भारत की मिट्टी उर्बरा से भरपूर है, जहां अनेक वीरांगनाओं ने जन्म लिया है , जिन्होंने मुगल शासकों से लेकर ब्रिटिश हुकुमत तक की नींद हराम कर दी थी। उन्हें गुलामी में जीने के बजाय मौत मंजूर थी। वीरता,त्याग और स्वतंत्रता की भावना के ओतप्रोत उनका नाम इतिहास में दर्ज हो गया है। इन वीरांगनाओं ने पुर्तगालियों, मुगलों, ब्रिटिश शासन और सामाजिक कुरीतियों का न सिर्फ डटकर सामना किया, बल्कि समय आने पर उन्हें समूल खत्म करने का काम भी किया है।
इन विशिष्ट वीरांगनाओं में रानी अब्बक्का चौटा,रानी ताराबाई भोंसले, रानी अहिल्याबाई होल्कर, रानी चेन्नम्मा, सेतु लक्ष्मीबाई, रानी लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती, ताराबाई, बेगम हजरत महल, पन्ना धाय, मातंगिनी हाजरा, कनक लता बरुआ, भीकाजी कामा, सरोजिनी नायडू, और वेलु नाचियार जैसी वीरांगनाएँ प्रमुख हैं। ये महिलाएँ न केवल युद्धभूमि में लड़ीं, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम और समाज सुधार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है ।
1.रानी अब्बक्का चौटा :-
16वीं शताब्दी में रानी अब्बक्का चौटा उल्लाल (वर्तमान में कर्नाटक) की वह वीरांगना थीं, जिन्होंने पुर्तगालियों का काल कहा जाता था। तुलु नाडु की चौटा वंश की रानी अब्बक्का ने अपने छोटे से राज्य को एकजुट कर गुरिल्ला युद्ध की रणनीति बनाई थी। उस वक्त व्यापार पर पुर्तगालियों का कंट्रोल था। मनमाना कर वसूला जाता था जिसका रानीअब्बक्काटा चौटा ने जमकर विरोध किया था।उन्होंने कई बार पुर्तगालियों के खिलाफ अपनी बहादुरी दिखाई। वीरता और स्वतंत्रता की भावना की वजह से उनका नाम भारत के पहले स्वतंत्रता सेनानियों में गिना जाता है।
2. रानी ताराबाई भोंसले :-
रानी ताराबाई भोंसले मराठा साम्राज्य की एक साहसी और रणनीतिक शासिका थीं। छत्रपति शिवाजी की पुत्रवधू रानी ताराबाई भोंसले को अक्सर 'रैन्हा दोस मराठा' या 'मराठों की रानी' के नाम से भी जानाजाता था। अपने पति राजाराम भोंसले की मृत्यु के बाद, उन्होंने अपने नाबालिग बेटे शिवाजी द्वितीय के नाम पर मराठा साम्राज्य का नेतृत्व किया। अपनी बुद्धिमानी और साहस से उन्होंने औरंगजेब जैसे शक्तिशाली शासक को भी परेशान कर दिया था। ताराबाई को मराठा इतिहास में एक नायिका के रूप में सम्मान दिया जाता है। उन्होंने 1700 में परिस्थितियों के कारण मराठा साम्राज्य की बागडोर संभाली थी, फिर भी अपने लोगों के लिए लड़ने में उन्होंने कभी ढिलाई नहीं बरती। अपने शासनकाल के दौरान, उन्होंने मुगलों की मानसिकता को गलत साबित कर दिया। एक महिला कुछ भी कर सकती थी। वह अपने दुश्मनों से लगातार सीखती रहती थी और उसकी चतुर रणनीतियों ने मराठा सेना को दक्षिणी कर्नाटक पर अपना शासन स्थापित करने में मदद की ।
3. रानी अहिल्याबाई होल्कर :-
