बड़ी बीबी, बड़ी बुआ, बड़ी किताब
अयोध्या में महिला सूफी संतों के कुछ लोकप्रिय दरगाहों में से एक बड़ी बुआ की दरगाह है, इन्हें बड़ी बीबी, बड़ी बुआ और बड़ी किताब भी कहा जाता है जो शेख नसीरुद्दीन चिराग-ए दिल्ली की बहन है। बड़ी बुआ के नाम से मशहूर अलैहा बीबी आला रूहानी हैसियत वाली थीं। उनकी दरगाह बेनीगंज स्थित आईटीआई के सामने स्थित है ।
दरगाह बड़ी बीबी साहिबा
अयोध्या की रौशन तारीख़ का जीता जागता सुबूत और अयोध्या के सर्व-धर्म सद्भाव का शानदार नमूना है।आपके दर पर हर धर्म, वर्ग, पंथ के लोग आते हैं और फ़ुयूज़-ओ-बरकात से नवाज़े जाते हैं।
डॉ. दबीर अहमद की कृति शहर के औलिया के अनुसार बड़ी बुआ अत्यंत नियम संयम से रहने वाली स्त्री फकीर थीं। इनका समय 17वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से 18वीं शताब्दी के बीच का माना जाता है। उनकी रूहानियत और संदेश किस कदर मानवीय थी, इसका परिचय राममंगलदास से मिलता है।
संत राममंगलदास की निष्ठा
दिग्गज संत राममंगलदास का बड़ी बुआ के वजूद से गहन आध्यात्मिक सरोकार था, वे उनकी मजार पर प्राय: जाया करते थे। 1977 में उन्होंने बड़ी बुआ की कब्र का जीर्णोद्धार भी कराया। आध्यात्मिक गुरु जय सिंह चौहान कहते हैं, सूफी संतों का इस्लाम की प्रमुख शाखा के रूप में अपने उद्गमस्थल से लंबा सफर तय कर अयोध्या आना महज संयोग नहीं था अपितु वे अयोध्या की दिव्यता से वाकिफ थे। बड़ी किताब को प्रसिद्ध सूफी संत खातून की कब्र कहा जाता है। बड़ी किताब बहुत अल्लाह वाली थी। हर तरह की इबादत करती थी । बादमें उसका नाम बहुत धूमिल हो गया और हिंदू-मुस्लिम सब उनके दर पर ज्ञान मन यादगार बने रहे।
ना कोई आलिम रहेगा ना जालिम:-
ये महिला संत देखने में भी खूबसूरत थीं।सुंदरता के कारण निकाह के कई प्रस्ताव मिलने के बावजूद, उन्होंने खुद को गरीबों की सेवा के लिए समर्पित कर दिया था। लोगों के मुताबिक, स्थानीय मौलवियों ने बीबी के निकाह से इंकार करने के कारण उन्हे बहुत परेशान किया था। कहते हैं पुरानी खूबसूरती पर फैजाबाद के शहर कोतवाल फिदा हो गए थे। कोतवाल, जो बीबी की ओर आकर्षित हुआ था, ने उन्हें एक दूत के माध्यम से निकाह का प्रस्ताव भेजा। जब उसने दूत से बात करने से मना कर दिया और सीधे कोतवाल से मिलने की जिद की तो वह उसके घर पहुंच गया। जब कोतवाल से पूछा कि वे उनसे शादी क्यों करना चाहते हैं, तो कोतवाल ने कहा कि उसे उसकी आँखों से प्यार है। किंवदंती है कि उसने अपनी आँखें बाहर निकालकर कोतवाल को सौंप दिया। इससे कोतवाल हैरान रह गया। बड़ी बुआ ने सावधान करते हुए कहा, “याद रखो कि फैज़ाबाद में अब ना कोई आलिम रहेगा ना जालिम।” कहते उसी के बाद फैजाबाद से उजड़ाना शुरू हुआ और नवाब आसफुद्दौला फैजाबाद की जगह नोएडा को अपनी राजधानी बना लिया गया। यह महसूस करते हुए कि बीबी कोई साधारण महिला नहीं हैं, बल्कि खुदा की सच्ची भक्त हैं, कोतवाल साहब ने बड़ी बीबी के चरणों में गिर गए और दया की भीख माँगी।