श्रीमदभागवतपुराण माहात्म्य तृतीयोsध्यायः( प्रसंग 25)
डा. राधे श्याम द्विवेदी
वेदोपनिषदां साराज्जाता भागवती कथा ||
यह जो श्रीमद् भागवत की कथा है यह वेदों का सार सर्वस्व है।देवर्षि नारद ने कहा, मैं ज्ञान बैराग और भक्ति के कष्ट निवारण हेतु ज्ञान यज्ञ करूंगा । हे सनकादि मुनि ! आप उसके लिए स्थान बताएं । मुनिस्वरों ! मुझे भागवत की कथा कहां करनी चाहिए उसके लिए उपयुक्त स्थान बताइए ।
सनकादि मुनिस्वरों ने कहा-
गंगाद्वार समीपे तू तटमानंद नामकम।
गंगा द्वार हरिद्वार के समीप में आनंद नामक तट है । वहां नवीन और कोमल बालुका के ऊपर मंच बनाओ और भागवत की कथा प्रारंभ करो । देवर्षि नारद ने सनकादि मुनिस्वरों को वक्ता के रूप में वरण किया और उन्हें अपने साथ गंगा तट पर हरिद्वार ले आए। वह बड़ा सुंदर मंच बनाया व्यास गद्दी बनाई । उसमें सनकादि मुनिस्वरों को बिठाया। इस कथा का भूलोक में ही नहीं बल्कि स्वर्ग तथा ब्रह्म लोक तक हल्ला हो गया। बड़े-बड़े संत भृगु वशिष्ठ च्यवन गौतम मेधातिथि देवल देवराज परशुराम विश्वामित्र साकल मार्कंडेय पिप्पलाद योगेश्वर व्यास पाराशर छायाशुक आदि उपस्थित हो गए |
व्यास आसन पर श्री सनकादिक ऋषि विराजमान हुए तथा मुख्य श्रोता के आसन पर नारद जी विराजमान हुए, आगे महात्मा लोग ,एक ओर देवता बैठे पूजा के बाद श्रीमद्भागवत का महात्म्य सुनाने लगे |
सनकादि मुनीश्वरों ने जैसे ही भगवान की भागवत कथा प्रारंभ की त्रिलोकी में हल्ला मच गया। ब्रह्मा आदि सभी देवता भृगु वशिष्ठ च्यवन आदि ऋषि वेद वेदांत मंत्र यंत्र तंत्र 17 पुराण गंगा आदि नदियां और समस्त तीर्थ मूर्तिमान होकर कथा सुनने के लिए प्रकट हो गए। क्योंकि-
तत्रैव गगां यमुना त्रिवेणी गोदावरी सिन्धु सरस्वती च |
वसन्ति सर्वाणि तीर्थानि तत्र यत्राच्युतो दार कथा प्रसंगः ||
जहां भगवान श्री हरि की कथा होती है । वहां गंगा आदि नदियां समस्त तीर्थ है मूर्तिमान होकर प्रकट हो जाते हैं। देवर्षि नारद ने सभी को आसन दिया तथा सभी जय जयकार करने लगे। सनकादि मुनीश्वरों ने भागवत की महिमा का वर्णन प्रारंभ किया-
सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा |
यस्याः श्रवण मात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत ||
भागवत की कथा का सदा सर्वदा सेवन करना चाहिए श्रवण करना चाहिए इसके श्रवण मात्र से भगवान श्रीहरि हृदय में आकर विराजमान हो जाते हैं।
किं श्रुतैर्बहुभिः शास्त्रैः पुराणैश्च भ्रमावहैः |
एकं भागवतं शास्त्रं मुक्तिदानेन गर्जति ||
बहुत से पुराण और शास्त्रों को सुनने से क्या प्रयोजन यह तो भ्रम उत्पन करने वाले हैं । मुक्ति प्रदान करने के लिए एकमात्र भागवत शास्त्र ही गर्जना कर रहा है । मृत्यु का समय निकट आने पर जो भागवत कथा को श्रवण करता है भगवान श्रीहरि उस पर प्रसन्न होकर उसे अपना बैकुंठ धाम दे देते हैं जो पुरुष स्वर्ण के सिंहासन पर श्रीमद् भागवत की पोथी को रख कर दान करता है। उसे गोलोक धाम की प्राप्ति होती है |
आजन्ममात्रमपि येन शठेन किचिं
च्चित्तं विधाय शुकशास्त्र कथा न पीता |
चाण्डालवच्च खरवदवत् तेन नीतं.