अहिल्याबाई होल्कर का जन्म अहमदनगर के जामखेड के चोंडी गांव में हुआ था। उनके पिता ने उन्हें घर पर ही पढ़ाया था, फिर भी वह हमेशा दूसरों के कल्याण की कामना करती थीं। एक राजघराने में विवाह और एक राजकुमार को जन्म देने के बावजूद, उन्होंने कुछ ही दशकों में अपने पति, ससुर और पुत्र को खो दिया था। इसलिए वे 11 दिसंबर 1767 को मराठा साम्राज्य की मालवा रियासत की रानी बनीं। अपने शासनकाल के दौरान, उन्होंने राजवंश की जमकर रक्षा की, आक्रमणों का खंडन किया और अपनी सैन्य शक्ति का विस्तार किया।अहिल्याबाई ने मंदिरों, धर्मशालाओं, कुओं और सड़कों का निर्माण करवाया, विशेष रूप से काशी विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार। इसलिए उन्हें 'देवी अहिल्या' भी कहा गया।
4. रानी चेन्नम्मा :-
कित्तूर (वर्तमान कर्नाटक) की वह वीर रानी थीं, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ था। उन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का नेतृत्व किया। अपने पति और पुत्र के निधन के बाद, चेन्नम्मा ने वंश को आगे बढ़ाने के लिए एक उत्तराधिकारी गोद लेना था, या फिर उसे अंग्रेजों के हाथों खो देना था। उन्होंने पहला विकल्प चुना। 1824 में, उन्होंने शिवलिंगप्पा नाम के एक लड़के को गोद लिया, लेकिन इससे ईस्ट इंडिया कंपनी नाराज हो गई। ब्रिटिश हुकुमत को अस्वीकार करने पर रानी चेन्नम्मा और अंग्रेजों के बीच 1824 में युद्ध छिड़ गया।रानी चेन्नम्मा ने अपने राज्य कित्तूर का रियासत का दर्जा खोना नहीं चाहती थीं, इसलिए उन्होंने 1824 में अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठा लिए। अंग्रेजों ने 21 अक्टूबर 1824 को 20,000 सैनिकों और 400 तोपों से लैस होकर हमला कर दिया। हालांकि वह एक बार तो उनसे निपटने में कामयाब रहीं, लेकिन दूसरे प्रयास में असफल रहीं। अंग्रेजों ने उन्हें पकड़कर बैलहोंगल किले में आजीवन कारावास की सजा दी।
5. सेतु लक्ष्मी बाई :-
सेतु लक्ष्मी बाई त्रावणकोर रियासत (वर्तमान केरल) की रानी थीं, जिन्होंने 1924 से 1931 तक नाबालिग महाराजा चिथिरा थिरुनाल के लिए रीजेंट के रूप में शासन किया। लोग उन्हें महिला अधिकारों की पैरवी करने वाली रानी मानते थे। वह महिलाओं के काम करने और आगे पढ़ाई करने को लेकर इतनी उत्साहित थीं कि उन्होंने एक प्रोत्साहन योजना बनाई थी। कॉलेज जाने वाली लड़कियां उनके महल में चाय के लिए उनके साथ शामिल हो सकती थीं। उनके शासन में खासतौर पर शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुधार हुए। उन्होंने दलितों को मंदिरों में प्रवेश का समर्थन किया, जो उस समय एक क्रांतिकारी कदम था। उन्होंने महिलाओं को आगे की शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया, उन्हें स्थानीय पदों से सरकारी पदों पर पदोन्नत किया, इस प्रकार यह सुनिश्चित किया कि सरकारी निर्णयों में उनकी समान भागीदारी हो। 1927 में, उन्होंने छात्राओं के लिए कानून की पढ़ाई खोल दी और त्रिवेंद्रम के महिला महाविद्यालय को इतिहास, प्राकृतिक विज्ञान, भाषा और गणित की कक्षाएं शुरू करने का आदेश भी दिया।
6. रानी लक्ष्मीबाई :-
रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और 1857 की राज्यक्रान्ति की द्वितीय शहीद वीरांगना थीं। उन्होंने 29 वर्ष की उम्र में अंग्रेज साम्राज्य की सेना से युद्ध किया और रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुईं। उनका जन्म वाराणसी में 19 नवम्बर 1828 को हुआ था। उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था लेकिन प्यार से उन्हें मनु कहा जाता था। उनकी माँ का नाम भागीरथी बाई और पिता का नाम मोरोपंत तांबे था जो मराठा बाजीराव की सेवा में थे। माता भागीरथी बाई एक सुसंस्कृत, बुद्धिमान और धर्मनिष्ठ स्वभाव की थी तब उनकी माँ की मृत्यु हो गयी। क्योंकि घर में मनु की देखभाल के लिये कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार में ले जाने लगे। जहाँ चंचल और सुन्दर मनु को सब लोग उसे प्यार से "छबीली" कहकर बुलाने लगे।
सन् 1842 में उनका विवाह झाँसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ और वे झाँसी की रानी बनीं। विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। सितंबर 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। परन्तु चार महीने की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी। दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया। ब्रितानी अधिकारियों ने उनके राज्य का ख़ज़ाना ज़ब्त कर लिया और उनके पति के कर्ज़ को रानी के सालाना ख़र्च में से काटने का फ़रमान जारी कर दिया। इसके परिणाम स्वरूप रानी को झाँसी का क़िला छोड़कर झाँसी के रानीमहल में जाना पड़ा। उन्होनें हर हाल में झाँसी राज्य की रक्षा करने का निश्चय किया था ।झाँसी 1857 के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया था।झलकारी बाई जो लक्ष्मीबाई की हमशक्ल थी को उसने अपनी सेना में प्रमुख स्थान दिया।1857 के सितम्बर तथा अक्टूबर के महीनों में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने सफलतापूर्वक इसे विफल कर दिया। 1858 के जनवरी माह में ब्रितानी सेना ने झाँसी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया। दो हफ़्तों की लड़ाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया। परन्तु रानी दामोदर राव के साथ अंग्रेज़ों से बच कर भाग निकलने में सफल हो गयी। रानी झाँसी से भाग कर कालपी पहुँची और तात्या टोपे से मिली।तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक क़िले पर क़ब्ज़ा कर लिया। बाजीराव प्रथम के वंशज अली बहादुर द्वितीय ने भी रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया और रानी लक्ष्मीबाई ने उन्हें राखी भेजी थी इसलिए वह भी इस युद्ध में उनके साथ शामिल हुए। 18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में ब्रितानी सेना से लड़ते-लड़ते रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु हो गई।
7. रानी दुर्गावती :-
रानी दुर्गावती भारत की एक वीर और साहसी गोंड शासिका थीं, जिन्होंने १५वीं सदी में मध्य प्रदेश के गढ़ा राज्य पर राज किया. उन्होंने अपने अल्पायु पुत्र के संरक्षक के रूप में कुशल प्रशासन संभाला और अपने राज्य को मुगलों से बचाने के लिए बहादुरी से युद्ध किया. अपने स्वाभिमान और मातृभूमि के प्रति समर्पण के लिए जानी जाने वाली रानी दुर्गावती ने दुश्मन के हाथों बंदी बनने के बजाय मरते दम तक लड़ने का फैसला किया. उनका बलिदान आज भी साहस और राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा देता है.
