी है। करें तो क्या करें?’ स्वयं  तिवारी जी भी कहते हैं-

‘सिर्फ़ तिनके-सा न दाँतों में दबाकर देखिए-इस सदी का गीत हूँ मैं, गुनगुनाकर देखिए’।।

हर नवगीत पर तैयार हो सकता है

एक स्वतंत्र आलेख :- 

श्री माहेश्वर तिवारी के रचना-संसार में नवगीतों के अनेकानेक बहुमूल्य रत्न हैं। उनके एक-एक नवगीत के संदर्भ में बात की जाए तो हर नवगीत पर एक आलेख तैयार हो सकता है। उनके रचनाकर्म के संदर्भ में कुछ भी लिख पाना विख्यात शायर स्व. कृष्ण बिहारी ‘नूर’ के इस शे’र जैसा ही है-

लब क्या बतायें कितनी 

अज़ीम उसकी जात है।

सागर को सीपियों से 

उलीचने की बात है।’ 

  एक सुदीर्घ यात्रा में उन्होंने जीवन को जैसे गीत-संगीत की तरह साधा है. छोटी बहार के गीतों में भी वे जान फूँक देते हैं।  

कभी जब नई कविता और गीत में फॉंक न थीं, नई कविता के साथ गीत की संगत चलती थी। अनेक नए कवियों ने गीत लिखे, सप्तवक परंपरा के कवि इस बात के प्रमाण हैं कि नई कविता के साथ नए गीतों का कोई वैर था। नवगीतों पर सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की छंद परंपरा का वरदहस्त रहा तो प्रयोगवादी कविता के प्रवर्तक कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय के मन में भी गीतों को लेकर एक सकारात्मक भाव विद्यमान था. लेकिन धीरे-धीरे सप्तक के बाद गीतकारों को लगा कि एक अलग राह हमें चुननी चाहिए।नई कविता में हमारी समाई नहीं है।कभी अज्ञेय ने जिस भाव से कहा था छंद में मेरी समाई नहीं है, कुछ-कुछ उसी भाव बोध से नए गीतकारों ने अपनी राह तलाशी। 

    माहेश्वार तिवारी के तमाम गीत इन पत्रिकाओं में छपे।'धूप में जब भी जले हैं पांव घर की याद आई' जैसे संवेदनशील गीत के माध्यम से माहेश्वर तिवारी ने गीत को नए स्थापत्य की संरचना में बांधने का यत्न किया- 

आज गीत

गाने का मन है

अपने को

पाने का मन है।

अपनी छाया है

फूलों में

जीना चाह रहा

शूलों में।

मौसम पर

छाने का मन है।

नदी झील

झरनों सा बहना

चाह रहा

कुछ पल यों रहना।

चिड़िया हो

जाने का मन है।

'याद तुम्हारी’

उनकी सबसे प्रिय रचना है- 'याद तुम्हारी'. उसका हर अंतरा जैसे दिल की भीतरी सतहों को छूता हुआ रचा गया है- 

याद तुम्हारी जैसे कोई

कंचन-कलश भरे।

जैसे कोई किरन अकेली

पर्वत पार करे।

लौट रही गायों के

संग-संग

याद तुम्हारी आती

और धूल के

संग-संग

मेरे माथे को छू जाती

दर्पण में अपनी ही छाया-सी

रह-रह उभरे,

जैसे कोई हंस अकेला

आंगन में उतरे।

जब इकला कपोत का

जोड़ा

कंगनी पर आ जाए

दूर चिनारों के

वन से

कोई वंशी स्वर आए

सो जाता सूखी टहनी पर

अपने अधर धरे।

लगता जैसे रीते घट से

कोई प्यास हरे।

बाल गीत में भी महारत 

पत्ते झरने लगे 

पत्ते झरने लगे डाल से।

एक-एक कर-

दाँत गिर रहे जैसे-

बूढ़ी दादी के,

बर्फ पड़े तो लगते

जैसे, बिखरे

टुकड़े चाँदी के।

धीरे चलने वाला सूरज

राह नापता तेतज चाल से।

दिन छिलके उतारकर, लगते-

रक्खे उबले आलू से,

रातें लगतीं, जैसे हों-

निकलीं नदियों के बालू से!

मौसम से डर लगता

जैसे, इम्तहान वाले सवाल से।

(साभार: पराग, फरवरी, 1980, 54)

       तीन कविताएं :- 

एक

हमारे सामने

एक झील है 

नदी बनती हुई

एक नदी है

महासागर की अगाधता की

खोल चढ़ाए हुए

एक समुद्र है

द्विविधा के ज्वार-भाटों में

फँसा हुआ

हमें अपनी भूमिका का चयन करना है ।

दो

आया है जबसे

यह सिरफिरा वसन्त

सारा वन

थरथर काँप रहा है

ऋतुराज भी शायद डरावना होता है

  ऐसा ही होता होगा

 तानाशाह ।

तीन

नया राजा आया

जैसे वन में आते हैं नए पत्ते

और फूल

पियराये झरे पत्तों की

सड़ांध से निकलकर

सबने ख़ुश होकर बजाए ढोल, नगाड़े।

अब वह ढोल और नगाड़े राजा के

पास हैं

जिनके सहारे वह

हमारी चीख़ और आवाज़ों से

बच रहा है ।।



Saturday, April 12, 2025

डा.रामदास पाण्डेय "गम्भीर" (बस्ती के छंदकार भाग 3 कड़ी 22)

