श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, ( पंचदशोsध्याय)(प्रसंग 46)
डा. राधे श्याम द्विवेदी
🌷जय श्री कृष्ण जय श्री राधे। 🌷
मेरे प्रिय सौभाग्य शाली मित्रों जय श्री कृष्ण,जय श्री राधे। जय श्री परम वन्दनीय अकारण करूणा वरूनालय भक्तवान्छा कल्पतरू श्री कृष्ण चन्द्र जी के चरणों में बरम्बार प्रणाम है। आप सभी सौभाग्य शाली मित्रों को भी मेरा सादर प्रणाम है । आप सभी पर परमात्मा की अत्यन्त कृपा है कि आप परमात्मा की रसोमय लीला का रसास्वादन कर पा रहे हैं I पिछले अध्याय में अर्जुन का विलंब से द्वारका से वापसी होने पर युधिष्ठिर द्वारा प्रश्नो के बौछार से अर्जुन बड़ी मुश्किल से द्वारका की घटना का उल्लेख कर पा रहे हैं। इस अध्याय में अर्जुन का द्वारका से लौटने के बाद यदुवंश विनाश और पांडवों का स्वर्गारोहण का प्रसंग है।
धर्मराज युधिष्ठिर के प्रश्नों की बौछार से अर्जुन और भी व्याकुल एवं शोकाकुल हो गये। उनका रंग फीका पड़ गया।नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी। हिचकियाँ बँध गईं, रुँधे कण्ठ से उन्होंने कहा- "हे भ्राता! हमारे प्रियतम भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने हमें ठग लिया। वे हमें त्याग कर इस लोक से चले गये। जिनकी कृपा से मेरे परम पराक्रम के सामने देवता भी सिर नहीं उठाते थे। मेरे उस परम पराक्रम को भी वे अपने साथ ले गये। प्राणहीन मुर्दे जैसी गति हो गई मेरी। मैं द्वारका से भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की पत्नियों को हस्तिनापुर ला रहा था, किन्तु मार्ग में थोड़े से भीलों ने मुझे एक निर्बल की भाँति परास्त कर दिया। मैं उन अबलाओं की रक्षा नहीं कर सका। मेरी वे ही भुजाएँ हैं, वही रथ है, वही घोड़े हैं, वही गाण्डीव धनुष है और वही बाण हैं, जिनसे मैंने बड़े-बड़े महारथियों के सिर बात की बात में उड़ा दिये थे। जिस अर्जुन ने कभी अपने जीवन में शत्रुओं से मुँहकी नहीं खाई थी।वही अर्जुन आज कायरों की भाँति भीलों से पराजित हो गया। उनकी सम्पूर्ण पत्नियों तथा धन आदि को भील लोग लूट ले गये और मैं निहत्थे की भाँति खड़ा देखता रह गया। उन भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के बिना मेरी सम्पूर्ण शक्ति क्षीण हो गई है।
हे भाई भगवान श्री कृष्ण हमें छोड़ कर चले गए इसलिए मैं तेज हीन हो गया, अब हमारा कोई नहीं रहा |
अर्जुन के मुख से श्रीकृष्ण के स्वधाम गमन:-
हे भाई आपने द्वारका में जिन यादवों की कुशल पूछी है, वे समस्त यादव ब्राह्मणों के शाप से दुर्बुद्धि अवस्था को प्राप्त हो गये थे और वे अति मदिरा पान करके परस्पर एक-दूसरे को मारते- मारते मृत्यु को प्राप्त हो गये। यह सब उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र की लीला है।" यदुवंशियों के नाश का समाचार सुनकर युधिष्ठिर ने तुरन्त अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया और अर्जुन से बोले- "हे अर्जुन! भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने इस लौकिक शरीर से इस पृथ्वी का भार उतार कर उसे इस प्रकार त्याग दिया, जिस प्रकार कोई काँटे से काँटा निकालने के पश्चात् उन दोनों काँटों को त्याग देता है। अब घोर कलियुग भी आने वाला है। अतः अब शीघ्र ही हम लोगों को स्वर्गारोहण करना चाहिये।”