मिथ्या स्वजन्म जननी जनिदुख भाजा ||
श्लोक- मा• 3.42
जिसने श्रीमद् भागवत कथा को थोड़ा भी नहीं सुना उसने अपना सारा जीवन चांडाल और गधे के समान खो दिया तथा जन्म लेकर अपनी मां को व्यर्थ मे कष्ट दिया , वह पृथ्वी पर भार स्वरूप है | उसने व्यर्थ में ही अपनी मां को प्रसव पीड़ा प्रदान की। वह जीते जी मुर्दे के समान है मनुष्य रूप में भार रूप पशु के समान है । ऐसे मनुष्य को धिक्कार है । ऐसे स्वर्ग लोक में इंद्रादि देवता कहा करते हैं ।
सनकादि मुनीश्वर इस प्रकार भागवत की महिमा का वर्णन कर ही रहे थे कि उसी समय एक आश्चर्य हुआ |
भक्तिः सुतौ तौ तरूणौ गृहीत्वा प्रेमैकरूपा सहसाविरासीत |
श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे नाथेति नामानि मुहुर्वदन्ति ||
भक्ति महारानी तरुण अवस्था को प्राप्त हुई अपने दोनों पुत्रों को लेकर वहां प्रकट हो गई और श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवा इसका कीर्तन करते हुए नृत्य करने लगी। रिसियों ने सब उन्हें नृत्य करते हुए देखा तो कहने लगे, यह कौन है और यह कैसे प्रकट हो गई?
सनकादि मुनिश्वर ने कहा, रिसियों ! यह अभी-अभी कथा के अर्थ से ये देवी प्रगट हुई है ।
भक्ति महारानी ने कहा , मुनिश्वर कलिकाल के प्रभाव से में जीर्ण नष्ट हो गई थी । आपने कथा के रस से मुझे पुनः पुष्ट कर दिया।
क्वाहं तु तिष्ठाम्य धुना ब्रुवन्तु |
अब मुझे आप रहने का स्थान बताइए सनकादि मुनियों ने कहा
भक्तेषु गोविन्द सरुप कर्त्री
आप सदा सर्वदा भक्तों के हृदय में निवास करो
सकलभुवनमध्ये निर्धनास्तेपि धन्या
निवसति ह्रदि येषां श्रीहरेर्भक्ति रेका |
हरिरपि निजलोकं सर्वथातो विहाय
प्रविशति ह्रदि तेषां भक्तिसूत्रो पनद्धः ||
संपूर्ण त्रिभुवन में वे लोग निर्धन होकर भी धनवान है जिनके हृदय में भगवान श्री हरि की एकमात्र भक्ति निवास करती है। इस भक्ति के सूत्र में बंध कर भगवान श्री हरि अपना लोक छोड़कर उन भक्तों के हृदय में आकर विराजमान हो जाते हैं । देवर्षि नारद ने भक्ति ज्ञान वैराग्य की तरुणावस्था को देखा तो कहने लगे, मुनिस्वरों ! मैंने भगवान की अलौकिक महिमा को देख लिया |
के के विशुध्दयन्ति वदन्तु मह्यं |
नारद जी ने कहा, अब यह बताएं इस भागवत को सुनने से कौन-कौन से लोग पवित्र हो जाते हैं ?
सनकादि मुनीश्वरों ने कहा--
ये मानवाः पाप कृतस्तु सर्वदा
सदा दुराचाररता विमार्गगाः |
क्रोधाग्निदग्धाः कुटिलाश्च कामिनः
सप्ताह यज्ञेन कलौ पुनन्ति ते ||
जो मनुष्य सदा सर्वदा पाप करते रहते हैं दुराचारी हैं कुमार्गगामी है क्रोध की अग्नि में सदा जलते रहते हैं कुटिल है कामी है ऐसे लोग भी कलयुग में भागवत के सुनने से पवित्र हो जाते हैं ।
सनत्कुमार बोले! भक्ति देवी आप आ गयी, तुम भक्तों के ह्रदय में वास करो, भक्ति प्रकट हो गयी भक्तों के ह्रदय में और जब कीर्तन होने लगा!
इति तृतीय अध्याय।
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