 डा.रामदास पाण्डेय "गम्भीर" 
(बस्ती के छंदकार भाग 3 कड़ी 22)
डा. मुनि लाल उपाध्याय 'सरस' 
आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी 
स्मृति शेष डा. मुनि लाल उपाध्याय 'सरस' जी के बस्ती जनपद के छंदकार नामक शोध प्रबंध के पांडुलिपि के पृष्ठ 591पर गंभीर जी से संबंधित संदर्भ प्रस्तुत किया है। उनका जन्म 10 फरवरी 1943 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के ग्राम मनौवा, तप्पा कनैला ; परगना : नगर पूरब ; तहसील : बस्ती ; जनपद : बस्ती ; (जो राम जानकी रोड पर स्थित है) में हुआ था। यह गांव महादेवा विधान सभा क्षेत्र में आता है। बाद में वे किसान डिग्री कालेज के सामने पुराने डी ई ओ एस के पास "अस्तित्व भवन", सिविल लाइन्स, बस्ती में अपना नगरीय मकान निर्मित कराकर रहने लगे थे। डॉ. रामदास पाण्डेय "गम्भीर" एक भारतीय लेखक, प्रधानाचार्य और दार्शनिक थे। उन्होंने चालीस पुस्तकें लिखीं, जिनमें से अधिकांश शोध पर थीं। उनका शोध विषय "अस्तित्ववाद" था। वे अस्तित्व प्रकाशन के लेखक थे, जो उनके नाम से पंजीकृत था। वे बस्ती जिले के साहित्यकारों की समिति आचार्य रामचंद्र शुक्ल समिति के वरिष्ठ सदस्य भी थे। वे कई स्कूलों और कॉलेजों के प्रधानाचार्य थे, जिनमें शहीद इंटर कॉलेज मधुबन, झिनकूलाल इंटर कॉलेज बस्ती, कन्या महाविद्यालय बस्ती और कई अन्य स्कूल शामिल हैं। वह देशराज नारंग इण्टर कालेज गोविन्द नगर वाल्टरगंज  में प्रवक्ता रहे है।  यह अपने दार्शनिक कविताओं के लिए बहुचर्चित हैं। इनकी कविताओं में दानवता के कारण दुरूहता है। “डॉ. रामदास पाण्डेय द्वारा हिंदी भाषा में लिखी गई  पुस्तक "अस्तित्ववाद" पर उनकी शोध पुस्तकों में से एक थी। उन्होंने अपनी किताब में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के बारे में लिखा था, जिसके लिए उन्हें सम्मानित करने के लिए अमेरिका से निमंत्रण भी मिला था, लेकिन उसी साल ब्रेन हेमरेज के कारण उनकी बोलने और लिखने की क्षमता चली गई और वे जाने में असमर्थ हो गए। उनकी कुछ किताबें उत्तर प्रदेश के कई सीनियर कॉलेजों और साहित्यिक मेलों में प्रदर्शित की गईं। 
मृत्यु- 
डॉ. रामदास पाण्डेय "गम्भीर" का 24 अक्टूबर 2024 को उनके बस्ती स्थित आवास पर हृदयाघात से निधन हो गया और साहित्य जगत का एक बड़ा सितारा चमक उठा।
ग्रंथसूची संबंधी जानकारी:- 
'झंपा शतक' 
'प्रसून' 
“अनेक किन्तु एक" पत्रिका का सम्पादन 
'चतुष्पथ की प्यास' (1993), 
'अस्तित्ववादी लघुकथाएं' (1994),
'बच्चों को प्यार' कविता (1995),
'वैचारिकी' (1988), 
'पवित्रशास्त्र' बाइबल: एक मूल्यांकन' (1996), 'अस्तित्ववादी' (1995), 
'अस्तित्व मणि' (1996), 
'संजीवनी' (1998)।

Wednesday, April 9, 2025

डा.मुनिलाल उपाध्याय ‘सरस’ का रचना संसार : (बस्ती के छन्दकार भाग3 कड़ी 16)


डा.मुनिलाल उपाध्याय ‘सरस’ का रचना संसार : (बस्ती के छन्दकार भाग3 कड़ी 16) मूललेखक डा. मुनिलाल उपाध्याय 'सरस', सम्पादन अद्यतन व संशोधन :        आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी  