8. महारानी ताराबाई :-
कोल्हापूर करवीर संस्थापक अखंड सौभाग्यवती वज्रचुडे मंडित श्रीमंत महारानी ताराबाई राजाराम भोसले राजाराम महाराज की दूसरी पत्नी तथा छत्रपति शिवाजी महाराज के सरसेनापति हंबीरराव मोहिते की कन्या थीं। इनका जन्म 1675 में हुआ और इनकी मृत्यु 9 दिसंबर 1761 ई० को हुयी। महारानी ताराबाई का पूरा नाम ताराबाई भोंसले था। उन्हे ताराराणी या ताराऊ कहां जाता था। राजाराम की मृत्यु के बाद इन्होंने अपने 4 वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय का राज्यभिषेक करवाया और मराठा साम्राज्य की संरक्षिका बन गयीं। ताराबाई का विवाह छत्रपति शिवाजी महाराज के छोटे पुत्र राजाराम महाराज प्रथम के साथ हुआ राजाराम 1689 से लेकर 1700 में उनकी मृत्यु हो जाने के पश्चात ताराबाई मराठा साम्राज्य कि संरक्षिका बनी। और उन्होंने शिवाजी द्वितीय को मराठा साम्राज्य का छत्रपति घोषित किया और एक संरक्षिका के रूप में मराठा साम्राज्य को चलाने लगी उस वक्त शिवाजी द्वितीय मात्र 4 वर्ष के थे 1700 से लेकर 1707 ईसवी तक मराठा साम्राज्य की संरक्षिका उन्होंने औरंगजेब को बराबर की टक्कर दी और उन्होंने 7 सालों तक अकेले दम पर मुगलों से टक्कर ली और कई सरदारों को एक करके वापस मराठा साम्राज्य को बनाने के लिए बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
9. बेगम हज़रत महल :-
जिन्हें अवध की बेगम के नाम से भी जाना जाता है, अवध के नवाब वाजिद अली शाह की दूसरी पत्नी और 1857-1858 में अवध की शासक थीं। उन्हें 1857 के भारतीय विद्रोह के दौरान ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध विद्रोह में उनकी अग्रणी भूमिका के लिए जाना जाता है ।अपने पति के कलकत्ता निर्वासित होने और भारतीय विद्रोह भड़कने के बाद, उन्होंने अपने बेटे, राजकुमार बिरजिस क़द्र को अवध का वली (शासक) बनाया और उसकी अल्पायु के दौरान स्वयं उसकी रीजेंट बनीं। हालाँकि, थोड़े समय के शासनकाल के बाद उन्हें यह भूमिका छोड़नी पड़ी। हल्लौर के रास्ते , उन्हें अंततः नेपाल में शरण मिली , जहाँ 1879 में उनकी मृत्यु हो गई। विद्रोह में उनकी भूमिका ने उन्हें भारत के उत्तर- औपनिवेशिक इतिहास में एक नायिका का दर्जा दिया है।
10. पन्ना धाय :-
पन्नाधाय को सर्वोत्कृष्ट बलिदान के लिए जाना जाता है जिन्होंने अपने एकमात्र पुत्र का बलिदान देकर मेवाड़ राज्य के कुल दीपक उदयसिंह की रक्षा की थी। पन्ना धाय, राणा सांगा के पुत्र राणा उदयसिंह की धाय माँ थी। वह एक खींची चौहान राजपूत थी । इसी कारण उसे पन्ना खींचन के नाम से भी जाना गया है ।राणा साँगा के पुत्र उदयसिंह को माँ के स्थान पर दूध पिलाने के कारण पन्ना 'धाय माँ' कहलाई थी। रानी कर्णावती ने बहादुरशाह द्वारा चित्तौड़ पर हमले में हुए जौहर में अपना बलिदान दे दिया था और उदयसिंह के लालन पालन का भार पन्ना को सौंप दिया था।