अजीबो-गरीब सी खामोशी पसरी नजर आई। फैजाबाद के चौक से खरीदकर किसी को फूल चढ़ाने के लिए लाया गया। फूल लेकर चले तो फूल प्रतिष्ठित होने से पहले ही मुरझा गए।
यतीम-ख़ाना ,मस्जिद और मदरसा :-
उनकी याद में बीबी की कब्र के पास बना एक अनाथालय अनाथों को शरण देता है और उन्हें मुफ्त शिक्षा प्रदान करता है। इसके साथ ही साथ यहां मस्जिद और मदरसा भी बना हुआ है जिसमें गरीब यतीम को निःशुल्क शिक्षा दी जाती है।
चाह-ए-सेहतः–
चाह-ए-सेहत" का कुआँ हज़रत चिराग़ देहलवी द्वारा बनवाया गया था, जिसे अयोध्या में लोग स्वास्थ्य लाभ के लिए इस्तेमाल करते थे। यह कुआँ उस समय काफी प्रसिद्ध था और आज भी मौजूद है।
इतिहास: यह कुआँ हज़रत चिराग़ देहलवी ने अपनी हवेली में खुदवाया था, जो एक सूफी संत थे।"चाह-ए-सेहत" का अर्थ है "स्वास्थ्य का कुआँ"।अयोध्या के लोग इस कुएँ के पानी को चमत्कारी और स्वास्थ्य वर्धक मानते थे और इसका खूब इस्तेमाल करते थे।
1940 तक एक कुआँ मुस्लिम यतीम-ख़ाना की इमारत के शिमाली जानिब कोने पर मौजूद था जो अ’वाम-ओ- ख़्वास में चाह-ए-सेहत के नाम से मशहूर था।लोगों का अ’क़ीदा था कि हज़रत बड़ी बुआ रहमतुल्लाहि अ’लैहा की बरकत से इस कुएँ के पानी में शिफ़ाई’ तासीर है।लोग अक्सर ला-इ’लाज अमराज़ के मरीज़ों और आसेब-ज़दा लोगों को इस कुँए का पानी पिलाने के लिए ले जाते थे और उनको शिफ़ा हासिल होती थी।बा’द ज़माने में न जाने किन लोगों के मशवरे पर इस कुँए को पटवा दिया गया और इसके फ़ुयूज़-ओ-बरकात से लोगों के महरूम कर दिया गया।इस कुँए की पुख़्ता ईंटों की गोलाई का निशान चंद सालों तक मौजूद था जो अपनी अ’ज़्मत-ए-रफ़्ता का इज़्हार कर रहा था।
हज़रत बड़ी बुआ का सालाना उ’र्सः-
यहाँ साल में 2 बार उ’र्स लगता है। दरगाह-ए-बड़ी बुआ समाजिक एकता,सद्भावना-ओ-तहज़ीब का अ’ज़ीम मरकज़ है।
15 सफ़र को दरगाह शरीफ़ के ख़ादिमान और इ’लाक़े के लोगों की तरफ़ से उ’र्स का इं’इक़ाद होता है।
16 सफ़र को हर साल दरगाह हज़रत अ’ब्दुर्रहमान शहीद फ़तह गंज की जानिब से बड़ी शान-ओ-शोक़त से सालाना नज़्र-ओ-नियाज़ का एहतिमाम किया जाता है।
मौलाना अनवार नई’मी जलालपुरी (प्रिंसपल दारुल उ’लूम बहार शाह, फ़ैज़ाबाद) और उनके अहबाब हर साल ई’दुल-अज़हा के बा’द आने वाली जुमे’रात को ह़ज़रत बड़ी बुआ का सालाना उ’र्स करते हैं।
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