गौतम क्षत्रियों के पुरोहितो का कुल :- शैक्षिक प्रमाणात्र के आधार पर सरस जी का जन्म दिनांक 10-4-1942 ईसवी को (सं०1999 वि०,) को माना जाता है। उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के बस्ती सदर तहसील के बहादुर व्लाक में नगर क्षेत्र में खड़ौवा खुर्द नामक गांव के आस पास इलाके में नगर राज्य में गौतम क्षत्रियों के पुरोहित के रूप में भारद्वाज गोत्रीय इस वंश के पूर्वजों का आगमन के हुआ था । नगर के राजा उदय प्रताप सिंह के सम- कालीन उपाध्याय कुल के पूर्वज लक्ष्मन दत्त एक फौजी अफसर थे। इसी संस्कार युक्त कुल परम्परा में 'सरस' जी के पिता पं. केदार नाथ उपाध्याय का जन्म हुआ था।उनका जन्म स्थान ग्राम सीतारामपुर, पत्रालय नगर बाजार ,जिला बस्ती था। उनकी पढ़ाई 1947 से नगर के प्राइमरी विद्यालय में शुरू हुआ,जिसे पास कर वह नगर के मिडिल स्कूल में दाखिला लिये थे। 1955 में कक्षा 5 पास करके सरस जी ने खैर इन्टर कालेज बस्ती में प्रवेश लिया था। 1956 तक यह एक संयुक्त परिवार की शक्ल में रहा। इसी बीच 12.10.1957 को सरस जी के पिता की असामयिक मृत्यु हो गयी। उस समय सरस जी 16 साल के तथा कक्षा 11 के छात्र थे। वह श्री गोविन्द राम सक्सेरिया इन्टर कालेज में पढते थे। उनके पिता काअसमय निधन हो जाने के कारण उन पर घर परिवार की सारी जिम्मेदारी आ गयी थी। उनकी मां ने बहुत मेहनत और त्याग करके उनकी अधूरी शिक्षा पूरी कराई थी। वह 1958 में सक्सेरिया इन्टर कालेज से इन्टर, 1962 में किसान डिग्री कालेज बस्ती से बी. ए. तथा 1963 में साकेत डिग्री कालेज फैजाबाद से बी.एड्. की परीक्षायें  पास किये थे।

शिक्षा-दीक्षा:- 

अध्यापन के साथ ही साथ सरस जी ने हिन्दी, संस्कृत, मध्यकालीन इतिहास, प्राचीन इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विषय से एम. ए. करने के बाद हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग का साहित्यरत्न, तथा सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी का साहित्याचार्य उपाधि भी प्राप्त किये थे। 

विद्वान कवि इतिहासकार और शिक्षक 

डा. सरस 01जुलाई 1963 से किसान इन्टर कालेज मरहा,कटया बस्ती में सहायक अध्यापक के रूप में पहली नियुक्ति पाये थे, जहां वह जून 1965 तक अध्यापन किये थे। वे जुलाई 1965 से 2006 तक जनता उच्चतर माध्यमिक विद्यालय नगर बाजार बस्ती में आजीवन प्रधानाचार्य पद के उत्तरदायित्व का निर्वहन भी किये। वे अच्छे विद्वान कवि तथा शिक्षा जगत के एक महान हस्ती थे। उन्हें राष्ट्रपति द्वारा दिनांक 5.9.2002 को वर्ष 2001 का शिक्षक सम्मान भी प्राप्त किए हैं। 

बानप्रस्थी जीवन 

सेवामुक्त होने के बाद वह अयोध्या के नये घाट बासुदेव घाट मोहल्ले में स्थित परिक्रमा मार्ग पर केदार आश्रम बनवाकर रहने लगे थे । उनका जीवन एकाकी एक बानप्रस्थी जैसा हो गया था और वह निरन्तर भगवत् नाम व चर्चा से जुड़े रहे। 70 वर्षीया डा. सरस की मृत्यु 30 मार्च 2012 को लखनऊ के बलरामपुर जिला चिकित्सालय में हुई थी। उनकी मृत्यु से शिक्षा तथा साहित्य जगत में एक बहुत ही अपूर्णनीय क्षति हुई थी। लक्ष्मी और सरस्वती की अति कृपा होने तथा अपने जीवन की ऊंची से ऊंची बुलन्दियों को छूने के बावजूद आज जनपद में उनके स्मरण में ना तो कोई कार्यक्रम होते हैं और ना ही उनके अपने व जिन को उन्होने उपकृत्य किया है, ही कुछ कर पा रहे है।

पुरस्कार-सम्मान-

बाल कल्याण संस्था कानपुर,नागरी बालसाहित्य संस्थान बलिया से उन्हें सम्मानित होने का गौरव मिला था। वह जून 2006 तक अपने पद पर रहकर लगभग 42 साल तक शिक्षा जगत जे जुड़े रहे। अगौना कलवारी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल स्मारक व्याख्यान माला, कवि सम्मेलन तथा कन्याओं के विद्यालय को खुलवाने में उनकी महती भूमिका रही है। 