दासी पुत्र बनवीर चित्तौड़ का शासक बनना चाहता था। बनवीर एक रात महाराणा विक्रमादित्य की हत्या करके उदयसिंह को मारने के लिए उसके महल की ओर चल पड़ा। एक बारी ने पन्ना खींची को इसकी सूचना दी। पन्ना राजवंश और अपने कर्तव्यों के प्रति सजग थी व उस पर उदयसिंह की रक्षा का भार था । उसने उदयसिंह को एक बांस की टोकरी में सुलाकर उसे पत्तलों से ढककर एक बारी जाती की महिला साथ चित्तौड़ से बाहर भेज दिया। बनवीर को धोखा देने के उद्देश्य से अपने पुत्र को जो कि उदयसिंह की ही आयु का था, उदयसिंह के पलंग पर सुला दिया। बनवीर रक्तरंजित तलवार लिए उदयसिंह के कक्ष में आया और उसके बारे में पूछा। पन्ना ने उदयसिंह के पलंग की ओर संकेत किया जिस पर उसका पुत्र सोया था। बनवीर ने पन्ना के पुत्र को उदयसिंह समझकर मार डाला। पन्ना अपनी आँखों के सामने अपने पुत्र के वध को अविचलित रूप से देखती रही। बनवीर को पता न लगे इसलिए वह आंसू भी नहीं बहा पाई। बनवीर के जाने के बाद अपने मृत पुत्र की लाश को चूमकर राज कुमार उदयसिंह को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के लिए निकल पड़ी। उदयसिंह को लेकर मुश्किलों का सामना करते हुए कुम्भलगढ़ पहुँचे। कुम्भलगढ़ का क़िलेदार, आशा देपुरा था, जो राणा सांगा के समय से ही इस क़िले का क़िलेदार था। आशा की माता ने आशा को प्रेरित किया और आशा ने उदयसिंह को अपने साथ रखा। उस समय उदयसिंह की आयु 15 वर्ष की थी। मेवाड़ी उमरावों ने उदयसिंह को 1536 में महाराणा घोषित कर दिया और उदयसिंह के नाम से पट्टे-परवाने निकलने आरंभ हो गए थे । उदयसिंह ने 1540 में चित्तौड़ पर अधिकार किया। मेवाड़ के इतिहास में जिस गौरव के साथ प्रात: स्मरणीय महाराणा प्रताप को याद किया जाता है, उसी गौरव के साथ पन्ना धाय का नाम भी लिया जाता है, जिसने स्वामिभक्ति को सर्वोपरि मानते हुए अपने पुत्र चन्दन का बलिदान दे दिया था।
11. मातंगिनी हाजरा :-
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की एक वीर महिला थीं, जिन्हें "गांधी बुरी" के नाम से जाना जाता था. वह भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान एक जुलूस में तिरंगा थामे हुए ब्रिटिश पुलिस की गोलीबारी में शहीद हो गईं और उनके अंतिम शब्द "वंदे मातरम" थे, जो उनके साहस की मिसाल बने. मातंगिनी हाजरा का जन्म 19 अक्टूबर, 1869 को बंगाल के मिदनापुर जिले में हुआ था.कम उम्र में ही शादी होने के बाद, वह एक गरीब किसान परिवार में रहती थीं.गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित होकर, उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया. मिदनापुर में स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भागीदारी की प्रमुख हस्ती के रूप में, उन्हें उनके दृढ़ संकल्प और गांधीवादी मूल्यों के पालन के लिए "गांधी बुरी" कहा जाता था.नमक सत्याग्रह के दौरान उन्हें गिरफ्तार किया गया और जेल भेजा गया. 29 सितंबर, 1942 को, तामलुक पुलिस स्टेशन के सामने, उन्होंने तिरंगा लहराते हुए एक प्रदर्शन में नेतृत्व किया.ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें गोली मार दी, लेकिन उन्होंने तिरंगा नीचे नहीं गिरने दिया और "वंदे मातरम" के नारे लगाते हुए अपना बलिदान दे दिया.उनकी शहादत ने उन्हें भारत की वीर नारियों में शामिल कर दिया, जो स्वतंत्रता के लिए अदम्य साहस और दृढ़ता का प्रतीक हैं.