जब माता कुन्ती ने भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के स्वधाम गमन का समाचार सुना तो उन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र में अपना ध्यान लगाकर शरीर त्याग दिया। धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने महापराक्रमी पौत्र परीक्षित को सम्पूर्ण जम्बूद्वीप का राज्य देकर हस्तिनापुर में उसका राज्याभिषेक किया और शूरसेन देश का राजा बनाकर मथुरापुरी में अनिरुद्ध के पुत्र बज्रनाभ का राजतिलक किया। तत्पश्चात् परमज्ञानी युधिष्ठिर ने प्रजापति यज्ञ किया और श्रीकृष्ण में लीन होकर सन्यास ले लिया। उन्होंने मान, अपमान, अहंकार तथा मोह को त्याग दिया और मन तथा वाणी को वश में कर लिया। सम्पूर्ण विश्व उन्हें ब्रह्म रूप दृष्टिगोचर होने लगा। उन्होंने अपने केश खोल दिये, राजसी वस्त्राभूषण त्याग कर चीर वस्त्र धारण करके और अन्न-जल का परित्याग करके मौनव्रत धारण कर लिया। इतना करने के बाद बिना किसी की ओर दृष्टि किये । भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के प्रेम में मग्न होकर वे सब उत्तराखंड की ओर चल पड़े। सभी पाण्डव मार्ग में श्री हरि के अष्टोत्तरशत नामों का जप करते हुए यात्रा कर रहे थे। वे चमोली जिले उत्तराखंड के केदारनाथ, बद्रीनाथ होते हुए सतो पंथ और स्वर्गारोहण पर्वत पर पहुंचे वहीं से क्रमशः द्रौपदी, सहदेव, नकुल ,अर्जुन, भीम गिरते गए पर किसी ने भी मुडकर नहीं देखा।
उत्तराखण्ड में हिमालय पर्वत के चौखंबा शिखर की तलहटी पर बसा सतोपंथ झील एक हिमरूप झील है, जिसे उत्तराखंड के सुरम्य झीलों में से एक माना जाता है। बदरीनाथ धाम से 10 किमी की दूरी पर लक्ष्मी वन, फिर 10 किमी आगे चक्रतीर्थ और उसके बाद छह किमी आगे सतोपंथ पड़ता है। यहां से चार किमी खड़ी चढ़ाई चढ़कर होते हैं स्वर्गारोहिणी के दर्शन। प्राचीन काल में यात्री इन्हीं पड़ावों पर स्थित गुफाओं में रात्रि विश्राम करते थे।
पांडव भाई इसी मार्ग से होते हुए 'स्वर्ग के रास्ते' की ओर गए थे। जिस कारण इस झील को सतोपंथ झील नाम दिया गया। कुछ मान्यताओं के अनुसार इसे धरती पर स्वर्ग जाने का रास्ता भी कहा जाता है। पांडवों ने स्वर्गारोहिणी (स्वर्ग की सीढ़ियां) से स्वर्ग जाने से पहले इसी स्थान पर स्नान ध्यान किया था। यही कारण है कि स्थान हिंदू धर्म के लोगों के बीच विशेष महत्व रखता है। इसके अलावा कहा ये भी जाता है कि युधिष्ठिर को इसी झील के समीप स्वर्ग तक जाने के लिए 'आकाशीय वाहन' की प्राप्ति भी हुई थी।
इस झील के त्रिभुजाकार होने के पीछे भी एक कथा जुड़ी हुई है कि जो इस प्रकार है कि एकादशी के दिन यहां त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु महेश इस झील में पधारे थे और तीनों देवताओं ने झील के अलग-अलग कोनों पर खड़े होकर पवित्र डुबकी लगाई। इसलिए कहा जाता है कि यह झील त्रिभुज के आकार में है। स्वर्गारोहिणी बदरीनाथ धाम से नारायण पर्वत पर 30 किमी दूर पर स्थित है। मान्यता है कि ज्येष्ठ पांडव धर्मराज युधिष्ठिर ने स्वान के साथ स्वर्गारोहिणी से ही सशरीर वैकुंठ के लिए प्रस्थान किया था। स्वर्गारोहिणी पहुँचने के लिए भक्तो को बदरीनाथ धाम से नारायण पर्वत पर 30 किमी का पैदल रास्ता तय करना होता है। चारों ओर बर्फ से ढकी पहाड़ियां मन को असीम शांति प्रदान करती हैं तो वहीं दूर दूर तक फैले हुए रंग-बिरंगे फूल यात्रियों का स्वागत करते हुए नजर आते हैं।पहाड़िया असीम शांति का अहसास कराती हैं। जिधर नजर दौड़ाओ सैकड़ों प्रजाति के रंग-बिरंगे फूल यात्रियों की आगवानी करते नजर आते हैं।
पौराणिक कथा के मुताबिक, राजपाट छोड़ने के बाद पांचों भाई पांडव द्रोपदी सहित इसी रास्ते से स्वर्ग गए थे। भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव व द्रोपदी तो स्वर्गारोहिणी पहुंचने से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो गए। अब मात्र युधिष्ठिर ही जीवित बचे थे। युधिष्ठिर देवराज इन्द्र के द्वारा लाये हुए रथ पर आरूढ़ होकर एक स्वान के साथ सदेह स्वर्ग को चले गये। इस मान्यता ने स्वर्गारोहिणी का महत्व और बढ़ा दिया। विदुर ने भी गुजरात के प्रभास क्षेत्र में अपना शरीर पहले ही छोड़ दिया था । पांडवों की यह महाप्रयाण कथा बडी पुण्य दायी है ।
।। इति पंचदशोअध्यायः। ।
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