यायावरी जीवन और यात्रा वृतांत :-

हिन्दी साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान होने के कारण कविता , नाटक कथा उपन्यास तथा यात्रा वृतान्त डा. सरस जी के प्रिय विषय व अभिरूचि हो गया था। वह एक शिक्षाविद् प्रतिष्ठित कवि एवं उत्कृष्ट साहित्यकार के रूप में जाने जाते थे। काव्य गोष्ठियों में आने जाने के कारण उनमें यायावरी प्रवृति आ गई थी। फलतः वे भारत के कोने से कोने सभी क्षेत्रों का अनेक बार भ्रमण किये हंै। 1975 में नागपुर में होने वाले प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन में समलित होकर बस्ती जनपद का प्रतिनिधित्व किया था। इसके उपरान्त उन्होने कामरूप, गोहाटी, शिलांग, चेरापूंजी, जयगांव, गंटोक, कोलकाता , गंगा सागर, जगन्नाथपुरी, जमशेदपुर, गया ,वैद्यनाथ धाम, कोणार्क , नन्दन कानन,नाथद्वारा, चित्तौड़गढ़, जयपुर, उदयपुर, अजमेर, जोधपुर ,आगरा, दिल्ली, मथुरा, नैनीताल ,मंसूरी ,हरिद्वार, ऋषिकेश, काठमाण्डू, पोखरा , तानसेन, दाड़ग, नेल्लौर, तिरूपति, मदुरै, रामेश्वरम, कन्याकुमारी, धनुषकोटि, मद्रास, कांचीपुरम, महाबली पुरम, हैदराबाद, सासाराम, मुम्बई , नसिक, औरंगाबाद, एलोरा, देवगिरि, त्रयम्बकेश्वर, खुल्दाबाद, ओंकारेश्वर, भोपाल, झांसी, मथुरा,उज्जैन, चित्रकूट, रेणकूट , हरिद्वार, देहरादून, यमनोत्री, गंगोत्री, केदानाथ, त्रिजुगी नारायण, बद्रीनाथ, देवप्रयाग, जोशीमठ मैहर, पन्ना,खजुराहो, जम्बू, पठान कोट, चण्डीगढ़, अम्बाला, वैष्णवदेवी, शिमला, चम्बा, डलहौजी, कुल्लू, मनाली, टनकपुर कांगड़ा, मैसूर ,द्वारका, पोरबन्दर, सोमनाथ, जूनागढ़, अहमदाबाद, माउन्ट आबू, बडोदरा ,उज्जैन,नरायण सरोवर भुज, बंगलौर, तिरूवन्तपुरम, गोवा, कांगड़ा मैसूर, कालीकट, उदुपी, उड़मंगलम तथा वृन्दावन गार्डन आदि स्थलों को अनेकों बार भ्रमण किया है। जिनका पूरा वृतान्त भी तीन भागों में लिखकर प्रकाशित कराया है।

बाल साहित्य और साहित्यकारो को प्रोत्साहन

उन्होंने बाल साहित्य कला विकास संस्थान की स्थापना करके अखिल भारतीय बाल साहित्यकार सम्मेलन करके 50 से अधिक राष्ट्रीय स्तर के बाल साहित्यकारों को सम्मानित किया है। साथ ही ‘‘बालसेतु’’ नामक त्रयमासिक पत्रिका प्रकाशन भी किया है।

प्रकाशित पुस्तको की सूची

उनकी लगभग 4 दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इस शोध ग्रन्थ के संकलन के समय उनकी निम्न दस कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। बहुत सारी कृतियां बाद में प्रकाशित हुई हैं। मित्र छन्दकारों की प्रेरणा से अपनी भी बात उन्हें बाध्य होकर कहना पड़ रहा है। कृतियों का परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। समीक्षा साहित्य सुधी स्वयं करेंगे।

1-गूंज 

2 नैसर्गिकी 

3.विजयश्री

4.मधुरिमा

5.बलिदान खण्ड काव्य

6.बासन्ती

7.वृत्तान्त 

8- अंतर्ध्वनि 

9. संकुल 

10. सौरभ

अप्रकाशित पुस्तके

1.जयभरतखण्ड-काव्य

2- चन्द्रगुप्त प्रवन्ध-काव्य

3. क्षमा प्रतिशोध,

4.नगर से नागपुर, 

5.बस्ती जनपद के साहित्यकार भाग 3 

 6.विषपान, 

7.छन्द बावनी आदि।

कुछ प्रमुख रचनाओं का संक्षिप्त परिचय :- 

1. गूंज 

यह प्रथम काव्यसंग्रह फरवरी 1972 में सरस साहित्य कुटीर, नगर बाजार, बस्ती से प्रकाशित हुआ है। इसका मुद्रण राजपूत मुद्रण प्रतिष्ठान, गांधी नगर, बस्ती से हुआ है। इस पुस्तक में कुल 90 पृष्ठ है। जिसमें 82 पृष्ठ कविताएँ हैं। इस काव्य- संग्रह में ग्यारह कविताएँ हैं। भारती स्तवन , नववर्ष, नव ज्योति जगाओ, प्रयाणगीत, वृक्षों के प्रति,मानवता का सस्वार, गणतंत्र दिवस, छत्रपत्ति का विजय प्रयाण, जय बांगला, क्रान्ति की गूंज आदि पर लिखी गई हैं।