12. कनकलता बरुआ :-
भारत की स्वतन्त्रता सेनानी थीं जिनको अंग्रेजों ने 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय गोली मार दी। उन्हें 'बीरबाला' भी कहते हैं। वे असम की निवासी थीं। इन्हें पूर्वोत्तर भारत की 'लक्ष्मीबाई' भी कहते हैं।कनकलता का जन्म वर्तमान असम के बारंगबाड़ी गांव में कृष्णकांत बरूआ एवं कर्णेश्वरी के घर हुआ था। तीसरी कक्ष तक पढ़ाई करने के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी ताकि वे अपने छोटे भाई-बहनों की देख-रेख कर सकें। भारत छोड़ो आन्दोलन का दौर था। इस आन्दोलन के दौरान कनकलता मृत्यु- वाहिनी नामक दल में भर्ती हो गयीं जो गोहपुर उपमण्डल के युवक-युवतियों से निर्मित दल था और मरने से नहीं डरता था। 20 सितम्बर 1942 के दिन तेजपुर से 82 मील दूर गोहपुर थाने पर तिरंगा पफहराया जाना था। आंदोलनकारियों का जत्था ‘भारत माता की जय’ बोलता थाने की ओर बढ़ रहा था। तिरंगा थामे 18 वर्षीय नवयुवती जुलूस का नेतृत्व कर रही थी। इसी युवती का नाम था कनकलता बरूआ। थाना प्रभारी पी॰एम॰ सोम जुलूस को रोकने के लिए सामने खड़ा था। कनकलता ने कहा ‘‘हमारा रास्ता मत रोकिए, हम आपसे संघर्ष करने नहीं आए हैं। हम तो थाने पर तिरंगा फहराकर स्वतंत्राता की ज्योति जलाने आए हैं।’’ थाना प्रभारी ने कहा, ‘‘एक इंच भी आगे बढ़े तो गोलियों से उड़ा दिए जाओगे।’’
कनकलता शेरनी की तरह गरज उठी, ‘‘हम युवतियों को अबला समझने की भूल मत कीजिए। आत्मा अमर है, नाशवान है तो मात्रा शरीर। अतः हम किसी से क्यों डरें? तुम गोलियां चला सकते हो पर हमें कर्तव्य विमुख नहीं कर सकते।’’ ‘करेंगे या मरेंगे’, ‘स्वतंत्राता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।’’ नारे गुँजाती हुई थाने की ओर चल पड़ी शेरनी कनक, पीछे जुलूस । पुलिस ने जुलूस पर गोलियों की बौछार कर दी। पहली गोली कनकलता ने अपने सीने पर झेली। दूसरी गोली मुकुंद काकोती को लगी जो तत्काल ही शहीद हो गए। कनक गिर पड़ी किन्तु तिरंगा झुकने नहीं दिया। गोली की चिंता किए बिना आगे बढ़ तिरंगा पफहराने की होड़ लग गई। अंत में रामपति राजखोवा ने थाने पर झंडा फहरा दिया।
13. भीखाजी रुस्तम कामा :-
मैडम कामा , भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की प्रमुख हस्तियों में से एक थीं । उनका विवाह रुस्तम कामा से हुआ था, लेकिन वे भारत की स्वतंत्रता को अधिक महत्व देती थीं। उन्होंने 22 अगस्त, 1907 को स्वतंत्र भारत के ध्वज के शुरुआती संस्करणों में से एक को फहराया और वह स्टटगार्ट में अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में, किसी विदेशी राष्ट्र में भारतीय ध्वज फहराने वाली पहली व्यक्ति थीं। मैडम भीकाजी कामा एक पारसी परिवार में जन्मी भारतीय थीं, जो एक राष्ट्रवादी, नारीवादी और महिला अधिकारों की प्रबल समर्थक थीं। उन्होंने 1907 में जर्मनी के स्टटगार्ट में एक अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस में पहला भारतीय ध्वज फहराया था, जिसने भारत के वर्तमान राष्ट्रीयध्वज की रूपरेखा तैयार की। पेरिस में रहकर उन्होंने 'पेरिस इंडिया सोसाइटी' की स्थापना की और यूरोपीय देशों में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का प्रचार किया। 