2.नैसर्गिकी 

नैसर्गिकी इस पुस्तक का प्रकाशन सरस साहित्य कुटीर, नगर बाजार द्वारा राजपूत मुद्रण प्रतिष्ठान, गांधीनगर, बस्ती के माध्यम से मेरी तौसवीं वर्षगांठ 10-4-1972 को हुआ। इसमे कुत्र 76 पृष्ठों में कविताएँ है। सात वस्तुविषय क्रमशः भारती स्तवन, वसन्त, ग्रीष्म, पावस, शरद, हेमन्त, शिशिर 12 कविताएँ प्रस्तुत की गई है। यह संक्षिप्त में एक ऋतु काव्य है।

3. विजयश्री' 

इसका प्रकाशन 17-10-72 वो हुआ। यह एक लघुनाट्य है। इसके बीच-बीच में कविताएँ भी है।

4.मधुरिमा 

इसका प्रकाशन 26-1-72 को सरस साहित्य कुटीर, नगर बाजार,बस्ती के माध्यम से हुआ। यह गीत और कविताओ का संग्रह है। इसमें कुल 21 शीर्षकों पर कविताएँ  लिखी गई हैं। उसके पूर्वार्द और उत्तरार्द्ध दो भाग हैं।

5. वृत्तान्त 

इस पुस्तक वृत्तान्त का प्रकाशन नववर्ष 1975 के उपलक्ष्य में हुआ। इसमें 54 पुष्ठ में कविताएँ छपी है। कविताओं के शीर्षक क्रमशः वाणी, जप, पुस्तक, धरती, दीपक, आकाश, अग्नि, प्रकृति, वायु, प्रहरी है। इस पुस्तक में रानप्रताप त्रिपाठी, सहायक मंत्री, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की प्रशस्ति भी है।

6. वासंती 

इसका प्रकाशन बसंत पंचमी को सन् 1975 में सरस साहित्य कुटीर, नगर बाजार, बस्ती के गाध्यम से प्रकाश प्रिंटिंग प्रेस, बस्ती से हुआ। इसमे कुष 34 पृष्ठों में कविताएँ हैं जो बसन्त से प्रारंभ होकर बासन्ती तक में तेरह शीर्षकों को जोड़ती है। इस पुस्तक की प्रशस्ति में प्रारंभ में लगभग आठ विद्वानों की शुभ कामनाएं हैं।

7.बलिदान 

बलिदान का प्रकाशन क्रम पाचवा है। यह एक ऐतिहासिक खण्ड काव्य जिसका प्रकाशन सरस साहित्य कुटीर, नगर बाजार, बस्ती से हुआ और मुद्रण जीवन शिक्षा मुद्राणालय गोल घर वाराणसी से हुआ। इसका प्रथम संस्करण 1973 में प्रकाशित हुआ। इसमें कुल सात सर्ग हैं तथा 81पृष्ठ में रचना प्रस्तुत की गई है। इस ऐतिहासिक खण्डकाव्य की सराहना माने जाने विद्वानों ने किया है। खड़ी बोली मैं लिखे गये इस खण्ड काव्य में लगभग 400 से ऊपर छन्द हैं।

8.अंतर्ध्वनि 

आठवी पुस्तक अंतर्ध्वनि का प्रकारान 1977 में  सरस साहित्य कुटीर, नगर वाजार बस्ती के माध्यम से हुआ। इसमें कुल 30 विषयों पर क विताएँ लिखी गई है जो 60 पृष्ठ में हैं।

9.संकुल 

यह सरस साहित्य माला का नवम प्रसून है। इसमे कुल 80 पृष्ठ है। इसका प्रकारान 1979 में विजय दशमी के पर्व पर हुआ। इसमें कुश 29 विषयों पर कविताएँ हैं।

10.सौरभ 

यह सरस साहित्य माला का दशम प्रसून है। इसका प्रकाशन 1981 में हुआ। 26 वर्ण्य विषयों पर कुल 60 पृष्ठ में कविताएं लिखी गई हैं।

अप्रकाशित पुस्तक 

। .जय भरत खण्ड काब्य 

यह खण्ड काव्य छः सगाँ में लिखा गया है। इसकी पाण्डुलिपि प्रकाशनाधीन है। उसने कुल लगभग 100 पुष्ठ हैं। है। यह खण्ड काव्य की पृष्ठभूमि में लिखा गया है।

2 .चन्द्रगुप्त 

यह एक प्रबन्ध काव्य है। इस समय यह लिखा जा रहा था जिसे नौ सगों में पूर्ण किया जायेगा। अभी तक चार सगाँ तक लगभग 500 छन्द हो चुके हैं।

कुछ चयनित छन्द 

ये सम्पूर्ण कृतियां  सुधी समीक्षको की समीक्षा के लिए प्रस्तुत है। उदाहरण के लिए  कुछ छन्द प्रस्तुत हैं - 

सृजन  का अनुराग लेकर

कौन मुखरित प्राण करता ।

और किससे गंध लेकर 

चल रहा सुरभित मलय है।

कौन करता वेणु स्वर

है गुंजरित जिसमें दिशाएँ

और किसको तृप्ति देती

चातकी की वीन लय है।

कौन सायं रजत कर से

विश्व को विश्राम देता ।

और किसके स्वर्ण किरणों से

दमक उठता निलय है।

कौन नीले व्योम पट पर 

तारिका दीपक लजाता ।

और किसके एक जितवन से

हुआ करता प्रलय है।।

पुन: एक सवैया छन्द -

रीझ औ खीझ के बीच सदा 

मन का मनुहार छिपा रहता है।

सूझ औ बूझ के बीच सदा 

उर का मृदु प्यार छिपा रहता है। 

दारुण शीत में ज्योति लिये 

सुख का उपहार छिपा रहता है। 

सांझ के गोद में मोट भरा 

जग की भिनुसार छिपा रहता है।

आत्म कथ्य 

"छन्द परंपरा से मुझे प्रगाढ़ स्नेह है। रंगपाल जी के फाग गीत बचपन से ही मुझे अच्छे लगते थे और उसी समय से मुझे रंगपालजी के बारे में जानने की उत्सुकता पैदा हुई। हिन्दी से एम०ए० करने के बाद जनपद के उच्च स्तरीय छन्दकारों का सान्निध्य मिया। उनकी प्रेरणा से मेरी प्रारंभिक कविताएं गूंज के माध्यम से गूंज उठी। बाद में सहृदयी छन्दकारो से मुझे बड़ी प्रेरणा मिली। गूंज के प्रकाशन के यही कारण रहा कि जब मेरे अन्दर शोध उपाधि प्राप्त करने की  उत्सुकता हुई तो मैंने अपने जनपद के छंदकारों के प्रति अपने शोध का भाव सुमन अर्पित करना उचित समझा । पहले तो मुझे छन्दकारों के सम्पर्क के लिए जनपद (वर्तमान बस्ती मण्डल) का कोना- कोना छानना पड़ा। इस साहित्यिक यात्रा ने दर्जनों साहित्यकार ऐसे मिले जिनके वारे में जनपद का इतिहास पुर्णतया मूक है । यह मेरी प्रथम उपलब्धि है कि मुझे अपने पूर्ववर्ती के छंदकारों के सुयश के गुणगान करने का अवसर मिला । काव्य- सृजन एक साधना है जिसके लिए वर्चस्वी विद्वानों का साहचर्य बड़ी शक्ति देता है। मुझे भी छन्दकारों के चरित्र व्यक्तित्व और कृतित्व को उजागर करने के लिए माननीय डॉ०  केशव प्रसाद सिह, प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, काशी विद्यापीठ, वाराणसी, की कृपा मिली। उन्हीं की कृपा से मुझमें जो भी शक्ति आई । उसी के संबल से साहित्य महोदधि में जनपदीय साहित्यकारों के मोतियों को संजो- सँजो करके यह  शोध की साहित्यिक माला तैयार किया। जो  सहृदयों के मनोरम हृदय प्रदेश को प्रसाधित  एवं अलंकृत करेगी, ऐसा विश्वास है।

'बाल त्रिशूल' विधा का प्रवर्तन

' सरस जी ने ' बाल त्रिशूल' नामक एक नई विधा का प्रवर्तन किया है। उन्होंने बाल पत्रिका 'बालसेतु' (मासिक हिंदी बाल पत्र);का संपादन-प्रकाशन किया। वे बाल साहित्यकारों के लिए भी एक सेतु जैसे थे।अपने खर्चे पर बस्ती में बाल साहित्यकार सम्मलेन किया करते थे। वे बहुत मिलनसार और सह्रदय इंसान थे। बालसाहित्य- विवेकानंद, साहित्य परिक्रमा; बाल बताशा,  विवेकानंद बाल खंड काव्य,बस्ती जनपद के साहित्यकार भाग 1 व 2 व 3 उनकी कृतियां हैं। नेहा- स्नेहा, जलेबी, बाल प्रयाण, बाल त्रिशूल भाग 1,2 व 3 , बाल बताशा, पुलुू-लुलू झॅइयक झम,गाबड़गिल, चरणपादुका, बाल कथाएं, साहित्य - परिक्रमा भाग 1 , 2 इत्यादि। उनकी परवर्ती कृतियां थीं। वे आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से भी जुड़े रहकर दर्जनों प्रसारण कार्यक्रम में सम्मिलित होने का अवसर का लाभ उठाए थे। 




Tuesday, April 8, 2025

डा.रामकृष्ण लाल"जगमग" (बस्ती के छंदकार भाग 3 कड़ी 17)