22 अगस्त 1907 को स्टटगार्ट में हुए अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में भारत का पहला झंडा फहराने वाली वह पहली भारतीय महिला थीं। इस ध्वज में आठ कमल, 'वंदे मातरम' और अर्धचंद्र-सूर्य जैसे प्रतीक थे। पेरिस में रहते हुए उन्होंने पेरिस इंडिया सोसाइटी की स्थापना की और भारत की स्वतंत्रता के लिए यूरोप के विभिन्न देशों में राजनीतिक लेखों और क्रांतिकारी साहित्य का प्रचार किया। प्लेग और अकाल के समय मुंबई में लोगों की मदद की और स्वयं भी प्लेग से पीड़ित हो गईं, जिसके बाद इलाज के लिए उन्हें ब्रिटेन भेजा गया। वह न केवल एक स्वतंत्रता सेनानी थीं, बल्कि महिला अधिकारों और सार्वभौमिक मताधिकार की भी सशक्त समर्थक थीं। ब्रिटिश सरकार द्वारा राष्ट्रवादी गतिविधियों में भाग न लेने की शर्त पर स्वदेश लौटने से इनकार करने के कारण उन्हें निर्वासित होना पड़ा।अधिक बीमार होने पर उन्होंने ब्रिटिश सरकार के साथ समझौता किया और 1935 में मुंबई लौट आईं।13 अगस्त 1936 को 74 वर्ष की आयु में मुंबई में उनका निधन हो गया। उपनिवेश-विरोधी गतिविधियों में शामिल होने के कारण उन्हें भारत से निर्वासित होना पड़ा। वे फ्रांस और इंग्लैंड सहित विभिन्न देशों में बस गईं।ब्रिटिश सरकार से क्षमादान मिलने के बाद वह 1935 में भारत लौट आईं।सरोजिनी नायडू भारतीय राजनीति और साहित्य जगत की एक प्रतिष्ठित हस्ती थीं, जिन्हें कभी-कभी "भारत कोकिला" भी कहा जाता था। उन्होंने नमक सत्याग्रह में अग्रणी भूमिका निभाई और बाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष (1925-26) बनीं, और ऐसा करने वाली पहली भारतीय महिला बनीं।
14.रानी वेलू नचियार :-
रामनाथपुरम के राजा चेल्लमुत्थू विजयरागुनाथ सेथुपति की इकलौती संतान रानी वेलु नचियार का जन्म 3 जनवरी, 1730 को हुआ था। रानी वेलू नचियार का पालन-पोषण एक राजकुमार की तरह हुआ। किसी भी राजा की तरह रानी वेलू नचियार को भी अस्त्र-शस्त्रों का पूरा ज्ञान था। मार्शल आर्ट, घुड़सवारी, तीरंदाजी, सिलंबम (स्टिक फाइट) में उन्हें बचपन में ही ट्रेनिंग मिल चुकी थी। रानी वेलू नचियार को न केवल हिंदी बल्कि तमिल, अंग्रेजी, फ्रेंच और उर्दू जैसी कई भाषाओं का पूरा ज्ञान था।अंग्रेजों को धूल चटाने के लिए रानी वेलू नचियार ने केवल महिलाओं की एक सेना बनाई थी,जिसका नाम उन्होंने रखा उदयाल । एक बहादुर महिला जिन्हें अंग्रेजों की चंगुल से बचने के लिए अपना सबकुछ पीछे छोड़ना पड़ा। उन्होंने इन आठ सालों के कठिन समय के दौरान अपनी महिला सेनाओं को विभिन्न प्रकार के युद्धों में प्रशिक्षित किया। इस दौरान रानी के विश्वासपात्र, मारुडू ब्रदर्स ने भी क्षेत्र में वफादारों के बीच एक सेना खड़ी करना शुरू कर दिया था।
आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।
(वॉट्सप नं.+919412300183)
No comments:
Post a Comment