         डा.रामकृष्ण लाल"जगमग"
(बस्ती के छंदकार भाग 3 कड़ी 17)
    डा. मुनि लाल उपाध्याय 'सरस' 
    आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी 
जीवन परिचय :- 
रामकृष्ण लाल "जगमग" की जन्मतिथि 15 अक्टूबर 1953, है । वे बस्ती जिले के बहादुर पुर ब्लाक के ग्राम-कैथवलिया में पैदा हुए थे। जगमग जी बी०ए०,डी०टी० सी० करने के बाद जिला परिषद के प्राथमिक विद्यालय में अध्यापन कार्य में लगे हुए थे । जगमग जी हास्य और व्यंग्य के अनूठे कवि है। जगमग जी ने दोहों को अपना करके हास्य और व्यंग्य का पुट दिया है। मंच की दृष्टि से जगमग जी का जितना समादर हो रहा है,वह गिने-चुने लोगों में है। इस समय वे राष्ट्रीय स्तर के कवि बन गए हैं।
प्रकाशित कृतियाँ :- 
जगमग’ की अभी तक 8 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है।
1.चाशनी' दुमदार दोहे (प्रथम संस्करण- 1978), (तृतीय संस्करण-2006),अब तक 6 संस्करण प्रकाशित हुए हैं।
2.किसी की दिवाली किसी का दिवाला' (1982)
'3.विलाप' खण्ड काव्य,(1990)
4.हम तो केवल आदमी हैं' (काव्य संकलन-1997)
5.'बाल चेतना' (बालोपयोगी रचनाएं- 2000)।
6.सच का दस्तावेज’ 
7.खुशियों की गौरैया, 
8.‘बाल सुमन’ 
.9. 'नन्हें मुन्नों का संसार' , 6 अप्रैल 2025 को लोकार्पण हुआ है ।
10 .'स्वामी विवेकानन्द' - इन दिनों वे स्वामी विवेकानन्द पर केन्द्रित महाकाव्य का सृजन कर रहे हैं। 
      इन कृतियों में वे कभी हास्य तो कभी गंभीर दर्शन के रूप में आम आदमी की पीड़ा व्यक्त करते हुये उनका प्रतिनिधित्व करते हैं।निश्चित रूप से उनका साहित्यिक संसार घोर तमस में समाज का पथ प्रदर्शन करेगा।
प्रथम दो संग्रहों 'चाशनी’ और 'किसी की दिवाली किसी का दिवाला' का विवेचन :- 
इस शोध प्रबंध के। लिखे जाने 1984 तक जगमग जी की यह दोनो कृतियां प्रकाशित हुई हैं जिसमें दोहे और गजलो का प्रयोग अधिक हुआ है। जगमग जी के काव्य में में युगबोध का स्वरअधिक है। यह समाजवादी प्रवृत्तियों के अधिक निकट है। सम्पादन के क्षेत्र में भी इनका स्थान अच्छा है। “मंजरी मौलश्री" नामक पत्रिका इनके सहयोग और सम्पादकत्व में पिछले तीन वर्षों से छप रही है। "मंजरी- मौलश्री” के द्वारा जगमग जी ने नवोदित छन्दकारों को अच्छा प्रश्रय दे रखा है। जगमग़ जी को कवि सम्मेलनों में सदैव आदर मिलता रहा है। वे स्वयं कवि सम्मेलन कराने के शौकीन हैं। पत्रिका के माध्यम से प्रान्तीय और राष्ट्रीय स्तर कवियों की कविताएं छापकर जिले के कवियों का मार्ग दर्शन कर रहे हैं। उनमें व्यवहार कुशलता कूट-कूट कर भरी है। राजनीतिक खेमा के लोगो के साथ-साथ अधिकारियो से भी साहित्यिक योगदान प्राप्त करने में सफल रहते हैं । जगमग जी की भाषा में हिन्दी के साथ उर्दू का सम्मिश्रण पाया जाता है। उनके मुक्तकों में तीखा प्रहार दर्शनीय रहता है। इनका सम्पूर्ण साहित्य मानतीय संवेदनाओं के सन्ननिकट है।
पुरस्कार और सम्मान : - 
अनेकानेक राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा समय समय पर जगमग जी को सम्मानित किया जाता रहा है। उनका दायरा राष्ट्रीय स्तर तक पहुंच गया है। उन्हें भारतीय सेना संस्थान, दिल्ली द्वारा काव्य भूषण सम्मान, विक्रमशिला विद्यापीठ भागलपुर द्वारा विदया वाचस्पति मानद उपाधि से सम्मानित किया गया है। इसके अलावा साहित्य वृहस्पति सम्मान 20 05 2018 को ,भारत गौरव 20 जनवरी 2022 को, अंतरराष्ट्रीय साहित्य गौरव भूटान में 03 मई 2024 को , साहित्य गौरव 20 01 2025 को तथा वैज्ञानिक योगदान के लिए 06 03 2025 को 'साहित्य वाचस्पति' पुरस्कार से अलंकृत किया गया है। सम्भव है इस सूची में कुछ नाम छूट भी गए हो। हम उनके उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घ आयु की मंगल कामना करते हैं। उनका दुमदार दोहे बहुचर्चित रहे हैं- 

           कुछ दुमदार दोहे 

हतनी कुठा बढ़ गई, भूल गये हर फर्ज । कुछ नालायक कर रहे, पूज्य बाप से अर्ज। 
आप अब चले जाइए ।

गांधी बाबा देश का, डूब रहा है नाम । पाँचो चेले आपके निकले नमक हराम ।।
गुरु कुछ करो दवाई ॥

पहले अपने बाप का, नाम करो उजियार । और अंधेरे में करो, जो जी चाहे यार ।।
न कोई कुछ बोलेगा ।।

बिद्यालय को क्या कहूं, लुप्त हुआ हर ज्ञान छात्रों से अब मांगते, शिक्षक जीवन-दान ।।
यही शिक्षा की इति है ।।

कहा उन्होंने चुप रहो, मत लो मेरा टोह । छोड़ नहीं सकता कभी, मैं सत्ता का मोह ॥
लाख तुम करो घिसाई ॥

कहा कृष्ण ने क्या कहूं, मित्र सुदामा आज। फटे हाल हूं आपकी, कैसे रक्खू लाज ।।
जेब देखो है खाली ॥

कुछ लोगों ने प्रेम से, गरमाया जब दूध । इतने में सब लड़ पड़, आपस में दूग मूंदे ।।
मलाई हम खायेंगे ॥

सुनिये मेरी बात को, सेठ जानकी दास । मरते दम कुछ रूपये, लेते जाना पास ।।
वहां भी बिजनेस करना ।।











Friday, April 4, 2025

सप्तश्लोकी दुर्गा स्तोत्रम् हिन्दी भावानुवाद


शिव उवाच–
"देवि त्वं भक्त सुलभे सर्वकार्य विधायिनी
कलौहि कार्यसिद्ध्यर्थम उपायं ब्रूहि यत्नतः"
हिंदी भावानुवाद 
शिव बोले- हो सुलभ भक्त को, 
कार्य नियंता हो देवी! 
एक उपाय प्रयत्न मात्र है, 
कार्य-सिद्धि की कला यही।।

देव्युवाच –
"शृणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्ट साधनम्
मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुतिः प्रकाश्यते"
हिंदी भावानुवाद
देवी बोलीं- सुनें देव हे!, 
कला साधना उत्तम है। 
स्नेह बहुत है मेरा तुम पर, 
स्तुति करूँ प्रकाशित मैं।।

ॐ अस्य श्री दुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ऋषिः अनुष्टुप छन्दः श्री महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वत्यो देवताः श्री दुर्गाप्रीत्यर्थं सप्तश्लोकी दुर्गापाठे विनियोगः
हिंदी भावानुवाद
ॐ मंत्र सत् श्लोकी दुर्गा, 
ऋषि ‌नारायण छंद अनुष्टुप। 
देव कालिका रमा शारदा, 
दुर्गा हित हो पाठ नियोजित।। 

ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हिसा
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति।
हिंदी भावानुवाद
ॐ चेतना ज्ञानी जन में, 
मात्र भगवती माँ ही हैं। 
मोहित-आकर्षित करती हैं,
 मातु महामाया खुद ही।१। 

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि
दारिद्र्यदुःखभयहारिणी का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता।2।
हिंदी भावानुवाद
भीति शेष जो है जीवों में, 
दुर्गा-स्मृति हर लेती, 
स्मृति-मति हो स्वस्थ्य अगर तो, 
शुभ फल हरदम है देती। 
कौन भीति दारिद्रय दुख हरे, 
अन्य न कोई है देवी। 
कारण सबके उपकारों का, 
सदा आर्द्र चितवाली वे।२।

सर्व मङ्गल माङ्गल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके
शरण्ये त्रयंबके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते।3।
हिंदी भावानुवाद
मंगलकारी मंगल करतीं, 
शिवा साधतीं हित सबका। 
त्र्यंबका गौरी, शरणागत, 
नारायणी नमन तुमको।३। 

शरणागतदीनार्त परित्राण पराणये
सर्वस्यार्ति हरे देवि नारायणि नमोऽस्तुते।4।
हिंदी भावानुवाद
दीन-आर्त जन जो शरणागत, 
परित्राण करतीं उनका। 
सबकी पीड़ा हर लेती हो, 
नारायणी नमन तुमको।४। 

सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तुते।5।
हिंदी भावानुवाद
सब रूपों में, ईश सभी की, 
करें समन्वित शक्ति सभी। 
देवी भय न अस्त्र का किंचित्, 
दुर्गा देवि नमन तुमको।५। 

रोगानशेषानपहंसि तुष्टा
रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति।6।
हिंदी भावानुवाद
रोग न शेष, तुष्ट हों तब ही, 
रुष्ट काम से, अभीष्ट सबका। 
जो आश्रित वह दीन न होता, 
आश्रित पाता प्रेय अंत में।६। 

सर्वबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि
एवमेव त्वया कार्यम स्मद्वैरिविनाशनम्।7।
हिंदी भावानुवाद
सब बाधाओं को विनाशतीं, 
हैं अखिलेश्वरी तीन लोक में। 
इसी तरह सब कार्य साधतीं, 
करें शत्रुओं का विनाश भी।७। 

इति श्रीसप्तश्लोकी दुर्गास्त्रोतं संपूर्णं।
इति सातश्लोकों वाली दुर्गा स्त्रोत सम्पूर्ण हुआ।